Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
* अणताणुबंधीणमवट्ठिदसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होइ ?
९४०३. सुगमं ।
* जहणणेण एयसमओ । ४०४. एदं पि सुगमं ।
[ बंधगो ६
* उक्कस्सेण वेछावद्विसागरोवमाणि सादिरेयाणि ।
९४०५. सुगमं । एवमोघो समत्तो । आदेसेण सव्वगहमग्गणावयवेसु विहत्तिभंगो । वरि मणुसतिए बारसक० - वणोक० अवत्त० जह० अंतोमु०, उक्क० पुत्रको डिपुधत्तं । * णाणाजीवेहि भंगविचओ ।
४०६. सुगमं ।
* मिच्छत्तस्स सव्वे जीवा भुजगारसंकामया च अप्पयरसंकामया च अवट्ठिदसंकामया च ।
१४०७. मिच्छत्तभुजगारादिपदाणं तिण्हमेदेसिं संकाम्या णाणाजीवा णियमा अस्थि ति सुत्तत्थसंबंधो । कुदो वुण सव्वद्धमेदेसिमत्थित्तणियमो ? अनंतजीवरासिविसयत्तेण पडिवोच्छेदामाबादो |
* अनन्तानुबन्धियोंके अवस्थित संक्रामकका अन्तरकाल कितना है ? ९४०३. यह सूत्र सुगम है ।
* जघन्य अन्तर एक समय है ।
६४०४. यह सूत्र भी सुगम है ।
* उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छ्यासठ सागरप्रमाण है ।
६४०५. यह सूत्र सुगम है। इस प्रकार प्ररूपणा समाप्त हुई । आदेशसे सब गति सबन्धी अवान्तर भेदोंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि मनुष्यत्रिक में are कषाय और नौ नोकषायोंके वक्तव्यसंका मकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्वप्रमाण है ।
विशेषार्थ – कर्मभूमि के मनुष्यत्रिककी उत्कृष्ट कायस्थिति पूर्वकोटिपृथक्त्व प्रमाण है । इसलिए इसका प्रारम्भ और अन्तमें दो बार उपशमश्र णि पर चढ़ाने और उतारनेसे बारह कषाय और नौ नोकषायके वक्तव्यपदका मनुष्यत्रिकमें उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त हो जाता है । शेष कथन स्पष्टी
* अब नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचयको कहते हैं ।
९४०६. यह सूत्र सुगम है ।
* मिथ्यात्वके भुजगारसंक्रामक, अल्पतरसंक्रामक और अवस्थितसंक्रामक नाना जीव नियमसे हैं ।
४०७. मिथ्मात्वके भुजगार आदि इन तीनों पदोंके संक्रामक नाना जीव नियमसे हैं ऐसा यहाँ पर सूत्रार्थका सम्बन्ध करना चाहिए ।