Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा० ५८ ]
उत्तरपर्यापदेससंकमे सामित्तं
लड, तदो सागरोवमवेद्वावट्ठीओ अणुपालिद, तदो विसंजोएदुमाढत्तो तस्स अधापवत्तकरणचरिमसमए अणं । णुबंधीणं जहणणओ पदेससंकमो ।
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§ ७२. एत्थेइ दियजहण्गकम्मावलंबणं पयदसामियस्स खविदकम्मंसियत्तपदुप्पायणङ्कं । तसेसु तस्साणयणं संजम संजमा संजम - सम्मत्ताणंताणुबंधिविसंजोयणाकंडएहि बहुपोग्गल - गालङ्कं । चदुक्खुत्तो कसायोत्रसामणकरणं पि तदट्ठमेवे त्ति दट्ठव्वं । पुणो एवं दिएस पलिदो ० असंखे० भागमेत्तकालावणं पि उवसामयसमयपबद्धाणं तत्थतणट्ठिदिखंडयजणिदथूलयरगोवुच्छायारेणाधट्ठिदीए णिग्गालणङ्कं । तत्तो पुणो वि तसेसु आगमणन्भुवगमो सलहु सम्मतं पडवज्जावणफलो । तत्थाणंतारणुबंधिविसंजोयणं पि तेसिं णिस्ती - करणफलं । पुणो मिच्छत्तथावणमणंताणुबंधीणं विसंजोयणावसेणासन्भूदाणं संतकम्ममुप्पायणफलं । ण तदवलंबणस्स पयदाणुवजोगित्तमासंकणिज्जं, अणंतारणुबंधिचिराणसंतकम्मस्स णिम्मूलावणयणं काढूण पुणो मिच्छतं गयस्स अंतोमुहुत्तमेत्तणवकबंधसमयपबद्धेहिं सह सेसकसाएहिंतो तकालपडिच्छिददव्त्रं घेत्तूण पुणो सम्मत्तपडिलंभेण वेछावट्टिसागरोवमाणमणुपालणेण णिरुद्धदव्त्रस्स मुड्डु जहण्णीभावसंपादणाए पयदो जोगित्तसिद्धीदो । एवं वेछावट्टिसागरोवमाणि सन्मत्तमणुपालिय जहगीकयाणताणुबंधिकम्मो तदवसाणे
तक उसके साथ रहा । अनन्तर जब विसंयोजनाका आरम्भ करता है तब उसके अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें अनन्तानुबन्धियोंका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है ।
६ ७२. यहाँ पर प्रकृत स्वामी क्षपितकर्मशिक होता है इस बातका कथन करनेके लिए एकेन्द्रियसम्बन्धी जघन्य सत्कर्मका अवलम्बन किया है । संयम, संयमासंयम, सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धियोंके विसंयोजनाकाण्डकोंके द्वारा बहुत पुद्गलोंके गलानेके लिए उक्त जीवको सोंमें लाया गया है। तथा इसीलिए चार बार कषायका उपशम कराया गया है ऐसा जानना चाहिए । पुनः उपशामकसम्बन्धी समयप्रबद्धों के स्थितिकाण्डकोंसे उत्पन्न हुई स्थूलतर गोपुच्छाओंकी अधःस्थिति के द्वारा गलाने के लिए उसे एकेन्द्रियोंमें पल्यके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण काल तक रखा है । अनन्तर वहाँसे फिर भी त्रसों में आगमन के स्त्रीकार के फलस्वरूप अतिशीघ्र सम्यक्त्वको प्राप्त कराया है । तथा वहाँ पर अनन्तानुबन्धियोंकी विसंयोजना करानेका फल भी उनका निसत्त्व करना है । पुनः मिथ्यात्वमें स्थापित करनेका फल विसंबोजनाके वशसे असद्भावको प्राप्त हुए अनन्ताबन्धियोंके सत्कर्मको उत्पन्न करना है । यहाँ पर उसका अवलम्बन करना प्रकृतमें उपयोगी नहीं है। ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि अनन्तानुबन्धियोंके प्राचीन सत्कर्मका निर्मूल अपनयन करके पुनः मिथ्यात्वको प्राप्त हुए जीवके अन्तर्मुहूर्त प्रमाण नवकबन्धके समयप्रबद्धोंके साथ शेष कषायोंमेंसे तत्काल संक्रमित हुए द्रव्यको ग्रहणकर पुनः सम्यक्त्वके प्राप्त होनेसे और उसका दो छयासठ सागर काल तक पालन करनेसे विवक्षित द्रव्यके अत्यन्त जघन्यरूपसे सम्पादन करनेमें प्रकृतमें उपयोगीपनेकी सिद्धि होती है। इस प्रकार दो छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वका पालनकर जो अनन्तानुबन्धीकर्मको जघन्य करके उसके अन्तमें विसंयोजना करनेके लिए उद्यत हुआ है।
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