Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ उकस्सेण उबड्डपोग्गलपरियडें ।
१५७. तं कधं ? अद्धपोग्गलपरियट्टादिसमए पढमसम्मत्तं पडिवन्जिय सव्वलहुं मिच्छत्तं गंतूग सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणि उव्वेल्लिय अंतरस्सादि कादूण उबड्डपोग्गलपरियट्ट परिभमिय पुणो थोवावसेसे संसारे उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो विदियसमयम्मि संकामओ जादो, लद्धमुक्कस्संतरमुवडपोग्गलपरियट्टमेत्तं ।
* अणुक्कस्साणुभागसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? १५८. सुगमं।
त्थि अंतरं। ६१५६. कुदो ? दंसणमोहक्खवणाए लद्धाणुकस्सभावत्तादो।
एवमोघो समत्तो। १६०. आदेसेण सव्यमग्गणासु विहत्तिभंगो। * एत्तो जहएणयंतरं।
६१६१. उकस्साणुभागसंकामयंतरविहासणाणंतरमेतो जहण्गाणुभागसंकामयंतरं कायब्वमिदि वुत्तं होइ।
* उत्कृष्ट अन्तर उपाधपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। ६ १५७. शंका-वह कैसे ?
समाधान-अर्धपुद्गलपरिवर्तनके प्रथम समयमें प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त होकर तथा अतिशीघ्र मिथ्यात्वमें जाकर और सम्यक्त्व तथा सम्यग्मिथ्यात्वाकी उद्वेलना करके अन्तरका प्रारम्भ किया । पुनः उपार्धपुद्गलपरिवर्तन काल तक परिभ्रमण करके संसारके स्तोक रह जाने पर पुनः उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होकर दूसरे समयमें उनका संक्रामक हो गया। इस प्रकार इनके उत्कृष्ट अनुभागके संक्रामकका उत्कृष्ट अन्तर उपार्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण प्राप्त हो जाता है ।
* इनके अनुत्कृष्ट.भनुभागके संक्रामकका कितना अन्तर है। $ १५८ यह सूत्र सुगम है।
* अन्तरकाल नहीं है। ६ १५६. क्योंकि इनका अनुत्कृष्ट अनुभाग दर्शनमोहनीयकी क्षपणामें प्राप्त होता है।
इस प्रकार ओघ प्ररूपणा समाप्त हुई। ६ १६०. आदेशसे सब मार्गणाओंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है ।
विशेषार्थ-तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार अनुभागविभक्तिमें नरकगति आदि मार्गणाओंमें एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकालका कथन किया है उसी प्रकार यहाँ भी उसे अविकल जान लेना चाहिए। अन्तरकालकी अपेक्षा उससे यहाँ पर कोई विशेषता नहीं है ।
* आगे जघन्य अन्तरका कथन करते हैं।
६१६१. उत्कृष्ट अनुभागके संक्रामकके अन्तरका कथन करनेके बाद आगे जघन्य अनुभागके संक्रामकके अन्तरका कथन करना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है।