Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ ३२४. कुदो १ सयलपदत्थविसयसद्दहणलक्खणसम्मत्तसण्णिदजीवगुणघादणण्णहाणुववत्तीदो । एवं णिरयोघो सुत्तयारेण परूविदो। एसो चेव पढमषुढवीए वि कायव्यो, विसेसाभावादो । विदियादि जाव सत्तमि ति एवं चेव वत्तव्वं । सेसगईसु विणिरयोघालावो चेव किं चि विसेसोणुविद्धो काययो त्ति जाणावेमाणो सुत्तमुत्तरमाह
* जहा णिरयगईए तहा सेसासु गदीसु।
६३२५. अप्पाबहुअं णेदवमिदि वकज्झाहारमेत्थ कादूण सुत्तत्थस्स समप्पणा कायव्वा । तदो एदम्मि देसामासियसुत्ते णिलीणत्थविवरणं कस्सामो । तं जहा—मणुसतिए ओघभंगो । णवरि मणुसिणीसु पुरिसवेदजहण्णाणुभागसंकमो रदीए उवरि अणंतगणो काययो, छण्णोकसाएहि सह चिराणसंतसरूबण तत्थ जहण्णभावोवलंभादो। तिरिक्खपंचिंदियतिरिक्खतिय-देवा भवणादि जाव सबट्ठा त्ति गिरयोघभंगो। पंचिं०तिरि०अपज्ज-मणुसअपज्ज० उक्कस्सभंगो। संपहि सेसमग्गणाणं देसामासयभावेण एइदिएसु थोवबहुत्तपदुप्पायणमुत्तरसुत्तमाह
9 एईदिएसु सव्वत्थोवो सम्मत्सस्स जहरणाणुभागसंकमो । (३२६. सुगमं । * सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागसंकमो अणंतगुणो।
६३२४. क्योंकि सकल पदार्थविषयक श्रद्धानलक्षण सम्यक्त्व संज्ञावाले जीवगणका घात अन्यथा वन नहीं सकता । इस प्रलार सूत्रकारने सामान्यसे नारकियोंमें अल्पबहुत्वका कथन किया । इसे ही पहली प्रथिवीमें करना चाहिए, क्योंकि अोधप्ररूपणासे इसमें कोई विशेषता नहीं है। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें इसी प्रकार कथन करना चाहिए। अब शेष गतियोंमें भी कुछ विशेषताको लिए हुए सामान्य नाकियाक समान आलाप करना चाहिए इस बातका ज्ञान कराते हुए आगेका सूत्र कहते हैं
* जिस प्रकार नरकगतिमें अल्पबहुत्व कहा है उसी प्रकार शेष गतियोंमें उसका कथन करना चाहिए।
६३२५. 'अल्पबहुत्व ले जाना चाहिए' इस वाक्यका अध्याहार यहाँ पर करके सूत्रके अर्थकी समाप्ति करनी चाहिए । इसलिए इस देशामर्षक सूत्रमें गर्भित हुए अर्थका विवरण करते हैं। यथामनुष्यत्रिकमें ओघके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यिनियोंमें पुरुषवेदके जघन्य अनुभागसंक्रमको रतिके ऊपर अनन्तगुणा करना चाहिए, क्योंकि वहाँ पर उसका छह नोकषायोंके साथ प्राचीन सत्कर्मरूपसे जघन्यपना पाया जाता है। सामान्य तिर्यश्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिक, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सामान्य नारकियोंके समान भङ्ग है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें उत्कृष्टके समान भङ्ग है । अब शेष मार्गणाओंके देशामर्षक रूपसे एकेन्द्रियों में अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* एकेन्द्रियोंमें सम्यक्त्वका जघन्य अनुभागसंक्रम सबसे स्तोक है। ६३२६. यह सूत्र सुगम है। * उससे सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है ।