Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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१३८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ णवरि सुहमेइ दियपच्छायदस्स अणंतभागेण वडिदस्स तस्स जह० बड्डो। मणसिणी० पुरिस० छण्णोकभंगो । आणदादि णवगेवजा ति विहत्तिभंगो । णवरि सम्म०-अणंताणु० देवोघं । अणुदिसादि सबढे त्ति विहत्तिभंगो । णवरि सम्म० देवोघं । अणताणु० जह० हाणिसंकमो कस्स ? अण्णद० अणंताणु०चउक्क विसंजोएतस्स दुचरिमे अणुभागखंडए हदे तस्स जह० हाणी । तस्सेव से काले जहण्णयमवट्ठाणं । एवं जाव० ।
अप्पाबहुअं। ६५०७. सुगममेदमहियारसंभालणसुत्तं ।
सव्वत्थोवा मिच्छत्तस्स उपस्सिया हाणी ।
६५०८. एत्थ सम्बग्गहणेण मिच्छताणुभागसंकमविसयाणमुकस्सवडि-हाणिअवट्ठाणपदाणं गहणं कायव्वं, तेसु सव्वेसु सव्वेहितो वा थोवा उक्क० हाणी । सा च उक० हाणी उकसाणु०खंडयपमाणा । विशेषता है कि जिसने सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्यायसे आकर अनन्तभागवृद्धि की है वह जघन्य वृद्धिका स्वामी है । मनुष्यिनियोंमें पुरुषवेदका भङ्ग छह नोकषायोंके समान है। आनत कल्पसे लेकर नौ वेयक तकके देवोंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है । इतनी विशषता है कि सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है। इतनो विशेषता है कि सम्यक्त्वका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है । अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य हानिसंक्रमका स्वामी कौन है ? अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करनेवाला जो अन्यतर जीव द्विचरम अनुभागकाण्डकका घात कर देता है वह जघन्य हानिका स्वामी है। तथा वही अनन्तर समयमें जघन्य अवस्थानका स्वामी है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
विशेषार्थ—यहाँ पर आदेशसे स्वामित्वको समझनेके लिए इन बातों पर विशेषरूपसे ध्यान रखना चाहिए कि दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ मनुष्यत्रिकमें ही होता है, इसलिए सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य हानि और अवस्थान इन्हीं मार्गणाओंमें घटित होते हैं, गतिसम्बन्धी अन्य मार्गणाओंमें नहीं । यद्यपि मनुष्यत्रिकमें तो सम्यक्त्वकी हानि और अवस्थान दोनों बन जाते हैं। परन्तु गतिसम्बन्धी अन्य जिन मार्गणाओंमें कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि जीव मरकर उत्पन्न होता है उनमें इसकी केवल हानि ही बनती है और जिन मार्गणाओंमें कृतकृत्यवदकसम्यग्दृष्टि जीव मरकर नहीं उत्पन्न होता उनमें इसकी हानि भी नहीं बनती । शेष कथन स्पष्ट ही है।
* अब अल्पबहुत्वको कहते हैं। ६५०७. अधिकारकी सम्हाल करनेवाला यह सूत्र सुगम है। * मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट हानि सबसे स्तोक है।
६५०८. यहाँ पर सूत्रमें 'सर्व' पदके ग्रहण करनेसे मिथ्यात्वके अनुभागसंक्रमविषयक उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान इन तीनों पदोंका ग्रहण करना चाहिए। उन सबमें या उन सबसे उत्कृष्ट हानि सबसे स्तोक है और वह उत्कृष्ट हानि उत्कृष्ट अनुभागकाण्डकप्रमाण है।
१. ता०प्रतौ -मवट्टाणं ।.........एवं' इति पाठः ।