Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
View full book text
________________
[ बंधगो ६
* जहणणयं ।
$ ५१३. उकस्सप्पा बहुअसमत्तिसमणंतरमिदाणिं जहण्णयमप्पाबहुअं वण्णइस्सामो त्ति पइण्णामुत्तमेदं ।
* मिच्छत्तस्स जहषिणया वड्डी हाणी अवट्ठाणसंकमो च तुल्लो । 8 ५१४. कुदो ? तिन्हमेदेसिं सुहुमहदसमुप्पत्तियजहण्णाणुभागस्स अनंतिमभागे बिद्धतादो |
१४०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
* एवमकसायाणं ।
५१५. जहा मिच्छत्तस्स जहण्णवढि हाणि अवड्डाणाणमभिण्णत्रिसयाणं सरिसतमेवमेदेसि पि कम्माणं दट्ठव्त्रं ।
* सम्मत्तस्स सव्वत्थोवा जहरिणया हाणी ।
९ ५१६. कुदो ? अणुसमयोवट्टणाए पत्तघादसम्मत्ताणुभागस्स समयाहियावलियअक्खीणदंसणमोहणीयम्मि जहण्णहाणिभावमुवगयस्स सव्वत्थोवत्ते विरोहाणुवलंभादो |
* जहएणयमवद्वाणमणंतगुणं ।
५१७ कुदो ? अणुसमयोवट्टणापारंभादो पुत्रमेव चरिमाणुभागखंडयविसए जहण्णभावमुवगयत्तादो |
* अब जघन्य अल्पबहुत्वको कहते हैं ।
§ ५१३. उत्कृष्ट अल्पबहुत्वकी समाप्तिके बाद अब जघन्य अल्पबहुत्वको बतलाते हैं इस प्रकार यह प्रतिज्ञासूत्र है । .
* मिथ्यात्वकी जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थानसंक्रम तुल्य है । § ५१४. क्योंकि ये तीनों सूक्ष्म एकेन्द्रियसम्बन्धी हतसमुत्पत्तिक जघन्य अनुभागके अनन्त भागमें प्रतिबद्ध हैं ।
* इसी प्रकार आठ कषायोंके जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान संक्रमका अल्पबहुत्व जानना चाहिए ।
५१५. जिस प्रकार मिध्यात्वके अभिन्न विषयवाले जघन्य बृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान समान हैं उसी प्रकार इन कर्मों के भी जानने चाहिए ।
* सम्यक्त्वकी जघन्य हानि सवसे स्तोक है ।
५१६. क्योंकि प्रतिसमय होनेवाली अपना के द्वारा घातको त हुआ सम्यक्त्वका अनु भाग दर्शनमोहनीयकी क्षपणा में एक समय अधिक एक आवलि कालके शेष रहने पर जघन्यपनेको प्राप्त हो जाता है, इसलिए उसके सबसे स्तोक होनेमें विरोध नहीं पाया जाता ।
* उससे जघन्य अवस्थान अनन्तगुणा है ।
§ ५१७. क्योंकि प्रति समय होनेवाली अपवर्तना के प्रारम्भ होनेके पूर्व ही अन्तिम अनुभागकाण्डकमें इसका जघन्यपना उपलब्ध होता है ।