Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिअणुभागसंकमे पदणिक्खेवे सामित्त
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* तप्पात्रोग्गजहणणाणुभागसंकमादो उक्कस्ससंकिलेसं गंतूण जं बंधदि सो बंध बहुगो ।
§ ४६१. कत्तो एदस्स बहुत्तं विवक्खियं ? उवरि भणिस्समाणाणुभागखंडयायामादो । * जमणुभागखंडयं गेण्हइ तं विसेसहोणं ।
§ ४६२. केत्तियमेत्तेण १ तदणंतिमभागमेत्तेण । कुदो ? विदारणुभागस्स णिरवसेसघादसत्तीए असंभवादो ।
* एदमप्पाबहुत्रस्स साहणं ।
§ ४६३. एदमणंतरपरूविदमुकस्सबंधवुडीदो उक्कस्सा णुभा गखंडयसिसेसहीणत्तमुवरि भणिस्समाणमप्पा बहुअस्स साहणं, अण्णहा तण्णिष्णयोवायाभावादो त्ति भणिदं होइ । * एवं सोलसकसाय- एवणोकसायाणं ।
९ ४६४. जहा मिच्छत्तस्स तिण्हमुक्कस्सपदाणं सामित्तविणियो कओ एवमेदेसि पि कम्माणं कायव्त्रो, विसेसाभावादो ।
* सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्सिया हाणी कस्स ?
४६५. सुगमं ।
* तत्प्रायोग्य जघन्य अनुभागसंक्रमसे उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त करके जिसका बन्ध करता है वह बहुत है ।
६४६१. शंका — किससे इसका बहुत्व विवक्षित है ?
समाधान-गे कहे जानेवाले अनुभागकाण्डक के आयामसे इसका बहुत्व विवक्षित है । * उससे जिस अनुभागकाण्डकको ग्रहण करता है वह विशेष हीन है ।
६४६२. कितना हीन है ? उसका अनन्तवाँ भाग हीन है, क्योंकि वृद्धिको प्राप्त अनुभागका पूरी तरह से घात करनेरूप शक्तिका होना असम्भव है ।
* यह वक्ष्यमाण अल्पबहुत्वका साधक है ।
९ ४६३. यह जो पहले उत्कृष्ट बन्धवृद्धि से उत्कृष्ट अनुभागकाण्डकविशेषकी हीनता कही है सो वह आगे कहे जानेवाले अल्पबहुत्वका साधक है, अन्यथा उनका निर्णय नहीं हो सकता यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
* इसी प्रकार सोलह कषाय और नौ नोकवायोंकी उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी जानना चाहिए ।
६ ४६४. जिस प्रकार मिध्यात्व के तीन उकृष्ट पदोंके स्वामीका निर्णय किया उसी प्रकार इन कभी उक्त पदों के स्वामीका निर्णय करना चाहिए, क्योंकि इनके स्वामित्वके निर्णय करनेमें अन्य कोई विशेषता नहीं है ।
* सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? ४६५. यह सूत्र सुगम है ।