Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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१८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंध गो 8३४२. सुगम ।
* अण्णदरो।
६ ३४३. एसो अण्णदरणिदेसो मिच्छाइट्ठि-सम्माइट्ठीणमण्णदरग्गहणट्ठो, तत्थोभयत्थ वि पयदसामित्तस्स विप्पडिसेहाभावादो । तदो मिच्छाइद्री सम्माइट्ठी वा मिच्छत्तअप्पदरावद्विदाणं सामी होइ ति सिद्धं ।
अवत्तव्वसंकामो पत्थि। ३४४. कुदो ? मिच्छत्तस्स सव्वकालमसंकमादो संकमसमुप्पत्तीए अणुवलंभादो । * एवं सेसाणं कम्माणं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तवजाणं ।।
४३४५. जहा मिच्छत्तस्स भुजगारादिपदाणं सामित्तविहाणं कदमेवं सेसकम्माणं पि कायव्वं, विसेसाभावादो। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमिह पडिसेहो तत्थ विसेसंतरसंभवपदुप्यायणफलो। सो च विसेसो भणिस्समाणो। एत्थ वि थोषयरो विसेसो अत्थि ति जाणावणद्वमुत्तरसुत्तमाह
ॐ णवरि अवत्तव्वगो चअत्थि। ६ ३४६. वारसक०–णवणोकसायाणमुवसमसेढीए अणंताणुबंधीणं च विसंजोयणा
६ ३४२. यह सूत्र सुगम है। * अन्यतर जीव होता है।
६३४३. सूत्रमें यह 'अन्यतर' पदका निर्देश मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि इनमेंसे अन्यतर जीवके ग्रहणके लिए आया है, क्योंकि उन दोनोंमें ही प्रकृत स्वामित्वका निषेध नहीं है। इसलिए मिश्यादृष्टि या सम्यग्दृष्टि कोई भी मिथ्यात्वके अल्पतर और अवस्थितसंक्रमोंका स्वामी है यह सिद्ध हुआ।
* मिथ्यात्वका अवक्तव्यसंक्रामक नहीं है।
६ ३४४. क्योंकि मिथ्वात्वकी सदाकाल असंक्रमरूप अवस्थासे संक्रमकी उत्पत्ति नहीं उपलब्ध होती।
* इसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको छोड़कर शेष कर्मों का स्वामित्व जानना चाहिए।
६३४५. जिस प्रकार मिथ्यात्वके भुजगार आदि पदोंके स्वामित्वका कथन किया है उसी प्रकार शेष कर्मों का भी करना चाहिए, क्योंकि मिथ्यात्वके स्वामित्व कथनसे इन कर्मोके स्वामित्व कथनमें कोई विशेषता नहीं है । यहाँ पर जो सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका निषेध किया है सो इन दोनों प्रकृतियोंमें विशेष फरक सम्भव है इतना कथन करना इसका फल है। और वह जो फरक है उसे आगे कहेंगे । यहाँ पर स्तोकतर विशेष है इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* इतनी विशेषता है कि इनका अवक्तव्यसंक्रामक भी होता है । ६३४६. क्योंकि बारह कपाय और नौ नोकषायोंका उपशमणिमें तथा अनन्तानुबन्धियोंका