Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा०५८] उत्तरपयडिअणुभागसंकमे णाणाजीवेहि अंतरं
७६ ( २५६. सुगममेदमप्पणासुत्तं । संपहि एत्थतणविसेसपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तमोइण्णं ।।
ॐ वरि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुकस्साणुभागसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ?
६२५७. सुगमं । * पत्थि अंतरं।
२५८. एदं पि सुगमं । * अणुक्कस्साणुभागसंकामयाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ६२५६. सुगमं । * जहणणेण एयसमओ । ६२६०. दसणमोहक्खायाणं जहण्णंतरस्स तप्पमाणत्तोवलंभादो । * उक्कस्सेण छम्मासा।
६ २६१. तदुक्कस्सविरहकालस्स णाणाजीवविसयस्स तप्पमाणत्तादो। एवमोधो .. समत्तो।
६ २६२. आदेसेण सव्वमग्गणासु विहत्तिभंगो । * एत्तो जहएणयंतरें।
६२५६. यह अर्पणासूत्र सुगम है। अब यहाँ सम्बन्धी विशेषताका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र आया है
* इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागके संक्रामकोंका अन्तरकाल कितना है ?
६ २५७. यह सूत्र सुगम है। . * अन्तरकाल नहीं है। ६ २५८. यह सूत्र भी सुगम है। * अनुत्कृष्ट अनुभागके संक्रामकोंका अन्तरकाल कितना है ? ६ २५६. यह सूत्र सुगम है।
* जघन्य अन्तरकाल एक समय है। ६ २६०. क्योंकि दर्शनमोहनीयके क्षपकोंका जघन्य अन्तर तत्प्रमाण उपलब्ध होता है। * उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है।
8 २६१. क्योंकि दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका नाना जीवविषयक. उत्कृष्ट विरहकाल तत्प्रमाण है। इस प्रकार ओघप्ररूपणा समाप्त हुई।
६ २६२.अादेशसे सब मार्गणाओंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है। * आगे जघन्य अन्तरका कथन करते हैं।