Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
View full book text
________________
[ बंधगो ६
* जहणणे अंतोमुहुत्तं ।
१७८. तं जहा - अजहण्णाणुभागसंकामओ अनंतारणुबंधीणं विसंजोयणाणमंतरिय विल संजुतो होऊग जहण्णाणुभागसंकामओ जादो, लद्धमंतरं ।
* उक्कस्सेण वेद्वावट्ठिसागरोवमाणि सादिरेयाणि ।
$ १७६. तं जहा — उबसमसम्मत्त कालब्भंतरे, चेय अनंतारणु० चउक्क विसंजोइय वेदयसम्मत्तं घेत्तण वेछावट्ठिसा गरोमाणि परिभमिय तदवसोणे मिच्छत्तं गंतूणावलियादीदं कामेमाणस्स लद्धमुकस्समंतरं होइ । एत्थ सादिरेयपमाणमंतोमुहुत्तं ।
* सेसाणं कम्माणं जहणणाणु भागसंका मयंतर केवचिर कालादो होदि ? १८०. सुगमं ।
* पत्थि अंतर |
९ १ ८ १. कुदो १ खत्रणाए जाद जहण्णाणुभागत्तादो ।
* अजहण्णाणु भागसंकामयंतर केवचिर कालादो होदि ?
६१८२. सुगमं ।
५६
जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
* जहणण एयसमत्रो ।
९ १८३. सव्त्रोवसामणाए एयसमयमंतरिय विदियसमए कालं काढूण देवेसुप्पण्णपढमसम संकामयत्तमुवगयम्मि तदुवलंभादो ।
* जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ।
§ १७८. यथा— अजघन्य अनुभागका संक्रामक जीव अनन्तानुबन्धियोंकी विसंयोजना द्वारा अन्तर करके फिर भी अतिशीघ्र संयुक्त होकर अजघन्य अनुभागका संक्रामक हो गया। इस प्रकार उक्त अन्तर प्राप्त हो जाता है ।
* तथा उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छ्यासठ सागरप्रमाण है ।
§ १७६. यथा— उपशमसम्यक्त्वके कालके भीतर ही अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करके तथा वेदकस्तम्यकत्वको ग्रहण कर दो छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण कर उसके अन्तमें मिथ्यात्वमें जाकर एक श्रावलिके बाद संक्रम करनेवाले जीवके उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त होता है। यहाँ साधिकका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त है ।
* शेष कर्मों के जघन्य अनुभाग के संक्रामकका कितना अन्तर है ।
१०. यह सूत्र सुगम है ।
*
1
§ १८१. क्योंकि इनका जघन्य अनुभाग क्षपरणामें होता है ।
* इनके अजघन्य अनुभाग के संक्रामकका कितना अन्तर है ?
$ १८२. यह सूत्र सुगम है ।
* जघन्य अन्तर एक समय है ।
९ १८३ . क्योंकि सर्वोपशमना द्वारा एक समयका अन्तर करके दूसरे समयमें मरकर देवों में
उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें संक्रम करनेवाले जीवके उक्त अन्तर प्राप्त होता है।