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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ कम्मइयभंगो।
एवमंतरं समत्तं । ६३८३. भावाणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सव्वपदाणं को भावो ? ओदइओ भावो । एवं णेदव्वं जाव अणाहारए त्ति । णवरि अप्पप्पणो पदाणि जाणियव्वाणि ।।
एवं भावो समत्तो। * अप्पाबहु।
६३८४. पुव्वं परिमाणादिना अवगयपदाणं थोवबहुत्तं परूवेमो ति जइवसहाइरएण कयपइजावयणमेयं । तम्मि जीव-अप्पाबहुए भण्णमाणे पुवं ताव पदविसयकालाणमप्पाबहुअं उच्चदे, तेण विणा जीवप्पाबहुअस्स अवगमोवायाभावादो। तं जहाकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अनाहारकोंका अन्तरकाल कार्मणकाययोगियोंके अन्तरकालके समान जानना चाहिये।
इस प्रकार अन्तरानुयोगद्वार समाप्त हुआ।
३३८३. भावानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से ओघनिर्देशकी अपेक्षा अट्ठाईस आदि सभी पदोंका कौनसा भाव है ? औदयिकभाव है। इसीप्रकार अनाहारकों तक कथन करते जाना चाहिये । इतनी विशेषता है कि सर्वत्र अपने अपने पद जानकर कथन करना चाहिये।
विशेषार्थ-अट्ठाईस आदि सब पद मोहनीयके उदयके रहते हुए होते हैं इस अपेक्षासे यहां अट्ठाईस आदि सबपदोंका औदयिक भाव कहा है। तात्पर्य यह है कि यद्यपि उपशान्तमोही जीवके २४ और २१ विभक्तिस्थान मोहनीयके उदयके अभावमें भी होते हैं तो भी वे स्थान उदयके अनुगामी हैं, क्योंकि ऐसा जीव उपशान्तमोह गुणस्थानसे नियमसे च्युत होकर पुनः मोहनीयके उदयसे संयुक्त हो जाता है, अतः २८ आदि विभक्तिस्थानोंका औदायिक भाव कहने में कोई आपत्ति नहीं है।
इसप्रकार भावानुयोगद्वार समाप्त हुआ। * अब अल्पबहुत्वानुयोगद्वारका कथन करते है ।
६३८४.पहले संख्या आदिके द्वारा जाने गये पदोंके अल्पबहुत्वका कथन करते हैं, इस बातका ज्ञान करानेके लिये यतिवृषभ आचार्यने यह प्रतिज्ञावचन किया है। उसमें भी जीव विषयक अल्पबहुत्वका कथन करनेसे पहले अट्ठाईस आदि पदोंके कालोंका अल्पबहुत्व कहते हैं, क्योंकि इसके बिना जीवविषयक अल्पबहुत्वके ज्ञान करानेका कोई दूसरा उपाय नहीं है । पदविषयक कालोंका अल्पबहुत्व इसप्रकार है
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