Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

Previous | Next

Page 500
________________ गा० २२ ] अभव्व० अवद्वि० सव्वद्धा । वढविहत्तीए अंतरानुगमो एवं कालानुगमो समत्तो । ५२६. अंतराणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण संखेजभागवी -हाणी० अंतरं के० १ जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । संखे जगुणहाणि ० अंतरं के० ? जह० एगसमओ, उक्क० छमासा । अवट्ठि० णत्थि अंतरं । एवं पंचिदिय-पंचि ० पा०- तस-तसपज ०- पंचमण०- पंचवचि०- कायजोगि ओरालि० - पुरिस०चत्तारिक० - चक्खु ० -अचक्खु०- सुक्क० भवसिद्धि० -सण्णि - आहारि त्ति वत्तव्वं । णवरि पुरस● संखेअगुणहाणि० वासं सादिरेयं । | ४७५ गुणहानिका उत्कृष्ट काल संख्यात समय प्राप्त होता है । क्षायिक सम्यक्त्वमें अवस्थित पदका सर्वदा काल स्पष्ट ही है । तथा उपशमसम्यक्त्व आदिमें अवस्थित पदका जघन्य और उत्कृष्ट काल अपने अपने जघन्य और उत्कृष्ट कालकी अपेक्षा जानना चाहिये । Jain Education International इसप्रकार कालानुगम समाप्त हुआ । ५२. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से ओघसे नाना जीवोंकी अपेक्षा संख्यात भागवृद्धि और संख्यात भागहानिका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । संख्यातगुणानिका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है । तथा सामान्यसे नाना जीवोंकी अपेक्षा अवस्थित पदका अन्तरकाल नहीं है । इसीप्रकार पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिक काययोगी, पुरुषवेदी, क्रोधादि चारों कषायवाले, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि पुरुषवेदी जीवके संख्यातगुणहानिका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक एक वर्ष है । विशेषार्थ - सब जीव कमसे कम एक समय तक और अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक मोहनीय कर्मकी संख्यातभागवृद्धि और संख्यात भागहानिको नहीं करते हैं, अतः ओघसे इनका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कहा है । क्षपकश्रेणीका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है, अतः संख्यात गुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना कहा है, क्योंकि संख्यातगुणहानि क्षपकश्रेणीमें ही होती 1 तथा अवस्थितपद सर्वदा पाया जाता है अतः अवस्थित पदका अन्तरकाल नहीं कहा है । ऊपर और जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें यह व्यवस्था बन जाती है। अतः उनमें सब पदका अन्तरकाल ओघके समान कहा है । किन्तु पुरुषवेदी जीव अधिकसे अधिक सांधिक एक वर्ष तक क्षपकश्रेणी 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520