Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिअणुभागसं कमे! हाराणि
१५६
एदेसिं च परूवणा अणुभागविहत्तीए सवित्थरमगुगया त्ति रोह पुणो परूविज दे । संपहि एदेसिमसंखेज्जलोगमेत्तघादट्ठाणाणं बंधसमुप्पत्तियभावपडिसेहमुहेण संतकम्मसंकमट्ठाणत्तविहाणं कुणमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ
* ताणि संतकम्मट्ठाणाणि ताणि चैव संकमट्ठाणाणि ।
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§
५७६. ताणि समणंतरणिहिदुघादट्ठाणाणि संतकम्मट्ठाणाणि, हदसमुप्पत्तियसंतकम्मभावेणावट्ठिदाणं तब्भावा विरोहादो । ताणि चैव संकमट्ठाणाणि । कुदो ? तेसिमुप्पत्तिसमत रसमयप्प हुडि ओकडणादिवसेण संकमपञ्जायपरिणामे पडिसेहाभावादो । ताणि चेवे त्ति एत्थतणएवकारो ताणि संतकम्मसंकमट्ठाणाणि चेव, ण पुणो बंधट्टाणाणि ति अवहारणफलो । एवमेत्थंतरे घाद। णसंभवगयविसेसं पदुप्पाइय संपहि एतो हेमबंधट्ठा - पडिबद्धसंक मट्ठाणाणि परूवेमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ
* तदो पुणो बंधट्ठाणाणि संकमट्ठाणाणि च ताव तुल्लाणि जाव पच्छाणुपुव्वीए विदियमणंतगुणहीणबंधट्ठाणं ।
९ ५८०. तदो अतरणिद्द्घिाट्ठाणसमुप्पत्तिविसयादो हेट्टिमाणंतगुणहीणबंधद्वाणहुडि पुणो वि बंधट्टाणाणि संकमट्ठाणाणि च ताव सरिसाणि होदूण गच्छति जाव पच्छापुव्वी उड्डाणमेत्तमोसरिऊण विदियमणंतगुणहीणबंधट्टाणसंधिमपत्ताणि त्ति । कुदो ! तत्थ
हतसमुत्पत्तिकस्थानोंकी उत्पत्ति होनेमें कोई विरोध नहीं आता । इनकी प्ररूपणा अनुभागविभक्ति में विस्तारके साथ की गई है, इसलिए यहाँ पर पुनः प्ररूपणा नहीं करते । अब ये असंख्यात लोकप्रमाण घातस्थान बन्धसमुत्पत्तिकरूप नहीं होकर सत्कर्म और संक्रमस्थानरूप हैं इस बातका विधान करते हु का सूत्र कहते हैं
* वे सत्कर्मस्थान हैं और वे ही संक्रमस्थान हैं ।
§ ५७६. अनन्तर पूर्व कहे गये वे घातस्थान सत्कर्मस्थान हैं, क्योंकि वे हतसमुत्पत्तिक सत्कर्मरूपसे अवस्थित हैं, इसलिए उनके उन रूप होने में कोई विरोध नहीं आता । और वे ही संक्रमस्थान हैं, क्योंकि उत्पत्ति होनेके अनन्तर समयसे लेकर अपकर्षण आदिके वसे उनका संक्रमपर्यायरूपसे परिणमन करनेमें कोई प्रतिबन्ध नहीं है । 'ताणि चेव' इस प्रकार यहाँ पर जो एवकार है सो इस अवधारणका यह फल है कि वे सत्कर्मस्थान और संक्रमस्थान ही हैं । परन्तु बन्धस्थान नहीं हैं । इस प्रकार यहाँ पर अन्तरालमें घातस्थानों में सम्भव विशेषताका कथन करके ब यहाँसे नीचे बन्धस्थानोंसे सम्बन्ध रखनेवाले संक्रमस्थानोंका कथन करते हुए आगे सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
* वहाँ से लेकर पश्चादानुपूर्वीसे द्वितीय अनन्तगुणहीन बन्धस्थानके प्राप्त होने तक जितने बन्धस्थान और संक्रमस्थान प्राप्त होते हैं वे सब तुल्य होते हैं ।
५८०. 'तदो' अर्थात् अनन्तर पूर्व कहे गये घातस्थानसमुत्पत्तिविषयसे नीचे जो अनन्तहीन बन्धस्थान है उससे लेकर पुनर्राप बन्धस्थान और संक्रमस्थान तब तक सदृश होकर जाते