Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा०५८] उत्तरपयडिअणुभागसंकमे द्वाणाणि
१६१ मुप्पत्ती णत्थि ति वत्तव्वं । सुत्तेण विणा कथमेदं परिच्छिादे ? ण, सुत्ताविरुद्धपरमगुरुपरंपरागयविसिट्ठोवएसबलेग तदवगमादो । संपहि उत्तत्थविसयणिण्णयदढीकरणट्ठमुवसंहारवक्कमाह
* एवमणंतगुणहीणबंधट्ठाणस्स उवरिल्ले अंतरे असंखेज्जलोगमेत्ताणि घादट्ठाणणि भवंति पत्थि अपणम्मि।
६५८३. सुगममेदमुवसंहारवक्कं । णवरि अटुंकुव्वंकाणं विच्चालेसु चेव घादट्ठाणाणि होंति, णागत्थे त्ति जाणावणटुं 'णत्थि अण्णम्हि' ति भणिदं । एवमेदमुवसंहरिय संपहि बंध-संकमट्ठाणाणमण्गोण्णविसयावहारणक्कमपदंसणट्ठमिदमाह
* एवं जाणि बंधहाणाणि ताणि णियमा संकमट्ठाणाणि । ___६५८४. किं कारणं १ पुव्वुत्तेण णाएण सव्वेसिं बंधट्ठाणाणं संकमट्ठाणत्तसिद्धीए विरोहाभावादो।
* जाणि संकमट्ठाणाणि ताणि बंधहाणाणि वा ण वा ।
६ ५८५. कुदो ? बंधट्ठाणेहिंतो पुधमूदघादट्ठाणेसु वि संकमट्ठाणाणमणुबुत्तिदंसणादो।
समुत्पत्तिक संक्रमस्थानोंकी उत्पत्ति नहीं होती ऐसा कहना चाहिए।
शंका-सूत्रके बिना इस तथ्यका ज्ञान कैसे होता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि सूत्रके अविरोधी परम गुरुओंके परम्परासे आए हुए विशिष्ट उपदेशके बलंसे इस तथ्यका ज्ञान होता है।
अब उक्त विषयके निर्णयको दृढ़ करनेके लिए उपसंहाररूप सूत्रको कहते हैं- .
* इस प्रकार प्रत्येक अनन्तगुणहीन बन्धस्थानके उपरिम अन्तरालमें असंख्यात लोकप्रमाण धातस्थान होते हैं, अन्यमें नहीं।
६५८३. यह उपसंहार वचन सुगम है। इतनी विशेषता है कि अष्टांक और उर्वकोंके अन्तरालोंमें ही घातस्थान होते हैं, अन्यत्र नहीं होते इस बातका ज्ञान करानेके लिए 'एत्थि अण्णम्हि' यह वचन कहा है। इस प्रकार इसका उपसंहार करके अब बन्धस्थानों और संक्रमस्थानोंके परस्पर विषयका अवधारणक्रम दिखलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* इस प्रकार जो बन्धस्थान हैं वे नियमसे संक्रमस्थान हैं।
६५८४ क्योंकि पूर्वोक्त न्यायसे सब बन्धस्थानोंके संक्रमस्थानरूपसे सिद्धि होनेमें कोई विरोध नहीं आता।
* तथा जो संक्रमस्थान हैं वे बन्धस्थान हैं भी और नहीं भी हैं।
६५८५. क्योंकि बन्धस्थानोंसे पृथग्भूत घातस्थानों में भी संक्रमस्थानोंकी अनुवृत्ति देखी जाती है।