Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा० ५८] उत्तरपयडिअणुभागसंकमे भुजगारसंकमस्स णाणाजीवेहिं अंतरं ११७
६ ४२७. एत्तो उवरि णाणाजीवविसेसिदमंतरं परूवेमो त्ति पइण्णासुत्तमेदं ।।
ॐ मिच्छत्तस्स गाणाजीवेहि भुजगार-अप्पयर-अवहिदसंकामयाणं पत्थि अंतरं।
६४२८. कुदो ? सबद्धा त्ति कालणिद्देसेण णिरुद्धंतरपसरत्तादो।
8 सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमप्पयरसंकामयंतरं केवचिर कालादो होइ?
४२६. सुगममेदं पुच्छासुत्तं ।
जहएणेण एयसमो, उक्कस्सेण छम्मासा। ६४३०. कुदो १ दंस गमोहक्खवयाणं जहण्णकस्सविरहकालस्स तप्पमाणत्तोवएसादो।
ॐ अवहिदसंकामयाणं णत्थि अंतर। ६ ४३१. कुदो ? सव्वकालमेदेसि वोच्छेदाभावादो।
ॐ अवत्तव्वसंकामयंतर जहएणेण एयसमझो, उक्कस्सेण चउवीसमहोरत्ते सादिरेगे।
४३२. कुदो ? णिस्संतकम्मियमिच्छाइट्ठीणमुवसमसम्मत्तग्गहणविरहकालस्स जहण्णुकस्सेण तप्पमाणत्तोवएसादो ।
६४२७. इससे आगे नाना जीवोंसे विशेषित करके अन्तरका कथन करते हैं इस प्रकार यह प्रतिज्ञासूत्र है।
* नाना जीवोंकी अपेक्षा मिथ्यात्वके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदके संक्रामकोंका अन्तरकाल नहीं है।
६४२८. क्योंकि मि यात्वके इन पदोंके संक्रामक जीव सर्वदा पाये जाते हैं । इस प्रकार कालका निर्देश करनेसे इनके अन्तरका निषेध हो जाता है।
* सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अल्पतरसंक्रामकोंका अन्तरकाल कितना है ? ६४२६. यह पृच्छासूत्र सुगम है । * जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है।
६ ४३०. क्योंकि दर्शनमोहनीयके क्षपकोंका जघन्य और उत्कृष्ट विरहकाल तत्प्रमाण उपलब्ध होता है।
* अवस्थितसंक्रामकोंका अन्तरकाल नहीं है। ६४३१. क्योंकि इनका सर्वदा विच्छेद नहीं होता।
* अवक्तव्यसंक्रामकोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौवीस दिन-रात है।
६४३२. क्योंकि इनकी सत्तासे रहित मिथ्यादृष्टियोंके उपशमसम्यक्त्वका विरहकाल जघन्व और उत्कृष्टरूपसे उक्त कालप्रमाण पाया जाता है।