Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिअणुभागसंक मे पद क्खेि सामित्त
१२३
* सरिणपाओग्गजहए गए अणुभागसंक्रमेण अच्छिदो उक्कस्ससंकिलेसं गदो तदो उक्कस्सयमणुभागं पबडो तस्स आवलियादीदस्स उक्कस्सिया वड्ढी |
§ ४५७, एत्थं सण्णिपाओग्गजहण्णाणुभाग संकमविसेसणमेड दिया दिपाओग्गजहण्गाणुभागसंकमपडिसेहट्ठ ं । किमड तप्पडिसेहो कीरदे ? ण, तदवस्थापरिणामस्स उकस्सारणुभागबंधविरोहित्तादो | उक्कस्ससंकिलेसं गदो ति णिद्देसेणाणुकस्ससंकिलेसपरिणामपडिसेहो कओ । किं फलो तप्पडिसेहो ? ण, उक्कस्ससंकिलेसेण विणा उकस्सारणुभागबंधोण होदि ति जाणवणफलता दो । एदस्सेव फुडीकरणडुमिदं वुच्चदेतदो उक्कस्सयमणुभागं पत्रद्धोति । तदो उकस्ससंकिलेस परिणामादो उकस्साणुभागं पजवसाणाणुभागबंधट्टाणं बंधिदुमाढत्तो ति
होदि | उकस्सा भागबंधपढमसमए चैत्र संकमपाओग्गभावो णत्थि, किंतु धावलियादीदस्स चैव होइ ति पदुपायणमिदमाह — तस्स आवलियादीदस्स उकस्सिया बढि ि एत्थ पिमाणमसंखेज लोगमेत्ताणि छट्टाणाणि अनंतर हेडिमसमय तप्पा ओग्गजहण्णचउणाणुभागसंकमे उकस्साणुभागबंधम्मि सोहिदे सुद्ध से सम्मि तप्पमाणदंसणा दो । एवमुकस्स
* संज्ञियोंके योग्य जघन्य अनुभागसंकमके साथ स्थित हुआ जो जीव उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होकर उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, बन्धसे एक आवलिके बाद वह उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है ।
४५७. यहाँ पर सूत्र में जो संज्ञियोंके योग्य जघन्य अनुभागसंक्रमरूप विशेषरण दिया है वह एकेन्द्रियादि जीवोंके योग्य जवन्य अनुभागसंक्रमका निषेध करनेके लिए दिया है । शंका-उसका निषेध किसलिए करते हैं ?
समाधान— नहीं, क्योंकि उस प्रकारकी अवस्थासे युक्त परिणाम उत्कृष्ट अनुभागबन्धका विरोधी है ।
सूत्र में 'उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुआ' इस प्रकारके निर्देशद्वारा अनुत्कृष्ट संक्लेशरूप परिणामका निषेध किया ।
शंका-उसके निषेधका क्या फल है ?
समाधान नहीं, क्योंकि उत्कृष्ट संक्लेशके बिना उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध नहीं होता है इस बातका ज्ञान कराना उसका फल है ।
पुनः इसी बात स्पष्ट करने के लिए 'उससे उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध किया' यह वचन कहा है । 'तदो' अर्थात् उत्कृष्ट संक्लेशरूप परिणाम से उत्कृष्ट अनुभागको अर्थात् अन्तिम अनुभागवन्धस्थानको बाँधने के लिए प्रारम्भ किया यह उक्त कथनका तात्पर्य है । उत्कृष्ट अनुभागवन्धके प्रथम समयमें ही संक्रमके योग्य कर्म नहीं होता । किन्तु बन्धावलिके व्यतीत होने पर ही वह संक्रमके योग्य होता है इस बातका कथन करनेके लिए 'एक प्रावलि व्यतीत होने के बाद उसकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है' यह वचन कहा है । यहाँ पर वृद्धिका प्रमाण असंख्यात लोकप्रमाण छह स्थान हैं, क्योंकि अनन्तर अधस्तन समयके तत्प्रायोग्य जघन्य चतुःस्थान अनुभागसंक्रमको उत्कृष्ट अनुभागबन्धसे घटा देने पर शेष बचे हुए अनुभाग में असंख्यात लोकप्रमाण छह स्थान देखे जाते हैं । इस प्रकार