Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा ५८] उत्तरपयडिअणुभागसंकमे भुजगारसंकमस्स णाणाजीवेहिं भंगविचओ ११३
* सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं णव भंगा। ६४०८. कुदो ? तदवट्ठिदसंकामयाणं धुवत्तेणअप्पयरावत्तव्ययाणं भयणिजंतदंसणादो।
ॐ सेसाणं कम्माणं सव्वजीवा भुजगार-अप्पयर-अवढिदसंकामया। ६४०६. कुदो ? तिण्हमेदेसि पदाणं धुवभाषित्तदसणादो।
8 सिया एदे च अवत्तव्वसंकामो च, सिया एदे च अवत्तव्वसंकामया च।
६४१०. कुदो ? पुबिल्लधुवपदेहिं सह कदाइमवत्तव्यसंकामयजीवाणमेगाणेगसंखाविसेसिदाणमद्धवभावेण संभवोवलंभादो। एवमोघेण भंगविचयो परूविदो। आदेसेण सामग्गणासु विहत्तिभंगो।
शंका-मिथ्यात्वके इन तीन पदवालोंके सर्वदा सद्भावका नियम कैसे है ?
समाधान—क्योंकि मिथ्यात्वके इन पदोंको करनेवाली अनन्त जीवराशि है, इसलिए उसका विच्छेद नहीं होता।
* सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके नौ भङ्ग हैं।
६४०८. क्योंकि इनके अवस्थितसंक्रामक ध्रुव होनेके साथ अल्पतर और अवक्तव्यपद भजनीय देखे जाते हैं।
विशेषार्थ—यहाँ पर अवस्थितपदकी अपेक्षा प्रत्येक संयोगी एक भङ्ग, अवस्थितपदके साथ दो पदोंमेंसे अन्यतरके संयोगसे द्विसंयोगी चार भङ्ग और त्रिसंयोगी चार भङ्ग ऐसे कुल नौ भङ्ग ले
आना चाहिए । मात्र सर्वत्र अवस्थित पदसे युक्त नाना जीव ध्रुव रखने चाहिए। तथा शेष पदोंके एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा प्रत्येकके दो दो भङ्ग मिलाना चाहिए।
* शेष कमों के भुजगोरसंक्रामक, अल्पतरसंक्रामक और अवस्थितसंक्रामक नाना जीव नियमसे हैं।
६४०६. क्योंकि ये तीनों पद ध्रुव देखे जाते हैं।
* कदाचित् इन तीनों पदोंके संक्रामक नाना जीव हैं और अबक्तव्यपदका संक्रामक एक जीव है । कदाचित् इन तीनों पदोंके संक्रामक नाना जीव हैं और अवक्तव्यपदके संक्रामक नाना जीव हैं।
६४१०. क्योंकि पहलेके ध्रवपदोंके साथ कदाचित् एक और अनेक संख्याविशिष्ट अवक्तव्य संक्रामकोंका अध्रुवरूपसे सद्भाव उपलब्ध होता है। इस प्रकार ओघसे भंगविचयका कथन किया। आदेशसे सब मार्गणाओंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है।
विशेषार्थ—यहाँ पर आदेशसे यद्यपि सब मार्गणाओंमें अनुभागविभक्तिके समान जाननेकी सूचना की है। फिर भी मनुष्यत्रिकमें ओघके समान ही जानना चाहिए। शेष कथन स्पष्ट है।