Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा० ५८ ]
उत्तरपयभागसंकमे पदणिक्खेवे अप्पा बहु
* वड्डी अवद्वाणं च विसेसाहियं ।
$ ५०६. उकस्सर्वाड्डि-अत्रट्ठाणाणि समाणविसयसामित्तेण तुल्लाणि होदूण तत्तो विसेसाहियाणि त्ति वृत्तं होइ । कुदो वुण तत्तो एदेसिं विसेसाहियणिच्छयो ? ण, वडिदाणुभागस्स णिरवसेसघादणसत्तीए असंभवेण तत्रिणिच्छयादो खेदमसिद्धं पुत्रमप्यावहुअसाहसामित्तमुपविट्ठपदावभवलेण तव्विणिण्णयसिद्धीदो ।
* एवं सोलसकसाय-एवणोकसायाणं ।
$ ५१०. सुगममेदम पण सुत्तं, विसेसाभावमस्सिऊण पयट्टत्तादो ।
* सम्मत्त-सम्म मिच्छत्ताणमुक्कस्सिया हाणी अवद्वाणं च सरिसं । ९ ५११. कुदो ? उकस्सहाणीए चेव उक्कस्सावडा एसा मित्तदंसणादो । वोघो समत्तो ।
५१२. आदेसेण विहत्तिभंगो ।
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एवमुकस्सप्पाबहुअं समत्तं ।
* उससे उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थान विशेष अधिक हैं ।
६ ५०६. उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थान स्वामीके समान होनेसे तुल्य होकर भी उत्कृष्ट हानिसे विशेष अधिक हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
शंका-उससे ये विशेष अधिक हैं इसका निश्चय कैसे होता है ?
हुआ है।
समाधान — नहीं, क्योंकि बड़े हुए अनुभागका पूरी तरहसे घात करनेकी शक्ति न होनेसे उत्कृष्ट हानिसे ये दोनों विशेष अधिक हैं इसका निश्चय होता है और यह असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि पहले अल्पबहुत्वकी सिद्धि करनेके लिए स्वामित्व सूत्र में कहे गये अर्थपदके अवलम्बन करनेसे उक्त विषय के निश्चयकी सिद्धि होती है ।
* इसी प्रकार सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी जानना चाहिए ।
§ ५१०. यह अर्पणासूत्र सुगम है, क्योंकि विशेषके अभाव के आश्रयसे यह सूत्र प्रवृत्त
* सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट हानि और अवस्थान सदृश हैं ।
$ ५११. क्योंकि उत्कृष्ट हानिके होने पर ही उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामित्व देखा जाता है । इस प्रकार ओघ प्ररूपणा समाप्त हुई ।
५१२. आदेश अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है ।
विशेषार्थ — अनुभ. गविभक्तिमें आदेशसे सब प्रकृतियोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थानका जिस प्रकार अल्पबहुत्व कहा है उसी प्रकार यहाँ पर भी उसका कथन करना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
इस प्रकार उत्कृष्ट अल्पबहुत्व समाप्त हुआ ।