Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ ६ १९६. कुदो! मिच्छत्तेण समाणसामियत्ते वि विसेसपच्चयवसेणेदेसिमणुभागस्स तत्थ जहण्णोजहण्णभावसिद्धीए विरोहाभावादो।
ॐ जहएणादो अजहएणं छट्ठाणपदिदं ।
६१६७. एत्थ छट्ठाणपदिदमिदि वुत्ते कत्थ वि जहण्णादो अणंतभागभहियं, कत्थ वि असंखेजभागब्भहियं, कत्थ वि संखेज्जभागभहियं, कत्थ वि संखेजगुणब्भहियं, कत्थ वि असंखेजगुणब्भहियं, कल्थ वि अणंतगुणब्भहियं च अजहण्णाणुभाग: संकामेदि ति घेत्तव्यं, अंतरंगपच्चयवसेण जहण्णभावपाओग्गविसए वि पयदवियप्पाणमुप्पत्तीए पडिबंधाभावादो।
_ सेसाणं कम्माणं णियमा अजहणणं । जहण्णादो अजहण्णमणतगुणभहियं ।
६ १६८. वृत्तसेसकसाय-णोकसायाणमिह म्गहण8 सेसकम्मणिदेसो। तेसिमेत्थ जहाणभावसंभवारेयणिरायरण8 णियमा अजहण्णवयणं । तत्थ वि अणंतभागभहियादिवियप्पसंभवणिरायरणट्ठमणतगुणब्भहियणिदेसो कदो। कुदो वुण तदणंतगुणब्भहियत्तमिदि णासंकणिजं, विसंजोयणाणुपुचसंजोगे खवणाए च लद्धजहण्णभावाणमणंताणुवंधियादीणमेस्थाणतगुणत्तसिद्धीए पडिसेहाभावादो।
१६६. क्योंकि इनके जघन्य अनुभागके संक्रमका स्वामी मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागके संक्रमके स्वामीके समान है तो भी विशेष प्रत्ययवश वहाँ पर इनका अनुभाग जघन्य भी सिद्ध होता है और अजघन्य भी सिद्ध होता है, इसमें कोई विरोध नहीं आता।
* यदि अजघन्य अनुभागका संक्रामक होता है तो जघन्यकी अपेक्षा छह स्थान पतित अजघन्य अनुभागका संक्रामक होता है।
६ १६७. यहाँ पर छह स्थानपतित ऐसा कहने पर जघन्यसे कहीं पर अनन्तवें भाग अधिक, कहीं पर असंख्यातवें भाग अधिक, कहीं पर संख्यातवें भाग अधिक, कहीं पर संख्यातगुणे अधिक, कहीं पर असंख्यातगुणे अधिक और कहीं पर अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागका संक्रामक होता है ऐसा यहाँ पर ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि अन्तरङ्ग कारण वश जघन्य अनुभागके योग्य स्थानमें भी प्रकृत विकल्पोंकी उत्पत्ति होनेमें कोई प्रतिबन्ध नहीं है।
* शेष कर्मों के नियमसे अजघन्य अनुभागका संक्रामक होता है जो जघन्यकी अपेक्षा अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागका संक्रामक होता है।
६१६८. पूर्व में कहे गये कर्मोंसे शेष कषायों और नोकपायोंका यहाँ पर ग्रहण करनेके लिए सूत्रमें 'शेष' पदका निर्देश किया है। उनका यहाँ पर जघन्य अनुभाग सम्भव है ऐसी आशंकाके निराकरण करनेके लिए नियमसे अजघन्य' यह वचन दिया है। उसमें भी अनन्तवें भाग आदि विकल्प सम्भव हैं, इसलिए उनका निराकरण करनेके लिए 'अनन्तगुणे अधिक' पदका निर्देश किया है। उनका अनुभाग अनन्तगुणा कैसे है ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि विसंयोजनाके बाद पुनः संयोगके समय तथा क्षपणाके समय जघन्य अनुभागको प्राप्त होनेवाले अनन्तानुबन्धी आदिके अनुभागसे यहाँ पर अनन्तगुणे सिद्ध होने में किसी प्रकारका प्रतिषेध नहीं है ।
१ ता० प्रा०प्रत्योः च जहण्णाणुभागं इति पाठः ।