Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 426
________________ गा० २२] भुजगारविहत्तीए अंतरं अप्प० जह० दो आवलियाओ दुसमऊणाओ, उक्क० छावहि सागरोवमाणि सादिरेयाणि । अवट्टिद० ओघभंगो। एवं सम्मादि०-ओहिंदंसणी० । मणपञ्जव० अवहि० जहण्णुक्क० एगसमओ । अप्प० जह० दोआवलियाओ दुसमऊगाओ, उक्क० पुचकोडी देसूणा । संजदासंजद-सामाइय छेदो० अप्पदर० अवढि मणपञ्जवमंगो। णवरि संजदासंजद० अप्प० जह. अंतोमु०। सामाइयछेदो० अवहि० उक्क० बेसमया। परिहार० संजदासंजदभंगो । चक्खु तमपञ्जत्तभंगो।। ६४४२. पंचलेस्सा० भुज० अप्प० जह० अंतोमु०, उक्कतेतीस-सत्तारस-सत्तसागरो० देसूणाणि सादि०, बे अट्ठारस सागरो० सादिरेयाणि । अबढि० ओघं । सुक० भुज. अप्प० जह० अंतोमु० दुसमऊण-दोआवलिय०, उक्क० एकतीससागरो० देवणाणि सादि० । अवहि० ओघभंगो । बेदयसम्मादि० अप्पदर० जह० अंतोमु० छावटि० सा० देसूणाणि । अवहि० जहण्णुक्क० एयसमओ। खइय० अप्प० जह० काल ओघके समान है। इसीप्रकार सम्यग्दृष्टि और अवधिदर्शनी जीवोंके जानना चाहिये। मनःपर्यय ज्ञानमें अवस्थितका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है। तथा अल्पतरका जघन्य अन्तरकाल दो समय कम दो आवली और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पूर्वकोटि है। संयतासंयत, सामायिकसंयत और छेदोपस्थापना संयत जीवोंके अल्पतर और अवस्थितका अन्तरकाल मनःपर्ययज्ञानके समान है। इतनी विशेषता है कि संयतासंयतजीवके अल्पतरका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। तथा सामायिक और छेदोपस्थापना संयत जीवोंके अवस्थितका उत्कृष्ट अन्तरकाल दो समय है । परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंके संयतासंयत जीवोंके समान कथन करना चाहिये । चनुदर्शनमें सपर्याप्तकोंके समान कथन करना चाहिये। ६४४२. कृष्णादि पांचों लेश्याओंमें भुजगार और अल्पतरका जघन्य अन्तरकालअन्तर्मुहूर्त है और भुजगारका उत्कृष्ट अन्तरकाल कृष्ण, नील और कपोल लेश्यामें क्रमसे कुछ कम तेतीस सागर, कुछ कम सत्रह सागर, कुछ कम सात सागर तथा अल्पतरका उत्कृष्ट अन्तर काल साधिक तेतीस सागर, साधिक सतरह सागर और साधिक सात सागर है। तथा पीत और पद्मलेश्यामें दोनोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल क्रमशः साधिक दो सागर और साधिक अठारह सागर है । तथा अवस्थितका अन्तरकाल ओघके समान है। शुछ लेश्यामें भुजगार और अल्पतरका जघन्य अन्तरकाल क्रमसे अन्तर्मुहूर्त और दो समय कम दो आवली है तथा भुजगारका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम इकतीस सागर और अल्पतरका अन्तरकाल साधिक इकतीस सागर है । तथा शुक्लेश्यामें अवस्थितका अन्तरकाल ओघके समान है । वेदकसम्यग्दृष्टियों में अल्पतरका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम छयासठ सागर है । तथा अवस्थितका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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