Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ * परूवणाए सव्वेसिं कम्माणमत्थि उक्कस्सिया वढी हाणी अवट्ठाणं ।
जहपिणया वड्डी हाणी अवठ्ठाणं । ६ ४५३. एदाणि दो वि सुत्ताणि सुगमाणि , एवं सव्यकम्मविसयत्तेण परविदजहण्णकस्सबड्डि-हाणि-अवट्ठाणाणमविसेसेण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तेसु वि अइप्पसंगे तत्थ पट्टिसंकमाभावपदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तमाह
ॐ वरि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं वड्डी पत्थि। ६४५४. कुदो ? तदुभयाणुभागस्स वड्डिविरुद्धसहावत्तादो । तम्हा जहण्णुक्कस्सहाणिअवट्ठाणाणि चेत्र सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमथि त्ति सिद्धं । एवमोघेण परूवणा समत्ता । आदेसेण सव्वमग्गणासु विहत्तिभंगो । संपहि सामित्तपरूवणट्ठमुवरिमो सुत्तपबंधो
* सामित्तं ।
६४५५. सुगममेदमहियारसंभालणवयणं । तं च सामित्तं दुविहं जहण्णकस्सपदविसयभेएण । तस्सुक्कस्सपदविसयमेव ताव सामित्तणिदेसं कुणमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ
मिच्छत्तस्स उक्कस्सिया वड्डी कस्स ? ६४५६. सुगममेदं पुच्छासुत्तं।
* प्ररूपणाकी अपेक्षा सब कर्मों की उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान है।
* तथा सब कर्मो की जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अप्रस्थान है । ६४५३. ये दोनों सूत्र सुगम हैं । इस प्रकार सब कर्मो के विषयरूपसे कहे गये जघन्य और उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थानका सामान्यसे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके विषयमें भी अतिप्रसङ्ग होने पर वहाँ वृद्धिसंक्रमके अभावका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* मात्र इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्र और सम्यग्मिथ्यात्वको वृद्धि नहीं होती।
६४५४. क्योंकि उन दोनोंका अनुभाग वृद्विके विरुद्ध स्वभाववाला है। इसलिए सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान तथा उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान ही होते हैं यह सिद्ध हुआ। इस प्रकार ओघसे प्ररूपणा समाप्त हुई। आदेशसे सब मार्गणाओंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है । अब स्वामित्वका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* अब स्वामित्वको कहते हैं।
६४५५. अधिकारकी सम्भाल करनेवाला यह वचन सुगम है। जघन्य और उत्कृष्टपदोंको विषय करनेरूप भेदसे वह स्वामित्व दो प्रकारका है। उनमें से उत्कृष्ट पदविषयक स्वामित्वका ही सर्व प्रथम निर्देश करते हुए भागेका सूत्र कहते हैं
* मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? ६४५६. यह पृच्छासूत्र सुगम है ।