Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
View full book text
________________
गा०५८] उत्तरपयडिअणुभागसंकमे एयजीवेण अंतरं
ॐ मिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागसंकामयंतर केवचिर कालादो होदि ? ६१६२. सुगमं ।
ॐ जहणणेण अंतोमुहुत्तं ।
६१६३. तं जहा–सुहुमेइ दियहदसमुप्पत्तियजहण्णाणुभागसंकमादो अजहष्णभावं गंतूग पुणो वि अंतोमुहुत्तेण घादिय सबजहण्णाणुभागसंकामओ जाओ, लद्धमंतरं होइ ।
ॐ उक्कस्सेण असंखेजा लोगा।
६१६४. तं कधं ? जहण्णाणुभागसंकामओ अजहण्णभाव गंतूण तप्पाओग्गपरिणामटाणेसु असंखेजलोगमेतं कालं गमिय पुणो हदसमप्पत्तियपाओग्गपरिणामेण जहण्गभावमुवगओ तस्स लद्धमंतरं होइ ।
ॐ अजहणणाणुभागसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ६१६५. सुगमं ।
ॐ जहणणुकस्सेण अंतोमृहुत्तं ।
६ १६६. तं जहा-अजहण्णाणुभागसंकामओ जहण्णभावमुवगंतूण तत्थ जहण्णकस्सेगंतोमुहुत्तमच्छिय पुणो अजहण्णभावेण परिणदो, तत्थ लद्धमंतरं होइ ।
* मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागके संक्रामकका कितना अन्तर है ? ६ १६२. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है।
६ १६३. यथा- सूक्ष्म एकेन्द्रियसम्बन्धी हतसमुत्पत्तिकरूप जघन्य अनुभागके संक्रमसे अजघन्य अनुभागको प्राप्त होकर फिर भी अन्तर्मुहूर्त के द्वारा घात कर कोई जीव सबसे जघन्य अनुभागका संक्रामक हो गया। इस प्रकार मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागके संक्रामकका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त प्राप्त हो जाता है।
* उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है । ६ १६४. शंका-वह कैसे ?
समाधान-क्योंकि जघन्य अनुभागका संक्रामक जो जीव अजघन्य अनुभागको प्राप्त होकर और तत्प्रायोग्य परिणामस्थानोंमें असंख्यात लोकप्रमाण कालको गमा कर पुनः हतसमुत्पत्तिक अनुभागके परिणामके योग्य जघन्य अनुभागको प्राप्त हुआ है उसके उक्त उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त होता है।
* उसके अजघन्य अनुभागके संक्रामकका कितना अन्तर है ? ६ १६५ यह सूत्र सुगम है। * जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तम हते है।
६ १६६. यथा-अजघन्य अनुभागका संक्रामक कोई एक जीव जवन्य अनुभागको प्राप्त होकर और वहाँ जघन्य और उत्कृष्टरूपसे अन्तमुहूर्त काल तक रह कर पुनः अजघन्य अनुभागवाला हो गया। इस प्रकार उक्त अन्तर प्राप्त हो जाता है।