Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो६ * पाणाजीवेहि अंतरं। ६ २५०. सुगममेदमहियारपरामरससुत्तं । * मिच्छत्तस्स उक्कस्साणुभागसंकामयाणमंतरं केवचिरं कालावो होदि ? ६ २५१. पुच्छासुत्तमेदं सुगमं । * जहणणेणेयसमझो।
हु २५२. तं जहा–मिच्छत्तकस्साणुभागसंकामयणाणाजीवाणं पाहविच्छेदबसेणेवसमयमंतरिदाणं विदियसमए पुणरुभवो दिट्ठो, लद्धमंतरं जहण्णेणेयसमयमेत्तं ।
* उक्कस्सेण असंखेना लोगा।
} २५३. कुदो ? उकस्साणुभागबंधेण विणा सजीवाणमेत्तियमेत्तकालमवट्ठाणसंभवादो।
* अणुक्कस्साणुभागसंकामयाणमंतरं केवचिरं कालादो होवि ? ६२५४. सुगमं । * पत्थि अंतरं।
६२५५. कदो ? णाणाजीवविवक्खाए अणुकस्साणुभागसंकमस्स विच्छेदाणुवलद्धीदो।
* एवं सेसाणं कम्माणं । * अब नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरका कथन करते हैं। ६ २५०. अधिकारका परामर्श करनेवाला यह सूत्र सुगम है। * मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागके संक्रामकोंका अन्तरकाल कितना है ? ६२५१. यह पृच्छासूत्र सुगम है।
* जघन्य अन्तर एक समय है
६ २५२. यथा -मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागके संक्रामक नाना जीवोंका प्रवाहके विच्छेदवश एक समयके लिए अन्तर हो कर दूसरे समयमें उनकी पुनः उत्पत्ति देखी जाती है। इस प्रकार जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त होता है।
*उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है।
६ २५३. क्योंकि उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध हुए बिना सब जीवोंका इतने काल तक अवस्थान देखा जाता है
* उसके अनुत्कृष्ट अनुभागके संक्रामकोंका अन्तरकाल कितना है ? ६ २५४. यह सूत्र सुगम है।
* अन्तरकाल नहीं है।
६ २५५. क्योंकि नाना जीवोंकी मुख्यतासे अनुत्कृष्ट अनुभागके संक्रमका कभी भी विच्छेद नहीं उपलब्ध होता।
* इसी प्रकार शेष कर्मों का अन्तरकाल जानना चाहिए ।