Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 466
________________ गो० २२ ] वढविहतीए सामित्तं ४४१ I असण्णीणं वत्तव्वं । ओरालि मिस्स० संखेजभागहाणी - अवद्वाणाणि कस्स १ अण्ण० सम्मादि० मिच्छादिहिस्स वा । एवं वेउब्वियमिस्स० कम्मइय० अणाहारीणं । आहारआहार मिस्स अवद्वाणं कस्स ? अण्णद० । एवमकसाय०- सुहुम० जहाक्खाद०अभव० - उवसम० - सासण० सम्मामि० वत्तव्वं । अवगद० संखेजभागहाणीसंखे० गुणहाणीओ अवहाणं च कस्स ? अण्णद० खवयस्स | आभिणि० - सुद०-३ • ओहि० मणपञ्ज० संखेजभा० हाणी - संखे० गुणहाणीअवहाणाणं ओघभंगो । एवं संजद०सामाइय - छेदो० - ओहिदंस० सम्मादि० - खइय० वत्तव्वं । एवं सामित्तं समत्तं । काय, त्रसलब्ध्यपर्याप्त, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, त्रिभंगज्ञानी, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, वेदकसम्यग्दृष्टि, मिध्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके कहना चाहिये । तात्पर्य यह है कि इन मार्गणाओं में अट्ठाईस विभक्तिस्थानसे सत्ताईस और सत्ताईससे छब्बीस विभक्तिस्थानोंका प्राप्त होना ही सम्भव है । अतः इनमें संख्यात भागहानि और उसका अवस्थान ये पद ही सम्भव हैं । औदारिक मिश्रकाययोगी जीवों में संख्यातभागहानि और अवस्थान किसके होते हैं ? किसी भी सम्यग्दृष्टि या मिध्यादृष्टि जीवके होते हैं । इसीप्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणका योगी और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिये । तात्पर्य यह है कि इन मार्गणाओं में २८ से २७, २७ से २६ और २२ से २१ विभक्तिस्थानोंका प्राप्त होना सम्भव है । अत: इनमें भी संख्यात भागहानि और उसका अवस्थान ये पद ही सम्भव हैं । आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें अवस्थान किसके होता है ? किसी भी जीवके होता है । इसीप्रकार अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, अभव्य, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों के कहना चाहिये । तात्पर्य यह है कि इन मार्गणाओंमें प्रकृतियों की हानि और वृद्धि नहीं होती अतः एक अवस्थान पद ही कहा है । यद्यपि उपशमसम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानुबन्धी 'चतुष्ककी विसंयोजना करता है, ऐसा भी उपदेश पाया जाता है । अतः इसके संख्यातभागहानि सम्भव है पर उसकी यहां विवक्षा नहीं की है । अपगतवेदी जीवोंमें संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और अवस्थान किसके होते हैं ? किसी भी क्षपकके होते हैं । 1 मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनः पर्ययज्ञानी जीवोंमें संख्यात भागहानि, संख्यातगुणहानि और अवस्थान ओघके समान जानना चाहिये । इसीप्रकार संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, अवधिदर्शनी सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवों के कहना चाहिये । इसप्रकार स्वामित्वानुयोगद्वार समाप्त हुआ । ५६ 100 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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