Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२]
मूलपयडिविहत्तीए कालो ४८. कालाणुगमेण दुविहो णिदेसो ओघेण आदेसेण य । तन्थ ओघेण मोहणीयविहत्ती केवचिरं कालादो होदि ? अणादिया अपञ्जवसिदा, अणादियो सपञ्जवसिदा । अविहत्ती केवचिरं कालादो होदि ? सादिया अपज्जवसिदा । एवमचक्खुदंसणाणं । णवरि अविहत्ती जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुतं । __$ ४६. आदेसेण णिरयगईए णेरइएसु मोहणीयविहत्ती केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण दसै वस्स-सहस्साणि, उक्कम्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि । पढमाए विदियाए तदियाए चउत्थीए पंचमीए छडीए सत्तमीए पुढवीए णेरइएसु मोहविहत्ती केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण दस-वास-सहस्साणि एग-तिण्णि-सत्त-दस-सत्तारस-वावीससागरोवमाणि सादिरेयाणि । उक्कस्सेण संग-सग-हिदि (दी)।
६४८. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मोहनीयविभक्तिका कितना काल है ? अनादि-अनन्त और अनादिसान्त काल है। मोह-अविभक्तिका कितना काल है ? सादि-अनन्त काल है। इसी प्रकार अचक्षुदर्शनी जीवोंके मोहविभक्ति और मोहअविभक्तिका काल कहना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके मोह अविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ।
विशेषार्थ-अभव्य जीवोंकी अपेक्षा मोहनीयका काल अनादि-अनन्त है । तथा इतर जीवोंके मोहनीयका काल अनादि-सान्त है। अचक्षुदर्शन बारहवें गुणस्थान तक सभी संसारी जीवोंके निरन्तर रहता है इसलिये अचतुदर्शनी जीवोंके मोहनीयका काल अनादिअनन्त और अनादि-सान्त दोनों प्रकारका बन जाता है। मोह-अविभक्तिका काल सादिअनन्त इसलिये है कि उसका आदि तो है, क्योंकि जब कोई जीव बारहवें गुणस्थानको प्राप्त होता है तभी उसका प्रारम्भ होता है। पर मोह-अविभक्तिका अन्त कभी नहीं होता, क्योंकि जिसने मोहनीयका पूरी तरहसे अभाव कर दिया है उसके पुनः मोहनीय कर्मकी उत्पत्ति नहीं होती। पर अचक्षुदर्शन बारहवें गुणस्थान तक ही होता है और बारहवें गुणस्थानका काल अन्तर्मुहूर्त है। अतः अचक्षुदर्शनी जीवोंके मोह-अविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है।
४९. आदेशनिर्देशकी अपेक्षा नरकगतिमें नारकियोंमें मोहनीय विभक्तिका कितना काल है ? एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट काल तेतीत सागर है। तथा पहली, दूसरी, तीसरी, चौथी, पांचवीं, छठी और सातवीं पृथिवीमें रहनेवाले नारकियोंमें मोहनीय विभक्तिका कितना काल है ? जघन्य काल सातों नरकों में क्रमसे दस हजार वर्ष, साधिक एक सागर, साधिक तीन सागर, साधिक सात सागर, साधिक दस सागर, साधिक सत्रह सागर और साधिक बाईस सागर है। तथा उत्कृष्ट काल अपने अपने
(१)-दिमसप-स० । (२)-सबासस-स० ।
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