Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिविहत्तीए अन्तराणुगमो
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भंगो। सेसाणं पयडीणं णत्थि अंतरं। णqसयवेदेसु सम्मत्त-सम्मामि० ओघभंगो । अणंताणुबंधिचउक्क० सत्तमपुढविभंगो। सेसाणं पय० णत्थि अंतरं । एवमसंजद. वत्तव्वं । चक्खु० तसपञ्जत्तभंगो।।
६१४१. लेस्साणुवादेण छ-लेस्सासु सम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणुबंधिचउक्क० विहत्ति० अंतरं जह० एगसमओ अंतोमुहुत्तं, उक्क० तेत्तीस सत्तारस सत्त एक्कत्तीस सागरोअन्तरकाल नहीं है । नपुंसकवेदी जीवों में सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिध्यात्वका अन्तरकाल ओघके समान है। तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्कका सातवीं पृथिवीके समान है। शेष प्रकृतियोंका अन्तरकाल नहीं है। असंयतोंके नपुंसकवेदियोंके समान अन्तरकाल कहना चाहिये। तथा चक्षुदर्शनी जीवोंके सपर्याप्तकोंके समान अन्तरकाल कहना चाहिये।
विशेषार्थ-जिस प्रकार ओघमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अन्तरकाल लिख आये हैं उसी प्रकार तीनों वेदवालोंके घटित कर लेना चाहिये । स्त्रीवेदीकी उत्कृष्टकायस्थिति सौ पल्य पृथक्त्व है। तथा इतने काल तक वह मिथ्यात्व गुणस्थानमें भी रह सकता है अतः इसमें से उद्वेलनाकालके कम कर देने पर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त होता है। पर इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेदका काल प्रारम्भ होते समय मिथ्यात्वमें लेजाना चाहिये और स्त्रीवेदका काल समाप्त होनेके अन्त में उपशमसम्यक्त्वकी प्राप्ति कराना चाहिये । कोई एक जीव पचपन पल्यकी आयुवाली देवी हुआ और वहां पर्याप्त होकर वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त करके उसने अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना कर दी पुनः भवके अन्तमें मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त हुआ । उसके अनन्तानुबन्धीका कुछ कम पचपन पल्य उत्कृष्ट अन्तरकाल होता है। पुरुषवेदी जीवकी कायस्थिति सौ सागर पृथक्त्व है अतः वहां उस अपेक्षासे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तर कहना चाहिये । तथा पुरुषवेदीके अनन्तानुबन्धी चतुष्कका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल जिसप्रकार ओघमें घटित करके लिख आये हैं उसीप्रकार यहां जानना । तथा सातवीं पृथिवीमें नारकीके जिस प्रकार अनन्तानुबन्धीका उत्कृष्ट अन्तरकाल लिख आए हैं उसीप्रकार नपुंसकवेदीके जानना और इनके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तरकाल ओघके समान घटित कर लेना, क्योंकि कुछ कम अर्द्धपुद्गल परिवर्तनकाल तक एक जीव नपुंसक रह सकता है ।
६१४१. लेश्यामार्गणाके अनुवादसे छहों लेश्याओंमें सम्यक्प्रकृति और सम्यगमिध्यात्वका जघन्य अन्तरकाल एक समय तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्कका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है। तथा उक्त सभी प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल कृष्णलेश्यामें कुछ कम तेतीस सागर, नीललेश्यामें कुछ कम सत्रह सागर, कपोतलेश्यामें कुछ कम सात सागर, शुक्ललेश्यामें कुछ कम इकतीस सागर, पीतलेश्यामें साधिक दो सागर और पद्मलेश्यामें साधिक
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