Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
View full book text
________________
गा०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे सण्णियासो
२४७ १६७. हस्सस्स जह० पदे०संका० इत्थिवेदभंगो। णवरि रदीए णिय० तं तु विट्ठाणपदि० अणंतभागभ० असंखे भागःभ० । एवं रदीए । एवमरदिसोगाणं । एवं सत्तमाए । पढमाए जाव छट्टित्ति एवं चेव । णवरि अणंताणु०४ जह० पदे०संका० सम्म०असंका० । मिच्छ० णिय० अजह० असंखे०भागन्भ० । इत्थिवेद० जह० पदे०संका० मिच्छ०-बारसक०-अट्ठणोक० णिय० अजह० असंखे०भागाभ० । सम्मामि० णिय० अजह. असंखेगुणभ० । एवं णव॑सः ।
६१६८. तिरिक्ख-पंचितिरिक्खदुग० पढमपुढविभंगो । णवरि इत्थिवे०-णवुस० जह० पदे०संका० मिच्छ० सम्म०-सम्मामि०-अणंताणु०४ असंकाम० । जोणिणी पढमपुढविभंगो।
६१६६. पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज० सम्म० जह० पदे०संका० सोलसक०-णवणोक० णिय० अजह० असंखे०भागभ० । सम्मामि० णिय० अज० असंखे०भागभहि० । सम्मामि० जह० पदे०संका० सोलसक०-णवणोक० णिय० अज० असंखे भागभ० ।
६ १६७. हास्यके जघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीवका भङ्ग स्त्रीवेदके समान है। इतनी विशेषता है कि रतिके नियमसे जघन्य प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है और अजघन्य प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है । यदि अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है तो नियमसे अनन्त भाग अधिक या असंख्यात भाग अधिक द्विस्थानपतित अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। इसी प्रकार रतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । तथा इसी प्रकार अरति और शोककी मुख्यतासे भी सन्निकर्ष जानना चाहिए। इसी प्रकार सातवीं पृथिवीके नारकियोंमें जानना चाहिए। पहिली पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवी तकके नारकियोंमें भी इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशपता है कि इनमें अनन्तानुबन्धीचतुष्कका संक्रामक जीव सम्यक्त्वका असंक्रामक होता है। मिथ्यात्वके नियमसे असंख्यात भाग अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है । स्त्रीवेदके जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक जीव मिथ्यात्व, बारह कपाय और आठ नोकरायोंके नियमसे असंख्यात भाग अधिक अजंघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है । सम्यग्मिथ्यात्वके नियमसे असंख्यात गुण अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है । इसी प्रकार नपुंसकवेदको मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
६१६८. सामान्य तिर्यञ्च और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चद्विकमें पहली पृथिवीके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक जीव मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका असंक्रामक होता है। योनिनी तिर्यञ्चोंमें पहली पृथिवीके समान भङ्ग है।
६१६६. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें सम्यक्त्वके जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक जीव सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके नियमसे असंख्यात भाग अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है । सम्यग्मिश्यात्वके नियमसे असंख्यात भाग अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक जीव सोलह कपाय और नौ नोकषायोंके नियमसे असंख्यात भाग अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है।