Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा०५८] उत्तरपयतिमणुभागसंकमे एयजीवेण अंतरं
५५ ६१७३ एदाणि दो वि सुत्ताणि सुगमाणि ।
* अणंताणुबंधीणं जहणणाणुभागसंकामयंतर केवचिर कालादो होदि? ६१७४. सुगमं।
जहएणण अंतोमुत्तं ।
६ १७५ तं जहा-अर्णताणुबंधीण संजुत्तपढमसमयणवकबंधमावलियादीदं जहण्णभावेण संकामिय तत्तो विदियादिसमएसु अजहण्णभावेणंतरिय पुणो वि सव्वलहुएण कालेण विसंजोयणापुव्वं तप्पाओग्गजहण्णपरिणामेण संजुत्तो होऊणावलियादिक्कतो जहण्णाणुभागसंकामओ जादो, लद्धमतरं होइ।
* उकास्सेण अपडपोग्गलपरियडें । ____१७६. तं जहा–पुव्वुत्तेणेव विहिणा आदि कोदूर्णतरिय उवड्डपोग्गलपरियट्ट परिभमिय थोवावसेसे सिज्झिदव्यए ति सम्मत्तं पडिवजिय अणंताणुबंधिविसंजोयणापुरस्सरं परिणामपञ्चएण संजुत्तो होऊण आवलियादिक्कतो जहण्णाणुभागसंकामओ जादो, लद्धमुकस्संतरं होइ।
* अजहण्णाणुभागसंकामयंतर केवचिर कालादो होदि ? ६१७७. सुगमं । ६ १७३. ये दोनों सूत्र सुगम हैं। * अनन्तानुबन्धियोंके जघन्य अनुभागके संक्रामकका कितना अन्तर है ? ६ १७४. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य अन्तर अन्तमु हूत है ।
$ १७५. यथा-अनन्तानुबन्धियोंके संयुक्त होनेके प्रथम समयमें हुए नवकबन्ध एक आपलिके बाद जघन्यरूपसे संक्रम करके तथा उसके बाद द्वितीयादि समयोंमें अजघन्य अनुभागसंक्रमके द्वारा उसका अन्तर करके फिर अतिशीघ्र कालके द्वारा विसंयोजनापूर्वक तत्प्रायोग्य जघन्य परिणामसे संयुक्त होकर एक पावलिके बाद जो पुनः जघन्य अनुभागका संक्रामक हो गया उसके उक्त जघन्य अन्तर प्राप्त होता है।
* उत्कृष्ट अन्तर उपार्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है।
६ १७६. यथा--पूर्वोक्त विधिसे ही जघन्य अनुभागसंक्रमका प्रारम्भ करके और अन्तर करके उपार्धपुद्गलपरिवर्तन कालतक परिभ्रमण करके सिद्ध होनेके लिए स्तोक काल शेष रह जाने पर सम्यक्त्वको प्राप्त होकर तथा अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनापूर्वक परिणामवश उससे संयुक्त होकर एक प्रावलिके बाद जघन्य अनुभागका संक्रामक हो गया। इस प्रकार उक्त उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त हो जाता है।
* इनके अजघन्य अनुभागके संक्रामकका कितना अन्तर है ? ६१७७. यह सूत्र सुगम है।