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जयधवला सहितं
कसायपाहुडं
भाग २
[पयडिविहत्ति]
साहित्य विभाग
भा० दि. जैन संघ
JanEducation international
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भा०दि जैनसंघग्रन्थमालायाः प्रथमपुष्पस्य द्वितीयो दलः
श्रीयतिवृषभाचार्यविरचितचूर्णिसूत्रसमन्वितम्
श्रीभगवद्गुणधराचार्यप्रणीतम्
क सा य पा हु डं
तयोश्च
श्रीवीरसेनाचार्य विरचिता जयधवलाटीका
[द्वितीयोऽधिकारः पयडिविहत्ती ]
सम्पादकौ
पं० फूलचन्द्रः
सिद्धान्तशास्त्री भू० पू० सह-सम्पादक
धवला
पं० कैलाशचन्द्रः सिद्धान्तरत्न, सिद्धान्तशास्त्री, न्यायतीर्थ प्रधानाध्यापक स्याद्वाद महाविद्यालय
काशी
प्रकाशकःमन्त्री साहित्यविभाग भा० दि० जैनसंघ, चौरासी, मथुरा
वि० सं० २००५ ]
वीरनिर्वाणाब्द २४७४
[ई० स० १९४८
मूल्यं रूप्यककादशकम्
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भा० दि० जैनसंघ-ग्रन्थमाला
ग्रन्थ-मालाका उद्देश्यप्राकृत, संस्कृत श्रादिमें निबद्ध दि. जैन सिद्धान्त, दर्शन, साहित्य, पुराण आदिका यथा सम्भव
हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशन करना
सञ्चालक
भा० दि० जैन संघ
ग्रन्थाङ्क १-२
प्राप्तिस्थान
व्यवस्थापक भा० दि० जैन संघ,
चौरासी, मथुरा
मुद्रक, रामकृष्ण दास, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय प्रेस, बनारस ।
स्थापनाव्द ]
प्रति १०००
[वी०नि० सं० २०६८
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Sri Dig. Jain Sangha Granthmāla No. 1-II
KASAYA-PÁHUDAM
(PAYADI VIHATTI)
BY GUNABHADRĀCHARYA
WITH CHURNI SUTRA OF YATIVRASHABHĀCHĀRYA
AND THE JAYADHAVALĀ COMMENTARY OF
VĪRASENĀCHARYA THERE-UPON
'EDITED BY Pandit Phulachandra Siddhantashastri,
EX-JOINT EDITOR OF DHAVALA, Pandit Kailashachandra, Siddhantashastri,
NYAYATIRTHA, SIDDHANTARATNA,
PRADHANADHYAPAK, SY ADVADA DIGAMBARA JAIN
VIDYALAYA, BEN ARES.
PUBLISHED BY The Secretary Publication Department, THE ALL-INDIA DIGAMBRA JAIN SANGHA
CHAURASI, MATHURA,
VIRA-SAMVAT 2474]
VIKRAMA S. 2005
(1948 A.C.
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SRI DIG. JAIN SANGHA GRANTHAMĀLĀ
Foundation year]
- Vira Niravana Samvat 2468
Aim of the Series:
Publication of Digambara Jain Siddhanta, Darsana, Purana, Sahitya, and other Works in Prakrta, Samskrta etc. Possibly with Hindi Commentary
and Translation.
DIRECTOR :SRI BHARATAVARSIYA DIGAMBARA JAIN SANGHA
No. 1. VOL. II.
To be had from :
THE MANAGER, SRI DIG. JAIN SANGHA.
CHAURASI MATHURA,
U. P. (India)
Printed by-RAMA KRISHNA DAS, AT THE HINDU UNIVERSITY PRESS, BENARES.
1000 Copies,
Price Rs. Eleven only.
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भा० दि. जैन संघ के साहित्य विभाग के सदस्यों
की नामावली
संरक्षक सदस्य ८१२५) साहू शान्ति प्रसादजी डालमिया नगर
सहायक सदस्य ॐ १००१) लाला श्याम लाल जी रईस, फरूखाबाद * २००१) सेठ नानचन्द जी हीराचन्द जी गांधी, उस्मानाबाद
१००१) सेठ घनश्यामदास जी सरावगी, लालगढ़ 1 [धर्मपत्नी रा० ब० सेठ चुन्नीलाल जी के सुपुत्र स्व० निहालचन्द जी की स्मृतिमें ] १००१) रा० २० सेठ रतनलाल जी चांदमल जी, रांची १०००) सकल दि० जैन पंचान, नागपुर १०००) सकल दि० जैन पंचान, गया १००१) राय साहब लाला उस्फतराय जी, देहकी १००१) लाला महावीर प्रसाद जी (फर्म महावीर प्रसाद एण्ड सन्स ) देहली १००१) लाला जुगल किशोर जी ( फर्म धूमीमल धर्मदास ) देहली
१००१) लाला रघुवीर सिंह जी ( जैन वाच कम्पनी ) देहली *१०००) स्व० श्रीमती मनोहरीदेवी मातेश्वरी ला० वसन्त लाल फिरोजी लाल जी, जैनं देहली
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RECTRICHER CREACHERER GEEEEEEEEEEEEERIENERAGEEEEEEEEEEERS
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प्रकाशककी ओरसे आज चार वर्षके पश्चात् कसायपाहुड (जयधवला) का यह दूसरा भाग (पयडि विहत्ति) प्रकाशित करते हुए हमें हर्ष भी हो रहा है और संकोच भी। पहला भाग प्रकाशित होते ही दूसरा भाग प्रेसमें छपनेको दे दिया गया था। किन्तु प्रेसमें एक नये मैनेजरके आजानेसे दो वर्ष तक कुछ भी काम नहीं हो सका। उनके चले जानेके बाद जब वर्तमान मैनेजरने कार्यभार सम्हाला तब कहीं दो वर्षमें यह ग्रन्थ छप कर तैयार हो सका ।
___ इस बीचमें जयधवला कार्यालयमें भी बहुत सा परिवर्तन होगया। हमारे एक सहयोगी विद्वान न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमार जी के सहयोगसे तो हम पहले ही वंचित होचुके थे । बादको सिद्धान्त शास्त्री पं० फूलचन्द जीका सहयोग भी हमें नहीं मिल सका । फिर भी यह प्रसन्नताकी वात है कि इस भागका पर्ण अनवाद और विशेषार्थ उन्हींके लिखे हुए हैं और प्रारम्भके लगभग एक तिहाई फार्मोंका प्रमी उन्होंने देखा है। मैंने तो केवल उनके साथ इस भागका आद्योपान्त वाचन किया है। और प्रफ शोधन परिशिष्ट निर्माण तथा प्रस्तावना लेखनका कार्य किया है।
हमारे पास इस ग्रन्थराजके कई भाग तैयार होकर रखे हुए हैं, किन्तु उत्तम टिकाऊ कागजके दुष्प्राप्य होने तथा प्रेसकी अत्यन्त कठिनाईके कारण हम उन्हें जल्द प्रकाशित करनेमें असमर्थ हो रहे हैं. फिर भी प्रयत्न चालू है।
इस भागका संशोधन कार्य, अनुवाद वगैरह पहले भागके सम्पादकीय कक्तव्यमें बतलाये गये दंग पर ही किया गया है, टाईप भी पूर्ववत् हैं, अतः उनके सम्बन्धमें फिरसे कुछ लिखनेकी आवश्यकता नहीं है। जिन्हें सब बातें जानना हो उन्हें पहले भागको देखना चाहिये।
___ इस भागके पृ० २९३ आदिमें जो भंगविचयानुगमका वर्णन करते हुए करण सूत्रोंके द्वारा भग मालकी विधि बतलाई है, उसको स्पष्ट करने में लखनऊ विश्वविद्यालयके गणितके प्रधान-प्रोफेसर डा. अवधेशनारायण सिंह ने विशेष सहायता प्रदान की है, अत: मैं उनका अत्यन्त आभारी हूँ।
काशीमें गङ्गा तट पर स्थित स्व० बा० छेदीलाल जीके जिन मन्दिरके नीचेके भागमें जयभव कार्यालय स्थित है, और यह सब स्व० बांबू सा० के सुपुत्र धर्मप्रेमी बाबू गणेसदास जी के सौजन्य और धर्म प्रेमका परिचायक है। अतः मैं बावू सा० का हृदयसे आभारी हूँ।
स्याद्वाद महाविद्यालय काशीके अकलंक सरस्वती भवनको पूज्य क्षुल्लक श्री गणेशप्रसादजी वर्णीने अपनी धर्ममाता स्व० चिरोंजा बाईकी स्मृतिमें एक निधि अर्पित की है जिसके व्याजसे प्रतिवर्ष विविध विषयोंके ग्रन्थोंका संकलन होता रहता है। विद्यालयके व्यवस्थापकोंके सौजन्यसे उस अन्यसंग्रहका उपयोग जयधवलाके सम्पादन कार्यमें किया जा सका है। अतः पूज्य क्षुल्लक जी तथा विद्यालयके व्यवस्थापकोंका मैं आभारी हूँ।
__ सहारनपुरके स्व० लाला जम्बूप्रसाद जीके सुपुत्र रायसाहब ला० प्रद्युम्नकुमारजीने अपने जिनमन्दिरजीकी श्री जयधवलाजीकी उस प्रति से मिलान करने देनेकी उदारता दिखलाई है जो उत्तर भारतकी आद्य प्रति है। अतः मैं लाला सा० का आभारी हूँ। जैन सिद्धान्त भवन आराके पुस्तकाध्यक्ष पं० नेमिचन्द जी ज्योतिषाचार्यके सौहार्दसे भवनसे सिद्धान्त ग्रन्थोंकी प्रतियाँ तथा अन्य आवश्यक पुस्तकें प्राप्त होती रहती हैं। अत: मैं उनका भी आभारी हूँ।
हिन्दू विश्वविद्यालय प्रेस के मैनेजर वा० रामकृष्ण दासको तथा उनके कर्मचारियोंको भी मैं धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकता, जिनके प्रयत्नसे ही यह ग्रन्थ अपने पूर्व रूपमेंही छपकर प्रकाशित हो सका है। जयधवला कार्यालय) भदैनी, काशी
कैलाशचन्द्र शास्त्री श्रावण कृष्णा १
मंत्री साहित्य विभाग बी०नि००२४७४)
मापसमागम जयघवला
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प्रस्तावना
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INTRODUCTION. Kasaya Pahuda deals with the Mohaniya Karman (Attachment in general) and its sub-divisions in their latent (satva) condition with especial reference to Anuyoga-dvaras, e.i. Existence (Sat), number, place, time, difference etc. Therefore the term Mūla Praksti (Main natural division of-Karman action) and Uttara Praksti (Subdivision of Karman) denote here Mohaniya and its subdivision respectively. This volume 'PayadiVihatti' describes the distribution of the Mohaniya in all possible details further deviding the same into the MūlaPraksti-Vibhakti (distribution of the Mohaniya) and the Uttara- Praksti-Vibhakti (distribution of the subdivision of the Mohaniya).
The Aĉarya goes deeper in his treatment of The Uttara-Praksti-Vibhkti by creating two divisions namely Ekaika-Uttara-Praksti-Vibhakti and PrakstiSthana-Uttara-Prakști-Vibhakti. The former describes individually every subdivision of the Mohaniya keeping all aspects in veiw and the later brings out clearly the distribution of the sub-divisions of the Mohaniya in fifteen main places while in existence alone. Thus the study of this volume is enough to enable one to procure the full psychological knowlege of the king of Karmans e.i. the Mohaniya.
The introduction of the previous volume (I) of the same will furnish with detailed information as regards the Text, Cūrni-Vţtti, Jayadhavala-commentary there upon, the life of the author and the commentators and other things referred to here.
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प्रस्तावना
इस संस्करणमें मुद्रित कसायपाहुड और उसकी चूर्णिसूत्र रूप वृत्ति तथा उन दोनोंकी टीका जयधषलाके सम्बन्धमें तथा उनके रचयिताओंके सम्बन्धमें प्रथम भागकी प्रस्तावनामें विस्तारसे विचार किया गया है । अत: यहां केवल इस भागके विषयका और उसमें आई हुई कुछ उल्लेखनीय बातोंका परिचय दिया जाता है। सबसे प्रथम उल्लेखनीय बातोंका परिचय कराया जाता है।
१ मतभेदोंका खुलासा १. इस भागके प्रारम्भमें ही कसायपाहुड़की बाईसवीं गाथा आती है। प्रथम भागकी प्रस्तावना (पृ० १७ आदि) में यह बतलाया है कि चूर्णिसूत्रकारने जो अधिकार निर्धारित किये हैं वे कसायपाहुड़में निर्दिष्ट अधिकारोंसे कुछ भिन्न हैं । सो इस बाईसवीं गाथाका व्याख्यान करते हुए श्री वीरसेन स्वामीने गुण
धराचार्यके अभिप्रायानुसार अधिकार बतलाये हैं । और आगे (पृ० १७) में आचार्य यतिवृषभने उक्त • गाथाका व्याख्यान चूर्णिसूत्रोंके द्वारा करते हुए अपने माने हुए अर्थाधिकारोंको दिखलाया है। इसीसे बाईसवीं गाथा इस भागमें दो बार आई है । यतिवृषभाचार्यने उस गाथासे ६ अर्थाधिकार सूचित किये हैं जब कि गुणधराचार्यके अभिप्रायानुसार उससे दो ही अर्थाधिकार सूचित होते हैं; क्योंकि गुणधराचार्यने प्रकृति विभक्ति, स्थितिविभक्ति और अनुभागविभक्तिको मिलाकर एक अर्थाधिकार लिया है और प्रदेशविभक्ति झीणाझीण और स्थित्यन्तिकको मिलाकर दूसरा अधिकार लिया है। जब कि आचार्य यतिवृषभने इन छहोंको अलग-अलग अधिकार माना है। इसीसे श्री वीरसेन स्वामीने लिखा है कि अपने माने हुए अधिकारों के अनुसार चूर्णिसूत्रोंका कथन करने पर भी आचार्य यतिवृषभ गुणधराचार्यके प्रतिकूल नहीं है; क्योंकि उन्होंने दो अधिकारोंको ही ६ अधिकारोंमें विस्तृत कर दिया है। अतः उन्होंने उन्हीं विषयोंका कथन किया है जिनका समावेश उक्त दो अधिकारोंमें गुणधराचार्यने किया था।
२. जैसे गुणधराचार्य और यतिवृषभाचार्यके अभिप्रायानुसार कसायपाहुडके अधिकारों में भेद है, वैसे ही यतिवृषभाचार्य और उच्चारणाचार्यमें भी अवान्तर अधिकारोंको लेकर भेद है। उच्चारणाचार्यने मूल प्रकृतिविभक्तिके सत्रह अधिकार कहे हैं जब कि यतिवृषभाचार्यने आठ ही अधिकार कहे हैं। इसीतरह उच्चारणाचार्यने एकैक उत्तर प्रकृतिविभक्तिके २४ अधिकार बतलाये हैं जब कि यतिवृषभाचार्यने ११ ही अधिकार बतलाये हैं । किन्तु इसमें भी परस्परमें प्रतिकूलता नहीं है; क्योंकि आचार्य यतिवृषभने संक्षेपसे कथन किया है जबकि उच्चारणाचार्यने विस्तारसे कथन किया है। अतः आचार्य यतिवृषभने अनेक अनुयोग द्वारोंका एकमें ही संग्रह कर लिया है और उच्चारणाचार्यने उन्हें अलग-अलग कहा है।
२ चूर्णिसूत्रोंकी प्राचीनता , पृ० २१० पर एक चूर्णिसूत्र आया है-'एक्किस्से विहचिओ को होदि१' अर्थात् एक प्रकृतिक स्थानका स्वामी कौन होता है ? जय धवलामें इस पर प्रश्न किया है कि यह सूत्र क्यों कहा गया ? दिया है कि शास्त्रकी प्रामाणिकता बतलानेके लिये। फिर प्रश्न किया है कि ऐसा पूछनेसे प्रामाणिकता कैसे सिद्ध होती है ? तो वीरसेन स्वामीने उसका यह उत्तर दिया है कि यह भगवान् महावीरसे गौतमस्वामीने प्रश्न किया था। उसका यहां निर्देश करनेसे चूर्णिसूत्रोंकी प्रामाणिकताका ज्ञान होता है तथा इससे आचार्य यतिवृषभने यह भी सूचित किया है कि यह उनकी अपनी उपज नहीं है किन्तु गौतम स्वामीने भगवान् महावीरसे जो प्रश्न किये थे और उन्हें उनका जो उत्तर प्राप्त हुआ था उसे ही उन्होंने निबद्ध किया है।
इससे प्रतीत होता है कि चूर्णि सूत्रोंका आधार अति प्राचीन है और भगवान् महावीरकी वाणीसे उनका निकट सम्बन्ध है।
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जयधवलासहित कषायप्राभूत
३ 'मनुष्य' शब्दसे किसका प्रहण ? पृ० २११ पर चूर्णि सूत्रमें कहा है कि नियमसे क्षपक मनुष्य और मनुष्यिणी ही एक प्रकृतिकस्थानका स्वामी होता है । श्री वीरसेन स्वामीने इसका अर्थ करते हुए कहा है कि 'मनुष्य' शब्दसे पुरुषवेद
और नपुंसकवेदसे विशिष्ट मनुष्योंका ग्रहण करना चाहिये। यदि ऐसा अर्थ नहीं किया जायेगा तो नपुंसकवेद वाले मनुष्योंमें एक विभक्तिका अभाव हो जायेगा। इससे स्पष्ट है कि आगम ग्रन्थोंमें मनुष्य शब्दका उक्त अर्थ ही लिया गया है। यही वजह है जो गोम्मट्टसार जीवकाण्डमें गति मार्गणामें नपुंसकवेदी मनुष्योंकी संख्या अलगसे नहीं बताई है और न मनुष्यके भेदोंमें अलगसे उसका ग्रहण किया है। इससे भाववेदकी विवक्षा भी स्पष्ट हो जाती है।
४ कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि मरता है या नहीं ? पृ० २१५ पर चूर्णिसूत्रका विवेचन करते हुए यह शङ्का उठाई गई है कि कृतकृत्य वेदकसम्यग्दृष्टिके भी बाईस प्रकृतिकस्थान पाया जाता है । और वह मरकर चारों गतियोंमें उत्पन्न हो सकता है। अतः 'मनुष्य और मनुष्यनी ही बाईस प्रकृतिक स्थानके स्वामी होते हैं' यह वचन घटित नहीं होता। इसका समाधान करते हुए वीरसेन स्वामीने लिखा है कि यतिवृषभाचार्यके दो उपदेश इस विषयमें हैं। अर्थात उनके मतसे कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि मरता भी है और नहीं भी मरता। यहां पर जो चूर्णिसूत्रमें मनुष्य और मनुष्यनीको ही बाईस प्रकृतिकस्थानका स्वामी बतलाया है सो दूसरे उपदेशके अनुसार बतलाया है। किन्तु उच्चारणाचार्यके उपदेशानुसार कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टिका मरण नहीं होता ऐसा नियम नहीं है । अतः उन्होंने चारों गतियोंमें बाईस प्रकृतिकस्थानका सत्त्व स्वीकार किया है। ५. उपशमसम्यग्दृष्टिके अमन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना होती है या नहीं ?
पृ० ४१७ पर यह शंका की गई है कि 'जो उपशम सम्यग्दृष्टि अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करता है उसके अल्पतर विभक्ति स्थान पाया जाता है । अतः उपशमसम्यग्दृष्टिके अल्पतर विभक्तिस्थानका काल भी बतलाना चाहिये। इसका यह उत्तर दिया गया कि उपशम सम्यग्दृष्टिके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना नहीं होती । इस पर पुनः यह प्रश्न किया गया कि 'इसमें क्या प्रमाण है कि उपशमसम्यग्दृष्टिके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना नहीं होती' | तो उत्तर दिया गया कि 'चूंकि उच्चारणाचार्यने उपशमसम्यग्दृष्टिके एक अवस्थित पद ही बतलाया है, अल्पतर पद नहीं बतलाया। इसीसे सिद्ध है कि उपशमसम्यग्दृष्टिके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना नहीं होती। इसपर फिर शंका की गई कि 'उपशमसम्यग्दृष्टिके अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना मानने वाले आचार्यके वचनके साथ उक्त कथनका विरोध आता है अतः इसे अप्रमाण क्यों न मान लिया जाय' ? उत्तर दिया गया कि उपशमसम्यग्दृष्टिके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाका कथन करने वाला वचन सूत्र वचन नहीं है, किन्तु व्याख्यान वचन है, सूत्रसे व्याख्यान काटा जा सकता है परन्तु व्याख्यानसे व्याख्यान नहीं काटा जा सकता । अतः उपशमसम्यग्दृष्टिके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना न माननेवाला मत अप्रमाण नहीं है । फिर भी यहाँ दोनो ही मतोंको मान्य करना चाहिये, क्योंकि ऐसा कोई साधन नहीं है जिसके आधार पर एक मतको प्रमाण और दूसरेको अप्रमाण ठहराया जा सके।
इस शंका समाधानके बाद वीरसेन स्वामीने लिखा है कि 'यहां पर यही पक्ष प्रधान रूपसे लेना चाहिये कि उपशमसम्यग्दृष्टिके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना होती है क्योंकि परंपरासे यही उपदेश चला आता है। ऐसा ज्ञात होता है कि आचार्य यतिवृषभका यही मत है क्योंकि उन्होंने जो २४ प्रकृतिक विभक्तिस्थानका उस्कृष्टकाल साधिक एक सौ बत्तीस सागर बतलाया है वह उपशमसम्यग्दृष्टिके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना माने विना नहीं बनता । अतः इस विषयमें भी आचार्य यतिवृषभ और उच्चारणाचार्यमें मतभेद है।
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प्रस्तावना
विषयपरिचय
इस भागमें प्रकृतिविभक्तिका वर्णन है।
प्रारम्भमें ही आचार्य यतिवृषभने विभक्ति शब्दका निक्षेप करके उसके अनेक अर्थों को बतलाया है। फिर लिखा है कि यहां पर इन अनेक प्रकारकी विभक्तियोंमेंसे द्रव्यविभक्तिके कर्मविभक्ति और नोकर्मविभक्ति इन दो अवान्तर भेदों में से कर्मविभक्ति नामकी द्रव्यविभक्तिसे प्रयोजन है। कषाय प्राभूतमें उसोका वर्णन है।
इसके बाद कषायप्राभृतकी बाईसवीं गाथाका व्याख्यान करते हुए आचार्य यतिवृषभने उससे ६ अधिकारोंका ग्रहण किया है और उनमेंसे सबसे प्रथम प्रकृतिविभक्ति नामक अधिकारका कथन करनेकी प्रतिज्ञा की है।
प्रकृतिविभक्तिके दो भेद किये हैं—मूल प्रकृतिविभक्ति और उत्तरप्रकृतिविभक्ति। इस ग्रन्थमें केवल मोहनीय कर्म और उसकी उत्तर प्रकृतियोंका ही वर्णन है । अत: यहां मूल प्रकृतिसे मोहनीयकर्म और उत्तरप्रकृतिसे मोहनीयकर्मकी उत्तर प्रकृतियां ही ली गई हैं ।
मूलप्रकृतिविभक्ति मूल प्रकृतिविभक्तिका वर्णन करनेके लिये आचार्य यतिवृषभने आठ अनुयोगद्वार रक्खे हैंस्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर, भागाभाग और अल्प बहुत्व । किन्तु उच्चारणाचार्यने सतरह अनुयोगद्वारोंके द्वारा मूल प्रकृतिविभक्तिका वर्णन किया है। चूंकि चूर्णि सूत्र संचित हैं.
और चूर्णिसूत्रकारने केवल अत्यन्त आवश्यक अनुयोगोंका ही सामान्य वर्णन किया है, अत: जयधवलाकारने सर्वत्र अनुयोगद्वारोंका वर्णन उच्चारणावृत्तिके अनुसार ही किया है। सतरह अनुयोगद्वारोंका संक्षिप्त परिचय नीचे दिया जाता है।
समुत्कीर्तना-इसका अर्थ होता है-कथन करना । इसमें गुणस्थान और मार्गणाओं में मोहनीयकर्मका अस्तित्व और नास्तित्व बतलाया गया है । ग्यारहवें गुणस्थान तक सभी जीवोंके मोहनीयकर्मकी सत्ता पाई जाती है और बारहवें गुणस्थानसे लेकर सभी जीव उससे रहित हैं। अतः जिन मार्गणाओंमें क्षीण कषाय आदि गुणस्थान नहीं होते, उनमें माहनीयका अस्तित्व ही बतलाया है । और जिन मार्गणाओंमें दोनों अवस्थाएं संभव हैं उनमें अस्तित्व और नास्तित्व दोनों बतलाए हैं।
__ सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव-इसमें बतलाया है कि मोहनीयांवभक्ति किसके सादि है, किसके अनादि है, किसके ध्रुव है, और किसके अध्रुव है ?
स्वामित्व-इसमें मोहनीयकर्मके स्वामीका निर्देश किया है। जिसके मोहनीयकर्मकी सत्ता वर्तमान है वह उसका स्वामी है। और जो मोहनीयकर्मकी सत्ताको नष्ट कर चुका है वह उसका स्वामी नहीं है।
काल-इसमें बतलाया गया है कि जीवके मोहनीयकर्मकी सत्ता कितने काल तक रहती है और असचा कितने काल तक रहती है ? किसीके मोहनीयकी सचा अनादिसे लेकर अनन्तकाल तक रहती है और किसीके अनादि सान्त होती है।
अन्तर-इसमें यह बतलाया गया है कि मोहनीयकर्मकी सचा एक बार नष्ट होकर पुनः कितने समयके बाद प्राप्त हो जाती है। किन्तु चूकि मोहनीयका एक बार क्षय हो जानेके बाद पुनः बन्ध नहीं होता अतः मोहनीयका अन्तरकाल नहीं होता।
(१) पृ० १६।
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जयधवलासहित कषायप्राभूत
भंगविचयानुगम-इसमें नाना जीवोंकी अपेक्षा मोहनीयकर्मके अस्तित्व और नास्तित्वको लेकर भंगोंका विचार किया गया है।
भागाभागानुगम-इसमें यह बतलाया है कि सब जीवोंके कितने भाग जीव मोहनीयकर्मकी सचावाले हैं और कितने भाग जीव असत्ता वाले हैं।
परिमाण-इसमें मोहनीयकर्मकी सचावाले और असत्तावालोंका परिमाण बतलाया गया है ।
क्षेत्र-इसमें मोहनीयकर्मकी सचावाले और असचावाले जीवोका क्षेत्र बतलाया गया है कि वे कितने क्षेत्रमें रहते हैं।
स्पर्शन-इसमें उनका त्रिकाल विषयक क्षेत्र बतलाया गया है ।
काल-इसमें नानाजीवोंकी अपेक्षा मोहनीयकर्मके कालका कथन किया है। अर्थात् यह बतलाया है कि मोहनीयकर्मकी सत्तावाले और असत्तावाले जीव कब तक रहते हैं। चूंकि संसार में दोनों ही प्रकारके • जीव सर्वदा पाये जाते हैं अतः उनका काल सर्वदा बतलाया है। पहला कालका वर्णन एक जीव की अपेक्षासे है और यह नाना जीवोंकी अपेक्षासे है।
अन्तर-यह अन्तर भी नानाजीवोंकी अपेक्षासे है । चूंकि मोहनीयकर्मकी सत्ता और असत्तावाले जीव सदा पाये जाते हैं अत: सामान्यसे उनमें अन्तर नहीं है।
भाव-इसमें यह बतलाया है कि मोहनीयकर्मकी सत्तावालोंके पांच भावोंमें से कौन-कौन भाव होते हैं और असचावालोंके कौन भाव होता है। सचावालेके पारिणामिकके सिवा चार भाव होते हैं और असचावालेके केवल एक क्षायिक भाव ही होता है।
अल्पबहुत्व-इसमें मोहनीयकर्मकी सचा और असचावालोंमें कमती बढ़तीपन बतलाया गया है कि कौन थोड़े हैं कौन बहुत हैं ?
यहां यह ध्यान रखना चाहिये कि उक्त सभी अनुयोगद्वारों में गुणस्थान और मार्गणाओंकी अपेक्षा वर्णन किया गया है । तथा वह मोहनीय कर्मकी सत्ता और असत्ता को लेकर ही किया गया है। न तो मोहनीयके सिवा दूसरे किसी कर्मका इसमें वर्णन है और न सचा-असचाके सिवा किसी दूसरी अवस्था का ही वर्णन है। इस वर्णनके साथ मूल प्रकृति विभक्तिका वर्णन समाप्त हो जाता है जो ५९ पेनों में हैं।
उत्तरप्रकृतिविभक्ति उत्तर प्रकृतिविभक्तिके दो भेद हैं-एकैक उचर प्रकृतिविभक्ति और प्रकृतिस्थान उत्तर प्रकृति विभक्ति । एकैक उत्तर प्रकृतिविभक्तिमें मोहनीय कर्मकी अठाईस प्रकृतियोंका पृथक् पृथक् निरूपण किया गया है। और प्रकृतिस्थान उत्तर प्रकृतिविभक्तिमें मोहनीय कर्मके अट्ठाईस प्रकृतिक, सचाईसप्रकृतिक, छब्बीसप्रकृतिक आदि १५ प्रकृतिक स्थानोंका कथन किया गया है।
. एकैक उचर प्रकृतिकविभक्तिका कथन चौबीस अनुयोगद्वारोंकी अपेक्षासे किया गया है। इनमें १७ अनुयोगद्वार तो मूल प्रकृतिविभक्तिवाले ही हैं । शेष हैं-सर्वविभक्ति, नोसर्वविभक्ति, उत्कृष्टविभक्ति, अनुस्कृष्टविभक्ति, जघन्यविभक्ति, अजघन्यविभक्ति और सन्निकर्ष । मोहनीयकी समस्त प्रकृतियोंको सर्वविभक्ति और उससे कमको नोसर्वविभक्ति कहते हैं । गुणस्थान और मार्गणाओमें कहां मोहनीयकी सब प्रकृतियोंका सत्व है और कहां उनसे कम प्रकृतियोंका सत्त्व है इसका निरूपण इन दोनों अनुयोगद्वारोंमें किया गया है। सबसे उत्कृष्ट प्रकृतियोंको उस्कृष्टविभक्ति और उनसे कम को अनुस्कृष्ट विभक्ति कहते हैं। मोटे तौर पर सर्व
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प्रस्तावना
१३
विभक्ति और नोसर्वविभक्तिमें तथा उत्कृष्ट विभक्ति और अनुत्कृष्ट विभक्तिमें कोई भेद प्रतीत नहीं होता, तथापि यथार्थमें दोनोंमें अन्तर है । सर्वविभक्ति में तो पृथक् पृथक् सब प्रकृतियोंका कथन किया जाता है और उत्कृष्टविभक्तिमें समस्त प्रकृतियों का सामूहिक रूपसे कथन किया जाता है । इसी तरह नोसर्वविभक्ति और अनुत्कृष्ट विभक्तिमें भी जानना चाहिये ।
मोहनी की सबसे कम प्रकृतियोंका सत्त्व जघन्य विभक्ति है और उससे अधिकका सत्व अजघन्यविभक्ति है ।
एक प्रकृतिके अस्तित्वमें अन्य प्रकृतियोंके अस्तित्व और नास्तित्वका विचार सन्निकर्ष अनुयोग द्वारमें किया जाता है । जैसे, जो जीव मिथ्यात्वकी सत्तावाला है उसके सम्यक्त्व, सम्यक मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चार कषायोंकी सत्ता होती भी है और नहीं भी होती । किन्तु शेष बारह कषाय और नव नोकषायोंकी सत्ता अवश्य होती है । जिसके सम्यक्त्व प्रकृतिकी सत्ता है उसके मिथ्यात्व सम्यक मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी ४ की सत्ता होती भी है और नहीं भी होती, किन्तु मोहनीयकी शेष प्रकृतियोंकी सत्ता अवश्य होती है। इसी तरह शेष प्रकृतियोंके बारेमें विचार इस अनुयोगद्वार में किया गया है । शेष सतरह अनुयोगद्वारोंमें जिन बातोंका कथन किया है उसका निर्देश पहले किया ही है । अन्तर केवल इतना ही है कि मूलप्रकृति विभक्ति में मूल प्रकृति मोहनीय कर्मको लेकर विचार किया गया है और उत्तरप्रकृति विभक्तिमें मोहनीय कर्मकीं २८ उत्तर प्रकृतियोंको लेकर विचार किया गया है ।
यह उल्लेखनीय है कि आचार्य यतिवृषभने अपने चूर्णिसूत्रोंमें उत्तरप्रकृतिविभक्तिमें अनुयोगद्वारोंका निर्देश तो किया है किन्तु उनका कथन नहीं किया । श्री वीरसेन स्वामीने उसके सब अनुयोग द्वारोंका निरूपण उच्चारणावृत्तिके आधारसे ही किया है । .
प्रकृतिस्थानविभक्तिका वर्णन करते हुए आचार्य यतिवृषभने सबसे प्रथम मोहनीयके स्थानोंको गिनाया है । फिर प्रत्येक स्थानकी प्रकृतियोंको बतलाया है ।
मोहनीयके सत्त्वस्थान १५ होते हैं- २८, २७, २६, २४, २३, २२, २१, १३, १२, ११, ५, ४, ३, २, और १ प्रकृतिक । पहले सत्त्वस्थानमें मोहनीयकी सब प्रकृतियां होती हैं। दूसरेमें सम्यक्त्व प्रकृति नहीं होती । तीसरेमें सम्यक्त्व और सम्यक मिथ्यात्व प्रकृतियां नहीं होतीं। चौथेमें अनन्तानुवन्धी ४ कषाय नहीं होतीं । पांचवेमें चौत्रीसमेंसे मिथ्यात्व भी चला जाता है । छठेमें तेईसमेंसे सम्यक मिथ्यात्व भी चला जाता । सातवे में बाईसमेंसे सम्यक्त्व प्रकृति भी चली जाती है। आठवें में इक्कीसमेंसे आठ कषायें चली जातीं हैं। नौवेमें १३ मेंसे नपुंसक वेद भी चला जाता है । दसवें में १२ मेंसे स्त्रीवेद भी चला जाता है । ग्यारहवें में छ नोकषाय भी चली जाती हैं । बारहवें में पुरुष वेद भी चला जाता है और केवल ४ संज्वलन कषाय रह जाती हैं | तेरहवें में संज्वलन क्रोध चला जाता है। चौदहवेंमें संज्वलन मान चला जाता | और पन्द्रहवेंमें संज्वलन मायाके चले जानेसे केवल एक संज्वलन लोभ शेष रह जाता है । इन पन्द्रह स्थानोंका वर्णन गुणस्थान और मार्गणास्थानों में सतरह अनुयोगोंके द्वारा किया गया है । इनमेंसे आचार्य यतिवृषभने स्वामित्व, काल, अन्तर, भंगविचय, और, अल्पबहुत्वका कथन ओघसे किया है । शेष कथन उच्चारणाचार्य वृत्ति अनुसार ही किया गया है ।
•
भुजकारविभक्ति
मोहनी के उक्त स्वस्थानोंका निरूपण करने के लिये तीन विभाग और भी किये गये हैं। वे हैंभुजकार, पदनिक्षेप और वृद्धि । भुजकार विभक्तिमें बतलाया गया है कि उक्त सत्त्वस्थान सर्वथा स्थायी नहीं हैं, अधिक प्रकृतियोंके सत्वसे कम प्रकृतियों का सत्त्व हो सकता है और कम प्रकृतियोंके सत्त्वसे अधिक प्रकृतियोंका भी सस्व हो सकता है तथा ज्योंका त्यों भी रह सकता है । इस भुजकार विभक्तिका निरूपण भी
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"
अयषवलासहित कषायप्रामृत
सतरह अनुयोगोंके द्वारा किया गया है, जिनमेंसे काल अनुयोगका सामान्यसे कथन यतिवृषभ आचार्यने स्वयं किया है और शेष अनुयोगद्वारोंका कथन उच्चारणा वृचिके आधारसे किया गया है।
पदनिक्षेप
पहले मोहनीयके २८, २७ आदि विभक्तिस्थान बतलाये हैं। उनमेंसे अमुक स्थानसे अमुक स्थान की प्राप्ति होने पर वह हानिरूप है या वृद्धिरूप है, इत्यादि बातोंका विचार पद निक्षेप नामके विभागमें किया है । जैसे एक जीव अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता वाला है । उसने सम्यक्त्व प्रकृतिकी उद्वेलना करके सचाईस प्रकृतियोंकी सचाको प्राप्त किया तो यह जघन्य हानि कही जायेगी। तथा एक जीव इक्कीस प्रकृतियों की सत्ता वाला है । उसने क्षपकश्रेणी पर चढ़ कर आठ कषायोंका क्षय करके तेरह प्रकृतिक सत्त्व स्थानको प्राप्त किया तो यह उत्कृष्ट हानि कही जायेगी। इसी तरह मोहनीयकी सत्ता वाले किसी जीवने उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करके अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ताको प्राप्त किया तो यह जघन्य वृद्धि कहलायेगी । और चौवीस विभक्ति स्थानवाले किसी जीवने मिथ्यात्वमें जाकर अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सचा प्राप्त की तो यह उत्कृष्ट वृद्धि कहलायेगी। इत्यादि बातोंका विचार इस अधिकारमें किया गया है।
इस अधिकारके प्रारम्भमें केवल एक चूर्णिसूत्र लिखकर आचार्य यतिवृषभने प्रकृति विभक्तिको समाप्त कर दिया है। हां, उच्चारणाचार्यने समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व इस तीन अनुयोगद्वारोंसे पदनिक्षेपका वर्णन किया है । उसीको लेकर स्वामी वीरसेनने कथन किया है।
वृद्धिविभक्ति मोहनीयके उक्त सत्त्व स्थानोंमेंसे एक स्थानसे दूसरे स्थानको प्राप्त होते समय जो हानि, वृद्धि या अवस्थान होता है वह उसके संख्यातवे भाग है या संख्यातगुणा है इत्यादि विचार वृद्धिविभक्तिमें किया है। इस अधिकारका कथन तेरह अनुयोगद्वारोंसे किया गया है। वृद्धिविभक्तिके पूर्ण होनेके साथही प्रकृति विभक्ति समास होजाती है
अनुयोगोंकी उपयोगिता तस्वार्थ सूत्रके पहले अध्यायमें वस्तुतस्वको जाननेके उपाय बतलाते हुए कहा है कि यों तो प्रमाण और मयसे वस्तुतत्वका ज्ञान होता है, किन्तु उसमें सत् , संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुख भी उपयोगी हैं, इनके द्वारा वस्तुका पूरा सानोपांग ज्ञान हो जाता है । जैसे, यदि हमें मोटरें खरीदना है तो उनके बारेमें हम निम्न बातें जानना चाहेंगे-आजकल बाजारमें मोटर हैं या नहीं? कितनी हैं? कहां कहां है? हमेशा कहांसे मिल सकती हैं ? कब तक मिल सकती हैं ? यदि बिक चुकें तो फिर कितने दिन बाद मिल सकेंगी? किस किस रूप रंगकी हैं ? किस किस्मकी ज्यादा हैं और किस किस्मकी कम ? इन बातोंसे हमें मोटरोंके विषयमें जैसे पूरी जानकारी हो जाती है वैसे ही जैनसिद्धान्तमें जीव आदि तत्वोंकी जानकारी भी उक्त अनुयोगद्वारोंसे कराई गई है । चूकि प्रकृत कषायप्राभृत ग्रन्थका प्रतिपाद्य विषय मोहनीय कर्मका सत्त्व है अतः इसमें उसका कथन विविध अनुयोगोंके द्वारा किया गया है । उनसे उसका सङ्गोपांग परिज्ञान हो जाता है और कोई भी बात छूट नहीं जाती।
किन्तु आजके समयमें यह प्रश्न होता है कि एक मोहनीय कर्मके इतने सांगोपाङ्ग ज्ञानकी क्या भावश्यकता है? मनुष्य जीवनमें उसका उपयोग क्या है ?
जैन सिद्धान्तका नाम जानने वाले भी इतना तो जानते ही हैं कि जैन धर्म आत्मधर्म है । वह प्रत्येक मात्माके भभ्युस्थानका मार्ग बतलाता है। और आत्माके अभ्युत्थानका सबसे बड़ा बाधक मोहनीय कर्म है। भतः उत कर्मकी कौन कौन प्रकृति कब कहांपर केसी हालतमें रहती है, मादि बातोंको जानना आवश्यक है।
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प्रस्तावना
किन्तु यह स्पष्ट है कि आत्माके अभ्युत्थानके लिये इतना सांगोपांग ज्ञान होना ही आवश्यक नहीं है परन्तु चिचका एकाग्र होना आवश्यक है । और चितकी एकाग्रताके लिये करणानुयोगके ग्रन्थोंकी स्वाध्याय जितनी उपयोगी है उतनी अन्यग्रन्थोंकी नहीं, क्योंकि करणानुयोगका चिन्तन करते करते यदि मन अभ्यस्त हो जाता है तो उसमें कितना ही समय लगाने पर भी मन उचटता नही है और दुनियावी वासनाओमें जानेसे रुक जाता है । इसीसे विपाक विचय और संस्थान विचयको धर्मध्यानका अंग बतलाया है। अतः शानकी विशुद्धि, मनकी एकाग्रता और सद्विचारोंमें काल क्षेप करनेके लिये ऐसे ग्रन्थोंकी स्वाध्यायमें मन लगाना चाहिये।
हर्षका बात है कि उत्तर भारतके सहारनपुर खतौली आदि नगरोंमें आज भी ऐसे स्वाध्याय प्रेमी सदगृहस्थ हैं, जो ऐसे ग्रन्थोंकी स्वाध्यायमें अपना काल क्षेप करते हैं। उनमें सहारनपुरके बा० नेमिचन्द्र जी वकील व बा० रतनचन्द जी मुख्तार, मुजफ्फर नगरके बा०मित्रसेन जी.खतौलीके लाला नानकचन्दजी तथा सलावाके लाला हुकुमचन्द्रजीका नाम उल्लेखनीय है। बा०मित्रसेनजीने जयधवलाके प्रथम भागकी स्वाध्याय करनेके बाद कुछ शकायें जयधवला कार्यालयसे पूछी थीं जिनका समाधान उनके पास भेज दिया गया था। ला० नानकचन्दजीने तो स्वाध्याय करते समय मूलसे अनुवादका मिलान तो किया ही, साथ ही साथ खतौलीके श्री जिन मन्दिरजीकी जयधवलाकी लिखित प्रतिसे भी मूलका मिलान करके हमारे पास पाठान्तरोंकी एक लम्बी तालिका भेजी । किन्तु उसमें कोई ऐसा पाठान्तर नहीं मिला जो शुद्ध हो और अर्थकी दृष्टिसे महत्व रखता हो । अधिकतर पाठान्तर लेखकोंके प्रमादके ही सूचक हैं, इसीसे उन्हें यहां नहीं दिया गया है। फिर भी उन्होंने मूलमें दो स्थानों पर छूटे हुए पाठोंकी ओर हमारा ध्यान दिलाया है उन्हें हम संधन्यवाद यहां देते हैं
१-पृष्ठ ९८, पं० २ में ‘णायर-खेट' आदिसे पहले 'गाम' पाठ और होना चाहिये। २–पृष्ठ ११०, पं० ४ में 'कित्तणं वा' से पहले 'सरूवाणुसरणं' पाठ जोड़ लेना चाहिये। . ३-पृ० ३९२, पं० ३ में ‘णाणजीवेहि' के स्थान में 'णाणाजीवेहि होना चाहिये ।
शून्योंका खुलासा जयधवलाके प्रथम भागके अन्तमें अनुयोगद्वारोके वर्णनमें मूलमें शून्य रखे हुए हैं । लाला नानक चन्द्रजीने इन शून्योंका अभिप्राय पूछा था। इस दूसरे भागमें तो चूँकि अनुयोगद्वारोंका ही वर्णन है, अतः मूलमें शून्योंकी भरमार है। इन शून्योंके रखनेका अभिप्राय यह है बार बार उसी शब्दको पूरा न लिखकर उसके आगे शून्य रख दिया गया है। इससे लिखनेमें लाघव हो जाता है और उसके संकेतसे पाठक छोड़ा गया पाठ भी हृदयंगम कर लेता है। जैसे 'कम्मइय०' से कार्मणकाय योगी लिया गया है, सो पूरा 'कम्मइयकायजोगि' न लिखकर ‘कम्मइय०' लिख दिया गया है। ऐसेही सर्वत्र समझ लेना चाहिये।
अलमिति विस्तरेण
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जयधवलासहित कषायप्रामृत
शुद्धिपत्र
शुद्ध
१७* ४
अशद्ध विहत्ती योगिमतियों जघन्य से अन्तर्महर्त
३०
२२
शुद्ध प. पं० विहत्ती १ ९६ ४ योनिमतियों, १३२ जघन्य से खुद्दाभव ग्रहण, अन्त- __२७ महूर्त, अन्त
मुंहूर्त
४०
१५६
अशुद्ध खबयवस्स खवयस्स णवंसय
णवंसय [एवंलोभ .... यह पाठ सिया अविह० । ] नहीं चाहिये [इसी प्रकारलोभ यह नहीं कषायी....." चाहिये नहीं भी है] जोवोंके
जीवोंके स्यान
स्थान बारसदि बारसादि बारह
बारह आदि अकपंती अंकपती
१७२ उदयट्टिदं उदयट्टिदिं षढमादि पढ़मादि चातिके
जातिके खत्ते भंगों खेत्त भंगो
१० उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट काल और
२१८ ६ कर्मका उत्कृष्ट कर्मका जघन्य
काल एक समय और
उत्कृष्ट १७ जघन्यकाल जघन्य और
३११ उत्कृष्ट काल
३८९ २९ केवलियोंकी केवलियों
और सिद्धोंको ८ भागेषु
मागेसु ३० लब्यपर्याप्तक लब्ध्यपर्याप्तक ४१६
४२५
२८
४१
५९ ७१
देष
२४
२८, २९
२८, २७
-
-
-
आगे १, २, ३, ४, ५ ओर ६ का अंक
*१० १८७ और १८ में चूर्णिसूत्रोंके हिन्दी अर्थके छपनेसे रह गया है सो डाल लेना चाहिये ।
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विषयसूची
पृ० | विषय
।
.
१५
विषय बाईसवी गाथा
१ मूलप्रकृतिविभक्ति
२२-७६ बाईसवीं गाथाका अर्थ
२-३ | मूलप्रकृतिविभक्तिके आठ अनुयोगद्वार २२ आचार्ययतिवृषभके चूर्णि सूत्रका आश्रय लेकर उच्चारणाचार्यने मूलप्रकृति विभक्तिके १७ विभक्तिका कथन
४-१३ | अर्थाधिकार कहे हैं और यतिवृषभने आठ, विभक्ति शब्दके आठ अर्थ
दोनों में विरोध क्यों नहीं है ? नामविभक्ति और स्थापनाविभक्तिका अर्थ ५ आठ अधिकारोंके द्वारा शेषका ग्रहण द्रव्य विभक्तिका कथन ५-६ | समुत्कीर्तनानुगमका कथन
२३ क्षेत्रविभक्तिका कथन
७ | सादि अनादि ध्रुव और अध्रवानुगमका कथन २४-२५ कालविभक्तिका कथन स्वामित्वानुगमका कथन
२६ संस्थानविभक्तिका कथन
९-११ कालानुगमका कथन
२७-४४ भावविभक्तिका कथन
१२-१३
अन्तरानुगमका कथन आचार्य यतिवृषभने चूर्णिसूत्रमें २ का अंक
नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयानुगम ४४-४६ क्यों रक्खा, इसका खुलासा
भागाभागानुगम
४७-४९ २ के अंकसे सूचित अर्थका कथन
परिमाणानुगम
४९-५३ उक्त विभक्तियोंमेंसे यहां कर्म विभक्ति नामकी
क्षेत्रानुगम
५३-५९ . द्रव्यविभक्तिसे प्रयोजन है इसका कथन १६ | स्पर्शनानुगम अपने द्वारा माने गये अर्थाधिकारोंको गाथा
नाना जीवोंकी अपेक्षा कालानुगम ७१-७४ सूत्रमें दिखलानेके लिये आचार्य
, , , अन्तरानुगम ७४-७७ यतिवृषभके द्वारा २२ वी गाथाका
भावानुगमका कथन
७७-७८ व्याख्यान
१७-१८ अल्पबहुत्वानुगमका कथन
७८-७९ -पदके भेद और उनका अर्थ
एकैक उत्तरप्रकृति विभक्ति ८०-१९८ यतिवृषभके अभिप्रायसे इस गाथासे ६ अर्थाधिकार सूचित होते हैं और गुणधरा
उत्तरप्रकृतिविभक्तिके भेद चार्यके अभिप्रायसे दो ही अर्थाधिकार
एकैक उत्तर प्रकृतिविभक्तिका स्वरूप बतलाये हैं इसका कथन
प्रकृतिस्थान उत्तर प्रकृतिविभक्तिका स्वरूप प्रकृति विभक्तिका कथन करनेकी प्रतिज्ञा
एकैक उत्तर प्रकृतिविभक्तिके अनुयोगद्वार यतिवृषभका कथन गुणधराचार्यके प्रतिकूल
उच्चारणाचार्यके द्वारा कहे गये २४ अनुयोगनहीं है इसका कथन .
__ द्वारों और यतिवृषभाचार्यके द्वारा कहे
गये ११ अनुयोगद्वारोंमें अविरोधका प्रकृति विभक्तिके भेद
कथन मूलप्रकृतिके साथ विभक्ति शब्द रखने में
८०-८१ आपत्ति तथा उसका परिहार
किस अनुयोगका किस अनुयोगमें संग्रह यहां मोहनीय कर्मकी ही विवक्षा क्यों है?
किया गया है, इसका कथन ८१-८२ - इसका समाधान
समुत्कीर्तनाका कथन.. ८३-८७ आठों कर्मो में प्रकृति विभक्ति यानी स्वभाव
सर्वविभक्ति नोसर्वविभक्तिका कथन ८८ भेदका कथन
उत्कृष्टविभक्ति अनुत्कृष्ट विभक्तिका कथन ,
८०
२०
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१८
जयघवलासहित कषायप्रामृत
जघन्यविभक्ति अजमन्य विभक्तिका कथन ८९ | प्रकृतिस्थान विभक्तिके अनुयोग द्वार २०० सादि अनादि ध्रुव और अध्रुवानुगमका
मोहनीयके १५ सत्व स्थानोंका कथन कथन
८९-९० इन सत्व स्थानोंकी प्रकृतियोंका कथन स्वामित्वानुगमका कथन
२०२-२०४ ओघसे
९१-९२ चौदह मार्गणाओंमें स्थान समुत्कीर्तन २०५आदेशसे , ९२-९८
२०८ कालानुगमका कथन
९९-१२३ उच्चारणाचार्यके द्वारा कहे अनुयोगद्वारों ओघसे . . " ९९-१०० का कथन
२०९ आदेशसे
१०१-१२३ सादि अनादि ध्रुव और अध्रुवानुगमका अन्तरानुगमका कथन १२३-१३० कथन
२०९-२१० ओघसे
१२३-१२४ यतिवृषभके द्वारा स्वामित्वानुगमका आदेशसे ,.
१२४-१३० कथन
२१०-२२१ सन्निकर्षका कथन
१३०-१४४ एक प्रकृतिक स्थानका स्वामी कौन है? २१० ओघसे ,
१३०-१३२ यह प्रश्न गौतम स्वामीने महावीर भगवानसे आदेशसे १३३-१४४ किया था
२११ नानाजीवोंकी अपेक्षा भंगविचया
चूर्णिसूत्रमें आये 'मनुष्य' शब्दसे पुरुषबेदी और नुगम
१४४-१५० नपुंसकवेदी मनुष्योंका ग्रहण करनेका कथन २१२ भागाभागानुगमका कथन १५१-१५७ पांच प्रकृतिक स्थान मनुष्योंके हो होता ओघसे
है मनुष्यिणीके नहीं, इसका कथन आदेशसे
१५२-१५७ इक्कीस प्रकृतिक स्थानका स्वामी परिमाणानुगमका कथन
१५७-१६३ बाईस प्रकृतिक , क्षेत्रानुगमका कथन
१६३-१६४ बाईस प्रकृतिक स्थानके स्वामीके विषयमें स्पर्शनानुगमका कथन १६५-१७१ शंका समाधान
२१४ ओघसे
१६५-१६६ कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टिके विषयमें आचार्य । आदेशसे
१६६-१७१ यतिवृषभके दो उपदेशोंका कथन २१५ नानाजीवोंकी अपेक्षा कालानुगम १७१-१७२ उच्चारणा चार्यके उपदेशानुसार कृतकृत्य
, अन्तरानुगम १७३-१७४ वेदकके मरण न करनेका कथन भावानुगमका कथन
१७५-१७६ तेईस प्रकृतिक स्थानका स्वामी २१७ अस्पबहुत्वानुगमका कथन १७६-१९८ चौवीस प्रकृतिक स्थानका स्वामी २१८ स्वस्थान अल्पबहुत्व ओघसे
१७६ विसंयोजना कौन करता है ? १७७-१७९ विसयोजनाका लक्षण
२१९ परस्थान अल्पबहुत्व ओघसे - १७९-१८२ विसंयोजना और क्षपणामें अन्तर
आदेशसे १८२-१९८ छव्वीस प्रकृतिक स्थानका स्वामी २२१ प्रकृतिस्थान उत्तरप्रकृतिविभक्ति ।
सत्ताईस
१९९-३८३ अट्ठाईस प्रकृतिस्थान शब्दका अर्थ
उच्चारणाचार्यके उपदेशानुसार आदेशमें प्रकृतिस्थानके तीन भेद
स्वामित्वका कथन
२२२-२३२ उनमें से यहां सत्त्व प्रकृति स्थानोंके ही कालानुगमका कथन
२३३-२८० ग्रहण करनेका कथन
, एक विभक्तिस्थानका जघन्यकाल २३३
"
, आदेशसे
"
"
मा
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विषयसूची .
२३७
२३९
एक विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल २३६ भंग निकालनेकी दूसरी विधि ३००-३१० दो प्रकृतिकस्थानका जघन्यकाल
समस्त मंगोंका जोड़ " उत्कृष्टकाल
२३८ आदेशमें भंगोका निरूपण . ३१२-३१५ तीन प्रकृतिकस्थानका जघन्यकाल
उच्चारणाचार्यके उपदेशानुसार शेष अनुयोग" उत्कृष्टकाल २३९ द्वारोंका कथन चार प्रकृतिकस्थानका जघन्यकाल
भागाभागानुगमका कथन ३१६-३१८ " उत्कृष्टकाल २४० परिमाणानुगमका कथन ३१९-३२३ पांच प्रकृतिकस्थानका काल
२४३ क्षेत्रानुगमका कथन : ...३२४-३२६ ग्यारह प्रकृतिकस्थानका काल २४४ स्पर्शानुगमका कथन
३२६-३३४ बारह प्रकृतिक " " २४५ कालानुगमका कथन
३३४-३४ तेरह प्रकृतिक , ,
अन्तरानुगमका कथन
३४४-३५२ बारह प्रकृतिकस्थानके जघन्यकालके विषय
भावानुगमका कथन
३५२ में विशेष कथन
२४६ पदविषयक भल्पबहुत्षका ओघकथन ३५३ इक्कीस प्रकृतिकस्थानका काल
" २४७
" आदेशकथन ३५५ बाईस
ર૪૮ आचार्य यतिवृषभके द्वारा जीवविषयक अल्प तेईस
बहुत्वका कथन
३५९-३७५ चौबीस
२४९ वीरसेन स्वामीके द्वारा प्रत्येकके अल्प- . छन्वीस २५२ बहुत्वका उपपादन
३५९-३७५ सचाईस
२५४-२५५. | उच्चारणाचार्यके अनुसार आदेशमें अल्पवहुत्व अहाईस २५५-२५६ का कथन
३७५-३८३ उच्चारणाचार्यके उपदेशानुसार आदेशमें
भुजगार अनियोगद्वारका कथन कालका कथन
२५६-२८० भन्तरानुगमका कथन
२८१
भुजकारविभक्तिके सतरह अनुयोगद्वार ३८४ एक प्रकृतिकस्थानका अन्तर नहीं २८१
समुत्कीर्तनानुगमका कथन २३ से लेकर दो प्रकृतिक स्थानों तकका
स्वामित्वानुगमका कथन
३८६ भी अन्तर नहीं २८२ एक जीवकी अपेक्षा कालका कथन
३८७ चौबीस प्रकृतिकस्थानका जघन्य अन्तर २८२ | शेष अनुयोग द्वारोका कथन न करके
___" " उत्कृष्ट अन्तर २८३ यतिवृषभने कालका ही कथन क्यों किया छब्बीस प्रकृतिकस्थानका जघन्य अन्तर २८३ इसका समाधान छन्वीस प्रकृतिकस्थानका उत्कृष्ट अन्तर २८४ भुजकारका स्वरूप
३८८ सचाईस प्रकृतिकस्थानका जघन्य अन्तर " अवस्थित विभक्तिस्थानके कालके तीन भंग ३८९ , उत्कृष्ट अन्तर २८५ | उपाधपुद्गलका अर्थ
३९१ अट्ठाईस प्रकृतिकस्थानका जघन्य अन्तर " उच्चारणाके अनुसार आदेशमें कालका
, उत्कृष्ट अन्तर २८६ कथन उच्चारणाचार्यके उपदेशानुसार आदेशमें उच्चारणाके अनुसार शेष अनुयोगद्वारोंका अन्तरकालका कथन
२८७-२९२ कथन नानाजीवोंकी अपेक्षा भंग विचयानुगम २९२ अन्तरानुगमका कथन भजनीयपदोंके भंग लानेकी विधि
नाना जीवोंकी अपेक्षा भंग विचयानुगम ४०२ विधिकी उपपति २९४-२९९ परिमाणानुगमका कथन
४०४
३८४-१२४
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२०
जयपवलासहित कषायप्राभृत
कालानुगमका अंतरानुगमका नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचयानुगम भागाभागानुगमका कथन परिमाणानुगमका क्षेत्रानुगमका स्पर्शनानुगमका कालानुगमका अन्तरानुगमका भावानुगमका अल्पबहुत्वानुगमका ,
४४९ ४५६ ४५९ ४६१ ४६३
४६५
४७०
भागाभागानुगमका कथन
४०६ क्षेत्रानुगमका ,
४०८ स्पर्शनानुगमका , कालानुगमका ,
४१४ उपशम सम्यग्दृष्टिके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी . विसंयोजना होनेमें मतभेदकी चर्चा ४१७ अन्तरानुगमका कथन
४१९ 'देवोंमें अस्पतरके अन्तरकालको लेकर
उच्चारणाओंमें मतभेदकी चर्चा . अल्पबहुत्वानुगमका कथन
४२२ पदनिक्षेप अधिकारका कथन ४२५-४३६
पदनिक्षेप किसे कहते हैंसमुत्कीर्तनानुगमका कथन
४२६ स्वामित्वका "
४२९ अल्पबहुत्वानुगमका ,
४३३ वृद्धिविभक्ति अधिकारका कथन ४३७-४८२ समुत्कीर्तनानुगमका कथन
४३७ स्वामित्वानुगमका ,
४२०
४८९
परिशिष्ट
४८५-४६३ गाथा-चूर्णिसूत्र
४८५-४८८ अवतरणसूची ऐतिहासिक नामसूची ग्रन्थ नामोल्लेख गाथा-चूर्णिसूत्रगत शब्द-सूची जयधवलागत विशेष शब्द-सूची
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कसायपाहुडस्स प य डि वि हत्ती
विदिओ अत्थाहियारो
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जेहि कसायपाहुडमणेयणयमुञ्जलं अनंतत्थं । गाहाहि विवरियं तं गुणहरभडारयं वंदे ॥
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mahela
सिरि-जइवसहाइरियविरइय-चुण्णिसुत्तसमण्णिदं
सिरि-भगवंतगुणहरभडारोवइ8
कसा यपा हुडं
तस्स
सिरि-वीरसेणाइरियविरइया टीका जयधवला
तत्थ पयडिविहत्ती णाम विदियो अत्याहियारो
(४) पगदीए मोहणिज्जा विहत्ति तह हिदीए अणुभागे।
उक्कस्समणुकस्सं झीणमझीणं च ट्ठिदियं वा ॥२२॥ मोहनीयकर्मकी प्रकृति, स्थिति और अनुभाग विभक्ति तथा उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश विभक्ति, झीणाझीण और स्थित्यन्तिकका कथन करना चाहिये ॥२२॥
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ ६१. संपहि एदिस्से गाहाए अत्थो वुच्चदे। तं जहा, मोहणिजपयडीए विहत्तिपरूवणा मोहणिजहिदीए विहत्तिपरूवणा मोहणिजअणुभागे विहत्तिपरूवणा च कायव्वा त्ति एसो गाहाए पंढमद्धस्स अत्थो। एदेहि तिहि वि अत्थेहि एक्को चेव अत्थाहियारो। 'उक्कस्समणुक्कस्सं' चेदि उत्ते पदेसविसयउक्कम्साणुक्कम्साणं गहणं कायव्वं; अण्णेसिमसंभवादो। पयडि-हिदि-अणुभाग-पदेसाणमुक्कस्साणुक्कस्साणं गहणं किण्ण कीरदे ? ण, तेसिं गाहाए पढमत्थे (-द्धे) परविदत्तादो । एदेण पदेसविहत्ती सूइदा । 'झीणमझीणं' ति उत्ते पदेसविसयं चेव झीणाझीणं घेत्तव्वं; अण्णस्स असंभवादो। एदेण झीणाझीणं सूचिदं । 'हिदियं' ति वुत्ते जहण्णुक्कस्सटिदिगयपदेसाणं गहणं । एदेण टिदियंतिओ सूइदो । एदे तिण्णि वि अत्थे घेत्तूण एक्को चेव अत्थाहियारो; पदेसपरूवणादु
$ १. अब इस गाथाका अर्थ कहते हैं। वह इसप्रकार है-मोहनीयकी प्रकृतिमें विभक्ति प्ररूपणा, मोहनीयकी स्थितिमें विभक्तिप्ररूपणा और मोहनीयके अनुभागमें विभक्तिप्ररूपणा करना चाहिये। इस प्रकार यह गाथाके पूर्वार्द्धका अर्थ हैं । इन तीनों अर्थों की अपेक्षा एक ही अर्थाधिकार है। गाथामें ' उक्कस्समणुक्कस्सं' ऐसा कहा है। उससे प्रदेशविषयक उत्कृष्ट और अनुत्कृष्टका ग्रहण करना चाहिये क्योंकि, यहाँ प्रदेशविभक्तिके सिवा दूसरोंका उत्कृष्टानुत्कृष्ट सम्भव नहीं है।
शंका-यहाँ पर उत्कृष्टानुत्कृष्ट पदसे प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश इन चारोंके ही उत्कृष्टानुत्कृष्टका ग्रहण क्यों नहीं किया है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि प्रकृति, स्थिति और अनुभागका गाथाके पूर्वार्धमें ही कथन कर दिया है, इसलिये उत्कृष्टानुत्कृष्ट पदसे प्रदेशविषयक उत्कृष्टानुत्कृष्टका ही ग्रहण समझना चाहिये।
इस प्रकार गुणधर आचार्यने 'उक्कस्समणुक्करसं' इस पदके द्वारा मोहनीयकर्मविषयक प्रदेशविभक्तिका सूचन किया है। गाथामें 'झीणमझीणं' ऐसा कहनेसे प्रदेशविषयक झीणाझीणका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि यहाँ प्रकृत्यादि विषयक झीणाझीणका ग्रहण संभव नहीं है। इस प्रकार गुणधर आचार्यने 'झीणमझीण' इस पदके द्वारा झीणाझीण अधिकारका सूचन किया है। गाथामें ' हिदियं' ऐसा कहनेसे जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिगत प्रदेशोंका ग्रहण किया है। इस पदके द्वारा गुणधर आचार्यने स्थित्यन्तिक अधिकारको सूचित कियाहै। इन तीनों अर्थोंको लेकर एक ही अर्थाधिकार होता है, क्योंकि, इन तीनोंके द्वारा प्रदेश
(२) पढमत्थस्स अ० । (२) “तत्थ य कदमाए द्विदीए ट्ठिदपदेसग्गमुक्कड्डणाए ओकड्डणाए च पाओग्गमप्पाओग्गं वा ण एरिसो विसेसो सम्ममवहारिओ। तदो तस्स तहाविहसत्तिविरहाबिरहलवखणत्तेण पत्तझीणाझीणववएसस्स ट्ठिदीओ अस्सिदूण परूवणट्ठमेसो अहियारोओदिण्णो।"-जयध० प्रे० का० ५० ३१२० ।
हो"द्विदीओ गच्छइ त्ति टिदियं पदेसग्गं टिदिपत्तयमिदि उत्तं होदि। तदो उक्कस्सटिदिपत्तयादीणं सरूवविसेसजाणावणठें पदेसविहत्तीए चूलियासरूवेण एसो अहियारो।"----जमध० प्रे० का० ५० ३३१५ ।
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गा० २२]
सुत्तगाहाए अत्थो वारेण एयत्तुवलंभादो । एसो गुणहरभडारएण णिद्दिष्टत्थो । विभक्तिका कथन किया गया है, इसलिये इस अपेक्षासे वे तीनों एक हैं। ऊपर यह जो कुछ कहा गया है वह गुणधरभट्टारक द्वारा बतलाया हुआ अर्थ है ।
विशेषार्थ-गुणधर भट्टारकने कसायपाहुडकी १८० गाथाएं पन्द्रह अर्थाधिकारोंमें व्यवस्थित की हैं यह तो 'गाहासदे असीदे' इत्यादि दूसरी गाथासे ही जाना जाता है। तथा उन्होंने 'पेजं वा दोसं वा' 'पयडीए मोहणिज्जा' और 'कदि पयडीओ बंधदि' ये तीन गाथाएं पारम्भके पांच अर्थाधिकारोंमें मानी हैं यह कसायपाहुडकी 'पेज्जदोसविहत्ती' इत्यादि तीसरी गाथासे जाना जाता है। पर इस तीसरी गाथाके अनुसार वीरसेनस्वामी जो पांच अधिकारोंका विभाग कर आये हैं उससे इस पूर्वोक्त उल्लेखमें फरक पड़ता है। इसका कारण यह प्रतीत होता है कि वीरसेनस्वामीने तीसरी गाथाके पूर्वार्धकी व्याख्या करते हुए जो तीन विकल्प संभव थे वे वहां बतला दिये और 'पगदीए मोहणिज्जा' इसकी व्याख्या करते हुए इससे जो चौथा विकल्प ध्वनित होता है उसका निर्देश यहां कर दिया है। गाथाके पूर्वार्ध में विभक्ति शब्द मुख्य है और शेष पद उसके विषयभावसे आये हैं, अतः इस पदसे वीरसेनस्वामीने यह अभिप्राय निकाला है कि गुणधरभट्टारकके मतसे प्रकृतिविभक्ति, स्थितिविभक्ति और अनुभागविभक्ति इन तीनोंका एक अधिकार हुआ । तथा गाथाके उत्तरार्ध में उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश, झीणाझीण और स्थित्यन्तिक इन तीनों के द्वारा एक प्रदेशविभक्तिका कथन किया गया है अतः इन तीनोंका एक अधिकार हुआ। इस प्रकार इस चौथे विकल्पके अनुसार १ पेजदोषविभक्ति, २ प्रकृति-स्थिति-अनुभागविभक्ति, ३ प्रदेशझीणाझीण-स्थित्यन्तिक, ४ बन्ध और ५ संक्रम ये पाँच अधिकार होते हैं।
उक्त चार विकल्पोंके अनुसार ५ अधिकारोंका सूचक कोष्ठक नीचे दिया जाता हैपेजदोषविभक्ति | पेज्जदोषविभक्ति पेज्जदोषविभक्ति पेज्जदोषविभक्ति
(प्रकृति विभक्ति) (प्रकृति विभक्ति) स्थितिविभक्ति स्थितिविभक्ति स्थितिविभक्ति
प्रकृति, स्थिति और (प्रकृतिविभक्ति)
अनुभाग विभक्ति अनुभागविभक्ति ___ अनुभाग विभक्ति । अनुभागविभक्ति प्रदेशविभक्ति, (प्रदेशवि० झीणाझीण (प्रदेशविभक्ति, झीणा
झीणाझीण और और स्थित्यन्तिक) झीण और स्थित्यन्तिक)
स्थित्यन्तिक बन्ध
प्रदेशविभक्ति झीणा- बन्ध
झीण और स्थित्यन्तिक संक्रम संक्रम बन्ध
संक्रम
बन्ध
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जयधवलासहिंदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ २. संपहि जइवसहाइरियउवइटचुण्णिसुत्तमस्सिदूण विहत्तीए परूवणं कस्सामो
* 'विहत्ति हिदि अणुभागे च ति' अणियोगद्दारे विहत्ती णिक्खिवियव्वा । णामविहत्ती ठवणविहत्ती दव्वविहत्ती खेत्तविहत्ती कालविहत्ती गणणविहत्ती संठाणविहत्ती भावविहत्ती चेदि ।
३. 'विहत्ति हिदि अणुभागे च ति' एत्थ जो हविद 'इदि' सद्दो जेण पञ्चयत्थेहिंतो एदं सद्दकलावं पल्लट्टावेदि तेणेसो सरूवपर्यत्थो ( तो)। तत्थ जो विहत्तिसद्दो तस्स णिक्खेवो कीरदे अणवगयत्थपरूवणादुवारेण पयदत्थग्गहणटं। के ते तस्स विहत्तिसहस्स अत्था ? णामादिभावपञ्जवसाणा । एतेष्वर्थेष्वेकस्मिन्नर्थे विभक्तिनिक्षेप्तव्या
६२. अब यतिवृषभ आचार्य के द्वारा कहे गये चूर्णिसूत्रका आश्रय लेकर विभक्तिका कथन करते हैं
__* 'विहत्ती हिदि-अणुभागे च' इस वाक्यमें आये हुए विभक्ति शब्दका निक्षेप करना चाहिये । यथा-नामविभक्ति, स्थापनाविभक्ति द्रव्यविभक्ति, क्षेत्रविभक्ति, कालविभक्ति, गणनाविभक्ति, संस्थानविभक्ति, और भावविभक्ति ।
६३. यद्यपि 'ज्ञान, अर्थ और शब्द ये समान नामवाले होते हैं' इस नियमके अनुसार 'विहत्ति हिदि अणुभागे च' यह वाक्यसमुदाय तीनोंका वाचक हो सकता है फिर भी इस वाक्यमें जो 'इति' शब्द आया है उससे जाना जाता है कि प्रकृतमें यह शब्दसमुदाय प्रत्यय और अर्थका वाचक नहीं है किन्तु अपने स्वरूपमें प्रवृत्त है। तात्पर्य यह है कि यहाँ पर 'विहत्ति हिदि अणुभागे च' इत्याकारक ज्ञान और इत्याकारक अर्थका ग्रहण न करके 'विहत्ति हिदि अणुभागे च' इन शब्दोंका ही ग्रहण करना चाहिये ।
उस विभक्ति शब्दके अनेक अर्थ हैं। उनमेंसे अनवगत अर्थके कथन द्वारा प्रकृत अर्थका ज्ञान कराने के लिये उसका निक्षेप करते हैं।
शंका-उस विभक्ति शब्दके वे अनेक अर्थ कौन कौन हैं ? समाधान-ऊपर सूत्रमें जो नामसे लेकर भाव तक विभक्तिके भेद बतलाये हैं वे सब
(१) “णामं ठवणा दविए खेत्ते काले तहेव भावे य । एसो उ विभत्तीए णिक्खेवो छव्विहो।"सू० श्रु० १, अ० ५, उ०१। “णिक्खेवो विभत्तीए चउव्विहो दुविह होइ दव्वम्मि। आगमनोआगमओ नोआगमओ अ सो तिविहो ॥५५३।। जाणगसरीरभविए तव्वइरित्ते य सो भवे दुविहो । जीवाणमजीवाण य जीवविभत्ती तहिं दुविहा ॥५५४॥ सिद्धाणमसिद्धाण य अज्जीवाणं तु होइ दुविहा उ । रूवीणमरूवीण य विभासियव्वा जहा सुत्ते ॥५५५।। भावम्मि विभत्ती खलु नायव्वा छव्विहम्मि भावम्मि । अहिगारो एत्थ पुण दव्वविभत्तीए अज्झयणे ॥५५६॥"-उत्त० पाई. ३६ अ०। (२) “कदीति एत्थ जो इदि सहो तस्स 'हेतावेवं प्रकारादिव्यवच्छेदे विपर्यये। प्रादुर्भावे समाप्तौ च 'इति'शब्दः प्रकीर्तितः।' इति वचनात् । एतेष्वर्थेषु क्वायमिति शब्दः प्रवर्तते? स्वरूपावधारणे । ततः किं सिद्धं ? कृतिरित्यस्य शब्दस्य योऽर्थः सोऽपि कृतिः। अर्थाभिधानप्रत्ययास्तुल्यनामधेया इति न्यायात्तस्य ग्रहणं सिद्धम् ।"-वेदना.ध. आ०५०५५२॥ अष्टस पृ० २५१।
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गा० २२
विहत्तीए णिक्खेवो
न्यस्तव्या इति यावत् ।
४. संपहि अटण्हं विहत्तीणमत्थपरूवणमुत्तरसुत्तं भणदि
* णोआगमदो दव्वविहत्ती दुविहा, कम्मविहत्ती चेव णोकम्मविहत्ती चेव ।
$ ५. णाम-दृवणाविहत्तीणमत्थो वुच्चदे - सरूवपयत्थो (तो) विहत्तिसद्दो कामविहत्ती। सब्भावासम्भावटवणाओ डवणविहत्ती। दव्वविहत्ती दुविहा आगम-णोआगमविहत्तिभेएण । विहत्तिपाहुडजाणओ अणुवजुत्तो आगमविहत्ती। णोआगमविहत्ती तिविहा, जाणुअसरीरविहत्ती भवियविहत्ती तव्वदिरित्तविहत्ती चेदि । विहत्तिपाहुडजाणयस्स भविय-वट्टमाण-समुज्झादसरीरं जाणुअसरीरविहत्ती। भविस्सकाले विहत्तिपाहुडजाणओ जीवो भवियविहत्ती। एदासिं विहत्तीणमत्थो जइवसहाइरिएण किण्ण परूविदो ? सुगमत्तादो। णाणावरणादिअढकम्मेसु मोहणीयं पयडिभेएण भिण्णत्तादो कम्मविहत्ती. विभक्ति शब्दके अर्थ हैं।
उनमेंसे किसी एक अर्थमें विभक्ति शब्दका निक्षेप करना चाहिये यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
६४. अब आठों विभक्तियोंके अर्थका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* नोआगमकी अपेक्षा द्रव्यविभक्ति दो प्रकार की है कर्मनोआगमद्रव्यविभक्ति और नोकर्मनोआगमद्रव्यविभक्ति ।
६५. अब नामविभक्ति और स्थापनाविभक्तिका अर्थ कहते हैं-जो विभक्ति शब्द अपने स्वरूपमें प्रवृत्त है और बाह्यार्थकी अपेक्षा नहीं करता उसे नाम विभक्ति कहते हैं। विभक्तिकी सद्भाव और असद्भावरूपसे स्थापना करना स्थापनाविभक्ति है। आगम और नोआगमके भेदसे द्रव्यविभक्ति दो प्रकारकी है। जो विभक्तिविषयक शास्त्रको जानता है, परन्तु उसमें उपयोगरहित है उसे आगमद्रव्यविभक्ति कहते हैं। नोआगमद्रव्यविभक्ति तीन प्रकारकी है-ज्ञायकशरीरनोआगमद्रव्यविभक्ति, भाविनोआगमद्रव्यविभक्ति और तद्ध्यतिरिक्तनोआगमद्रव्यविभक्ति। उनमेंसे विभक्तिविषयक शास्त्रको जाननेवाले जीवके भविष्यत् वर्तमान और अतीतकालीन शरीरको ज्ञायकशरीरनोआगमद्रव्यविभक्ति कहते हैं। जो जीव आगामी कालमें विभक्तिविषयक शास्त्रको जानेगा उसे भाविनोआगमद्रव्यविभक्ति कहते हैं।
शंका-इन विभक्तियोंका अर्थ यतिवृषभ आचार्यने क्यों नहीं कहा ? समाधान-इनका अर्थ सुगम है, इसलिये नहीं कहा।
ज्ञानावरणादि आठ कर्मोंमें जो मोहनीय कर्म है वह चूंकि प्रकृतिभेदकी अपेक्षा अन्य कर्मोंसे भिन्न है अतः यहां कर्मतव्यतिरिक्तनोआगमद्रव्यविभक्ति पदसे उसका ग्रहण किया
(१) जीवाजीवुभयकारणणिरवेक्खो अप्पाणम्हि पयट्टो खेत्तसद्दो णामखेत्तं ।'-५० खे० पृ० ३ । 'तत्थ णामंतरसद्दो बज्झत्थे मोत्तूण अप्पाणम्मि पयट्टो ।'-ध० अं० पृ. १।।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[पयडिविहत्ती २ अकम्माणि वा कम्मविहत्ती, अवसेसदब्वाणि णोकम्मविहत्ती । 'चेव'सदो समुच्चयत्थे दहव्यो।
* कम्मविहत्ती थप्पा। ६६. कुदो ? बहुवण्णणिज्जत्तादो एदीए अहियारादो वा । ६ ७. संपहि णोकम्मविहत्तीपरूवणमुत्तरसुत्ताणि भणइ* तुल्लपदेसियं दव्वं तुल्लपदेसियस्स दव्वस्स अविहत्ती।
८. तुल्यः समानः प्रदेश: प्रदेशा वा यस्य द्रव्यस्य तत्तुल्यप्रदेशं द्रव्यं । तदन्यस्य तुल्यप्रदेशस्य द्रव्यस्य अविभक्तिर्भवति । विभजनं विभक्तिः, न विभक्तिरविभक्तिः प्रदेशैः समानमिति यावत् ।।
* वेमादपदेसियस्स विहत्ती।
६६. मीयतेऽनयेति मात्रा संख्या। विसदृशी मात्रा येषां ते विमात्रा विप्रदेशाः यस्मिन् द्रव्ये तद्विमात्रप्रदेशं द्रव्यं । तस्य विमात्रप्रदेशस्य द्रव्यस्य पूर्वमर्पितद्रव्यं है । अथवा ज्ञानावरणादि आठों कर्मोको कर्मतव्यतिरिक्तनोआगमद्रव्यविभक्ति कहते हैं। तथा शेष द्रव्य नोकर्मतद्व्यतिरिक्तनोआगमद्रव्यविभक्ति कहलाते हैं । यहां चूर्णिसूत्रके अन्तमें 'चेव' शब्द आया है उसे समुच्चयार्थक जानना चाहिये।
* पहले तव्यतिरिक्तनोआगमके दो भेदोंमें जो कर्मविभक्ति नामका पहला भेद कह आये हैं उसका कथन स्थगित करते हैं ।
६. शंका-यहां कर्मविभक्तिका कथन स्थगित क्यों किया है ।
समाधान-क्योंकि आगे चलकर कर्मविभक्तिका बहुत वर्णन करना है, अथवा कषायप्राभृतमें उसीका अधिकार है अतः यहां उसका कथन स्थगित किया है।
६ ७. अब नोकर्मविभक्तिका कथन करनेके लिये आगेके सूत्र कहते हैं* तुल्य प्रदेशवाला एक द्रव्य तुल्य प्रदेशवाले दूसरे द्रव्यके साथ अविभक्ति है।
८. तुल्य और समान ये दोनों शब्द समानार्थवाची हैं । अतः यह अर्थ हुआ कि जिस द्रव्यके एक या अनेक प्रदेश समान होते हैं. वह द्रव्य तुल्य प्रदेशवाला कहा जाता है। वह तुल्य प्रदेशवाला द्रव्य अन्य तुल्य प्रदेशवाले द्रव्यके साथ अविभक्ति अर्थात् समान है। विभाग करनेको विभक्ति कहते हैं और विभक्तिके अभावको अविभक्ति कहते हैं । यहां जिसका अर्थ प्रदेशोंकी अपेक्षा समान होता है।
* विवक्षित द्रव्य उससे असमान प्रदेशवाले द्रव्यके साथ विभक्ति है।
६६. जिसके द्वारा माप अर्थात् गणना की जाती है उसे मात्रा अर्थात् संख्या कहते हैं। तथा 'वि' का अर्थ विसदृश है। अतः यह अर्थ हुआ कि जिस द्रव्यमें विमात्र अर्थात् विसदृश संख्यावाले प्रदेश पाये जाते हैं उसे विमात्रप्रदेशवाला द्रव्य कहते हैं।
(१) “मादा णाम सरिसत्तं । विगदा मादा विमादा।"-५०मा० पत्र ९०५ ।
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गा० २२ ]
विहत्तीए णिक्खेवो विभक्तिरसमानं भवति प्रदेशापेक्षया न सत्त्वादिना; सर्वेषां तेन सादृश्योपलम्भात् ।
* तदुभएण अवत्तव्वं ।
१०. विहत्ति त्ति वा अविहत्ति ति वा समाणासमाणदव्वावेक्खाए तमप्पियदव्वं विहत्ति अविहत्ति त्ति वा अवत्तव्वं; दोहि धम्मेहि अक्कमेण जुत्तस्स दव्वस्स पहाण- . भावेण वोत्तुमसकिजमाणत्तादो। ___ * खेत्तविहत्ती तुल्लपदेसोगाढं तुल्लपदेसोगाढस्स अविहत्ती।
६११. खेत्तविहत्ती त्ति एत्थ 'वुच्चदे' इति एदीए किरियाए सह संबंधो काययोः अण्णहा अत्थणिण्णयाभावादो। किं खेत्तं ? आगासं;
"खेत्तं खलु आगासं तव्विवरीयं च हवदि णोखेत्तं ॥१॥” इति वयणादो।
१२. तुल्याः प्रदेशाः यस्य तत्तुल्यप्रदेशं । कः प्रदेशः ? निर्भाग आकाशावयवः । तुल्यप्रदेशं च तत् अवगाढं च तुल्यप्रदेशावगाढं । तमण्णस्स तुल्लपदेसोविवक्षित द्रव्य उस विमात्र प्रदेशवाले द्रव्य के साथ विभक्ति अर्थात् असमान है। यहां यह असमानता प्रदेशोंकी अपेक्षा जानना चाहिये, सत्त्वादिककी अपेक्षा नहीं, क्योंकि सत्त्वादिककी अपेक्षा सब द्रव्योंमें समानता पाई जाती है।
___ * विभक्ति द्रव्य और अविभक्ति द्रव्य इन दोनोंकी अपेक्षा अर्पित द्रव्य अवक्तव्य है।
१०. विभक्तिरूप और अविभक्तिरूप अर्थात् समान और असमान द्रव्यकी अपेक्षा वह अर्पित द्रव्य युगपत् विभक्ति और अविभक्तिकी विवक्षा होनेके कारण अवक्तव्य है, क्योंकि दोनों धर्मोंसे एक साथ संयुक्त हुए द्रव्यका प्रधान रूपसे कथन नहीं किया जा सकता है।
* अब क्षेत्रविभक्ति निक्षेपका कथन करते हैं। तुन्य प्रदेशवाला अवगाढ दसरे तुल्य प्रदेशवाले अवगाढ़के साथ अविभक्ति है।
११. सूत्रमें 'खेत्तविहत्ती' इस पदका 'वुच्चदे' इस क्रियाके साथ सम्बन्ध कर लेना चाहिये, क्योंकि उसके बिना अर्थका निर्णय नहीं हो सकता है।
शंका-क्षेत्र किसे कहते हैं ?
समाधान-आकाशको क्षेत्र कहते हैं, क्योंकि "क्षेत्र नियमसे आकाश है और आकाशसे विपरीत नो क्षेत्र है ॥ १ ॥” ऐसा आगम वचन है ।
६ १२. जिसके प्रदेश समान होते हैं वह तुल्य प्रदेशवाला कहलाता है। शंका-प्रदेश किसे कहते हैं ?
समाधान-जिसका दूसरा हिस्सा नहीं हो सकता, ऐसे आकाशके अवयवको प्रदेश कहते हैं।
(१) ध० खे० पृ०७।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ गाढस्स अविहत्ती समाणं । वेमादपदेसोगाढस्स विहत्ती। तदुभएण अवत्तव्वं । एदे बे वि वियप्पा सुत्तेण ण उत्ता, कथमेत्थ उच्चंति ? ण; देसामासियभावेण सुत्तेण चेव परूविदत्तादो।
* कालविहत्ती तुल्लसमयं तुल्लसमयस्स अविहत्ती ।
१३. कालविहत्तिणिक्खेवस्स अत्थं परूवेमि त्ति जाणावणहं कालविहत्तिणिहेसो । तुल्याः समानाः समयाः तुल्यसमयाः, तेऽस्य सन्तीति तुल्यसमयिक द्रव्यम् । तमण्णस्स तुल्लसमइयस्स दव्वस्स अविहत्ती समाणं । कुदो ? कालावेक्खाए । वेमादसमइयं विहत्ती, तदुभएण अवत्तव्वं । __* गणणविहत्तीए एको एकस्स अविहत्ती।
१४. एक्कस्स त्ति तइयाए छहिणिहेसो दव्यो। एक्को संखाविसेसो एक्केण संखाविसेसेण सह अविहत्ती सरिसो । बेमादगणणाए विहत्ती । तदुभएण अवत्तव्यं ।
जो तुल्य प्रदेशवाला अवगाढ़ है वह तुल्य प्रदेशवाला अवगाढ़ कहलाता है। वह तुल्य प्रदेशवाले अवगाढ़के साथ अविभक्ति अर्थात् समान है । असमान प्रदेशवाले अवगाढ़के साथ विभक्ति है । तथा युगपत् दोनोंकी अपेक्षा अवक्तव्य है।
शंका-विभक्ति और अवक्तव्य ये दोनों विकल्प चूर्णिसूत्र में नहीं कहे हैं फिर यहां किसलिये कहे हैं ?
समाधान-नहीं, क्योंकि उपर्युक्त दोनों विकल्प देशामर्षकभावसे सूत्रके द्वारा कहे गये हैं। अतः उनका कथन करने में कोई दोष नहीं है।
* अब कालविभक्तिका अर्थ कहते हैं-तुल्य समयवाला द्रव्य तुल्य समयवाले द्रष्य की अपेक्षा अविभक्ति है।
१३. 'अब काल विभक्ति निक्षेपका अर्थ कहते हैं' इस बात का ज्ञान करानेके लिये सूत्रमें 'कालविहत्ती' पद दिया है। तुल्य अर्थात् समान समयोंको तुल्यसमय कहते हैं । वे तुल्य समय जिस द्रव्यके पाये जाते हैं वह द्रव्य तुल्यसमयवाला कहा जाता है। वह तुल्य समयवाला द्रव्य अन्य तुल्य समयवाले द्रव्यकी अपेक्षा अविभक्ति अर्थात् समान है, क्योंकि यहां कालकी अपेक्षा समानता विवक्षित है। तथा वह विवक्षित द्रव्य असमान समयवाले द्रव्यकी अपेक्षा विभक्ति है और समान तथा असमान दोनों समयोंकी एक साथ प्रधानरूपसे विवक्षा करनेकी अपेक्षा अवक्तव्य है।
* गणनाविभक्तिकी अपेक्षा एक संख्या एक संख्याका अविभक्ति है।
१४. 'एक्कस्स' यह षष्ठीविभक्तिरूप निर्देश तृतीया विभक्तिके अर्थमें समझना चाहिये। एक संख्याविशेष एक संख्याविशेषके साथ अविभक्ति अर्थात् समान है। तथा वह विसदृश संख्यावाली गणनाके साथ विभक्ति अर्थात् असमान है और सदृश तथा विसदृश दोनों प्रकारकी गणनाओंकी युगपत् विवक्षा होने पर अवक्तव्य है ।
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गा० २२ ]
, विहत्तीए णिक्खेवो ___ * संठाणविहत्ती दुविहा संठाणदो च, संठाणवियप्पदो च ।
१५. तंस-चउरंस-वहादीणि संठाणाणि । तंस-चउरंस-वट्टाणं भेया संठाणवियप्पा। एवं दुविहा चेव संठाणविहत्ती होदि अण्णस्स असंभवादो ।
* संठाणदो वढें वदृस्स अविहत्ती।
६ १६. संठाणदो 'विहत्ती उच्चदि' त्ति पय संबंधो कायव्वो; अण्णहा अत्थावगमणाणुववत्तीदो। अण्णदव्यटियवर्ल्ड पेक्खिदूण वस्स अण्णदव्वष्टियस्स अविहत्ती अभेदो । पुधभूददव्व-खेत्त-काल-भावेसु वट्टमाणाणं कथमभेदो ? ण, दव्व-खेत्त कालाणमसंठाणाणं भेदेण संठाणाणं भेदविरोहादो । किं च, पडिहासभेएण पडिहासमाणस्स भेओ, ण च एत्थ सो उ बट्टदे, तम्हा अभेयो इच्छेयव्यो । दोण्हं वट्टाणं सरिसत्तं चेव उपलब्भइ णेयत्तमिदि णासंकणिज्जं; समाणेयत्ताणं भेदाभावादो। दव्वादिणा णिरुद्धाणं वट्टाणं समाणत्तं तेहि चेव अणिरुद्धाणमेयत्तमिदि सयललोयप्पसिद्धमेयं । तम्हा वट्टस्स वट्टेण अविहत्ति त्ति इच्छेयव्वं ।
* संस्थान और संस्थानविकल्पके भेदसे संस्थानविभक्ति दो प्रकारकी है।
१५. त्रिकोण, चतुष्कोण और गोल आदिकको संस्थान कहते हैं । तथा त्रिकोण, ' चतुष्कोण और गोल संस्थानोंके भेदोंको संस्थानविकल्प कहते हैं। इसप्रकार संस्थानविभक्ति दो प्रकारकी ही होती है, क्योंकि, और कोई भेद संभव नहीं है। ___ * संस्थानकी अपेक्षा विभक्तिका कथन करते हैं-एक गोल द्रव्य दूसरे गोल द्रव्यके साथ अविभक्ति है।
६ १६. 'संठाणदो' इस पदके साथ 'विहत्ती उच्चदि' इतने पदका संबन्ध कर लेना चाहिये, क्योंकि उसके बिना अर्थका ज्ञान नहीं हो सकता है। अन्य द्रव्यमें स्थित गोलाईका अन्य द्रव्यमें स्थित गोलाईके साथ अविभक्ति अर्थात् अभेद है।
शंका-भिन्न द्रव्य, भिन्न क्षेत्र, भिन्न काल और भिन्न भावमें स्थित संस्थानोंका अभेद कैसे हो सकता है ?
समाधान-क्योंकि द्रव्य, क्षेत्र और काल असंस्थानरूप हैं इसलिये इनके भेदसे संस्थानोंका भेद माननेमें विरोध आता है। दूसरे, प्रतिभासके भेदसे प्रतिभासमान पदार्थमें भेद माना जाता है परन्तु वह यहां पाया नहीं जाता है, इसलिये अभेद स्वीकार करना चाहिये ।
यदि कोई ऐसी आशंका करे कि गोल दो द्रव्योंमें समानता ही पाई जाती है, एकत्व नहीं, सो उसका ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, समानता और एकतामें कोई भेद नहीं है। द्रव्यादिककी अपेक्षासे जब गोलाइयां द्रव्यादिगत विवक्षित होती हैं तब उनमें समानता मानी जाती है और जब उनमें द्रव्यादिकी विवक्षा नहीं रहती तो वे एक कहलाती हैं । इसप्रकार यह बात सकल लोकप्रसिद्ध है। इसलिये एक गोलाईकी दूसरी गोलाईके साथ अविभक्ति स्वीकार करना चाहिये ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [पयडिपिहत्ती २ * वह तंसस्स वा चउरंसस्स वा आयदपरिमंडलस्स वा विहत्ती।
१७. कुदो ? सरिसत्ताभावादो । एवं तंसं- [चउरंसा-] ईणं पि वत्तव्वं । * वियप्पेण वसंठाणाणि असंखेज्जा लोगा।
१८. एदेसिमसंखेज्जा[ज्ज]लोयत्तं आगमदो चेवावगम्मदे, ण जुत्तीदो; असंखेविशेषार्थ-यहां संस्थानके विषयमें दो शंकाएं उठाई गई हैं। पहली यह है कि संस्थान द्रव्य आदिकी तरह अलग तो पाये नहीं जाते। वे तो द्रव्यादिगत ही होते हैं और द्रव्यादि परस्पर भिन्न होते हैं। अर्थात् एक द्रव्य दूसरे द्रव्यसे भिन्न रहता है, एक क्षेत्र दूसरे क्षेत्रसे भिन्न होता है, अतः इनके आश्रयसे रहनेवाले संस्थान एक कैसे हो सकते हैं ? वीरसेनस्वामीने इस शंकाका जो समाधान किया है उसका भाव यह है कि स्वयं द्रव्यादि संस्थानरूप नहीं हैं। जो द्रव्य इस समय त्रिकोण है वह कालान्तरमें गोल हो जाता है। इसी प्रकार अन्यके सम्बन्धमें भी जानना । अतः द्रव्यादिकसे संस्थानका कथंचित् भेद सिद्ध हो जाता है। और जब संस्थान द्रव्यादिकसे भिन्न हैं तब द्रव्यादिकके भेदसे संस्थानमें भेद मानना युक्त नहीं। संस्थानों में यदि भेद होगा तो स्वगत भेदोंकी अपेक्षासे ही होगा अन्य द्रव्यादिकी अपेक्षासे नहीं। दूसरी शंका यह है कि पृथक् दो द्रव्योंमें जो समान दो गोलाइयां रहेंगी उन्हें समान कहना चाहिये एक नहीं। वीरसेनस्वामीने इस शंकाका जो समाधान किया उसका भाव यह है कि उन समान दो गोलाईयोंमें जो हमें पार्थक्य दिखाई देता है वह द्रव्यादिभेदके कारण दिखाई देता है। यदि हम द्रव्यादिकी विवक्षा न करें तो वे गोलाईयां एक हैं । हमने प्रातः एक गोलाई देखी और मध्यान्हमें भी उसे देखा । इसप्रकार कालभेदसे उसमें भेद हो जाता है। पर यदि कालभेदकी विवक्षा न करें तो वह एक है। एक आदमीने किसी सुन्दर प्रतिमाको देखकर शिल्पीसे उसी आकारकी दूसरी प्रतिमा बनवाई । प्रतिमाके बन जाने पर बनवानेवाला उसे देखकर कहता है वही है' इसमें कोई सन्देह नहीं। यद्यपि यहां पहली प्रतिमासे यह दूसरी प्रतिमा भिन्न है पर आकार भेद न होनेसे आकारकी अपेक्षा वे एक कही जाती हैं। इस प्रकार द्रव्यादिकी अपेक्षा न रहने पर संस्थानोंमें अभेद सिद्ध हो जाता है।
* विवक्षित गोलाई त्रिकोण चतुष्कोण अथवा आयत परिमंडल संस्थानके साथ विभक्ति है।
१७. चूंकि गोलाईकी त्रिकोण आदि संस्थानोंके साथ सदृशता नहीं पाई जाती है इसलिये गोलाई त्रिकोण आदिके समान नहीं है । इसी प्रकार त्रिकोण चतुष्कोण आदिका भी कथन करना चाहिये ।
* उत्तरोत्तर मेदोंकी अपेक्षा गोल आकार असंख्यात लोकप्रमाण हैं । ...१८. गोल आकार असंख्यात लोकप्रमाण हैं, यह बात आगमसे ही जानी जाती है
(१) तस्स (४० . . . . ४) ईणं-स०; तस्स पयार्हणं-अ० ।
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गा० २२ ]
विहत्तीए णिक्खेवो जलोगमेत्तसंखाए वट्टमाणमदि-सुदणाणाणमणुवलंभादो ।
* एवं तंस-चउरंस-आयदपरिमंडलाणं । ___ १६. जहा वट्टसंठाणस्स असंखेजलोगमेत्तवियप्पा परूविदा, तहा तंस-चउरंसआयदपरिमण्डलाणं पि वियप्पा असंखेजा लोगमेत्ता त्ति वत्तव्वं ।
* सरिसवर्ट सरिसवदृस्स अविहत्ती।
६२०. 'सरिसवहस्स' इत्ति उत्ते समाणवट्टस्सेत्ति भणिद होदि । एसा छट्टीविहत्ती तइयाए अत्थे दव्या। तेण सरिसवट्ट सरिसवट्टेण सह अविहत्ती अभिण्णमिदि उत्तं होदि । सरिसवटमसरिसवट्टेण सह विहत्ती तदुभएण अवत्तव्वं ।
* एवं सव्वत्थ ।
२१. जहा वदृस्स तिण्णि भंगा एकस्स परूविदा तहा सेसअसंखेजलोगमेत्तवहसंठाणाणं पुध पुध तिविहा परूवणा कायव्वा । सेसतंस-चउरंस-आयदपरिमंडलसंठाणाणमसंखेजलोगमेत्ताणमेवं चेव परूवणा कायव्वा । एदं कत्तो उपलब्भदे ? 'एवं युक्तिसे नहीं, क्योंकि असंख्यातलोक प्रमाण संख्यामें मतिज्ञान और श्रुतज्ञानकी प्रवृत्ति नहीं पाई जाती है।
* इसी प्रकार त्रिकोण, चतुष्कोण और आयतपरिमण्डलके विषयमें भी जानना चाहिये।
१६. जिस प्रकार गोल संस्थानके असंख्यात लोकप्रमाण विकल्प कहे हैं उसी प्रकार त्रिकोण, चतुष्कोण और आयतपरिमण्डल आकारोंके भी विकल्प असंख्यात लोक प्रमाण होते हैं ऐसा कथन करना चाहिये ।
* सदृश गोल संस्थान दूसरे सदृश गोल संस्थानके साथ अविभक्ति है।
२०. सूत्र में आए हुए 'सरिस वट्टस्स' इस पदका अर्थ समान गोलाई होता है। 'सरिसवदृस्स' पदमें जो षष्ठी विभक्ति आई है वह तृतीया विभक्तिके अर्थमें जानना चाहिये । इसलिये यह अर्थ हुआ कि समान गोल आकार दूसरे समान गोल आकारके साथ अविभक्ति अर्थात् अभिन्न है। तथा समान गोल आकार असमान गोल आकार के साथ विभक्ति है। तथा वह समान गोल आकार दूसरे समान और असमान गोल आकारों की एक साथ विवक्षा करनेकी अपेक्षा अवक्तव्य है। ___* इसी प्रकार सर्वत्र कथन करना चाहिये ।
२१. जिस प्रकार एक गोल आकारके तीन भंग कहे हैं उसी प्रकार शेष असंख्यात लोक प्रमाण गोल आकारोंका अलग अलग तीन भेदरूपसे कथन करना चाहिये । तथा इनसे अतिरिक्त जो असंख्यात लोकप्रमाण त्रिकोण चतुष्कोण और आयत परिमण्डल आकार हैं उनका भी इसी प्रकार कथन करना चाहिये।
शंका-'शेष असंख्यात लोकप्रमाण त्रिकोण, चतुष्कोण और आयत परिमण्डल संस्थानोंके
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ सव्वत्थ' इत्ति सुत्तणिदेसादो । ण तं सेसवष्टसंठाणाणि चेव अस्सिदण परूविदं अउत्तसेससंठाणवियप्पे अस्सिदूण परूविदत्तादो। . * जा सा भावविहत्ती सा दुविहा, आगमदो य णोआगमदो य ।
६२२. पुव्वं णिदिभावविहत्तीसंभालणटं 'जा सा भावविहत्ति'त्ति परूविदं । आगमो सुदणाणं, णोआगमो सुदणाणवदिरित्तभावो । एवं भावविहत्ती दुविहा चेव होदि ।
* आगमदो उवजुत्तो पाहुडजाणओ। ६ २३. पाहुडजाणओ जीवो उवजुत्तो पाहुडउवजोगसहिओ आगमविहत्ती होदि। * णोआगमदो भावविहत्ती ओदइओ ओदइयस्स अविहत्ती।
२४. ओदइओ उपसमिओ खइओ खओवसमिओ पारिणामिओ चेदि णोआगमभावो पंचविहो होदिः सव्वभावाणमेदेसु चेव पंचसु भावेसु पवेसादो । तत्थ ओदइओ भी तीन भंग कहना चाहिये' यह अर्थ कहांसे उपलब्ध होता है ?
समाधान-'एवं सव्वत्थ' इस निर्देशसे यह अर्थ उपलब्ध होता है। क्योंकि यह सूत्र केवल गोल आकारके शेष भेदोंकी अपेक्षा ही नहीं कहा है किन्तु संस्थानके अनुक्त समस्त विकल्पोंकी अपेक्षासे भी कहा है। ___* ऊपर जो भाव विभक्ति कही है वह दो प्रकारकी है-आगमभावविभक्ति और नोआगमभावविभक्ति।
२२. पहले विभक्तिका निक्षेप करते समय जिस भावविभक्तिको कह आये हैं उसीका निर्देश करनेके लिये चूर्णिसूत्र में 'जा सा भावविहत्ती' यह पद दिया है। आगमका अर्थ श्रुतज्ञान है और श्रुतज्ञानसे व्यतिरिक्त भावको नोआगम कहते हैं। इस प्रकार भावविभक्ति दो प्रकारकी ही होती है। . * जो जीव विभक्तिविषयक शास्त्रको जानता है और उसमें उपयोगसहित है उसे आगमभावविभक्ति कहते हैं।
२३. जो जीव विभक्तिका प्रतिपादन करने वाले शास्त्रका ज्ञाता है और उसमें उपयुक्त है अर्थात् उसका उपयोग भी विभक्तिविषयक शास्त्रमें लगा हुआ है। वह जीव आगमभावविभक्ति कहलाता है।
* नोआगमभावविभक्ति, यथा-एक औदयिक भाव दूसरे औदयिक भावके साथ अविभक्ति है।
२४. औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिकके भेदसे नोआगमभाव पांच प्रकारका है, क्योंकि, समस्त भावोंका इन्हीं पांच भावोंमें अन्तर्भाव हो जाता है। उनमेंसे एक औदयिकभाव दूसरे औदयिक भावके साथ अविभक्ति है, क्योंकि
(१) "भावविभक्तिस्तु जीवाजीवभावभेदात् द्विधा। तत्र जीवभावविभक्तिः औदयिकोपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिकसान्निपातिकभेदात् षट्प्रकारा। x अजीवभावविभक्तिस्तु भूतानां वर्णगन्धरसस्पर्शसंस्थानपरिणामः । अमूर्तानां गतिस्थित्यवगाहवर्तनादिक इति ।" सू० श्रु०१० ५ ० १ टीका।
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गा० २२ ]
विहत्तीए णिक्खेवो ओदइएण सह अविहत्ती; ओदइयभावेण भेदाभावादो । * ओदइओ उवसमिएण भावेण विहत्ती।
२५. कुदो उदयजणिदेण भावेण सह उवसमजणिदभावस्स समाणत्तविरोहादो। * तदुभएण अवत्तव्वं ।
२६. ओदइओ भावो ओदइय-उवसमिय-भावेहि सण्णिकासिजमाणो अवत्तव्वो होदि, विहत्ति-अविहत्तिसद्दाणमक्कमेण भणणोवायाभावादो। .
* एवं सेसेसु वि।
२७. जहा ओदइयस्स उवसमिएण भावेण सण्णिकासिञ्जमाणस्स बे भंगा परूविदा तहा सेसेसु खइय-क्खओवसमिय-पारिणामियभावेसु वि सण्णिकासिज्जमाणस्स बेबे भंगा परूवेयव्वा । तं जहा, ओदइयो खओवसमियस्स विहत्ती तदुभएण अवत्तव्यो।
ओदइओ खइयस्स विहत्ती तदुभएण अवत्तव्वं । ओदइओ पारिणामियस्स विहत्ती तदुभएण अवत्तव्यं ।
* एवं सव्वत्थ । उन दोनों भावोंमें औदायिकरूपसे कोई भेद नहीं पाया जाता है।
* औदयिकभाव औपशमिकभावके साथ विभक्ति है। ६ २५. शंका-औदयिक भाव औपशमिक भावके साथ विभक्ति क्यों है ?
समाधान-क्योंकि उदयजन्य भावके साथ उपशमजन्य भावकी समानता मानने में विरोध आता है, इसलिये औदयिकभाव औपशमिक भावके साथ विभक्ति है ?
* औदयिक और औपशमिक इन दोनोंकी एक साथ विवक्षा करनेसे औदयिक भाव अवक्तव्य है।
२६. औदयिक और औपशमिक भावोंके साथ सम्बन्धको प्राप्त हुआ औदयिक भाव अवक्तव्य है, क्योंकि, विभक्ति और अविभक्ति इन दोनोंके एक साथ कथन करनेका कोई उपाय नहीं पाया जाता है।
* इसी प्रकार शेष भावोंमें भी जानना चाहिये ।
६२७. जिसप्रकार औपशमिक भावके सम्बन्धसे औदयिक भावके दो भंग कहे हैं उसीप्रकार क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिकभावोंके सम्बन्धसे भी औदयिक भावके दो दो भंग कहना चाहिये। वे इसप्रकार हैं-औदयिकभाव क्षायोपशामिक भावके साथ विभक्ति है तथा औदायिक और क्षायोपशमिक इन दोनोंकी युगपद् विवक्षा होनेसे अवक्तव्य है। औदयिक भाव क्षायिक भावके साथ विभक्ति है और औदयिक तथा क्षायिक इन दोनोंकी युगपत् विवक्षाकी अपेक्षा अवक्तव्य है। औदयिक पारिणामिक भावके साथ विभक्ति है और औदयिक तथा पारिणामिक इन दोनों भावोंकी युगपत् विवक्षाकी अपेक्षा अवक्तव्य है।
* इसीप्रकार सर्वत्र जानना।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ २८. जहा ओदइयस्स भावस्स सग-पर-संजोगेण तिण्णि भंगा परूविदा तहा उवसमिय-खओवसमिय-खइय-पारिणामियाणं भावाणं पुध पुध तिण्णि भंगा परूवेयव्वा ।
*२।
२६. जइवसहाइरिएण एसो दोण्हमको किमट्ठमेत्थ इविदो ? सगहियडियअस्थस्स जाणावणटुं । सो अत्थो अक्सरेहि किण्ण परूविदो ? वित्तिसुत्तस्स अत्थे भण्णमाणे णिण्णामो गंथो होदि त्ति भएण ण परूविदो। तं जहा, ण ताव तारिसो गंथो वित्तिसुत्तं सुत्तस्सेव विवरणाए संखित्तसद्दरयणाए संगहियसुत्तासेसत्थाए वित्तिसुत्तववएसादो। ण टीका; वित्तिसुत्तविवरणाए टीकाववएसादो। ण पंजिया; वित्तिसुत्तविसमषयमंजियाए पंजियववएसादो । ण पद्धई वि, सुत्तवित्तिविवरणाए पद्धईववएसादो। तदो णिण्णामत्तं गंथस्स मा होह(हि) दि त्ति अक्खरेहि ण कहिदो। ६३०. को सो हिययट्ठियत्थो ? उच्चदे, दव्व-खेत्त-काल-भाव-संठाणविहत्तीसु जे
२८. जिसप्रकार औदयिक भावके स्व और परके संयोगसे तीन भंग कहे हैं उसीप्रकार औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक और पारिणामिक भावोंके भी अलग अलग तीन तीन भंग कहना चाहिये । अर्थात् प्रत्येकके तीन तीन भंग होते हैं।
२६. शंका-यतिवृषभाचार्यने यहां पर यह दोका अंक किसलिये रखा है ?
समाधान-अपने हृदयमें स्थित अर्थका ज्ञान करानेके लिये उन्होंने यहां दोका अंक रखा है।
शंका-वह अर्थ अक्षरोंके द्वारा क्यों नहीं कहा ?
समाधान-वृत्तिसूत्रके अर्थका कथन करने पर ग्रन्थ विना नामवाला हो जाता इस भक्से यतिवृषभ आचार्यने अपने हृदयमें स्थित अर्थका अक्षरों द्वारा कथन नहीं किया । इसका खुलासा इस प्रकार है-वृत्तिसूत्रके अर्थको कहनेवाला अन्थ वृत्तिसूत्र तो हो नहीं सकता क्योंकि जो सूत्रका ही व्याख्यान करता है, किन्तु जिसकी शब्दरचना संक्षिप्त है और जिसमें सूत्रके समस्त अर्थको संग्रहीत कर लिया गया है, उसे वृत्तिसूत्र कहते हैं। उक्त ग्रन्थ टीका भी नहीं हो सकता है, क्योंकि वृत्तिसूत्रोंके विशद व्याख्यानको टीका कहते हैं । उक्त ग्रन्थ पंजिका भी नहीं हो सकता, क्योंकि वृत्तिसूत्रोंके विषम पदोंको स्पष्ट करनेवाले विवरणको पंजिका कहते हैं। तथा उक्त ग्रन्थ पद्धति मी नहीं है, क्योंकि सूत्र
और वृत्ति इन दोनोंका जो विवरण है उसकी पद्धति संज्ञा है। अतः यह प्रन्थ विना नामका न हो जाय, इसलिये यतिवृषभ आचार्यने अपने हृदय में स्थित अर्थका अक्षरों द्वारा कथन न करके दोका अंक रखकर उसका सूचनमात्र कर दिया है।
३०. शंका-वह हृदय में स्थित अर्थ क्या है। समाधान-द्रव्यविभक्ति, क्षेत्रविभक्ति, कालविभक्ति, भावविभक्ति और संस्थानविभक्ति
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गा० २२ ]
बिहत्तीए णिक्खेमो तिण्णि तिणि भंगा कहिदा तत्थ दोण्हं दोण्हं चेव भंगाणं गहणं कायव्वं, अविभत्तीए ण गहणं । कुदो ? विहत्तिणिक्खेवे कीरमाणे विहत्तिविरुद्धत्थस्स गहणाणुववत्तीदो। जदि एवं, तो अवत्तव्वभंगो वि ण घेत्तव्यो; तत्थ विहत्तीए अत्थाभावादो। ण; विहत्तीए विणा दुसंजोगाभावेण अवत्तव्यभावाणुववत्तीदो। विहत्ती-अविहत्तीणं संजोगो कथं विहत्ती होदि ? ण, कथंचि भेदो अस्थि त्ति अवत्तव्वस्स वि विहत्तिभावुवलंभादो।। इनमेंसे प्रत्येकके जो तीन तीन भंग कहे हैं उनमेंसे दो दो भंगोंका ही प्रहण करना चाहिये अविभक्तिका ग्रहण नहीं करना चाहिये, क्योंकि विभक्तिका निक्षेप करते समय विभक्तिसे विरुद्ध अविभक्तिका ग्रहण नहीं हो सकता है।
शंका-यदि ऐसा है तो अवक्तव्य भंगका भी ग्रहण नहीं करना चाहिये, क्योंकि, अवक्तव्य भंगमें भी विभक्तिका अर्थ नहीं पाया जाता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, विभक्तिके विना विभक्ति और अविभक्ति इन दोनोंका संयोग नहीं होता और उसके न होनेसे अवक्तव्य भंग भी नहीं बनता। इससे प्रतीत होता है कि अवक्तव्यमें विभक्तिका अर्थ पाया जाता है, और इसलिये विभक्तिमें अवक्तव्य भंगका मी प्रहण करना चाहिये ।
शंका-विभक्ति और अविभक्तिका संयोगरूप अवक्तव्य भंग विभक्ति कैसे हो सकता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, अवक्तव्यका विभक्तिसे कथंचित् भेद है, सर्वथा नहीं, इसलिये अवक्तव्यमें मी विभक्तिरूप धर्म पाया जाता है ।
विशेषार्थ-विभक्तिका निक्षेप नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, गणना, संस्थान और भावकी अपेक्षा आठ प्रकारसे किया है। इनमेंसे द्रव्यविभक्तिके नोकर्मभेदके और क्षेत्र, काल, गणना, संस्थान और भाव इन छहोंमेंसे प्रत्येकके विभक्ति, अविभक्ति और अवक्तव्य ये तीन तीन भंग बताये हैं। तथा यह भी बताया है कि प्रकृतमें विभक्ति और अवक्तव्य इन दोका ही ग्रहण किया है। यहां अविभक्तिका ग्रहण क्यों नहीं हो सकता, इसका यह कारण बतलाया है कि यहां विभक्तिका प्रकरण है अतः अविभक्तिको यहां कोई अवकाश नहीं। पर अवक्तव्य विभक्तिसाक्षेप होनेसे उसका ग्रहण हो जाता है । यही सबब है कि आगे सभी अनुयोगद्वारों में जहां विभक्ति पाई जाती है, और जहां विभक्तिके साथ अविभक्ति पाई जाती है उनका ग्रहण किया है। पर जहां केवल अविभक्ति ही पाई जाती है ऐसे केवलज्ञान, केवलदर्शन आदि मार्गणास्थानोंका विचार नहीं किया है। चूर्णिसूत्रकारने इस अभिप्रायका उल्लेख अक्षरोंद्वारा न करके '२' के अंकद्वारा किया है । इस पर वीरसेनस्वामीका कहना है कि यदि चूर्णिसूत्रकार इस अभिप्रायको अक्षरों द्वारा प्रकट करते तो वह मूल ग्रन्थपर चूर्णिसूत्र न होकर चूर्णिसूत्रके अर्थका स्पष्टीकरणमात्र होता, और इस प्रकार अन्ध बिना नामका हो जाता । यही सबब है कि चूर्णिसूत्रकारने उक्त अभिप्राय अंक
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१६
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ ३१. एदासु विहत्तीसु बहुवियप्पासु एदीए विहत्तीए पओजणं ति जाणावणहं उत्तरसुत्तमागदं। * जा सा दव्वविहत्तीए कम्मविहत्ती तीए पयदं ।
३२. 'जा सा' इदि वयणेण दव्वविहत्ती संभालिदा। सा दुविहा, कम्मविहत्ती णोकम्मविहत्ती चेदि । तत्थ दव्वविहत्ती वि जा कम्मविहत्ती तीए कम्मविहत्तीए पयदं ।
* तत्थ सुत्तगाहा । ... ६३३. जइवसहाइरिओ अप्पणो भणिदपण्णारसअस्थाहियारेसु चुणिसुत्तं भणंतो सगसंकप्पियअत्थाहियारे गाहासुतम्मि संदंसणटं ' तत्थ सुत्तगाहा उच्चदि' त्ति भणदि। द्वारा सूचित किया है। द्रव्य विभक्तिमें प्रदेश भेदसे द्रव्य भेद, क्षेत्र विभक्ति में क्षेत्रकी न्यूनाधिकतासे द्रव्यभेद, कालविभक्तिमें समयादिककी न्यूनाधिकतासे द्रव्यभेद, गणना विभक्तिमें संख्याभेद, संस्थानविभक्तिमें आकारभेद और भाव विभक्तिमें औदयिक आदि भावभेद लिये गये हैं। अविभक्तिमें इन सबकी समानता ली गई है और एक साथ विभक्ति
और अविभक्ति दोनोंकी अपेक्षा अवक्तव्यताका ग्रहण किया है। ये सब द्रव्यविभक्ति आदि कर्मविभक्तिके नो कर्म हैं अतः इनका यहां इसी रूपसे कथन किया है। कर्म विभक्तिका आगे विस्तारसे कथन किया ही है इसलिए यहां उसके विषयमें कुछ भी नहीं लिखा है। फिर भी प्रकृतमें कर्मविभक्तिसे ज्ञानावरणादि आठ कर्मोंके एक भेदरूप मोहनीयकर्मका ग्रहण करना चाहिये। मोहनीय कर्मके साथ विभक्ति शब्दके जोड़ने की सार्थकता इसीमें है । यद्यपि इस विषयमें आगे और भी अनेक समाधान पाये जाते हैं पर हमारी समझसे उनमें यह समाधान मुख्य है।
३१. अब अनेक प्रकारकी इन विभक्तियों में से प्रकृतमें अमुक विभक्तिसे प्रयोजन है, यह बतलानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं । ___ * द्रव्यविभक्तिके दो भेदोंमें जो कर्मविभक्ति कह आये हैं प्रकृत कषायप्राभृतमें उससे प्रयोजन है।
३२. चूर्णिसूत्रमें आये हुए 'जा सा' इस बचनसे द्रव्यविभक्तिका निर्देश किया है। वह द्रव्यविभक्ति कर्मविभक्ति और नोकर्मविभक्तिके भेदसे दो प्रकारकी है। उनमेंसे जो कर्मविभक्ति नामकी द्रव्यविभक्ति है प्रकृत कषायप्राभृतमें उससे प्रयोजन है ।
* अब इस विषयमें सूत्रगाथा देते हैं।
३३. अपने द्वारा स्वयं कहे गये पन्द्रह अर्थाधिकारोंमें चूर्णिसूत्रोंका कथन करते हुए यतिवृषभ आचार्य अपने द्वारा माने गये अधिकारोंको गाथासूत्रमें दिखानेके लिये यहां सूत्रगाथा देते हैं' इस प्रकार कहते हैं।
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- चउत्थगाहाए अत्थो
गा० २२ ] (४) पयडीए मोहणिज्जा विहत्ति तह हिदीए अणुभागे।
उकस्समणुक्कस्सं झीणमझीणं च हिदियं वा ॥२२॥ * पदच्छेदो। तं जहा-पयडीए मोहणिज्जा विहत्ति' त्ति एसा पयडिविहती।।
६३४ एत्थ पदं चउविहं, अस्थपदं पमाणपदं मज्झिमपदं ववत्थापदं चेदि । तत्थ जेहि अक्सरेहि अत्थोक्लद्धी होदि तमत्थपदं । वाक्यमर्थपदमित्यनान्तरम् । अक्खरणिप्पणं पमाणपदं। सोलहसयचोत्तीसकोडि-तेयासीदिलक्ख-अहहत्तरिसयअहासीदिअक्खरेहि मज्झिमपदं । जत्तिएण वक्कसमूहेण अहियारो समप्पदि तं ववत्थापदं सुवंतमिजंतं वा एदेसु पदेसु कस्स पदस्स वोच्छेदो ? ववत्थापदस्स अहियारसरूवस्स। पयडीए मोहणिज्जा विहत्ति' त्ति एत्थतण 'इदि' सद्दो एदस्स सरूवपयत्थ(-त.) यत्तं जाणावेदि तेण एसा पयडिविहत्ती पढमो अस्थाहियारो ति सिद्धो । * तह हिदी चेदि एसा हिदिविहत्ती २ ।
३५. हिदिविहत्ती णाम एसो विदियो अत्थाहियारो । सेसं सुगमं । मोहनीय प्रकृतिविभक्ति, मोहनीय स्थितिविभक्ति, मोहनीय अनुभागविभक्ति, प्रदेशविषयक उत्कृष्टानुत्कृष्ट, झीणाझीण और स्थित्यन्तिक ये छह अर्थाधिकार हैं।
* अब इस गाथाका पदच्छेद करते हैं। वह इस प्रकार है-'पयडीए मोहणिज्जा विहत्ति' इस पदसे प्रकृतिविभक्ति सूचित की है।
६ ३४. पद चार प्रकार है-अर्थपद, प्रमाणपद, मध्यमपद और व्यवस्थापद । उनमेंसे जितने अक्षरोंसे अर्थका ज्ञान होता है उसे अर्थपद कहते हैं। वाक्य और अर्थपर ये एकार्थवाची हैं । अर्थात् अर्थपदसे आशय वाक्यका है । आठ अक्षरोंसे निष्पन्न हुआ एक प्रमाणपद होता है। सोलहसौ चौतीस करोड़ तेरासी लाख सात हजार आठसौ अठासी अक्षरोंका एक मध्यमपद होता है। जितने वाक्योंके समूहसे एक अधिकार समाप्त होता है उसे व्यवस्थापद कहते हैं । अथवा, सुवन्त और मिगन्त पदको व्यवस्थापद कहते हैं।
शंका-यहां इन पदोंमेंसे किस पदका पृथकरण किया है ?
समाधान-अधिकारका सूचक जो ‘पयडीए मोहणिज्जा विहत्ति' यह व्यवस्थापद है, उसका ही यहां पृथक्करण किया है।
'पयडीए मोहणिज्जा विहत्ति त्ति' इसमें आया हुआ 'इति' शब्द इस पदके स्वरूपका ज्ञान कराता है। अतः यह प्रकृतिविभक्ति नामका पहला अधिकार है यह सिद्ध होता है। __* गाथामें आये हुए 'तह द्विदी चेदि' इस पदसे स्थितिविभक्तिका सूचन होता है।
३५. यह स्थितिविभक्ति नामका दूसरा अर्थाधिकार है। शेष कथन सुगम है।
8
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१८ अयधवलासहिदे कसायपाहुडे
। पयडिविहत्ती * अणुभागे त्ति अणुभागविहत्ती ३।
३६. जेण गाहाए अणुभागेत्ति अवयवण अणुभागो परूविदो तेण अणुभागविहत्ती णाम तदियो अत्थाहियारो।
* उक्कस्समणुकस्सं ति पदेसविहत्ती ४।।
६.३७. 'उक्स्स मणुक्कस्सं' ति एदेण पदेण पदेसविहत्ती णाम चउत्थो अस्थाहियारो परूविदो।
* झीणमझीणं ति।
३८. झीणमझीणं ति एदेण गाहावयवेण [झीणा-] झीणं णाम पंचमो अत्थाहियारो सूइदो।
* हिदियं वा त्ति ६।
६ ३६. एदेण वि हिदियंतिओ णाम छटो अत्थाहियारो सूइदो । एवं जइवसहाइरियाहिप्पारण एदीए गाहाए छ अत्थाहियारा सूइदा । गुणहरभडारयस्स अहिप्पाएण पुण दो चेव अत्थाहियारा परूविदा त्ति घेत्तव्वं ।
ॐ तत्थ पयडिविहत्तिं वण्णइस्सामो। * गाथामें आये हुए 'अणुभागे' पदसे अनुभागविभक्तिका सूचन होता है।
$ ३६. चूंकि गाथाके ' अणुभागे' इस पद द्वारा अनुभागका कथन किया है, इसलिये अनुभागविभक्ति नामका तीसरा अर्थाधिकार समझना चाहिये ।
* 'उक्कस्समणुकस्सं' इस पदसे प्रदेशविभक्तिका सूचन होता है ।
३७. गाथामें आये हुए 'उक्कस्समणुक्कस्सं' इस पदसे प्रदेशविभक्ति नामके चौथे अर्थाधिकारका कथन किया है। "* झीणाझीण नामका पांचवां अर्थाधिकार है।
३८. गाथाके 'झीणमझीणं' इस पदसे झीणाझीण नामका पांचवां अर्थाधिकार सूचित किया है।
* स्थित्यन्तिक नामका छठा अर्थाधिकार है।
३६. गाथामें आये हुए 'हिदियं वा' इस पदसे स्थित्यन्तिक नामका छठा अर्थाधिकार सूचित किया है। इस प्रकार यतिवृषभ आचार्यके अभिप्रायानुसार इस गाथाके द्वारा छह अर्थाधिकार सूचित किये गये हैं। किन्तु गुणधर भट्टारकके अभिप्रायानुसार इस गाथाके द्वारा दो ही अर्थाधिकार कहे गये हैं ऐसा समझना चाहिये । - विशेषार्थ-यतिवृषभ आचार्य भी कसायपाहुडके मूल अधिकार पन्द्रः ही मानते हैं । इसका विशेष खुलासा हमने प्रथम भागके पृष्ट १८७ पर किया है।
* उन छह अधिकारोंमेंसे पहले प्रकृतिविभक्ति नामके अधिकारका वर्णन करते हैं।
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गा० २२ ]
पयडिविहत्ती ४०. गाहासुत्तम्मि समुछिसु अहियारेसु पयडिविहत्तिं भणिस्सामो। एदेण गुणहराइरियमणिदपण्णारसअत्थाहियारे मोत्तूण सगसंकप्पियअत्थाहियाराणां चुण्णिसुत्तं भणामि त्ति उत्तं होदि । ण च एवं भणंतो जइवसहो गुणहराइरियपडिकूलो अत्थाहियाराणमणियमदरिसणवारेण गुणहराइरियमुहविणिग्गयअत्थाहियाराण चेव परूवयत्तादो।
४०. गाथासूत्रमें कहे गये छह अर्थाधिकारोंमेंसे पहले प्रकृतिविभक्ति नामक अर्थाधिकारका कथन करते हैं । इससे यतिवृषभ आचार्यने यह सूचित किया है कि मैं गुणधर आचार्यके द्वारा कहे गये पन्द्रह अर्थाधिकारोंको छोड़कर स्वयं अपने द्वारा माने गये अर्थाधिकारोंके अनुसार चूर्णिसूत्र कहता हूँ। यदि कहा जाय कि अपने द्वारा माने गये अर्थाधिकारोंके अनुसार चूर्णिसूत्रोंका कथन करनेसे यतिवृषभ आचार्य गुणधर आचार्य के प्रतिकूल हैं सो ऐसा नहीं समझना चाहिये, क्योंकि यतिवृषभ आचार्यने अर्थाधिकारोंका अनियम दिखलाते हुए गुणधर आचार्यके मुखसे निकले हुए अर्थाधिकारोंका ही प्रतिपादन किया है।
विशेषार्थ-पगदीए मोहणिज्जा' इत्यादि गाथामें स्वयं गुणधर आचार्यने प्रकृतिविभक्ति, स्थितिविभक्ति, अनुभागविभक्ति, प्रदेशविभक्ति, झीणाझीण और स्थित्यन्तिक इन छह अधिकारोंका निर्देश किया है। इससे इतना तो मालूम पड़ ही जाता है कि इन्हें इन छहोंका कथन इष्ट है पर उनके अभिप्रायानुसार उनका समावेश दो या तीन अधिकारोंमें हो जाता है। यद्यपि यतिवृषभ आचार्यने उक्त छहों अधिकारोंका स्वतन्त्ररूपसे कथन किया है, जिससे अधिकारोंकी संख्याका ही भंग हो जाता है फिर भी उनका ऐसा करना गुणधर आचार्यके कथनके प्रतिकूल नहीं है क्योंकि स्वयं गुणधर आचार्यने जिन विषयोंका संकेत किया है उन्हींका यतिवृषभ आचार्यने स्वतन्त्र अधिकारों द्वारा विस्तारसे कथन किया है। तात्पर्य यह है कि गुणधर आचार्यने 'पगदीए मोहणिज्जा' इत्यादि गाथामें प्रकृतिविभक्ति, स्थितिविभक्ति और अनुभागविभक्ति इन तीनोंको मिलाकर एक अधिकार सूचित किया है। तथा प्रदेशविभक्ति, झीणाझीण और स्थित्यन्तिक इन तीनोंको मिलाकर दूसरा अधिकार सूचित किया है, पर यतिवृषभ आचार्यने इन प्रकृतिविभक्ति आदिका कथन पृथक् पृथक् किया है जो उनके 'तत्थ पयडिविहत्तिं वण्णइस्सामो' इत्यादि चूर्णिसूत्रोंसे जाना जाता है। इस प्रकार यद्यपि यतिवृषभ आचार्यने दो अधिकारोंको छह अधिकारों में बांट दिया है फिर भी उन्होंने उन्हीं विषयोंका कथन किया है जिनका समावेश उक्त दो अधिकारोंमें किया गया है। इस प्रकार यद्यपि अधिकारोंकी संख्याका भंग हो जाता है फिर भी उनका यह कथन गुणधर आचार्य द्वारा कहे गये विषयके प्रतिकूल नहीं है।
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२०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [ पयडिविहत्ती २ * 'पयडिविहत्ती दुविहा, मूलपयडिविहत्तीच उत्तरपयडिविहत्ती च।
४१. एत्थ 'च' सद्दो किम कदो ? समुच्चय । दि एवं, तो एकेणेव सरह विदिय 'च' सद्दो अवणेयव्वो फलाभावादो; ण, दव्य-पजवष्टियणयष्टियजीवाणमणुग्गही मूलपयडिविहत्ती उत्तरपयडी च, उत्तरपयडिविभत्ती मूलपयडी च इदि भण्णदे [पुणरत्तदोसाभावा दो। मूलपयडी णाम एक्का चेव पज्जवडियणयावलंवणाए मूलपयडित्ताणुववत्तीदो। तदो तत्थ पत्थि विहत्तिववएसो; भेदेण विणा तदणुववत्तीदो ति? सचमेदं जदि अहण्हं कम्माणमेयत्तं विवक्खियं, किं तु मोहणीयपयडीए एयत्तमेस्थ विवक्खियं तेण मूलपयडीए विहत्तिभावो जुञ्जदे । मोहणीयं चेव विवक्खियमिदि कुदो णबदे १ [पयडीए मोहणि ]जा त्ति एदम्हादो महाहियारादो। ण च पयडीण
* प्रकृतिविभक्ति दो प्रकारकी है-मूलप्रकृतिविभक्ति और उत्तर प्रकृतिविभक्ति ।
४१. शंका-चूर्णिसूत्र में 'च' शब्द किस लिये दिया है ? समाधान-समुच्चयरूप अर्थके प्रकट करनेके लिये 'च' शब्द दिया है।
शंका-यदि ऐसा है तो एक 'च' शब्दसे ही काम चल जाता है, अतः दूसरा 'च' शब्द अलग कर देना चाहिये, क्योंकि उसका कोई प्रयोजन नहीं है ?
समाधान-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयमें स्थित जीवोंके उपकारके लिये चूर्णिसूत्रमें दो 'च' शब्द दिये गये हैं। जिससे यह अर्थ निकलता है कि द्रव्यार्थिक नयमें स्थित जीवों की अपेक्षा प्रकृतिविभक्तिके मूल प्रकृतिविभक्ति और उत्तरप्रकृतिविभक्ति ये दो भेद हैं और पर्यायार्थिक नयमें स्थित जीवोंकी अपेक्षा उत्तरप्रकृतिविभक्ति और मूलप्रकृतिविभक्ति ये दो भेद हैं अतः दो 'च' शब्द देने में पुनरुक्त दोष नहीं है।
शंका-मूल प्रकृति एक ही है, और पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करनेपर मूलप्रकृति बन नहीं सकती है। अतः उसके साथ विभक्ति शब्दका व्यवहार करना ठीक नहीं है, क्योंकि भेदके बिना विभक्ति शब्दका व्यवहार नहीं बन सकता ?
समाधान-यदि यहां मूलप्रकृति पदसे आठों कर्मोंकी एक रूपसे विवक्षा की गई होती तो यह कहना ठीक होता किन्तु यहां मूलप्रकृतिके एक भेद मोहनीयकी विवक्षा है अतः मूलप्रकृदिमें विभक्तिपना बन जाता है।
शंका-यहां मोहनीय कर्म ही विवक्षित है यह कैसे जाना ? समाधान-पयडीए मोहणिज्जा' इस महाधिकारसे जाना है कि यहां मोहनीय कर्म
(१) एगेणेव 'च' सद्देण समुच्चयट्ठावगमादो विदिय 'च' सद्दो अणत्थओ त्ति णावणे, सक्किज्जदे; अप्पिदेगणयं पडुच्च परूवणाए कीरमाणाए मूलपयडिट्ठिदिविहत्ती उत्तरपयडिट्ठिदिविहत्ती च उत्तरपयडिष्टिदिविहत्ती मूलपयडिट्ठिदिविहत्ती चेदि एग 'च' सदुच्चारणं मोत्तूण विदियसङ्कुच्चारणाए अभावेण पुणरुत्तदोसाभाबादो -जयप० प्रे० का० ५० ९१८ । (२)-दे (त्रु० . . . . ८)-दो -स०।-दो सुगमत्तादो-अ. (३)-व्वदे (त्रु० . . . .७) ज्जा त्ति-स० ।-वदे मोहणीए विवज्जा त्ति-अ० ।
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२१
गा० २२ ]
पपडिविहत्ती मेगो व सहावो ति आसंकणिजं; सम्मत्त-चरिच-विणासणसहावं मोहणिजं, णाणपच्छावणसहावं जाणावरणिशं, दंसणविणासण-सहावं दंसणावरणिजं, सुह-दुक्खुप्पायणसहावं वेयणीयं, भवधारणसहावमाउअं, सरीर-गइ-जाइ-वण्णादिणिप्पायणसहावं णामकम्म, उप-जीचमोत्तेसुप्पायणसहावं मोदं, विग्धकरणम्मि वावदमंतराइयं; एवमहण्हं पि कम्माणं पयडि विहत्तिदंसणादो। विहत्तिसद्दो कथं कम्मदव्वम्मि वढदे ? ण, आहियरणम्मि उप्पाइयस्स विहत्तिसहस्स तत्थ वत्तणे विरोहाभावादो। ही विवक्षित है।
आठों प्रकृतियोंका एक ही स्वभाव है ऐसी भी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि सम्यक्त्व और चारित्रका विनाश करना मोहनीयका स्वभाव है, ज्ञानका आच्छादन करना ज्ञानावरणका स्वभाव है, दर्शनका विनाश करना दर्शनावरणका स्वभाव है, सुख और दुःखको उत्पन्न करना वेदनीयका स्वभाव है, मनुष्य आदि पर्यायमें रोक रखना आयु कर्मका स्वभाव है, शरीर, गति, जाति और वर्णादिकको उत्पन्न करना नामकर्मका स्वभाव है, ऊंच और नीच गोत्रमें उत्पन्न कराना गोत्रकर्मका स्वभाव है और विघ्न करनेमें व्यापार करना अन्तरायकर्मका स्वभाव है। इस प्रकार आठों कर्मों में स्वभावभेद देखा जाता है।
शंका-भाववाची विभक्ति शब्द द्रव्यवाची.कर्मके अर्थ में कैसे रहता है ?
समाधान-अधिकरण साधनमें व्युत्पादित विभक्ति शब्द द्रव्यकर्म में रहता है, ऐसा मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है।
विशेषार्थ-ऊपर यह शंका उठाई गई है कि विभक्ति शब्द द्रव्य कर्ममें कैसे रहता है। इस शंकाका यह आशय प्रतीत होता है कि 'विभजनं विभक्तिः' इस प्रकार निरुक्ति करनेसे वि उपसर्ग पूर्वक भज् धातुसे भाव में 'खियां क्तिन्' इस सूत्रसे क्तिन् प्रत्यय करने पर विभक्ति शब्द बनता है। जिसका अर्थ विभाग करना होता है। पर प्रकृतमें द्रव्यकर्म मोहनीयके स्थानमें या उसके साथ विभक्ति शन्द आता है जो उपयुक्त नहीं है, क्योंकि मोहनीय द्रव्यकर्म शब्द द्रव्यवाची है अतः उसके स्थानमें या उसके साथ भाववाची विभक्ति शब्दका प्रयोग नहीं किया जा सकता। इस शंकाका वीरसेनस्वामीने इस प्रकार समाधान किया है कि प्रकृतमें जो विभक्ति शब्द आता है वह भावमें व्युत्पादित विभक्ति शब्द न होकर अधिकरणमें व्युत्पादित विभक्ति शब्द है। अतः द्रव्यकर्मके स्थानमें या विशेषणविशेष्यभावरूपसे द्रव्य कर्मके साथ विभक्ति शब्दके प्रयोग करनेमें कोई आपत्ति नहीं है। जब 'कर्मण्यधिकरणे च' इस सूत्रसे 'स्त्रियां क्तिन्' इस सूत्र में 'अधिकरणे' इस पदकी अनुवृत्ति कर लेते हैं सब अधिकरणमें भी विभक्ति शब्द बन जाता है। ऐसी हालतमें विभक्ति शब्दकी निरुक्ति 'विभज्यतेऽस्यामिति विभक्तिः' यह होगी। जिसका
(१)-हावं (१० ....४) करणम्मि-स०, म०।
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२२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे । पयडिविहत्ती २ * मूलपयडिविहत्तीए इमाणि अट्ठ अणियोगद्दाराणि । तं जहासामित्तं कालो अंतरं गाणाजीवेहि भंगविचओ कालो अंतरं भागाभागो अप्पाबहुगेत्ति ।
$ ४२६ उच्चारणाइरिएहि मूलपयडिविहत्तीए सत्तारस अत्थाहियारा जइवसहाइरिएण अहेव अत्थाहियारा परूविदा। कथमेदेसि दोण्हं वक्खाणाणं ण विरोहो ? ण, पअवष्टिय-दव्वष्ट्रियणयावलंवणाए विरोहाभावादो. कथमहहि सेसाहियारा संगहिया ? वुच्चदे । तं जहा, समुक्त्तिणा ताव पुध ण वत्तव्वा, संतेण विणा अण्हमहियाराणमत्थित्तविरोहादो। सादिय-अणादिय-धुव-अद्भुवअत्थाहियारा वि पुध ण वत्तव्वा; कालंतरेहि चेव तदत्थावगमादो। परिमाणं पि ण वत्तव्वं; अप्पाबहुगेत्ति तत्थ तस्स अंतब्भावादो। भावाहियारो वि ण वत्तव्यो; अणुत्तसिद्धीदो, मोहोदयविरहियाणं जीवाणं मुलपयडिसंताणुववत्तीदो। खेत्त-पोसणाणि च ण वत्तंव्वाणि; उवदेसेण विणा तदवअर्थ 'जिसमें विभाग किया जाता है उसे विभक्ति कहते हैं' यह होता है।
* मूलप्रकृतिविभक्तिके विषयमें आठ अनुयोगद्वार हैं। वे इस प्रकार हैं-एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल और अन्तर तथा नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर, भागाभाग और अल्पबहुत्व ।
४२. शंका-उच्चारणाचार्यने मूल प्रकृतिविभक्तिके विषयमें सत्रह अर्थाधिकार कहे हैं और यतिवृषभाचार्यने आठ ही अर्थाधिकार कहे हैं, इसलिये इन दोनों व्याख्यानों में विरोध क्यों नहीं आता ?
समाधान-नहीं, क्योंकि पर्यायार्थिकनय और द्रव्यार्थिकनयका अवलम्बन करनेपर उक्त दोनों कथनोंमें कोई विरोध नहीं आता है।
शंका-आठ अधिकारोंके द्वारा शेष नौ अधिकारोंका संग्रह कैसे हो जाता है ? ..
समाधान-इस शंकाका समाधान इस प्रकार है-समुत्कीर्तना नामक अधिकारको तो पृथक् नहीं कहना चाहिये, क्योंकि, सत्त्वके विना आठ अधिकारोंका अस्तित्व माननेमें विरोध आता है । सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव ये चार अर्थाधिकार भी पृथक् नहीं कहने चाहिये, क्योंकि, काल और अन्तर अर्थाधिकारके द्वारा ही सादि आदि अधिकारों के विषयका ज्ञान हो जाता है। परिमाण अधिकार भी पृथक नहीं कहना चाहिये, क्योंकि परिमाण अधिकारका अल्पबहुत्व अधिकारमें अन्तर्भाव हो जाता है। भावाधिकार भी पृथक् नहीं कहना चाहिये, क्योंकि, बिना कहे ही उसका अस्तित्व जाना जाता है, क्योंकि जो जीव मोहनीय कर्मके उदयसे रहित हैं उनके प्रायः मूल प्रकृति मोहनीयका सत्त्व नहीं पाया जाता है। क्षेत्र और स्पर्शन अधिकार भी नहीं कहने चाहिये, क्योंकि, उपदेशके विना ही क्षेत्र और स्पर्शनका ज्ञान हो जाता है। अथवा अल्पबहुत्वके साधन करनेके लिये द्रव्यका
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गा० २२]
पयडिविहत्ती गमादो, अप्पाबहुगसाहणटं दव्व-परिमाणे भण्णमाणे तदवगमादो वा । तम्हा विरोहो णत्थि त्ति सिद्धं ।
* एदेसु अणिओगद्दारेसु परूविदेसु मूलपयडिविहत्ती समत्ता होदि। ६ ४३- जइवसहाइरिएण एदेसिमत्थाहियाराणं ण विवरणं कदं; सुगमत्तादो।।
४४. संपहि मंदबुद्धिजणाणुग्गहटमुच्चारणाइरियमुहविणिग्गयमूलपयडिविवरणं भणिस्सामो । तं जहा, समुक्कित्तणा सादियविहत्ती अणादियविहत्ती धुवविहत्ती अद्ध्वविहत्ती एगजीवेण सामित्तं कालो अंतरं णाणाजीवेहि भंगविचओ भागाभागं परिमाणं खेत्तं पोसणं कालो अंतरं भावो अप्पाबहुगं चेदि ।
४५. समुक्कित्तणाणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोहणीयस्स अत्थि विहत्तिया अविहत्तिया च । एवं मणुस्स-मणुसपज्जत्त-मणुस्सिणी[पंचिंदिय] पंचिंदियपज्जत्त-तस-तसपज्जत्त-पचमण०-पंचवचि०-कायजोगि-ओरालिय०ओरालियमिस्स-कम्मइय०-अवगदवेद-अकसाइ-आभिणिबोहिय०-सुद०-ओहि०मणपज्जवणाणि-संजद-जहाक्खाद०-चक्खुदंसण-अचक्खुदंसण-ओहिदंसण-सुक्कलेस्साभवसिद्धिय-सम्मादिहि-खइय०-सण्णि-आहारि-अणाहारएत्ति वत्तव्यं । गेरइयादि जाव परिमाण कहने पर क्षेत्र और स्पर्शनका ज्ञान हो जाता है, इसलिये दोनों कथनोंमें कोई विरोध नहीं है, यह सिद्ध हो जाता है।
* इन आठों अनुयोगद्वारोंका कथन कर चुकने पर मूलप्रकृतिविभक्ति नामका पहला अर्थाधिकार समाप्त हो जाता है।
४३. सुगम होनेसे यतिवृषभाचार्यने इन आठों अर्थाधिकारोंका विवरण नहीं किया है। $ ४४. अब मन्दबुद्धिजनोंका उपकार करनेके लिये उच्चारणाचार्य के मुखसे निकले हुए मूलप्रकृति के विवरणको कहते हैं। वह इसप्रकार है-समुत्कीर्तना, सादिविभक्ति, अनादिविभक्ति, ध्रुवविभक्ति, अध्रुव विभक्ति, एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल और अन्तर तथा नानाजीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व ।
$ ४५. इनमेंसे समुत्कीर्तनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश | उनमेंसे ओघनिर्देशकी अपेक्षा मोहनीयविभक्तिवाले और मोहनीय अविभक्तिवाले जीव हैं। इसीप्रकार मनुष्य सामान्य, मनुष्यपर्याप्त, मनुष्यनी, पंचेन्द्रिय सामान्य, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिक काययोगी,
औदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, यथाख्यातसंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, संज्ञी, आहारक और अनाहारक
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पडिविहत्ती २ असणि ति सेससब्वमग्गणासु मोहणीयस्स अस्थि विहत्तिया अविहत्तिया मस्थि । एवं समुकित्तणा समत्ता ।
४६ सादिय-अणादिय-धुव-अद्भुवाणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओषेण आदेसेण य । तत्थ ओषेण मोहणीयविहत्ती किं सादिया किमणादिया किं धुवा किमबुवा । अणादिया धुवा अदुवा च । सादियपदं णस्थि; खविदमोहणीयसमुभवाभावादो। एक्मचक्खुदंसण-भवसिद्धिया० । णवरि भवसिद्धिया० अणादिया० (भवसिद्धियाणं) धुवपदं णस्थि । णिश्चणिगोदेसु मोहणीयस्स धुवत्तमस्थि त्ति णासंकणिजं; तेसि पि मोहविजीवोंके कहना चाहिये । अर्थात् इन जीवोंके मोहनीय कर्म पाया जाता है और नहीं भी पाया जाता है। नरकगतिसे लेकर असंज्ञी तक शेष समस्त मार्गणामोंमें मोहनीय विभक्ति वाले जीव हैं, मोहनीय विभक्तिसे रहित जीव नहीं हैं।
विशेषार्थ-समुत्कीर्तना शब्दका अर्थ उच्चारणा है। इसमें विवक्षित धर्मकी अपेक्षा सामान्य और विशेषरूपसे जीवोंका अस्तित्व और नास्तित्व या सामान्य और विशेषरूपसे जीवोंमें विवक्षित धर्मका अस्तित्व और नास्तित्व बतलाया जाता है। ऊपर मोहनीय कर्मकी अपेक्षा कथन किया है। सामान्यसे मोहनीय कर्मसे युक्त और उससे रहित जीव है यह निर्देश किया है, क्योंकि उपशान्तमोह गुणस्थान तक सभी जीव मोहनीय कर्मसे युक्त होते हैं और क्षीणकषाय गुणस्थानसे लेकर सभी जीव उससे रहित होते हैं। तथा जिन मार्गणास्थानोंमें ये दोनों प्रकारकी अवस्थाएं संभव हैं उनकी प्ररूपणाको ओघके समान कहा है। ऐसी मार्गणाओंके नाम ऊपर ही गिना दिये हैं। और जिन नरकगति आदि मार्गणाओंमें क्षीणकषाय आदि गुणस्थान नहीं पाये जाते उनमें मोहनीयका अस्तित्व ही कहा है।
इस प्रकार समुत्कीर्तना प्ररूपणा समाप्त हुई।
४६. सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव अनुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघनिर्देशकी अपेक्षा मोहनीय विभक्ति क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है, क्या अध्रुव है ? मोहनीय विभक्ति अनादि, ध्रुव और अध्रुव है। मोहनीय कर्ममें ओघकी अपेक्षा सादि पद नहीं है क्योंकि जिसने मोहनीय कर्मका समूल नाश कर दिया है ऐसे क्षीणकषाय जीवके फिरसे मोहनीय कर्मकी उत्पत्ति नहीं होती है। इसी प्रकार अचक्षुदर्शनी और भव्य जीवोंके कहना चाहिये। इतनी विशेषता है कि भव्य जीवोंके ध्रुवपद नहीं है। यदि कहा जाय कि जो भव्य जीव नित्यनिगोदिया हैं उनमें ध्रुवपद देखा जाता है सो ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उनके भी मोहनीयके नाश करनेकी शक्ति पाई जाती है। यदि उनके मोहनीयके नाश करनेकी शक्ति न मानी जाय तो वे भव्य न होकर अभव्योंके समान हो जायंगे।
(१) 'धुबमद्धवणाईयं अट्ठण्हं मूलपगईणं' मूलपगतीणं संतकम्म तिविहं-अणादियधुवअधुवं । कहं ? धुबसंतकम्मत्तादेवादी पत्थि तम्हा अणादियं, धुवाधुवा पुवुत्ता ॥१॥ कर्मप्र० सत्ता०, पूणि पत्र २७ ।
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गा० २२ ] मूलपयडिविहत्तीए सादिअादिअणुगमो णासणमत्तिसंभवादो । असंभवे च ण ते भव्वा; अभव्वसमाणत्तादो। मदिअण्णाणिसुदअण्णाणि-असंजद-मिच्छादिट्टी० मोहविहत्ती किं सादिया किमणादिया किं धुवा किमद्धवा ? सादि-अणादि-धुव-अद्धवा। अभव्व०मोहविहत्ती किं सादिया किमणादिया किं धुवा किमडुवा ? अणादिया, धुवा च। अपगतवेद० मोहविहत्ती किं सादिया किमणादिया किं धुवा किम वा ? सादिया अद्भुवा च । मोहअविहत्ती सादिया धुवा च । एवमकसाय-सम्माइटि-खइय०-अणाहारएत्ति वत्तव्वं । णवरि, अणाहा० अद्धवपदं पि अस्थि। सेमसव्वमग्गणाणं मोहविहत्ती जहासंभवं अविहत्ती च सादि-अदुवा ।
मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत और मिथ्यादृष्टि जीवोंके मोहनीयविभक्ति क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है, क्या अध्रुव है ? उक्त मार्गणाओंमें मोहविभक्ति सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव चारों रूप है । अभव्य जीवोंके मोहविभक्ति क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है, क्या अध्रुव है ? अभव्य जीवोंके मोहविभक्ति अनादि और ध्रुव है।
अपगतवेदी जीवोंके मोहविभक्ति क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है, क्या अध्रुव है ? अपगतवेदी जीवोंके मोइविभक्ति सादि और अध्रुव है। तथा अपगतवेदी जीवोंके मोह-अविभक्ति अर्थात् मोहनीय का अभाव सादि और ध्रुव है। इसी प्रकार अकषायी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि अनाहारक जीवोंके मोहनीय अविभक्तिका अध्रुव पद भी है। शेष सभी मार्गणाओंमें मोहविभक्ति तथा यथासंभव मोह-अविभक्ति सादि और अध्रुव हैं। . विशेषार्थ-गोमट्टसार कर्मकाण्डमें जो 'सादी अबंधबंधे' इत्यादि गाथा आई है उसमें बन्धकी अपेक्षा सादित्व आदिका विचार किया है, सत्त्वकी अपेक्षा नहीं। फिर भी वहां सादि आदिके विषयमें बन्धकी अपेक्षा जो व्यवस्था दी है वह यहां सत्त्वकी अपेक्षासे जानना । इनमेंसे सामान्यकी अपेक्षा मोहनीय कर्ममें अनादि, ध्रुव और अध्रुव ये तीन पद ही घटित होते हैं सादिपद नहीं। यही व्यवस्था अचक्षुदर्शनी जीवोंके जानना चाहिये। भव्योंके ध्रुव पदको छोड़कर मोहनीय कर्म के दो पद ही पाये जाते हैं। ये दोनों मार्गणाएं मोहनीयकी सत्त्वव्युच्छित्ति तक निरन्तर रहती हैं इसलिये इनमें सादिपद संभव नहीं। भव्योंके ध्रुवपद नहीं होने का कारण स्पष्ट है । मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत और मिथ्यादृष्टि ये चार मार्गणाएं अनादि और सादि दोनों प्रकारकी हैं। जिन जीवोंने कभी भी मिथ्यात्व गुणस्थानको नहीं छोड़ा है और न छोड़नेकी संभावना है उनकी अपेक्षा अनादि हैं और शेष जीवोंकी अपेक्षा सादि हैं। तथा इन मार्गणाओंमें भव्य और अभव्य दोनों प्रकारके जीव पाये जाते है, अतः इनमें मोहनीयके सादि आदि चारों पद संभव हैं। अभव्य
(१) मोहविहत्ती-अ०।
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Greenerated Faायपाहुडे
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एवं सादि- अणादिधुत्र - अदुवाणुगमो समत्तो ।
४७. सामित्तानुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोहणीयवित्त कस्स १ अण्णदरस्स संतकम्मियस्स | अविहत्ती कम्स ? अण्णदरस्स मोहसंतकम्मस्स । एत्रमध्पणो पदाणं णेदव्वं जाव अणाहारएत्ति । एवं सामिचं समत्तं ।
[ पयडिविहत्ती २
अनादि और ध्रुव पद ही होता है यह स्पष्ट ही है । अपगतवेदी, अकषायी, सभ्यदृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, और अनाहारक आदि मार्गणाएँ ऐसी हैं जिनमें मोहनीय कर्मका सद्भाव और मोहनीय कर्मका अभाव दोनों पाये जाते हैं । तथा ये मार्गणाएं सादि हैं, अतः इनमें मोहनी के सद्भावकी अपेक्षा सादि और अध्रुव ये दो पद ही होते हैं। पर इन मार्गणाओं में स्थित जिन जीवोंके मोहनीय कर्मका अभाव हो गया है उनके पुनः मोहनीय कर्म नहीं पाया जाता । अतः इस मार्गणाओंमें मोहनीय कर्मके अभाव की अपेक्षा सादि और . ध्रुव ये दो पद होते हैं। यहां ध्रुवपद स्थायित्व की अपेक्षासे कहा है । इतनी विशेषता है कि समुद्घातगत सयोगिकेवलियोंके अनाहारकत्व सादि और सान्त है, अतः अनाहारक जीवोंके मोहनीयकी अविभक्तिका अध्रुव पद भी होता है । इनसे अतिरिक्त शेष मार्गणाओं में नरकगति आदि कुछ ऐसी मार्गणाएं हैं जिनमें मोहविभक्ति ही है और यथाख्यातसंयत आदि कुछ ऐसी मार्गणाएं हैं जिनमें मोहविभक्ति और मोह अविभक्ति दोनों हैं । इनमें पूर्वोक्त व्यवस्थाके अनुसार सादि आदि पद जान लेना चाहिये ।
इस प्रकार सादि अनादि, ध्रुव और अध्रुवानुगम समाप्त हुआ ।
४७. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से ओघनिर्देशकी अपेक्षा मोहनीयविभक्ति किसके है ? जिसके मोहनीय कर्मका सत्त्व पाया जाता है ऐसे किसी भी जीवके मोहनीयविभक्ति है । मोहनीय-अविभक्ति किसके है ? जिसके मोहनीय कर्मके सत्वका नाश हो गया है ऐसे किसी भी जीवके मोहनीयअविभक्ति है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जहां दोनों या एक जितने पद संभव हों उनका कथन कर लेना चाहिये ।
विशेषार्थ - गुणस्थानों की अपेक्षा मोहनीय कर्म ग्यारहवें गुणस्थान तक पाया जाता है और आगे उसका असत्त्व है । अतः ओघसे मोहनीय विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले दोनों प्रकारके जीव बन जाते हैं । जब आदेशकी अपेक्षा विचार करते हैं तो वहां भी जिस मार्गणा में ग्यारहवेंसे नीचेके ही गुणस्थान संभव हैं वहां मोहविभक्ति ही होती है । और जिस मार्गणा में ग्यारहवेंसे आगेके गुणस्थान भी संभव हैं वहां मोहविभक्ति और मोह-अविभक्ति दोनों होती हैं ।
इस प्रकार स्वामित्वानुयोगद्वार समाप्त हुआ ।
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गा० २२]
मूलपयडिविहत्तीए कालो ४८. कालाणुगमेण दुविहो णिदेसो ओघेण आदेसेण य । तन्थ ओघेण मोहणीयविहत्ती केवचिरं कालादो होदि ? अणादिया अपञ्जवसिदा, अणादियो सपञ्जवसिदा । अविहत्ती केवचिरं कालादो होदि ? सादिया अपज्जवसिदा । एवमचक्खुदंसणाणं । णवरि अविहत्ती जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुतं । __$ ४६. आदेसेण णिरयगईए णेरइएसु मोहणीयविहत्ती केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण दसै वस्स-सहस्साणि, उक्कम्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि । पढमाए विदियाए तदियाए चउत्थीए पंचमीए छडीए सत्तमीए पुढवीए णेरइएसु मोहविहत्ती केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण दस-वास-सहस्साणि एग-तिण्णि-सत्त-दस-सत्तारस-वावीससागरोवमाणि सादिरेयाणि । उक्कस्सेण संग-सग-हिदि (दी)।
६४८. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मोहनीयविभक्तिका कितना काल है ? अनादि-अनन्त और अनादिसान्त काल है। मोह-अविभक्तिका कितना काल है ? सादि-अनन्त काल है। इसी प्रकार अचक्षुदर्शनी जीवोंके मोहविभक्ति और मोहअविभक्तिका काल कहना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके मोह अविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ।
विशेषार्थ-अभव्य जीवोंकी अपेक्षा मोहनीयका काल अनादि-अनन्त है । तथा इतर जीवोंके मोहनीयका काल अनादि-सान्त है। अचक्षुदर्शन बारहवें गुणस्थान तक सभी संसारी जीवोंके निरन्तर रहता है इसलिये अचतुदर्शनी जीवोंके मोहनीयका काल अनादिअनन्त और अनादि-सान्त दोनों प्रकारका बन जाता है। मोह-अविभक्तिका काल सादिअनन्त इसलिये है कि उसका आदि तो है, क्योंकि जब कोई जीव बारहवें गुणस्थानको प्राप्त होता है तभी उसका प्रारम्भ होता है। पर मोह-अविभक्तिका अन्त कभी नहीं होता, क्योंकि जिसने मोहनीयका पूरी तरहसे अभाव कर दिया है उसके पुनः मोहनीय कर्मकी उत्पत्ति नहीं होती। पर अचक्षुदर्शन बारहवें गुणस्थान तक ही होता है और बारहवें गुणस्थानका काल अन्तर्मुहूर्त है। अतः अचक्षुदर्शनी जीवोंके मोह-अविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है।
४९. आदेशनिर्देशकी अपेक्षा नरकगतिमें नारकियोंमें मोहनीय विभक्तिका कितना काल है ? एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट काल तेतीत सागर है। तथा पहली, दूसरी, तीसरी, चौथी, पांचवीं, छठी और सातवीं पृथिवीमें रहनेवाले नारकियोंमें मोहनीय विभक्तिका कितना काल है ? जघन्य काल सातों नरकों में क्रमसे दस हजार वर्ष, साधिक एक सागर, साधिक तीन सागर, साधिक सात सागर, साधिक दस सागर, साधिक सत्रह सागर और साधिक बाईस सागर है। तथा उत्कृष्ट काल अपने अपने
(१)-दिमसप-स० । (२)-सबासस-स० ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ ५०. तिरिक्खगईए तिरिक्खेसु मोहविहत्ती केवचिर कालादो होदि ? जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं उकस्सेण अणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा । पंचिंदियतिरिक्खनरककी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है।
विशेषार्थ-नरकमें मोहनीयकर्मका एक जीवकी अपेक्षा कहां कितने काल तक सत्त्व पाया जाता है इसका विचार किया गया है। सामान्यसे नरकमें एक जीवकी जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागर है, अतः सामान्यसे एक जीवकी अपेक्षा मोहनीयके सत्त्वका जघन्य काल दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर होता है। पर प्रत्येक पृथिवीकी अपेक्षा विचार करने पर जहां जितनी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति है वहां मोहनीयकर्मका सत्त्व भी एक जीवकी अपेक्षा उतने काल तक समझना चाहिये । अर्थात् इतने काल तक वह जीव विवक्षित नरकमें रहता है उसके बाद दूसरी गतिमें चला जाता है, इसलिये वहां उस जीवकी अपेक्षा मोहनीय कर्मका सत्त्व उतने कालतक ही कहा गया है। आगे जहां भी एक जीवकी अपेक्षा काल बतलाया है वहां भी यही अभिप्राय समझना चाहिये।
५०. तियचगतिमें तियचोंमें मोहनीय विभक्तिका कितना काल है ? जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहण प्रमाण और उत्कृष्ट अनन्तकाल है जिसका प्रमाण असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनों में जितने समय हों उतना है।
विशेषार्थ-एक जीवके तिचगतिमें रहनेका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहण है और उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन है जो अनन्त कालके बराबर होता है। जब कोई एक मनुष्य जीव लब्ध्यपर्याप्तक तिर्यंचमें सबसे जघन्य आयु खुद्दाभवग्रहणको लेकर उत्पन्न होता है और आयुके समाप्त हो जाने पर पुनः मनुष्यगतिमें चला जाता है तब तिर्यचगतिमें रहनेका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहण प्राप्त होता है। तथा जब कोई एक जीव अन्य गतिसे आकर तिर्यंचगतिमें ही निरन्तर परिभ्रमण करता रहता है तो उस जीवके तिर्यचगतिमें रहनेका काल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनोंसे अधिक नहीं होता है, इसके बाद वह नियमसे अन्य गतिमें चला जाता है, इसलिये एक जीवके तिथंच गतिमें निरन्तर रहने का उत्कष्ट काल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्राप्त होता है। इसी विवक्षासे तिर्यंचगतिमें एक जीवकी अपेक्षा मोहनीयका जघन्य और उत्कष्ट सत्त्व क्रमसे खुद्दाभवग्रहण और असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनरूप कहा है । तियंचगतिमें ऐसे भी अनन्तानन्त जीव हैं जिन्होंने अभी तक दूसरी पर्याय प्राप्त नहीं की है और न आगे करेंगे। यद्यपि उनकी अपेक्षा तिथंचगतिमें मोहनीयका काल अनादि-अनन्त होता है। पर वह काल यहां विवक्षित नहीं है, क्योंकि काल प्ररूपणामें सादि-सान्त कालकी अपेक्षा विचार किया है।
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गा० २२ ]
मूलपय डिविहत्तीए कालो
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पंचिदियतिरिक्खपजत्त - पंचिदियतिरिक्खजोणिणीसु मोहविहत्ती केवचिरं कालादो होदि ? जहणणेण खुद्दाभवग्गहणं अंतोमुद्दत्तं अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण तिण्णि पलिदोवमाणि
पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्त, और पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमतियों में मोहनीय विभक्तिका कितना काल है ? जघन्य काल क्रमशः खुद्दाभवगहण, अन्तर्मुहूर्त और अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट काल प्रत्येकका पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य है ।
विशेषार्थ-पंचेन्द्रिय निर्थचों में पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों प्रकारके तिर्थंचों का ग्रहण हो जाता है, अतएव उनकी अपेक्षा जघन्य काल खुद्दाभवग्रहण कहा है। पर पर्याप्त जीवोंकी जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त से कम नहीं है, अतः पंचेन्द्रियतिर्यंच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिर्यंच योमिमतियोंकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । तथा उक्त तीनों प्रकार के जीवोंकी पर्यायको प्राप्त होकर प्रत्येकका तिर्थंचगतिमें रहनेका उत्कष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है । अर्थात् पंचेन्द्रिय तिर्थंचों में जीव पंचानवे पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य काल तक रहता है, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्तोंमें सेंतालीस पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य काल तक रहता है और योनिमती पंचेन्द्रिय तिर्यच में पन्द्रह पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य काल तक रहता है । यथा कोई एक जीव तिर्यंचोंमें उत्पन्न हुआ और वहां संज्ञी स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और नपुंसकवेदियों में क्रमशः आठ आठ पूर्वकोटि काल तक परिभ्रमण करके अनन्तर इसीप्रकार असंज्ञी स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और नपुंसकवेदियों में आठ आठ पूर्वकोटि काल तक परिभ्रमण करके पश्चात् लब्ध्यपर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंच में उत्पन्न हुआ । वहां अन्तर्मुहूर्त काल तक रह कर पश्चात् असंज्ञी पर्याप्त होकर वहां स्त्रीवेद पुरुषवेद और नपुंसकवेदके साथ क्रमशः आठ आठ पूर्वकोटि काल तक परिभ्रमण करके पुनः संज्ञी स्त्रीवेदी और नपुंसकवेदियों में आठ आठ पूर्वकोटि और पुरुषवेदियों में सात पूर्वकोटि काल तक रह
तीन पकी आयु के साथ उत्तम भोगभूमि में रहकर देव हो जाता है । इस प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य काल प्राप्त हो जाता है । पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यंचों में काल कहते समय ऊपर बीचमें जो लब्ध्यपर्याप्त भवका ग्रहण कराया गया है उसे नहीं कराना चाहिये, क्योंकि, पर्याप्तकता के साथ लब्ध्यपर्याप्तकताका विरोध है । इसलिये संज्ञी और असंज्ञी जीवोंमें तीनों वेदोंके साथ जो दो दो बार उत्पन्न कराया है ऐसा न करके एक बार ही उत्पन्न कराना चाहिये और अन्तके वेदमें आठ पूर्वकोटिके स्थान में सात पूर्वकोटि काल तक परिभ्रमणका विधान करना चाहिये । इसप्रकार करने से पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंका काल पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य होता है । योनिमती पर्याप्त तिर्यंचों में असंज्ञीकी अपेक्षा आठ और संज्ञीकी अपेक्षा सात पूर्वकोटियों का ही विधान करना चाहिये, क्योंकि, इनके स्त्रीवेद के अतिरिक्त दूसरा वेद नहीं पाया जाता है । इसप्रकार योनिमती पर्याप्त तियचों में परिभ्रमणका काल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य प्राप्त होता
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ पुवकोडिपुधत्तेणभहियाणि । पंचिंदियतिरिक्खअपञ्जत्त० मोहविहत्ती केवचिरं कालादो होदि १ जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं उकस्सेण अंतोमुहुत्तं । एवं मणुस-पंचिंदिय-तसअपजत्ताणं वत्तव्वं ।
५१. मणुसगदीए मणुस-मणुसपजत्त-मणुसिणीसु मोहविहत्तीए पचिंदियतिरिक्खतिगभंगो । अविहत्ती केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण पुव्व-कोडी देरणा। है। इसी अपेक्षासे उक्त तीनों प्रकारके जीवोंमें मोहनीयका उत्कष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य कहा है। यहां पृथक्त्वका अर्थ तीनसे ऊपर और नौसे नीचेकी संख्या न लेकर विपुल लेना चाहिये।
पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तोंमें मोहनीय विभक्तिका कितना काल है ? जघन्यकाल खुद्दाभवग्रहण प्रमाण और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। इसीप्रकार मनुष्य लब्ध्यपर्याप्त, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त और त्रस लब्ध्यपर्याप्त जीवोंके भी मोहनीय कर्मका जघन्य काल खुद्दाभवप्रहण और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहना चाहिये ।
विशेषार्थ-उक्त गतिके जीव लब्ध्यपर्याप्त अवस्थाकी अपेक्षा कमसे कम खुद्दाभवग्रहण काल तक विवक्षितपर्यायमें रहकर अन्य गतिको चले जाते हैं। तथा अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त कालतक रहकर अन्य गतिको चले जाते हैं। क्योंकि, विवक्षित पर्याय में लगातार आगमोक्त संख्यात खुद्दाभवोंके ग्रहण करने पर भी उनके कालका जोड़ अन्तर्मुहूर्तसे अधिक नहीं होता है। इसी अपेक्षासे यहां मोहनीयका जघन्य काल खुद्दाभग्ग्रहण और उत्कष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है।
६५१. मनुष्यगतिमें सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनीके मोहनीय विभक्तिका काल क्रमशः पंचेन्द्रिय सामान्य तिथंच, पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिथंच और योनिमती पंचेन्द्रिय तिथंच इन तीनोंके अनुसार कहे गये कालके समान जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टसे पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक तीन पल्य समझना चाहिये । उक्त तीनों प्रकारके मनुष्यों के मोहनीय अविभक्तिका काल कितना है ? जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल देशोन पूर्वकोटि है।
विशेषार्थ-मनुष्यगतिके जीव संज्ञी ही होते हैं, इसलिये तियंचोंमें असंज्ञियोंकी अपेक्षा जो पूर्वकोटियां कही हैं वे यहां नहीं कहना चाहिये, अतः उन्हें अलग कर देनेपर सामान्य मनुष्योंमें सैतालीस पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य, पर्याप्त मनुष्योंमें तेईस पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य और मनुष्यनियों में सात पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य उत्कृष्ट काल प्राप्त होता है । तथा जघन्यकाल उक्त तीनों प्रकारके मनुष्योंका खुद्दाभवग्रहण व अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि, कोई एक जीव अन्य गतिसे आकर और उक्त तीन प्रकारके मनुष्योंले किसी एक में उत्पन्न होकर तथा उक्त
(१,-य तस्स अ-स० ।
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गा० २२ ]
मूलपयडिविहत्तौए कालो ५२. देवगइए देवेसु मोहविहत्तीए णेग्इयभंगो। णवरि भवणवासियादि जाव सव्वसिद्धि त्ति सग सग जहण्णुकस्स हिदी भणिदव्वा । तं जहा, भवणादि जाव सबत्ति मोहविहत्ती केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण दसवस्ससहस्साणि दसवस्ससहस्साणि पलिदोपमस्स अहमभागो, पार्लदोवमं सादिरेयं, वे सत्त दस चोदस सोलस अहारस वीस वावीस तेवीस चउवीस पंचवीस छब्बीस सत्तावीस अट्ठावीस एगुणतीस तीस एकत्तीस वत्तीस सागरोवमाणि सादिरेयाणि । उक्कम्सेण सागरोवमं सादिकाल तक रहकर यदि अन्य गतिको चला जाय तो जघन्यकाल उक्त प्रमाण ही प्राप्त होता है। इसी अपेक्षासे उक्त तीन प्रकारके मनुष्यों में मोहनीय कर्मका जघन्यकाल खुद्दाभवप्रहण व अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य कहा है। उक्त तीनों प्रकारके मनुष्योंमें मोहनीयके असत्त्वका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त कहनेका कारण यह है कि किसी एक क्षीणकषायी मनुष्यके सयोगी होकर अन्तर्मुहूर्त काल तक रह, समुद्धातकर और योगनिरोधके साथ अयोगी होकर मोक्ष चले जाने में जितना काल लगता है उस सबका योग भी अन्तर्मुहूर्त ही होता है। तथा मोहनीय कर्मके अभावका उत्कृष्टकाल देशोन पूर्वकोटि कहनेका कारण यह है कि किसी एक मनुष्यने गर्भसे लेकर आठ वर्षकी अवस्था होने पर संयमको प्राप्त किया और अन्तर्मुहूर्त प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानमें रहा । अनन्तर अधः करण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसांपरायमें एक एक अन्तर्मुहूर्त रहकर क्षीणमोह हो गया। इस प्रकार क्षीणमोह होनेतक छह अन्तर्मुहूर्त होते हैं। तो भी इनका योग एक अन्तर्मुहर्त होता है। इस प्रकार एक पूर्वकोटिमें से आठवर्ष अन्तर्मुहूर्त कम कर देनेपर मोहनीय कर्मके असस्वके साथ मनुष्य पर्यायमें रहनेका उत्कृष्टकाल देशोन पूर्वकोटि प्राप्त हो जाता है।
६५२. देवगतिमें-देवोंमें मोहनीय विभक्तिका काल नारकियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि भवनवासियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मोहनीय कर्मका जघन्य
और उत्कृष्टकाल क्रमसे अपनी अपनी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण कहना चाहिये। वह इस प्रकार है-भवनवासियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मोहनीय विभक्तिका कितना काल है ? भवनवासियोंमें दस हजार वर्ष, व्यंतरोंमें दस हजार वर्ष, ज्योतिषियोंमें पल्यके आठवें भाग प्रमाण, सौधर्म-ऐशान कल्पमें साधिक पल्य, सनत्कुमार-माहेन्द्र में साधिक दो सागर, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तरमें साधिक सात सागर, लान्तव-कापिष्ठमें साधिक दस सागर, शुक्रमहाशुक्रमें साधिक चौदह सागर, सतार-सहस्रारमें साधिक सोलह सागर, आनत-प्राणतमें साधिक अठारह सागर, आरण-अच्युतमें साधिक बीस सागर, नौ ग्रेवेयकोंमें क्रमसे साधिक बाईस, साधिक तेईस, साधिक चौबीस, साधिक पच्चीस, साधिक छब्बीस, साधिक सत्ताईस, साधिक अट्ठाईस, साधिक उनतीस और साधिक तीस सागर, नव अनुदिशोंमें साधिक इकतीस सागर और चार अनुत्तरोंमें साधिक बत्तीस सागर प्रमाण जघन्य काल
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ पयडिविहती २
रेयं पलिदोवमं सादिरेयं [पलिदोवमं सादिरेयं ] बे सागरोवमाणि [सादिरेयाणि] सत्तदस- चोइस- सोलस- अहारस- सागरोपमाणि सादिरेयाणि, वीस-बावीस तेवीस - चउवीसपंचवीस-छब्बीस सतावीम-अठ्ठावीस - एगुणतीस तीस-एक्कत्तीस वत्तीस ते तीस-सागरोवमाणि । णवरि, सव्वट्टे जहण्णुक्कस्स भेदो णत्थि |
९५३. इंदियाणुवादेण एइंदिय - बादर-सुहुम-पञ्जत्तापञ्जत्त सव्व विगलिंदिय-पंचकायबादर - सुहुम-पञ्जत्तापञत्ताणं खुदाबंधे जो आलावो सो कायव्वो ।
है । और उत्कृष्टकाल भवनत्रिकमें क्रमश: साधिक एक सागर, साधिक पल्य, साधिक पल्य, सोलह स्वर्गों में साधिक दो सागर, साधिक सात सागर, साधिक दस सागर, साधिक चौदह सागर, साधिक सोलह सागर, साधिक अठारह सागर, बीस सागर, बाईस सागर, नौ वेयकों में क्रम से तेईस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकतीस सागर, नौ अनुदिशोंमें बत्तीस सागर, और पांच अनुत्तरों में तेतीस सागर है। इतनी विशेषता है कि सर्वार्थसिद्धिमें जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिका भेद नहीं पाया जाता ।
विशेषार्थ - यहां नारकियोंके कालके समान जो देवों में मोहनीय कर्मका काल कहा है वह सामान्यकी अपेक्षासे है, क्योंकि, दोनों गतियों में जघन्य आयु दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट आयु तेतीस सागर प्रमाण होती है। विशेषकी अपेक्षा तो देवोंके जिस भेदमें जहां जितनी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति हो वहां मोहनीय कर्म का उतना जघन्य और उत्कृष्टकाल समझना चाहिये जिसका कि ऊपर उल्लेख किया ही गया है ।
$ ५३. इन्द्रिय मार्गणा के अनुवादसे सामान्य एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सभी विकलेन्द्रिय और उनके पर्याप्त अपर्याप्त, पांचों स्थावरकाय और उनके बादर और सूक्ष्म तथा सभी बादर और सूक्ष्मोंके पर्याप्त और अपर्याप्त इनका खुद्दाबन्धमें जो काल बताया है वही इनमें मोहनीय विभक्तिका काल समझना चाहिये ।
विशेषार्थ - खुद्दाबन्धमें सामान्य एकेन्द्रियोंका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहण प्रमाण और उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण बताया है। असंख्यातपुद्गलपरिवर्तनों के समयों की यदि गणना की जाय तो उसका प्रमाण अनन्त होता है । बादर एकेन्द्रियों का जघन्यकाल खुद्दाभवग्रहण प्रमाण और उत्कृष्टकाल अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण बतलाया है। यहां अंगुलके असंख्यातवें भागसे असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी और उत्सर्पिणियों के कालका ग्रहण किया है । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तोंका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल संख्यात हजार वर्ष बतलाया है । बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तोंका जघन्यकाल खुद्दाभवग्रहण प्रमाण और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त बतलाया है । सूक्ष्म एकेन्द्रियों का जघन्यकाल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्टकाल असंख्यात लोकप्रमाण बतलाया है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तोंका जघन्यकाल
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मूलप डिविहत्तीए कालो
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५४. पंचिदिय-पंचिदियपज त तस-तसवत्ताणं मोहविहत्ती केवचिरं कालादो होदि ? जहणणेण खुद्दाभवग्गहणं अंतोह हुत्तं उकस्सेण सागरोवमसहस्सं पुव्वको डिपुंधअन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल भी अन्तर्मुहूर्त ही बतलाया है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तों का जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण बतलाया है । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय तथा द्वीन्द्रिय पर्याप्त, त्रीन्द्रिय पर्याप्त और चतुरिन्द्रिय पर्याप्त इन जीवोंका जघन्य काल क्रमश: खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कहा है। तथा दोनोंका उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष कहा है । द्वीन्द्रिय अपर्याप्त, त्रीन्द्रिय अपर्याप्त और चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण तथा उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कहा है । काय मार्गणाकी अपेक्षा पृथिवीकायिक, अष्कायिक और वायुकायिक जीवोंका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक प्रमाण कहाहै । बादर पृथिवी, बादर जल, बादर अभि, बादर वायु और बादर बनत्पति प्रत्येक शरीर इनका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल कर्मस्थितिप्रमाण कहा है। यहां कर्मस्थिति से सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण काल लेना चाहिये । बादर पृथिवी पर्याप्त; बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष कहा है । बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तककी उत्कृष्ट स्थिति बाईस हजार वर्ष, बादर जलकायिक पर्याप्तककी उत्कृष्ट स्थिति सात हजार वर्ष, बादर अभिकायिक पर्याप्तककी उत्कृष्ट स्थिति तीन दिन, बादर वायुकायिक पर्याप्तककी उत्कृष्ट स्थिति तीन हजार वर्ष और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्तककी उत्कृष्ट स्थिति दस हजार वर्ष प्रमाण है । बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, बादर जलकायिक अपर्याप्त, बादर अमि कायिक अपर्याप्त, बादर वायुकायिक अपर्याप्त और बादर बनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त जीवोंका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहण प्रमाण और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कहा है। सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक और सूक्ष्म वनस्पतिकायिक तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल सूक्ष्म एकेन्द्रिय और इनके पर्याप्त और अपर्याप्तोंका काल जिस प्रकार ऊपर कह आये हैं उस प्रकार समझना चाहिये । इसप्रकार इन उपर्युक्त जीवोंका जो जघन्य और उत्कृष्ट काल है वही यहां मोहनीयका जघन्य और उत्कृष्ट काल है ।
५४. पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रियपयाप्त तथा त्रस और त्रसपर्याप्त जीवोंके मोहनीय विभक्ति का कितना काल है ? पंचेन्द्रिय और त्रसके जघन्यकाल खुद्दा भवग्रहण प्रमाण तथा पंचेन्द्रिय पर्याप्त और त्रसपर्याप्त जीवके जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। तथा उत्कृष्ट काल पंचे-न्द्रिय जीव के पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक हजार सागर, पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवके सौ पृथक्त्व
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ तेणब्भहियं, सागरोवमसदपुधत्तं, वेसागरोवमसदसहस्साणि पुष्यकोडिपुथत्तेणब्भहियाणि, बेसागरोवमसहस्सं । अविहत्तियाणं मणुसभंगो।
५५. पंचमण-पंचवचि०विहत्ती अविहत्ती केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एगैसमओ उक्कम्सेण अंतोमुहत्तं । सागर, त्रसजीवके पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक दो हजार सागर और उसपर्याप्त जीबके पूरे दो हजार सागर है। तथा मोहनीय कर्मसे रहित पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त तथा त्रस और त्रसपर्याप्त जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल मोहनीय कर्मसे रहित मनुष्योंके कालके समान जानना चाहिये ।
विशेषार्थ-कोई एक जीव यदि पंचेन्द्रियों में निरन्तर परिभ्रमण करे तो वह पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक हजार सागर कालतक ही पंचेन्द्रिय रहता है, अनन्तर उसकी पंचेन्द्रिय पर्याय छूट जाती है। इसीप्रकार पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस और सपर्याप्त जीवका भी अपने अपने उक्त उत्कृष्ट कालतक उस उस पर्यायमें निरन्तर अधिकसे अधिक परिभ्रमणका प्रमाण समझना चाहिये । इनका जघन्य काल स्पष्ट ही है। इन पंचेन्द्रियादिकोंमें मोहनीय कर्मका अभाव मनुष्यके ही होता है, अतः मनुष्यगतिमें जो मोहनीयके अभावका जघन्य और उत्कृष्ट काल ऊपर कह आये हैं वही पंचेन्द्रियादि चारोंकी अपेक्षासे भी समझना चाहिये।
६५५. पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी जीवोंके मोहनीय विभक्ति और अविभक्तिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है।
विशेषार्थ-कोई एक मोह विभक्ति वाला काययोगी जीव काययोगका काल पूरा हो जाने पर विवक्षित मनोयोगको प्राप्त हुआ। वहां वह एक समय तक रहा अनन्तर मर कर काययोगी हो गया। अथवा कोई एक मोहविभक्तिवाला काययोगी जीव काययोगका काल पूरा हो जाने पर विवक्षित मनोयोगको प्राप्त हुआ जो कि एक समय तक रहा । अनन्तर व्याघात हो जानेसे दूसरे समयमें पुनः उसके काययोग हो गया। इस प्रकार विवक्षित मनोयोगके साथ मोह विभक्तिका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है। इसी प्रकार वचन योगकी अपेक्षासे मोह विभक्तिके एक समय प्रमाण कालका कथन करना चाहिये। मोहअविभक्ति क्षीणमोहगुणस्थानसे होती है। और क्षीणमोह गुणस्थानमें पृथक्त्ववितर्कवीचार तथा एकत्व वितर्कअवीचार ये दोनों ध्यान सम्भव हैं। वीरसेन स्वामी कर्म अनुयोगद्वारमें ध्यानका कथन करते हुए लिखते हैं कि 'क्षीणकषायके काल में सर्वत्र एकत्ववितक अवीचार ध्यान ही होता है यह बात नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर वहां परिवर्तन द्वारा योगका एक समय प्रमाण कालका कथन नहीं बन सकता है। अतः
(१ -ण खीण कसायद्धाए सव्वत्थ एयत्तविदक्कावीचारझाणमेव जोगपरावत्तीए एगसमयपलवणण्णहाणुववत्तीदो। बलेण तदद्धादीए पुधत्तविदक्कवीचारस्स वि संभवसिद्धीदो। ५० क० ५० पृ० ८३९ उ० ।
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गा० २२ ]
मूलप डिविहत्तीए कालो
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५६. कायजोगी० विहत्ती केवचिरं कालादो होदि ? जह० एगसमओ । उक्क० अनंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा । अविहत्ती० मणजोगिभंगो । एवमोरालिय० । वरि विहत्ती उक्कस्सेण वावीसवस्ससहस्साणि देसूणाणि । ओरालिय मिस्स० विहत्ती जह० खुद्दा० तिसमयाणं (-यूणं) उक्क सेण अंतोमुहुत्तं । अविहत्ती केव० ? जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ । वेउव्विय० - आहार० विहत्ती० मण० भंगो । वेउव्वियमिस्स ० विहत्ती केवचि०१ जहण्णुक० अंतोमुहुत्तं । एवमाहारमिस्स ० -उवसमसम्माइट्टि - सम्मामिच्छाइट्ठी ० कम्मइय० विहत्ती जह० एगसमओ, उक्कस्सेण तिण्णि समया । अविहत्ती केव० १ जहण्णुक० तिण्णि समया ।
इससे जाना जाता है कि क्षीणकषायके प्रारम्भ में पृथक्त्ववितर्कवीचार ध्यान भी सम्भव है तथा अद्धापरिमाणका निर्देश करते समय तीनों योगोंके कालसे एकत्व विर्तक अविचार ध्यानका काल बहुत अधिक बतलाया है और एकत्ववितर्क अवीचार ध्यानके कालसे क्षीणकषायका काल बहुत अधिक बतलाया है। इससे भी यही सिद्ध होता है कि क्षीणकषाय गुणस्थान में उक्त दोनों ध्यान सम्भव हैं । अतः जो सूक्ष्मसांपरायिक संयत जीव विवक्षित मनोयोग और वचनयोगके कालमें एक समय शेष रहने पर क्षीणकषायी होता है उसके विवक्षित मनोयोग और वचनयोग में मोहअविभक्तिका जघन्य काल एक समय बन जाता है । तथा सभी मनोयोगों और वचनयोगोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, अतः इनकी अपेक्षा मोहविभक्ति और मोहअविभक्तिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है ।
$ ५६. काययोगियोंके मोहनीय विभक्तिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है । तथा काययोगियोंके मोहनीय अविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल मनोयोगियोंके समान है । इसी प्रकार औदारिककाययोगियोंके भी समझना चाहिये । इतनी विशेषता है कि औदारिककाययोगियों के मोहनीय विभक्तिका उत्कृष्ट काल देशोन बाईस हजार वर्ष है । औदारिक मिश्रकाययोगियोंके मोहनीय विभक्तिका जघन्य काल तीन समय कम खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । और मोहनीय अविभक्तिका कितना काल है ? मोहनीय अविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । वैक्रियिक काययोगी और आहारकाययोगी जीवोंके मोहनीय विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल मनोयोगियोंके समान है । वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंके मोहनीय विभक्तिका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्ट दोनों प्रकार से अन्तर्मुहूर्त काल है । इसी प्रकार आहारकमिश्रकाययोगी, उपशमसम्यम्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टी जीवोंके जानना चाहिये । कार्मणकाययोगियोंके मोहनीय विभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय है । और अविभक्तिका कितना काल हैं ? जघन्य और उत्कृष्ट दोनों प्रकार से तीन समय काल है ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ ___६५७. वेदाणुवादेण इत्थिवेदपुरिसवेदविहत्ती केवचि० ? जह० एगसमओ अंतो
विशेषार्थ-क्षपक सूक्ष्मसांपराय गुणस्थानके कालमें एक समय शेष रहने पर जिसे काययोगकी प्राप्ति होती है उसकी अपेक्षा काययोगमें मोहविभक्तिका जघन्य काल एक समय कहा है। तथा काययोगका उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण होता है इस अपेक्षासे काययोगमें मोह विभक्तिका उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण कहा है। मनोयोगमें मोह अविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त पहले घटित करके लिख आये हैं उसी प्रकार काययोगमें मोह अविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त घटित करके जानना । इसी प्रकार औदारिक काययोगियों के मोहविभक्ति और मोह अविभक्तिका काल जानना । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके मोह विभक्तिका उत्कृष्ट काल कुछ कम बाईस हजार वर्ष होता है क्योंकि
औदारिक काययोगका उत्कृष्ट काल कुछ कम बाईस हजार वर्ष है इससे अधिक नहीं । यहां कुछ कमसे मतलब पर्यायके प्रारम्भमें होनेवाले कार्मणकाययोग और औदारिक मिश्र काययोगके काल से है। इन दोनोंके सम्मिलित काल अन्तर्मुहूतको बाईस हजार वर्षमेंसे कम कर देने पर शेष समस्त कालमें औदारिककाययोग होता है । औदारिकमिश्रकाययोगमें मोहविभक्ति का जो जवन्य काल जघन्य अन्तर्मुहूर्त प्रमाण और उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्तप्रमाण कहा है इसका कारण यह है कि सबसे जघन्य क्षुद्रभवको ग्रहण करनेवाले लब्ध्वपर्याप्तकके औदारिक मिश्रका जघन्य काल होता है तथा उत्कृष्ट काल संख्यात हजार क्षुद्रभवोंमें परिभ्रमण करके जो पर्याप्तकमें उत्पन्न होकर औदारिक काययोगी हो जाता है उसके होता है। तो भी इस कालका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त होता है। औदारिक मिश्रकाययोगमें मोह अविभक्तिका जघन्ध और उत्कृष्ट काल एक समय सयोगिकेवलीके कपाट समुद्धातकी अपेक्षा कहा है। वैक्रियिक काययोग और आहारककाययोगका जघन्य काल एक समय मरण
और व्याघातकी अपेक्षा प्राप्त होता है तथा इनका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है अतः इन योगों में मोहविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त मनोयोगके समान बन जाता है । वैक्रिपिकमिश्र, आहारक मिश्र, उपशम म्यक्त्व और सम्पग्मिथ्यादृष्टिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त ही होता है अतः यहां मोह विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहू कहा। कार्मण काययोगका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय है अत: यहां मोहविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय कहा । तथा प्रतर और लोकपूरण समुद्धातके समय कार्मणकाययोग ही होता है जिसका काल तीन समय है। अत: इस. अपेक्षासे कार्मणकाययोगमें मोह अविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल तीन समय कहा ।
$ ५७. वेदमार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवके मोहनीयविभक्तिका
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गा० २२]
मूलपयडिविहत्तीए कालो मुहुत्तं, उक्क० सगढ़िदी । णवंस० विहत्ती केव० १ जह० एगसमओ उक्क० अणंतकाले । अवगदवेद० विहत्ती केव० ? जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । अविहत्ती० ओघभंगो ।
५८. कसायाणुवादेण कोहादिचउक्कविहत्ती केव० ? जहण्णुक्क० अंतोमुहुत्तं । कितना काल है ? स्त्रीवेदीके जघन्य काल एक समय और पुरुषवेदीके जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । तथा दोनोंके उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थिति प्रमाण है । नपुंसकवेदियोंके मोहनीय विभक्तिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है। अपगतवेदियोंके मोहनीय विभक्तिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अपगतवेदियोंके मोहनीय अविभक्तिके कालका कथन ओघके समान है।
विशेषार्थ-जो पहले स्त्री वेदी या नपुंसकवेदी था वह उपशम श्रेणीसे उतरते समय सवेदी हुआ और दूसरे समयमें मरकर पुरुष वेदके साथ देव हुआ, उसके उक्त दोनों वेदोंकी अपेक्षा मोहनीय विभक्तिका काल एक समय पाया जाता है। जो पहले सवेदी था वह उपशमश्रेणी पर चढ़कर एक समय के लिये अपगतवेदी हुआ और दूसरे समय में मरकर पुरुषवेदी हो गया उसके मोहनीय विभक्तिका काल एक समय पाया जाता है। पुरुषवेदकी अपेक्षा मोहनीय विभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्तसे कम नहीं हो सकता। वह इस प्रकार है-जो पहले पुरुषवेदी था वह उपशमश्रेणीसे उतरते समय पुरुषवेदी होकर सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक विश्राम करके जब पुनः उपशम श्रेणी पर आरोहण करके अवेदभावको प्राप्त होता है तब उसके पुरुषवेदके साथ मोहनीय विभक्तिका जघन्य काल अन्तर्भुहूर्त पाया जाता है। उत्कृष्टरूपसे स्त्रीवेद और पुरुषवेदके साथ मोहनीय कर्मका काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण बतलाया है। यहां अपनी अपनी स्थितिसे स्त्रीवेदी और पुरुषवेदीकी केवल एक पर्याय प्रमाण स्थितिका ग्रहण नहीं करना चाहिये किन्तु जितनी पर्यायों में स्त्रीवेदऔर पुरुषवेदकी अविच्छिन्न धारा चलती है तत्प्रमाण स्थिति लेना चाहिये । स्त्रीवेदका उत्कृष्ट काल पल्योपम शतपृथक्त्व है और पुरुषवेदका उत्कृष्ट काल सागरोपम शतपृथक्त्व है। अतः इन दोनों वेदोंके साथ मोहनीय विभक्तिका उत्कृष्ट काल भी इतना ही समझना चाहिये । एकेन्द्रिय जीवोंकी प्रधानतासे नपुंसकवेदका उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण कहा है, अतः नपुंसकवेदके साथ मोहनीय कर्मका काल भी तत्प्रमाण सिद्ध होता है । अपगतवेदियोंके मोहनीय विभक्ति अन्तर्मुहूर्तसे अधिक कालतक नहीं पायी जाती है यह स्पष्ट ही है।
६५८. कषायमार्गणाके अनुवादसे क्रोधादि चारों कषायवालोंके मोहनीय विभक्तिका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्ट दोनों प्रकारसे अन्तर्मुहूर्त काल है। कषाय रहित जीवोंके अपगत वेदियों के समान कथन करना चाहिये ।
(१)-लमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । अ० ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ अकसाई० अवगदवेदभगो। णाणाणुवादेण मदिअण्णाणि-सुदअण्णाणीसु विहत्तीए तिण्णि भंगा। जो सो सादि० जह० अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्टा । विहंग विहत्ती केव० ? जह० एगसमओ, उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि । आभिणियोहिय०-सुद०-ओहि० विहत्ती जह० अंतोमुहुत्तं उक्कस्सेण छावष्टिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । अविहत्ती० जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । मणपजव०विहत्ती० जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० पुचकोडी देसूणा । अविहत्ती० जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ।
विशेषार्थ-क्रोधादि चारों कषायोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है इसमें दो मत पाये जाते हैं। एक मतके अनुसार क्रोधादि कषाय एक समय रहकर भी मरणादिकके निमित्तसे बदली जा सकती हैं। और दूसरे मतके अनुसार क्रोधादिका जघन्य काल भी अन्तमुहूर्तसे कम नहीं होता है। यहां दूसरी मान्यताका ही ग्रहण किया है। तदनुसार क्रोधादि चारोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है।
ज्ञानमार्गणाके अनुवादसे मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें मोहनीय विभक्तिके कालकी अपेक्षा तीन विकल्प होते हैं-अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त । उनमें से जो सादि-सान्त विकल्प है उसका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल अर्द्ध पुद्गल परिवर्तन होता है। विभंगज्ञानियोंके मोहनीय विभक्तिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल देशोन तेतीस सागर है। आभिनिबोधिकज्ञानी श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंके मोहनीय विभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ अधिक छियासठ सागर है। तथा मोहनीय अविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। मनः पर्ययज्ञानियोंके मोहनीय विभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल देशोन पूर्वकोटि है । तथा मोहनीय अविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है।
विशेषार्थ-मत्यज्ञान और श्रुताज्ञान अभव्य जीवोंके अनादि-अनन्त भव्य जीवोंके अनादि-सान्त और जिन्हें एक बार सम्यग्दर्शन हो कर पुनः मिथ्यात्वकी प्राप्ति हुई है उनके सादि-सान्त काल तक पाया जाता है। उनमें से यहां सादि-सान्त मत्यज्ञान और श्रुताज्ञानकी अपेक्षा मोहनीय विभक्तिका काल बताया है। जो सम्यक्त्वी जीव मिथ्यात्वको प्राप्त होकर अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त कर लेता है उसके उक्त दोनों अज्ञानोंके साथ मोहनीय विभक्ति अन्तर्मुहूर्त काल तक पाई जाती है। तथा जो सम्यकवी मिथ्यात्वको प्राप्त होकर कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन काल तक मि यात्वके साथ परिभ्रमण करके सम्यक्त्वको प्राप्त होता है उसके मोहनीय विभक्ति उक्त दोनों अज्ञानोंके साथ कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन काल तक पाई जाती है। जो उपशम् सम्यग्दृष्टि देव या नारकी जीव उपशम सम्यक्त्वके कालमें एक समय शेष रहने पर सासादन
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गा० २२]
मूलपयडिविहत्तीए कालो ६५६. संजमाणुवादेण संजद० विहत्ती० अविहत्ती० जह० अंतोमुहुत्तं उक्कस्सेण पुचकोडी देसूणा । सामाइयछेदो० विहत्ती केव० ? जह० एगसमओ उक्क० पुव्वकोडी देसूणा। परिहारवि० विहत्ती केव० ? जह० अंतोमुहत्तं, उक्क० पुवकोडी देसूणा । एवं संजदासंजद० । सुहुमसांपराइय० विहत्ती केव० १ जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । सम्यदृष्टि होकर द्वितीय समयमें मरकर जब तिर्यंच या मनुष्य हो जाता है, तब उसके विभंगज्ञानके साथ सासादन गुणस्थानमें मोहनीय विभक्ति एक समय तक देखी जाती है। विभंगज्ञान अपर्याप्त अवस्थामें नहीं होता है इसलिये अपर्याप्त अवस्थाके कालको कम कर देने पर सातवें नरकमें विभंगज्ञानके साथ मोहनीय विभक्ति देशोन तेतीस सागर काल तक प्राप्त होती है। मतिज्ञानादि तीनों ज्ञानोंके साथ मोहनीय विभक्ति अन्तर्मुहूर्त काल तक रहती है यह तो स्पष्ट है पर उत्कृष्ट रूपसे साधिक छियासठ सागरोपम काल तक कैसे पाई जाती है इसका स्पष्टीकरण करते हैं-किसी एक देव या नारकी जीवने उपशम सम्यक्त्वसे वेदक सम्यक्त्व प्राप्त किया और वह उसके साथ वहां अन्तमुहूर्त रहा । अनन्तर अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्वकोटिकी आयु वाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। पुनः क्रमसे बीस सागर आयुवाले देवोंमें, पूर्व कोटि प्रमाण आयुवाले मनुष्योंमें, वाईस सागर आयुवाले देवोंमें और पूर्वकोटिप्रमाण आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। पुनः यहां क्षायिक सम्यक्त्वकी प्राप्तिका प्रारंभ करके चौबीस सागर आयुवाले देवोंमें उत्पन्न होकर और वहांसे आकर पूर्वकोटि प्रमाण आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न होकर अत्यल्प आयुके शेष रहने पर क्षपक श्रेणीका आरोहण करके क्षीणकषायी हो गया। उसके मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञानके साथ साधिक छयासठ सागर काल तक मोहनीय विभक्ति पाई जाती है। यहां साधिकसे चार पूर्वकोटि कालका ग्रहण किया है। इन तीनों ज्ञानोंके साथ मोहनीय विभक्तिका अभाव अन्तर्मुहूर्त काल तक होता है यह स्पष्ट ही है। कोई एक मनःपर्ययज्ञानी मनःपर्ययज्ञानकी प्राप्तिके अनन्तर अन्तर्मुहूर्त कालमें क्षीणकषायी हो जाय तो उसके मन:पर्ययज्ञानके साथ अन्तर्मुहूर्तकाल तक मोहनीय विभक्ति पाई जाती है। पूर्वकोटिकी आयुवाले जिस मनुष्यने आठ वर्षकी वयमें ही संयमके साथ मनःपर्यय ज्ञान प्राप्त कर लिया है उसके देशोन पूर्वकोटि काल तक मनःपर्ययज्ञानके साथ मोहनीय विभक्ति पाई जाती है।
५६.संयममार्गणाके अनुवादसे संयतोंके मोहनीय विभक्ति और मोहनीय अविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल देशोनपूर्वकोटि है। सामायिक और छेदोपस्थापना संयमको प्राप्त संयतोंके मोहनीय विभक्तिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय
और उत्कृष्ट काल देशोन पूर्वकोटि है। परिहारविशुद्धि संयतोंके मोहनीय विभक्तिका कितना काल है ? जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल देशोन पूर्वकोटि है। इसीप्रकार
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ अविहत्तीए मणुसभगो। असंजद० मदिअण्णाणिभंगो।
६०. दसणाणुवादेण चक्खुदंसण. विहत्तीए तसपञ्जचभंगो। अविहत्तीए आभिणि० भंगो । ओहिदंसण ओहिणाणिभंगो । संयतासंयतोंका भी कथन करना चाहिये । सूक्ष्म सांपरायिक संयतोंके मोहनीय विभक्तिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। यथाख्यातशुद्धिसंयतोंके मोहनीय विभक्तिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। यथाख्यात संयतोंके मोहनीय अविभक्तिके कालका कथन मनुष्योंके समान जानना चाहिये । असंयतोंके मत्यज्ञानियों के समान जानना चाहिये।
विशेषार्थ-संयम परिहारविशुद्धिसंयम और संयमासंयमका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल और देशोनपूर्वकोटि है इससे कम नहीं, इसलिये इनमें मोहनीयका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल देशोनपूर्वकोटि कहा है। इतनी विशेषता है कि परिहारविशुद्धिके काल में देशोनका अर्थ अडतीस वर्ष और देशसंयमके कालमें देशोनका अर्थ अन्तर्मुहूर्त पृथक्त्व करना चाहिये । सामायिक, छेदोपस्थापना और सूक्ष्मसांपरायका जघन्य काल एक समय मरणकी अपेक्षा कहा है। उसमें पहलेके दो संयमोंका एक समय काल उपशमश्रेणीसे उतरनेवाले जीवके दसवेंसे नौवेंमें आकर और एक समय ठहरकर मरनेवाले के होगा। और सूक्ष्म सांपरायका एक समय काल उपशमश्रेणी पर आरोहण करनेवालेके दसवेंमें एक समय ठहरकर मरनेवालेके तथा उपशमश्रेणीसे उतरनेवालेके ग्यारहवेसे दसवेंमें आकर और एक समय ठहरकर मरनेवालेके होगा। सामायिक और छेदोपस्थापनाका उत्कृष्ट काल देशोनपूर्वकोटि स्पष्ट ही है । सूक्ष्म साम्पराय संयमका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त दसवें गुणस्थानके कालकी अपेक्षासे कहा है। यथाख्यातसंयमका एक समय काल ग्यारहवें गुणस्थानमें एक समय रहकर मरनेवाले जीवके होता है। उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त उपशान्तमोह गुणस्थानके कालकी अपेक्षा कहा है। इसप्रकार जहां जितना जघन्य और उत्कृष्ट काल हो वहां मोहनीयकर्मका उतना काल समझना चाहिये। जिन संयतोंने मोहनीयकर्मका नाश कर दिया है, उनके मोहका अभाव जघन्यरूपसे अन्तर्मुहूर्त काल तक होता है, क्योंकि आयु कर्मके अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर जो क्षपकश्रेणीपर चढ़ते हैं वे मोहके बिना संसारमें अन्तर्मुहूर्त काल तक ही रहते हैं। तथा पूर्वकोटिकी आयुवाले जिन संयतोंने आठ वर्षकी अवस्थामें केवल ज्ञान प्राप्त किया है उनके देशोन पूर्वकोटि कालतक मोहनीयका अभाव पाया जाता है।
६६०. दर्शनमार्गणाके अनुवादसे चक्षुदर्शनी जीवोंके मोहनीयविभक्तिका काल त्रसपर्याप्त जीवोंके समान होता है। तथा अविभक्तिका काल आभिनिबोधिक ज्ञानीके समान है। अवधिदर्शनीके मोहनीय विभक्ति और मोहनीय अविभक्तिका काल अवधिज्ञानीके समान होता है।
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गा० २२ ]
मूलपयडिविहत्तीए कालो ६६१. लेस्साणुवादेण किण्ह-णील-काउ० विहत्ती० जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण तेत्तीस सत्तारस सत्त सागरोवमाणि सादिरेयाणि । तेउ-पम्माणं विहत्ती केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण वे अष्टारस सागरोवमाणि सादिरेयाणि । सुक्क० विहत्ती० जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० तेत्तीस सागरोवमाणि सादिरेयाणि । अविहत्ती० मणुसभंगो।
विशेषार्थ-त्रसपर्याप्तकी अपेक्षा मोहनीय विभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल दो हजार सागर कह आये हैं। उसीप्रकार चक्षुदर्शनी जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल जानना चाहिये। यह काल क्षयोपशमकी प्रधानतासे कहा है। उपयोगकी प्रधानतासे नहीं, क्योंकि उपयोगकी अपेक्षा चक्षुदर्शनका जघन्य और उत्कृष्ट दोनों काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही होते हैं। बारहवें गुणस्थानका जो जघन्य और उत्कृष्ट काल है वह चक्षुदर्शनीके मोहनीयके अभावका जघन्य और उत्कृष्ट काल समझना चाहिये। अवधिज्ञानीके मोहनीयकर्म और उसके अभावका काल ऊपर ही कह आये हैं उसीप्रकार अवधिदर्शनीके जानना चाहिये।
६६१. लेश्यामार्गणाके अनुवादसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले जीवोंके मोहनीय विभक्तिका कितना काल है ? जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कृष्णलेश्यावाले जीवोंके साधिक तेतीस सागर, नीललेश्यावाले जीवोंके साधिक सत्रह सागर और कापोतलेश्यावाले जीवोंके साधिक सात सागर है। तेज और पद्मलेश्यावाले जीवोंके मोहनीय विभक्तिका कितना काल है ? जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल तेजलेश्यावाले जीवोंके साधिक दो सागर और पद्मलेश्यावाले जीवोंके साधिक अठारह सागर है। शुक्ललेश्यावाले जीवोंके मोहनीय विभक्तिका कितना काल है ? जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है । शुक्ललेश्यावाले जीवोंके मोहनीय अविभक्तिका काल मनुष्योंके समान है।
विशेषार्थ-एक लेश्याका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है, तथा उत्कृष्ट काल सातवें नरककी अपेक्षा कृष्ण लेश्याका साधिक तेतीस सागर, पांचवें नरककी अपेक्षा नीलका साधिक सत्रह सागर, तीसरे नरककी अपेक्षा कापोतका साधिक सात सागर, सौधर्म-ऐशानस्वर्गकी अपेक्षा पीतका साधिक दो सागर, सतार-सहस्रार स्वर्गकी अपेक्षा पद्मका साधिक अठारह सागर और शुक्ल लेश्याका सर्वार्थसिद्धिकी अपेक्षा साधिक तेतीस सागर है। यहां साधिकसे विवक्षित पर्यायके पूर्ववर्ती पर्यायका अन्तिम अन्तर्मुहूर्त और उत्तरवर्ती पर्यायका प्रथम अन्तमुहूर्त लिया है, क्योंकि उस समय भी वही लेश्या रहती है । इस प्रकार जिस लेश्यका जघन्य और उत्कृष्ट जितना काल हो उसके अनुसार मोहनीयकर्मका जघन्य और उत्कृष्ट काल समझना चाहिये । मोहका अभाव केवल शुक्ल लेश्यामें मनुष्योंके ही होता है अतः उसका कथन मनुष्यों में मोहके अमावके कथनके समान करना चाहिये ।..........
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tream सहिदे कसायपाहुडे
[ पयडिविहत्ती २
०
९ ६२. भवियाणुवादेण भवसिद्धि ० विहत्ति ० अणादिओ सपजवसिदो । अविहत्तीए मणुसभंगो | अभवसिद्धि० विहत्ती अणादिअपञ्जवसिदा । सम्मत्ताणुवादेण सम्मादि० विहत्ती ० आभिणि० भंगो । अविहत्ती • ओघभंगो । खइय० विहत्ती ० जह० अतोमुहुतं, उक्क० तेत्तीस सागरोवमाणि सादिरेयाणि । अविहत्ती ० ओघभंगो । वेदगलम्मादि ० विहत्ती ० जह० अंतोसुहुत्तं, उक्क० छावहिसागरोवमाणि । सासण० विहत्ती० जह० एगसमओ, उक्क० छ आवलियाओ । मिच्छादिट्ठी • मदिअण्णाणिभंगो ।
९ ६२. भव्य मार्गणाके अनुवादसे भव्य जीवोंके मोहनीय विभक्ति अनादि- सान्व है । और इनके मोहनीय अविभक्तिका काल मनुष्योंके समान है । तथा अभव्य जीवोंके मोहनीय विभक्ति अनादि अनन्त है । सम्यक्त्व मार्गणाके अनुवाद से सामान्य सम्यग्दृष्टि जीवोंके मोहनीय विभक्तिका काल आभिनिबोधिकज्ञानियोंके समान है । तथा उनके मोहनीय अविभक्तिका काल ओघके समान है । क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंके मोहनीय विभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। तथा क्षायिकसम्यग्दृष्टियों के मोहनीय अविभक्तिका काल ओघके समान है । वेदकसम्यग्दृष्टियोंके मोहनीय विभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल छयासठ सागर है ? सासादन सम्यग्दृष्टियों के मोहनीय विभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल छह आवली है । मिथ्याटोंके मोहनी विभक्तिका काल मत्यज्ञानियोंके समान है ।
विशेषार्थ - मतिज्ञानियोंके मोहनीयका काल ऊपर दिखला ही आये हैं । सम्यग्दृष्टि सामान्य मोहनीय के अभावका काल ओघप्ररूपणा के समान जानना चाहिये । कोई जीब क्षायिक सम्यक्त्वको प्राप्त करनेके अनन्तर अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर ही क्षीणमोह हो जाता है । और कोई क्षायिकसम्यग्दृष्टि आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्त कम दो पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागर कालके बाद क्षीणमोह होता है । अतः इस विवक्षासे क्षायिक सम्यग्दृष्टिके मोहनीय कर्मका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर कहा है । सामान्य प्ररूपणा में मोहनीयके अभावका जो काल कहा है वही क्षायिक सम्यग्दृष्टिके मोहनीयके अभावका काल समझना चाहिये । वेदकसम्यक्त्वका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । जो पहले कई बार सम्यग्दृष्टिसे मिध्यादृष्टि और मिध्यादृष्टिसे सम्यग्दृष्टि हो चुका है ऐसा कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करके और वहां जघन्य अन्तर्मुहूर्त कालतक रहकर पुन: मिथ्यात्वको जब प्राप्त हो जाता है तब उसके वेदकसम्यक्त्वका अन्तर्मुहूर्त काल देखा जाता है । तथा उसका उत्कृष्ट काल छयासठ सागर है । कोई एक उपशम सम्यग्दृष्टि मनुष्य वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होकर मनुष्यपर्याय संबन्धी शेष भुज्यमान आयुसे रहित बीस सागरोपम आयुवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ। वहांसे पुनः मनुष्य होकर मनुष्यासे न्यून बाईस सागरकी आयुवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ। वहांसे पुनः मनुष्य होकर भुज्यमान मनुष्यायुसे तथा देवपर्यायके अनन्तर प्राप्त होनेवाली मनुष्यायुमेंसे क्षायिक
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गा० २२ ]
मूलपयडिविहत्तीए कालो ६३. सणियाणुवादेण सण्णि विहत्ती० जह० खुद्दाभवग्गहणं, उक्क० सागरोवमसदपुधत्तं । अविहत्ती० जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । असण्णि० एइंदियभंगो। आहार० विहत्ती० जह० खुद्दाभवग्गहणं तिसमयणं, उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेजदिभागो। अविहत्ती० मणुसभंगो। अणाहारि विहत्ती० कम्मइय० भंगो। अविहत्ती० ओघभंगो। सम्यग्दर्शनके प्राप्त होने तकके कालसे न्यून चौबीस सागर की आयुवाले देवोंमें उत्पन्न होकर वहांसे च्युत होकर पुनः मनुष्य हुआ। मनुष्य पर्यायमें जब वेदकका काल अन्तर्मुहूर्त शेष रहा तब दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारंभ करके कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि हुआ। इस प्रकार कृतकृत्यवेदकके चरम समय तक वेदक सम्यग्दर्शनके छयासठ सागर पूरे हो जाते हैं। अतः इस विवक्षासे वेदकसम्यग्दृष्टिके मोहनीय कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट काल कहा हैं। सासादनका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल छह आवली प्रमाण है। इस विवक्षासे सासादन सम्यग्दृष्टिके मोहनीयका जघन्य और उत्कृष्ट काल कहा है । मत्यज्ञान
और मिथ्यात्वका समान काल देखकर मिथ्यादृष्टियोंके मोहनीय कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट काल मत्यज्ञानियोंके जघन्य और उत्कृष्ट कालके समान कहा है। शेष कथन सुगम है।
६३. संज्ञीमार्गणाके अनुवादसे संज्ञी जीवोंके मोहनीय विभक्तिका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहण प्रमाण और उत्कृष्ट काल सौ पृथक्त्व सागर है। संज्ञी जीवोंके मोहनीय अविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूत है।. असंज्ञी जीवोंके मोहनीय विभक्तिका काल एकेन्द्रिय जीवोंके समान है।
विशेषार्थ-कोई एक असंज्ञी जीव संज्ञी अपर्याप्तोंमें उत्पन्न होकर पुनः असंज्ञी हो जावे तो उसके संज्ञी होनेका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण पाया जाता है । तथा कोई एक असंज्ञीजीव संज्ञियोंमें उत्पन्न होकर और वहां सौ पृथक्त्व सागर काल तक परिभ्रमण करके असंज्ञी हो जाये तो उसके संज्ञी होनेका उत्कृष्ट काल सौ पृथक्त्व सागर पाया जाता है। इस विवक्षासे संज्ञी जीवके मोहनीय कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट काल कहा है। क्षीणमोहका जो जघन्य और उत्कृष्ट काल है वही संज्ञी जीवोंके मोहनीयके अभावका जघन्य और उत्कृष्ट काल जानना चाहिये । असंज्ञियोंमें एकेन्द्रियोंका काल मुख्य है, इसलिये असंज्ञियोंमें मोहनीय कर्मका काल एकेन्द्रियोंमें मोहनीय कर्मके कालके समान बताया है।
आहार मार्गणाके अनुवादसे आहारक जीवोंके मोहनीय विभक्तिका जघन्य काल तीन समय कम खुद्दाभवग्रहणप्रमाण है । और उत्कृष्ट काल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है। आहारी जीवके मोहनीय अविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल मनुष्योंके समान है। अमाहारियोंके मोहनीय विभक्तिका काल कार्मणकाययोगियोंके समान है। तथा मोहनीय अविभक्तिका काल ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि मोहनीय अविभक्तिका जघन्य काल तीन समय है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे । यडिविहत्ती २ णवरि, जह० तिण्णि समया ।
एवं कालो समत्तो। ६४. अंतराणुगमेण दुविहो णिदेसो, ओघेण आदेसेण य । ओघेण विहत्तीणं णथि अंतरं । एवं जाव अणाहारएत्ति अप्पप्पणो पदाणं चिंतिऊण वत्तव्वं ।
एवमंतरं समत्तं । ६५. णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण विहत्ती अविहत्ती० णियमा अस्थि । एवं मणुस्स-मणुसपजत्त-मणुसिणीपंचिंदिय-पंचिंदियपजत्त-तस-तसपजत्त-तिण्णिमण-तिण्णिवाचि०-कायजोगि-ओरा
विशेषार्थ-एक पर्यायमें आहारकका सबसे जघन्य काल तीन समय कम खुद्दाभवग्रहणप्रमाण है। तथा उत्कृष्ट काल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है जो कि असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी प्रमाण होता है। इस विवक्षासे आहारक जीवके मोहनीय कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट काल कहा है। मनुष्योंमें मोहनीय कर्मके अभावका जघन्य और उत्कृष्ट काल ऊपर कह आये हैं वही आहारकोंके मोहनीयके अभावका जघन्य
और उत्कृष्ट काल जानना चाहिये । विशेष बात यह है कि यहां चौदहवें गुणस्थानका काल घटाकर कथन करना चाहिये; क्योंकि चौदहवें गुणस्थानमें जीव अनाहारक होता है। ऊपर कार्मणकाययोगमें मोहनीयकर्मका उत्कृष्ट काल तीन समय कह आये हैं वही अनाहारकोंके मोहनीय कर्मका जघन्य काल जानना चाहिये । अनाहारकके मोहनीयके अभावका जो जघन्य काल तीन समय बतलाया है वह प्रतर और लोकपूरण समुद्धातकी अपेक्षासे कहा है । तथा अनाहारकके मोहनीय अविभक्तिका उत्कृष्ट काल सादि-अनन्त होगा क्योंकि सिद्ध होनेपर भी जीव अनाहारक ही रहता है।
इसप्रकार कालानुयोगद्वार समाप्त हुआ। ___६६४. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओघनिर्देशकी अपेक्षा मोहनीय विभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। इसीप्रकार गति मार्गणासे लेकर अनाहारक मार्गणातक अपने अपने पदोंका चिन्तवन करके व्याख्यान करना चाहिये।
विशेषार्थ-मोहनीयका क्षय होकर पुनः उसकी प्राप्ति नहीं होती अतः ओघ और आदेशसे मोह विभक्तिका अन्तर काल नहीं होता यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
इस प्रकार अन्तर समाप्त हुआ। ६६५. नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से ओघकी अपेक्षा विचार करने पर मोहनीय विभक्ति
और मोहनीय-अविभक्ति नियमसे है। इसीप्रकार सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य, मनुष्यिनी पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, सपर्याप्त, सामान्य, सत्य और अनुभय ये तीन मनोयोगी
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गा० २२]
मूलपयडिविहत्तीए भंगविचश्रो लिय०-संजद०--सुक्कले०-भवसिद्धिय०-सम्मादि०-[खइयसम्माइष्ठि-] आहारि०-अणाहारएत्ति वत्तव्यं ।
६६. मणुसअपज० सिया विहत्तिओ सिया विहत्तिया। एवं वेउव्वियमिस्स०आहार-आहारमिस्स०-सुहुम०-उवसम०-सासण०-सम्मामिच्छादिष्टि त्ति वत्तव्यं । बेमण- बेवचि. सिया सव्वे जीवा विहत्तिया, सिया विहत्तिया च अविहत्तिओ च, सिया विहत्तिया च अविहत्तिया च, एवं तिण्णि भंगा । एवमोरालियमिस्सै०-[कम्मइय०]-आभिणि०-सुद०-ओहि०-मणपज्जव०-चक्खु०- अचक्खु०- ओहिदसण-सण्णि
और ये ही तीन वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, संयत, शुक्ल लेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, आहारक और अनाहारकके कहना चाहिये । अर्थात् उक्त मार्गणा वाले जीव नियमसे मोहनीय कर्मसे युक्त भी होते है और मोहनीय कर्मसे रहित भी होते हैं।
विशेषार्थ-ग्यारहवें गुणस्थान तक सभी जीव मोहनीय कर्मसे युक्त होते हैं और क्षीणकषायसे लेकर सभी जीव मोहनीय कर्मसे रहित होते हैं। उपर्युक्त मार्गणाओंमें ग्यारहवेंसे नीचेके और ऊपरके गुणस्थान संभव है अतः उनमें सामान्य प्ररूपणाके अनुसार मोहनीय कर्मसे युक्त और मोहनीय कर्मसे रहित जीव बन जाते हैं ।
६६६. लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंमें कदाचित् एक जीव मोहनीय विभक्तिवाला है और कदाचित् अनेक जीव मोहनीयविभक्तिवाले हैं। इसीप्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोके कथन करना चाहिये ।
विशेषार्थ-ऊपर जितनी मार्गणाएं कही हैं वे सब सान्तर हैं। अर्थात् उक्त मार्गणावाले जीव कभी होते और कभी नहीं होते । जब इन मार्गणाओंमें जीव होते हैं तो कभी एक जीव होता है और कभी अनेक जीव होते हैं। इसी अपेक्षासे उक्त मार्गणाओंमें मोहनीय कर्मसे युक्त एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा दो भंग कहे हैं।
असत्य और उभय इन दो मनोयोगी और इन्हीं दो वचन योगी जीवों में कदाचित् सभी जीव मोहनीय विभक्तिवाले हैं। कदाचित् बहुत जीव मोहनीय विभक्तिवाले और एक जीव मोहनीय अविभक्तिवाला है । कदाचित् बहुत जीव मोहनीय विभक्तिवाले और बहुत जीव मोहनीय अविभक्तिवाले हैं । इस प्रकार तीन भंग होते हैं। इसीप्रकार औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनः पर्ययज्ञानी, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी और संज्ञी जीवोंके कथन करना चाहिये ।
विशेषार्थ-औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोगको छोड़कर ऊपर जितनी (१)-दि (त्रु०...६ ) आ-स०, दिट्ठि० सासण० मा-अ०, आ०। (२)-स्स (त्रु०...४)
आ-स०।-स्स० वेउविवयमिस्स. आ-अ०,आ० ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे. [पयडिषिहत्ती २ त्ति वत्तव्कंः। अवगदवेद० सिया सव्वे जीवा अविहत्तिया, सिया अविहतियाच विहत्तिओ च, सिया अविहतिया च विहत्तिया च एवं तिणि भंगा । एवमकसायि: जहाक्खाद० । सेससव्वमग्गणासु विहत्तिया णियमा अस्थि ।
णाणाजीवेहि भंगविचओ समत्तो। मार्गणाएँ गिना आये हैं वे बारहवें गुणस्थान तक होती हैं। तथा बारहवां गुणस्थान सान्तर है। कभी इस गुणस्थानमें एक भी जीव नहीं होता तथा कभी अनेक जीव होते हैं और कभी एक जीव होता है। जब इस गुणस्थानवाला एक भी जीव नहीं होता तब - उक्त मार्गमाओंमें कदाचित् सभी जीव मोहनीयविभक्तिवाले हैं यह पहला भंग बन जाता है। जब बारहवें गुणस्थानमें एक जीव होता है तब उक्त मार्गणाओंमें कदाचित् अनेक जीव मोहनीय विभक्तिवाले हैं और एक जीव मोहनीय अविभक्तिवाला है यह दूसरा भंग बन जाता है। तथा जब बारहवें गुणस्थानमें अनेक जीव होते हैं तब उक्त मार्गणाओंमें कदाचित् अनेक जीव मोहनीय विभक्तिवाले हैं और अनेक जीव मोहनीय अविभक्तिवाले है यह तीसरा भंग बन जाता है। पर औदारिकमिश्रकाययोग और काणकाययोगमें मोहनीय अविभक्तिका कथन करते समय सयोगिकेवली गुणस्थानकी अपेक्षा कथन करना • चाहिये । यद्यपि सयोगकेवली गुणस्थानमें सर्वदा बहुत जीव रहते है। पर औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग सयोगिकेवलियोंके समुद्धात अवस्थामें ही होता है।
और सयोगिकेवली जीव सर्वदा समुद्धात नहीं करते । तथा सयोगकेवली जीव जब समुद्धात करते हैं तो कदाचित् एक जीव समुद्धात करता है और कदाचित् अनेक जीव समुद्धात करते हैं। अतः इस अपेक्षासे औदारिकमिश्रकाययोगी और कर्मणकाययोगी जीवोंके भी उक्त प्रकारसे तीन भंग हो जाते हैं।
अपगतवेदी जीवों में कदाचित् सभी जीव मोहनीय अविभक्तिवाले हैं। कदाचित् अनेक जीव मोहनीय अविभक्तिवाले हैं और एक जीव मोहनीय विभक्तिवाला है। कदाचित् अनेक जीव मोहनीय अविभक्तिवाले और अनेक जीव मोहनीय विभक्तिवाले हैं, इस प्रकार तीन भंग होते हैं। इसी प्रकार कषायरहित जीवोंके और यथाख्यातसंयतोंके भी कथन करना चाहिये। शेष सभी मार्गणाओंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीव नियमसे होते हैं।
विशेषार्थ-अपगतवेदी जीव नौवें गुणस्थानके सवेद भागसे आगे होते हैं। उनमें क्षपकश्रेणीके दसवें गुणस्थान तकके जीव और उपशमश्रेणीके जीव मोहनीय विमक्तिवाले हैं। अतः जब मोहनीय कर्मसे युक्त अवेदी जीव नहीं पाया जाता है तब मुख्यतः सयोग केवलियोंकी अपेक्षा सभी अवगतवेदी जीव मोहनीय कर्मसे रहित होते हैं, यह पहला भंग बन जाता है। जब नौवेंके अवेद भागसे लेकर दसवें गुणस्थान तक कोई एक ही जीव मोहनीय कर्मसे युक्त पाया जाता है तब 'कदाचित् अनेक अपगतगतवेदी जीव
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गा० २२ ]
मूलपयडिविहत्तीए भागाभागाणुगमो ६७. भागाभागाणुगमेण दुविहो णिदेसो ओघेण आदेसेण यं । [ लत्थ ] ओघेण विहत्ति० सव्यजीवाणं केवडिओ भागो। अणंता भागा। अविहत्ति० सध्यजीवाणं केवडिओ भागो ? अणंतिमभागो । एवं कायजोगि-ओरालिय०-ओरालियमिस्स-कम्बइय-अचखुदं०-भवसिद्धि०-आहार-अणाहारएत्ति वत्तव्यं ।
६८. मणुसगदीए मणुस्सेसु विहत्ति० सव्वजीवा० केवडिओ भागो ? असंखेजा भागा। अविहत्तिया सव्वजीवाणं केव०भागो ? असंखेजदिभागो। एवं पंचिंदिय-पंचिंदियपजत्त-तस-तसपज्जत्त-पंचमण-पंचवचि०-आभिणि-सुद०-ओहि०मोहनीय कर्मसे रहित होते हैं और एक जीव मोहनीय कर्मसे युक्त होता है यह दूसरा भंग बन जाता है। तथा जब नौवेंके अवेद भागसे लेकर ग्यारहवें गुणस्थानतक बहुतसे जीव मोहनीय कर्मसे युक्त पाये जाते है तब बहुतसे अपगतवेदी जीव मोहनीय कमसे रहित होते हैं और बहुतसे जीव मोहनीय कर्मसे सहित भी होते है यह तीसरा भंग बन जाता है। इसी प्रकार कषायरहित जीवोंके और यथाख्यात संयतोंके उक्त तीन भंग होते हैं। पर यहां 'एक जीव मोहनीय कर्मसे युक्त होता है या बहुतसे जीव मोहनीय कर्मसे युक्त होते हैं। ये विकल्प उपशान्तमोह गुणस्थानकी अपेक्षा ही कहना चाहिये । इस प्रकार ऊपर जिन मार्गणा विशेषोंमें मोहनीय कर्मसे युक्त होने और न होनेका कथन कर आये हैं उन मार्गणास्थानोंको छोड़कर शेष जितने भी मार्गणाओंके अवान्तर भेद है उनमें जीव मोहनीय कर्मसे युक्त ही होते हैं।
इसप्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय नामका अनुयोगद्वार समाप्त हुआ।
६६७. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघनिर्देशकी अपेक्षा मोहनीय विभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहुभाग हैं। मोहनीय अविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग प्रमाण हैं। इसीप्रकार काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, अचक्षुदर्शनी, भव्य, आहारक और अनाहारक जीवोंके भी कथन करना चाहिये।
विशेषार्थ-ऊपर जितनी भी मार्गणाएँ गिनाईं हैं उनका प्रमाण अनन्त होते हुए भी उनमेंसे बहुभाग प्रमाण जीव मोहनीय कर्मसे युक्त हैं और अनन्तवें भागप्रमाण जीव मोह नीय कर्मसे रहित हैं, अतएव उक्त मार्गणाओंकी प्ररूपणा ओघके समान कही गई है।
६६८. मनुष्यगतिमें मनुष्योंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीव समस्त मनुष्योंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। मोहनीय अविभक्तिवाले जीव सब मनुष्यों के कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। इसीप्रकार पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त
(१)- (....६) गो-स० । य तत्व जीवाणमो-अ०, मा०i
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [पयडिविहत्ती २ चक्खुदंसण-ओहिदसण-सुक्कले०-सण्णि त्ति वत्तव्वं । मणुपज्जत्त-मणुसिणीसु विहत्ति० सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? संखेज्जा भागा। अविहत्ति० केवडिओ भागो ? संखेज्जदिभागो । एवं मणपज्जव०-संजदाणं वत्तव्यं । जहाक्खादेसु विहत्तिया सव्व. जीवाणं केवडिओ भागो ? संखेज्जदिभागो। अविहत्तिया संखेज्जा भागा।
६६. अवगदवेद० विहत्ति० सव्वजी० केव० ? अणंतिमभागो। अविहत्ति० स, सपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यक और संज्ञी जीवोंके भी कथन करना चाहिये।
विशेषार्थ-मनुष्यगतिमें मनुष्य जीव असंख्यात हैं। उनमेंसे बहुभाग मोहनीय कर्मसे युक्त हैं और असंख्यातेक भागप्रमाण क्षीणमोही जीव मोहनीय कर्मसे रहित है। मनुष्यों के अतिरिक्त ऊपर और जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें भी इसीप्रकार व्यवस्था जानना चाहिये । क्योंकि, उनमेंसे प्रत्येक मार्गणाका प्रमाण असंख्यात होते हुए भी असंख्यात बहुभागप्रमाण जीव मोहनीय कर्भसे युक्त हैं और असंख्यात एक भागप्रमाण क्षीणमोही जीव मोहनीय कर्मसे रहित हैं। ___मनुष्यपर्याप्त और योनिमती मनुष्यों में मोहनीय विभक्तिवाले जीव मनुष्य पर्याप्त और योनिमती मनुष्योंके कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। मोहनीय अविभक्तिवाले जीव कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यातवें भागप्रमाण हैं । इसीप्रकार मनःपर्ययज्ञानी और संयतोंका भी कथन करना चाहिये।
विशेषार्थ-पर्याप्तमनुष्य,योनिमतीमनुष्य,मनःपर्ययज्ञानी और संयत इन चारों राशियोंका प्रमाण संख्यात होते हुए भी इनमें मोहनीय कर्मसे युक्त जीव बहुत होते हैं और मोहनीय कर्मसे रहित जीव अल्प होते हैं। इसीलिये इन चारों स्थानोंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीव संख्यात बहुभागप्रमाण और मोहनीय अविभक्तिवाले जीव संख्यातवें भागप्रमाण कहे हैं।
यथाख्यात संयतोंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीव सब यथाख्यातसंयत जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यातवें भागप्रमाण हैं। मोहनीय अविभक्तिवाले जीव कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यात बहुभागप्रमाण हैं।
विशेषार्थ-यथाख्यात संयम ग्यारहवें गुणस्थानसे चौदहवें गुणस्थान तक होता है । उसमें मोहनीय कर्मसे युक्त जीव ग्यारहवें गुणस्थानवाले ही होते हैं, शेष मोहनीयसे रहित है जो कि ग्यारहवें गुणस्थानवी जीवोंसे संख्यातगुणे हैं। इसीलिये ऊपर यह कहा है कि संख्यातवें भागप्रमाण मोहनीय विभक्तिवाले और संख्यात बहुभागप्रमाण मोहनीय अविभक्तिवाले यथाख्यातसंयत जीव होते हैं।
६६६. अपगतवेदियोंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीव सर्व अपगतवेदी जीवोंके कितने भागप्रमाण है ? अनन्त एक भागप्रमाण है। मोहनीय अविभक्तिवाले जीव कितने भागप्रमाण
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गा० २२ ]
मूलपयडिविहत्तीए परिमाणो सव्वजी० केव० ? अणंता भागा। एवं अकसाय-सम्मादिष्टि-खइय० वत्तव्वं । सेसाणं मग्गणाणं णत्थि भागाभागो एगपदत्तादो।
एवं भागाभागो समत्तो। ६७०. परिमाणाणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोहपयडीए विहत्तिया अविहत्तिया च केवडिया ? अणंता । एवमणाहारीणं वत्तव्वं ।
७१. आदेसेण णिरयगईए णेरइएमु मोह विहत्ति० केवडि० ? असंखेज्जा । एवं हैं ? अनन्त बहुभागप्रमाण हैं। इसीप्रकार अकषायिक, सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टियोंके कथन करना चाहिये। ये ऊपर जितनी भी मार्गणाएँ कह आये हैं उनसे अतिरिक्त शेष मार्गणाओंमें भागाभाग नहीं होता है, क्योंकि, उनमें एक स्थान पाया जाता है।
विशेषार्थ-अपगतवेदियोंमें नौवें गुणस्थानके अवेदभागसे लेकर सभी गुणस्थानवर्ती और गुणस्थानातीत जीवोंका ग्रहण कर लिया है। अतः उनमें मोहनीय विभक्तिवाले अनन्तवें भागप्रमाण और मोहनीय अविभक्तिवाले अनन्त बहुभागप्रमाण जीव कहे हैं। यही व्यवस्था अकषायिक, सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टियोंके सम्बन्धमें भी जानना चाहिये । विशेष बात यह है कि कषायरहित जीव ग्यारहवें गुणस्थानसे और सम्यग्दृष्टि तथा क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव चौथे गुणस्थानसे होते हैं। अतः इनका भागाभाग कहते समय उस उस गुणस्थानसे लेकर भागाभाग करना चाहिये । प्रारंभसे लेकर यहां जिन मार्गणास्थानोंका भागाभाग कहा गया है उन्हें छोड़कर शेष सभी मार्गणास्थानों में एक स्थान ही पाया जाता है, अतः वहां भागाभाग नहीं बन सकता है ।
इसप्रकार भागाभाग अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। ६७०. परिमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकार है, ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमें ओघकी अपेक्षा मोहनीय विभक्तिवाले जीव और मोहनीय अविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। इसीप्रकार अनाहारक जीवोंके भी कथन करना चाहिये।
विशेषार्थ-बारहवें गुणस्थानके पहले जितने भी संसारी जीव हैं वे सब मोहनीय कर्मसे युक्त हैं। और बारहवें गुणस्थानसे लेकर सभी जीव मोहनीय कर्मसे रहित हैं। इन दोनों राशियोंका प्रमाण अनन्त है, अत: ऊपर मोहनीय विभक्तिवाले जीव और मोहनीय अविभक्तिवाले जीव अनन्त कहे गये हैं। अनाहारकोंमें विग्रहगतिको प्राप्त हुए जीव मोहनीय कर्मसे युक्त होते हैं और प्रतर तथा लोकपूरण समुद्धातगत सयोग केवली, अयोगकेवली तथा सिद्ध जीव मोहनीयसे रहित होते हैं। ये दोनों ही अनाहारक राशियां अनन्त हैं, इसलिये ऊपर मोहनीय कर्मसे युक्त और मोहनीय कर्मसे रहित अनाहारक जीवोंका कथन ओघप्ररूपणाके समान कहा है।
७१. आदेशसे नरकगतिमें नारकियोंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीव कितने हैं ?असं
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ सत्तसु पुढवीसु । सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुरस अपज्जत्त-देव० भवणादि जाव अवराइदंताणं सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज्जत्त-तसअपज्जत्त-पुढवि०-आउ०-[ तेउ०] वाउ०-बादरपुढवि०-पज्जत्तापज्जत्त-बादरआउ०-पज्जत्तअपज्जत्त-बादरतेउ०-पज्जत्तअपज्जत्त-चादरवाउका०-पज्जत्तअपज्जत्त-सुहुम पुढवी०-पज्जत्तअपज्जत्त-सुहुमआउ०पज्जत्तअपज्जत्त-सुहुमतेउ०-पज्जत्तअपज्जत-सुहुमवाउ०- पज्जत्तअपज्जत्त-बादरवणप्फदिपत्तेय०-पजत्तअपजत्त-बादरणिगोदपदिहिद०- पञ्जत्तअपज्जत्त-वेउव्विय०-वेउव्वियमिस्स०-इत्थि०-पुरिस-विभंग-संजदासंजद-तेउ०-पम्म०-वेदग०-उवसम-सासणसम्मामिच्छादिट्टीणं वत्तव्वं ।
६७२. तिरिक्खगईए तिरिक्खेसु विहत्ति केवडि० ? अणंता । एवं सव्वएइंदिय०वणप्फदि०-वादर० पज्जत्त अपज्ज०-सुहुम० पज्जत्त अपज्जत्त-णिगोद० बादर० पज्जत्त ख्यात हैं। इसीप्रकार सातों पृथिवियोंमें कथन करना चाहिये। तथा सभी पंचेन्द्रिय तियच, मनुष्य लब्ध्यपर्याप्त, सामान्यदेव, भवनवासियोंसे लेकर अपराजित स्वर्ग तकके देव, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, त्रस लब्ध्य पर्याप्त, पृथिवीकायिक, अप्कायिक, तैजस्कायिक, वायुकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर अप्कायिक, बादर अप्कायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर तैजस्कायिक, बादर तैजस्कायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म अप्कायिक, सूक्ष्म अप्कायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म तेजस्कायिक, सूक्ष्म तैजस्कायिक पर्याप्त और अपर्याप्त सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर निगोदप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रिक मिश्रकाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभंगज्ञानी, संयतासंयत, तेजोलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवोंके कथन करना चाहिये ।
विशेषार्थ-सामान्यसे नारकी असंख्यात होते हैं और प्रत्येक नरकके नारकी भी असंख्यात ही होते हैं। तथा वे सब मोहनीय कर्मसे युक्त ही होते हैं। इसीलिये ऊपर मोहनीय कर्मसे युक्त सामान्य और विशेष नारकियोंका प्रमाण असंख्यात कहा है। अनन्तर जो मार्गणास्थान गिनाये हैं उनमें भी प्रत्येकका प्रमाण असंख्यात है और वे सब मोहनीय कर्मसे युक्त होते हैं, अतः उनका कथन नारकियोंके समान कहा है।
६७२. तिथंचगतिमें तिर्यंचोंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। इसीप्रकार सभी एकेन्द्रिय जीव, वनस्पतिकायिक, बादर बनस्पतिकायिक तथा उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त, सामान्यनिगोद
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गा० २२ ]
मूलपयडिविहत्तीए परिमाणो अपज्जत्त-सुहुम०पज्जत अपज्जत्त-णqसयवेद-चत्तारि कसाय-मदि-सुद अण्णाणि-असंजद-तिण्णिलेस्सा-अभवसिद्धिय-मिच्छाइष्ठि-असण्णित्ति वत्तव्वं ।
६७३. मणुसगईए मणुस्सेसु विहत्ति० केवडि० ? असंखेज्जा। अविहत्ति०संखेज्जा। एवं पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्त-तस-तसपज्जत्त-पंचमण०-पंचवचि०-आभिणि-सुद
ओहि०-चक्खुदंसण-ओहिदसण-सुक्कले० सणि त्ति वत्तव्वं । मणुसपज्ज-मणुसिणीसु विहत्ति० अविहत्ति० केवडि० ? संखेज्जा । एवं मणपज्जव०-संजदा० वत्तव्यं ।
६७४ सव्वदेवेसु विहत्ति० केवडि० ? संखेज्जा (एवमाहार०-आहारमिस्स०सामाइय-छेदोवडावण-परिहारविसुद्धि-सुहुमसांपराइयसंजदाणं वत्तव्यं । बादरनिगोद तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म निगोद तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त, नपुंसकवेदी, क्रोध, मान, माया और लोभ कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके कहना चाहिये।
विशेषार्थ-तिर्यंचोंका प्रमाण अनन्त होते हुए भी वे सबके सब मोहनीय कर्मसे युक्त होते हैं । इसीप्रकार ऊपर और जितने मार्गणास्थान गिनाये हैं वे सब अनन्तराशि प्रमाण हैं और मोहनीय कर्मसे युक्त हैं। अतः उनका कथन तिर्यंचोंके समान कहा है।
६७३. मनुष्यगतिमें मनुष्योंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। तथा मोहनीय अविभक्तिवाले जीव संख्यात हैं। इसीप्रकार पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त,त्रस, त्रसपर्याप्त,पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले और संज्ञी जीवोंको कथन करना चाहिये।
विशेषार्थ-सामान्य मनुष्योंका प्रमाण असंख्यात है उनमें असंख्यातें जीव मोहनीय कर्मसे युक्त हैं और संख्यात क्षीणमोहनीय जीव मोहनीय कर्मसे रहित हैं। ऊपर जो और मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमेंसे प्रत्येकमें भी इसीप्रकार जानना चाहिये ।
पर्याप्त मनुष्य और मनुध्यिणियोंमें मोहनीय विभक्तिवाले और मोहनीय अविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। इसीप्रकार मनःपर्ययज्ञानी और संयतोंके कथन करना चाहिये।
विशेषार्थ-पर्याप्त मनुष्य, मनुष्यणी, मनःपर्यय ज्ञानी और संयत जीवोंका प्रमाण संख्यात है। इसमें संख्यात बहुभाग प्रमाण जीव मोहनीय कर्मसे युक्त हैं और संख्यात एक भागप्रमाण जीव मोहनीय कर्मसे रहित हैं।
७४. सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। इसीप्रकार आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, और सूक्ष्मसांपराय संयतोंके कथन करना चाहिये ।
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जयघवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ ७५. कायजो० विहत्ति० केत्तिया ? अणंता। अविहत्ति० संखेज्जा । एवमोरालिय०-ओरालियमिस्स०-कम्मइय०-अचक्खु०-भवसिद्धि०-आहारएत्ति वत्तव्यं ।
६ ७६. अवगदवेद० विहत्ति० केत्ति ? संखेज्जा । अविहत्तिया केत्तिया ? अणंता। एवमकसा० वत्तव्वं । सम्मादिही० विहत्ति० केत्ति ? असंखेज्जा। अविहत्ति०
विशेषार्थ-जिस प्रकार सर्वार्थसिद्धि के देव संख्यात होते हुए भी वे सव मोहनीय कर्मसे युक्त होते हैं। उसीप्रकार ऊपर कहे गये शेष मार्गणास्थानोंमें भी जानना चाहिये।
७५. काययोगियोंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। तथा मोहनीय अविभक्तिवाले जीव संख्यात हैं । इसीप्रकार औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंमें जानना चाहिये ।
विशेषार्थ-काययोगियों का प्रमाण अनन्त है। तथा उनमें मोहनीयकर्मसे युक्त और मोहनीय कर्मसे रहित दोनों प्रकारके जीव पाये जाते हैं। जो बारहवें और तेरहवें गुणस्थानवी जीव हैं वे मोहनीय कर्मसे रहित हैं, अत: उनका प्रमाण संख्यात है और शेष ग्यारह गुणस्थानवी जीव मोहनीय कर्मसे युक्त हैं, अतः उनका प्रमाण अनन्त है। औदारिककाययोगियोंका कथन भी इसीप्रकार समझना चाहिये । कार्मणकाययोगियों में पहले, दूसरे और चौथे गुणस्थानमें विग्रहगनिको प्राप्त मोहनीय कर्मसे युक्त जीव लेना चाहिये । प्रत्येक समयमें अनन्त जीव विग्रहगतिको प्राप्त होते हैं, इस नियमके अनुसार उनका प्रमाण अनन्त होता है। कार्मणकाययोगियोंमें प्रतर और लोकपूरण समुद्भातको प्राप्त सयोगकेवली मोहनीय कर्मसे रहित होते हैं। वे संख्यात ही हैं। औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें नवीन शरीर धारण करने के प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त काल पर्यन्त संचित हुए पहले, दूसरे और चौथे गुणस्थानके तिर्यंच और मनुष्योंका ग्रहण करना चाहिये । वे अनन्त हैं और मोहनीय कर्मसे युक्त होते हैं। तथा कपाटसमुद्भातको प्राप्त औदारिक मिश्रकाययोगी मोहनीय कर्मसे रहित जानना चाहिये। इनका प्रमाण संख्यात ही है। अचक्षुदर्शनियोंमें प्रारंभसे लेकर ग्यारह गुणस्थान तकके जीव मोहनीय कर्मसे युक्त और बारहवें गुणस्थानके जीव मोहनीय कर्मसे रहित जानना चाहिये । भव्य और आहारकोंमें भी ग्यारह गुणस्थानके जीव मोहनीय कर्मसे युक्त और शेष मोहनीय कर्मसे रहित जानना चाहिये । इतना विशेष है कि मोहनीय कर्मसे रहित आहारकोंमें बारहवें और तेरहवें गुणस्थानके ही जीव होते हैं चौदहवेंके नहीं।।
७६. अपगतवेदी जीवोंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। मोहनीय अविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। इसीप्रकार कषायरहित जीवोंके कथन करना चाहिये । सम्यग्दृष्टियोंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। मोहनीय अविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंके भी इसीप्रकार
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गां ० २२ ]
मूल डिविहत्ती खेत्तागुगमो
केत्तिया ? अनंता । एवं खइयसमाइहीणं वत्तव्वं । एवं परिमाणं समत्तं ।
९७७, खेत्ताणुगमेण दुविहो णिद्देसो, ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोहविहत्ति० केवडि खेते ? सव्वलोगे । मोहअविहत्ति ० केव० खेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे, असंखेज्जेसु वा भागेसु, सव्वलोगे वा । एवं कायजोगि भव सिद्धिय-अणाहारित्ति । कथन करना चाहिये ।
विशेषार्थ - मोहनीय कर्मसे युक्त अपगतवेदी जीव नौंवें गुणस्थानके अवेदभागसे ग्यारहवें गुणस्थान तक और मोहनीय कर्मसे युक्त कषायरहित जीव उपशान्तमोह गुणस्थान में ही पाये जाते हैं । अतएव इन दोनोंका प्रमाण संख्यात कहा है । तथा शेष सभी ऊपरके गुणस्थानवर्ती और सिद्ध जीव अपगतवेदी और अकषायी होते हुए मोहनीय कर्म से रहित होते हैं अतः इन दोनोंका प्रमाण अनन्त कहा है । संसारस्थ सम्यग्दृष्टियों और क्षायिकसम्यग्दृष्टियों का प्रमाण असंख्यात है, किन्तु उसमें सिद्धोंका प्रमाण मिलाकर अनन्त कहा है । इन दोनोंमें मोहनीय कर्मसे युक्त जीवोंका ग्रहण करते समय चौथे गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तकके जीव ही लेना चाहिये । अतः सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दष्टियों में मोहनीय कर्म से युक्त जीव असंख्यात होते हैं । तथा मोहनीय कर्मसे रहित जीव अनन्त होते हैं ।
इसप्रकार परिमाणानुयोगद्वार समाप्त हुआ ।
७७. क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका होता है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से ओघकी अपेक्षा मोहनीय विभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सर्वलोक में रहते हैं। मोहनीयं अविभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्र में, लोकके असंख्यात बहुभाग प्रमाण क्षेत्रमें और सर्व लोक में रहते हैं । इसी प्रकार काययोगी, भव्य और अनाहारी जीवोंके कथन करना चाहिये ।
विशेषार्थ - वर्तमान निवासस्थानको क्षेत्र कहते हैं । वह जीवोंकी स्वस्थान, समुद्धा और उपपादरूप अवस्थाओंके भेदसे तीन प्रकारका होता है । स्वस्थान के स्वस्थानस्वस्थान और विहारवत्स्वस्थान इस प्रकार दो भेद हैं । समुद्धात भी वेदना, कषाय, वैक्रियिक, मारणान्तिक, तैजस, आहारक और केवलिके भेदसे सात प्रकारका है। यहां जीवोंकी उत्तरभेदरूप इन दस अवस्थाओं में प्रत्येक पदकी अपेक्षा क्षेत्रका विचार न करके सामान्यरीति से विचार किया गया है । अतः जिस स्थानमें जिस पदकी अपेक्षा उत्कृष्ट क्षेत्रकी संभावना है उसका ही सामान्य प्ररूपणा में ग्रहण कर लिया गया है। मोहनीय विभक्तिवाले जीवोंके क्षेत्रका कथन करते समय मिध्यादृष्टि जीवोंकी प्रधानता है, क्योंकि, मिध्यादृष्टि जीवोंका वर्तमान निवास स्थान सर्वलोक है। सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर उपशान्त मोह तक के
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे. [पयडिविहत्ती २ ६७८. आदेसेण णिरयगईए णेरइएसु मोहविहत्ति० केव० खेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे । एवं सव्वणेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुस अपज्जत्त-सव्वदेव-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज्जत्त-तसअपज्जत्त-बादरपुढवि०पज्जत्त-बादरआउ०पज्जत्त-बादरतेउ०पज्जत-बादरवणप्फदि० पत्तेय पज्जत्त-बादरणिगोदपदिदिपज-वेउव्विय०-वेउवियमिस्स०-आहार-आहारमिस्स०-इत्थि०-पुरिस०-विहंग०-सामाइय-छेदो०-परिहा०सुहुम०-संजदासंजद-तेउ०-पम्म०-वेदग०-उवसम-सासण-सम्मामिच्छेत्ति वत्तव्वं । मोहनीय विभक्ति वाले जीवोंकी प्रधानता नहीं है, क्योंकि उनका वर्तमान निवास स्थान लोकका असंख्यातवां भाग है । मोहनीय अविभक्तिवाले जीवोंके क्षेत्रका प्ररूपण करते समय ऊपर तीन प्रकारका क्षेत्र कहा है। उनमें लोकका असंख्यातवां भागप्रमाण क्षेत्र क्षीणमोह, समुद्धातरहित केवली या दंड और कपाट समुद्धातको प्राप्त केवली, अयोगकेवली और सिद्ध जीवोंके क्षेत्रकी अपेक्षा कहा है, क्योंकि, इनका वर्तमान निवास लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें है। लोकका असंख्यात बहुभाग प्रमाण क्षेत्र प्रतरसमुद्धातकी अपेक्षासे कहा है, क्योंकि,प्रतरसमुद्धातको प्राप्त केवलीने, जगश्रेणीप्रमाण जगप्रतरोंमेंसे ६३३१२ ५.८६३६० योजन प्रमाण जगप्रतरोंको घटा देने पर जो लोकका बहुभाग प्रमाण क्षेत्र रहता है उसे वर्तमान कालमें स्पर्श किया है । तथा सर्वलोक क्षेत्र लोकपूरण समुद्धातको प्राप्त केवलीके वर्तमान निवासकी अपेक्षासे कहा है । तथा जिन स्थानोंकी प्रधानतासे ओघक्षेत्रका कथन किया है वे स्थान काययोगी, भव्य और अनाहारी जीवोंके भी पाये जाते हैं, अतः इनका क्षेत्र ओघक्षेत्रके समान कहा है।
७८. आदेशनिर्देशकी अपेक्षा नरकगतिमें नारकियोंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं। इसीप्रकार सभी प्रथमादि सातों नरकोंके नारकी, सभी पंचेन्द्रिय तिर्यंच, लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य, सभी देव, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, त्रस लब्ध्यपर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर अप्कायिकपर्याप्त, बादर तैजस्कायिकपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त, बादरनिगोदप्रतिष्ठित प्रत्येकशरीर पर्याप्त, वैक्रियिक काययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारक काययोगी, आहारकमिश्रकाकयोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभंगज्ञानी, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायसंयत, संयतासंयत, तेजोलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशम सम्यग्दृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्यमिथ्यादृष्टि जीवोंके लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका कथन करना चाहिये ।
विशेषार्थ-ऊपर कहे गये मार्गणास्थानोंमें संभव पदोंके दिखलानेके लिये नीचे कोष्ठक दिया जाता है
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गा० २२ ]
मूलपयडिविहत्तीए खेत्ताणुगमो ६ ७६. तिरिक्खगईए तिरिक्खेसु मोहविहत्ति० केवडि खेत्ते ? सव्वलोए । एवं
मार्गणास्थान स्व. स्व. वि.ख. वेद० कषा. वैक्रि. ते० आ. मा. उप. सभी नारकी, पंचेन्द्रिय ति;पं० पर्याप्त ति०, पं० योनिमती ति०, सभी देव, उपशम । "
" " " " " x x " | " i स०, सासादन, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, वेदकसम्यग्दृष्टि, पीत लेश्यावाले, पद्मले० वैक्रियिककाययोग, विभंगज्ञा० विकलत्रय सा० और।
पर्याप्त विकलत्र० ल०, पंचे० ति० ल०, मनु० ल०, पंचे० ल०, बा० पृ० प०, बा० ज० प०,
" x " " x | x x " " प्र० वन०प०, सप्र० प्र० व० प०, त्रस ल०, सामायिक, छेदो० " , " संयतासंयत, परिहा० । " सम्यम्मिथ्या दृष्टि
आहारककाययोग आहारकमिश्र | " x x x x x x x x सूक्ष्मसांपराय
xxxx x x "x इसप्रकार उक्त मार्गणाओंमें कोष्ठकके अनुसार जो पद बताये हैं, उन सब पदोंकी अपेक्षा वर्तमान क्षेत्र सामान्य लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होता है अधिक नहीं।
७६.तियंचगतिमें तिथंचोंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सर्व
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maharanaamanaranaanar.mahaaranaparmananmara.marnamann........................
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ सव्वएइंदिय-पुढवि०-चादरपुढवि०- बादरपुढवि अपज्जत्त-आउ०- बादरआउ०-बादरआउ० अपज्ज०-तेउ०-बादर तेउ०-बादरतेउ० अपज०-वाउ०-वादरवाउ०-बादरवाउ०अपज०-सुहुमपुढवि०-सुहुमपुढवि०पज्ज०-सुहुमपुढवि० अपज सुहुमआउ०-सुहुमआउ०पज्ज०-सुहुमआउ० अपज्ज०-सुहुमतेउ०-सुहुम तेउ०पज्ज०- सुहुमतेउ०अपज्ज०-सुहुमवाउ०-सुहुमवाउ०पज्ज०-सुहुमवाउ०अपज०-वणप्फदि०-बादरवणप्फदि०-बादरवणप्फदि० पज्जतापज्जत-सुहुमवणप्फदि०-सुहुमवणप्फदि० पज्जत्तापज्जत्त-णिगोद०-बादर णिगोद०-बादरणिगोदपज्जत्तापज्जत्त-सुहमणिगोद-सुहुमणिगोदपज्जत्तापज्जत्त-णउंस०चत्तारिकसाय०-मदिसुदअण्णाणि-असंजद०-तिलेस्सा०-अभवसिद्धि०-मिच्छादि०असणि त्ति वत्तव्वं । लोकमें रहते हैं। इसी प्रकार सभी एकेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक,बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, अप्कायिक, बादर अप्कायिक,बादर अप्कायिक अपर्याप्त, दैजस्कायिक, बादर तेजस्कायिक, बादर तैजस्कायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अप्कायिक, सूक्ष्म अप्कायिक पर्याप्त, सूक्ष्म अप्कायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म तेज कायिक, सूक्ष्म तेजकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म तेजकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त, वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म बनस्पतिकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, निगोद, बादरनिगोद, बादरनिगोद पर्याप्त, बादरनिगोद अपर्याप्त, सूक्ष्म निगोद, सूक्ष्म निगोद पर्याप्त, सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त, नपुंसकवेदी, क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, कृष्ण, नील और कापोत ये तीन लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके सर्वलोक क्षेत्र होता है।
विशेषार्थ-इन उपर्युक्त मार्गणास्थानोंमें कहां कितने पद हैं इसका ज्ञान कराने के लिये पहले नीचे कोष्ठक दिया जाता है
मार्गणा स्व.स्व. वि.स्व. वे. क. वैक्रि. ते. आहा. मा. | उ. | क्रोध,मान,माया व लोभ " । सामान्य तिर्यंच,नपुंसक, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, कृष्णादि तीन " " " " " लेश्यावाले, अभब्य, मिथ्यादृष्टि व असंज्ञी
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गा० २२ ]
मूलपयडिविहत्तीए खेत्ताणुगमो
x
A
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x
|
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"
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| एकेन्द्रिय, तेजकायिक ।
व वायुकायिक । बादर एकेन्द्रिय, बादर तेजकायिक, बादर वायुकायिक, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त और बादर तेज कायिक पर्याप्त एकेन्द्रिय सूक्ष्म, सूक्ष्म वायु, सूक्ष्म तेज व इनके पर्याप्त और अपर्याप्त, पृथिवी, जल, वनस्पति " x " | " x x x | " | " !
और निगोद तथा इनके सूक्ष्म और पर्याप्त अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, बादर तेज, बादर वायु ये । तीनों अपर्याप्त, बादर पृथिवी, बादर जल, बादर वनस्पति, बादर निगोद और इनके पर्याप्त अपर्याप्त
कोष्ठक नम्बर एक के चारों कषायवाले विहारवत्स्वस्थान, वैक्रियिक, तैजस और आहारक समुद्भातको छोड़कर शेष पांच पदोंसे सर्व लोकमें रहते हैं, क्योंकि इन पांच पदोंमें रहनेवालोंका प्रमाण अनन्त है और वे सर्व लोकमें पाये जाते हैं। नम्बर दोके सामान्य तिथंच आदि जीव विहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिकसमुद्धातको छोड़कर शेष पांच पदोंसे सर्व लोकमें रहते हैं। इसका कारण पहलेके समान जानना चाहिये। नम्बर तीनके जीव वैक्रियिक समुद्धातको छोड़कर शेष पांच पदोंसे सर्व लोकमें रहते हैं। इनमेंसे तेजकायिक और वायुकायिक जीवोंका प्रमाण असंख्यात लोक है इसलिये एकेन्द्रियोंके समान इनके भी सर्व लोकमें पाये जानेमें कोई आपत्ति नहीं है। नम्बर चारके बादर एकेन्द्रिय आदि और नम्बर छहके बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त आदि जीव केवल मारणान्तिक समुद्धात और उपपाद पदकी अपेक्षा सर्व लोकमें पाये जाते हैं। क्योंकि, ये जीवराशियां बादर होनेसे सब जगह रह तो नहीं सकती हैं फिर भी ये जब सूक्ष्म जीवोंमें जाकर उत्पन्न होनेके पहले मारणान्तिक समुद्घात करते हैं तब इनका वर्तमान क्षेत्र सर्व लोक पाया जाता है। तथा लोकके किसी भी भागसे सूक्ष्म जीव आकर जब इन बादरोंमें उत्पन्न
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५८.
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ ६८०. मणुसगईए मणुसेसु मणुसपज्ज०-मणुसिणि मोह विहसि केव०खेत्ते०? लोग० असंखे० भागे। अविहत्ती० ओघभंगो। एवं पचिंदिय-पचिंदियपज्ज-तसतसपज्ज०-अवगदवेद०-अकसा०-संजद-जहाक्खाद०-सुक्क०-सम्मादि०-खइयसम्मादिष्ठि होते हैं तब भी इनका सर्व लोक क्षेत्र पाया जाता है। इस प्रकार इनका मारणान्तिक समुद्धात और उपपाद पद की अपेक्षा सर्व लोकमें वर्तमान निवास बन जाता है। नम्बर पांचके एकेन्द्रिय सूक्ष्म आदि जीव अपने पांचों पदोंसे सर्वलोकमें रहते हैं। इस कोष्ठकके अनुसार सभी जीवोंका जिन पदोंकी अपेक्षा सर्व लोक क्षेत्र नहीं पाया जाता है, वह प्रकृतमें उपयोगी नहीं है इसलिये नहीं लिखा है। विशेष जिज्ञासुओंको उसे क्षेत्रानुयोग द्वारसे जान लेना चाहिये।
६८०.मनुष्यगतिमें मनुष्योंमें मोहनीयविभक्तिवाले मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनी कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं। मोहनीय अविभक्तिवाले उक्त जीवोंका कथन ओघके समान है। इसीप्रकार पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रस पर्याप्त, अपगतवेदी, अकषायी, संयत्त, यथाख्यातसंयत, शुक्ल लेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसन्यग्दृष्टि जीवोंके कथन करना चाहिये।
विशेषार्थ-इन उपर्युक्त मार्गणाओंमें स्थित जीवोंमें किनके कितने पद होते हैं, इसका ज्ञान करानेके लिये नीचे कोष्ठक दिया जाता है
स्व. वि. स्व. वे. | क. वै. | तै. आ. के. मा. उ. | मनुष्य पर्याप्त, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, " " " " " " " " " त्रस पर्याप्त,शुक्ललेश्या, सम्यग्दृष्टि,क्षायिक स. संयत मनुष्यनी अकषायी, अपगतवेदी, ,, यथाख्यात संयत
मोहनीय विभक्तिवाले और मोहनीय अविभक्तिवाले ये सभी जीव केवलि समुद्धातके प्रतर और लोक पूरणरूप अवस्थाओंको छोड़कर शेष संभव सभी पदोंके द्वारा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं। तथा उक्त सभी जीव प्रतरसमुद्धातकी अपेक्षा लोकके असंख्यात बहुभागोंमें और लोकपूरण समुद्धातकी अपेक्षा सर्वलोकमें रहते हैं। ... मोहनीय विभक्तिवाले बादर वायुकायिक पर्याप्त जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके
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गा० २२ ]
मूलपयडिविहत्तीए खेत्ताणुगमो त्ति वत्तव्वं । बादरवाउ० पज्ज० विहत्ति केव० १ लोग० संखेज्जदिभागे। वट्टमाणकाले मारणंतिय-उववादपदेहि वि णत्थि सव्वलोगो, लोगस्स संखेज्जदिभागे चेव मारणंतियं मेल्लमाण उप्पज्जमाणजीवाणं चेव पहाणभावुवलंभादो। पंचमण०-पंचवचि०मोह० विहत्ति० अविहत्ति० केव० खेत्ते ? लोगस्स असंखे० भागे। एवमाभिणि०सुद०-ओहि०-मणप०-चक्खु०-ओहि०-सण्णित्ति वत्तव्यं । ओरालिय० विहत्ति० केव० खेत्ते०१ सव्वलोगे। अविहत्ति० मणजोगिभंगो। एवमोरालियमिस्स० अचक्खु० आहारएति वत्तव्यं । कम्मइय० विहत्ति० केव० खेत्ते ? सव्वलो। अविहत्ति० केव० खेत्ते ? असंखेज्जेसु वा भागेषु सव्वलोगे वा । एवं खेत्तं समत्तं । संख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं। इनका मारणान्तिक समुद्धात और उपपाद पदोंकी अपेक्षा भी वर्तमानकालमें सर्व लोकक्षेत्र नहीं है, क्योंकि इनमें लोकके संख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्रमें ही मारणान्तिक समुद्धात और उपपादवाले जीवोंकी ही प्रधानता देखी जाती है।
विशेषार्थ-बादर वायुकायिक पर्याप्त जीव वर्तमान कालमें स्वस्थानस्वस्थान, वेदना,. कषाय, मारणान्तिक और उपपादकी अपेक्षा लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें ही रहते हैं, क्योंकि पांच राजु लम्बे और एक राजु प्रतररूप क्षेत्रमें ही इनका आवास पाया जाता है, जो कि लोकके संख्यातवें भाग प्रमाण ही होता है। यद्यपि वायुकायिक जीव उक्त क्षेत्रके बाहर भी मारणान्तिक समुद्धात करते हैं और उक्त क्षेत्रसे बाहरके अन्य जीव भी इनमें उत्पन्न होते हैं पर उनका प्रमाण स्वल्प है। अतः इतने मात्रसे इनका क्षेत्र लोकका संख्यात बहुभाग या सर्वलोक नहीं बन सकता है। तथा वैक्रियिक समुद्धातकी अपेक्षा बादर वायुकायिक पर्याप्त जीव लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं।
पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगियों में मोहनीय विभक्तिवाले और मोहनीय अविभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं। इसीप्रकार मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, चक्षुदर्शनी, अबधिदर्शनी और संज्ञीजीवोंके कहना चाहिये। औदारिककाययोगियोंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सर्वलोकमें रहते हैं । अविभक्तिवालोंमें मनोयोगियोंके समान भंग है। इसीप्रकार औदारिक मिश्रकाययोगी, अचक्षुदर्शनी और आहारक जीवोंके कहना चाहिये । कार्मणकाययोगियों में मोहनीय विभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सर्वलोकमें रहते हैं । मोहनीय अविभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यात बहुभाग और सर्वलोक क्षेत्रमें रहते हैं ।
विशेषार्थ-पहले ऊपर कहे गये मार्गणास्थानों में संभव पदोंके दिखलानेके लिये कोष्टक दिया जाता है
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बचनयोगी और
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ ६८१. फोसणाणुगमेण दुविहो णिदेसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओषेण मोह. विहत्तिएहि केव० खेत्तं फोसिदं ? सव्वलोगो। अविहत्तिएहि केव० खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असं० भागो, असंखेज्जा भागा सव्वलोगो वा। एवं कायजोगि-भवसिद्धियअणाहारि त्ति वत्तव्वं ।
मार्गणा स्व. वि. वे. | क. वै. | तै. | आ. मा. के. उप. | पांचों मनोयोगी पांचों । __ बचनयोगी और
मनःपर्ययज्ञानी मति श्रुत, अवधिज्ञानी, अवधिदर्शनी, चक्षुद०, अचक्षुद० संज्ञी औदारिक काययोगी, औदारिकमिश्रका० आहारकका० कार्मणकाययोगी , ४ " | " x x x x | " "
इन मनोयोगी आदि मार्गणाओं में क्षेत्रका कथन ऊपर किया ही है अतः जहां स्वस्थान आदि जिस पदकी अपेक्षा विभक्तिवाले या संभव अविभक्तिवाले जीवोंके जितना क्षेत्र संभव हो उसे घटित कर लेना चाहिये । कथनमें और कोई विशेषता न होनेसे यहां नहीं लिखा है। यहां कार्मणकाययोगमें पांच पद बतलाये हैं। पर तत्त्वतः यहां केवल समुद्धात और उपपाद ये दो पद ही संभव हैं। शेष तीन पद अपेक्षा विशेषसे कहे गये हैं। इस प्रकार क्षेत्रप्ररूपणा समाप्त हुई।
८१. स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओघनिर्देशकी अपेक्षा मोहनीय विभक्तिवाले जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? सर्वलोक स्पर्श किया है। मोहनीय अविभक्तिवाले जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग, असंख्यात बहुभाग और सर्वलोक स्पर्श किया है। इसीप्रकार काययोगी, भव्य और अनाहारकोंके स्पर्शनका कथन करना चाहिये।
विशेषार्थ-स्पर्शनमें त्रिकालविषयक क्षेत्रका ग्रहण किया है। पर भविष्यकालीन क्षेत्र और अतीतकालीन क्षेत्रमें कोई अन्तर नहीं है दोनों समान हैं, अतएव इन दोनोंमेंसे एक अतीतकालीन क्षेत्रके कह देनेसे दूसरेका ग्रहण अपने आप हो जाता है, अतः उसे
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गा० २२]
मूलपयडिविहत्तीए फोसणाणुगमो
६८२. आदेसेण णिरयगईए णेरइयेसु विहत्ति० केव० खेत्तं फोसिदं ? लोग० असं० भागो, छ चोद्दस भागा वा देसूणा। पढमाए पुढवीए खेत्तभंगो। बिदियादि जाव सत्तमित्ति विहत्ति० केव० खत्तं फोसिदं ? लोग० असं० भागो एक बे तिण्णि चत्तारि पंच प्रायः पृथक् नहीं कहा है। किन्तु अतीतमें ही गर्भित कर लिया है। इसीप्रकार जहां एक ही स्थानमें दो स्पर्शन क्षेत्र कहे गये हैं उनमेंसे पहला प्रायः वर्तमानकालकी अपेक्षा और दूसरा अतीतकालकी अपेक्षा कहा गया है । यद्यपि ओघकी अपेक्षा मोहनीय कर्मोंसे युक्त जीवोंके केवलिसमुद्धातको छोड़कर शेष सभी पद पाये जाते हैं, पर यहां मिथ्यात्व गुणस्थानकी प्रधानतासे स्पर्शन कहा गया है, क्योंकि, मोहनीय कर्मसे युक्त मिथ्यादृष्टि जीव सर्वलोकमें पाये जाते हैं, इसलिये इन जीवोंने अपनेमें संभव पदोंसे वर्तमान और अतीत दोनों कालोंकी अपेक्षा सर्वलोक स्पर्श किया है। मोहनीय कर्मसे रहित जीवोंके स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान और केवलि समुद्धात ये तीन पद पाये जाते हैं। इनमेंसे स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थानको प्राप्त हुए तथा दण्ड और कपाट समुद्धात गत मोहनीय कर्मसे रहित जीवोंने वर्तमान और अतीत दोनों कालोंकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। प्रतर समुद्धात गत उक्त जीवोंने दोनों कालोंकी अपेक्षा लोकके असंख्यात बहुभागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा लोकपूरण समुद्धातगत उक्त जीवोंने दोनों कालोंकी अपेक्षा सर्वलोकका स्पर्श किया है। सामान्य काययोगी और भव्य जीवोंके स्पर्शनके कथनमें उक्त कथनसे कोई विशेषता नहीं है। अनाहारकोंके कथनमें थोड़ी विशेषता है। जो इसप्रकार है-मोहनीय कर्मसे युक्त अनाहारक जीव विग्रहगतिमें ही पाये जाते हैं, अतएव इनके स्वस्थान, वेदना, कषाय और उपपाद ये चार पद होते हैं। इन चारों ही पदोंसे उक्त जीवोंने दोनों कालोंकी अपेक्षा सर्वलोक स्पर्श किया है। मोहनीय कर्मसे रहित अनाहारक जीव प्रतर और लोकपूरण समुद्धात गत सयोगी और अयोगी जिन होते हैं। इनमेंसे अयोगी जिन दोनों कालोंकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रको स्पर्श करते हैं। प्रतर और लोकपूरणकी अपेक्षा स्पर्शन ऊपर ही कहा जा चुका है।
८२.आदेशकी अपेक्षा नरकगतिमें नारकियोंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और देशोन छ वटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्र स्पर्श किया है। पहली पृथिवीमें स्पर्शन क्षेत्रके समान कहना चाहिये। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक मोहनीय कर्मसे युक्त जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र और दूसरी पृथिवीकी अपेक्षा देशोन एक बटे चौदह राजु, तीसरी पृथिवीकी अपेक्षा देशोन दो बटे चौदह राजु, चौथी पृथिवीकी अपेक्षा देशोन तीन वटे चौदह राजु, पांचवीं पृथिवीकी अपेक्षा देशोन चार वटे चौदह राजु, छठी पृथिवीकी अपेक्षा देशोन पंच वटे चौदह राजु और सातवीं पृथिवीकी अपेक्षा देशोन
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ छ चोद्दस भागा वा देसूणा । छह वटे चौदह राजु प्रमाण क्षेत्र स्पर्श किया है।
विशेषार्थ-सामान्य नारकियोंका वर्तमानकालीन स्पर्शन कहते समय पहले नरकके नारकियोंका प्रमाण प्रधान है, क्योंकि, यहां छह नरकोंके नारकियोंसे असंख्यातगुणे नारकी पाये जाते हैं। यद्यपि सातवें नरकके नारकियोंकी अवगाहना पहले नरकके नारकियोंकी अवगाहनासे बहुत बड़ी है फिर भी उसकी यहां विवक्षा नहीं की गई है, क्योंकि, क्षेत्र लाते समय सातवें नरकके नारकियोंकी संख्याको उनकी अवगाहनासे गुणित करने पर जो क्षेत्र उत्पन्न होता है उसकी अपेक्षा पहले नरकके नारकियोंकी संख्याको उनकी अवगाहनासे गुणित करने पर अधिक क्षेत्र होता है। नारकियोंके स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्भात और वैक्रियिकसमुद्धातकी अपेक्षा स्पर्शनका कथन करने पर इन स्थानोंको प्राप्त नारकियोंकी जितनी राशियां हों उन्हें प्रमाण घनांगुलके संख्यातवें भागमात्र अवगाहनासे गुणित कर देने पर विवक्षित पदकी अपेक्षा अपने अपने क्षेत्रका प्रमाण आ जाता है, जिसे लोकसे भाजित करने पर लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण स्पर्शन होता है। इतना विशेष हैं कि वेदना और कषायसमुद्धातकी अपेक्षा क्षेत्र लाते समय मूल अवगाहनाको नौगुणी और वैक्रियिकसमुद्घातकी अपेक्षा क्षेत्र लाते समय मूल अवगाहनाको संख्यातगुणी कर लेना चाहिये। तथा इन स्थानोको प्राप्त जीवोंकी संख्या भी मूल राशिके संख्यातवें भाग प्रमाण होती है। अर्थात् जहां जितनी राशि हो उसके संख्यातवें भाग प्रमाण जीव विहार, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात और वैक्रियिकसमुद्धात करते हैं अधिक नहीं। मारणान्तिक समुद्धातकी अपेक्षा क्षेत्र लाते समय भी पहले नरकके नारकियोंकी संख्याकी अपेक्षा ही उसे लाना चाहिये, क्योंकि, यहां मारणान्तिक समुद्धात करनेवाले जीव शेष छहों नरकोंमें मारणान्तिक समुद्धात करनेवाले जीवोंकी अपेक्षा अधिक हैं। पर उनके विग्रहकी अपेक्षा क्षेत्रकी लम्बाई राजुके असंख्यातवें भाग मात्र ही पाई जाती है। मारणान्तिक समुद्धात करनेवाले जीवोंकी राशि ऋजुगति और विग्रहगतिकी अपेक्षा दो प्रकारकी होती है। उनमेंसे यहां विग्रहकी अपेक्षा मारणान्तिक समुद्धात करनेवाली राशि ही विवक्षित है, क्योंकि, इसके क्षेत्रकी लम्बाई ऋजुगतिकी अपेक्षा मारणान्तिक समुद्धात करनेवाले जीवके क्षेत्रकी लम्बाईकी अपेक्षा बहुत अधिक पाई जाती है। एक समयमें जितने जीव विग्रहगतिसे अन्य पर्यायमें जाते हैं उनके असंख्यातवें बहुभागप्रमाण जीव मारणान्तिक समुद्धात करते हैं। इसलिये इस राशिको आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण उपक्रमणकालसे गुणित कर देने पर मारणान्तिक समुद्धात करने वाली जीवराशिका प्रमाण आ जाता है। पुनः इसे राजुके असंख्यातवें भागप्रमाण लम्बे और अपनी अवगाहनासे नौगुणे प्रतररूप क्षेत्रसे गुणित कर देने पर मारणान्तिक समुद्धातकी अपेक्षा स्पर्शनका प्रमाण आ
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मूलपयडिविहत्तीए फोसणाणुगमो ८३. तिरिक्खगईए तिरिक्खेसु खेत्तभंगो। एवं णवगेवेज्जादि जाव सव्व४०सव्व एइंदि०-पुढवि०- बादरपुढवि०-बादरपु०अप०-आउ०-बादरआउ०-बादरआउअपज्ज०-तेउ०-बाद०तेउ०-बादरतेउ०अप०-बाउ०-बादरवाउ०-बादरवाउ० अप०सुहुमपुढवि०-सुहु०पुढविपज्ज०-सु० पु०अपज्ज०-सुहुमाउ०-सुहुम आउपज्ज०-सु० आउ अपज्ज-सु० तेउ०-सु० तेउ० पज्ज०-सुहु० तेउ० अपज्ज-सुहुमवाउ०-सु० जाता है। जो लोकसे भाजित करने पर लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण होता है। उपपादकी अपेक्षा स्पर्शन लाते समय दूसरी पृथिवीकी अपेक्षासे लाना चाहिये । एक समयमें उपपादको प्राप्त होनेवाले जीवोंके प्रमाणको एक राजु लम्बे और तिर्यंचोंकी अवगाहनासे नौगुणे प्रतर रूप क्षेत्रसे गुणित कर देने पर उपपादकी अपेक्षा स्पर्शन आ जाता है, जो लोकसे भाजित करने पर उसके असंख्यातवें भाग प्रमाण होता है। यह जो ऊपर भिन्न-भिन्न नरकोंकी प्रधानतासे स्पर्शन कहा गया है इसमें शेष नारकियोंके स्पर्शनके मिला देने पर भी वह लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण ही होता है। इसी प्रकार अतीत कालकी अपेक्षा स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, और वैक्रियिक पदोंको प्राप्त सामान्य नारकियोंका स्पर्शन क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। पर मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादको प्राप्त हुए सामान्य नारकियोंका स्पर्शन देशोन छह वटे चौदह राजु प्रमाण है, क्योंकि, मारणान्तिक समुद्धात और उपपादकी अपेक्षा अतीतकालमें देशोन तीन हजार योजन कम आनुपूर्वीके योग्य मध्यलोकसे लेकर सातवें नरक तकके सभी क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विशेषरूपसे विचार करने पर पहले नरकके स्पर्शन और क्षेत्रमें कोई अन्तर नहीं है। अर्थात् पहले नरकका स्पर्शन क्षेत्रके समान लोकका असंख्यातवां भागप्रमाण जानना चाहिये । द्वितीयादि नरकोंमें मारणान्तिक समुद्धात और उपपादकी अपेक्षा अतीतकालीन स्पर्शनका कथन करते समय मध्यलोकसे उस उस नरक भूमि तक जितने राजु हों, देशोन उतना स्पर्शन कहना चाहिये। शेष पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन ओघके समान है।
६८३. तियंचगतिमें तिर्यंचोंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान जानना चाहिये। नौ प्रैवेयकसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंका स्पर्शन भी इसीप्रकार अर्थात् क्षेत्रके समान जानना चाहिये । तथा सर्व एकेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्तं, अप्कायिक, बादर अप्कायिक, बादर अप्कायिक अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अप्कायिक, सूक्ष्म अप्कायिक पर्याप्त, सूक्ष्म अप्कायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक अपर्याप्त,
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जयधवलासहिदे कसाय पाहुडे
[ पयडिविहत्ती २
वाउ०पज्ज०सु० वाउ० अपज्ज० वण० - बादरवण० - बाद० वणप्फदि पज्ज० - बाद० वण० अपज्ज० -सुहु० वण० - सुहु० वण० पज्जत्तापज्ज - णिगोद० - बादरणिगो०- बादरणिगोद पज्जत्तापज्जत्त - सुहुमणिगो०- सु० णि० पज्ज० अपज्ज०-३ - ओरालिय० - ओरालियमिस्स ० - वेउव्विय मिस्स ० - आहार० आहारमिस्स ० - कम्मइय० णवुंसय० - चत्तारि - कसाय-मदिअण्णाण सुदअण्णाण - मणपज्जव०-२ ० - सामाइय-छेदोवट्टावण - परिहारविसुद्धिसुहुमसां पराइय-असंजद० - अचक्खु ० - तिण्णिलेस्सा० - अभवसिद्धि०-मिच्छादिष्ट्टि असण्ण० आहारि ति वत्तव्वं ।
६४
सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त, वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, निगोद, बादर निगोद, बादर निगोद पर्याप्त, बादर निगोद अपर्याप्त, सूक्ष्म निगोद, सूक्ष्म निगोद पर्याप्त, सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैकियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारक मिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसक - वेदी, क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, मनः पर्ययज्ञानी, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्म सांपरायसंयत, असंयत, अचक्षुदर्शनी, कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले, अभव्य, मिध्यादृष्टि, असंज्ञी और आहारक जीवोंके स्पर्शनका कथन क्षेत्र के समान करना चाहिये ।
1
1
विशेषार्थ - इन उपर्युक्त मार्गणास्थानों में स्पर्शन सामान्यसे अपने अपने क्षेत्रके समान जानना चाहिये । तिर्यंचोंमें क्षेत्र सर्वलोक है स्पर्शन भी इतना ही है । नौ ग्रैवेयकों से लेकर सर्वार्थ सिद्धितकके देवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है स्पर्शन भी इतना ही है । सर्व एकेन्द्रियोंका क्षेत्र सर्वलोक है, स्पर्शन भी इतना ही है । ऊपर कहे गये पृथिवीकायिक जीवोंसे लेकर सूक्ष्म निगोद लब्धपर्याप्त जीवों तकका क्षेत्र सर्वलोक है, स्पर्शन भी इतना है । औदारिक काययोगी और औदारिक मिश्रकाययोगी जीवोंका क्षेत्र सर्वलोक है स्पर्शन भी इतना ही है । वैक्रियिक मिश्रकाययोगियोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, स्पर्शन भी इतना ही है । आहारककाययोगी और आहारक मिश्रकाययोगी जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, स्पर्शन भी इतना ही है । कार्मणकाययोगी, चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानियोंका क्षेत्र सर्वलोक है, स्पर्शन भी इतना ही है। मन:पर्ययज्ञानीसे लेकर सूक्ष्मसांपरायसंयत जीवों तकका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, स्पर्शन भी इतना ही है । असंयत, से लेकर आहारी पर्यन्त जीवोंका क्षेत्र सर्वलोक है स्पर्शन भी इतना ही है । इन उपर्युक्त सभी मार्गणास्थानों में विशेष पदोंकी अपेक्षा स्पर्शनमें क्षेत्र से जहां जो विशेषता हो वह स्पर्शन अनुयोगद्वारसे जान लेना चाहिये ।
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गा० २२ ]
मूलपयडिविहत्तीए फोसणाणुगमो
६८४. सव्वपंचिंदियतिरिक्ख० विहत्ति० केव० खेत्तं पोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो, सव्वलोगो वा । एवं मणुसअपज्जत्त-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज्जत्ततसअपज्जत्त-बादरपुढवि०पज्ज०-बादरआउ०पज्जत्त-बादरतेउ०पज्ज०-बादरवणप्फदि पत्तेय०पज्ज०-बादरणिगोदपडिहिदपज्जत्ताणं वत्तव्वं । बादरवाउ०पज्जत्त० विहत्ति० लोगस्स संखेज्जदि भागो, सव्व-लोगो वा। मणुस-मणुसपज्जत्त-मणुसिणीणं विहत्ति. पंचिंदियतिरिक्खभंगो । अविहत्ति० ओघभंगो। .
६ ८४. सर्व पंचेन्द्रिय तिथंचोंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भागप्रमाण क्षेत्र और सर्वलोक स्पर्श किया है। इसी प्रकार मनुष्य लब्ध्यपर्याप्त, सब विकलेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, त्रस लब्ध्यपर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर अप्कायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त और बादर निगोद प्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर पर्याप्त जीवोंके स्पर्शनका कथन करना चाहिये।
विशेषार्थ-पंचेन्द्रियतिर्यंच, पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंच, योनिमती पंचेन्द्रिय तियंच और लब्ध्यपर्याप्त पंचेन्द्रियतियचोंने वर्तमानमें अपने अपने संभव पदोंके द्वारा लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। इन्हीं चारों प्रकारके तिर्यंचोंने अतीत कालमें मारणांतिक समुद्धात और उपपाद पदकी अपेक्षा सर्वलोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है, क्योंकि, इन दोनों पदोंकी अपेक्षा इनका त्रसनालीके बाहर भी सर्वत्र सद्भाव देखा जाता है । तथा अतीत कालमें शेष पदोंके द्वारा उक्त चारों प्रकारके तिर्यंचोंने लोकका असंख्यातवां भागप्रमाण क्षेत्र स्पर्श किया है जिसका 'सव्वलोगो वा' में आये हुए 'वा' पदसे समुच्चय कर लेना चाहिये । लब्ध्यपर्याप्त मनुष्योंसे लेकर बादर निगोद प्रतिष्ठित प्रत्येकशरीर तकके जीवोंके स्पर्शनमें इन उपर्युक्त तिर्यंचोंके स्पर्शनसे कोई विशेषता नहीं है, इसलिये तिर्यचोंके स्पर्शनके समान ऊपर कहे गये शेष मार्गणास्थानोंमें भी स्पर्शन समझना चाहिये ।
बादर वायुकायिक पर्याप्तकोंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीवोंने वर्तमानमें लोकका संख्यातवां भाग प्रमाण क्षेत्र और सर्वलोक स्पर्श किया है।
विशेषार्थ-बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंका वर्तमान क्षेत्र का विचार क्षेत्रप्ररूपणामें किया है अतः वहांसे जानना। तथा अतीत कालमें उक्त जीवोंने मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद पदकी अपेक्षा सर्वलोक स्पर्श किया है, क्योंकि, अतीतकालकी अपेक्षा इनका सर्वलोकमें गमन और लोकके किसी भी भागसे आकर अन्य जीवोंका इनमें उत्पन्न होना संभव है। तथा अतीत कालमें शेष पदोंके द्वारा इन जीवोंने लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका ही स्पर्श किया है जिसका 'सव्वलोगो वा' में आये हुए 'वा' पदसे समुच्चय कर लेना चाहिये।
सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यिणियों में मोहनीय विभक्तिवाले जीवोंका स्पर्शन
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जाहिदे कसायपाहुडे
[ पयडिविहत्ती २
६ ८५. देवगई देवेसु विहात्ति० के० खेत्तं पोसिदं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो, अ णव चोहसभागा वा देसूणा । एवं सोहम्मीसाण देवाणं वत्तन्वं । भवणवासिय वाणवेंतर- जोइसियाणं केव० खेत्तं पोसिदं १ लोगस्स असंखेज्जदिभागो अह अड्ड पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके स्पर्शनके समान है । तथा मोहनीय अविभक्तिवाले उक्त तीनों प्रकार के मनुष्यों का स्पर्शन ओके समान है ।
विशेषार्थ-पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सर्वलोक कह आये हैं वही मोहनीय कर्मसे युक्त उक्त तीन प्रकारके मनुष्योंका समझना चाहिये । तथा मोहनीय कर्म से रहित उक्त तीनों प्रकारके मनुष्योंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण, लोकके असंख्यात बहुभाग प्रमाण और सर्वलोक जानना चाहिये ।
१८५. देवगति में देवों में मोहनीय विभक्तिवाले जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग, देशोन आठ बटे चौदह राजु और देशोन नौ बटे चौदह राजु क्षेत्र स्पर्श किया है । सौधर्म और ऐशान स्वर्गके देवोंका स्पर्शन इसी प्रकार कहना चाहिये ।
विशेषार्थ - देवोंने वर्तमान कालमें स्वस्थानस्वस्थान, विहारवःस्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक, मारणान्तिक और उपपाद पदकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । स्वस्थानस्वस्थानपदकी अपेक्षा अतीतकाल में भी लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । तथा अतीतकाल में विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिक पदोंकी अपेक्षा देशोन आठ वटे चौदह राजु प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है, क्योंकि, नीचे तीसरी पृथिवी तक और ऊपर अच्युत कल्प तक देवोंका विहार देखा जाता है । यहां देशोनसे तीसरी पृथिवीके अन्तिम एक हजार योजन मोटे क्षेत्रका और देवोंके द्वारा अगम्य प्रदेशका ग्रहण किया है। मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा देशोन नौ वटे चौदह राजु प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । क्योंकि, मारणान्तिक समुद्धातमें देवोंका मध्य लोकसे नीचे दो राजु और ऊपर सात राजु इस प्रकार नौ राजु प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श देखा जाता है । उपपाद पदकी अपेक्षा देशोन छह वटे चौदह राजु प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । यद्यपि मध्य लोकसे नीचे अव्वहुलभाग तक और ऊपर अच्युत कल्पसे आगे सातवीं राजुमें भी देवोंका उपपाद देखा जाता है, फिर भी वह सब मिलाकर देशोन छह वटे चौदह राजुसे अधिक क्षेत्र नहीं होता है, क्योंकि, सर्वत्र देवोंका उत्पाद आनुपूर्वीगत प्रदेशोंके अनुसार ही होता है। सौधर्म और ऐशान कल्पके देवोंका स्पर्शन उपपादको छोड़कर बाकी 'सब सामान्य देवोंके स्पर्शनके समान ही है ।
मोहनीय विभक्तिवाले भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिषी देवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग कुछ कम साढ़े तीन वटे चौदह राजु, कुछ कम 7 आठ व चौदह राजु और कुछ कम नौ वढ़ें चौदह राजु प्रमाण क्षेत्र स्पर्श किया है ।
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गा० २२ ] मूलपयडिविहत्तीए फोसणाणुगमो णव चोदसभागा वा देसूणा । सणक्कुमारादि जाव सहस्सारा त्ति विहत्ति केव० खेत्तं पोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो, अह चोदसभागा वा देसूणा । आणद-पाणदआरण-अच्चुद० विहत्ति० केव० खेत्तं पोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो, छ चोदस भागा वा देसूणा।
विशेषार्थ-उक्त तीनों प्रकारके देवोंने वर्तमान कालमें संभव सभी पदोंकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवां भाग प्रमाण क्षेत्र स्पर्श किया है। अतीत कालमें स्वस्थानस्वस्थान और उपपाद पदकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवां भाग प्रमाण क्षेत्र स्पर्श किया है। विहारवस्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिक पदोंकी अपेक्षा अपने आप देशोन साढ़े तीन वटे चौदह राजु और पर प्रयोगसे देशोन आठ वटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्र स्पर्श किया हैं। भवनत्रिक देव स्वयं विहार करते हुए ऊपर सौधर्म-ऐशानकल्प तक और नीचे तीसरे नरक तक जाते हैं। तथा यदि कोई ऊपरका देव लेजाये तो ऊपर अच्युत कल्पतक जासकते हैं। इसप्रकार स्वप्रयोगसे देशोन साढे तीन वटे चोदह राजु और परप्रयोगसे देशोन आठ वटे चौदह राजु क्षेत्र हो जाता है। समुद्धातकी अपेक्षा देशोन नौ वटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्र स्पर्श किया है। यहां नौ राजुसे ऊपर सात राजु और नीचे दो राजु क्षेत्र लेना चाहिये।
सानत्कुमार स्वर्गसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके मोहनीय विभक्तिवाले देवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग और देशोन आठ वटे चौदह राजु प्रमाण क्षेत्र स्पर्श किया है।
विशेषार्थ-सानत्कुमारसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंने वर्तमान कालमें लोकका असंख्यातवां भाग प्रमाण क्षेत्र स्पर्श किया है। अतीतकाल में स्वस्थानस्वस्थानकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवां भाग प्रमाण क्षेत्र स्पर्श किया है। विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक और मारणान्तिक पदोंकी अपेक्षा देशोन आठ वटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्र स्पर्श किया है, क्योंकि, इनका नीचे तीसरे नरक तक और ऊपर अच्युत कल्प तक आना जाना देखा जाता है। उपपाद पदकी अपेक्षा सानत्कुमार-माहेन्द्र कल्पवासी देवोंने देशोन तीन वटे चौदह राजु, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर कल्पवासी देवोंने देशोन साढ़े तीन वटे चौदह राजु, लान्तव कापिष्ठ-कल्पवासी देवोंने देशोन चार वटे चौदह राजु, शुक्र-महाशुक्र कल्पवासी देवोंने देशोन साढ़े चार वटे चौदह राजु और शतार-सहस्रार कल्पवासी देवोंने देशोन पांच बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्र स्पर्श किया है।
आनत-प्राणत और आरण-अच्युत कल्पवासी मोहनीय विभक्तिवाले देवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग और देशोन छ वटे चौदह राजु प्रमाण क्षेत्र स्पर्श किया है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पयडिविहत्ती २
८६. पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्त-तस-तसपज्जत्त-विहत्ति० केव० खेत्तं पोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो अट्ठ चोद्दस भागा वा देसूणा, सव्वलोगो वा । अविहत्ति ० ha ० १ ओघभंगो | एवं पंचमण० - पंचवचि० - चक्खुदंसण० सण्णित्ति वत्तव्वं । णवरि, अविहत्ति • खेत्तभंगो ।
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विशेषार्थ - - उक्त कल्पवासी देवोंने वर्तमान कालमें संभव सभी पदोंकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवां भाग प्रमाण क्षेत्र स्पर्श किया है। तथा अतीत कालमें स्वस्थानस्वस्थानकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवां भागप्रमाण क्षेत्र स्पर्श किया है । विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक और मारणान्तिक पदोंकी अपेक्षा देशोन छह वटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्र स्पर्श किया है, क्योंकि इन आनतादि देवोंका चित्रा पृथिवीके ऊपर के तलसे नीचे गमन नहीं पाया जाता है । उपपादकी अपेक्षा आनत-प्राणत कल्पवासी देवोंने कुछ कम साढ़े पांच वटे चौदह राजु और आरण-अच्युतकल्पवासी देवोंने कुछ कम छह वटे चौदह राजु प्रमाण क्षेत्र स्पर्श किया है, क्योंकि, मध्यलोकसे आनत-प्राणत कल्प साढ़े पांच राजु और आरण-अच्युत कल्प छह राजु है ।
९ ८६. पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस और त्रसपर्याप्त जीवोंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग, त्रस नालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग और सर्वलोक क्षेत्र स्पर्श किया है । तथा मोहनीय अविभक्तिवाले उक्त जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? ओघके समान स्पर्श है । इसी प्रकार पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, चक्षुदर्शनी और संज्ञी जीवोंके कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इन पांचों मनोयोगी आदि जीवोंके मोहनीय अविभक्तिकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्र के समान है।
विशेषार्थ-पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस और त्रस पर्याप्तकों में मोह विभक्तिवालेजीवने वर्तमान में संभव सभी पदोंकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है । तथा अतीत कालमें स्वस्थानस्वस्थान, तैजस समुद्धात और आहारकसमुद्घातकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है । विहारवत्स्वस्थान, वेदना समुद्धात, कषायसमुद्धात और वैक्रियिकसमुद्धातकी अपेक्षा त्रस नालीके चौदह भागों में से कुछकम आठ भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । तथा मारणान्तिक समुद्धात और उपपादकी अपेक्षा सर्वलोक क्षेत्रका स्पर्श किया है, क्योंकि, सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिकसमुद्धात करते हुए उक्त जीव सर्वलोकमें पाये जाते हैं । तथा सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमेंसे पंचेन्द्रियों में उत्पन्न होनेवाले जीव पहले समय में समस्त लोक में पाये जाते हैं । मोह अविभक्तिवाले उक्त जीवोंका वर्तमानकालीन और अतीतकालीन, स्पर्श ओघके समान है । अतः ओघप्ररूपणा में जो खुलासा किया है वह यहां समझ लेना चाहिये । विशेष बात यह है कि ओघप्ररूपणा में मोह अविभक्तिवाले जीवों में सिद्धों का
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गा० २२) मूलपयडिविहत्तीए फोसणाणुगमो
८७. इत्थि०-पुरिस-विहत्ति० केव० खेत्तं पोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो, अढ चोदसभागा वा देसूणा, सव्वलोगो वा । एवं विहंगणाणीणं वत्तव्वं । अवगद० विहत्ति० खेत्तभंगो। अविहत्ति० ओघभंगो। एवमकसाइ०-संजद०-जहाक्खाद० वत्तव्वं । भी ग्रहण किया है। पर यहां उनका ग्रहण नहीं करना चाहिये, क्योंकि, वे समस्त कर्मोंसे रहित होते हैं, अतः उनमें पंचेन्द्रिय आदि व्यवहार नहीं होता। मोहनीय विभक्तिवाले चक्षुदर्शनी और संज्ञी जीवोंका सभी पदोंकी अपेक्षा वर्तमानकालीन और अतीतकालीन स्पर्श पंचेन्द्रियादिके समान है। किन्तु पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी जीवोंके उपपाद पद नहीं होता, अतः इनका शेष पदोंकी अपेक्षा दोनों प्रकारका स्पर्श पंचेन्द्रियादिके समान ही है । पर पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, संज्ञी और चक्षुदर्शनी जीवोंमें मोहनीय अविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान लोकका असंख्यातवां भाग है, क्योंकि, केवलिसमुद्धातमें मनोयोग और वचनयोग नहीं होता। तथा केवली संज्ञी और असंज्ञी दोनों प्रकारके व्यपदेशसे रहित हैं। तथा चक्षुदर्शन बारहवें गुणस्थान तक ही होता है। अतः इनके लोकका असंख्यात बहुभाग और समस्त लोक स्पर्श नहीं बन सकता।
७. स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवोंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग, त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग
और सर्वलोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसी प्रकार विभंग ज्ञानियोंके जान लेना चाहिये। अपगतवेदियोंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है, तथा मोहनीय अविभक्तिवाले अपगतवेदी जीवोंका स्पर्श ओघके समान है। इसी प्रकार अकषायी, संयत
और यथाख्यात संयत जीवोंमें मोहनीयविभक्ति और मोहनीय अविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्शन कहना चाहिये।
विशेषार्थ-मोहनीय विभक्तिवाले स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवोंने वर्तमानकालमें संभव सभी पदोंकी अपेक्षा और अतीतकालमें स्वस्थानस्वस्थान, तैजससमुद्धात और आहारकसमुद्धातकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेदी जीवोंके तैजस और आहारकसमुद्धात नहीं होता है । तथा विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और वैक्रियिकसमुद्घातकी अपेक्षा त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है और मारणान्तिक समुद्घात तथा उपपादकी अपेक्षा सर्वलोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। विभंग ज्ञानियोंके स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक और मारणान्तिक समुद्घात ये छह पद होते हैं। स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवोंके इन छह पदोंकी अपेक्षा जिस प्रकार वर्तमान और अतीत कालीन स्पर्श कहा है उसी प्रकार विभंग ज्ञानियोंके जानना चाहिये ।
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traवलासहिदे कसा पाहुडे
[ पयडिविहत्ती २
८८. आभिणिबोहिय० - सुद० - ओहि० विहत्ति ० केव० खेत्तं० पोसिदं १ लोगस्स असंखेज्जदिभागो अट्ठ चोद्दस भागा वा देसूणा । अविहत्ति • खेत्तभंगो। एवमोहिदंसणीणं वत्तव्यं । संजदासंजद० विहत्ति० केव० खेत्तं पोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो, छ चोइस भागा वा देखणा । तेउलेस्सा० सोहम्मभंगो । पम्मलेस्सा० सहस्सारभंगो । अपगतवेदियों में मोहनीय विभक्तिवाले जीव ग्यारहवें गुणस्थान तक होते हैं जिनका वर्तमान और अतीतकालीन स्पर्श संभव पदकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण ही है। तथा मोहनीय अविभक्तिवाले जीवोंका दोनों प्रकारका स्पर्श ओघके समान है, अतः ओघप्ररूपणा के समय जो खुलासा कर आये हैं उसी प्रकार यहां भी कर लेना चाहिये । उससे इसमें कोई विशेषता नही । अकषायी आदि जीवोंका मोहनीयविभक्ति और मोहate अविभक्तिकी अपेक्षा वर्तमान और अतीतकालीन स्पर्श अपगतवेदियों के समान है । पदोंकी अपेक्षा जो विशेषता हो उसे यथायोग्य जान लेना चाहिये ।
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८८. मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानियों में मोहनीय विभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ मार्गे प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । तथा मोहनीय अविभक्तिवाले उक्त का स्पर्शन क्षेत्रके समान है । इसी प्रकार अवधिदर्शनी जीवोंके स्पर्शन कहना चाहिये । विशेषार्थ - इनके केवलि समुद्घातको छोड़कर शेष नौ पद होते हैं । उनमें से मोहनीय विभक्तिवाले जीवोंके मारणान्तिक और उपपाद पदकी अपेक्षा अतीतकालीन स्पर्श
नालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग प्रमाण है । शेष सभी पदोंकी अपेक्षा वर्तमान और अतीतकालीन स्पर्शन तथा मारणान्तिक और उपपाद पदकी अपेक्षा वर्तमान कालीन स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण ही है । मोहनीय विभक्ति और मोहनीय अविभक्तिकी अपेक्षा इसमें कोई विशेषता नहीं है । पर मोहनीय अविभक्तिवाले उक्त जीवोंके एक स्वस्थानस्वस्थान पद ही होता है, शेष नहीं ।
संयतासंयत में मोहनीय विभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम छह भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है ।
विशेषार्थ - अतीतकाल में मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा संयतासंयतोंने त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम छह भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। क्योंकि, संयतासंयत तिर्यंच और मनुष्य जीव अच्युत कल्प तक मारणान्तिक समुद्घात करते हुए पाये जाते हैं । शेष सभी प्रकारका स्पर्श लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है ।
पीतलेश्या में सौधर्म के समान पद्मलेश्यामें सहस्रारके समान और शुकुलेश्या में संयतासंतोंके समान स्पर्शन है । तथा मोहनीय अविभक्तिवाले जीवोंके शुकुलेश्या में ओघके
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गा० २२ ]
मूलप डिविहती कालानुगमो
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सुक्कलेस्सा० विहति० संजदासंजदभंगो । अविहत्ति० ओघभंगो । सम्मादिडि - खइय० विहत्ति आमिणिबोहियभंगो । अविहत्ति० ओघभंगो । वेदय० विहत्ति० आभिणिबोहियभंगो । एवमुवसम० सम्मामि० वत्तव्यं । सासण० विहत्ति० केव० खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेजदिभागो, अट्ठ बारह चोहसभागा वा देखणा ।
एवं पोसणं समत्तं
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६ ८६. कालानुगमेण दुविहो णिद्देसो, ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोहविहत्तिया अविहत्तिया च केवचिरं कालादो होंति ? सव्वद्धा । एवं मणुस्स - मणुस - पज्जत्त - मणुसिणी- पंचिंदिय-पंचि ० पज्जत्त-तस-तसपज्ज० - तिणि मण० - तिष्णि वचि० कायजोगि० - ओरालिय० - संजद - सुक्कले ० - भवसिद्धि ० - सम्मादिट्ठि - खइय ० - आहारि अणाहारए त्ति वत्तव्वं । मणुस्सअपज्ज० विहत्ति केव० कालादो होंति ? जह० खुद्दाभवग्गहणं । उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदि भागो । दोमण० - दोवचि०समान स्पर्शन है। मोहनीय विभक्तिवाले सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके मतिज्ञानियोंके समान स्पर्शन है । तथा मोहनीय अविभक्तिवाले सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके ओघके समान स्पर्शन है । मोहनीय विभक्तिवाले वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके मतिज्ञानियोंके समान स्पर्शन है । तथा इसी प्रकार उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यमिध्यादृष्टि जीवोंके स्पर्शन जानना चाहिये । मोहनीय विभक्तिवाले सासादन सम्यग्दृष्टियोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग और कुछ कम बारह भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है ।
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इस प्रकार स्पर्शनानुयोगद्वार समाप्त हुआ ।
८६. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से ओघकी अपेक्षा मोहनीय विभक्तिवाले और मोहनीय अविभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? सर्वकाल है । इसीप्रकार सामान्य मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त, मनुष्यणी, पंचेन्दिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, सामान्य, सत्य और अनुभय ये तीन मनोयोगी और ये ही तीन वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, संयत, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, आहारक और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिये ।
विशेषार्थ - यहां मोहनीयविभक्तिवाले और मोहनीय अविभक्तिवाले जीवोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा काल बतलाया है। सामान्यसे तो उक्त दोनों प्रकार के जीव सर्वदा हैं ही । पर ऊपर जितनी मार्गणाएं बतलाई हैं उनमें भी दोनों प्रकारके नाना जीव सर्वदा पाये जाते हैं, इसीलिये इनकी प्ररूपणाको ओघके समान कहा है ।
लब्धपर्याप्तक मनुष्यों में मोहनीय विभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? जघन्यकाल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्टकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसका यह
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ विहत्ति० सम्वद्धा । अविहत्ति० जहण्णेण एगसमओ, उकस्सेण अंतोमुहुत्तं । ओरालिय-मिस्स० विहत्ति० सव्वद्धा । अविहत्ति० जहण्णेण एगसमओ, उक्क० संखेज्जा समया । एवं कम्मइय० । णवरि, अविहत्ति० जह• तिण्णि समया । वेउब्वियमि० विहशि० केव० ? जह० अंतोमुहुतं, उक्क० पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । आहार० विहत्ति० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । एवं सुहुमसांपराइय० । आहारमि० जहण्णुक्क० अंतोमु० । तात्पर्य है कि लब्धपर्याप्तकमनुष्य कमसे कम खुद्दाभवग्रहण प्रमाण कालतक और अधिकसे अधिक पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक निरन्तर अवश्य पाये जाते हैं इसके बाद उनका अन्तर हो जाता है। अतः इसी अपेक्षासे लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीवोंका उक्त काल कहा है।
असत्य और उभय मनोयोगी तथा असत्य और उभय बचनयोगी जीवोंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीव सर्वदा होते हैं। तथा मोहनीय अविभक्तिवाले जीवोंका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीव सर्वदा होते हैं। तथा मोहनीय अविभक्तिवाले जीवोंका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। इसी प्रकार कार्मणकाययोगी जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि कार्मणकाययोगियों में मोहनीय अविभक्तिवाले जीवोंका जघन्यकाल तीन समय है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें मोहनीयविभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । आहारक काययोगी जीवों में मोहनीय विभक्तिवाले जीवोंका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। इसीप्रकार सूक्ष्मसांपरायिक संयत जीवोंके जानना चाहिये । आहारकमिश्रकाययोगियों में मोहनीयविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है।
विशेषार्थ-नाना जीवोंकी अपेक्षा असत्य और उभय ये दोनों मनोयोग और ये ही दोनों वचनयोग सर्वदा पाये जाते हैं। अतः इनकी अपेक्षा मोहनीय विभक्तिवाले जीव सर्वदा होते हैं यह कहा है। तथा बारहवें गुणस्थानकी अपेक्षा उक्त योगोंमें मोहनीय अविभक्तिवाले भी जीव पाये जाते हैं । अतः जिन जीवोंके उक्त दोनों मनोयोगों और वचनयोगोंके कालमें एक समय शेष रहने पर बारहवां गुणस्थान प्राप्त हुआ है उनके उक्त योगोंकी अपेक्षा जघन्यकाल एक समय बन जाता है। तथा उक्त योगोंका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त होनेसे उसकी अपेक्षा मोहनीय अविभक्तिवाले जीवोंका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है। यहां यह शंका होती है कि बारहवें गुणस्थानमें योगपरावर्तन नहीं होता, अतः यहां उक्त दोनों मनोयोग और वचन योगोंका जघन्यकाल एक समय नहीं कहना चाहिये । उसका यह समाधान है कि यहां एक योगसे योगान्तर नहीं होता, यह ठीक है
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गा० २२]
मूलपयडिविहत्तीए कालाणुगमो
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६६०. अवगद विहशि० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । अविहत्ति० सव्वद्धा । एवमकसाय०-जहाक्खाद० वत्तव्वं । आभिणि-सुद०-ओहि०-मणपज्जव०-चक्खु०अचक्खु०-ओहिदसण-सणि विहत्ति० सव्वद्धा । अविहत्ति० जहण्णुक्क० अंतोमु० । उवसम-सम्मामि० वेउब्वियमिस्सभंगो । सासण. विहत्ति० जह० एगसमओ फिर भी मनोयोग और वचनयोगकी अपेक्षा अपने अवान्तर भेदोंमें परावर्तन होनेमें कोई बाधा नहीं है। इसका यह तात्पर्य है कि मनोयोगसे वचनयोग या काययोग नहीं होता। इसी प्रकार अन्य योगोंकी अपेक्षा भी जान लेना चाहिये । पर मनोयोग या वचनयोगका एक अवान्तर भेद होकर उसके स्थानमें दूसरा अवान्तर भेद आ सकता है। नाना जीवोंकी अपेक्षा औदारिकमिश्र काययोग और कार्मणकाययोग सर्वदा पाये जाते हैं तथा इनमें मोह नीय विभक्तिवाले जीव भी सर्वदा पाये जाते हैं, इसलिये इनकी अपेक्षा मोहनीय विभक्ति वाले जीवोंका काल सर्वदा कहा है। पर मोहनीय अविभक्तिवाले जीवोंके औदारिकमिश्र काययोग और कार्मणकाययोग सर्वदा नहीं होते । जब केवली केवलिसमुद्घात करते हैं तब उनके कपाट समुद्घातके समय औदारिकमिश्रकाययोग और लोकपूरणसमुद्घातके समय कार्मणकाययोग होता है। अब यदि नाना जीव एक साथ केवलिसमुद्घात करते हैं तो इन दोनों योगोंकी अपेक्षा मोहनीय अविभक्तिवाले जीवोंका जघन्यकाल क्रमसे एक समय और तीन समय पाया जाता है और यदि लगातार नाना जीव केवलिसमुद्घात करते हैं तो इन दोनों योगोंकी अपेक्षा मोहनीय अविभक्तिवाले जीवोंका उत्कृष्टकाल संख्यात समय पाया जाता है, क्योंकि अधिकसे अधिक संख्यात समय तक ही नाना जीव लगातार केवलिसमुद्घात करते हैं। वैक्रियिक मिश्रकाययोगी आदिका काल भी इसी प्रकार समझ लेना चाहिये।
१०. अपगतवेदियोंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीवोंका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । तथा मोहनीय अविभक्तिवाले अपगतवेदी जीव सर्वदा होते हैं। इसी प्रकार अकषायी और यथाख्यातसंयत जीवोंके कहना चाहिये ।
विशेषार्थ-उपशमश्रेणिकी अपेक्षा अपगतवेदियोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। तथा बारहवें गुणस्थानसे लेकर आगेके सभी मोहनीय अविभक्तिवाले जीव अपगतवेदी होते हैं, इस अपेक्षासे इनका सर्वकाल कहा है।
मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी और संज्ञी जीवोंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीव सर्वदा होते हैं। तथा उक्त मार्गणा
ओंमें मोहनीय अविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि मोहनीय विभक्तिवालोंका काल वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंके समान है । सासादनसम्यग्दृष्टि मोहनीय विभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [पयडिविहत्ती २ उक्क० पलिदो० असंखे० भागो। णिरय० तिरिक्खगइ-आदिसेसाणं मग्गणाणं मोहविहत्तियाणं कालो सव्वद्धा ।।
एवं कालो समत्तो। ६६१. अंतराणुगमेण दुविहो णिद्देसो, ओघेण आदेसेण य। तत्थ ओघेण विहत्ति० अविहत्ति० णत्थि अंतरं, णिरंतरं । एव मणुसतिय-पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्त-तसतसपज्ज०-तिण्णिमण-तिण्णिवचि०-कायजोगि०-ओरालिय०-संजद-सुक्क०-भवसिद्धिय-सम्मादि०-खइय०-आहारि-अणाहारए त्ति वत्तव्वं ।।
६६२. आदेसेण णिरयगदीए णेरइएसु विहत्ति० णत्थि अंतरं । एवं सव्वणेरइय० उत्कृष्टकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा नरकगति और तिर्यंचगति आदि शेष मार्गणाओंकी अपेक्षा मोहनीय विभक्तिवाले जीव सर्वदा होते हैं।
विशेषार्थ-मतिज्ञान आदि मार्गणाओंमें मोहनीय विभक्तिवाले और मोहनीय अविभक्तिवाले दोनों प्रकारके जीव होते हैं। उनमेंसे मोहनीय विभक्तिवाले जीव तो सर्वदा पाये जाते हैं पर मोहनीय अविभक्तिवाले जीव अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक पाये जाते हैं, क्योंकि नाना जीवोंकी अपेक्षा भी बारहवें गुणस्थानका जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तमुंहूर्त ही है। उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका नानाजीवोंकी अपेक्षा जघन्य
और उत्कृष्टकाल वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंके कालके समान है। नानाजीवोंकी अपेक्षा सासादन सम्यग्दृष्टियोंका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। अतः सासादनकी अपेक्षा मोहनीय विभक्तिवाले जीवोंका उक्त काल कहा है। ऊपर जिन मार्गणाओंका कथन कर आये उनसे अतिरिक्त नरकगति आदि प्रायः सभी मार्गणाओंमें मोहनीय विभक्तिवाले ही जीव होते हैं। तथा वे मार्गणाएं सर्वदा होती हैं अतः उनमें रहनेवाले मोहनीयविभक्तिवाले जीवका काल भी सर्वदा कहा है।
इस प्रकार कालानुयोगद्वार समाप्त हुआ ।
११.अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मोहनीय विभक्तिवाले और मोहनीय अविभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं है, क्योंकि वे सर्वदा पाये जाते हैं । इसीप्रकार सामान्य, पर्याप्त और मनुष्यणी ये तीन प्रकारके मनुष्य, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिपर्याप्त, त्रस, सपर्याप्त, सामान्य, सत्य और अनुभय ये तीन मनोयोगी और ये ही तीन वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, संयत, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, आहारक और अनाहारक जीवोंके कथन करना चाहिये । अर्थात् इन मार्गणाओंमें मोहनीय विभक्तिवाले और मोहनीय अविभक्तिवाले जीव सर्वदा पाये जाते हैं इसलिये अन्तरकाल नहीं है।
६६२.आदेशकी अपेक्षा नरकगतिमें नारकियोंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीवोंका अन्तर
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गा० २२ ] मुलपयडिविहत्तीए अंतराणुगमो सव्वतिरि०-सव्वदेव०- सव्व-एइंदिय०- सव्वविगलिंदिय - पंचिंदियअपज्जत्त-उसअपज्ज०-पंचकाय०-वेउव्विय-तिष्णिवेद०-चत्तारिकसाय-तिण्णि अण्णाणि-सामाइय० छेदोव०-परिहार०-संजदासंजद-असंजद-पंचलेस्सा०-अभवसिद्धि०-वेदगसम्माइष्टि मिच्छाइहि असण्णित्ति वत्तव्वं । मणुसअपज्ज० अंतरं जह० एगसमओ, उक्क० पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। एवं सासण-सम्मामिच्छाइट्ठीणं वचव्वं । दोमणदोवचि० विहत्ति० णत्थि अंतरं, णिरंतरं । अविहत्ति० जह० एगसमओ, उक्क० छम्मासा । एवमाभिणि-सुद०-चक्खुदं०-अचखुदं०-सण्णीणं वचव्वं ।
६३. ओरालियमिस्स० विहशि० णत्थि अंतरं, णिरंतरं । अविहचि० जह० काल नहीं है। इसी प्रकार सभी नारकी, सभी तियच, सभी देव, सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, त्रस लब्ध्यपर्याप्त, पांचों स्थावरकाय, वैक्रियिककाययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, तीन अज्ञानी, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, असंयत, कृष्णादि पांच लेश्यावाले, अभव्य, वेदकसम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके कहना चाहिये । तात्पर्य यह है कि इन मार्गणाओंमें जीव निरन्तर पाये जाते हैं और वे मोहयुक्त ही हैं, अतः इनमें मोहनीयविभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं है। ___लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंमें मोहनीयविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भाग है। इसी प्रकार सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवोंका कहना चाहिये । अर्थात् इन तीनों मार्गणाओंका नानाजीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है, अतः इन मार्गणाओंकी अपेक्षा मोहनीयविभक्तिवाले जीवोंका भी उक्त अन्तरकाल कहा है। ___ असत्य और उभय इन दो मनोयोगी और इन्हीं दो वचनयोगियोंमें मोहनीयविभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं है, क्योंकि वे निरन्तर पाये जाते हैं। तथा मोहनीय अविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तरफाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है। इसी प्रकार मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी और संज्ञी जीवोंके कहना चाहिये।
विशेषार्थ-ऊपर जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं वे बारहवें गुणस्थान तक पाई जाती हैं। और बारहवां गुणस्थान सान्तर है। उसका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है. अतः इन मार्गणाओंमें भी मोहनीय अविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना कहा है। तथा इन मार्गणाओंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं है यह स्पष्ट है।
१३. औदारिकमिश्रकाययोगी जीवों में मोहनीय विभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं
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जयधवलासेहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ एगसमओ, उक्क वासपुधत्तं । एवं कम्मइय० ओहिणाण-मणपज्जव०-ओहिदसण. वत्तव्वं । वेउव्वियमिस्स० विहत्ति० जह० एगसमओ उक्क० बारस मुहुत्ताणि । आहार-आहारमिस्स० विहत्ति० जह० एगसमओ उक्क० पासपुधत्तं । अवगद० विहत्ति० जह० एगसमओ उक्क० छम्मासा । अविहत्ति० पत्थि अंतरं । है, वे निरन्तर पाये जाते हैं। तथा मोहनीय अविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय
और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। इसी प्रकार कार्मणकाययोगी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी और अवधिदर्शनी जीवोंके कहना चाहिये ।
विशेषार्थ-उपर्युक्तमार्गणाओंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीव सर्वदा पाये जाते हैं, क्योंकि औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोगका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानकी अपेक्षा, अवधिज्ञान और अवधिदर्शनका असंयतादि चार गुणस्थानोंकी अपेक्षा तथा मनःपर्ययज्ञानका प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। अतः उक्त मार्गणाओंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीव सर्वदा हैं। बथा औदारिकमिश्न और कार्मणकाययोगमें मोहनीय अविभक्तिवाले जीवोंका जो जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व बतलाया है उसका कारण यह है कि मोहनीय विभक्तिसे रहित तेरहवें गुणस्थानवाले जीवोंके कपाटसमुद्धातके समय औदारिकमिश्रकाययोग और प्रतर तथा लोकपूरण समुद्धातके समय कार्मणकाययोग होता है। और इनका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व कहा है, अतः इन दोनों योगोंकी अपेक्षा मोहनीय अविभक्तिवाले जीवोंका भी उक्त अन्तर प्राप्त होता है। तथा अवधिज्ञान, अवधिदर्शन और मनःपर्ययज्ञानके साथ चारों क्षपकोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। इन चारों क्षपकोंमें क्षीणकषाय गुणस्थान भी सम्मिलित है, अतः अवधिज्ञान आदि उक्त तीन मार्गणाओंकी अपेक्षा मोहनीय अविभक्तिवाले जीवोंका भी उक्त अन्तर प्राप्त होता है।
वैक्रियिकमिअंकाययोगी मोहनीय विभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर बारह मुहूर्त है। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी मोहनीयविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। इसका यह तात्पर्य है कि इन मार्गणाओंका जो जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल है वही यहां इन इन मार्गणाओंकी अपेक्षा मोहनीय विभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल होता है।
अपगतवेदियोंमें मोहनीयविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। तथा मोहनीय अविभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं है।
विशेषार्थ-चार क्षपक गुणस्थानोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना बताया है, अतः इस अपेक्षासे अपगतवेदियोंमें मोहनीयविभक्तिवाले जीवोंका उक्त अन्तरकाल प्राप्त हो जाता है। अपगतवेदियोंमें मोहनीय अविभक्तिवाले जीवोंका अन्तर
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गा० २२]
मूलपयडिविहत्तीए भावाणुगमो
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६४. अकसाय० विहत्ति० जह० एगसमओ, उक्क० वासपुध । अविहत्ति० णत्थि अंतरं । एवं जहाक्खाद० वत्तव्यं । सुहुमसांप० विहत्ति० जह० एगसमओ, उक्क० छम्मासा। उवसम० विह० जह० एगसमओ, उक्कस्सेण चउवीस अहोरचाणि ।
एवमंतरं समत्तं ६६५. भावाणुगमेण दुविहो णिदेसो, ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण विहत्ति० काल नहीं कहनेका कारण यह है कि सयोगकेवली और सिद्ध जीव सर्वदा पाये जाते हैं जो कि अपगतवेदी होते हुए मोहनीयविभक्तिसे रहित हैं।
६१४.अकषायियोंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। तथा मोहनीय अविभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार यथाख्यातसंयतोंके जानना चाहिये। सूक्ष्मसांपरायिकसंयतोंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है । उपशमसम्यग्दृष्टि मोहनीयविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर चौबीस दिन रात है।
विशेषार्थ-अकषायीजीवोंके ग्यारहवें गुणस्थानमें ही मोहनीयकी सत्ता पाई जाती है और उसका जघन्य अन्तर एक समय तथा उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है अतः अकषायी जीवोंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व कहा है। तथा अकषायियोंमें मोहनीय अविभक्तिवाले जीवोंके अन्तरकालके नहीं कहनेका कारण यह है कि सयोगकेवली और सिद्ध जीव सर्वदा पाये जाते हैं। मोहनीय विभक्तिवाले और मोहनीय अविभक्तिवाले यथाख्यातसंयतोंका अन्तर काल भी इसी प्रकार कहना चाहिये । विशेष बात यह है कि मोहनीय अविभक्तिवाले यथाख्यातसंयतोंके अन्तर कालका अभाव सयोग केवलियोंकी अपेक्षासे कहना चाहिये। सूक्ष्म सांपरायिक संयतोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना स्पष्ट ही है। उपशमसम्यग्दृष्टियोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल चौबीस दिन रात है। अतः मोहनीय विभक्तिकी अपेक्षा उपशम सम्यग्हष्टियोंका अन्तरकाल भी इतना ही कहा है। यद्यपि जीवट्ठाणके अन्तरानुयोगद्वारमें असंयत उपशमसम्यग्दृष्टियोंका और खुद्दाबंधमें सामान्य उपशम सम्यग्दृष्टियोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल सात दिन रात बताया है और यहां उपशम सम्यग्दृष्टियोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल चौबीस दिनरात है, इसलिये जीवठ्ठाण और खुद्दाबन्धके उक्त कथनसे इस कथनमें विरोध आता हुआ प्रतीत होता है पर इसे विरोध न मानकर मान्यताभेद मानना चाहिये, इसलिये कोई दोष नहीं है। __ इसप्रकार अन्तरानुयोगद्वार समाप्त हुआ। ६५. भावानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश ।
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जयघवलासहिदे कसायपाहुई [पयडिविहत्ती २ को भावो ? ओदइओ उवसामओ खइओ खओवसमिओ वा। अविहत्ति० को भावो ? खइओ भावो । एवं जाव अणाहारए ति ।।
६६६. अप्पाबहुगाणुगमेण दुविहो णिहेसो, ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सव्वत्थोवा अविहत्तिया, विहत्तिया अणंतगुणा । एवं कायजोगि-ओरालिय०-ओरालियमिस्स-कम्मइय०-अचक्खु०-भवसि०-आहारि०-अणाहारए त्ति वत्तव्वं । मणुसगईए मणुस्सेसु सव्वत्थोवा अविह० विहत्ति० असंखेज्जगुणा। एवं पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्त तस-तसपज्जत्त-पंचमण-पंचवचि० आभिणि-सुद०-ओहिणाण-चक्खुदंसण-ओहिदं० उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मोहनीयविभक्तिवाले जीवोंके कौनसा भाव है ? औदायिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव है। मोहनीय अविभक्तिवाले जीवोंके कौनसा भाव है ? क्षायिक भाव है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक कथन करना चाहिये।
विशेषार्थ-सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्रके तीन तीन भेद हैं-औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक । तथा मिथ्यात्व मिथ्यात्व कर्मके उदयसे होता है । अतः इनमेंसे जहां जो भेद संभव हो उसकी अपेक्षा वहां वह भाव समझ लेना चाहिये । अन्यत्र सासादनसम्यग्दृष्टिके पारिणामिक और सम्यग्मिध्यादृष्टिके क्षायोपशमिक भाव बताया है पर यहां उस विवक्षाभेदकी अपेक्षा नहीं की है ऐसा प्रतीत होता है। अतः सासादनमें अनन्तानुबन्धी आदिके उदयकी अपेक्षा और सम्यग्मिथ्यादृष्टिमें मिश्र आदि प्रकृतिके उदयकी अपेक्षा औदयिक भाव जानना चाहिये । इसी प्रकार जिस मार्गणास्थानमें उपयुक्त भावोंमेंसे जो भाव संभव हो उसका कथन कर लेना चाहिये।
इसप्रकार भावानुगम समाप्त हुआ।
६६६.अल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मोहनीय अविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। मोहनीय विभक्तिवाले जीव इनसे अनन्तगुणे हैं। इसी प्रकार काययोगी, औदारिक काययोगी,
औदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, अचक्षुदर्शनी, भव्य, आहारक और अनाहारक जीवोंके कथन करना चाहिये।
विशेषार्थ-यद्यपि मोहनीयकी अविभक्तिवाले अनाहारक जीवोंमें अयोगकेवली और सिद्धोंका भी ग्रहण हो जाता है तो भी मोहनीय विभक्तिवाले अनाहारक जीव इनसे अनन्तगुणे हैं। शेष कथन सुगम है।
मनुष्यगतिमें मनुष्योंमें मोहनीय अविभक्तिवाले जीव सवसे थोड़े हैं। मोहनीय विभक्तिवाले जीव इनसे असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रस पर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले और संज्ञी जीवोंके कथन करना चाहिये ।
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मा० २२ ]
मूलप डिविहत्तीए अप्पा बहुगागमो
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सुक्कले० सर्ष्णि त्ति वतव्वं । मणुसपज्जत - मणुसिणीसु सव्वत्थोवा अविहति० विहत्ति ० संखेज्जगुणा । एवं मणपज्जव ० संजदाणं वत्तव्वं । अवगदवे० सव्वत्थोवा विहारी० अविहत्ति अनंतगुणा । एवमकसाय सम्मादिट्ठिी - खइयसम्मादिट्टीणं णेदव्वं । जहाक्खाद० सव्वत्थोवा विहत्ति, अविहत्ति ० संखेज्जगुणा । सेसासु मग्गणासु णत्थि अप्पा बहुगं एगपदत्तादो ।
एवं मूलपयडिविहत्ती समत्ता ।
विशेषार्थ - ये जितनी मार्गणायें ऊपर कही है उनमें प्रत्येकका प्रमाण असंख्यात है पर इनमें मोहनीय अविभक्तिवाले जीव संख्यात ही होते हैं अतः इन मार्गणाओंमें मोहनीय अविभक्तिवालोंसे मोहनीय विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे कहे हैं ।
मनुष्य पर्याप्त और योनिमती मनुष्यों में मोहनीय अविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । मोहनीय विभक्तिवाले जीव इनसे संख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार मन:पर्ययज्ञानी और संयत जीवोंके कहना चाहिये । अपगतवेदी जीवोंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । मोहनीय अविभक्तिवाले जीव इनसे अनन्तगुणे हैं । इसी प्रकार अकषायी, सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये ।
विशेषार्थ - अपगतवेदी आदि जीवोंमें मोहनीय अविभक्तिवाले जीवोंसे बारहवें गुणस्थान से लेकर सिद्धों तक सबका ग्रहण किया है। इसलिए उक्त मार्गणाओंमें मोहनीयविभक्तिवाले जीवोंसे मोहनीय अविभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे प्राप्त होते हैं ।
यथाख्यातसंयतों में मोहनीयविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। मोहनीय अविभक्तिवाले जीव इनसे संख्यातगुणे हैं । इन उपर्युक्त मार्गणाओंको छोड़कर शेष मार्गणाओं में अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि वहां पर दोनोंमेंसे एक पद ही पाया जाता है । इस प्रकार मूलप्रकृतिविभक्ति समाप्त हुई ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे. [पयडिविहत्ती २ * तदो उत्तरपयडिविहत्ती दुविहा, एगेगउत्तरपयडिविहत्ती चेव पयडिट्ठाण उत्तरपयडिविहत्ती चेव ।
६६७. अठ्ठावीस मोहपयडीणं जत्थ पुध पुध परूवणा कीरदि सा एगेगउत्तरपयडिविहत्ती णाम । जत्थ अट्ठावीस-सत्तावीस-छन्वीसादिपयडिसंतहाणाणं परूवणा कीरदि सा पयडिहाण-उत्तरपयडिविहत्ती णाम । एवमुत्तरपयडिविहत्ती दुविहा चेव होदि अण्णिस्से असंभवादो।। ___ * तत्थ एगेग-उत्तरपयडिविहत्तीए इमाणि अणियोगद्दाराणि । तं जहा एगजीवेण सामित्तं कालो अंतरं, णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमो परिमाणाणुगमो खेत्ताणुगमो पोसणाणुगमो कालाणुगमो अंतराणुगमो सणियासो, अप्पाबहुए त्ति । ___६६८. एवमेत्थ एक्कारस अणियोगद्दाराणि भवंति। संपहि समुक्त्तिणा सव्वविहत्ती णोसव्वविहत्ती उक्कस्सविहत्ती अणुक्कस्सविहत्ती जहण्णविहत्ती अजहण्णविहत्ती सादियविहत्ती अणादियविहत्ती धुवविहत्ती अद्धवविहत्ती, एगजीवेण सामित्तं कालो अंतर सण्णियासो, णाणाजीवेहि भंगविचओ भागाभागाणुगमो परिमाणं खेचं फोसणं कालो अंतरं भावो अप्पाबहुगं चेदि एवं चउवीस अणिओगद्दाराणि एगेगउचरपयडिविहत्तीए
* उत्तरप्रकृतिविभक्ति दो प्रकारकी है, एकैक उत्तरप्रकृतिविभक्ति और प्रकृतिस्थान उत्तरप्रकृतिविभक्ति ।
६१७. जिसमें मोहनीय कर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंका अलग अलग कथन किया जाता है उसे एकैक उत्तरप्रकृतिविभक्ति कहते हैं। तथा जिसमें मोहनीय कर्मके अट्ठाईसप्रकृतिक, सत्ताईस प्रकृतिक और छव्वीस प्रकृतिक आदि सत्त्वस्थानोंका कथन किया जाता है उसे प्रकृतिस्थान उत्तरप्रकृतिविभक्ति कहते हैं। इसप्रकार उत्तरप्रकृतिविभक्ति दो प्रकारकी ही होती है, क्योंकि इनके अतिरिक्त और किसी तीसरी विभक्तिका पाया जाना संभव नहीं है। ___ * उन दोनों भेदोंमेंसे एकैक उत्तरप्रकृतिविभक्तिके ये ग्यारह अनुयोगद्वार हैं । वे इसप्रकार हैं-एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल, और अन्तर, तथा नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयानुगम, परिमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम, सन्निकर्ष और अल्पबहुत्व ।
६१८. इसप्रकार एकैकप्रकृतिविभक्तिके ये ग्यारह अनुयोगद्वार होते हैं।
शंका-उच्चारणाचार्य ने एकैकप्रकृतिविभक्तिके समुत्कीर्तना, सर्व विभक्ति, नोसर्व विभक्ति उत्कृष्टविभक्ति, अनुत्कृष्टविभक्ति, जघन्यविभक्ति, अजघन्यविभक्ति, सादिविभक्ति, अनादिविभक्ति, ध्रुवविभक्ति, अध्रुवविभक्ति तथा एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल, अन्तर, और सन्निकर्ष तथा नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभागानुगम, परिमाण, क्षेत्र,
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गा० २२ ] उत्तरपयडिविहत्तीए प्रणियोगद्दाराणि उच्चारणाइरिएहि परूविदाणि । जइवसहाइरिएण पुण एक्कारस चेव परूविदाणि, दोण्हं वक्खाणाणमेदेसि कथं ण विरोहो ? णस्थि विरोहो, दव्वष्टिय-पञ्जवट्ठियणए अवलंबिय पयट्टाणं विरोहाभावादो । जइवसहाइरियो जेण संगहणओ तेण तस्स अहिप्पारण एकारस अणिओगद्दाराणि होति ।
FEE. कमणियोगदारं कम्मि संगहियं? बुच्चदे, समुक्त्तिणा ताव पुध ण वत्तव्वा सामित्तादिअणियोगद्दारेहि चेव एगेगपयडीणमत्थित्तसिद्धीदो अवगयत्थपरूवणाए फलाभावादो। सव्वविहत्ती णोसव्वविहत्ती उकस्सविहत्ती अणुक्कस्सविहत्ती जहण्णविहत्ती अजहण्णविहत्तीओ च ण वत्तव्वाओ, सामित्त-सण्णियासादिअणिओगद्दारेसु भण्णमाणेसु अवगयपयडिसंखस्स सिस्सस्स उक्कस्साणुक्कस्स-जहण्णाजहण्णपयडिसंखाविसयपडिबोहुप्पत्तीदो। सादि-अणादि-धुव-अद्भुवअहियारा वि ण वत्तव्वा कालंतरेसु परूविज्ज
स्पर्शन, काल, अन्तर, भावानुगम और अल्पबहुत्व इसप्रकार ये चौवीस अनुयोगद्वार कहे हैं, पर यतिवृषभ आचार्यने ग्यारह ही अनुयोगद्वार कहे हैं, अतः इन दोनों व्याख्यानोंका परस्परमें विरोध क्यों नहीं है ?
समाधान-यद्यपि यतिवृषभ आचार्यने ग्यारह और उच्चारणाचार्यने चौबीस अनुयोगद्वार कहे हैं तो भी इनमें परस्परमें विरोध नहीं है, क्योंकि, यतिवृषभ आचार्यका कथन द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा प्रवृत्त हुआ है और उच्चारणाचार्यका कथन पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षा प्रवृत्त हुआ है, अतः उक्त दोनों कथनांमें कोई विरोध नहीं है । चूँकि यतिवृषभ आचार्यने संग्रहनयका आश्रय लिया है इसलिये उनके अभिप्रायानुसार ग्यारह अनुयोगद्वार होते हैं ।
९. अब किस अनुयोगद्वारका किस अनुयोगद्वारमें संग्रह किया है इसका कथन करते है-यद्यपि समुत्कीर्तना अनुयोगद्वारमें प्रकृतियोंका अस्तित्व बतलाया जाता है तो भी उसे अलग नहीं कहना चाहिये, क्योंकि स्वामित्व आदि अनुयोगोंके कथनके द्वारा ही प्रत्येक प्रकृतिका अस्तित्व सिद्ध हो जाता है। अतः जाने हुए अर्थका कथन करनेमें कोई फल नहीं है। तथा सर्वविभक्ति, नोसर्व विभक्ति, उत्कृष्टविभक्ति, अनुत्कृष्टविभक्ति, जघन्यविभक्ति, और अजघन्यविभक्तिका भी अलगसे कथन नहीं करना चाहिये, क्योंकि, स्वामित्व, सन्निकर्ष आदि अनुयोगद्वारोंके कथनसे जिस शिष्यने प्रकृतियोंकी संख्याका ज्ञान कर लिया है उसे उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, तथा जघन्य और अजघन्य प्रकृतियोंकी संख्याका ज्ञान हो ही जाता है। तथा सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव अधिकारोंका भी पृथक् कथन नहीं करना चाहिये, क्योंकि काल अनुयोगद्वार और अन्तर अनुयोगद्वारके कथन करने पर उनका ज्ञान हो जाता
(१) संखवि-स०, प्र०, मा० ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे. [पयडिविहत्ती २ माणेसु तदवगमुप्पत्तीदो। भागाभागो ण वत्तव्यो; अवगयअप्पाबहुग [स्स] संखविसयपडिबोहुप्पत्तीदो। भावो वि ण वत्तव्वो; उवदेसेण विणा वि मोहोदएण मोहपयडिविहत्तीए संभवो होदि ति अवगमुप्पत्तीदो । एवं संगहियसेसतेरसअत्याहियारत्तादो एक्कारसअणिओगद्दारपरूवणा चउवीसअणियोगद्दारपरूवणाए सह ण विरुज्झदे ।
* एदेसु अणियोगहारेसु परूविदेसु तदो एगेग-उत्तरपयडिविहत्ती समत्ता।
६ १००. संपहि एत्थ उँ[चारणाइरियवक्खा] णं जडजणाणुग्गह परूविदमिह वण्णइस्सामो; संपहि मेहाविजणाभावादो। तं जहा, तत्थ इमाणि चउवीस अणुओगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति-समुक्त्तिणा सव्वविहत्ती णोसव्वविहत्ती उक्कस्सविहत्ती अणुक्कस्सविहत्ती जहण्णविहत्ती अजहण्णविहत्ती सादियविहत्ती अणादियविहत्ती धुवविहत्ती अद्भुवविहत्ती एगजीवेण [सामित्तं कालो अंतरं सण्णियासो] णाणाजीवेहि भंगविचओ भागाभागाणुगमो परिमाणं खेत्तं फोसणं कालो अंतरं भावो अप्पाबहुगं चेदि। है। तथा भागाभाग अनुयोगद्वारका भी पृथक् कथन नहीं करना चाहिये, क्योंकि जिसे अल्पबहुत्वका ज्ञान हो गया है उसे भागाभागका ज्ञान हो ही जाता है। उसी प्रकार भाव अनुयोगद्वारका भी पृथक् कथन नहीं करना चाहिये, क्योंकि, मोहके उदयसे मोहप्रकृतिविभक्ति होती है यह बात उपदेशके बिना भी जानी जाती है । इस प्रकार शेष तेरह अनुयोगद्वार ग्यारह अनुयोगद्वारों में ही संग्रहीत हो जाते हैं, अत: ग्यारह अनुयोगद्वारोंका कथन चौबीस अनुयोगद्वारोंके कथनके साथ विरोधको नहीं प्राप्त होता। __* इन ग्यारह अनुयोगद्वारोंके कथन करने पर एकैक उत्तरप्रकृतिविभक्ति नामक अनुयोगद्वार समाप्त हो जाता है।
६१००. अब मन्दबुद्धिजनों पर अनुग्रह करनेके लिये उच्चारणाचार्यके द्वारा किये गये व्याख्यानको यहां कहते हैं, क्योंकि, इस कालमें बुद्धिमान मनुष्य नहीं पाये जाते हैं। वह इस प्रकार है-उस एकैक उत्तरप्रकृतिविभक्तिके कथनमें ये चौबीस अनुयोगद्वार जानने चाहिये। समुत्कीर्तना, सर्वविभक्ति, नोसर्वविभक्ति, उत्कृष्टविभक्ति, अनुत्कृष्टविभक्ति, जघन्यविभक्ति, अजघन्यविभक्ति, सादिविभक्ति, अनादिविभक्ति, ध्रुवविभक्ति, अध्रुवविभक्ति तथा एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल, अन्तर, सन्निकर्ष, और नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभागानुगम, परिमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम, भावा
(१) ग..... (त्रु० ७) हुप्प-स० ।-गसंखविसयपडिबोहुप्प-अ०, आ० । (२) उ. (त्रु० ११) ण-स० । उत्तरपयडिविहत्तीणं-५०, प्रा०। (३)-ण . . . . (त्रु० १४) णाणाजी-स० ।-णसमुक्कित्तणा सव्वविहत्ती णाणाजी-प्र०, प्रा०,।
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गी० २३]
उत्तरपयडिविहत्तीए समुक्त्तिणाणुगमो ६ १०१. समुकित्तणा दुविहा ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सम्मत्त-मिच्छत्तसम्मामिच्छत्त-अणंताणुबंधिकोहमाणमायालोह-अपञ्चवखाणावरणकोहमाणमायालोहपञ्चक्खाणावरणकोहमाणमायालोह-संजलणकोहमाणमायालोह-इस्थि-पुरिस-णqसयवेदहस्स-रह-अरइ-सोग-भय-दुगुंछा चेदि एदासिमहावीसण्हं मोहपयडीणमत्थि विहत्तिया च अविहत्तिया च । एवं मणुसतिय-पंचिंदिय-पंचिंदियपजत्त-तस-तसपज्जत -पंचमणपंचवचि०-कायजोगि-ओरालिय०-ओरालियमिस्स-कम्मइय-आभिणिवोहिय०-सुद०
ओहिल-मणपजव०-संजद०-चक्खु०-अचक्खु०-ओहिदसण-सुक्कलेस्सिय-भवसिद्धियसम्मादिहि-सण्णि]-आहारि०-अणाहारि त्ति वत्तव्वं ।
६१०२. आदेसेण णिरयगदीए णेरइएसु मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-अणंताणुबंधिचउक्क० अस्थि विहत्ति० अविहत्ति०, सेसाणं पयडीणं अस्थि विहत्तिः । एवं नुगम और अल्पबहुत्वानुगम ।
$१०१.ओघसमुत्कीर्तना और आदेशसमुत्कीर्तना इस प्रकार समुत्कीर्तना अनुयोगद्वार दो प्रकारका है। इनमेंसे ओघकी अपेक्षा सम्यक्त्व, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानाघरण क्रोध, मान, माया, लोभ, संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ; स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा मोहकी इन अट्ठाईस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले जीव हैं। इसी प्रकार मनुष्यत्रिक अर्थात् सामान्य पर्याप्त और मनुष्यिणी ये तीन प्रकारके मनुष्य तथा पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रसकायिक, त्रसकायिक पर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, सामान्य काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, चक्षुदर्शनी, अंचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, संज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिये।
विशेषार्थ-मार्गणास्थानोंकी विवक्षा न करके सामान्यसे जीवोंके मोहनीयकी सभी प्रकृतियोंका पाया जाना और नहीं पाया जाना संभव है अतः इस प्ररूपणाको ओघप्ररूपणा कहा है । तथा ओघप्ररूपणाके अनन्तर मनुष्यत्रिकसे लेकर अनाहारक जीवों तक जो मार्गणास्थान बतलाये हैं उनके भी मोहकी समस्त प्रकृतियोंका सद्भाव और अभाव संभव है। अतः उनकी प्ररूपणाको ओघके समान कहा है।
६१०२. आदेशकी अपेक्षा नरकगतिमें नारकियोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिध्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले जीव हैं। तथा इन सात प्रकृतियोंके अतिरिक्त शेष इक्कीस प्रकृतियोंके विभक्तिवाले ही जीव हैं। इसी प्रकार
(१) ण. . . . . (७०) आहा-स० । ण आहा-प्र०, मा० ।
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६४
____ जयधवालासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ पढमपुढवि०-तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंतिरि०पज०-देव-सोहम्मीसाणप्पहडि जाव सव्वदेव०-वेउव्विय०-वेउव्वियमिस्स-परिहार०-संजदासंजद-[असंजद-पंचलेस्सिया]त्ति। विदियप्पहुडि जाव सत्तमेत्ति एवं चेव । णवरि मिच्छत्तस्स अविहत्तिया णत्थि । एवं पंचिंदियतिरिक्खजोणिणि-भवण-वाणवेंतर-जोदिसिया ति वत्तव्वं । पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज० सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं अस्थि विहत्ति० अविहत्ति०, सेसाणं अत्थि विहत्तिः । एवं मणुसअपज०-सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पञ्जत्त-अपज. पहली पृथिवीके नारकी, सामान्य तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तियंच, पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्त, सामान्य देव, सौधर्म और ऐशान स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देव, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, असंयत और कृष्णादि पांच लेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-ऊपर सामान्य नारकी आदि जितने मार्गणास्थान गिनाये हैं उनमें कमसे कम इक्कीस और अधिकसे अधिक अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीव होते हैं।
दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवीतक छह पृथिवियोंके नारकियोंके इसी प्रकार कथन करना चाहिये । पर इतनी विशेषता है कि इनमें मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले जीव नहीं होते हैं। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिमती, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-इन उपर्युक्त मार्गणाओंमें सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्क इन छह प्रकृतियोंका अभाव हो सकता है पर एक जीवके छह प्रकृतियोंका अभाव नहीं होता । जिसने सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना कर दी है उसके उक्त दो प्रकृतियोंका अभाव होता है। तथा जिसने अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना कर दी है उसके अनन्तानुबन्धी चतुष्कका अभाव होता है। क्षायिकसम्यक्त्वकी प्राप्तिकालमें ही उक्त छह प्रकृतियोंका एकसाथ अभाव पाया जाता है। पर इन मार्गणाओंमें क्षायिकसम्यक्त्वकी प्राप्ति नहीं, और न क्षायिकसम्यग्दृष्टि ही इनमें उत्पन्न होता है अतः इनमें उक्त छह प्रकृतियोंका अभाव नाना जीवोंकी अपेक्षा जानना चाहिये । तात्पर्य यह है कि इन मार्गणाओंमें अधिकसे अधिक अट्ठाईस और कमसे कम चौबीस प्रकृतियोंकी सत्ता पाई जाती है। __ पंचेन्द्रिय तिथंच लब्धपर्याप्तकोंमें सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले
और अविभक्तिवाले जीव हैं । तथा इन दो प्रकृतियोंको छोड़कर शेष छब्बीस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले ही जीव हैं। इसी प्रकार लब्धपर्याप्तक मनुष्य, सभी एकेन्द्रिय और उनके पर्याप्त, अपर्याप्त, सभी विकलेन्द्रिय और उनके पर्याप्त, अपर्याप्त, पंचेन्द्रियलब्ध्यपर्याप्तक पांचों
(१) असंजदप्पहुडि . . . . (त्रु० १६) त्ति एवं ।-स० ।
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गा० २२
उत्तरपयडिविहत्तीए समुक्तित्तणाणुगमो पंचिंदियअपज०-पंचकाय०-बादर-सुहुम-पज०-अपज-तंस०- [अपजत्त-मदि-सुदअण्णाणि-विभंग-मिच्छाइष्ठि-असण्णि] त्ति वत्तव्वं । आहार-आहारमिस्स० पढमपुढविभंगो। इत्थिवेदएसु मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-बारसकसाय-णqसयवेद० अस्थि विहत्ति० अविहत्ति । चत्तारिसंजलण-छण्णोकसाय-पुरिसित्थिवेदाणं अस्थि विहत्ति । पुरिसवेदएसु मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-बारसकसाय-अहणोकसाय० अत्थि विहात्ति
अविहत्ति०, पुरिस० चदुसंजलण० अस्थि विहत्ति० । णसं० [मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-वारसकसाय]-इस्थि० अस्थि विहत्ति० अविहत्ति०, चत्तारिसंजलण-दोवेद-छण्णोकसाय० अस्थि विहत्ति०।अवगदवेद०चदुवीसणं अत्थि विहत्ति० अविहत्ति०। अणंतास्थावरकाय और उनके बादर और सूक्ष्म तथा पर्याप्त और अपर्याप्त, स लब्धपर्याप्तक, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके कहना चाहिये।।
विशेषार्थ-उपर्युक्त मार्गणास्थानों में सादि मिथ्यादृष्टि होते हुए जिन जीवोंने सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना कर दी है उनके इन दो प्रकृतियोंका अभाव होता है तथा जिन जीवोंने इन दो प्रकृतियोंकी उद्वेलना नहीं की है उनके इनका सत्त्व होता है। इस प्रकार उपर्युक्त मार्गणाओंमें छब्बीस और अट्ठाईस प्रकृतियोंका सत्त्व पाया जाता है।
आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंके प्रकृतियोंका सत्त्व पहली पृथिवीके समान कहना चाहिये । अर्थात् जिस प्रकार पहले नरकमें दर्शनमोहनीयकी तीन और अनन्तानुबन्धीकी चार इन सात प्रकृतियोंका सत्त्व है और नहीं भी है, तथा शेष इक्कीस प्रकृतियोंका सत्त्व ही है उसी प्रकार उक्त दोनों काययोगी जीवोंके जानना चाहिये।
स्त्रीवेदी जीवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति, सन्यग्मिथ्यात्व, संज्वलन चारके बिना शेष बारह कषाय और नपुंसक वेद इन सोलह प्रकृतियोंके विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले जीव हैं। तथा चार संज्वलन, छह नोकषाय, पुरुषवेद और स्त्रीवेद इन बारह प्रकृतियोंके विभक्तिवाले ही हैं। पुरुषवेदियोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व, संज्वलन चारके बिना शेष बारह कषाय और पुरुषवेदके बिना आठ नो कषाय इन तेईस प्रकृतियोंके विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले जीव हैं। तथा पुरुषवेद और चार संज्वलन इन पांच प्रकृतियोंके विभक्तिवाले ही जीव हैं। नपुंसकवेदियोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति सम्यग्मिथ्यात्व, चार संज्वलनके बिना बारह कषाय और स्त्रीवेद इन सोलह प्रकृतियोंके विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले जीव हैं। तथा चार संज्वलन, पुरुष और नपुंसक ये दो वेद और हास्यादि छह नो कषाय इन बारह प्रकृतियोंके नियमसे विभक्तिवाले जीव हैं। अपगतवेदियोंमें चौबीस प्रकृतियोंके विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले जीव हैं। पर
(१) तस०... (त्रु० १९) त्ति-स०। (२) णवूस. . . . . (त्रु० १४) इत्मि-स।
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जयघवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पयडिविहत्ती २
विहत्ति ० अविहत्ति० ।
णुबंधिचउकस्स विहत्तिया णियमा अत्थि [ णत्थि ]। एवमकसायि० जहाक्खाद० । ९ १०३. कसायाणुवादेण कोधकसाईणं पुरिसभंगो । वरि पुरिस० अत्थि विहति० अविहत्ति ० । एवं माणकसाईणं । णवरि कोह० अस्थि एवं मायाकीणं [वरि माण०] अत्थि विहत्ति ० अविहत्ति ० वरि माय० अस्थि विहत्ति० अविहत्ति० । एवं सामाइय छेदो० वत्तव्वं । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले जीव नियमसे नहीं हैं । अपगतवेदियोंके समान अकषायी और यथाख्यातसंयत जीवोंके कहना चाहिये ।
।
एवं लोभकसायी० ।
विशेषार्थ - क्षपकश्रेणी पर चढ़े हुए जीवके स्त्रीवेदकी उदयव्युच्छित्तिके पहले चार संज्वलन, हास्यादि छह नोकषाय, पुरुषवेद और स्त्रीवेद इन बारह प्रकृतियोंको छोड़कर शेष सोलह प्रकृतियोंका क्षय हो जाता है, अतः स्त्रीवेदीके उक्त बारह प्रकृतियोंका सत्त्व नियमसे है तथा शेषका सत्त्व है और नहीं है । इसी प्रकार नपुंसकवेदीके जानना चाहिये । पर इतनी विशेषता है कि नपुंसक वेदीके स्त्रीवेद के स्थान में नपुंसकवेदका सत्त्व कहना चाहिये । पुरुषवेदीके पुरुषवेदका उदय रहते हुए चार संज्वलन और पुरुषवेदका क्षय नहीं होता । शेषका हो जाता है । अतः पुरुष वेदीके उक्त पांच प्रकृतियोंको छोड़कर शेष तेईस प्रकृतियों का सत्त्व है भी और नहीं भी है पर उक्त पांच प्रकृतियोंका सत्त्व नियमसे है । द्वितीयोपशम सम्यक्त्वके साथ उपशम श्रेणी पर आरूढ़ होकर जो जीव अपगतवेदी हो जाता है उसके चार अनन्तानुबन्धीको छोड़ कर शेष चौबीस प्रकृतियोंका सत्त्व पाया जाता है, अतः अपगतवेदी जीवके अनन्तानुबन्धी चारको छोड़कर शेष चौबीस प्रकृतियोंका सत्त्व है भी और नहीं भी है । पर चार अनन्तानुबन्धीका सत्त्व नियमसे नहीं है । अकषायी और यथाख्यातसंयतोंके अपगतवेदियोंके समान जानना चाहिये ।
दर्द
९१०३. कषायानुवादकी अपेक्षा क्रोध कषायवाले जीवोंके पुरुषवेदियोंके समान कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि ये पुरुषवेदकी विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले हैं। इसी प्रकार मानकषायवाले जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि मानकषायवाले जीव क्रोध कषायकी विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले हैं । इसी प्रकार मायाकषायवाले जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि माया कषायवाले जीव मानकषायकी विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले हैं । इसी प्रकार लोभकषायवाले जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि लोभकषायवाले जीव मायाकषायकी विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले हैं । इसी प्रकार सामायिक और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंके कहना चाहिये ।
विशेषार्थ - क्षपक श्रेणी पर चढ़े हुए जीवके अवेदभाग में क्रमसे क्रोध, मान और मायाका और सूक्ष्म सांपराय गुणस्थान में लोभका क्षय होता है अतः क्रोधवेदक के पुरुषवेदका, मानवेदकके (१) - ईणं (त्रु० ५) अस्थि- स० ।
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गा० २२]
उत्तरपयडिविहत्तीए समुक्कित्तणाणुगमो
८७
६१०४. सुहुम मिच्छत्त०-सम्मत्त०-सम्मामि०-एक्कारसकसाय०-णवणोकसाय० अस्थि विहत्ति० अविहत्ति० । लोभ० अस्थि विहत्ति०, अणंताणुबंधिचउक्कविहत्तिया णियमा णत्थि । अभवसिद्धि० छव्वीसपयडीणं अस्थि विहत्ति० । खइय० एक्कवीस० अस्थि विहत्ति० अविहत्तिक । वेदगं० [मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्त-] अणंताणुवंधिचउक्क० अस्थि विहत्ति० अविहत्ति०, सम्मत्त०-बारसकसाय-णवणोकसाय० अस्थि विहत्ति० । उवसमसम्माइट्ठीसु अणंताणुबंधिचउक्कस्स अस्थि विहत्ति० अविहत्ति०, सेसचउवीसहं पयडीणं अस्थि विहत्ति । एवं सम्मामि० । सासण. सव्वासिं पयडीणं विहत्ती णियमा अस्थि ।
एवं समुकित्तणा समत्ता। क्रोधका, मायावेदकके मानका और लोभवेदकके मायाका सत्त्व है भी नहीं भी है । शेष कथन पुरुषवेदीके समान जानना चाहिये । सामायिक और छेदोपस्थापना संयम नौवें गुणस्थान तक होते हैं, अतः इनके लोभकषायवाले जीवोंके समान लोभकषायको छोड़कर शेष प्रकृतियोंका सत्त्व है भी और नहीं भी है, पर लोभकषायका सत्त्व नियमसे है।
६१०४. सूक्ष्म सांपरायिक संयतोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति, सम्यमिथ्यात्व, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध आदि ग्यारह कषाय और नौ नोकषाय इन तेईस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले
और अविभक्तिवाले हैं। लोभकी नियमसे विभक्तिवाले हैं और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी नियमसे अविभक्ति वाले हैं।
विशेषार्थ-सूक्ष्मसांपराय संयम दसवें गुणस्थानमें होता है। इसलिये यहां अनन्तानुबन्धी चारका सत्त्व तो है ही नहीं। शेष चौबीस प्रकृतियोंमेंसे तेईस प्रकृतियोंका क्षपक श्रेणीवालेके अभाव होता है और उपशमश्रेणीवालेके उनका सत्त्व पाया जाता है। पर इसके सूक्ष्म लोभका सत्त्व नियमसे है। ___ अभव्य जीवों में सभी जीव मोहनीयकी छब्बीस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले हैं । क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें इक्कीस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले हैं। वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्क इन छह प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले
और अविभक्तिवाले हैं। तथा सम्यक्प्रकृति, बारह कषाय और नौ नोकषाय इन बाईस प्रकृतियोंकी नियमसे विभक्तिवाले हैं । उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें अनन्तानुबन्धी चारकी विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले हैं। तथा शेष चौबीस प्रकृतियोंकी नियमसे विभक्तिवाले हैं। इसी प्रकार सम्यमिथ्यादृष्टि जीवोंके कथन करना चाहिये। सासादनसम्यग्दृष्टियों में नियमसे सभी प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीव हैं।
(१)-मा अत्थि-स०, मा०। (२) वेदग० . . . . (त्रु० ११) अणं-स० ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[पयडिविहत्ती २ ६१०५. सव्वविहत्ति-णोसव्वविहत्तियाणुगमेण दुविहो णिदेसो ओषेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सव्वाओ पयडीओ सव्वविहत्ती। तदणं णोसव्वविहत्ती। एवं णेदव्वं जाव अणाहारएत्ति ।
६१०६. उक्कस्सविहत्ति-अणुक्कस्सविहत्तियाणुगमेण दुविहो णिदेसो ओषेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सव्वुक्कस्साओ पयडीओ उकस्सविहत्ती। तदणमणुकस्सविहत्ती । उक्कस्सविहत्तीण वत्तव्वा, सव्वविहत्तीए विसेसाभावादो। अस्थि विसेसो
विशेषार्थ-अभव्य जीवोंके सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यगमिथ्यात्वको छोड़कर शेष छब्बीस प्रकृतियोंका सत्त्व है। क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंके तीन दर्शनमोहनीय और चार अनन्तानुबन्धी इन सात प्रकृतियोंको छोड़कर शेष इक्कीस प्रकृतियोंका सत्त्व है और नहीं भी है। पर उक्त सात प्रकृतियोंका सत्त्व नियमसे नहीं है। वेदकसम्यग्दृष्टियों में जिसने चार अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना कर दी है तथा जिसने क्षायिकसम्यक्त्वको प्राप्त करते समय मिथ्यात्व और सम्यगमिथ्यात्वका क्षय कर दिया है, उसके उक्त छह प्रकृतियोंको छोड़कर शेष बाईस प्रकृतियोंका सत्त्व होता है । पर जिसने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना न करके वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त किया है उसके सभी प्रकृतियोंका सत्त्व होता है। द्वितीयोपशम सम्यक्त्व चार अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनासे प्राप्त होता है और प्रथमोपशमसम्यक्त्व दर्शनमोहनीयके उपशमसे प्राप्त होता है। अतः उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके अनन्तानुबन्धी चारका सत्त्व है भी और नहीं भी है। पर शेष चौवीस प्रकृतियोंका सत्त्व नियमसे है। जिसने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना की है ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव मिश्रगुणस्थानमें भी जाता है, अतः इसके भी चार अनन्तानुबन्धीका सत्त्व है भी और नहीं भी है। पर शेष चौबीस प्रकृतियोंका सत्त्व नियमसे है। सासादनगुणस्थान अनन्तानुबन्धी चारमेंसे किसी एकके उदयसे होता है, अतः यहां सभी प्रकृतियोंका सत्त्व है।
इस प्रकार समुत्कीर्तना अनुयोगद्वार समाप्त हुआ।
६१०५. सर्वविभक्ति और नोसर्व विभक्ति अनुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा सभी प्रकृतियोंको सर्वविभक्ति और इससे कमको नोसर्वविभक्ति कहते हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये।
६१०६. उत्कृष्टविभक्ति और अनुत्कृष्टविभक्ति अनुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा सर्वोत्कृष्ट प्रकृतियोंको उत्कृष्टविभक्ति और इनसे कमको अनुत्कृष्टविभक्ति कहते हैं।
शंका-उत्कृष्टविभक्तिका कथन नहीं करना चाहिये, क्योंकि सर्वविभक्तिसे इसमें कोई भेद नहीं है ?
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८६
गा० २२ ] उत्तरपयडिविहत्तीए जहरणविहत्तिश्रादि अणुगमो पादेकं सब्वपयडीपरूवणा सव्वविहत्ती, पयडीणं सव्वासिं समूहस्स पयडीहितो कधंचि पुधभूदस्स परूवणा उक्कस्सविहत्ती, तदो ण पुणरुत्तदोसो। एवं णेदव्वं जाव अणाहारएत्ति । ___६ १०७. जहण्णविहत्ति-अजहण्णविहत्तियाणुगमेण दुविहो णिदेसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सव्वजहण्णपयडीओ जहण्णविहत्ती, तदुवरि अजहण्णविहत्ती । एवं पेदव्वं जाव अणाहारएत्ति ।
६१०८. सादि-अणादि-धुव-अद्धवाणुगमेण दुविहो णिदेसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मिच्छत्त-बारसकसाय-णवणोकसाय-विहत्ति० किं सादिया किमणादिया किं धुवा किम वा ? अणादिया धुवा अर्धवा। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त० किं सादिया४ ? सादि-अद्भुवा । अणादि-धुवं णत्थि ।
समाधान-इन दोनों में परस्पर भेद है, क्योंकि अलग अलग सर्वप्रकृतियोंकी प्ररूपणाको सर्वविभक्ति कहते हैं और प्रकृतियोंसे कथंचित् भिन्नभूत समस्त प्रकृतियोंके समूहकी प्ररूपणाको उत्कृष्टविभक्ति कहते हैं, अतः सर्वविभक्ति और उत्कृष्टविभक्तिका पृथक् पृथक् कथन करने पर पुनरुक्त दोष नहीं आता है।
गतिमार्गणासे लेकर अनाहारकमार्गणा तक उत्कृष्टविभक्ति और अनुत्कृष्टविभक्तिका कथन इसी प्रकार करना चाहिये।
६१०७. जघन्यविभक्ति और अजघन्यविभक्ति अनुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । इनमेंसे ओघकी अपेक्षा सबसे जघन्य प्रकृतियां जघन्यविभक्ति है और इसके ऊपर अजघन्यविभक्ति है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये।
६१०८.सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुवानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व, अप्रत्याख्यानावरण आदि बारह कषाय और नौ नोकषाय ये विभक्तियां क्या सादि हैं, क्या अनादि हैं, क्या ध्रुव हैं, क्या अध्रुव हैं ? अनादि, ध्रुव और अध्रुव हैं । सत्त्व व्युच्छित्ति होने तक निरन्तर रहती हैं, इसलिये अनादि हैं। तथा अभव्योंकी अपेक्षा ध्रुव और भव्योंकी अपेक्षा अध्रुव हैं । इन प्रकृतियोंमें सादिभेद नहीं होता है, क्योंकि सत्त्व व्युच्छित्तिके बाद इनका पुनः सत्त्व नहीं होता।
सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व विभक्तियां क्या सादि हैं, क्या अनादि हैं, क्या ध्रुव हैं, क्या अध्रुव हैं ? सादि और अध्रुव हैं। इनमें अनादि और ध्रुवपद नहीं है। प्रथमोपशमसम्यक्त्व होनेके अनन्तर ही इन दो विभक्तियोंका सत्त्व होता है, अतः ये सादि और अध्रुव हैं।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ ___६१०६. अणंताणुबंधिचउक्क० किं सादिया४ १ सादि-अणादि-धुव-अद्भुवः । एवमचक्खुदंसण०- भवसिद्धि० । णवरि भव० धुवं णत्थि । अभवियसमाणेसु भविएसु वि ण धुवमत्थि विणासणसत्तिसम्भावादो । अभवसिद्धि० सव्वपयडि० किं सादि०४ ? अणादि० धुव०। सेसासु मग्गणासु सव्वपयडी० सादि० अर्धव०, तथावहिदजीवाभावादो। णवरि मदि०-सुद०-असंजदमिच्छाइट्ठीसु छन्वीसपयडीणं विहात्ति० सादि० अणादि० धुवा० अद्भुवा वा, सम्म०-सम्मामिच्छत्त० सादि०अद्धवा। एवं सादिअणादि-धुव-अद्भुवाणुगमो समत्तो।
६१०१.अनन्तानुबन्धी चतुष्क क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है, क्या अध्रुव है ? अनन्तानुबन्धी चतुष्क सादि है, अनादि है, ध्रुव है और अध्रुव है। विसंयोजनाके पहले अनादि है। विसंयोजनाके अनन्तर पुनः सत्त्व होनेसे सादि है। अभव्योंकी अपेक्षा ध्रुव और भव्योंकी अपेक्षा अध्रुव है।
इसी प्रकार अचक्षुदर्शनी और भव्यजीवोंके जानना चाहिये । पर इतनी विशेषता है कि भव्यजीवोंके ध्रुवपद नहीं है । तथा अभव्योंके समान जी भव्य हैं उनके भी ध्रुवपद नहीं है, क्योंकि उनके विभक्तियोंके विनाश करनेकी शक्ति पाई जाती है।
विशेषार्थ-अचक्षुदर्शन बारहवें गुणस्थान तक निरन्तर रहता है और वह भव्य और अभव्य दोनोंके पाया जाता है। अतः इनके ओघप्ररूपणाके समान विवक्षित प्रकृतियोंके यथासंभव पद बन जाते हैं। भव्य जीवोंके भी ओघप्ररूपणा घटित हो जाती है, पर इनके ध्रुवपद नहीं होता है; क्योंकि यह पद अभव्योंकी अपेक्षा कहा है।
अभव्य जीवोंमें सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वको छोड़कर शेष सभी प्रकृतियां क्या सादि हैं, क्या अनादि हैं, क्या ध्रुव हैं, क्या अध्रुव हैं ? अनादि और ध्रुव हैं। अभव्योंके इन छब्बीस प्रकृतियोंका सत्त्व अनादि कालसे है अतः वे अनादि हैं और अनन्त काल तक रहेगा इसलिये वे ध्रुव हैं।
इन उपर्युक्त मार्गणाओंको छोड़कर शेष मार्गणाओंमें सभी प्रकृतियां सादि और अध्रुव हैं, क्योंकि उनमें जीव सदा अवस्थित नहीं रहता। इतनी विशेषता है कि मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत और मिथ्यादृष्टि इन चार मार्गणाओंमें छब्बीस प्रकृतियां सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव हैं। तथा सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व सादि और अध्रुव हैं।
विशेषार्थ-भव्य जीवोंके सम्यग्दर्शन होनेके पहले तक मत्यज्ञानी श्रुताज्ञानी और मिथ्यादृष्टि ये तीन मार्गणाएं तथा संयम होनेके पहले तक असंयम मार्गणा निरन्तर पाई जाती हैं। तथा ये चारों मार्गणाएँ अभव्यके भी होती हैं। अतः इन मार्गणाओं में उक्त छब्बीस प्रकृतियोंकी अपेक्षा सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव ये चारों पद बन जाते
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गा० २२] उत्तरपयडिविहत्तीए सामित्ताणुगमो
६ ११०. सामित्ताणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओषेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मिच्छत्त० विहत्ती कस्स ? अण्णदरस्स सम्मादिहिस्स मिच्छादिहिस्स वा । अविहत्ती कस्स ? सम्मादिहिस्स खविदमिच्छत्तस्स । सम्मत्त-सम्मामि० विहत्ती कस्स ? अण्ण मिच्छादिहिस्स सम्मादिहिस्स वा । अविहत्ती कस्स ? अण्णदरस्स मिच्छादि० सम्मादिहिस्स वा उव्वेल्लिद-खविदसम्मत्तसम्मामिच्छत्तस्स । अणंताणुबंधिचउक्कस्स विहत्ती कस्स ? अण्ण० मिच्छादि० सम्मादिहिस्स वा अविसंजोयिदअणंताणुबंधिचउक्कस्स । अविहत्ती कस्स ? अण्ण० सम्मादिहिस्स विसंजोयिद-अणंताणुबंधिचउक्कस्स । बारसकसाय-णवणोकसायविहत्ती कस्स ? सम्मादिहिस्स मिच्छादिहिस्स वा। अविहत्ती कस्स ? अण्ण० सम्मादिहिस्स णिस्संतकम्मियस्स । एवं मणुसतिय-पंचिंदिय-पंचिं० हैं। सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यमिथ्यात्वकी अपेक्षा सादि और अध्रुव पद स्पष्ट है। तथा शेष मार्गणाएँ सादि हैं, अतः उनकी अपेक्षा सादि और अध्रुव पंद ही होते हैं।
इस प्रकार सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुवानुगम समाप्त हुए ।
६११०. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है, ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्वविभक्ति किसके है ? किसी भी सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि जीवके मिथ्यात्वविभक्ति है। अर्थात् मिथ्यादृष्टि जीवके और जिस सम्यग्दृष्टि जीवने मिथ्यात्वका क्षय नहीं किया है उसके मिथ्यात्व विभक्ति होती है। मिथ्यात्व अविभक्ति किसके है ? जिसने मिथ्यात्व विभक्तिका क्षय कर दिया है ऐसे सम्यग्दृष्टि जीवके मिथ्यात्व अविभक्ति है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वविभक्ति किसके है ? किसी भी मिथ्यादृष्टि या सम्यग्दृष्टि जीवके है। सम्यक्त्वअविभक्ति और सम्यग्मिथ्यात्वअविभक्ति किसके है ? जिसने सम्यक्त्वविभक्ति और सम्यग्मिथ्यात्वविभक्तिकी उद्वेलना कर दी है ऐसे किसी भी मिथ्यादृष्टि जीवके या जिसने सम्यक्त्वविभक्ति और सम्यग्मिथ्यात्वविभक्तिका क्षय कर दिया है ऐसे किसी भी सम्यग्दृष्टि जीवके सम्यक्त्वअविभक्ति और सम्यग्मिथ्यात्वअविभक्ति है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कविभक्ति किसके है ? किसी भी मिथ्यादृष्टि जीवके या जिसने अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना नहीं की है ऐसे किसी भी सम्यग्दृष्टि जीवके अनन्तानुबन्धीचतुष्कविभक्ति है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कअविभक्ति किसके है ? जिसने अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना कर दी है ऐसे किसी भी सम्यग्दृष्टि जीवके अनन्तानुबन्धी चतुष्क अविभक्ति है। ( अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करके जो सम्यग्दृष्टि जीव तीसरे गुण स्थानमें आ जाता है उसके भी अनन्तानुबन्धी की अविभक्ति रहती है। किन्तु यहाँ उसकी विवक्षा नहीं की है।) बारह कषाय और नौ नोकषाय विभक्ति किसके है ? सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि जीवके है । बारह कषाय और नौ नोकषायअविभक्ति किसके हैं ? जिसने बारह कषाय और नौ नोकषायोंका क्षय कर दिया है ऐसे किसी भी सम्यग्दृष्टि जीवके है।
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जेयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयाडचिहत्ती २ पजत्त-तस-तसपजत्त-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालिय०-चक्खु०-अचक्खु० सुक्कलेस्सिय-भवसिद्धिय-सण्णि-आहारि त्ति ।
६१११. आदेसेण णिरयगदीए णेरइएसु मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छा-अणंताणुबंधिचउक्काणं ओघभंगो। बारसकसाय-णवणोकसायविहत्ती कस्स ? अण्णद० । एवं पढमाए पुढवीए तिरिक्खगइ-पचिंदियतिरिक्ख-पंचिंति०पज०-देवा-सोहम्मीसाणप्पहुडि जाव उवरिमगेवजेत्ति वेउब्विय-वेउब्धियमिस्स-असंजद-पंचलेस्सिया ति वत्तव्वं । विदियादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेव । णवरि मिच्छत्त-अविहत्ती णस्थि । एवं पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी-भवण-वाण-जोदिसिया त्ति वत्तव्वं ।
इसी प्रकार मनुष्यत्रिक, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिये। अर्थात् उपर्युक्त मनुष्यत्रिक आदि मार्गणाओंमें प्रारंभके वारह गुणस्थान संभव हैं, अतः इनमें ओघके समान प्ररूपणा बन जाती है।
६१११.आदेशकी अपेक्षा नरकगतिमें नारकियोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका कथन ओघके समान है। तथा बारह कषाय और नौ नोकषायविभक्ति किसके है ? किसी भी नारकीके है। इसी प्रकार पहली पृथिवीके नारकी, सामान्यतियंच, पंचेन्द्रियतियंच, पंचेन्द्रियतिथंच पर्याप्त, सामान्य देव, सौधर्म और ऐशान स्वर्गसे लेकर उपरिमौवेयक तकके देव, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, असंयत और कृष्ण आदि पांच लेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-इन मार्गणास्थानवाले जीवोंके क्षायिक सम्यग्दर्शन हो सकता है, अतः इनके तीन दर्शनमोहनीय और चार अनन्तानुबन्धीका सत्त्व है भी और नहीं भी है। पर इनमेंसे किसीके भी क्षपकश्रेणी संभव नहीं है, अत: उक्त सात प्रकृतियोंके अतिरिक्त शेष इक्कीस प्रकृतियोंका इनके सत्त्व ही है।
दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंके इसी प्रकार जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनके मिथ्यात्व अविभक्ति नहीं है। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिथंचयोनिमती, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंके कथन करना चाहिये।
विशेषार्थ-उपर्युक्त मार्गणाओंमें सम्यक्त्वप्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्क इन छह प्रकृतियोंको छोड़कर शेष सभी प्रकृतियोंका सत्त्व है । पर उक्त छह प्रकृतियोंमेंसे जो मिथ्यादृष्टि जीव सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना कर देता है उसके उक्त दो प्रकृतियोंका असत्त्व होता है और शेषके सत्त्व होता है। तथा जिस सम्यग्दृष्टिने अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना की है उसके अनन्तानुबन्धी चतुष्कका असत्त्व होता है और शेषके सत्त्व होता है।
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गी० २२ ]
उत्तरपयडिविहत्तीए सामित्ताणुगमो
$ ११२. पंचिदियतिरिक्खअपजच० सम्मत्त० सम्मामि० विहत्ती अविहत्ती च कस्स ? अण्णदरस्स | सेसाणं पयडीणं विहत्ती कस्स ? अण्णदरस्स । एवं मणुस्स - अपजत्त - सव्व एइंदिय - सव्वविगलिंदिय- पंचिंदियअपजत्त-तस अपज० - पंचकाय० - बादर सुहुम-पअत्तापञ्जत्त-मदि-सुदअण्णाणि विभंग०-मिच्छाइट्टि असण्ण त्ति वत्तव्यं । अणुदिसादि जाव सव्वट्टसिद्धि त्ति मिच्छत्त-सम्मत-सम्मामिच्छत्तविहत्ती कस्स ? अण्ण० । अविहती कस्स ? अण्णदरस्स खविददंसणमोहणीयस्स । एवमणंताणुबंधिचउक्कस्स । वरि अविहत्ती कस्स, अण्णदरस्स विसंयोजिदाणंताणुबंधिचउक्कस्स । सेसाणं पयडीणं वित्ती कस्स ? अण्णदरस्स । एवमाहार० - आहार मिस्स ० परिहार० संजदासंजदा चि ।
$११२. पंचेन्द्रिय तिर्थच लब्ध्यपर्याप्तकों में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्ति तथा अविभक्ति किसके है ? किसी भी जीवके उक्त दोनों प्रकृतियोंकी विभक्ति और अविभक्ति होती है । तथा शेष प्रकृतियोंकी विभक्ति किसके है ? किसी भी जीवके शेष प्रकृतियोंकी विभक्ति है। इसी प्रकार लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य, सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक, त्रसलब्ध्यपर्याप्तक, पांचों स्थावर काय, तथा इनके बादर और सूक्ष्म तथा इन दोनों पर्याप्त और अपर्याप्त, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, मिध्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके कहना चाहिये ।
विशेषार्थ - उक्त मार्गणावाले जीवोंके छब्बीस प्रकृतियोंका सत्त्व नियमसे है । तथा जिसने सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना की है उसके उक्त दो प्रकृतियोंका सत्त्व नहीं है, शेषके है ।
अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्याकी विभक्ति किसके है ? किसी भी देवके मिथ्यात्व आदिकी विभक्ति है । इन प्रकृतियोंकी अविभक्ति किसके है ? जिसने दर्शनमोहनीयका क्षय कर दिया है ऐसे किसी भी देवके इनकी अविभक्ति है । इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी चतुष्कके विषय में जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्ति किसके है ? जिसने अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसयोजना कर दी है ऐसे किसी भी देवके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्ति है । इन सात प्रकृतियोंके अतिरिक्त शेष इक्कीस प्रकृतियोंकी विभक्ति किसके है ? किसी भी देवके शेष इक्कीस प्रकृतियोंकी विभक्ति है । इसी प्रकार आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीवोंके जानना चाहिये ।
विशेषार्थ - उपर्युक्त मार्गणाओं में सम्यग्दृष्टि जीव ही होते हैं ।
दर्शनमोहनीयका क्षय हो
अतः जिनके चार
गया है उनके इन पर इन मार्गणाओंमें इनके अतिरिक्त शेष इक्कीस
अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना और तीन प्रकृतियोंका सत्त्व नहीं है, शेषके है
।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ ____११३. ओरालियमिस्स० मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-अणंताणुबंधिचउक्क० ओघभंगो। बारसकसाय-णवणोकसायविहत्ती कस्स ! अण्णदरस्स सम्मादि० मिच्छादिहिस्स वा। अविहत्ती कस्स ? अण्णद० सजोगिकेवलिस्स । एवं कम्मइय० अणाहारि त्ति वचव्वं । णवरि, बारसकसाय-णवणोक० अविहत्तीए [पदर] लोगपूरणगदो सजोगी अजोगी च सामिणो।
११४. इत्थिवेदेसु मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-अणंताणुबंधिचउक्क० ओघभंगो। अहक०-णqसयविहत्ती कस्स ? अण्णद० सम्मादिहि० मिच्छादिहिस्स वा। अविहत्ती कस्स ? अण्णदरस्स खवयस्स । चत्तारिसंजलण-दोवेद०-छण्णोक० विहत्ती प्रकृतियोंका सत्त्व नियमसे है। ____६११३. औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें मिथ्यात्व, सम्यकत्वप्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षा कथन ओघके समान है। तथा बारह कषाय और नौ नोकषायविभक्ति किसके है ? किसी भी सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि औदारिक मिश्रकाययोगीके बारह कषाय और नौ नोकषाय की विभक्ति है । बारह कषाय और नौ नोकषायकी अविभक्ति किसके है ? किसी भी सयोगकेवली औदारिकमिश्रकाययोगी जीवके बारह कषाय और नौ नोकषायकी अविभक्ति है। इसी प्रकार कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि कार्मणकाययोगियों में बारह कषाय और नौ नोकषाय की अविभक्तिके स्वामी प्रतर और लोकपूरण समुद्भातको प्राप्त सयोगकेवली जीव हैं। तथा अनाहारकोंमें बारह कषाय और नौ नोकषायकी अविभक्तिके स्वामी प्रतर और लोकपूरण समुद्धातको प्राप्त सयोगकेवली और अयोगकेवली हैं।
विशेषार्थ-औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग पहले, दूसरे चौथे और तेरहवें गुणस्थानमें होता है । तथा अनाहारक अवस्था पूर्वोक्त चार गुणस्थानों में और चौदहवें गुणस्थानमें होती है। तथा मोहनीयका सत्व बारहवें गुणस्थानसे नहीं है, क्योंकि दसवेंके अन्तमें उसका समूल नाश हो जाता है, अतः उक्त मार्गणाओंमें संभव तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानकी अपेक्षा इक्कीस मोहप्रकृतियोंका असत्त्व कहा है। तथा शेषके इनका सत्त्व कहा है। शेष सात प्रकृतियोंकी अपेक्षा सत्त्वासत्त्व जिस प्रकार ओघमें कहा है उसी प्रकार वहां भी जान लेना चाहिये।
६११४. स्त्रीवेदियोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका कथन ओषके समान है। तथा आठ कषाय और नपुंसक वेदकी विभक्ति किसके है ? किसी भी सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि जीवके आठ कषाय और नपुंसक वेदकी विभक्ति है। आठ कषाय और नपुंसकवेदकी अविभक्ति किसके है ? किसी भी क्षपक स्त्रीवेदी जीवके आठ कषाय और नपुंसकवेदकी अविभक्ति है। तथा चार संज्वलन, दो वेद और छह
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिविहत्तीए सामित्ताणुगमो
(५
कस्स ? अण्ण० सम्मादि० मिच्छादि० वा । पुरिसवेदएसु इत्थिवेदभंगो। णवरि इत्थिवेद-छण्णोक० अविहत्ती कस्स ? खवयस्स । णवूस० इस्थिवेदभंगो । णवरि णqसयवेदस्स अविहरिया णत्थि । इत्थिवेद० पुरिसवेदभंगो। अवगद० मिच्छत्तसम्मत्त०-सम्मामि०-अष्टक०-दोवेदविहत्ती कस्स० ? अण्ण उवसामयस्स । अविहत्ती कस्स ? अण्ण० खवयस्स । णवरि दंसणतियअविहत्ती उवसामगस्स वि । चत्तारिसंजलण-पुरिस-छण्णोकसाय० विहत्ती कस्स ? अण्ण० उवसामयस्स वा खवयस्स वा । अविहत्ती कस्स ? अण्णद० खवयस्स। नोकषायकी विभक्ति किसके हैं। किसी भी सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि स्त्रीवेदी जीवके है। पुरुषवेदियोंमें स्त्रीवेदियोंके समान जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि पुरुषवेदियोंमें स्त्रीवेद और छह नोकषायकी अविभक्ति किसके है ? क्षपक पुरुषवेदी जीवके है। नपुंसकवेदियोंमें स्त्रीवेदियोंके समान जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके नपुंसकवेदकी अविभक्ति नहीं है । तथा स्त्रीवेदका कथन पुरुषवेदके समान है। अपगतवेदियोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध आदि आठ कषाय और दो वेदोंकी विभक्ति किसके है ? किसी भी उपशामक जीवके इन प्रकृतियोंकी विभक्ति है। तथा उक्त प्रकृतियोंकी अविभक्ति किसके है ? किसी एक क्षपक जीवके उक्त प्रकृतियोंकी अविभक्ति है। इतनी विशेषता है कि तीन दर्शनमोहनीयकी अविभक्ति उपशामकके भी है । तथा चार संज्वलन, पुरुषवेद और छह नोकषायोंकी विभक्ति किसके है ? किसी भी उपशामक या क्षपक अपगतवेदी जीवके इन प्रकृतियोंकी विभक्ति है । तथा इनकी अविभक्ति किसके है ? किसी एक क्षपक जीवके इनकी अविभक्ति है।
विशेषार्थ-स्त्रीवेदियोंके चार संज्वलन, छह नोकषाय, पुरुषवेद और स्त्रीवेद इन बारह प्रकृतियोंका नियमसे सत्त्व है। तथा शेष सोलह प्रकृतियोंका किन्हींके सत्त्व है और किन्हींके नहीं। पुरुषवेदियोंके चार संज्वलन और पुरुषवेदका सत्त्व नियमसे है। शेषका सत्त्व किन्हींके है और किन्हींके नहीं। नपुंसकवेदियोंके स्त्रीवेदियोंके समान जानना चाहिये । पर इतनी विशेषता है कि इनके स्त्रीवेदके सत्त्वके स्थानमें नपुंसकवेदका सत्त्व कहना चाहिये । इन तीनों वेदवाले जीवोंके जिन प्रकृतियोंका सत्त्व नियमसे है उन्हें छोड़कर शेष प्रकृतियोंका सत्त्व किसके है और किसके नहीं, इसका स्पष्टीकरण ऊपर किया ही है, तथा अपगतवेदियोंके अनन्तानुबन्धी चतुष्कका सत्त्व नियमसे नहीं है, अतः ऊपर इनका उल्लेख नहीं किया है। तथा इनके अतिरिक्त शेष चौबीस प्रकृतियोंका सत्त्व है भी और नहीं भी है। उपशामक अपगतवेदीके तीन दर्शनमोहनीयको छोड़कर शेष इक्कीस प्रकृतियोंका सत्त्व नियमसे है। तथा तीन दर्शनमोहनीयका सत्त्व है भी और नहीं भी है। जो क्षायिक सम्यक्त्वके साथ उपशमश्रेणी पर चढ़ा है उसके नहीं है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[पयडिविहत्ती २
६ ११५. कोधक० पुरिसभंगो। णवरि पुरिस० अविहत्ती अस्थि । एवं माणकसाय०, णवीर कोध० अविहत्ती अस्थि । एवं मायाकसाय०, णवरि माण० अविहत्ती अस्थि । एवं लोभकसाय०, णवरि माय० अविहत्ती अस्थि । अकसाय० चउवीसपयडीणं विहत्ती कस्स ? अण्ण उवसामयस्स । अविहत्ती कस्स ? अण्ण० खवयवस्स । एवं जहाक्खाद० वत्तव्वं ।। तथा जो उपशम सम्यक्त्वके साथ उपशमश्रेणी पर चढ़ा है उसके है। तथा जो जीव क्षपकश्रेणी पर चढ़कर अपगतवेदी हुए हैं उनके मध्यकी आठ कषाय नपुंसकवेद और स्त्रीवेदका सत्त्व नियमसे नहीं है। शेष ग्यारह प्रकृतियोंका सत्त्व है भी और नहीं भी है। जिस अपगतवेदीने इनका क्षय कर दिया है उसके इनका सत्त्व नहीं है और जिसने क्षय नहीं किया है उसके इनका सत्त्व है। इतनी विशेषता है कि पुरुषवेदके साथ क्षपक श्रेणी पर चढ़े हुए क्षपक जीवके छह नोकषायोंका क्षय सवेदभागमें ही हो जाता है।
६११५.क्रोधकषायवाले जीवके पुरुषवेदी जीवके समान जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इसके पुरुषवेदकी अविभक्ति भी है। इसी प्रकार मानकषायवाले जीवके जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इसके क्रोधकषायकी अविभक्ति भी है। इसी प्रकार मायाकषायवाले जीवके जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इसके मानकषायकी अविभक्ति भी है। इसी प्रकार लोभकषायवाले जीवके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इसके मायाकषायकी अविभक्ति भी है । कषायरहित जीवोंमें चौबीस प्रकृतियोंकी विभक्ति किसके हैं ? किसी भी उपशामक जीवके अनन्तानुबन्धी चतुष्कके विना शेष चौबीस प्रकतियोंकी विभक्ति है। चौबीस प्रकृतियोंकी अविभक्ति किसके हैं ? किसी भी एक क्षपक जीवके चौबीस प्रकृतियोंकी अविभक्ति है। इसी प्रकार यथाख्यातसंयत जीवके कहना चाहिये।
विशेषार्थ-पुरुषवेदी जीवकी अपेक्षा क्रोधादिकषायवाले जीवोंके जो विशेषता होती है वह ऊपर बतलाई ही है। कषाय रहित अवस्था उपशमश्रेणीके ग्यारहवें गुणस्थानमें और क्षपकश्रेणीके बारहवें गुणस्थानसे होती है। ग्यारहवें गुणस्थानमें चौबीस प्रकृतियोंका सत्त्व पाया जाता है। इसलिये कषायरहित उपशामकके चौबीस प्रकृतियों का सत्त्व कहा है। इतनी विशेषता है कि यदि क्षायिकसम्यग्दृष्टि उपशमश्रेणी पर चढ़ता है तो उसके दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियोंका सत्त्व नहीं होता है । तथा बारहवें गुणस्थानमें मोहनीयकी एक भी प्रकृतिका सत्त्व नहीं है, अतः कषायरहित क्षपक जीवके सभी प्रकृतियोंका असत्व कहा है। यथाख्यातसंयम भी ग्यारहवें गुणस्थानसे होता है, अतः इसका कथन भी कषाय रहित जीवोंके समान ही है।
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गा० २२ ] उत्तरपयडिविहत्तीए सामित्ताणुगमो
६७ ६११६. आभिणि-सुद०-ओहि मिच्छत्त-सम्मत-सम्मामिच्छत्त-अणंताणुबांधिचउक्क० विहत्ती कस्स ? अण्ण० अक्खीणदंसणमोहणीयस्स । अविहत्ती कस्स ? अण्ण खीणदंसणमोहस्स । सेसाणं पयडीणं ओघमंगो। णवरि विहत्ती अण्ण । एवं मणपज०-संजद-सामाइय-छेदो०-ओहिदसण-सम्मादिहि त्ति वत्तव्वं । णवरि सामाइय०[छेदो०] लोभ० अविहत्तीणत्थि। सुहुमसांपराइयसंजदेसु मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०एक्कारसक०-णवणोक० विहत्ती कस्स ? अण्ण उवसामयस्स । अविहत्ती कस्स? अण्ण खवयस्स । णवरि दंसणतियस्स अविहत्ती अस्थि उवसामगस्स वि। लोभ० विहत्ती कस्स ? अण्ण० उवसामयस्स वा खवयस्स वा । अभवसिद्धि० छब्बीसण्हं पयडीणं विहत्ती कस्स ? अण्ण ।
६ ११७. खइयसम्माइटीसु बारसक०-णवणोक० विहत्ती कस्स ? अण्ण० अक्ख
६ ११६. मतिज्ञानी श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिथ्यत्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्ति किसके है ? जिसने दर्शनमोहनीयका क्षय नहीं किया है ऐसे किसी भी मतिज्ञानी आदि जीवके है। अविभक्ति किसके है ? जिसने उनका क्षय कर दिया है ऐसे किसी भी मतिज्ञानी आदि जीवके है। तथा इनके शेष प्रकृतियोंका कथन ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि शेष इक्कीस प्रकृतियोंकी विभक्ति किसी भी मतिज्ञानी आदि जीवके है। इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, अवधिदर्शनी और सम्यग्दृष्टि जीवोंके कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि सामायिक और छेदोपस्थापना संयत जीवके लोभकषायकी अविभक्ति नहीं है।
सूक्ष्मसांपरायिकसंयतोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति, सम्यगमिथ्यात्व, संज्वलन लोभके बिना ग्यारह कषाय और नौ नोकषायकी विभक्ति किसके है ? किसी भी उपशामकके है। अविभक्ति किसके है ? किसी भी क्षपकके है। इतनी विशेषता है कि तीन दर्शनमोहनीयकी अविभक्ति उपशामकके भी है। लोभकी विभक्ति किसके है ? किसी एक उपशामक या क्षपक सूक्ष्मसांपरायिकसंयत जीवके लोभकी विभक्ति है।
विशेषार्थ-क्षपक सूक्ष्मसांपरायिकसंयत जीवके एक सूक्ष्म लोभका ही सत्त्व है शेष सबका असत्त्व है। तथा उपशामक सूक्ष्मसांपरायिकसंयत जीवके अनन्तानुबन्धी चतुष्कके बिना चौबीस प्रकृतियोंका और क्षायिकसम्यग्दृष्टि उपशामक सूक्ष्मसांपरायिक जीवके अनन्तानुबन्धी चार और तीन दर्शनमोहनीयके बिना इक्कीस प्रकृतियोंका सत्त्व होता है।
अभव्य जीवोंमें छब्बीस प्रकतियोंकी विभक्ति किसके है ? किसी भी अभव्यके है।
६११७. क्षायिकसम्यग्दृष्टियों में बारह कषाय और नौ नोकषायकी विभक्ति किसके है ? जिसने इन इक्कीस प्रकृतियोंका क्षय नहीं किया है ऐसे किसी भी क्षायिकसम्यग्दृष्टिके बारह
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ वयस्स । अविहत्ती कस्स ? अण्ण खवयस्स । वेदगसम्मादिहीसु मिच्छत्त-सम्मामि० विहत्ती कस्स ? अण्णदरस्स । अविहत्ती कस्स ? दंसणमोहखवयस्स । अणंताणुबंधिचउक्क० विहत्ती कस्स ? अण्ण अविसंजोजिदअणंताणुबंधिचउक्कस्स । अविहत्ती कस्स? अण्ण० विसंजोइदअणताणु० चउक्कस्स । सेसाणं पयडीणं विहत्ती कस्स ? अण्ण । उवसमसम्मादिट्टीसु अणंताणु०चउक्क० विहत्ती कस्स ? अण्ण० अविसंजोयिदस्स । अविहत्ती कस्स ? विसंजोयिदअणंताणुबंधिचउक्स्स । सेसाणं पयडीणं विहत्ती कस्स ? अण्ण । सासणसम्मादिहीसु सव्वपयडीणं विहत्ती कस्स ? अण्ण। सम्मामि० अणंताणु०चउक्क विहत्ती अविहत्ती च कस्स ? अण्ण० । सेसाणं पयडीणं विहत्ती कस्स ? अण्णदरस्स।
एवं सामित्तं समत्तं । कषाय और नौ नोकषायकी विभक्ति है। अविभक्ति किसके है ? जिसने इनका क्षय कर दिया है उसके इनकी अविभक्ति है। वेदकसम्यग्दृष्टियों में मिथ्यात्व और सम्यमिथ्यात्वकी विभक्ति किसके है ? किसी भी वेदकसम्यग्दृष्टिके है। अविभक्ति किसके है ? जिसने दर्शनमोहनीयकी मिथ्यात्व और सम्यगमिथ्यात्व प्रकृतिका क्षय कर दिया है उसके अविभक्ति है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्ति किसके है ? जिसने अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना नहीं की है ऐसे किसी भी वेदकसम्यग्दृष्टि जीवके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्ति है। अविभक्ति किसके है ? जिसने अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना की है उसके अविभक्ति है। शेष प्रकृतियोंकी विभक्ति किसके है ? किसी भी वेदकसम्यग्दृष्टि जीवके है। उपशम सम्यग्दृष्टियों में अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्ति किसके है ? जिसने अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना नहीं की है उस उपशमसम्यग्दृष्टिके विभक्ति है । अविभक्ति किसके है ? जिसने अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना कर दी है उस उपशमसम्यग्दृष्टिके अविभक्ति है। शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिं किसके है ? किसी भी उपशम सम्यग्दृष्टिके शेष प्रकृतियोंकी विभक्ति है । सासादन सम्यग्दृष्टियों में सभी प्रकृतियोंकी विभक्ति किसके है ? किसी भी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवके सभी प्रकृतियोंकी विभक्ति है। सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंमें अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्ति और अविभक्ति किसके है ? किसी भी सम्यगमिथ्यादृष्टि जीवके है। शेष प्रकृतियोंकी विभक्ति किसके है ? किसी भी सम्यमिथ्यादृष्टि जीवके शेष प्रकृतियोंकी विभक्ति है।
विशेषार्थ-सभी अभव्योंके सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यास्वको छोड़ कर शेष छब्बीस प्रकृतियोंका ही सत्त्व होता है। क्षायिकसम्यग्दृष्टिके तीन दर्शनमोहनीय और चार अनन्तानुबन्धीका सत्त्व नहीं होता। शेष इक्कीस प्रकृतियोंका सत्त्व होता भी है और नहीं भी होता । वेदकसम्यग्दृष्टिके अनन्तानुबन्धी चतुष्क, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वको
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गा० २२]
उत्तरपयाडविहत्तीए कालाणुगमो ६ ११८. कालाणुगमेण दुविहो णिदेसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मिच्छत्त-बारसकसाय-णवणोकसायविहत्ती केवचिरं कालादो होदि ? अणादिया अपजवसिदा, अणादिया सपज्जवसिदा । सम्मत्त०-सम्मामि विहत्ती केवचिरं कालादो होदि ? जह० अंतोमुहुत्तं उक्क० बे छावहिसागरोवमाणि तीहि पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेहि सादिरेयाणि । अणंताणु०चउक्कविहत्ती केवचिरं का० ? अणादि० अपञ्जवसिदा अणादि०सपञ्जवसिदा, सादि० सपञ्जवसिदा वा । जा सा सादिसपञ्जवसिदा तिस्से इमो णिद्देसो-जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० अद्धपोग्गलपरियहं देसूणं । एवमचक्खु०-भवसिद्धि। णवरि भवसि० अपज्जवसिदं णत्थि। छोड़ कर शेष बाईस प्रकृतियोंका सत्त्व नियमसे होता है। शेष छह प्रकृतियोंका सत्त्व होता भी है और नहीं भी होता है। उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके अनन्तानुबन्धी चतुष्कके बिना शेष चौबीस प्रकृतियोंका सत्त्व नियमसे होता है। तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्कका सत्त्व होता भी है और नहीं भी होता । सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके भी अनन्तानुबन्धी चतुष्कके बिना चौबीस प्रकृतियोंका सत्त्व नियमसे होता है। अनन्तानुबन्धी चारका सत्त्व होता भी है और नहीं भी होता है। सासादनसम्यग्दृष्टियोंके अट्ठाईस प्रकृतियोंका ही सत्त्व होता है।
इस प्रकार स्वामित्वानुयोगद्वार समाप्त हुआ।
६११८. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओपनिर्देश और आदेशनिर्देश । इनमेंसे ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायकी विभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है १ अनादि-अनन्त और अनादि-सान्त काल है। सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिध्यात्वकी विभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पल्यके तीन असंख्यातवें भागोंसे अधिक एकसौ बत्तीस सागर है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त काल है। उनमेंसे जो सादि-सान्त अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्ति है आगे उसका निर्देश करते हैं-अनन्तानुबन्धीचतुष्कविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है। इसी प्रकार अचक्षुदर्शनी और भव्य जीवोंके जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि भव्य जीवोंके अनन्तकाल नहीं है।
विशेषार्थ-बारह कषाय, नौ नोकषाय और मिथ्यात्वका अनादि-अनन्त काल अभव्योंके होता है और भव्योंके अनादि-सान्त काल होता है। सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व ये दोनों प्रकृतियां नियमसे सादि-सान्त हैं, इसमें भी इन दोनोंका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि जिसके पहले इन दोनों प्रकृतियोंका सत्त्व नहीं है ऐसा जो उपशम सम्यग्दृष्टि अति लघु अन्तर्मुहूर्तकाल तक उपशमसम्यक्त्वके साथ रहा, अनन्तर वेदकसम्य
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ ग्दृष्टि होकर जिसने क्षायिकसम्यक्त्वको प्राप्त किया है उसके इन दोनों प्रकृतियोंका सत्त्वकाल अन्तर्मुहूर्त देखा जाता है। तथा उत्कृष्ट काल पल्योपमके तीन असंख्यातवें भागोंसे अधिक एक सौ बत्तीस सागर है। जो इस प्रकार है-कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करके मोहनीयकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला हो गया और इसके बाद वह पुनः मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। वहां उसे उक्त दोनों प्रकृतियोंकी उद्वेलनामें सबसे अधिक काल पल्योपमका असंख्यातवां भाग लगता है। पर अपने अपने उद्वेलना कालमें जब अन्तर्मुहूर्त शेष रहा तब उस जीवने उपशमसम्यक्त्वकी प्राप्तिका प्रारम्भ किया और जब उद्वेलनाका उपान्त्य समय प्राप्त हुआ तभी मिथ्यात्वका अभाव होकर उपसमसम्यक्त्त्व प्राप्त हो गया और इस प्रकार सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी धारा न टूट कर इनका नवीन सत्त्व प्राप्त हो गया। अनन्तर छयामठ सागर काल तक सम्यक्त्वके साथ रहकर अन्तमें मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। और वहां उक्त दोनों प्रकृतियोंके उद्वेलना काल पल्योपमके असंख्यातवें भागके अन्तिम समयमें पुनः उपशम सम्यत्वको प्राप्त कर उक्त दोनों प्रकृतियोंकी धारा न टूटते हुए नवीन सत्ता प्राप्त कर ली। अनन्तर छयासठ सागर कालतक सम्यक्त्वके साथ रहकर अन्तमें मिथ्यात्वको प्राप्त होकर वह जीव पल्योपमके असंख्यातवें भाग कालके द्वारा उक्त दोनों प्रकृतियोंकी उद्वेलना करके क्रमसे उनका अभाव कर देता है। इस प्रकार उक्त दोनों प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल पल्यके तीन असंख्यातवें भागोंसे अधिक एक सौ बत्तीस सागर प्राप्त हो जाता है। अनन्तानुबन्धी चारका अनादि-अनन्त काल अभव्योंके होता है। तथा जिस भव्यने सम्यक्त्व प्राप्त करके सर्व प्रथम अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना की है उसके अनादि-सान्त काल होता है। तथा विसंयोजनाके बाद जिसके पुनः अनन्तानुबन्धीकी सत्ता प्राप्त हो जाती है उसके अनन्तानुबन्धीका सादि-सान्त काल होता है। इस सादि-सान्त कालका जघन्य प्रमाण अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट प्रमाण कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन है। अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करनेवाले किसी जीवके उसकी पुनः सत्ता होने पर जो अन्तर्मुहूर्त कालमें सम्यक्त्वको प्राप्त करके उसकी पुनः विसंयोजना कर देता है उसके अनन्तानुबन्धीका जघन्य काल अन्तमुहूर्त होता है। और अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करनेवाला जो जीव मिथ्यात्वमें जाकर कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन काल तक मिथ्यात्वके साथ ही रहता है उसके अनन्तानुबन्धीका उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुदल परिवर्तन प्राप्त होता है । अचक्षुदर्शनका अभाव बारहवें गुणस्थानमें होता है उसके पहले वह सदा रहता है और उसका सद्भाव भव्य और अभव्य दोनोंके है, अतः इसके सभी प्रकृतियोंका काल ओघके समान बन जाता है। भव्य मार्गणा भी चौदहवें गुणस्थानकी प्राप्ति होने तक निरन्तर पाई जाती है, इसलिए वह अनादि तो है पर अनन्त नहीं, अतः इसके अनन्त विकल्पको छोड़कर काल संबन्धी शेष सब प्ररूपणा ओघके समान बन जाती है।
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गा० २२]
उत्तरपयडिविहत्तीए कालाणुगमो
६११६. आदेसेण णिरयगदीए णेरयियेसु मिच्छत-बारसकसाय-णवणोकसाय विहत्ती केव० १ जह० दस वाससहस्साणि, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि। एवं सम्मत्त सम्मामिच्छत्त-अणंताणुबंधिचउक्काणं । णवरि जह० एगसमओ। पढमादि जाव सत्तमा त्ति एवं चेव वत्तव्वं । णवरि बाबीसहं पयडीणमप्पप्पणो जहण्णुक्कस्सहिदी वत्तव्वा। छण्णं पयडीणं जह० एगसमओ, उक्क० सग-सग-उक्कस्सहिदी होदि । णवरि सत्तमाए पुढवीए अणंताणु०चउकस्स जह० अंतोमुहुत्तं । कुदो, अंतोमुहुत्तेण विणा संजुत्तविदियसमए चेव मरणाभावादो।
११६. आदेशकी अपेक्षा नरकगतिमें नारकियोंमें मिथ्यात्व बारह कषाय और नौ नोकषाय विभक्तिका कितना काल है ? जघन्य काल दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। इसी प्रकार सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिथ्यत्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भी काल समझना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनका जघन्य काल एक समय है। पहली पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवीतक इसीप्रकार कथन करना चाहिये। इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्क, सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वको छोड़कर शेष बाईस प्रकृतियोंका जघन्य
और उत्कृष्ट काल कहते समय प्रथमादि नरकोंमें जहां जितनी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति हो वहां उतना जघन्य और उत्कृष्ट काल कहना चाहिये । किन्तु छह प्रकृतियोंका जघन्य काल एक समय है तथा उत्कृष्ट काल प्रथमादि नरकोंमें अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है। इतनी विशेषता है कि सातवीं पृथिवीमें अनन्तानुबन्धी चतुष्कका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है, क्योंकि, अनन्तानुबन्धीका पुन: संयोजन होनेपर अन्तर्मुहूर्त काल हुए बिना दूसरे समयमें ही मरण नहीं होता है।।
विशेषार्थ-सामान्यसे नरककी जघन्य स्थिति दश हजार वर्ष और उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागर है और सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबन्धी चार इनको छोड़कर शेष बाईस प्रकृतियोंका किसी भी नारकी के अभाव नहीं होता है, अतः इन बाईस प्रकृतियोंका जघन्य काल दश हजार वर्ष और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर कहा। तथा विशेषकी अपेक्षा जिस नरक की जितनी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति है उतना कहा। शेष उपर्युक्त छह प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल तो पूर्वोक्त ही है। परन्तु जघन्य कालमें कुछ विशेषता है जो निम्न. प्रकार है-सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिकी उद्वेलना करनेवाले किसी जीवके उद्वेलनाके कालमें एक समय शेष रहते हुए प्रथमादि नरकमें उत्पन्न होने पर उक्त दोनों प्रकृतियोंका सामान्य और विशेष दोनों प्रकारसे जघन्य काल एक समय बन जाता है तथा अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करनेवाला कोई एक सम्यग्दृष्टि नारकी मिथ्यात्वको प्राप्त होकर और वहां एक समय तक अनन्तानुबन्धीके साथ रहकर दूसरे समयमें मरकर यदि अन्य गतिको प्राप्त हो जाता है तो उसके नरकगतिकी अपेक्षा अनन्तानुबन्धीका जघन्य
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जयधवलासहिदै कसायपाहुडे. [पयडिविहत्ती २ . ६१२०. तिरिक्खगईए तिरिक्खेसु बाबीसण्हं पयडीणं विहत्ती केव० का होदि? जह खुद्दाभवग्गहणं । अणंताणु०चउक्कस्स जह० एगसमओ, उक्क०दोण्हं पि अणंतकालो, असंखेजा पोग्गलपरियट्टा । सम्मत्त०-सम्मामि० जह० एगसमओ उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि सादिरेयाणि। पंचिदियतिरिक्ख-पंचिति०पज-पंचिंतिजोणिणीसुबाबी सहं पयडीणं विहत्ती केव० का० होदि ? जह० खुद्दाभवग्गहणमंतोमुहुत्तं । सम्मत्त०सम्मामि०-अणंताणु०चउक्कस्स जह० एगसमओ, उक्क० सव्वासिं पयड़ीणं तिण्णि पलिदोवमाणि पुव्वकोडिपुधत्तेणव्व (ब्भ ) हियाणि । एवं मणुसतियस्स वत्तव्वं । काल एक समय बन जाता है । परन्तु सातवें नरकमें ऐसा जीव अन्तर्मुहूर्त काल हुए बिना मरता नहीं अत: वहां अनन्तानुबन्धीका जघन्य काल अन्तर्मुहुर्त कहा है।
१२०.तिथंचगतिका कथन करते समय तियचोंमें बाईस प्रकृतियोंकी विभक्तिका काल कितना है ? जघन्य काल खुद्दाभवग्रहण प्रमाण है । और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका जघन्य काल एक समय है। तथा पूर्वोक्त बाईस और अनन्तानुबन्धी चतुष्क इन दोनोंका उत्कृष्ट अनन्त काल है। जो अनन्तकाल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ अधिक तीन पल्योपम है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिथंच योनिमतियों में बाईस प्रकृतियोंका काल कितना है ? जघन्य काल खुद्दाभवग्रहण और अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है। तथा सम्यक्प्रकृति, सम्यग्गिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका जघन्य काल एक समय है और सभी प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक तीन पल्योपम है।
जिस प्रकार पंचेन्द्रिय तिथंच आदिके मोहकी अट्ठाईस प्रकृतियोंका काल बतलाया है उसी प्रकार मनुष्यत्रिक अर्थात् सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य, और मनुष्यनीके भी उक्त अट्ठाईस प्रकृतियोंका काल समझना चाहिये।
विशेषार्थ-तिर्यंचोंके पांच भेद हैं। उनमेंसे लब्ध्यपर्याप्त तिर्यंचोंको छोड़कर शेष चार प्रकारके तिर्यंचोंकी अपेक्षा यहां पर अट्ठाईस प्रकृतियोंका सत्त्वकाल कहा है। सामान्यसे तिर्यच गतिमें रहनेका जघन्यकाल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्टकाल आवलीके असंख्यातवें भागके जितने समय हों उतने पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है, इसलिये जिन प्रकृतियोंका तियंचगतिमें कभी भी अभाव नहीं होता ऐसी बाईस प्रकृतियोंका तियंचगति सामान्यकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्टकाल क्रमसे खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण कहा है । इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी चारका उत्कृष्ट सत्त्वकाल भी असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण हो जाता है, क्योंकि इतने काल तक जीव तियंचगतिमें मिथ्यात्वके साथ रह सकता है और मिथ्यात्वमें अनन्तानुबन्धीका अभाव नहीं होता। परन्तु अनन्तानुबन्धीके जपन्य सत्त्वकाल और सम्यक्त्वप्रकृति तथा सम्यमिथ्यात्वप्रकृतिके जघन्य और उत्कृष्ट
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गा० २२]
उत्तरपयडिविहत्तीए कालाणुगमो
vM
६ १२१. पंचिंदियतिरि०अपज० छव्वीसं पयडीणं विहत्ती केवचिरं कालादो होदि ? जह० खुद्दाभवगहणं । सम्मत्त०-सम्मामि० जह० एगसमओ। उक० सव्वासिं सत्त्वकालमें विशेषता है। वह इस प्रकार है-उक्त छहों प्रकृतियोंका जघन्य सत्त्वकाल एक समय जिस प्रकार नरकगतिमें घटित कर आये हैं उसी प्रकार यहां तिर्यंचगतिमें भी घटित कर लेना चाहिये । तथा सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यगमिथ्यात्वका उत्कृष्ट सत्त्वकाल साधिक तीन पल्य है। क्योंकि उक्त दोनों प्रकृतियोंकी सत्तावाला जो मिथ्यादृष्टि तिर्यंच दान या दानकी अनुमोदनाके माहात्म्यसे उत्तम भोगभूमिमें उत्पन्न होकर और वहां पर उक्त दोनों प्रकृतियोंकी उद्वेलना होनेके पहले ही सम्यक्त्वको प्राप्त कर लेता है उसके साधिक तीन पल्य काल तक उक्त दोनों प्रकृतियोंका सत्त्व पाया जाता है। यहां साधिकसे पूर्वकोटि पृथत्व लेना चाहिये। विशेषकी अपेक्षा पंचेन्द्रियतिर्यचका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल पंचानवे पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य है। तथा पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यंच और योनिमती तिर्यंचका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल क्रमसे सेंतालीस और पन्द्रह पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य है, अतः जिन प्रकृतियोंका तिथंचगतिमें कभी भी अभाव नहीं होता उन बाईस प्रकृतियोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल पूर्वोक्त जहां जितना जघन्य और उत्कृष्ट काल संभव है उतना कहा है। तथा सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारका उत्कृष्ट काल जहां जितना उत्कृष्ट काल है उतना ही है, क्योंकि पूर्वोक्त काल तक जीव पंचेन्द्रिय तिर्यच आदि पर्यायोंके साथ मिथ्यात्व गुणस्थानमें रह सकता है और मिथ्यात्व गुणस्थानमें अनन्तानुबन्धीका अभाव नहीं है, अतः अनन्तानुबन्धीका उत्कृष्ट काल पूर्वोक्त तीन प्रकारके तियचोमेंसे जिसका जितना उत्कृष्ट काल है उतना बन जाता है। तथा सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिध्यात्वका उत्कृष्ट काल पूर्वोक्त ही है, क्योंकि कहीं इन दोनों प्रकृतियोंकी उद्वेलना होनेके पूर्व ही सम्यक्त्व उत्पन्न करके उनकी सत्त्वस्थिति बढ़ा कर और कहीं वेदकसम्यक्त्वके साथ रह कर जिस तिर्यचका जितना उत्कृष्ठ काल कहा है उतने काल तक इन दोनों प्रकृतियोंकी धारा न टूटते हुए सत्ता पाई जा सकती है। तथा पूर्वोक्त तीन प्रकारके तिर्यचोंके इन छहों प्रकृतियोंका जघन्य सत्त्व काल एक समय है जिसका उल्लेख नरक गतिमें इनका जघन्य काल कहते समय कर आये हैं, अत: उसीप्रकार यहां समझ लेना चाहिये। सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनीके अट्ठाईस प्रकृतियोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल पंचेन्द्रिय तिथंच आदिके समान है इसका यह अभिप्राय है कि पूर्वकोटिपृथक्त्वकी गणनाको छोड़कर शेष कालनिर्देश दोनोंका समान है। परन्तु पूर्वकोटिपृथक्त्वसे सामान्य मनुष्योंके सेंतालीस, पर्याप्त मनुष्यों के तेईस और मनुष्यनियोंके सात पूर्वकोटि लेना चाहिये ।
६१२१. पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तोंके छब्बीस प्रकृतियोंकी विभक्तिका सत्त्वकाल कितना है ? जघन्य खुद्दाभवग्रहणप्रमाण है। सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यगमिथ्यात्वका
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जयधवासहिदे कसा पाहुडे
पडीणमंतोमुहुत्तं । एवं मणुसअप ० वतव्वं ।
६१२२. देवाणं णारगभंगो । भवणादि जाव उवरिमगेवजा त्ति बाबीसं पयडीणं जणुकसहिदी वत्तव्वा । छण्णं पयडीणं जह० एगसमओ, उक्क० सगहिदी वत्तच्वा । अणुद्दिसादि जाव सव्ववसिद्धि त्ति मिच्छत्त- सम्मामिच्छत्त - बारसकसाय - णवणोक० जह० जहण्णहिदी वत्तव्वा । सम्मत- अणंताणु० चउक्क० जह० एगसमओ अंतोमुहुतं, उक्क० सगट्टिदी |
[ पयडिविहती २
जघन्य काल एक समय है । तथा सभी प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार लब्ध्यपर्याप्त मनुष्योंके भी कहना चाहिये ।
विशेषार्थ - लब्ध्यपर्याप्तक जीव कदलीघात से खुदाभवग्रहण तक जीवित रह कर मर जाते हैं, अतः उनकी जघन्य आयु खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट आयु अन्तर्मुहूर्त है और इसीलिये सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यमिध्यात्वके जघन्य सत्त्वकालको छोड़कर शेष सभी प्रकृतियोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल क्रमसे खुद्दाभवग्रहण और अन्तर्मुहूर्त कहा है । तथा उद्वेलनाके कालमें एक समय शेष रहने पर अविवक्षित गतिका जीव विवक्षित पर्याय में जब उत्पन्न होता है तब उसके सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यगमिध्यात्वका जघन्य काल एक समय बन जाता है ।
$१२२. देवगतिमें सामान्य देवोंके अट्ठाईस प्रकृतियोंकी विभक्तिका सत्त्वकाल सामान्य नारकियोंके समान कहना चाहिये। विशेषकी अपेक्षा भवनवासियोंसे लेकर उपरिम ग्रैवेयक तक प्रत्येक स्थानमें बाईस प्रकृतियोंकी विभक्तिका काल उनकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण कहना चाहिये । तथा सम्यक्त्वप्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण कहना चाहिये । तथा नौ अनुदिशोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक प्रत्येक स्थानमें मिध्यात्व, सम्यग्मिध्यात्व बारह कषाय और नौ नोकषायका जघन्य काल अपनी अपनी जघन्य स्थिति प्रमाण कहना चाहिये। सम्यक्त्वप्रकृति और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका जघन्यकाल क्रमसे एक समय और अन्तर्मुहूर्त कहना चाहिये । और सभी प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल सर्वत्र अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण कहना चाहिये ।
I
विशेषार्थ - नौ अनुदिशोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंके सम्यक्प्रकृति और अनन्तानुबन्धीके जघन्य कालको छोड़कर शेष कथन में कोई विशेषता नहीं है । नरकगतिका कथन करते समय जिसप्रकार उसका खुलासा कर आये हैं उसी प्रकार यहां की विशेष स्थितिको ध्यान में रखकर उसका खुलासा कर लेना चाहिये । परन्तु अनुदिशसे आगेके देवोंके एक सम्यग्दृष्टि गुणस्थान ही होता है, इसलिये इनके सम्यक्प्रकृति और अनन्तानुबन्धीके जघन्य कालमें विशेषता आ जाती है। जिसके सम्यक्प्रकृतिकी क्षपणामें एक समय शेष है ऐसा
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१०५ ६१२३. इंदियाणुवादेण एइंदिएसु सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तविहत्ती० जह० एगसमओ, उक्क० पलिदोवमस्स असंखे०भागो। सेसाणं पयडीणं जह० खुद्दाभवग्गहणं, उक्क० अणंतकालोअसंखेजा पोग्गलपरियट्टा। एवं बादरेइंदियाणं। णवरि छब्बीसंपयडीणमुक्कस्सविहत्तीकालो अंगुलस्स असंखेजदिभागो, असंखेजाओ ओसप्पिणिउस्सप्पिणीओ। बादरेइंदियपज० सम्मत्त-सम्मामि० विहत्ती० जह० एगसमओ, उक्क० संखेजाणि वाससहस्साणि । सेसाणं छब्बीसपयडीणमेवं चेव, गवरि जहण्णविहत्तिकालो अंतोमुहुत्तं । बादरेइंदियअपजत्तएसु सम्मत्त-सम्मामि० जह० एगसमओ, सेसछब्बीसपयडीणं जह० खुद्दा०। सव्वपयडीणं विहत्तिकालो उक्क० अंतोमुहुतं । सुहुमेइंदिएसु सम्मत्त-सम्मामि० विहत्ती० जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। सेसपयडीणं विहत्तिक जह. खुद्दा०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। सुहुमेइंदियपज० सम्मत्त-सम्मामि० विहात्ति० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । सेसपयडीणं विहत्ति० जहण्णुक्कस्सेण अंतोकृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि मनुष्य जब नौ अनुदिश आदिमें उत्पन्न होता है तब उसके सम्यक् प्रकृतिका जघन्य काल एक समय भी बन जाता है। तथा कोई वेदकसम्यग्दृष्टि अनुदिश आदिमें उत्पन्न हुआ और वहां उसने अनन्तानुबन्धीकी अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर विसंयोजना कर दी तो उसके अनन्तानुबन्धीका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त बन जाता है।
६१२३.इन्द्रिय मार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियों में सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भाग है। तथा शेष छब्बीस प्रकृतियोंका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट अनन्तकाल है जिसका प्रमाण असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन है। इसी प्रकार बादर एकेन्द्रियों के जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके छब्बीस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल अंगुलके असंख्यातवें भाग है। जिसका प्रमाण असंख्यात अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी है। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंके सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंके शेष छब्बीस प्रकृतियोंका काल भी सम्यक्प्रकृति और सम्यगमिथ्यात्वके कालके समान जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि जघन्य काल एक समय न होकर अन्तर्मुहूर्त है। बादर एकेन्द्रिय अपप्तिकोंमें सम्यक्प्रकृति और सम्यगमिथ्यात्वका जघन्य काल एक समय और शेष छब्बीस प्रकृतियोंका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहण प्रमाण है। तथा सभी प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। सूक्ष्म एफेन्द्रियोंमें सम्यक्प्रकृति और सम्यमिथ्यात्वका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भाग है। तथा शेष प्रकृतियोंका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकों में सम्यक्प्रकृति और सम्यमिथ्यात्वका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्त
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[ पयडिविहत्ती २
मुहुतं । सुहुमेहंदियअपजत्तएसु सम्मत्त-सम्मामि०विहत्ति० जह• एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । सेसाणं पयडीणं जह० खुद्दा०, उक्क० अंतोमुः।
६१२४. विगलिंदिएसु सम्मत्तसम्मामिच्छत्तविहत्ति० जह० एगसमओ, सेसाणं पयडीणं विहत्ति० जह० खुद्दा० । सव्वेसि पयडीणं विहत्ति० उक्क० संखेजाणि वस्ससहस्साणि । एवं विगलिंदियपजत्ताणं । णवरि, छब्बीस पयडीणं बिहत्ति० जह० है। तथा शेष छब्बीस प्रकृतियोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकोंमें सम्यक्प्रकृति और सम्यमिथ्यात्वका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। तथा शेष प्रकृतियोंका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है।
विशेषार्थ-यहां एकेन्द्रियोंमें और उनके भेद प्रभेदोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल बतलाया गया है। सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व ये दो प्रकृतियां एकेन्द्रियोंके पाई भी जाती हैं और नहीं भी पाई जाती हैं। जिनके इनका उद्वेलना काल पूरा नहीं हुआ है उनके पाई जाती हैं और जिनके उद्वेलना काल पूरा हो गया है उनके नहीं पाई जाती हैं। अतः इनके जघन्य और उत्कृष्ट कालको छोड़कर शेष छब्बीस प्रकृतियोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल एकेन्द्रियोंकी जिस पर्यायमें लगातार जघन्य और उत्कृष्टरूपसे जितने काल तक एक जीवके रहनेका नियम है उतना है, जो ऊपर बतलाया ही है। तथा सम्यक्प्रकृति और सम्यमिथ्यात्वका जघन्य काल जो एक समय कहा है उसका कारण यह है कि जिसके सम्यक्प्रकृति और सम्यमिथ्यात्वकी उद्वेलनामें एक समय शेष रह गया है ऐसा कोई जीव जब मरकर विवक्षित एकेन्द्रियमें उत्पन्न होता है तब उसके उक्त दोनों प्रकृतियोंका जघन्य काल एक समय बन जाता है। तथा जिन एकेन्द्रियोंका उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागसे अधिक है उनके इन दोनों प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भाग होता है। क्योंकि इतने कालके भीतर इन दोनों प्रकृतियोंकी उद्वेलना हो जाती है। और जिन एकेन्द्रियोंका उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागके भीतर है उनके सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट काल भी उतना ही होता है, क्योंकि इन दोनों प्रकृतियोंकी उद्वेलना होनेके पहले ही वह पर्याय बदल जाती है।
६१२४.विकलेन्द्रियोंमें सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य काल एक समय और शेष प्रकृतियोंका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण है । तथा सभी प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है। इसी प्रकार विकलेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंके उक्त प्रकृतियोंका काल जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनके छब्बीस प्रकृतियोंका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण न होकर अन्तर्मुहूर्त है। विकलेन्द्रिय पर्याप्तकोंके समान विकलेन्द्रिय अपर्याप्त
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१०७ अंतोमुद्दुत्तं । एवं विगलिंदियअपजत्ताणं, णवरि छब्बीसंपयडीणं विहत्ति० जह० खुद्दा०, अहावीसपयडीणं विहत्ति० उक्क० अंतोमुहुतं ।।
६१२५. पचिंदिय-पंचिं०पजत्तएसु छब्बीसंपयडीणं विहत्ति० जह० खुद्दाभवगहणमंतोमुहुत्तं, उक्क० सागरोवमसहस्साणि पुवकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि सागरोवमसदपुधत्तं । सम्मत्त-सम्मामि०विहत्ति० जह० एगसमओ, उक० बे छावद्विसाकोंके उक्त प्रकृतियोंका काल जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनके छब्बीस प्रकतियोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त न होकर खुद्दाभवग्रहणप्रमाण है। और अट्ठाईस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है।
विशेषार्थ-द्वीन्द्रियकी उत्कृष्ट आयु बारह वर्ष त्रीन्द्रियकी उनचास दिनरात और चतुरिन्द्रियकी छह महीना है। अब यदि कोई अन्य इन्द्रियवाला जीव विकलत्रयमें उत्पन्न होकर निरन्तर इसी विकलत्रय पर्यायमें उत्पन्न होता रहे और मरता रहे तो संख्यात हजार वर्ष तक वह विकलत्रय पर्यायमें रह सकता है। इसी अपेक्षासे ऊपर सामान्य और पर्याप्त विकलत्रयोंके सभी प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष कहा है। तथा जघन्य काल कहते समय सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिध्यात्वका एक समय और छब्बीस प्रकृतियोंका सामान्य विकलत्रयोंके खुद्दाभवग्रहण प्रमाण और पर्याप्त विकलत्रयोंके अन्तर्मुहूर्त कहनेका कारण यह है कि उक्त दोनों प्रकृतियोंकी उद्वेलनामें एक समय शेष रहने पर अन्य इन्द्रियवाला जीव यदि विवक्षित विकलत्रयमें उत्पन्न हुआ तो उसके दोनों प्रकृतियोंका जघन्य काल एक समय बन जाता है। तथा सामान्य विकलत्रयका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहण प्रमाण है और पर्याप्त विकलत्रयका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है अतः इन दोनोंके शेष छब्बीस प्रकृतियोंका जघन्य काल क्रमसे खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और अन्तर्मुहूर्त घटित हो जाता है । लब्ध्यपर्याप्तक विकलत्रयका जघन्य काल खुहाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है अतः इनके छब्बीस प्रकृतियोंका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और सभी प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । रही सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य कालकी बात सो ऊपर जिसप्रकार सामान्य और पर्याप्त विकलत्रयके इनके जघन्य काल एक समयका खुलासा किया है उसी प्रकार इनके भी उक्त दोनों प्रकृतियोंके जघन्य कालका खुलासा कर लेना चाहिये। ...६१२५ पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रियपर्याप्तक जीवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंका जघन्य काल क्रमसे खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और अन्तर्मुहूर्त है। तथा दोनोंके छब्बीस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल क्रमसे पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक हजार सागर और सौ सागर पृथक्त्व है। तथा दोनोंके सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपमके तीन असंख्यातवें भागोंसे अधिक एकसौ बत्तीस सागर है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [पयडिविहत्ती २ गरोवमाणि तीहि पलिदोवमस्स असंखे भागेहि सादिरेयाणि । पुच्वं परूविदछव्वीसपयडीसु अणंताणुबंधिचउक्कस्स विहत्तीए जहण्णकालो एगसमओ ति किण्ण परूविदो ? ण, चउबीससंतकम्मिअ-उवसमसम्मादिहिस्स एयसमयं सासणगुणेण परिपदस्स विदियसमए चेव कालं कादण एइंदिएसु उप्पादासंभवादो। कुदो एवं णव्वदे? परमगुरूवएसादो। तदो अंतोमुहुत्तसंजुत्तस्सेव तत्थुप्पादो त्ति घेत्तव्वं । अथवा सव्वत्थ उपजमाणसासणस्स एगसमओ वत्तव्यो । पंचिंदियअपजत्तएसु सम्मत्त-सम्मामि० विहत्ति० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहत्तं । छव्वीसंपयडीणं विहत्ति० जह खुद्दा०, उक्क० अंतोमुहुत्तं ।
शंका-ऊपर जो छब्बीस प्रकृतियां कहीं हैं उनमेंसे अनन्तानुबन्धीचतुष्कका जघन्य काल एक समय क्यों नहीं कहा ?
समाधान-नहीं, क्योंकि चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जो उपशमसम्यग्दृष्टि जीव है वह एक समय तक सासादन गुणस्थानके साथ रहकर और दूसरे समयमें ही मर कर एकेन्द्रियोंमें नहीं उत्पन्न होता है, इसलिये पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रियपर्याप्त जीवोंके अनन्तानुबन्धी चतुष्कका जघन्य काल एक समय नहीं कहा ।
शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है कि चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जीव एक समय सासादन गुणस्थानमें रह कर और दूसरे समयमें मर कर एकेन्द्रियों में नहीं उत्पन्न होता है ?
समाधान-परम गुरुके उपदेशसे जाना जाता है। · अत: चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला उपशमसम्यग्दृष्टि जीव जब अनन्तानुबन्धी चतुष्कके साथ अन्तर्मुहूर्त काल तक रह लेता है तभी वह मर कर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हो सकता है ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिये । अथवा जिन आचार्योंके मतसे सासादनसम्यग्दृष्टि जीव एकेन्द्रियादि सभी पर्यायोंमें उत्पन्न होता है उनके मतसे पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रियपर्याप्तजीवोंके अनन्तानुबन्धी चतुष्कका एक समय जघन्य काल कहना चाहिये ।
विशेषकी अपेक्षा पंचेन्द्रिय तियंचका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और पंचेन्द्रियपर्याप्त तिथंच तथा योनिमतीतिर्यचका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। ___लब्ध्यपर्याप्तक पंचेन्द्रियोंके सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। तथा शेष छब्बीस प्रकृतियोंका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है।
विशेषार्थ-सामान्य पंचेन्द्रियका पंचेन्द्रिय पर्यायमें रहनेका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटि पृथक्त्वसे अधिक हजार सागर है। पंचेन्द्रियपर्याप्तजीवका पंचेन्द्रियपर्याप्त पर्यायमें निरन्तर रहनेका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल
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गा० २२ ]
उत्तरप डिविहती कालागुगमो
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६१२६. चत्तारिकासु सम्मत सम्मामि० विहत्ति० जह० एगसमओ, उक्क० पार्लदो ० असंखे ० भागो । सेसछव्वी संपयडीणं विहत्ति ० जह० खुद्दा०, उक्क० असंखेजा लोगा । चत्तारिबादरकासु सम्मत सम्मामिच्छत्त० विहत्तीए चत्तारिकायभंगो । सेसछब्वी संपयडीणं विहत्ति० जह० खुद्दाभवग्गहणं, उक्क० कम्महिदी । चचारि - बादरकायपत्तएसु सम्मत सम्मामि ० विहत्ति ० जह० एगसमओ, सेसछव्वीसंपयडीणं विहत्ति० जह० अंतोमुहुत्तं । सव्वासिमुक्कस्सकालो संखेआणि वस्ससहस्त्राणि । चचासौ सागर पृथत्व है । तथा लब्ध्यपर्याप्तक पंचेन्द्रियका लब्ध्यपर्याप्त पर्यायमें निरन्तर रहनेका जघन्य काल खुद्दाभवप्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिये इन जीवोंके सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व को छोड़कर शेष छब्बीस प्रकृतियोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल उन उन जीवोंकी उस उस पर्यायमें निरन्तर रहनेकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहा है। यहां यह शंका उठाई गई है कि सामान्य और पर्याप्त पंचेन्द्रिय जीवोंके अनन्तानुबन्धीका जघन्य काल एक समय भी संभव है फिर उसे यहां क्यों नहीं कहा। इस शंकाका समाधान वीरसेन स्वामीने दो प्रकारसे किया है। पहले तो यह बतलाया है. कि जिस जीवने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना कर दी है ऐसा उपशम सम्यग्दृष्टि जीव सासादन गुणस्थानमें एक समय रहकर और दूसरे समय में मरकर एकेन्द्रियोंमें नहीं उत्पन्न होता है, इसलिये अनन्तानुबन्धीका जघन्य काल एक समय नहीं बनता है । तथा दूसरे उत्तर द्वारा आचार्यान्तर के अभिप्रायसे अनन्तानुबन्धीका जघन्य काल एक समय स्वीकार कर लिया है जो ऊपर दिखाया ही है । तथा उक्त तीनों प्रकारके जीवोंके सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य काल एक समय उद्वेलनाकी अपेक्षा होता है । और पंचेन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके उक्त दो प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल जो तीन पल्योपमके तीन असंख्यातवें भागोंसे अधिक एक सौ बत्तीस सागर बताया है इसका खुलासा पृष्ठ १०० पर कर आये हैं । और लब्ध्यपर्याप्तकका उस पर्यायमें रहनेका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त होनेसे उनके उक्तं दो प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है ।
१२६. पृथिवीकाय आदि चार कार्यों में सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भाग है तथा शेष छब्बीस प्रकृतियोंका जघन्य काल खुद्दाभवप्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण है । बादर पृथिवीकाय आदि चार बादरकार्यों में सम्यक् प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका काल पृथिवीकाय आदि चार कार्योंके समान है। तथा शेष छब्बीस प्रकृतियोंका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल कर्मस्थितिप्रमाण है । बादरपृथिवीकायिकपर्याप्त आदि चार बादरकायपर्याप्त जीवोंके सम्यक् प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य काल एक समय तथा शेष छब्बीस प्रकृतियोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । और सभी प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [पयडिविहत्ती २ रिवादरकायअपञ्जत्तएसु सम्मत्त-सम्मामि विहत्ति० जह• एगसमओ, सेसाणं पयडीणं विहत्ति० जह खुद्दा०, सव्वासिमुक्क० अंतोमुहुत्तं । चत्सारिसुहुमकायिएसु सम्मत्त-सम्मामि०विह० जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। सेसछव्वीसंपयडीणं विह. जह. खुद्दा०, उक्क० असंखेजा लोगा। सव्वसुहुमपञ्जत्तापजत्ताणमेवं चेव वत्तव्वं । णवरि पअत्तएसु छव्वीसंपयडीणंजह अंतोमुहुत्तं। अठ्ठावीसपयडीणं उक्क० अंतोमुहुत्तं। वणफदिसंख्यात हजार वर्ष है। बादर पृथिवीकायिकअपर्याप्त आदि चार बादरकाय अपर्याप्तजीवोंके सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य काल एक समय और शेष प्रकृतियोंका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण है। तथा सभी प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। सूक्ष्मपृथिवीकाय आदि चार सूक्ष्मकाय जीवोंके सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भाग है। तथा शेष छब्बीस प्रकृतियोंका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल असंख्यातलोकप्रमाण है। सभी सूक्ष्मपर्याप्त और सूक्ष्म अपर्याप्त जीवोंके सभी प्रकृतियोंका काल सूक्ष्मकायिक जीवोंके समान ही कहना चाहिये। इतनी विशेषता है कि उक्त चारप्रकारके सूक्ष्म पर्याप्त जीवोंके छब्बीस प्रकृतियोंका जघन्य काल और अट्ठाईस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। . विशेषार्थ-ऊपर पृथिवीकायिक आदि चार तथा उनके भेद-प्रभेदोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल बताया है। सर्वत्र सम्यकप्रकृति और सम्यग्मिध्यात्वका जघन्य काल एक समय है यह तो स्पष्ट है। तथा जहां विवक्षितकायका उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवेंभागसे अधिक है वहां सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट काल पल्योपमका असंख्यातवां भाग होता है और जहां विवक्षित कायका उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागसे कम है वहां उक्त दोनों प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल कम होता है। तथा शेष छब्बीस प्रकृतियों का काल कहते समय जिस कायका जितना जघन्य और उत्कृष्ट काल हो उतना उन प्रकृतियोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल जानना चाहिये जो ऊपर बताया हो है। ऊपर बादर पृथिवीकाय आदिके छब्बीस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल जो कर्म स्थितिप्रमाण बताया है सो इससे मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरका प्रहण करना चाहिये । परिकर्ममें कर्मस्थितिसे भवस्थिति ली गई है इसलिये यहां कितने ही आचार्य कर्मस्थितिसे बादर एकेन्द्रियोंकी उत्कृष्ट भवस्थिति असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालका ग्रहण करते हैं पर उनका ऐसा मानना ठीक नहीं है, क्योंकि सामान्य बादर जीवका जो भवस्थितिकाल कहा है वही बादर पृथिवीकायिक आदिका नहीं हो सकता। तथा सूत्रग्रन्थों में सामान्य बादर जीवकी भवस्थिति असंख्यातासंख्यात उत्सपिणी और असर्पिणीप्रमाण कही है और बादर पृथिवीकायिक आदिकी भवस्थिति कर्मस्थितिप्रमाण कही है। इसप्रकार इन दोनोंकी भवस्थिति जब भिन्न भिन्न दो प्रकारसे कही
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिविहत्तीए कालागुगमो
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काइए सम्मत्त सम्मामि० विहत्ति० जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे ० भागो । सेसछव्वीसंपयडीणं विहत्ति ० जह० खुद्दा ०, उक्कस्स० अनंतकालमसंखेजा पोग्गल परियट्टा । बादरवणफदिकाइयाणं बादरएइंदियभंगो। तेसिं पञ्जत्तापजत्ताणं बादरेइंदियपत्तापजभंगो । सुहुमवणफदीणं सुहुमेइंदियभंगो । बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीराणं बादरपुढविभंगो। तेसिं पत्तापञ्जाणं बादरपुढविपजत्तापजत्तभंगो । णिगोदजीवेसु सम्मत्त - सम्मामि० विहत्ति० जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । सपडणं विह० जह० खुद्दाभवग्गहणं । उक्क० अढाइञ्जपोग्गल परियट्टा । बादरणिगोदजीवेसु सम्मत्त - सम्मामि ० विहत्ति० जह० एस० उक्क० पलिदो ० है तो एक दूसरी स्थितिके उपचार करनेका कोई प्रयोजन नहीं रहता । अतः यहां कर्मस्थिति से मोहनी की उत्कृष्ट स्थितिका ही ग्रहण करना चाहिये
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वनस्पतिकायिक जीवोंके सम्यक् प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपमका असंख्यातर्वा भाग है। तथा शेष छब्बीस प्रकृतियोंका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । बादर वनस्पतिकायिकोंके सभी प्रकृतियोंका काल बादर एकेन्द्रियोंके समान जानना चाहिये । तथा बादरवनस्पतिकायिकपर्याप्त और बादरवनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीवोंके सभी प्रकृतियोंका काल बादर एकेन्द्रियपर्याप्त और बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके समान जानना चाहिये । सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीवोंके सभी प्रकृतियोंका काल सूक्ष्म एकेन्द्रियोंके समान होता है । बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवोंके सभी प्रकृतियोंका काल बादरपृथिवीकायिक जीवोंके समान होता है । तथा बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त और बादर बनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर अपर्याप्त जीवोंके सभी प्रकृतियोंका काल बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त और बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त जीवोंके समान होता है ।
विशेषार्थ - एक जीव वनस्पतिकाय में कमसे कम खुद्दाभवग्रहण कालतक और अधिक अधिक असंख्यातपुद्गल परिवर्तन कालतक रहता है । इसलिये छब्बीस प्रकृतियोंका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल असंख्यात पुलपरिवर्तनप्रमाण कहा है। परन्तु सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलनाकी अपेक्षा उनका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भाग ही प्राप्त होता है, क्योंकि मिध्यात्वके साथ इससे अधिक कालतक इन प्रकृतियोंका सत्व नहीं रहता है । ऊपर कहे गये शेष बादर वनस्पतिकायिक आदिके सभी प्रकृतियोंका काल बादर एकेन्द्रिय आदिके समान जान लेना चाहिये ।
निगोदजीवोंमें सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपमका असंख्यातवां भाग है । शेष प्रकृतियोंका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहप्रमाण और उत्कृष्ट काल अढ़ाई पुगल परिवर्तनप्रमाण है । बादर निगोद जीवोंमें सम्यक् -
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ असंखे भागो । सेसपयडीणं विहत्ति० जह० खुद्दा०, उक्क० कम्महिदी । बादरणिगोदजीवपजत्ताणं बादरएइंदियपजत्तभंगो । बादरणिगोदजीवअपजत्ताणं बादरएइंदिय अपजत्तभंगो। सुहुमणिगोदाणं सुहुमपुढविभंगो।
६ १२७. तसकायियेसु सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त० विहात्त० जह० एनसमओ, उक्क० बेछावहिसागरोवमाणि तीहि पलिदोवमस्सअसंखेञ्जदिभागेहि सादिरेयाणि । सेसछब्बीसंपयडीणं विहत्ति० जह० खुद्दाभवग्गहणं, उक्क० बेसागरोवमसहस्साणि पुवकोडिपुधत्तेण महियाणि । एवं तसकायियपज्जत्ताणं पि वत्तव्वं । णवरि छन्वीसंपयडीणं विहत्ति० जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० बेसागरोवमसहस्साणि । तसकाइयअपजसाणं पंचिंदियअपञ्जत्तमंगो। प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपमका असंख्यातवां भाग है । तथा शेष छब्बीस प्रकृतियोंका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल कर्मस्थितिप्रमाण है। बादर निगोद पर्याप्त जीवोंके सभी प्रकृतियोंका काल बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंके समान है। बादर निगोद अपर्याप्त जीवोंके सभी प्रकृतियोंका काल बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके समान है। तथा सूक्ष्म निगोद जीवोंके सभी प्रकृतियोंका काल सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीवोंके समान है।
विशेषार्थ-निगोद जीवोंका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल ढाई पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है, अतः इनके छब्बीस प्रकृतियोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल भी उतना ही है। तथा सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपमका असंख्यातवां भाग उद्वेलना की अपेक्षा कहा है जिसका स्पष्टीकरण ऊपर कर आये हैं। बादर निगोद जीवोंके सभी प्रकृतियोंका काल यहां पर अलगसे बताया है पर बादर पृथिवीकायिकके कालसे उसमें कोई विशेषता नहीं है, अतः बादर पृथिवीकायिकके कालका जिसप्रकार पहले खुलासा कर आये हैं उसीप्रकार यहां समझ लेना चाहिये। इसीप्रकार बादर निगोद पर्याप्त आदिके सभी प्रकृतियोंका काल बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त बादिके समान जान लेना चाहिये ।
६१२७.त्रसकायिक जीवों में सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपमके तीन असंख्यातवें भागोंसे अधिक एक सौ बत्तीस सागर है। तथा शेष छब्बीस प्रकृतियोंका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक दो हजार सागर है। इसीप्रकार त्रसकायिक पर्याप्त जीवोंके भी कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके छब्बीस प्रकृतियोंका जघन्य काल अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट काल दो हजार सागर है। त्रसकायिक लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके सभी प्रकृतियोंका काल पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकोंके समान है।
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गा० २२ ]
उत्तरपय डिविहती कालानुगमो
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६१२८. जोगाणुवादेण पंचमण० - पंचवचि० - वेउन्विय० - वेउब्वियमिस्स ० अहावीसंपडणं विहति ० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुतं । णवरि वेउब्वियमिस्स ० छब्बीसंपयडीणं जह० अंतोमुहुतं । कायजोगीसु सम्मत्त सम्मामि० विहत्ति ० जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे ० भागो । सेसछब्बीसंपयडीणं विहत्ति० जह० एगसमओ, उक्त अनंतकालो असंखेजा पोग्गलपरियट्टा । कथमेत्थ एगसमयमेतजहण्णकालोवलंभो चे ?ण; विहत्तिगचरिमसमए कायजोगेण परिणदम्मि तदुवलद्धीदो । ओशलिय ० मिच्छत्त-सम्मत्त - सम्मामि० सोलसकसाय णवणोकसायविहत्ति ० जह० एगसमओ, उक्क० बाबीसवस्ससहस्साणि देखणाणि । ओरालियमिस्स अट्ठावीसपयडीणं विहन्ति जह० खुद्दाभवग्गहणं तिसमयूणं, उक्क० अंतोमुहुतं । णवरि सम्मत्त - सम्मामि ० विशेषार्थ — सकायिक जीवोंका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक दो हजार सागर है, अतः इनके छब्बीस प्रकृतियोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल भी उतना ही है । तथा सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य काल एक समय उद्वेलनाकी अपेक्षा है और उत्कृष्ट काल पल्योपमके तीन असंख्यातवें भागों से अधिक एकसौ बत्तीस सागर उद्वेलनाके कालके भीतर पुनः पुनः सम्यक्त्वकी प्राप्तिकी अपेक्षा है जिसका खुलासा पहले कर आये हैं । पर्याप्त त्रसकायिकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल दो हजार सागर है, इसलिये इनके छब्बीस प्रकृतियोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल भी उतना ही कहा है। शेष कथन सुगम है ।
९१२८. योगमार्गणाके अनुवाद से पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी और वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके अट्ठाईस प्रकृतियोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इतनी विशेषता है कि वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके छब्बीस प्रकृतियोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । सामान्य काययोगी जीवोंके सम्यक्प्रकृति और सम्यगमिथ्यात्वका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। तथा शेष छब्बीस प्रकृतियोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है ।
शंका- यहां सामान्य काययोगी जीवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंका जघन्य काल एक समय कैसे प्राप्त होता है ?
समाधान- उक्त छब्बीस प्रकृतियोंके क्षय होनेके अन्तिम समयमें काययोगसे परिणत होने पर छब्बीस प्रकृतियोंका जघन्य काल एक समय प्राप्त हो जाता है ।
औदारिककाययोगी जीवोंके मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम बाईस हजार वर्ष है । औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके अट्ठाईस प्रकृतियोंका जघन्य काल तीन समय कम
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ विहात्ति० जह० एगसमओ। आहार० अठ्ठावीसपयडीणं विह० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । आहारमि० अट्ठावीसपय० विहत्ती० जहण्णुक्क० अंतोमु० । कम्मइय० अहाबीसप० विहत्ती० जह० एगस०, उक्क० तिण्णि समया । खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इतनी विशेषता है कि इनके सम्यक्प्रकृति और सम्यगमिथ्यात्वका जघन्य काल एक समय है । आहारककाययोगी जीवोंके अट्ठाईस प्रकृतियोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंके अट्ठाईस प्रकृतियोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। तथा कार्मण काययोगी जीवोंके अट्ठाईस प्रकृतियोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय है।
विशेषार्थ-पांचों मनोयोग, पांचों वचनयोग, औदारिककाययोग, वैक्रियिककाययोग और आहारककाययोग इन सबका जघन्य काल एक समय और औदारिककाययोगको छोड़कर शेष सभीका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । तथा औदारिककाययोगका उत्कृष्ट काल कुछ कम बाईस हजार वर्ष है। उक्त योगोंका जघन्य काल एक समय योगपरावृत्ति, गुण परावृत्ति, मरण और व्याघातकी अपेक्षा बताया है। पर यहां योगपरावृत्ति और गुणपरावृत्तिकी अपेक्षा एक समय सम्बन्धी प्ररूपणासे प्रयोजन नहीं है, क्योंकि इनकी अपेक्षा योगोंकी एक समय सम्बन्धी प्ररूपणा आश्रयभेद पर अवलम्बित है, वास्तवमें वहां प्रत्येक योग अन्तर्मुहूर्त काल तक ही रहता है। अब रही मरण और व्याघातकी बात सो पांचों मनोयोग और पांचों वचनयोगका जघन्य काल एक समय मरण और व्याघात दोनों प्रकारसे बन जाता है पर औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोगका जघन्य काल एक समय केवल मरणकी अपेक्षा और आहारककाययोगका जघन्य काल मरण और अद्धाक्षयकी अपेक्षा प्राप्त होता है। औदारिकमिश्रका कपाट समुद्धातकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है, पर उसकी यहां विवक्षा नहीं है, क्योंकि केवली जिनके मोहकी अट्ठाईस प्रकृतियोंका सत्त्व नहीं पाया जाता, अतः यहां औदारिकमिश्रका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त लेना चाहिये । वैक्रियिकमिश्रकाययोग और आहारकमिश्रकाययोगका जघन्य और उत्कृष्ट दोनों प्रकारका काल अन्तर्मुहूर्त है। तथा कार्मणकाययोगका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय है। इसप्रकार योगोंके इन कालोंकी • अपेक्षा मोहकी सभी प्रकृतियोंका काल यहां कहा है। इतनी विशेषता है कि औदारिकमिश्रकाययोग और वैक्रियिकमिश्रकाययोगवाले जीवके सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य काल एक समय भी बन जाता है। सामान्य काययोगमें छब्बीस प्रकृतियोंकी जो एक समय सम्बन्धी प्ररूपणा की है वह उन प्रकृतियोंके क्षय होनेके अंतिम समयमें काययोगके प्राप्त होनेकी अपेक्षासे की है। यद्यपि उस जीवके काययोग अन्तर्मु
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उत्तरपयडिविहत्तीए कालाणुगमो ६ १२६. वेदाणुवादेण इत्थिवेदएसु अणंताणुबंधिचउक्क विह० जह० एगसमओ, उक्क० पलिदोवमसदपुधत्तं । सम्मत्त-सम्मामि० विहत्ति० जह० एगसमओ, उक्क० पणवण्णपलिदो० सादिरेयाणि । सेसबावीसंपयडीणं विहत्ति० जह० एगसमओ, उक्क० पलिदोवमसदपुधत्तं । पुरिसवेदएसु सम्मत्त-सम्मामि० विह० जह० एगसमओ, उक्क० वेछावहिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । सेसछब्बीसपयडीणं विहत्ति० जह० अंतोमुहुत्तं उक्क०सागरोवमसदपुध । णवरि अणंताणु० जह० एगसमओ । णqसयवेदेसु सम्मत्त०-सम्मामि० विहत्ति० जह० एगसमओ, उक्क० तेत्तीसंसागरोवमाणि सादिरेयाणि । सेसाणं पयडीणं विहत्ति० जह० एगसमओ, उक्क० अणंतकालो असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । अवगदवेदएसु चउबीसंपयडीणं विहत्ति० केव० ? जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । एवमकसाय-सुहुमसांपराय०-जहाक्खाद० वत्तव्वं । हूर्त काल तक रहता है पर जहां जहां इन छब्बीस प्रकृतियोंका क्षय होता है वहां वहां क्षय होनेके अन्तिम समयमें मनोयोग या वचनयोगसे काययोगके प्राप्त होने पर काययोगके सद्भावमें उन प्रकृतियोंका सत्त्व एक समय तक ही दिखाई देता है इसलिये सामान्य काययोगमें एक समय सम्बन्धी प्ररूपणा बन जाती है।
६१२९. वेदमार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदियोंमें अनन्तानुबन्धी चतुष्कका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल सौ पल्यपृथक्त्व है। सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक पचपन पल्य है। तथा शेष बाईस प्रकृतियोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल सौ पल्यपृथक्त्व है । पुरुषवेदियोंमें सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक एक सौ बत्तीस सागर है। तथा शेष छब्बीस प्रकृतियोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल सौ सागर पृथक्त्व है। इतनी विशेषता है कि इनके अनन्तानुबन्धीका जघन्य . काल एक समय है। नपुंकवेदियोंमें सम्यक्प्रकृति और सम्यमिथ्यात्वका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। तथा शेष छब्बीस प्रकृतियोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है। तथा अपगतवेदियोंमें चौबीस प्रकृतियोंका काल कितना है ? जघन्य काल एक समय
और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसीप्रकार अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिक संयत और यथाख्यात संयत जीवोंके चौबीस प्रकृतियोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहना चाहिये।
विशेषार्थ-चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई एक स्त्रीवेदी जीव अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला हुआ और दूसरे समयमें मर कर अन्य वेवाला हो गया उसके अनन्तानुबंधीका जघन्य काल एक समय पाया जाता है। स्त्री वेदके साथ एक जीव निरन्तर सौ पल्यपृ
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे .
[पयडिविहत्ती २
थक्त्वकाल तक रहता है, अतः अनन्तानुबन्धी चतुष्कका उत्कृष्ट काल सौ पल्यपृथक्त्व कहा है । सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य काल एक समय उद्वेलनाकी अपेक्षा कैसे घटित होता है इसका उल्लेख पहले कर आये हैं। कोई एक सम्यक्प्रकृतिकी और कोई एक सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तावाला मिथ्यादृष्टि स्त्रीवेदी जीव पचपन पल्यकी आयु लेकर स्त्रीवेदी हुआ और वहां उक्त दोनों प्रकृतियोंकी उद्वेलना होनेके अन्तिम समयमें वे वेदक सम्यग्दृष्टि हो गये और अन्त समयतक सम्यग्दृष्टि वने रहे। अनन्तर यहांसे सम्यग्दर्शमके साथ मर कर पुरुषवेदी हुए इस प्रकार उन स्त्रीवेदी जीवोंके उक्त दोनों प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल साधिकपचपन पल्य प्राप्त होता है। जो स्त्रीवेदी जीव उपशमश्रेणी पर चढ़ कर अवेदी हुआ और लौट कर पुनः एक समय तक स्त्रीवेदी हुआ और दूसरे समयमें मर कर पुरुषवेदी हो गया उसके शेष बाईस प्रकृतियोंका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है। स्त्रीवेदीके इन्हीं बाईस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल जो सौ पल्यपृथक्त्व कहा है वह स्त्रीवेदीके साथ निरन्तर रहनेके कालकी अपेक्षासे कहा है। पुरुषवेदियोंके सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य काल एक समय उद्वेलनाकी अपेक्षा प्राप्त होता है। जो पुरुषवेदी जीव छयासठ सागर काल तक वेदक सम्यक्त्वके साथ रहा पुनः मिथ्यात्वमें आकर द्वितीय वार क्रमसे वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त कर उसके साथ छयासठ सागर काल तक रहा उसके सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट काल साधिक एक सौ बत्तीस सागर प्राप्त होता है। जिसप्रकार स्त्रीवेदी जीवोंके अनन्तानुबन्धीका जपन्य काल एक समय घटित कर आये हैं उसीप्रकार पुरुषवेदी जीवोंके जानना चाहिये । पुरुषवेदके साथ निरन्तर रहनेका काळ सौ सागर पृथक्त्व है अतः अनन्तानुबन्धी चतुष्क और शेष बाईस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल सौ सागर पृथक्त्व कहा है। जो पुरुषवेदी उपशमश्रेणीसे उतर कर तत्काल पुनः उपशमश्रेणीपर चढ़ कर अपगतवेदी हो जाता है उसके पुरुषवेदका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है, इस अपेक्षासे पुरुषवेदीके शेष बाईस प्रकृ. तियोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। स्त्रीवेदी जीवोंके समान नपुंसकवेदी जीवोंके सभी प्रकृतियोंका जघन्य काल एक समय घटित कर लेना चाहिये। जो सम्यक्त्वप्रकृति
और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तावाला सातवें नरकमें उत्पन्न होनेसे पूर्व नपुंसकवेदी रहा और वहां उत्पन्न होने पर आदि और अन्तके दो अन्तर्मुहूर्तोंको छोड़कर सम्यग्दृष्टि रहा उसके सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर प्राप्त होता है। तथा नपुंसकवेदके साथ निरन्तर रहनेका काल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन है अतः शेष छब्बीस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन कहा है। अवगतवेद आदि शेष मार्गणाओंमें चौबीस प्रकृतियोंका जघन्य काल एक समय मरणकी अपेक्षा और उत्कृष्ट काल अन्तर्महर्त उस उस मार्गणास्थानके उत्कृष्ट कालकी अपेक्षा कहा है।
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उत्तरपयडिविहत्तीए कालानुगमो
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९ १३०. कसायाणुवादेण चत्तारिकसाय० मिच्छत्त- सम्मत्त - सम्मामि ० - अनंताणु० विह० मणभंगो | सेसाणं पयडीणं विहत्ति • जहण्णुक्क अंतोमुहुत्तं ।
१३१. णाणाणुवादेण मदि-सुद-अण्णाणि मिच्छत्त- सोलसकसाय-णवणोकसायविहत्ति तिणि भंगा। तत्थ जो सो सादिओ सपज्जवसिदो तस्स जह० अंतोमुहुचं, उक्क अद्धपोग्गल परियङ्कं देणं । सम्मत्त सम्मामि ० विहत्ति ० जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० पलिदो ० असंखे ० भागो । एवं मिच्छादिहिस्स वत्तच्वं । विभंगणाणीसु सम्मत० - सम्मामि ० मदि - अण्णाणिभंगो | णवरि जह० एयसमओ । सेसाणं पयडीणं विह० जह० एग
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९१३०. कषायमार्गणाके अनुवादसे चारों कषायवाले जीवोंके मिध्यात्व, सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीका काल मनोयोगियोंके समान है । तथा शेष इक्कीस प्रकृतियोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ।
विशेषार्थ - कषायों के परिवर्तनकी अपेक्षा मिध्यात्व आदि सात प्रकृतियोंका अघन्य काल एक समय बन जाता है, क्योंकि जिस समय इन सात प्रकृतियोंका अभाव होता है उसके पहले समय में एक कषायका काल पूरा होकर यदि अन्तिम समयमें दूसरी कषाय आ जाती है तो उस कषायके सद्भावमें ये प्रकृतियां एक ही समय दिखाई देती है । या मिथ्यात्वको छोड़कर शेष छह प्रकृतियोंकी पुनः उत्पत्ति संभव है, अतः जिस समय ये छह प्रकृतियां पुनः सत्त्वको प्राप्त होती हैं वह यदि किसी कषायके उदयका अन्तिम समय हो तो उस कषायमें वे छहों प्रकृतियां एक समय दिखाई देती हैं । इस प्रकार इन सात प्रकृतियोंका चारों कषायोंमें जघन्य काल एक समय बन जाता है । पर इस प्रकार शेष इक्कीस प्रकृतियों का क्षय क्षपकश्रेणीमें होता है और क्षपकश्रेणी पर जीव जिस कषायके उदय के साथ चढ़ता है अन्त तक उसी कषायका उदय बना रहता है । इसलिए चारों कषायोंमें शेष इक्कीस प्रकृतियोंका काल अन्तर्मुहूर्त है । तथा सभी प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्रत्येक कषायके कालकी अपेक्षा जानना चाहिये, क्योंकि सामान्य रूप से किसी भी कषायका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्तसे कम नहीं है ।
१३१. ज्ञानमार्गणा के अनुवाद से मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंके मिध्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायके तीन भंग होते हैं । उनमें से जो सादिसान्त भंग है उसकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्द्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण है । तथा सम्यक् प्रकृति और सम्यग्मिध्यात्वका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पल्योपमका असंख्यातवां भाग है । इसीप्रकार मिध्यादृष्टिके सभी प्रकृतियोंका काल कहना चाहिये । विभंग ज्ञानियोंमें सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका काल मत्यज्ञानियोंके समान है । इतनी विशेषता है इनके उक्त दोनों प्रकृतियोंका जघन्य काल एक समय है । तथा शेष छब्बीस प्रकृतियोंका जघन्य काळ एक समय है और उत्कृष्ट काळ कुछ कम
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे .
[ पयडिविहत्ती २
समओ, उक्क० तेत्तीसंसागरोवमाणि देसूणाणि ।
१३२. आमिणि-सुद०-ओहि०-अणंताणु० चउक्कविहत्ति० जह• अंतोमुहुसं, उक्क० छावहिसागरो० देसूणाणि । सेसाणं पयडीणं एवं चेव । णवरि उक्क० छावष्टिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । एवमोहिदंसण-सम्मादिष्टि त्ति वत्तव्वं । मणपज०तेतीस सागर है।
विशेषार्थ-अभव्य मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानीके सम्यगप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वको छोड़कर शेष छब्बीस प्रकृतियोंका काल अनादि-अनन्त है । जिस भव्यने एक बार सम्यक्त्व प्राप्त कर लिया है उसके उक्त छब्बीस प्रकृतियोंका काल अनादि सान्त है। तथा इस जीवके मिथ्यात्वको प्राप्त हो जाने पर इन छब्बीस प्रकृतियोंका काल सादि-सान्त हो जाता है। उनमेंसे यहां सादि-सान्तकी अपेक्षा काल कहा जा रहा है। जो सम्यग्दृष्टि जीव अन्तर्मुहूर्त काल तक मिथ्यात्वमें रहकर पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त हो जाता है उसके उक्त छब्बीस प्रकृतियोंका तथा सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त होता है। तथा जो अर्द्धपुद्गलपरिवर्तन काल शेष रहने पर उसके प्रारम्भमें सम्यक्त्वको प्राप्त करता है, और छह आवली शेष रहने पर सासादनमें और वहांसे मिथ्यात्वमें जाकर परिभ्रमण करता है। पुनः अन्तिम भवमें अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहने पर सम्यक्त्व प्राप्त कर मोक्ष जाता है, उसके उक्त छब्बीस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्द्धपुद्गलपरिवर्तन प्रमाण होता है। किन्तु सम्यकप्रकृति और सम्यगमिथ्यात्वका उत्कृष्ट काल पल्योपमका असंख्यातवां भाग ही होता है इससे अधिक नहीं, क्योंकि पल्योपमके असंख्यातवें भाग कालके द्वारा उद्वेलना होकर इनका अभाव हो जाता है, पुनः सम्यक्त्वके विना इनका सत्त्व नहीं होता। सम्यक्प्रकृति और सम्यमिथ्यात्वकी उद्वेलनाके अन्तिम समयमें विभंगज्ञानके प्राप्त होने पर विभंगज्ञानियोंके उक्त दोनों प्रकृतियोंका जघन्य काल एक समय होता है। तथा जो सम्यग्दृष्टि सासादन गुणस्थानको प्राप्त होकर एक समय विभंगज्ञानके साथ रहता है और द्वितीय समयमें मरकर अन्य गतिको चला जाता है, उसके सभी प्रकृतियोंका विभंगज्ञानकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है। विभंगज्ञानका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है, इसलिये छब्बीस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर कहा। और उत्कृष्ट उद्वेलना कालकी अपेक्षा शेष दो प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल मत्यज्ञानियोंके समान पल्योपमका असंख्यातवां भाग कहा ।
१३२. मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंके अनन्तानुबन्धी चारका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम छयासठ सागर है। तथा शेष प्रकृतियोंका काल भी इसीप्रकार है। इतनी विशेषता है कि शेष प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ
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गा० २२ ]
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संजद० अष्ठावीसंपयडीणं विहत्ति० जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० पुव्वकोडी देसूणा । एवं परिहार०-संजदासंजद० वत्तव्वं । सामाइयच्छेदो० चउवीसण्ह पयडीणं विहत्ति० सागर है। इसीप्रकार अवधिदर्शनी और सम्यग्दृष्टिके सभी प्रकृतियोंका काल कहना चाहिये।
विशेषार्थ-मतिज्ञानी आदि जीवोंके सभी प्रकृतियोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है यह तो स्पष्ट है, क्योंकि कोई भी सम्यग्दृष्टि अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर क्षपकश्रेणी पर चढ़कर केवलज्ञान प्राप्त कर सकता है, या मिथ्यात्वमें जा सकता है। पर उत्कृष्ट कालमें कुछ विशेषता है। अनन्तानुबन्धीका उत्कृष्ट काल कुछ कम छयासठ सागर होता है, क्योंकि मतिज्ञानी आदि जीवोंके अनन्तानुबन्धीका अधिक से अधिक काल तक सत्त्व वेदक सम्यक्त्वके साथ ही प्राप्त होता है और वेदक सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल कृतकृत्य वेदकके कालको मिलाने पर ही पूरा छयासठ सागर होता है । अव यदि इसमेंसे मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वके क्षपण कालको कम कर दिया जाय और वेदकसम्यक्त्वके प्रारंभमें हुए उपशमसम्यक्त्वके कालको मिला दिया जाय तो यह काल छयासठ सागरसे कम होता है। अतः अनन्तानुबन्धीका उत्कृष्ट काल कुछ कम छयासठ सागर कहा है। और इस कालमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृतिके क्षपण होने तकके कालको क्रमशः मिला देने पर मिथ्यात्व आदि प्रत्येकका काल क्रमशः साधिक छयासठ सागर हो जाता है । तथा शेष इक्कीस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कम चार पूर्वकोटि अधिक छयासठ सागर प्राप्त होता है, क्योंकि संसार अवस्थामें सामान्य सम्यक्त्वका काल चार पूर्वकोटि अधिक छयासठ सागर है। इसमेंसे चारित्रमोहनीयकी क्षपणाके बादके अन्तमुहूर्त कालको कम कर देने पर उक्त काल प्राप्त हो जाता है ।
मनःपर्ययज्ञानी और संयत जीवोंके अट्ठाईस प्रकृतियोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटि है । इसीप्रकार परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीवोंके कहना चाहिये ।
विशेषार्थ-इन सब मार्गणावाले जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है यह तो स्पष्ट है। तथा उक्त सभी मार्गणावालोंका उत्कृष्ट काल सामान्यरूपसे यद्यपि देशोनपूर्वकोटि है पर देशोनसे कहां कितना काल लेना चाहिये इसमें विशेषता है। मनःपर्ययज्ञानी और संयतके देशोनसे आठ वर्ष और अन्तर्मुहूर्त लेना चाहिये । परिहारविशुद्धि संयतके देशोनसे अड़तीस वर्ष लेना चाहिये। कुछ आचार्योंके मतसे बाईस या सोलह वर्ष लेना चाहिये । क्योंकि उनके मतसे बाईस या सोलह बर्षमें परिहारविशुद्धि संयम प्राप्त हो जाता है। तथा संयतासंयतके देशोनसे तीन अन्तर्मुहूर्त लेना चाहिये । इसप्रकार जिस मार्गणाका जितना उत्कृष्ट काल है उतना वहां अट्ठाईस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ जह० एगसमओ, उक्क. पुवकोडी देसूणा। अणंताणु०चउक्कविहत्ति० जह० अंतोमुहुतं, उक्क० पुष्वकोडी देरणा । असंजदेसु मिच्छत्त-सोलसकसाय-णवणोक० विह मदिअण्णाणिभंगो । सम्मत्त-सम्मामि० विहत्ति. केव० ? जह० एगसमओ, अंतोमुहुतं । उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । चक्खुदंसणी. तसपज्जरभंगो ।
सामायिक और छेदोपस्थापना संयतके चौबीस प्रकृतियोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटि है। तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्कका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटि है।
विशेषार्थ-जो जीव उपशमश्रेणीसे उतरकर दसवें गुणस्थानसे नौवें गुणस्थानमें आकर और वहां सामायिक संयम या छेदोपस्थापना संयमके साथ एक समय तक रहकर दूसरे समयमें मर जाता है उस सामायिक या छेदोपस्थापना संयत जीवके चौबीस प्रकृतियोंका जघन्य काल एक समय पाया जाता है । अनन्तानुबन्धीका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त सामायिक संयत और छेदोपस्थापना संयतके जघन्य कालकी अपेक्षा है । तथा इसीप्रकार सभी प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल भी सामायिक और छेदोपस्थापना संयतके उत्कृष्ट कालकी अपेक्षा देशोन पूर्वकोटि जानना चाहिये । यहां देशोनसे आठ वर्ष और अन्तर्मुहूर्त लेना चाहिये ।
असंयतोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायका काल मत्यज्ञानियोंके उक्त प्रकृतियोंके कहे गये कालके समान है। तथा असंयतोंके सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिध्यात्षका काल कितना है ? जघन्य काल क्रमसे एक समय और अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ अधिक तेतीस सागर है। तथा चक्षुदर्शनी जीवोंके सब प्रकृतियोंका काल त्रसपर्याप्त मीचोंके समान होता है।
विशेषार्थ-असंयतोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायके कालके अनादिअनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त ये तीन भङ्ग होते हैं। उनमें से प्रकृतमें सादिसान्त काल विवक्षित है। जो संयत जीव अन्तर्मुहूर्त कालतक असंयत रह कर पुनः संयत हो जाता है उस असंयतके उक्त प्रकृतियोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है। तथा जो अपुद्गल परिवर्तनके आदि समयमें संयमको प्राप्त हुआ है अनन्तर उपशम सम्यक्त्वके कालमें छह आवली शेष रहने पर सासादन सम्यग्दृष्टि हो गया है और इसके वाद मिथ्यादृष्टि हो गया है। वह जब अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण कालमें अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर संयत होता है तब असंयतके कालका प्रमाण कुछ कम अर्द्धपुद्गल परिवर्तन प्राप्त हो जाता है। असंयतके उक्त छब्बीस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल भी यही है, क्योंकि इतने काल तक उक्त प्रकृतियोंका बराबर सत्त्व पाया जाता है। जो संयत जीव कृतकृत्यवेदकके कालमें एक समय शेष रहने पर मर कर अन्य गतिमें जाकर असंयत हो जाता है। उस असंयत सम्यग्दृष्टिके सम्यक्प्रकृतिका जघन्य काल एक समय होता है। सम्यग्मिथ्या
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गा० २२ ] उत्तरपयडिविहत्तीए कालाणुगमो
१२१ ___ १३३. लेस्साणुवादेण किण्ह-णील-काउलेस्सासु मिच्छत्त-सोलसकसाय-णवणोकसाय० विहत्ति० जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० तेत्तीस सत्तारस सत्त सागरोवमाणि सादिरेयाणि । सम्मत्त०-सम्मामि० विहत्ति० जह० एगसमओ, उक्क० मिच्छत्तभंगो। तेउपम्म-लेस्सासु मिच्छत्त-सोलसकसाय-णवणोकसाय० विहत्ति० जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० बे अहारस सागरो० सादिरेयाणि । एवं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं वचब्वं । णवरि विह० जह० एगसमओ। सुक्कलेस्साए मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-सोलसकसाय-णवणोक० विह० केव० ? जह० अंतोमु० एगसमओ, उक्क० तेत्तीसंसागरोवमाणि सादिरेयाणि । - ६१३४. अभवसिद्धिय० छब्बीसण्हं पयडीणं विह केव० १ अणादिया अपज्जवसिदा। त्वकी सत्तावाला जो संयत जीव अन्तर्मुहूर्त काल तक असंयत रह कर पुनः संयत हो जाता है, उस असंयतके सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त होता है। कोई एक वेदक सम्यग्दृष्टि संयत जीव मर कर तेतीस सागरकी आयुवाला देव हुआ और वहांसे मर कर मनुष्य पर्यायमें आठ साल तक असंयत रहा उसके सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर प्राप्त होता है ।
६१३३. लेश्या मार्गणाके अनुवादसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्यामें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कृष्ण लेश्यामें साधिक तेतीस सागर, नील लेश्यामें साधिक सत्रह सागर और कापोत लेश्यामें साधिक सात सागर है । तथा उक्त तीन लेश्याओंमें सम्यक्प्रकृति और सम्यमिथ्यात्वका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल मिथ्यात्वप्रकृतिके उत्कृष्ट कालके समान है। पीत और पद्म लेश्यामें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पीतलेश्यामें साधिक दो सागर और पालेश्यामें साधिक अठारह सागर है। उक्त दोनों लेश्याओंमें इसीप्रकार सम्यक्प्रकृति और सभ्यग्मिध्यात्वका काल कहना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनका जघन्य काल एक समय है। शुक्ललेश्यामें मिथ्यात्व सम्यक्प्रकृति, सम्यमिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंका काल कितना है ? मिथ्यात्व सोलह कषाय और नौ नोकषायोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और शेषका जघन्य काल एक समय है। तथा सभी प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है।
विशेषार्थ-उक्त छहों लेश्याओंमें सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य कालको छोड़कर शेष समस्त प्रकृतियोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी लेश्याके जघन्य और उत्कृष्ट कालके समान जानना चाहिये । छहों लेश्याओंमें सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य काल जो एक समय कहा है वह उक्त दो प्रकृतियोंकी उद्वेलनामें एक समय शेष रहने पर उस उस लेश्याके प्राप्त होनेसे बन जाता है।
६१३४.अभव्योंके छब्बीस प्रकृतियोंका काल कितना है ? अनादि-अनन्त है। क्षायिक
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ पय डिविहत्ती २
०
खइयसम्मादिट्टीसु एकबी सपय० विह० जह० अंतोमुहुत्तं उक्क० तेत्तीसं सागरो० सादिरेयाणि । वेदयसम्मादिट्ठीसु मिच्छत्त सम्मामि० अणंताणु० चउक्क० विहत्ति ० केव० १ जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० छावहि सागरोवमाणि देणाणि । सम्मत्त बारसकसायraणोकसाहित्ति केव० ९ जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क छावहिसागरोवमाणि । उवसमसम्मादिट्ठी अद्यावी संपयडीणं विहत्ति० के ० १ जहण्णुक्क० अंतोमुहुत्तं । एवं सम्मामिच्छते वत्तव्वं । सासणे अठ्ठावीसपय० विह० जह० एगसमओ, उक्क० छ आवलियाओ । सणि० पुरिसवेदभंगो । णवरि, मिच्छत्तादीणं जह० खुद्दाभवग्गहणं । असणि० एइंदियभंगो । आहारि० मिच्छत्त बारसकसाय- णवणोक० विह० केव० सम्यग्दृष्टियों में इक्कीस प्रकृतियों का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है । वेदकसम्यग्दृष्टियों में मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका काल कितना है ? जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल देशोन छयासठ सागर है । सम्यक्प्रकृति, बारह कषाय और नौ नोकषायोंका काल कितना है ? जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल छ्यासठ सागर है । उपशमसम्यग्दृष्टियों में अट्ठाईस प्रकृतियोंका काल कितना है ? जघन्य और उत्कृष्ट दोनों काल अन्तर्मुहूर्त हैं । सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान में सभी प्रकृतियोंका काल उपशमसम्यग्दृष्टियोंके समान कहना चाहिये । सासादनमें अट्ठाईस प्रकृतियों का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल छह आवली है ।
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विशेषार्थ - जिस सम्यक्त्वका जितना जघन्य और उत्कृष्ट काल है उस सम्यक्त्वमें संभव सभी प्रकृतियोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल उतना जानना चाहिये । केवल वेदकसम्यक्त्वकी अपेक्षा प्रकृतियोंके उत्कृष्ट कालमें कुछ विशेषता है । यद्यपि वेदकसम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल पूरा छयासठ सागर बताया है पर इसमें कृतकृत्य वेदकका काल भी सम्मिलित है, अतः वेदकसम्यक्त्वके काल मेंसे कृतकृत्य वेदकके कालको कम कर देने पर वेदकसम्यक्त्वका जो शेष काल रहता है वह सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट काल है । इसमें से सम्यग्मिध्यात्वके क्षपणकालको कम कर देने पर जो काल शेष रहता है वह मिथ्यात्वका उत्कृष्ट काल है । इसमें से मिथ्यात्वके क्षपणकालको कम कर देने पर जो काल शेष रहता है वह अनन्तानुबन्धीका उत्कृष्ट काल है । सम्यक्प्रकृति, बारह कषाय और नौ नोकषायका वेदक सम्यक्त्वकी अपेक्षा जो पूरा छयासठ सागर काल बतलाया है वह सुगम है, क्योंकि कृतकृत्य वेदकसम्यग्दृष्टि के भी इन प्रकृतियोंका सत्त्व पाया जाता है और कृतकृत्यवेदक के कालसहित वेदकसम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल पूरा छयासठ सागर है ।
संज्ञी जीवोंके सभी प्रकृतियों का काल पुरुषवेदीके कहे गये सभी प्रकृतियों के कालके समान है । इतनी विशेषता है कि संज्ञी जीवोंके मिध्यात्व आदिक बाईस प्रकृतियोंका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण है । असंज्ञी जीवोंके सभी प्रकृतियोंका काल एकेन्द्रियोंके कहे
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गा० २२ ]
उत्तरपय डिविहत्तीए अंतरागुगमो
जह० खुद्दा० तिसमयूर्ण, उक्क० अंगुलस्स असंखे ० भागो । भंगो। णवरि, जह० एगसमओ । अणताणु० चउक्कविह० जह० एगसमओ | अणाहारि० कम्मइय० भंगो । एवं कालो समत्तो ।
1
§ १३५. अंतरागमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मिच्छत्तबारसकसाय- raणोकसायाणं णत्थि अंतरं । सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणं विह० जह० एगसमओ, उक्क० अद्धपोग्गलपरियङ्कं देखणं । अनंताणुबंधिचउक्क० विहत्ति० जह० गये सभी प्रकृतियों के कालके समान है । आहारक जीवोंके मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायका काल कितना है ? जघन्य काल तीन समय कम खुद्दाभवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अंगुलके असंख्यातवें भाग है । तथा सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका काल ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि जघन्य काल एक समय है । अनन्तानुबन्धी चतुष्कका काल मिध्यात्व के समान है । इतनी विशेषता है कि जघन्य काल एक समय है | अनाहारक जीवोंके सभी प्रकृतियोंका काल कार्मणकाययोगी के कहे गये सभी प्रकृतियोंके कालके समान है ।
विशेषार्थ - संज्ञी जीवोंका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण है, अतः इनके मिथ्यात्व, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध आदि बारह कषाय और नौ नोकषायोंका जघन्य काल पुरुषबेदियोंके समान अन्तर्मुहूर्त न होकर खुद्दाभवग्रहणप्रमाण कहा है। इनका शेष कथन पुरुषवैदियों के समान है। उससे इसमें कोई विशेषता नहीं । असंज्ञियोंमें एकेन्द्रिय भी आ जाते हैं । और उत्कृष्ट काल एकेन्द्रियोंका सबसे अधिक है, अतः असंज्ञियोंके सभी प्रकृतियोंका काल एकेन्द्रियोंके समान कहा है । आहारक जीवोंका जघन्य काल तीन समय कम खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसी अपेक्षासे इनके मिध्यात्वादि बाईस प्रकृतियोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल उतना ही कहा है । तथा इनके सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य काल एक समय उद्वेलनाकी अपेक्षा है। तथा अनन्तानुबन्धीका जघन्य काल एक समय जिस प्रकार ऊपर घटित कर आये हैं उसी प्रकार आहारकके भी घटित कर लेना चाहिये । शेष कथन सुगम है ।
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सम्मत्त - सम्मामि० ओघ - मिच्छत्तभंगो | णवरि,
इसप्रकार कालानुयोगद्वार समाप्त हुआ ।
६१३५. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से ओघनिर्देशकी अपेक्षा मिध्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंका अन्तरकाल नहीं है। सम्यक्प्रकृति और सम्यमिध्यात्वका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल देशोन अर्द्धपुद्गल परिवर्तन है । अनन्तानुबन्धी चतुष्कका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक सौ बत्तीस सागर है । इसीप्रकार अच
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[पयडिविहत्ती २
अंतोमुहुत्तं, उक्क वेछावहिसागरोवमाणि देसूणाणि । एवमचक्खु०-भवसिद्धि० वत्तव्वं ।
१३६. आदेसेण णिरयगदीए णेरइएसु बाबीसंपयडीणं णत्थि अंतरं, छण्हं पयडीणं जह० एगसमओ अंतोमुहुत्तं, उक्क० तेत्तीसंसागरोवमाणि देसूणाणि | पढमादि जाव सत्तमि ति सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-अणंताणुबंधिचउक्काणं जह० एगसमओ अंतोमुहुत्तं क्षुदर्शनी और भव्य जीवोंके कहना चाहिये ।।
विशेषार्थ-सामान्यसे मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायका अन्तरकाल नहीं पाया जाता है, क्योंकि इन प्रकृतियोंका अभाव हो जाने पर पुनः इनकी उत्पत्ति नहीं होती है। जो उपशमसम्यक्त्वके सन्मुख है उसके उपशमसम्यक्त्व के प्राप्त होनेके उपान्त्य समयमें यदि सम्यमिथ्यात्व या सम्यक्प्रकृतिकी उद्वेलना हो जाय अनन्तर एक समय मिथ्यात्वके साथ रहकर द्वितीय समयमें उपशम सम्यक्त्व प्राप्त हो तो उसके सम्यक्प्रकृति
और सम्यग्मिथ्यात्वका एक समय अन्तरकाल प्राप्त होता है। उक्त दोनों प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल जो देशोन अर्द्धपुद्गलपरिवर्तन बताया है सो यहां देशोन पदसे पल्योपमका असंख्यातवां भाग काल लेना चाहिये, क्योंकि उपशमसम्यक्त्वके अनन्तर मिथ्यात्व में जाकर इतने कालके द्वारा इन दोनों प्रकृतियोंकी उद्वेलना होकर अभाव होता है। जो उपशमसम्यग्दृष्टि अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके पुन: उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवली शेष रहने पर सासादनगुणस्थानको प्राप्त होता है उसके अनन्तानुबन्धीका जपन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त पाया जाता है। जिस जीवने उपशमसम्यक्त्वके कालके मीतर अतिलघु अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना कर ली है पुनः उपशमसम्यक्त्वके अनन्तर वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त कर लिया है, और अन्तर्मुहूर्त कम छयासठ सागर वेदकसम्यक्त्वका काल व्यतीत होनेपर मिश्रगुणस्थानमें अन्तर्मुहूर्त व्यतीतकर पुनः वेदकसम्यक्त्व प्राप्त कर लिया है तथा इस दूसरी वार प्राप्त हुए वेदकसम्यक्त्वके उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कम छयासठ सागरके व्यतीत होनेपर मिथ्यात्वमें जाकर अनन्तानुबन्धीका सत्त्व प्राप्त कर लिया है उसके अनन्तानुबन्धी चतुष्कका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक सौ बत्तीस सागर होता है। इसप्रकार ऊपर ओघकी अपेक्षा जो अन्तरकाल कहा है अचक्षुदर्शनी और भव्य जीवोंके उक्त प्रकृतियोंका अन्तरकाल उतना ही जानना चाहिये।
६१३६.आदेशनिर्देशकी अपेक्षा नरकगतिमें नारकियोंमें बाईस प्रकृतियोंका अन्तर काल नहीं है। तथा शेष छह प्रकृतियोंमेंसे सम्यक्प्रकृति और सम्यमिथ्यात्वका जघन्य अन्तरकाल एक समय और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । तथा छहों प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागर है । पहली पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक प्रत्येक नरकमें सम्यक्प्रकृति और सम्यगमिथ्यात्वका जघन्य अन्तरकाल एक
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गा० २२ ] उत्तरपयडिविहत्तीए अंतराणुगमो
१२५ उक्क० सगष्टिदी देसूणा । मिच्छत्त०-बारसकसाय-णवणोक० णत्थि अंतरं ।
६१३७. तिरिक्खगईए तिरिक्खेसु सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमोघभंगो। अणंताणुबंधिचउक्क विहत्ति० अंतरं जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० तिण्णि पलिदो० देसूणाणि । सेसाणं पयडीणं णत्थि अंतरं । पंचिदियतिरिक्ख-पंचिं०तिरि०पञ्ज०-पंचितिरि०जोणिणी० मिच्छत्त-बारसकसाय-णवणोकसाय विहत्ति० केव० ?णत्थि अंतरं । सम्मत्त-सम्मामि०विहत्ति० अंतरं केव० ? जह० एगसमओ, उक्क० तिण्णि पलिदो० पुवकोडिपुधत्तेणसमय और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका जघन्य अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त है । तथा छहों प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपने अपने नरककी स्थितिप्रमाण है। तथा सातों नरकोंमें बाईस प्रकृतियोंका अन्तरकाल नहीं है।
विशेषार्थ-सम्यकप्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका जघन्य अन्तरकाल जिस प्रकार सामान्यसे घटित करके लिख आये हैं उसी प्रकार यहां सर्वत्र जान लेना चाहिये । जिसके सम्यक्प्रकृति या सम्यक्मिथ्यात्वकी उद्वेलनामें एक समय शेष है ऐसा जीव विवक्षित किसी एक नरकमें अपने नरककी उत्कृष्ट आयु लेकर उत्पन्न हुआ और वहां उसने दूसरे समयमें सम्यक्प्रकृति या सम्यग्मिथ्यात्वका अभाव कर दिया अनन्तर जीवन भर वह जीव मिथ्यात्वके साथ रहा किन्तु जीवनके अन्तमें अन्तर्मुहूर्त कालके शेष रहने पर उसने उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करके उक्त दोनों प्रकृतियोंकी सत्ता प्राप्त कर ली उसके उस उस नरककी अपेक्षा उक्त दोनों प्रकृतियोंका उक्त प्रमाण उत्कृष्ट अन्तरकाल पाया जाता है। अनन्तानुबन्धीका उत्कृष्ट अन्तरकाल भी इसीप्रकार घटित करना चाहिये। पर इतनी विशेषता है कि प्रारंभमें पर्याप्त अवस्थाके होनेपर सम्यक्त्व उत्पन्न कराके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करा लेना चाहिये, तब जाकर अनन्तानुबन्धीका अन्तरकाल प्रारंभ होता है और जीवन भर वेदकसम्यक्त्वके साथ रखकर मरणके अन्तिम समयमें मिथ्यात्वमें ले जाना चाहिये। सातवें नरकमें मरनेसे अन्तर्मुहूर्त पहले मिथ्यात्वमें ले जाना चाहिये । सातवें नरकमें जो उत्कृष्ट अन्तरकाल है वही सामान्यसे नारकियोंके उक्त छह प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल जानना चाहिये। शेष बाईस प्रकृतियोंका अन्तरकाल नहीं पाया जाता, यह सुगम है।
१३७. तियंचगतिमें तिथंचोंमें सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका अन्तरकाल ओघके समान है। तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्कका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तीन पल्य है। तथा शेष बाईस प्रकृतियोंका अन्तरकाल नहीं है। पंचेन्द्रियतियंच, पंचेन्द्रियतिथंच पर्याप्त और पंचेन्द्रियतिथंच योनिमती जीवोंके मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायका अंतरकाल कितना है ? इन बाईस प्रकृतियोंका अंतरकाल नहीं है। सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिध्यात्वका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तर
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [पयडिविहत्ती २ म्भहियाणि । अणंताणुबंधिचउक्क तिरिक्खोघमंगो। एवं मणुसपज०-मणुसिणीसु वत्तव्वं । पंचिंदियतिरि०अपज. सव्वपयडीणं णत्थि अंतरं । एवं मणुसअपज. अणुदिसादि जाव सव्वत्ति सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज-तस०अपज-सव्वपंचकाय-ओरालियमिस्स०-वेउव्वियमिस्स-आहार-आहारमिस्स०-कम्म इय०-अवगदवेद-अकसाय०- मदिसुदअण्णाण-विभंग०-आमिणि०- सुद०-ओहि०-मणपज०-संजद०-सामाइय-छेदो०-परिहार०-सुहुम०-जहाक्खाद०-संजदासंजद-ओहिकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम है। अनन्तानुबन्धी चतुष्कका अन्तरकाल तिर्यचसामान्यके समान है। इसीप्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंके अन्तर काल कहना चाहिये ।
विशेषार्थ-ऊपर बताये गये सभी मार्गणास्थानोंमें सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिध्यात्व का जघन्य अन्तरकाल एक समय जिसप्रकार ओघ प्ररूपणामें घटित करके लिख आये हैं उसी प्रकार यहां भी उस उस मार्गणामें जान लेना चाहिये । सामान्यतिर्यंचोंके उक्त दोनों प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल जो ओघके समान कहा है उसका इतना ही मतलब है कि
ओघकी अपेक्षा उक्त प्रकृतियोंके अन्तरकालमें जिसप्रकार पल्योपमके असंख्यातवेंभागसे न्यून अर्द्धपुद्गलपरिवर्तनका ग्रहण किया है उसीप्रकार यहां भी ग्रहण करना चाहिये । पर इतनी विशेषता है कि यहां अर्धपुद्गलपरिवर्तनके कालमें अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर सम्यक्त्व न ग्रहण कराकर उपान्त्य भवमें तिथंचपर्यायमें उत्पन्न कराकर उस पर्याय के अन्तमें सम्यक्त्व प्रहण करावे । और इसप्रकार प्रारंभमें उद्वेलनासंबन्धी पल्योपमके असंख्यातवेंभाग कालको और अन्त में दो अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष कालको अर्धपुद्गलपरिवर्तनमेंसे पटा देने पर जो काल शेष रहता है वह उक्त दोनों प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल होता है। पंचेन्द्रियादि तीन प्रकारके तिर्यच और मनुष्यपर्याप्त तथा मनुष्यनियोंका जो पंचानवे पूर्वकोटि अधिक तीन पल्योपम आदि उत्कृष्ट काल कहा है उसमें अन्तर्मुहूर्त कालके घटा देने पर शेष काल उस उस मार्गणामें सम्यकप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तरकाल जान लेना चाहिये। अनन्तानुबन्धीका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल सुगम है इसलिये यहां नहीं लिस्वा है।
पंचेन्द्रियतिथंच लब्ध्यपर्याप्तकोंके सभी प्रकृतियोंका अन्तरकाल नहीं है। इसीप्रकार लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य, अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव, सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, त्रसलब्ध्यपर्याप्त, सभी प्रकारके पांचों स्थावरकाय,
औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत,
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दंसण-अभव्व०-सम्मादि०-खइय०-वेदग०-उवसम०-सासण-सम्मामि०-मिच्छादि० असण्णि-अणाहारएत्ति वत्तव्यं ।
६१३८. देवेसु सम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणुबंधिचउक्क० विहत्ति० अंतरं केव० ? जह० एगसमओ अंतोमुहत्तं, उक्क० एकत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि । सेसाणं पयडीणं णत्थि अंतरं । भवणवासि० जाव उवरिमगेवजेत्ति एवं चेव वत्तव्वं । णवरि, अप्पप्पणो हिदीओ णादव्याओ । पंचिंदिय-पंचिं० पञ्ज०-तस-तसपज्ज० सम्मत्त-सम्मामि० विहत्ति० अंतरं जह० एगसमओ, उक्क० सगहिदी देसूणा । अणंताणुबंधिचउक्क० परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्म सांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, अभव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, मिध्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिये।
विशेषार्थ-जिस मार्गणामें मिथ्यात्व और सम्यक्त्व दोनों अवस्थाएँ हो सकती हैं उसी मार्गणामें ही सम्यक्प्रकृति आदि छह प्रकृतियोंका अन्तरकाल पाया जाता है शेष मार्गणाओं में नहीं। ये ऊपर जो मार्गणाएँ गिनाई हैं ये ऐसी मार्गणाएँ हैं कि इनमें मिथ्यात्व
और सम्यक्त्व दोनों अवस्थाएँ नहीं हो सकती हैं, अतः इनके उक्त छह प्रकृतियोंका अन्तरकाल घटित नहीं होता है। शेष बाईस प्रकृतियोंका अन्तरकाल कहीं भी नहीं है।
६१३८. देवोंमें सम्यक्प्रकृति, सम्यगमिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका अन्तरकाल कितना है ? देवोंमें सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अन्तरकाल एक समय
और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त तथा उक्त सभी प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम इकतीस सागर है। शेष बाईस प्रकृतियोंका अन्तरकाल नहीं है। भवनवासियोंसे लेकर उपरिमप्रैवेयक तकके प्रत्येक स्थानके देवोंमें इसीप्रकार कथन करना चाहिये। इतनी विशेषता है कि सर्वत्र अपनी अपनी स्थिति जानना चाहिये ।
विशेषार्थ-देवोंमें सर्वत्र सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिध्यात्वका जघन्य अन्तर एक समय और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त जिस प्रकार ऊपर घटित करके लिख आये हैं उसीप्रकार यहां भी घटित कर लेना चाहिये । तथा उत्कृष्ट अन्तर नारकियोंके समान घटा लेना चाहिये । विशेषता इतनी है कि यहां अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तरका कथन करना चाहिये। यहां जो उक्त छहों प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम इकतीस सागर कहा है वह नवग्रैवेयकों की अपेक्षा कहा है। क्योंकि आगेके देव नियमसे सम्यग्दृष्टि ही होते हैं। ___ पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, अस और सपर्याप्त जीवोंमें सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिध्यात्वका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी उत्कृष्ट
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [पयडिविहत्ती २ विहत्ति० ओघभंगो । सेसाणं पयडीणं णत्थि अंतरं।
१३६. जोगाणुवादेण पंचमण-पंचवचि०-कायओगि-ओरालि०-वेउव्विय० चत्तारिकसाय० सम्मत्त-सम्मामि० विहत्ति० अंतरं केव० ? जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । सेसाणं पयडीणं णत्थि अंतरं।
६ १४०. वेदाणुवादेण इत्थिवेदेसु सम्मत-सम्मामि०-अणंताणुबंधिचउक्क. विहत्ति० जह० एगसमओ अंतो, उक्क० सगहिदी देसूणा पणवण्णपलिदो० देसूणाणि । सेसाणं पय० णस्थि अंतरं। पुरिसवेदेसु सम्मत्त-सम्मामि० विहत्ति० अंतरं केव० १ जह० एगसमओ, उक्क० सागरोवमसदपुधत्तं । अणंताणुबंधिचउक्क० विहत्ति० ओघस्थितिप्रमाण है। तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्कका अन्तरकाल ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंका अन्तरकाल नहीं है।
विशेषार्थ-सामान्य पंचेन्द्रिय आदिकी पहले जो उत्कृष्ट कायस्थिति बतला आये हैं उसमेंसे कुछ कम कर देने पर सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तरकाल हो जाता है। कुछ कमका प्रमाण जैसा ऊपर घटित करके लिख आये हैं उसीप्रकार यहां पर घटित करके जान लेना चाहिये । शेष कथन सुगम है।।
६१३६. योगमार्गणाके अनुवादसे पांचों मनोयोगी पांचों वचनयोगी, काययोगी औदारिककाययोगी और वैक्रियिककाययोगी जीवोंमें तथा चारों कषायवाले जीवोंमें सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। तथा शेष प्रकृतियोंका अन्तरकाल नहीं है ।
विशेषार्थ-जिसको सम्यक्प्रकृति या सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना किये एक समय या अन्तर्मुहूर्त हुआ है ऐसे किसी उपर्युक्त योगवाले मिथ्यादृष्टि जीवके उपशमसम्यक्त्वकी प्राप्तिके साथ पुन: जब सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका सत्त्व हो जाता है तब उक्त योगवाले या किसी कषायवाले जीवके उक्त दोनों प्रकृतियोंका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल क्रमसे एक समय और अन्तर्मुहूर्त बन जाता है। तथा शेष प्रकृतियोंका यहां अन्तरकाल संभव नहीं है।
६१४०. वेदमार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदी जीवोंमें सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अन्तरकाल एक समय और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। और सम्यक्त्व तथा सम्यक्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी स्थिति प्रमाण और अनन्तानुबन्धीका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पचपन पल्य है । तथा शेष प्रकृतियोंका अन्तरकाल नहीं है। पुरुषवेदियोंमें सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल सौ पृथक्त्व सागर है। तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्कका अन्तरकाल भोधके समान है। शेष प्रकृतियोंका
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भंगो। सेसाणं पयडीणं णत्थि अंतरं। णqसयवेदेसु सम्मत्त-सम्मामि० ओघभंगो । अणंताणुबंधिचउक्क० सत्तमपुढविभंगो। सेसाणं पय० णत्थि अंतरं । एवमसंजद. वत्तव्वं । चक्खु० तसपञ्जत्तभंगो।।
६१४१. लेस्साणुवादेण छ-लेस्सासु सम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणुबंधिचउक्क० विहत्ति० अंतरं जह० एगसमओ अंतोमुहुत्तं, उक्क० तेत्तीस सत्तारस सत्त एक्कत्तीस सागरोअन्तरकाल नहीं है । नपुंसकवेदी जीवों में सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिध्यात्वका अन्तरकाल ओघके समान है। तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्कका सातवीं पृथिवीके समान है। शेष प्रकृतियोंका अन्तरकाल नहीं है। असंयतोंके नपुंसकवेदियोंके समान अन्तरकाल कहना चाहिये। तथा चक्षुदर्शनी जीवोंके सपर्याप्तकोंके समान अन्तरकाल कहना चाहिये।
विशेषार्थ-जिस प्रकार ओघमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अन्तरकाल लिख आये हैं उसी प्रकार तीनों वेदवालोंके घटित कर लेना चाहिये । स्त्रीवेदीकी उत्कृष्टकायस्थिति सौ पल्य पृथक्त्व है। तथा इतने काल तक वह मिथ्यात्व गुणस्थानमें भी रह सकता है अतः इसमें से उद्वेलनाकालके कम कर देने पर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त होता है। पर इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेदका काल प्रारम्भ होते समय मिथ्यात्वमें लेजाना चाहिये और स्त्रीवेदका काल समाप्त होनेके अन्त में उपशमसम्यक्त्वकी प्राप्ति कराना चाहिये । कोई एक जीव पचपन पल्यकी आयुवाली देवी हुआ और वहां पर्याप्त होकर वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त करके उसने अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना कर दी पुनः भवके अन्तमें मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त हुआ । उसके अनन्तानुबन्धीका कुछ कम पचपन पल्य उत्कृष्ट अन्तरकाल होता है। पुरुषवेदी जीवकी कायस्थिति सौ सागर पृथक्त्व है अतः वहां उस अपेक्षासे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तर कहना चाहिये । तथा पुरुषवेदीके अनन्तानुबन्धी चतुष्कका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल जिसप्रकार ओघमें घटित करके लिख आये हैं उसीप्रकार यहां जानना । तथा सातवीं पृथिवीमें नारकीके जिस प्रकार अनन्तानुबन्धीका उत्कृष्ट अन्तरकाल लिख आए हैं उसीप्रकार नपुंसकवेदीके जानना और इनके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तरकाल ओघके समान घटित कर लेना, क्योंकि कुछ कम अर्द्धपुद्गल परिवर्तनकाल तक एक जीव नपुंसक रह सकता है ।
६१४१. लेश्यामार्गणाके अनुवादसे छहों लेश्याओंमें सम्यक्प्रकृति और सम्यगमिध्यात्वका जघन्य अन्तरकाल एक समय तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्कका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है। तथा उक्त सभी प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल कृष्णलेश्यामें कुछ कम तेतीस सागर, नीललेश्यामें कुछ कम सत्रह सागर, कपोतलेश्यामें कुछ कम सात सागर, शुक्ललेश्यामें कुछ कम इकतीस सागर, पीतलेश्यामें साधिक दो सागर और पद्मलेश्यामें साधिक
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ वमाणि देसूणाणि, बे अट्ठारस सागरो० सादिरेयाणि । सेसपयडीणं णत्थि अंतरं । सण्णि० पुरिसंवेदमंगो। आहारि० सम्मत्त-सम्मामि विहत्ति० अंतरं जह० एग समओ, उक्क० अंगुलस्स असंखे०भागो। अणंताणुवंधिचउक्क० विहत्ति० ओघभंगो।
एवमंतरं समत्तं ।। ६१४२. सणियासो दुविहो ओषो आदेसो दि । तत्थ ओघेण मिच्छत्तस्स जो विहत्तिओ सो सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-अणंताणुबंधिचउक्काणं सिया विहत्तिओ, सिया अविहत्तिओ । बारसकसाय-णवणोक० णियमा विहत्तिओ। सम्मत्तस्स जो विहत्तिओ अठारह सागर है। शेष प्रकृतियोंका अन्तरकाल नहीं है।
विशेषार्थ-सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य अन्तर एक समय तथा अनन्तानुबन्धीके जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्तका कथन जिस प्रकार पहले कर आये हैं उसी प्रकार यहाँ भी कर लेना चाहिये । तथा छहों प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन अशुभ लेश्याओंमें नरकगतिकी अपेक्षा और तीन शुभ लेश्याओंमें देवगतिकी अपेक्षा कहा है, क्योंकि इतने दीर्घकाल तक एक लेश्या वहां ही रहती है।
संज्ञी मार्गणामें सम्यक्प्रकृति आदि छह प्रकृतियोंका अन्तरकाल पुरुषवेदके समान है । आहारक जीवोंमें सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अंगुलके असंख्यातवें भाग है। तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्कका अन्तरकाल ओघके समान है।।
विशेषार्थ-संज्ञीजीवोंमें सम्यक्प्रकृति आदि छह प्रकृतियोंका अधिकसे अधिक अन्तरकाल पुरुषवेदियोंके ही पाया जाता है, अतः संज्ञीमार्गणामें पुरुषवेदके समान अन्तरकाल कहा । आहारक जीवका सर्वदा आहारक रहते हुए निरन्तर उत्पन्न होनेका काल अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है, तथा इतने काल तक आहारकजीव निरन्तर मिथ्यात्वमें भी रह सकता है इसलिये इसके सम्यक्प्रकृति और सम्यमिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तरकाल अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण कहा। तथा सामान्यसे अनंतानुबंधी चतुष्कका जो उत्कृष्ट अन्तरकाल कहा है वह आहारकजीवके बन जाता है इसलिये इसके अनंतानुबंधी चतुष्कका उत्कृष्ट अंतरकाल ओघके समान कहा। उक्त छहों प्रकृतियोंके जघन्य अन्तरकालका कथन सुगम है। इसप्रकार अन्तरानुगम समाप्त हुआ। ६१४२.सनिकर्ष अनुयोगद्वार ओघ और आदेशके भेदसे दो प्रकारका है। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा जो जीव मिथ्यात्वकी विभक्तिवाला है वह सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाला कदाचित् है और कदाचित् नहीं है। परन्तु उसके बारह कषाय और नौ नोकषायकी विभक्ति नियमसे है। जो जीव सम्यक्प्रकृतिकी विभक्तिवाला
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उत्तरपयडिविहत्तीए सणिणयासो सो मिच्छत्त-सम्मामि०-अणंताणुनंधिचउक्काणं सिया विहत्तिओ सिया अविहत्तिओ । सेसाणं पयडीणं णियमा विहत्तिओ । एवं सम्मामि० । णवरि, सम्मत्तस्स दो भंगा।
६१४३. अणंताणुबंधिकोधस्स जो विहत्तिओ, सो सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं सिया० विहत्ति०, सिया अविहत्तिः। सेसाणं णियमा विहत्तिओ। एवमणंताणुबंधिमाण-मायालोहाणं । अपञ्चक्खाणावरणकोहस्स जो विहात्तिओ सो मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०अणंताणुबंधिचउक्क० सिया विहत्ति०, सिया अविहत्ति० । सेसाणं पय० णियमा विहत्ति। एवं सत्तकसाय० । कोहसंजलणाए विहत्तिओ मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-बारसकसाय-णवणोकसायाणं सिया विहत्तिओ, सिया अविहत्तिओ। तिहं संजलणाणं णियमा बिहत्तिओ। माणसंजलणाए जो विहत्तिओ सो माया-लोभसंजलणाणं णियमा बिहत्तिओ। सेसाणं सिया विहत्ति०, सिया अविहत्ति० । मायासंजलण० जो विहत्तिक लोभसंज० णियमा विहत्तिओ । सेसाणं पयडीणं सिया विहत्ति० सिया अविहै वह मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाला कदाचित है और कदाचित् नहीं है। परन्तु इसके शेष प्रकृतियोंकी विभक्ति नियमसे है। सम्य
प्रतिके समान सम्यग्मिथ्यात्वका कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि सम्यगमिथ्यात्वकी विभक्तिवालेके सम्यक्प्रकृतिके दो भंग होते हैं अर्थात् वह कदाचित् सम्यक्प्रकृतिकी विभक्तिवाला है और कदाचित् नहीं है ।
६ १४३. जो जीव अनन्तानुबन्धी क्रोधकी विभक्तिवाला है वह सम्यक्प्रकृति और सम्यमिथ्यात्वकी विभक्तिवाला कदाचित् है और कदाचित् नहीं है। तथा उसके शेष प्रकतियोंकी विभक्ति नियमसे है। इसीप्रकार अनन्तानुवन्धी मान, माया और लोभकी अपेक्षा भी कथन करना चाहिये । जो जीव अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकी विभक्तिवाला है वह मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिध्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाला कदाचित है और कदाचित् नहीं है । परन्तु उसके शेष प्रकृतियोंकी विभक्ति नियमसे है । इसीप्रकार शेष सात कषायोंकी अपेक्षा कथन करना चाहिये ।
जो जीव क्रोधसंज्वलनकी विभक्तिवाला है वह मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी क्रोध आदि बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी विभक्तिवाला कदाचित् है और कदाचित् नहीं है। परन्तु वह संज्वलनमान आदि शेष तीन प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला नियमसे है । जो जीव मानसंज्वलनकी विभक्तिवाला है वह माया और लोभसंज्वलनकी विभक्तिवाला नियमसे है। परन्तु शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला कदाचित् है और कदाचित् नहीं है। जो जीव मायासंज्वलनकी विभक्तिवाला है वह लोभसंज्वलनकी विभक्तिवाला नियमसे है। परन्तु वह शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला कदाचित् है और कदाचित् नहीं है। जो जीव लोभसंज्वलनकी विभक्तिवाला है वह अपनेसे
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ हत्तिओ। लोभसंज० जो विहत्तिओ सो सव्वे० हेठिमाणं पयः सिया विहत्ति०, सिया अविहत्तिः । इत्थिवेदस्स जो विहत्ति० सो छण्णोकसाय-पुरिस०-चदुसंजलणाणं णियमा विहत्तिओ। सेसाणं पयडीणं सिया विहत्तिओ सिया अविहत्तिओ। णqसयवेदम्स जो विहत्तिओ सो छण्णोक०-पुरिस-चदुसंजलणाणं णियमा विहत्तिओ, सेसाणं पदाणं सिया विहत्तिओ, सिया अविहतिओ। पुरिसवेदस्स जो विहत्तिओ सो चदुसंजलणाणं णियमा विहत्तिओ। सेसाणं पय सिया विहत्ति सिया अविहत्ति । हस्सस्स जो विहत्तिओ सो पंचणोकसायाणं पुरिस०-चदुसंजलणाणं णियमा विहत्तिओ। सेसाणं पयडीणं सिया विहत्तिओ, सिया अविहत्तिओ। एवं पंचणोकसायाणं । एवं मणुसतियस्स । णवरि, मणुसिणीसु णवंसयवेदस्स जो विहत्तिओ सो इत्थिवेदस्स णियमा विहत्तिओ। पुरिसवेदस्स छण्णोकसायभंगो। पंचिदिय-पंचिं० पज०-तस०तसपज-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालि०-लोभकसायी-चक्खु०-अचक्खु० सुक्कले०-भवसिद्धि-सण्णि-आहारीणमोघभंगो। . पहलेकी सभी प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला कदाचित् है और कदाचित् नहीं है । जो जीव स्त्रीवेदकी विभक्तिवाला है वह छह नोकषाय, पुरुषवेद और चारसंज्वलनकी विभक्तिवाला निथमसे है। परन्तु शेष सोलह प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला कदाचित है और कदाचित् नहीं है। जो जीव नपुंसकवेदकी विभक्तिवाला है वह छह नोकषाय, पुरुषवेद और चार संज्वलनकषायकी विभक्तिवाला नियमसे है। तथा शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला कदाचित् है, कदाचित् नहीं है। जो जीव पुरुषवेदकी विभक्तिवाला है वह चार संज्वलनकी विभक्तिवाला नियमसे है। परन्तु वह शेष तेईस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला कदाचित् है और कदाचित् नहीं है। जो जीव हास्य नोकषायकी विभक्तिवाला है वह पांच नोकषाय, पुरुषवेद और चार संज्वलनकी विभक्तिवाला नियमसे है। परन्तु शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला वह कदाचित् है और कदाचित् नहीं है। इसीप्रकार पांच नोकषायोंकी अपेक्षा कहना चाहिये। यह जो ऊपर ओघप्ररूपणा की है इसीप्रकार समान्य और पर्याप्त मनुष्य तथा मनुष्यनीके कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि मनुष्यनियोंमें जो नपुंसकवेदकी विभक्ति वाला है वह स्त्रीवेदकी विभक्तिवाला नियमसे है। पुरुषवेदका छह नोकषायके समान कथन करना चाहिये । तथा पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, लोभकषायी, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके सन्निकर्षका कथन ओघके समान है।
विशेषार्थ-मिथ्यात्वगुणस्थानमें जिसने सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना नहीं की उसके अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता है। तथा सम्यक्त्वकी उद्वेलना करनेपर सत्ताईस और सम्यग्मिध्यात्वकी उद्वेलना करनेपर छब्बीस प्रकृतियां सत्तामें रहती हैं। उपशम
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिविहत्तीए सणिणयासो
१४४. आदेसेण णिरयगईए णेरईएसु मिच्छत्तस्स जो विहत्तिओ तस्स सव्वपयडीणमोघभंगो । एवं सम्मत्तस्स । सम्मामिच्छत्तस्स जो विहत्तिओ सो मिच्छत्त-बारसकसाय-णवणोकसाय० णियमा विहत्तिओ। सम्मत्त-अणंताणुबंधिचउक्काणं सिया विहत्तिओ, सिया अविहत्तिओ। अणंताणुवंधिचउक्कस्स ओघभंगो। अपञ्चक्खाणकोधस्स जो विहत्तिओ सो मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि० अणंताणु० चउक्काणं सिया श्रेणीसे उतरे हुए द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि जीवके चौथसे सातवें तक अनन्तानुबन्धी चतुष्कके बिना चौबीस प्रकृतियां सत्तामें हैं। तथा जिस वेदकसम्यग्दृष्टिने अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना कर दी है उसके भी चौबीस प्रकृतियोंकी सत्ता है। तथा क्षायिक सम्यक्त्वके सन्मुख हुए वेदगसम्यग्दृष्टि जीवके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करनेपर चौबीसकी, मिथ्यात्वकी क्षपणा करनेपर तेईसकी, सम्यग्मिथ्यात्वकी क्षपणा करनेपर बाईसकी और सम्यक्त्वकी क्षपणा करनेपर इक्कीसकी सत्ता होती है। अनन्तर क्षपक श्रेणीपर चढ़े हुए पुरुषवेदी जीवके क्रमसे अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान आवरण आठ, नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, हास्यादि छह नोकषाय, पुरुषवेद, संजलनक्रोध, संज्वलनमान, संज्वलनमाया और संज्वलनलोभकी क्षपणा करनेपर १३, १२, ११, ५, ४, ३, २, और १ प्रकृतियोंकी सत्ता होती है। इतनी विशेषता है कि जो स्त्रीवेदके साथ क्षपकश्रेणी चढ़ता है वह पुरुषवेद और छह नोकषायोंका एक साथ क्षय करता है, अतः उसके पांच प्रकृतिक स्थान नहीं होता । इस प्रकार इन नियमोंको ध्यानमें रख कर ओघ और आदेशसे कहे गये सन्निकर्षका विचार करना चाहिये । इससे यह जानने में देरी न लगेगी कि किन प्रकृतियों के रहते हुए किन प्रकृतियोंकी सत्ता है ही और किन प्रकृतियोंकी सत्ता है भी और नही भी है। उदाहरणार्थ लोभ संज्वलनकी विभक्तिवालेके शेष सत्ताईस प्रकृतियां होंगी और नहीं भी होंगी, क्योंकि लोभसंज्वलनका सत्त्वक्षय सबके अन्त में होता है । पर मानसंज्वलनकी विभक्तिवालेके लोभसंज्वलन अवश्य होगा, क्योंकि मानसंज्वलनका सत्त्वक्षय लोभसंज्वलनके पहले हो जाता है । इसीप्रकार सर्वत्र जानना ।
६१४४.आदेशनिर्देशकी अपेक्षा नरकगतिमें नारकियों में जो जीव मिथ्यात्वकी विभक्ति वाला है उसके सब प्रकृतियोंका कथन ओघके समान है। इसी प्रकार सम्यकप्रकृतिकी अपेक्षा ओघके समान कथन करना चाहिये । जो जीव सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाला है वह मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी विभक्ति वाला नियमसे है। किन्तु सम्यक् प्रकृति और अनन्तानुबन्धीकी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षा ओघके समान कथन है। जो नारकी अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकी विभक्ति वाला है वह मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विभक्ति वाला है भी और नहीं भी है। किन्तु वह शेष बीस प्रकृतियोंकी विभक्ति वाला नियमसे
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पयडिविहत्ती २
विहत्तिओ, सिया अविहत्ति० । सेसाणं पय० णियमा विहत्तिओ । एवमेकारसकसाय-णवणोकसायाणं । एवं पढमपुढवि-तिरिक्ख गई - पंचिंदियतिरिक्ख पंचि ० तिरि०पञ्ज०-देव०- सोहम्मादि जाव उवरिमगेवजदेव०-ओरालियमिस्स० - वेउब्विय मिस्स०-कम्म इय० - असंजद० - तिणि लेस्सा - अणाहारि त्ति वत्तव्वं । विदियादि जाव सत्तामि त्तिमिच्छतस्स जो विहत्तिओ सो सम्मत्त सम्मामि० - अनंताणुबंधिचउक्काणं सिया विहत्तिओ, सिया अविहत्तिओ | सेसाणं पयडीणं णियमा विहत्तिओ । एवं बारसकसाय-णवणोकहै । अप्रत्याख्यानावरण क्रोध के समान शेष ग्यारह कषाय और नो कषायोंकी अपेक्षा कथन करना चाहिये । इसी प्रकार पहली पृथिवी, तिर्थचगति, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त, सामान्य देव, सौधर्म स्वर्गसे लेकर उपरिम ग्रैवेयक तकके देव, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्र काययोगी, कार्मणकाययोगी, असंयत, कृष्ण आदि तीन लेश्यावाले और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिये ।
I
विशेषार्थ - नारकियों में मिध्यात्व विभक्तिवालेके अनन्तानुबन्धी चतुष्क सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये छह प्रकृतियां होती भी हैं और नहीं भी होती हैं । विसंयोजक के अनन्तानुबन्धी चतुष्क नहीं होतीं तथा जिसने सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना कर दी है उसके उक्त दो प्रकृतियां नहीं होती । किन्तु इसके शेष सभी प्रकृतियोंकी सत्ता है । जो सम्यक्प्रकृतिकी विभक्तिवाला है उसके मिध्यात्व, सम्यग् मिध्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्क ये छह प्रकृतियां होती हैं और नहीं भी होती हैं । जो कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि नरक में उत्पन्न हुआ है उसके उक्त छहका सत्व नहीं होता । तथा जिस वेदक सम्यग्दृष्टिने चार अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना की है उसके उक्त चारका सत्त्व नहीं होता शेषके होंका सत्व होता है । किन्तु इसके शेषका सत्व नियमसे होता है । सम्यग्मिध्यात्वकी विभक्ति वाले जीवके अनन्तानुबन्धी चार और सम्यक्त्व ये पांच प्रकृतियां हैं भी और नहीं भी हैं । जिसने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना कर दी है उसके अनन्तानुबन्धी चार नहीं हैं । तथा जिसने सम्यक्त्वकी उद्वेलना कर दी है उसके सम्यक्त्व नहीं है शेषके ये पांचों प्रकृतियां हैं। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षा ओघ कथनसे कोई विशेषता नही है । तथा अप्रत्याख्यानावरण क्रोध आदिकी विभक्तिवाले जीवके मिध्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धी चार ये सात प्रकृतियां होती भी हैं और नहीं भी होती हैं । क्षायिक सम्यग्दृष्टिके नहीं होती, शेषके यथा संभव विकल्प जानना । ऊपर जो प्रथम नरकके नारकी आदि अन्य मार्गणाएं गिनाई हैं वहां भी इसी प्रकार समझना ।
दूसरे से लेकर सातवें नरक तक प्रत्येक स्थानके नारकी जीवोंमें जो मिथ्यात्वकी विभक्ति वाला है वह सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्ति बाला है भी और नहीं भी है । किन्तु शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला नियमसे है । इसी
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गा० २२]
उत्तरपय डिविहत्तीए सरिणयासो
१३५
साय० । णवरि मिच्छत्तस्स णियमा विहत्तिओ । जो सम्मत्तस्स विहत्तिओ सो अताणुबंधिचउकस्स सिया विहत्ति० सिया अविहत्ति० । सेसाणं पयडीणं नियमा विह० । सम्मामि० जो विहत्तिओ सो सम्मत्त - अनंताणु ० चउक्क० सिया विह० सिया अहि० | सेसाणं पयडीणं णियमा विहत्तिओ । अनंताणुबंधिकोध० जो विहत्तिओ सो सम्मत्त सम्मामि० सिया विह० सिया अविह० । सेसाणं पयडीणं णियमा विहत्तिओ । एवं तिहं कसायाणं । एवं पंचिं० तिरि० जोणिणी० - भवण० वाण बेंतर ० -जोदिसि ० वत्तव्वं । पंचि०तिरि०अपज० मिच्छत्तस्स जो विहत्तिओ सो सम्मत्त सम्मामि० सिया विह० सिया अविह० | सेसाणं पय० णियमा अविहत्तिओ ( विहत्तिओ ) | एवं सोलसक० - वणोक० । णवरि मिच्छत्तस्स णियमा विहत्तिओ । जो सम्मत्तस्स विहत्तिओ सो सव्व० पय० णियमा विहत्तिओ । जो सम्मामि० विहत्तिओ सो सम्मत्त० सिया विह० सिया अविह० । सेसाणं पय० णियमा विह० । एवं मणुसअपजत्त सव्व प्रकार बारह कषाय और नौ नोकषायों की अपेक्षा कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि यह जीव मिध्यात्वकी विभक्तिबाला नियमसे है । जो सम्यक्प्रकृतिकी विभक्तिवाला है वह अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है । किन्तु वह शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला नियमसे है । जो सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाला है वह सम्यप्रकृति और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है; किन्तु शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला नियमसे है । जो अनन्तानुबन्धी क्रोधकी विभक्तिवाला है वह सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है । किन्तु वह शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला नियमसे है । अनन्तानुबन्धी क्रोधके समान अनन्तानुबन्धी मान आदि तीन कषायों की अपेक्षा भी कथन करना चाहिये । इसीप्रकार पंचेन्द्रियतिर्यंच योनिमती, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंके कहना चाहिये ।
I
विशेषार्थ - इन उपर्युक्त मार्गणाओंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना और अनन्तानुबन्धी चार की विसंयोजना संभव है । अतः ऊपर प्रकृतियोंके सत्त्व और असत्त्व सम्बन्धी सभी विकल्प इसी अपेक्षासे कहे हैं जो उपर्युक्त प्रकार से घटित कर लेना चाहिये ।
पंचेन्द्रियतिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तक जीवों में जो मिध्यात्वकी विभक्तिवाला है वह सम्यप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है । किन्तु शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला नियमसे है । इसीप्रकार सोलह कषाय और नौ नोकषायकी अपेक्षा कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इसके मिथ्यात्वकी विभक्ति नियमसे है । जो सम्यक्प्रकृतिकी विभक्ति वाला है वह नियमसे सभी प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला है । जो सम्यगमिध्यात्वकी विभक्तिवाला है वह सम्यक्प्रकृतिकी विभक्तिवाला है भी और
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ एइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज्ज०-सव्वपंचकाय-तसअपज०-मदि-सुदअण्णाणि-विभंग-मिच्छादि०-असण्णीणं वत्तव्यं ।
६१४५. अणुद्दिसादि जाव सव्वसिद्धिविमाणे ति जो मिच्छत्तस्स विहत्तिओ अणंताणु०चउक्क० सिया विह०, सिया अविह० । सेसाणं पय० णियमा विहः । एवं सम्मामिच्छत्तस्स । सम्मत्तस्स जो विहत्तिओ सो मिच्छत्त-सम्मामि०-अणंताणु०चउक्क० सिया विह० सिया अविहत्तिओ। सेसाणं णियमा विह० । अणंताणु कोध० जो विहत्तिओ सो सम्बपय० णियमा विह० । एवं तिण्णं कसायाणं । अपञ्चक्खाणकोध० जो विहत्तिओ सो मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि० अणंताणु० चउक्क० सिया विह० सिया अविह० । सेसाणं पय० णियमा विहत्तिओ। एवमेक्कारसकसाय-णवणोकसायाणं ।
६१४६. वेउव्विय० जो मिच्छत्तस्स विहत्तिओ सो सम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणु० नहीं भी है, किन्तु शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला नियमसे है । इसीप्रकार लब्ध्यपर्यातक मनुष्य, सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक, सभी प्रकारके पांचों स्थावर काय, त्रस लब्ध्यपर्याप्तक, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवों के कहना चाहिये ।
विशेषार्थ-इन उपर्युक्त मार्गणाओंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना संभव है। अतः ऊपर जितने विकल्प कहे हैं वे इस अपेक्षासे घटित कर लेना चाहिये ।
६१४५. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि विमान तक प्रत्येक स्थानमें जो जीव मिथ्यात्वकी विभक्तिवाला है वह अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है। किन्तु शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला नियमसे है। इसीप्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षासे कथन करना चाहिये । जों सम्यक्प्रकृतिकी विभक्तिवाला है वह मिथ्यात्व, सम्यगमिभ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है। किन्तु शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला नियमसे है। जो अनन्तानुबन्धी क्रोधकी विभक्तिवाला है वह नियमसे सब प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला है । अनन्तानुबन्धी क्रोधके समान अनन्तानुबन्धी मान आदि तीन कषायोंकी अपेक्षा कथन करना चाहिये । जो अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकी विभक्तिवाला है वह मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है। किन्तु शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला नियमसे है। इसी प्रकार ग्यारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा कथन करना चाहिये ।
विशेषार्थ-नौ अनुदिशसे लेकर ऊपर सभी जीव सम्यग्दृष्टि ही होते हैं। अतः यहां २८, २४, २२ और २१ ये चार विभक्तिस्थान संभव हैं। इसी अपेक्षासे ऊपरके सभी विकल्प घटित कर लेना चाहिये ।
६१४६. वैक्रियिककाययोगियों में जो मिथ्यात्वकी विभक्तिवाला है वह सम्यक्प्रकृति,
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिविहत्तीए सरिणयासो
१३७
चउक्क० सिया विहत्ति सिया अविह०; सेसाणं णियमा विहत्तिओ। सम्मामि० जो विह० सो सम्मत्त-अणंताणु०चउक्क० सिया विह० सिया अविह०; सेसाणं पन्जा णियमा विह० । सम्मत्तस्स जो विहत्तिओ सो अणंताणु० चउक्क० सिया विह. सिया अविह०; सेसाणं पय० णियमा विहत्तिओ। अणंताणु कोध० जो विहत्तिओ सो सम्मत्त-सम्मामि० सिया विह. सिया अविह०, सेसाणं पय० णियमा विहत्तिओ। एवं तिणि कसाय० । अपञ्चक्खाण-कोध० जो विहत्तिओ सो मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणु० चउक्काणं सिया विह० सिया अविह०, सेसाणं पय० णियमा विह० । एवमेकारसकसाय-णवणोकसायाणं । आहार-आहारमिस्स० मिच्छत्तस्स जो विहत्तिओ, सो अणंताणु चउक्क० सिया विह० सिया अविह०; सम्यमिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है। किन्तु शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला नियमसे है। जो सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाला है वह सम्यक्प्रकृति और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है। किन्तु शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला नियमसे है। जो सम्यक्प्रकृतिकी विभक्तिवाला है वह अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है। किन्तु शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला नियमसे है। जो अनन्तानुबन्धी क्रोधकी विभक्तिवाला है वह सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिध्यात्वकी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है, किन्तु शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला नियमसे है। अनन्तानुबन्धी क्रोधके समान अनन्तानुबन्धी मान आदि तीन कषायोंकी अपेक्षा कथन करना चाहिये । जो अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकी विभक्तिवाला है वह मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है। किन्तु शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला नियमसे है। अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकी अपेक्षा जिस प्रकार सन्निकर्षके विकल्प कहे है, उसीप्रकार ग्यारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा सन्निकर्षके विकल्पोंका कथन करना चाहिये।
विशेषार्थ-वैक्रियिककाययोगमें मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि दोनों प्रकारके जीव होते हैं। किन्तु कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि नहीं होते, क्योंकि जो कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि मनुष्य मरकर देव या नारकियोंमें उत्पन्न होते हैं उनके अपर्याप्त अवस्था में ही सम्यक्त्व प्रकृतिका क्षय होकर क्षायिक सम्यग्दर्शन हो जाता है। अत: वैक्रियिककाययोगवाले जीव २८, २७, २६, २४ और २१ प्रकृतिक स्थान वाले होते हैं, अतः इसी अपेक्षासे ऊपरके सभी विकल्प घटित कर लेना चाहिये ।
आहारककाययोगी और आहारक मिश्रकाययोगी जीवोंमें जो मिथ्यात्वकी विभक्तिघाला है वह अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है। किन्तु शेष
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [पपडिविहत्ती २ सेसाणं णियमा विह० । एवं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं । अणंताणु कोध० जो विहत्तिओ सो सव्वपय० णियमा विह० । एवं तिण्हं कसायाण । अपञ्चकोध० जो विह० सो मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणु०चउकाणं सिया विह सिया अविह; सेसाणं पय० णियमा विह० । एवमेक्कारसकसाय-णवणोकसायाणं।
६१४७.वेदाणुवादेण इस्थिवेदएसुमिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-बारसकसायाणमोघभंगो। कोधसंजलणस्स जो विहत्तिओ सो मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-बारसकसाय-णवंस० सिया विहत्ति० सिया अविहत्ति०; तिण्णि संजलण-अकृणोकसाय० णियमा विह० । एवं तिण्हं संजलण-अकृणोकसायाणं । णqसयवेदस्स जो विहत्तिओ सो मिच्छत्तसम्मत्त-सम्मामि०-बारसकसाय० सिया विह० सिया अविह०, चत्तारिसंजलणअहणोकसाय० णियमा विहत्तिओ। एवं णवूस०, णवरि इत्थिवेद० णqसभंगो । प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला नियमसे है। इसीप्रकार सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा कथन करना चाहिये । जो अनन्तानुबन्धी क्रोधकी विभक्तिवाला है वह नियमसे सभी प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला है। अनन्तानुबन्धी क्रोधके समान अनन्तानुबन्धी मान आदि तीन कषायोंकी अपेक्षा भी कथन करना चाहिये । जो अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकी विभक्तिवाला है वह मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्ति वाला है भी और नहीं भी है। किन्तु वह शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला नियमसे है । अप्रत्याख्यानावरण क्रोधके समान शेष ग्यारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा कथन करना चाहिये।
विशेषार्थ-आहारक काययोग और आहारकमिश्रकाययोग ये दोनों योग प्रमत्तसंयतके होते हैं। पर ऐसा जीव क्षायिकसम्यग्दर्शनका प्रस्थापक नहीं होता, अतः इसके २८,२४
और २१ ये तीन विभक्तिस्थान होते हैं। इसी अपेक्षासे ऊपरके सभी विकल्प घटित कर लेना चाहिये।
६१४७. वेदमार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदियों में मिथ्यात्व, सम्यकप्रकृति, सभ्यग्मिध्यात्व और बारह कषायोंकी अपेक्षा कथन ओघके समान है । जो क्रोध संज्वलनकी विभक्तिवाला है वह मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी क्रोध आदि बारहकषाय और नपुंसकवेदकी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है। किन्तु वह शेष तीन संज्वलन कषाय और आठ नोकषायोंकी विभक्तिवाला नियमसे है। इसीप्रकार तीन संज्वलन और आठ नोकषायोंकी अपेक्षा कथन करना चाहिये। जो नपुंसकवेदकी विभक्तिवाला है वह मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व और बारह कषायोंकी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है। किन्तु वह चारों संज्वलन और आठ नोकषायोंकी विभक्तिवाला नियमसे है। नपुंसकवेदी जीवोंके स्त्रीवेदी जीवोंके समान कथन करना चाहिये । इतनी
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गा० २२
उत्तरपयडिविहत्तीए सणिणयासो पुरिसवेदएसु मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-वारसकसाय०-णवणोकसाय० ओघभंगो। चदुसंजलण० ओघं । णवरि, पुरिसवेद०-चदुसंजलण० णियमा अस्थि ।
६१४८. अगदवेदएसु मिच्छत्तस्स जो विहत्तिओ सो तेवीसण्हं पयडीणं णियमा विहतिओ। एवं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं । अपञ्चकोध० जो विहत्तिओ सो मिच्छत्तसम्मत्त-सम्मामि० सिया विह० सिया अविह०; एकारसकसाय-णवणोकसायाणं णियमा विहः । एवं सत्त-कसायाणं । कोधसंजलणस्स जो विहत्तिओ सो तिण्हं संजलणाणं णियमा विहत्तिओ: सेसाणं पयडीणं सिया विह० सिया अविह० । माणसंजलण. जो विहत्तिओ सो दोण्हं संजलणाणं णियमा विहत्तिओ सेसाणं पय० सिया विह० सिया अविह० । मायासंजल० जो विहत्ति० सो लोभसंजलण णियमा विह०; सेसाणं पयडीणं सिया विह० सिया अविह० । लोभसंजल० जो विहत्तिओ सो तेवीसण्हं पय० सिया विह० सिया अविह० । णत्थि ( इत्थि) वेदस्स जो विहत्तिओ विशेषता है कि स्त्रीवेदी जीवके नपुंसकवेदकी अपेक्षा सन्निकर्षका जैसा कथन किया है उसी प्रकार नपुंसकवेदी जीवके स्त्रीवेदकी अपेक्षा सन्निकर्षका कथन करना चाहिये । पुरुषवेदी जीवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी क्रोध आदि बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा कथन ओघके समान है। चार संज्वलन कषायोंका भी कथन ओषके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि उनमें पुरुषवेद और चार संज्वलन कषायोंकी विभक्ति नियमसे है।
६१४८.अपगतवेदी जीवोंमें जो मिथ्यात्वकी विभक्तिवाला है वह अनन्तानुबन्धी चतुष्कको छोड़कर शेष तेईस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला नियमसे है । इसीप्रकार सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिध्यात्वकी अपेक्षा कथन करना चाहिये । जो अप्रत्याख्यानाचरण क्रोधकी विभक्तिवाला है वह मिथ्यात्व सम्यक्प्रकृति और सम्यक्मिध्यात्वकी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है। किन्तु अप्रत्याख्यानावरण मान आदि ग्यारह कपाय और नौ नोकषायोंकी विभक्तिवाला नियमसे है । अप्रत्याख्यानावरण क्रोधके समान अप्रत्याख्यानावरण मान आदि सात कषायोंकी अपेक्षा भी कथन करना चाहिये । जो क्रोध संज्वलनकी विभक्तिवाला है वह मान आदि तीन संज्वलनोंकी विभक्तिवाला नियमसे है। किन्तु वह शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है । जो मान संज्वलनकी विभक्तिवाला है वह माया आदि दो संज्वलनोंकी विभक्तिवाला नियमसे है। किन्तु शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है। जो माया संज्वलनकी विभक्तिवाला है वह लोभ संज्वलनकी विभक्तिवाला नियमसे है। किन्तु शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है। जो लोभ संज्वलनकी विभक्तिवाला है वह तेईस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है। जो स्त्रीवेदकी विभक्तिवाला हैं वह मिथ्यात्व सम्यक्प्रकृति .
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ..
[पयडिविहत्ती २
सो मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि० [ अहकसा०-णवूस० ] सिया विह० सिया अविह; सेसाणं णियमा विहत्तिओ । एवं णवूस० । पुरिसवेदस्स जो विहत्तिओ सो मिच्छत्तसम्मत्त-सम्मामि०-अटक-अट्ठणोक० सिया विह० अविह०; चत्तारिसंजलण णियमा विह० । हस्स० जो विहत्तिओ सो मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-अष्टकसायदोवेद० सिया विह• सिया अविह०; चत्तारिसंजल-पुरिस०-पंचणोकसाय० णियमा विहत्तिओ। एवं रदीए । एवमरदि-सोग-भय-दुगुंछाणं ।
६१४६. कसायाणुवादेण कोधकसाईसु पुरिसभंगो। णवरि, पुरिसवेदस्स सिया विहतिओ सिया अविहत्तिओ । एवं माणक०, णवरि कोधक० सिया विह० सिया अविह० । एवं माय०, णवरि माण• सिया विह० सिया अविह० [एवं लोभ० । णवरि मायक सिया विह० सिया अविह० । ] अकसाईसु मिच्छत्तस्स जो विहत्तिओ सो सव्वपयडीणं णियमा विहत्तिओ। एवं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं । अपञ्च०कोध० जो विहत्तिओ सम्यग्मिथ्यात्व, आठ कषाय और नपुंसकवेदकी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है। किन्तु वह शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला नियमसे है। इसीप्रकार नपुंसकवेदकी अपेक्षा कथन करना चाहिये । जो पुरुषवेदकी विभक्तिवाला है वह मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध आदि आठ कषाय और आठ नोकषायोंकी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है । किन्तु चार संज्वलनोंकी विभक्तिवाला नियमसे है। जो हास्यकी विभक्तिवाला है वह मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व, अप्रत्याख्यानावरग क्रोध आदि आठ कषाय, और स्त्री तथा नपुंसकवेदकी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है किन्तु चार संज्वलन, पुरुषवेद और रति आदि पांच नोकषायोंकी विभक्तिवाला नियमसे है। इसीप्रकार रतिकी अपेक्षा तथा अरति, शोक, भय और जुगुप्सा की अपेक्षा कथन करना चाहिये।
११४१.कषायमार्गणाकेअनुवादसे क्रोधकषायी जीवोंके पुरुषवेदी जीवोंके समान कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि क्रोधकषायी जीव पुरुषवेदकी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है। इसीप्रकार मानकषायी जीवोंके कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि मानकषायी जीव क्रोधकषायकी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है। इसीप्रकार मायाकषायी जीवोंके समझना चाहिये । इतनी विशेषता है कि मायाकषायी जीव मानकपायकी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है। इसीप्रकार लोभकषायी जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि लोभकषायी जीव मायाकषायकी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है। अकषायी जीवों में जो मिथ्यात्वकी विभक्तिवाला है वह नियमसे अनन्तानुबन्धीके सिवा सब प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला है। इसी प्रकार सम्यक्प्रकृति और सम्यगमिथ्यात्वकी अपेक्षा जानना चाहिये । जो अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकी विभक्तिवाला है
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गा० २२ ।
उत्तरपयडिविहत्तीए सरिणयासो
१४१
सो मिच्छत्त-सम्मत्त - सम्मामि० सिया विह० सिया अविह, एक्कारसक ०.८ णवणोक० णियमा वित्तिओ । एवमेकारसक० णवणोकसायाणं । एवं जहाक्खादसंजदाणं ।
१५०. आभिणि-सुद० - ओहि ० -मणपञ्जवणाणेसु मिच्छत्तस्स जो विहत्तिओ सो अताणु ० - चउक्क० सिया विह० सिया अविह ० ; सेसाणं णियमा विहत्तिओ | सम्मत्तस्स जो विहत्तिओ सो मिच्छत्त सम्मामि० - अणताणु० चउक्क० सिया विह० सिया अविह०; बारसकसाय वणोकमाय० णियमा विहत्तिओ । सम्मामिच्छत्त ० जो विहत्तिओ सो मिच्छत - अनंताणु ० चउक्क० सिया विह० सिया अविह०; सम्मत्त बारसक० णवणोक० णियमा विहत्तिओ | अणंताणु० को ० जो विहत्तिओ सो सव्वपयडीणं णियमा विहत्तिओ । एवं तिहं कसायाणं । बारसक० णवणोकसाय० ओघभंगो । एवं संजद ० - सामाइयच्छेदो० ओहिदंस- सम्मादिहीणं वत्तब्बं ।
१५१. परिहार • संजदेसु मिच्छत्तस्स जो विहत्तिओ सो अनंताणु० सिया विह० वह मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है । किन्तु वह अप्रत्याख्यानावरण मान आदि ग्यारह कषाय और नौ नोकपायोंकी विभक्तिवाला नियमसे है । इसीप्रकार अप्रत्याख्यानावरण मान आदि ग्यारह कषाय और नौ नोकषायों की अपेक्षा जानना चाहिये । अकषायी जीवों के समान यथाख्यात संयतोंके भी जानना चाहिये |
१५०. मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, और मन:पर्ययज्ञानी जीवोंमें जो मिध्यात्वकी विभक्तिवाला है वह अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है । किन्तु शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला नियमसे है । जो सम्यक्प्रकृतिकी विभक्तिवाला है वह मिध्यात्व, सम्यग्मिध्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है । किन्तु बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी विभक्तिवाला नियमसे है । जो सम्यग्मध्यात्वकी विभक्तिवाला है वह मिध्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है । किन्तु वह सम्यक्प्रकृति, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी विभक्तिवाला नियमसे है । जो अनन्तानुबन्धी क्रोधकी विभक्तिवाला है वह नियमसे सभी प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला है । इसीप्रकार अनन्तानुबन्धी मान आदि तीन कषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिये । बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा कथन ओघके समान है । इसी प्रकार संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, अवधिदर्शनी और सम्यग्दृष्टि जीवोंके कहना चाहिये ।
१५१. परिहारविशुद्धि संयत जीवोंमें जो मिथ्यात्व की विभक्तिवाला है वह अनन्तानुबन्धी agrat विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है। किन्तु शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिषाला नियमसे है । जो सम्यक्प्रकृतिकी विभक्तिवाला है वह मिथ्यात्व सम्यगूमिध्यात्व और
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န်မွန်
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पयडिविहत्ती २
०
सिया अविह० ; सेसाणं णियमा विहत्तिओ । सम्मत्त० जो विहसिओ सो मिच्छत्तसम्मामि० - अनंताणु० चउक्क० सिया विह० सिया अविह०; सेसाणं णियमा विह० । सम्मामि ० जो विहत्तिओ सो मिच्छत्त० -अणंताणु० चउक्क० सिया विह० सिया अविह०; सेसाणं णियमा विह० । अनंताणु० कोध० जो विहत्तिओ सो सव्वपयडीणं णियमा विहाओ । एवं तिन्हं कसायाणं । अपश्च० कोध० जो विहत्तिओ सो मिच्छत्त-सम्मत्त - सम्मामि० - अनंताणु० चउक्क० सिया विह० सिया अविह०; एक्कारस कसाय णवणोकसाय० णियमा विह० । एवमेक्कारसकसाय - णवणोकसायाणं । एवं संजदासंजदाणं । सुमसां पराय • मिच्छत्तस्स जो विहत्तिओ सो सव्वपयडीणं णियमा विहति । एवं सम्मामिच्छत्ताणं । अपच्च० कोध० जो विह० सो मिच्छत्त - सम्मत्त - सम्मामि० सिया विह० सिया अविह० ; सेसाणं णियमा विह० । एवं दसक०णवणोकसायाणं । लोभसंज० जो विहात्तओ सो सेसाणं सिया विह० सिया अविह० । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है । किन्तु शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला नियमसे है । जो सम्यमिध्यात्वकी विभक्तिवाला है वह मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है; किन्तु शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला नियमसे है । जो अनन्तानुबन्धी क्रोधकी विभक्तिवाला है वह नियमसे सब प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला है । इसीप्रकार अनन्तानुबन्धी मान आदि तीन कषायकी अपेक्षा जानना चाहिये । जो अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकी विभक्तिवाला है वह मिथ्यात्व सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है । किन्तु शेष ग्यारह कषाय और नौ नोकषायोंकी विभक्तिवाला नियमसे है । इसी प्रकार ग्यारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिये । इसीप्रकार संयतासंयतोंके कथन करना चाहिये । सूक्ष्मसांपरायिकसंयत जीवोंमें जो मिध्यात्वकी विभक्तिवाला है वह अनन्तानुबन्धी चतुष्कके सिवाय शेष सब प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला नियमसे है । इसीप्रकार सम्यग्मिध्यत्व की अपेक्षा जानना चाहिये । जो अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकी विभक्तिवाला है वह मिध्यात्व, सम्यक् प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है। किन्तु वह शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला नियमसे है । इसीप्रकार लोभसंज्वलनको छोड़कर अप्रत्याख्यानावरण मान आदि दस कषाय और नौ कषायकी अपेक्षा जानना चाहिये । जो लोभसंज्वलनकी विभक्तिवाला है वह शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है ।
I
विशेषार्थ - सूक्ष्म सांपरायिक जीवोंके २४.२१ और १ ये तीन विभक्तिस्थान होते हैं । यहांभी अनन्तानुबन्धी चारको छोड़कर शेष चौबीस प्रकृतियोंकी अपेक्षा विचार किया गया है । ऊपर के सभी विकल्प इसी अपेक्षासे घटित कर लेना चाहिये ।
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिविहत्तीए सरिणयासो
१४३
किण्हणील० वेडव्वियकायजोगिभंगो | अभवसिद्धि० मिच्छत्त० जो विहत्तिओ सो पणुबी संपयडीणं णियमा विहत्तिओ । एवं पणुबीसपयडीणं ।
$ १५२. खइयसम्मादिट्ठीसु अपश्च० कोध० जो विहत्तिओ सो बीसहं पयडीणं णियमा विह० । एवं सत्तक० । सेसाणमोघभंगो । वेदगसम्मादिट्ठीसु मिच्छत्तस्स जो विहत्तिओ सो अनंताणु ० चउक्क० सिया विह० सिया अविह० : सेसाणं णियमा विहत्तिओ | सम्मत्त० जो विहत्तिओ सो मिच्छत्त-सम्मामि० - अणंताणु ० चउक्क० सिया विह० सिया अहि०; सेसाणं णियमा विह० । एवं बारसक० णवणोकसाय० । सम्मामि ० जो विहत्तिओ सो मिच्छत्त-अनंताणु० चउक्क० सिया विह० सिया अविह० । सेसाणं णियमा विह० । अनंताणु० कोध० जो विहत्तिओ सो सव्वपयडीणं णियमा विह० । एवं तिन्हं कसायाणं । उवसमसम्माइट्टीसु मिच्छत्तस्स जो विहत्तिओ सो अताणु ० चउक्क० सिया विह० सिया अविह०; सेसाणं णियमा विहत्तिओ । एवं सम्मत्त सम्मामिच्छत्त बारसकसाय - णवणोकसाय० । अनंताणु०कोध० जो विहत्तिओ
कृष्ण और नीललेश्या वालोंके वैक्रियिककाययोगी जीवोंके समान समझना चाहिये । अभव्य जीवोंमें जो मिथ्यात्वकी विभक्तिबाला है वह सम्यक् प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वको छोड़कर शेष पच्चीस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला नियमसे है । इसी प्रकार पचीस प्रकृतियोंकी अपेक्षा जानना चाहिये ।
१५२. क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवों में जो अप्रत्याख्यानावरण क्रोध की विभक्तिवाला है वह बीस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला नियमसे है । इसीप्रकार अप्रत्याख्यानावरण मान आदि सात कषायकी अपेक्षा जानना चाहिये । शेष प्रकृतियोंकी अपेक्षा कथन ओघके समान है । वेदक सम्यग्दृष्टियों में जो मिथ्यात्वकी विभक्तिवाला है वह अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है । किन्तु शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला नियमसे है । जो सम्यक्प्रकृतिकी विभक्तिवाला है वह मिध्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है । किन्तु शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला नियमसे है । इसी प्रकार बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिये । जो सम्यग्मिथ्यात्व की विभक्तिवाला है वह मिध्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है । किन्तु शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला नियमसे है । जो अनन्तानुबन्धी क्रोध की विभक्तिवाला है वह सभी प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला नियमसे है । इसीप्रकार अनतानुबन्धी मान आदि तीन कषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिये । उपशम सम्यग्दृष्टि जीवों में जो मिथ्यात्वकी विभक्तिवाला है वह अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है । किन्तु वह शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला नियमसे है । इसीप्रकार सम्यक्प्रकृति, सम्यकग्मिध्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा जानना
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१४४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ सो सव्वपयडीणं णियमा विहत्तिओ । एवं तिण्हं कसायाणं । सासणसम्माइटीसु जो मिच्छत्तस्स विहत्तिओ सो सव्वपयडीणं णियमा विहत्तिओ। एवं सव्वासिं पयडीणं । सम्मामिच्छादिहीसु मिच्छत्त० जो विहत्तिओ सो अणंताणु० चउक्क० सिया विह० सिया अविह०; सेसाणं णियमा विहः । एवं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तबारसक०-णवणोकसाय० । अणंताणु० कोध जो विह० सो मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०पण्णारसक०-णवणोक० णियमा विहत्तिओ। एवं तिण्हं कसायाणं ।
एवं सण्णियासो समत्तो। ६१५३. णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमेण दविहो णिदेसो, ओघेण ओदेसेण य। तत्थ ओघेण अट्ठावीसंपयडीण विहत्तिया अविहत्तिया च णियमा अस्थि । एवं मणुसतियस्स पंचिंदिय-पंचिं० पञ्ज०-तस-तसपञ्जत्त-तिणिमण-तिणि वचि-कायजोगि०ओरालिय०-संजदा (संजद)-सुक्कले०-भवसिद्धि०-सम्मादिहि०-आहारए त्ति वत्तव्वं । चाहिये । जो अनन्तानुबन्धी क्रोधकी विभक्तिवाला है वह नियमसे सब प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला है। इसीप्रकार अनन्तानुबन्धी मान आदि तीन कषायोंकी अपेक्षा भी जानना चाहिये। सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें जो मिथ्यात्वकी विभक्तिवाला है वह नियमसे सब प्रकृतियोंकी विभक्तिबाला है। इसीप्रकार सब प्रकृतियोंकी अपेक्षा जानना चाहिये । सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवोंमें जो मिथ्यात्वकी विभक्तिवाला है वह अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवालाभी है और नहीं भी है। किन्तु शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला नियमसे है । इसी प्रकार सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिये । जो अनन्तानुबन्धी क्रोधकी विभक्तिवाला है वह मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति सम्यग्मिथ्यात्व, पन्द्रह कषाय और नौ नोकषायोंकी विभक्तिवाला नियमसे है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी मान आदि तीन कषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिये ।
इसप्रकार सग्निकर्ष अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। ६१५३. नाना जीवों की अपेक्षाभंगविचयानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा अट्ठाईस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं । इसीप्रकार सामान्य और पर्याप्त मनुष्य तथा मनुष्यणी इन तीन प्रकारके मनुष्य, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस, त्रस पर्याप्त, सामान्य, सत्य और अनुभय ये तीन मनोयोगी, सामान्य, सत्य और अनुभय ये तीन वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, संयत, शुक्ललेश्यावाले भव्य, सम्यग्दृष्टि और आहारक जीवोंके कथन करना चाहिये।
विशेषार्थ-यहां ऐसी मार्गणाओंका ही ग्रहण किया है जिनमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी विभक्ति और अविभक्तिवाले नाना जीव संभव हैं।
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिविहत्तीए भंगविचो
- ६१५४. आदेसेण णिरयगदीए णेरइएसु मिच्छत्त-सम्मत-सम्मामि०-अणंताणु०चउकाणं अत्थि णियमा विहत्तिया च अविहत्तिया च; सेसाणं पयडीणं अस्थि विहत्तिया चेव । एवं पढमाए पुढवीए तिरिक्ख०-पंचिंतिरिक्ख-पंचिं०तिरि०पजत्तदेवा-सोहम्मीसाण जाव सम्वसिद्धि ति वेउब्विय०-परिहार०-संजदासंजद-असंजदपंचलेम्सेत्ति वत्तव्यं । विदियादि जाव सत्तमि त्ति सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-अणंताणु०चउकाणं विहत्तिया अविहत्तिया च णियमा अत्थि; सेसाणं पय० विहत्तिया णियमा अस्थि । एवं पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी-भवण-वाण-जोदिसि० वत्तव्वं । पंचिंदियतिरिक्खअपजत्तएसु सम्मत्त-सम्मामि० विहत्तिया अविहत्तिया च णियमा अस्थि सेसाणं विहत्तिया णियमा अत्थि । एवं सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज०तसअपज्ज०-सव्वपंचकाय-मदि-सुदअण्णाणि-विहंग-मिच्छादिष्ठि-असण्णि त्ति वत्तव्वं ।
६१५४. आदेशकी अपेक्षा नरकगतिमें नारकियोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति, सम्यगमिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं। शेष इक्कीस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले ही जीव हैं। इसीप्रकार पहली पृथ्वीमें और सामान्य तियंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिथंच पर्याप्त, सामान्य देव, सौधर्म-ऐशान स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव, वैक्रियिककाययोगी, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, असंयत, और कृष्ण आदि पांच लेश्यावाले जीवोंके कथन करना चाहिये । दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक प्रत्येक पृथिवीमें सम्यक्प्रकृति, सम्यमिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं। तथा शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले ही हैं। इसीप्रकार पंचेन्द्रिय तिथंच योनिमती, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंके कथन करना चाहिये।
विशेषार्थ-सामान्य नारकियोंसे लेकर पालेश्यावाले जीवों तक सभी जीव इक्कीस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले तो नियमसे हैं। पर मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यगमिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले भी नाना जीव होते हैं। तथा दूसरी पृथिवीसे लेकर जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें सभी जीव बाईस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले तो नियमसे हैं। पर सम्यक्त्व, सम्यमिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले भी नाना जीव होते हैं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंमें सम्यक्प्रकृति और सम्यमिथ्यात्वकी विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं । किन्तु शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले ही हैं। इसीप्रकार सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक, त्रस लब्ध्यपर्याप्तक, सब प्रकारके पांचों स्थावरकाय, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, मिथ्यादृष्टि और असंझी जीवोंके कथन करना चाहिये ।
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१४६
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पयडिविहत्ती २
$ १५५. मणुस्स-अपज० सिया अत्थि सिया णत्थि । जदि अत्थि तो छव्वीसं पयडीणं णियमा विहत्तिया, अविहत्तिया णत्थि । सम्मत्तस्स अह भंगा ८ । तं जहा, सिया विहत्तिओ १, सिया अविहत्तिओ २, सिया विहत्तिया ३, सिया अविहत्तिया ४, सिया विहत्तिओ च सिया अविहत्तिओ च ५, सिया विहत्तिओ च सिया अविहत्तिया च ६, सिया विहत्तिया च अविहत्तिओ च ७, सिया विहत्तिया च अविहत्तिया च ८ । एवं सम्मामिच्छत्तस्स वि वत्तव्यं । बेमण० -बेवचि० मिच्छत्त-सम्मत सम्मामि० -अणंताणु ० चउकाणं विहत्तिया अविहत्तिया च णियमा अत्थि । बारसक० - णवणोकसाय० सिया सव्वे जीवा विहत्तिया, सिया विहत्तिया च अविहत्तिओ च, सिया विहत्तिया च अविहत्तिया च, एवं तिणि भंगा । एवमाभिणि० सुद० - ओहि ० -मणपञ्जव०
विशेषार्थ - ये ऊपर जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें २६ प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले तो सभी जीव हैं पर सम्यक्त्व और सम्यगमिध्यात्वकी विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले भी नाना जीव होते हैं ।
१५५. लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं होते । यदि होते हैं तो नियमसे सम्यक्प्रकृति और सम्यगमिध्यात्वसे अतिरिक्त शेष छब्बीस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले होते हैं। उक्त छब्बीस प्रकृतियोंकी अविभक्तिवाले नहीं होते हैं। तथा सम्यक्प्रकृतिकी अपेक्षा आठ भंग होते हैं । वे इसप्रकार हैं- कदाचित सम्यक्प्रकृतिकी विभक्तिवाला एक जीव होता है १ । कदाचित् सम्यक्प्रकृतिकी अविभक्तिवाला एक जीव होता है २ । कदाचित् सम्यक्प्रकृतिकी विभक्तिवाले अनेक जीव होते हैं ३ । कदाचित् सम्यक्प्रकृतिकी अविभक्तिवाले अनेक जीव होते हैं ४ । कदाचित् सम्यक्प्रकृतिकी विभक्तिवाला एक जीव और अविभक्तिवाला एक जीव होता है ५ । कदाचित् सम्यक्प्रकृतिकी विभक्तिवाला एक जीव और अविभक्तिवाले अनेक जीव होते हैं ६ । कदाचित् सम्यक्प्रकृतिकी विभक्तिवाले अनेक जीव और अविभक्तिवाला एक जीव होता है ७ । कदाचित् सम्यक्प्रकृतिकी विभक्ति और अविभक्तिवाले अनेक जीव होते हैं ८। इसीप्रकार सम्यग्मिथ्यात्व की अपेक्षा भी आठ भंग कहना चाहिये ।
असत्य और उभय इन दो मनोयोगी और इन्हीं दो वचनयोगी जीवोंमें मिध्यात्व, सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीकी विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं । तथा बारह कषाय और नौ नोकषायकी विभक्तिवाले कदाचित् सभी जीव हैं १ । कदाचित् अनेक जीव बारह कषाय और नौ नोकषार्योकी विभक्तिवाले और . एक जीव अविभक्तिवाला है २ । कदाचित् अनेक जीव बारह कषाय और नौ नोकपायोंकी विभक्तिवाले और अनेक जीव अविभक्तिवाले हैं ३ । इसप्रकार तीन भंग होते हैं । इसीप्रकार मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी अवधिज्ञानी, मनः पर्ययज्ञानी, चक्षुदर्शनी, अचक्षु
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिविहत्तीए भंगविचो चक्खु०-अचक्खु०-ओहिदसण-सण्णि त्ति वत्तव्वं ।
१५६. ओरालियमिस्स० जोगीसु मिच्छत्त-सोलसकसाय-णवणोकसाय० सिया सव्वे जीवा विहत्तिया, सिया विहत्तिया च अविहत्तिओ च, सिया विहत्तिया च अविहत्तिया च एवं तिण्णि भंगा। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त० विहत्तिया अविहत्तिया च णियमा अस्थि । एवं कम्मइय० वत्तव्यं । गवरि, सम्मत्त-सम्मामि० विहत्तिया भयणिजा । वेउब्धियमिस्स०जोगीसु मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणु०चउकाणं अह भंगा। तं जहा, सिया विहत्तिओ १, सिया अविहत्तिओ २, सिया विहत्तिया ३, सिया अविहत्तिया ४, सिया विहत्तिओ च अविहत्तिओ च ५, सिया विहत्तिओ च अविहत्तिया च ६, सिया विहत्तिया च अविहत्तिओ च ७, सिया विहत्तिया च अविदर्शनी,अवधिदर्शनी और संज्ञी जीवोंके कहना चाहिये।
विशेषार्थ-इन उपर्युक्त मार्गणाओंमें क्षीणकषाय गुणस्थान भी होता है और क्षीणक षायमें कदाचित् एक भी जीव नहीं रहता। यदि होते हैं तो कदाचित् एक और कदाचित् नाना जीव होते हैं। इसी अपेक्षासे ऊपर तीन भंग घटित करना चाहिये। शेष कथन सरल है।
११५६. औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें कदाचित् मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी विभक्तिवाले सब जीव हैं। कदाचित् अनेक जीव विभक्तिवाले और एक जीव अविभक्तिवाला है। कदाचित् अनेक जीव विभक्तिवाले और अनेक जीव अविभक्तिवाले है। इस प्रकार उक्त छब्बीस प्रकृतियोंकी अपेक्षा तीन भंग होते हैं। तथा सम्यक्प्रकृति
और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले अनेक जीव नियमसे हैं। इसीप्रकार कार्मणकाययोगी जीवोंका कथन करना चाहिये। इतनी विशेषता है कि सम्यक्प्रकृति और सम्यमिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीव भजनीय हैं।
विशेषार्थ-ऊपर मिथ्यात्व आदि छब्बीस प्रकृतियोंकी अविभक्तिवाले जीवोंके जो तीन भंग कहे हैं वे केवलीके कपाट समुद्धातपदकी अपेक्षासे कहे हैं, क्योंकि कदाचित् एक भी जीव केवलिसमुद्धात नहीं करता, कदाचित् अनेक जीव और कदाचित् एक जीव केवलिसमुद्धात् करते हैं अतः उक्त तीन भंग बन जाते हैं। कार्मणकाययोगियोंमें ये तीन भंग प्रतर और लोकपूरण समुद्धातकी अपेक्षा घटित करना चाहिये । शेष कथन सरल है।
वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति, सम्यमिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षा आठ भंग होते हैं। वे इसप्रकार हैं-कदाचित् एक जीव उक्त प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला है १ । कदाचित् एक जीव अविभक्तिवाला है २। कदाचित् अनेक जीव विभक्तिवाले हैं ३ । कदाचित अनेक जीव अविभक्तिवाले हैं ४ । कदाचित एक जीव विभक्तिवाला है और एक जीव अविभक्तिवाला है ५। कदाचित् एक जीव विभक्तिवाला और अनेक जीव अविभक्तिवाले हैं ६ । कदाचित् अनेक जीव विभक्तिवाले
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे. [पयडिविहत्ती २ हत्तिया चेदि ८। बारसकसाय-णवणोकसायाणं सिया विहत्तिओ सिया विहत्तिया । एवमाहार०-आहारमिस्स जोगीणं ।
१५७. वेदाणुवादेण इत्थिवेदेसु मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणु० चउक्काणं विहत्तिया अविहत्तिया च णियमा अस्थि । अट्ठकसाय-णqसयवेदाणं सिया सव्वे जीवा विहत्तिया, सिया विहत्तिया च अविहत्तिओ च, सिया विहत्तिया च अविहत्तिया च एवं तिण्णि भंगा। चचारिसंजलण-अहणोकसायाणं णियमा अस्थि विहत्तिया, अविहत्तिया णत्थि । एवं णवंस०, णवरि इत्थिवेदे णवूस० मंगो। प्ररिसवेदे मिच्छत्तसम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणु० चउक्काणं विहत्तिया अविहत्तिया च णियमा अस्थि । अटक०-अहणोकसाय० सिया सव्वे जीवा विहत्तिया, सिया विहत्तिया च अविहत्तिओ च, सिया विहत्तिया च अविहत्तिया च एवं तिण्णि भंगा। चत्तारिसंजलण-पुरिसवेदाणं विहत्तिया णियमा अस्थि । अवगदवेदेसु चउवीसहं पयडीणं सिया सव्वे जीवा और एक जीव अविभक्तिवाला है ७ । कदाचित् अनेक जीव विभक्तिवाले और अनेक जीव अविभक्तिवाले है ८ । तथा बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा कदाचित् एक जीव विभक्तिवाला है और कदाचित अनेक जीव विभक्तिवाले हैं। इसीप्रकार आहारक काययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंके कथन करना चाहिये।
६१५७. वेदमार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदी जीवों में मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति, सम्यगमिध्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं। अप्रत्याख्यानावरण क्रोध आदि आठ कषाय और नपुंसकवेदकी अपेक्षा कदाचित् सभी जीव विभक्तिवाले हैं । कदाचित् अनेक जीव विभक्तिवाले और एक जीव अविभक्तिवाला है। कदाचित् अनेक जीव विभक्तिवाले और अनेक जीव अविभक्तिवाले हैं। इस प्रकार तीन भंग होते है । चार संज्वलन और आठ नोकषायोंकी अपेक्षा सभी स्त्रीवेदी जीव नियमसे विभक्तिवाले हैं, अविभक्तिवाले नहीं हैं। नपुंसकवेदी जीवोंके इसीप्रकार कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेदके स्थानमें नपुंसकवेद कहना चाहिये । पुरुषवेदी जीवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति, सम्ममिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले और अविभक्ति जीव नियमसे हैं । अप्रत्याख्यानावरण क्रोध आदि आठ कषाय और आठ नोकषायोंकी अपेक्षा कदाचित् सभी पुरुषवेदी जीव विभक्तिवाले हैं १। कदाचित् अनेक जीव विभक्तिवाले और एक जीव अविभक्तिवाला है २ । कदाचित् अनेक पुरुषवेदी जीव विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले हैं ३ । इसप्रकार तीन भंग होते हैं। चार संज्वलन और पुरुषवेदकी अपेक्षा सभी पुरुषवेदी नियमसे विभक्तिवाले हैं। अपगतवेदियों में कदाचित् सभी अपगतवेदी जीव चौबीस प्रकृतियोंकी अविभक्तिवाले हैं १। कदाचित् अनेक जीव अविभक्तिवाले और एक जीव विभक्तिबाला है २ ! कदाचित् अनेक जीव
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गां० २२ उत्तरपयडिविहत्तीए मंगविचो
१४६ अविहत्तिया, सिया अविहत्तिया च विहत्तिओ च, सिया अविहत्तिया च विहत्तिया च एवं तिण्णि भंगा।
$ १५८. कसायाणुवादेण कोधस्स पुरिसभंगो। णवरि, पुरिस० बेमणभंगो। एवं माणक० । णवरि कोध० बेमणभंगो। एवं मायक० । णवरि माण० बेमणभंगो। एवं लोभ० । णवरि माया० बेमणभंगो । एवं सामाइयच्छेदो० । अकसाय० अवगदवेदभंगो। एवं जहाक्खाद० वत्तव्वं । सुहुमसांपराय० एकारसक०-णवणोकसाय-मिच्छत्तसम्मत-सम्मामिच्छत्ताणं अट्ठभंगा । तं जहा, सिया अविहत्तिओ, सिया विहत्तिओ, सिया अविहत्तिया, सिया विहत्तिया, सिया अविहत्तिओ च विहत्तिओ च, सिया अविहत्तिओ च विहत्तिया च, सिया अविहत्तिया च विहत्तिओ च, सिया अविहत्तिया च विहत्तिया चेदि । लोभसंजलण सिया विहत्तिओ, सिया विहत्तिया । अविभक्तिवाले और अनेक जीव विभक्तिवाले हैं ३ । इसप्रकार तीन भंग होते हैं।
६१५८. कषायमार्गणाके अनुवादसे क्रोधकषायी जीवोंके भंग पुरुषवेदी जीवोंके समान होते हैं। इतनी विशेषता है कि क्रोधकषायीके पुरुषवेदकी अपेक्षा असत्य और उभय मनो. योगीके समान तीन भंग होते हैं। इसीप्रकार मानकषायी जीवोंके कथन करना चाहिये। इतनी विशेषता है कि मानकषायीके क्रोधकी अपेक्षा असत्य और उभय मनोयोगीके समान तीन भंग होते हैं। इसीप्रकार मायाकषायी जीवोंके कथन करना चाहिये । इतनी विशेपता है कि मायाकषायी जीवोंके मानकषायकी अपेक्षा असत्य और उभय मनोयोगीके समान तीन भंग होते हैं। इसीप्रकार लोभकषायी जीवोंके कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि लोभकषायी जीवोंके मायाकषायकी अपेक्षा असत्य और उभय मनोयोगीके समान तीन भंग होते हैं। इसीप्रकार सामायिक संयत और छेदोपस्थापना संयत जीवोंके कथन करना चाहिये। अकषायिक जीवोंके अपगतवैदियोंके समान कथन करना चाहिये । तथा इसीप्रकार यथाख्यात संयत जीवोंके कहना चाहिये।।
सूक्ष्मसांपरायिक संयत जीवोंके अप्रत्याख्यानावरण क्रोध आदि ग्यारह कषाय, नौ नोकषाय, मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा आठ भंग होते हैं। वे इसप्रकार हैं-कदाचित् एक जीव अविभक्तिवाला है १। कदाचित् एक जीव विभक्तिवाला है २। कदाचित् अनेक जीव अविभक्तिवाले हैं ३॥ कदाचित् अनेक जीव विभक्तिवाले हैं। कदाचित् एक जीव अविभक्तिवाला और एक जीव विभक्तिवाला है ५ । कदाचित् एक जीव अविभक्तिवाला और अनेक जीव विभक्तिवाले हैं ६॥ कदाचित् अनेक जीव अविभक्तिवाले और एक जीव विभक्तिवाला है ७। कदाचित् अनेक जीव अविभक्तिवाले और अनेक जीव विभक्तिवाले हैं - । लोभसंज्वलनकी अपेक्षा कदाचित् एक जीव विभक्तिवाला है और कदाचित् अनेक जीव विभक्तिवाले हैं।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [पयडिविहत्ती २ ६ १५६. अभवसिद्धिय० सव्वपयडीओ णियमा अस्थि । खइयसम्माइट्टीसु एक्कवीसपयडीणं विहत्तिया अविहत्तिया च णियमा अस्थि । वेदगसम्मादिहीसु मिच्छत्तसम्मामि० सिया सव्वे जीवा विहत्तिया, सिया विहत्तिया च अविहत्तिओ च, सिया विहत्तिया च अविहत्तिया च एवं तिण्णि भंगा । अणंताणु० चउक्कस्स विहत्तिया अविहत्तिया च णियमा अस्थि । सम्मत्त-बारसक०-णवणोकसाय० विहत्तिया णियमा अस्थि । उवसमसम्माइटीसु अणंताणुबंधिचउक्कस्स विह० अविह० अह भंगा। सेसाणं पयडीणं सिया विहत्तिओ, सिया विहत्तिया । एवं सम्मामि० । सासणेसु सव्वपयडीणं सिया विहत्तिओ सिया विहत्तिया । अणाहारएसु ओघमंगो। णवरि, सम्मत्तसम्मामि० विह० भयणिज्जा ।
एवं णाणाजीवेहि भंग-विचओ समत्तो।
विशेषार्थ-सूक्ष्मसांपराय गुणस्थानमें कदाचित् एक जीव क्षपक ही होता है। कदाचित् एक जीव उपशमक ही होता है । कदाचित् अनेक जीव क्षपक ही होते हैं। कदाचित् अनेक जीव उपशमक ही होते हैं। कदाचित् एक जीव क्षपक और एक जीव उपशमक होता है। कदाचित् एक जीव क्षपक और अनेक जीव उपशमक होते हैं। कदाचित् अनेक जीव क्षपक और एक जीव उपशमक होता है तथा कदाचित् अनेक जीव क्षपक और अनेक जीव उपशमक होते हैं। इसी अपेक्षासे ऊपर २३ प्रकृतियोंकी अपेक्षा आठ भंग कहे हैं। पर वहां दोनों श्रेणीवालोंके लोभसंज्वलनका सत्त्व ही पाया जाता है। अतः इसकी अपेक्षा उपर्युक्त दो ही भंग होते हैं।
१५६.अभव्योंके सभी प्रकृतियां नियमसे हैं। क्षायिक सम्यग्दृष्टियों में इक्कीस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं। वेदकसम्यग्दृष्टियों में कदाचित सभी जीव जीव मिथ्यात्व और सम्यमिथ्यात्वकी विभक्तिवाले हैं १ । कदाचित् अनेक विभक्तिवाले और एक जीव अविभक्तिवाला है २। कदाचित् अनेक जीव विभक्तिवाले और अनेक जीव अविभक्तिवाले हैं ३। इसप्रकार तीन भंग होते हैं । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं । किन्तु सभी वेदकसम्यग्दृष्टि जीव सम्यक्प्रकृति, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी नियमसे विभक्तिवाले हैं। उपशमसम्यग्दृष्टियों में अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्ति और अविभक्तिवाले जीवोंकी अपेक्षा आठ भंग होते हैं। शेष चौबीस प्रकृतियोंकी अपेक्षा कदाचित् एक और कदाचित् अनेक जीव विभक्तिवाले हैं। इसीप्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके कहना चाहिये। सासादन सम्यग्दृष्टियों में सभी प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले कदाचित् एक जीव और कदाचित् अनेक जीव होते हैं। अनाहारक जीवोंमें ओघके समान समझना चाहिये । इतनी विशेषता है कि सम्यक्प्रकृति और सम्यग्निध्यात्वकी विभक्तिवाले जीव भजनीय हैं।
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गा० २२)
उत्तरपयडिविहत्तीए भागाभागो
१५१
१६०. भागाभागाणुगमेण दुविहो णिद्देसो, ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण छव्वीसं पयडीणं विहत्तिया सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? अणंता भागा। अविहलिया सव्वजीवाणं केवडिओ भागो! अणंतिमभागो। एवं सम्मत्त-सम्मामि० वत्तव्वं । णवरि, विवरीयं कायव्वं । एवं काययोगि-ओरालियामिस्स-कम्मइय०-अचक्खु०-भवसिद्धि०-आहारि०-अणाहारि त्ति वत्तव्यं । - विशेषार्थ-अभव्यों और क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंके कथनमें कोई विशेषता नहीं है। वेदकसम्यग्दृष्टियों में कदाचित् दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रस्थापक एक भी जीव नहीं पाया जाता, और कदाचित् एक जीव तथा कदाचित् अनेक जीव पाये जाते हैं। इसी दृष्टिसे ऊपर मिथ्यात्व और सम्यग्मिध्यात्वकी विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले जीवोंके तीन भंग कहे हैं । उपशमसम्यक्त्व सान्तर मार्गणा है। इसमें कदाचित् एक जीव और कदाचित् अनेक जीव प्रथमोपशम या द्वितीयोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त होते हैं। अतः इनके परस्पर संयोगसे आठ भंग हो जाते हैं । मिश्रगुणस्थान भी सान्तर मार्गणा है। इसमें अनन्तानुबन्धीकी विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले कदाचित् एक और अनेक जीव प्रवेश करते हैं । अतः यहां भी परस्परके संयोगसे आठ भंग हो जाते हैं । शेष कथन सुगम है ।
इसप्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय अनुयोगद्वार समाप्त हुआ।
६१६०. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघनिर्देशकी अपेक्षा छब्बीस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण है ? अनन्त बहुभागप्रमाण हैं। अविभक्तिवाले सब जीवोंके कितने भागप्रमाण है ? अनन्तवें भागप्रमाण हैं । इसीप्रकार सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिध्यात्वकी अपेक्षा कहना चाहिये। इतनी विशेषता है कि यहां प्रमाणको बदल देना चाहिये । अर्थात् इन दोनों प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीव सब जीवोंके अनन्तवें भाग हैं और अविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके अनन्त बहुभाग हैं। इसीप्रकार काययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, अचक्षुदर्शनी, भव्य, आहारक और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिये ।
विशेषार्थ-क्षीणकषाय गुणस्थानवाले आदि जीव ही छब्बीस प्रकृतियोंकी अविभक्तिवाले हैं। शेष सब संसारी जीव छब्बीस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले होते हैं जो अनन्त बहुभाग हैं। इसी विवक्षासे ऊपर छब्बीस प्रकृतियों की विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले जीवोंका भागाभाग कहा है। पर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीव थोड़े हैं क्योंकि जिन्होंने एक बार सम्यक्त्व प्राप्त कर लिया है ऐसे जीवोंके ही इन दो प्रकृतियोंका सत्त्व पाया जाता है जिनका प्रमाण इनकी अविभक्तिवाले जीवोंसे स्वल्प है । अतः यहां अविभक्तिवालोंका प्रमाण अनन्तबहुभाग और विभक्तिवालोंका प्रमाण अनन्त एकभाग कहा है। ऊपर जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं वहां भी इसीप्रकार समझना ।
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१५२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ ६१६१. आदेसेण णिरयगईए रईएसु मिच्छत्त-अणताणु० चउक्क० विहत्तिया सम्वेजीवा० केव० ? असंखेज्जा भागा । अविहत्ति० सव्वजीव. केव० भागो ? असंखेजदिभागो । सम्मत्त-सम्मामि विहत्ति० सव्वजीवा० केवडिओ भागो? असंखेअदिभागो। अविहत्तिया सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? असंखेजा भागा । सेसाणं पयडीणं णत्थि भागाभागो । एवं पढमाए पुढवीए । पंचिंदियतिक्खि-पंचिंतिरि० पज्ज०-देवा-सोहम्मीसाणप्पहुडि जाव सहस्सारेत्ति-वेउव्विय०-वेउव्वियमिस्स०तेउ०-पम्म० वत्तव्वं । विदियादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेव वत्तव्वं । णवरि, मिच्छत्तभागाभागो णस्थि । एवं पंचिंदियतिरिक्खजोणिणि-भवण-वाण-जोदिसि०वत्तव्यं ।
६१६२. तिरिक्खगईए तिरिक्खेसु मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणु०चउक०
६१६१. आदेशकी अपेक्षा नरकगतिमें नरकियोंमें मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले नारकी जीव सब नरकियोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। तथा अविभक्तिवाले नारकी जीव सब नारकियोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले नारकी जीव सब नारकियोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। तया अविभक्तिवाले नारकी जीव सब नारकियोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? असंख्यात बहुभाग प्रमाण हैं । उक्त सात प्रकृतियोंके सिवाय शेष प्रकृतियोंकी अपेक्षा नारकियोंमें भागाभाग नहीं है। इसीप्रकार पहली पृथिवी, पंचेन्द्रियतियंच, पंचेन्द्रियतिथंच पर्याप्त, सामान्य देव, सौधर्म और ऐशान स्वर्गसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देव, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी पीतलेश्यावाले और पद्मलेश्यावाले जीवोंके कहना चाहिये । दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक इसीप्रकार कथन करना चाहिये। इतनी विशेषता है कि वहां मिथ्यात्वकी अपेक्षा भागाभाग नहीं है। इसीप्रकार पंचेन्द्रिय तिथंच योनिमती, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंके कहना चाहिये ।
विशेषार्थ-नरकमें मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले जीव असं. ख्यात होते हुए भी बहुभाग हैं और इनकी अविभक्तिवाले जीव एक भाग है। पर सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्वकी विभक्तिवाले एक भाग और अविभक्तिवाले बहुभाग हैं। इसी बातको ध्यानमें रखकर उपर्युक्त भागाभाग कहा है । तथा पहली पृथिवीसे लेकर पद्मलेश्यावाले जीवोंके इसीप्रकार भागाभाग संभव है। अतः इनके भागाभागको सामान्य नारकियोंके भागाभागके समान कहा। किन्तु दूसरी पृथिवीसे लेकर और जितनी मार्गणाएँ ऊपर गिनाई हैं उनमें मिथ्यात्वका अभाव नहीं होता । अतः इसके भागाभागको छोड़कर शेष कथन सामान्य नारकियोंके समान जाननेका निर्देश किया है।
१६२.तियंचगतिमें तियंचोंमें मिथ्यात्व, सम्यकप्रकृति, सम्यगूमिथ्यात्व और अनन्ता
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिविहत्ती भागाभागो
विद्द० अविह० ओघभंगो । सेसाणं णत्थि भागाभागो । एवमसंजद० - तिण्णिलेस्साणं वत्तव्वं । पंचिदियतिरिक्खअपज० सम्मत - सम्मामिच्छत्ताणं णेरइयभंगो । सेसाणं णत्थि भागाभागो । एवं मणुसअपज० - सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज० -तस अपज०चत्तारिकाय बादर० सुहुम० पञ्जत्तापञ्जत्त० विहंग० वत्तव्वं ।
०
S १६३. मणुसगईए मणुस्सेसु मिच्छत्त- सोलसक० णवणोकसाय० विहसिया सब्जीवा• केवडिओ भागो ? असंखेजा भागा। अविहत्ति ० सव्वजीवा० केव० भागो ? असंखेजदिभागो । सम्मत्त सम्मामि० विह० सव्वजी० के० ? असंखेजदिभागो । अवि • सव्वजी० के० १ असंखेजा भागा । एवं पंचिंदिय पंचिंदि० पञ्ज० -तस-तसपञ्ज०पंचमण० - पंचवचि०-आभिणि०- सुद०- ओहि ० - चक्खु०- ओहिदंस०- सुक्क०-सणित्ति नुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले तिर्यंचों का भागाभाग ओघ के समान है । तिर्यचों में शेष इक्कीस प्रकृतियोंकी अपेक्षा भागाभाग नहीं है । इसीप्रकार असंयत और कृष्ण आदि तीन लेश्यावाले जीवों के कहना चाहिये | पंचेन्द्रियतिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकों में सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा भागाभाग नारकियोंके समान है। तथा शेष प्रकृतियोंकी अपेक्षा भागाभाग नहीं है । इसीप्रकार लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक, त्रस लब्ध्यपर्याप्तक, पृथिवी कायिक आदि चार स्थावर काय तथा इनके बादर और सूक्ष्म तथा प्रत्येक बादर और सूक्ष्मके पर्याप्त और अपर्याप्त तथा विभंगज्ञानी जीवोंके कहना चाहिये ।
विशेषार्थ - - सामान्य तिर्यंचोंका प्रमाण अनन्त है, अतः वहां मिध्यात्वादि सात प्रकृतियोंकी अपेक्षा ओघके समान भागाभाग बन जाता है। शेष इक्कीस प्रकृतियाँ इनके सर्वदा पाई जाती हैं। ऊपर जो असंयत आदि चार मार्गणाएँ गिनाई हैं वहां भी इसीप्रकार समझना । तथा पंचेन्द्रियतियेच लब्ध्यपर्याप्त आदि जितनी मार्गणाएँ ऊपर बतलाई हैं उनमें सम्यक्प्रकृति और सम्यगमिध्यात्व का सत्त्व और असत्त्व दोनों सम्भव हैं तथा इनका प्रमाण असंख्यात है अतः इनका भागाभाग सामान्य नारकियोंके समान कहा है ।
२०
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९१६३. मनुष्यगति में मनुष्यों में मिध्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायों की विभक्तिवाले मनुष्य सभी मनुष्योंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं । तथा अविभक्तिवाले मनुष्य सभी मनुष्योंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले मनुष्य सभी मनुष्योंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यातवे भागप्रमाण हैं । तथा अविभक्तिवाले मनुष्य सभी मनुष्योंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं । इसीप्रकार पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस, सपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले और संज्ञी जीवोंके कहना चाहिये । इतनी विशेषता
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ वत्तव्वं । णवरि, आभिणि-सुद०-ओहिणाणि-ओहिदंसणीसु सम्म०-सम्मामि मिच्छत्तभंगो। सुक्कलेस्सि० दंसणतिय-अणंताणु० विह० संखेजा भागा। अवि० सखेजदिभागो । मणुसपञ्ज०-मणुसिणीणमेवं चेव। णवरि संखेचं कायव्वं । एवं मणपजव०संजद०-सामाइयच्छेदो० वत्तव्वं । णवरि, सामाइयच्छेदो० लोभ० भागाभागो णत्यि एगपदत्तादो । आणद-पाणद० जाव सव्वट्ठसिद्धि ति मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणु० चउक्क० विह० सव्वजी० केव० ? संखेज्जा भागा। अविह० सव्वजी० केव० ? संखेजदिभागो । सेसाणं णत्थि भागाभागो। एवमाहार०-आहारमिस्स-परिहार० वत्तव्वं ।
६१६४. इंदियाणुवादेण एइंदिय० सम्मत्त-सम्मामि० ओघभंगो। सेसाणं णत्थि भागाभागो । एवं बादरसुहुम-एइंदिय०-पज्ज०अपज०-वणप्फदि०-णिगोद०बादरहै कि मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी जीवोंमें सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा भागाभाग मिथ्यात्वके समान है। तथा शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें तीन दर्शनमोहनीय और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले जीव सभी शुक्ललेश्यावाले जीवोंके संख्यात बहुभागप्रमाण हैं । और अविभक्तिवाले जीव सभी शुक्ललेश्यावाले जीवोंके संख्यातवें भागप्रमाण हैं। मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियों में इसीप्रकार भागाभाग है। इतनी विशेषता है कि पूर्व में जहां जहां असंख्यात कहा है वहां वहां यहां संख्यात कर लेना चाहिये। इसीप्रकार मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंके कहना चाहिये। इतनी विशेषता है कि सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंके लोभकी अपेक्षा भागाभाग नहीं है क्योंकि वहां लोभ नियमसे है। आनत और प्राणत स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धितक प्रत्येक स्थानमें मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति, सम्यमिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले जीव उक्त स्थानोंके सभी जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। तथा अविभक्तिवाले जीव उक्त स्थानोंके सभी जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यातवें भागप्रमाण हैं । यहां शेष प्रकृतियोंकी अपेक्षा भागाभाग नहीं है। इसीप्रकार अहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी और परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंके कहना चाहिये ।।
६१६४. इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियों में सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिध्यात्वकी अपेक्षा भागाभाग ओघके समान है। यहां शेष छब्बीस प्रकृतियोंकी अपेक्षा भागाभाग नहीं है। इसीप्रकार बादर एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त, वनस्पतिकायिक, निगोदियाजीव, बादर वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त,
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गा० २२ ]
उत्तरपय डिविहत्ती भागाभागी
सुहुम- पज्ज० अपज्ज० - मदि- सुद० -मिच्छादिट्टि असण्ण त्ति वत्तव्वं ।
१६५. वेदाणुवादेण इत्थि वेदे पंचिंदियभंगो। णवरि, चत्तारिसंजलण- अट्टणोक० भागाभागो णत्थि । एवं णउंस० वत्तव्वं । णवरि इत्थवे ० अस्थि भागाभागो । सव्वत्थ अनंतभागाला वो कायव्वो । पुरिसवेदे पंचिदि० भंगो | णवरि, चत्तारिसंजलणपुरिस भागाभागो णत्थि । अवगदवेद० चउवीस० विह० सव्वजी० के० ? अणंतिमभागो । अविह० सव्वजी० के० १ अनंता भागा। एवमकसाय० सम्मादिहिखइय० वत्तव्वं ।
९ १६६. कसायाणुवादेण कोध० ओघभंगो। णवरि, चत्तारिसंजलण० भागाभागो बादर निगोद जीव, सूक्ष्म निगोद जीव, बादर निगोद पर्याप्त जीव, बादर निगोद अपर्याप्त जीव, सूक्ष्म निगोद पर्याप्त जीव, सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीव, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, मिथ्याfष्ट और असंज्ञी जीवोंके कहना चाहिये ।
विशेषार्थ - उपर्युक्त मार्गणावाले जीव अनन्त हैं और यहां सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्व इन दोनोंका सत्व और असत्त्व दोनों सम्भव हैं तथा शेषका सत्व ही है । अतः इन दो प्रकृतियोंकी अपेक्षा उक्त मार्गणाओं में भागाभाग ओघके समान कहा है ।
९१६५. वेदमार्गणा के अनुवादसे स्त्रीवेदी जीवोंके पंचेन्द्रियोंके समान भागाभाग होता है । इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेदी जीवोंके चार संज्वलन और आठ नोकषायकी अपेक्षा भागाभाग नहीं होता । इसीप्रकार नपुंसकवेदी जीवोंके भागाभाग कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि नपुंसकवेदी जीवोंके स्त्रीवेदकी अपेक्षा भी भागाभाग होता है । परन्तु नपुंसक वेदी जीवोंके भागाभाग कहते समय सर्वत्र असंख्यातभागके स्थान में अनन्तभाग कहना चाहिये । पुरुषवेदी जीवोंमें पंचेन्द्रियोंके समान भागाभाग होता है । इतनी विशेषता है कि इनके चार संज्वलन और पुरुषवेदकी अपेक्षा भागाभाग नहीं होता । अपगतवेदी जीवोंमें चौबीस प्रकृतियोंकी विभक्तिबाले जीव समस्त अपगतवेदी जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? अनन्तवें भागप्रमाण हैं । तथा अविभक्तिवाले अपगतवेदी जीव समस्त अपगतवेदी जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? अनन्त बहुभागप्रमाण हैं । इसीप्रकार अकषायी, सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंके भागाभाग कहना चाहिये ।
विशेषार्थ - इन उपर्युक्त मार्गणाओंमें स्त्रीवेद वाले और पुरुषवेदवालों का प्रमाण असंख्यात है । इनके अतिरिक्त शेष सब मार्गणावालोंका प्रमाण अनन्त है । अतः जहां जितनी प्रकृतियोंका सत्त्व और असत्व पाया जाय उस क्रमको ध्यान में रखकर उपर्युक्त व्यवस्थानुसार इन मार्गणाओं में भागाभाग जानना ।
९१६६. कषायमार्गणाके अनुवादसे क्रोधकषायी जीवोंके भागाभाग ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि क्रोधकषायी जीवोंके चार संज्वलनकी अपेक्षा भागाभाग नहीं होता ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [पयडिविहत्ती २ णत्थि। एवं माण०, णवरि तिण्णिसंजलण० भागाभागो णस्थि । एवं माय०, गवरि दोण्हं संजलण० भागाभागो णत्थि । एवं लोभ०, णवरि लोभ० भागाभागो णत्थि । सुहुमसापराय० तेवीसपयडि० विह० सव्वजी० केव० १ संखेजदिभागो। अविह० सव्वजी० केव० ? संखेजा भागा । लोभसंजलण भागाभागो गस्थि० । जहाक्खाद० चउवीस० विह० केव० १ संखेजदिभागो। अविह. सबजी० केव ? संखेजा भागा। संजदासंजद० मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणु० चउक्क० विह० सव्वजी० केव० ? असंखेजा भागा। अविह० केव० ? असंखे भागो। सेसाणं णत्थि भागाभागो। इसीप्रकार मानकषायी जोवोंके भागाभाग होता है। इतनी विशेषता है कि इनके मान आदि तीन संज्वलनकी अपेक्षा भागाभाग नहीं होता। इसीप्रकार मायाकषायी जीवोंके भागाभाग होता है। इतनी विशेषता है कि इनके माया और लोभ संज्वलनकी अपेक्षा भागाभाग नहीं होता। इसीप्रकार लोभकषायी जीवोंके भागाभाग होता है। इतनी विशेषता है कि इनके लोभसंज्वलनकी अपेक्षा भागाभाग नहीं होता।
विशेषार्थ-क्रोधादि प्रत्येक कषायवाले जीवं अनन्त हैं अतः इनका भागाभाग ओघके समान बन जाता है । शेष विशेषता ऊपर बतलाई ही है।
सूक्ष्मसांपरायिक संयत जीवोंमें तेईस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीव सर्व सूक्ष्मसांपरायिक संयत जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यातवें भागप्रमाण है । तथा अविभक्तिवाले समस्त सूक्ष्मसांपरायिक संयत जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। सूक्ष्मसांपरायिक संयत जीवोंके लोभसंज्वलनकी अपेक्षा भागाभाग नहीं है। यथाख्यात संयत जीवोंमें चौबीस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीव समस्त यथाख्यात संयत जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यातवें भागप्रमाण हैं। तथा अविभक्तिवाले जीव समस्त यथाख्यात संयत जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यात बहुभाग प्रमाण हैं । संयतासंयत जीवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिध्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले जीव सब संयतासंयत जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ; असंख्यात बहुभाग प्रमाण हैं। तथा अविभक्तिवाले जीव सब संयतासंयतोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। संयतासंयत जीवोंमें शेष प्रकृतियोंकी अपेक्षा भागाभाग नहीं है।
विशेषार्थ-सूक्ष्मसांपरायिक और यथाख्यातसंयत जीवोंमें उपशमश्रेणीवालोंसे क्षपकश्रेणीवाले संख्यातगुणे होते हैं, अतः इनका भागाभाग उक्त रूपसे कहा है। यद्यपि संयतासंयतोंका प्रमाण असंख्यात है तो भी उनमें मिथ्यात्व आदिकी सत्तासे रहित जीव अल्प है। अतः यहां भी इनकी अविभक्तिवालोंसे इनकी विभक्तिवाले असंख्यात बहुभाग कहे हैं। यहां शेष प्रकृतियोंकी अपेक्षा भागाभाग नहीं होता।
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गा० २२ ] उत्तरपयडिविहत्तीए परिमाणाणुगमो
६१६७. अभव्यसिद्धि० छव्वीसंपयडि० भागाभागो णत्थि । वेदगसम्माइ० मिच्छत्त-सम्मामि०-अणंताणु चउक्क विह० सव्वजी० केव० १ असंखेज्जा भागा। अविह० सव्वजी० केव० ? असंखेज्जदिभागो । सेसाणं णत्थि भागाभागो । उवसम० अणंताणु चउक्क० विह० सव्वजी० केव० १ असंखेज्जा भागा । अविह० सव्वजी० के० १ असंखेज्जदिभागो। सेसाणं णत्थि भागाभागो। एवं सम्मामि० वत्तव्वं । सासण. अहावीसपयडीणं णत्थि भागाभागो।
एवं भागाभागो समत्तो। ___ १६८. परिमाणाणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण छव्वीसंपय० विह० अविह० केत्तिया? अणंता। सम्मत्त०-सम्मामि० विह० केत्ति ?
६ १६७.अभव्य जीवोंके छब्बीस प्रकृतियोंका ही सत्त्व है इसलिये भागाभाग नहीं है। वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें मिथ्यात्व, सम्यगमिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले जीव सब वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। तथा अविभक्तिवाले वेदकसम्यग्दृष्टि जीव सब वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके शेष प्रकृतियोंकी अपेक्षा भागाभाग नहीं है। उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले जीव सब उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यात वहुभागप्रमाण हैं। तथा अविभक्तिवाले उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सब उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके शेष प्रकृतियोंकी अपेक्षा भागाभाग नहीं है। उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके समान सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके भागाभाग कहना चाहिये । सब सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंके अट्ठाईस प्रकृतियोंकी ही सत्ता है इसलिये भागाभाग नहीं है।
विशेषार्थ-अभव्योंमें सभीके छब्बीस प्रकृतियां ही पाई जाती हैं, अत: वहां भागाभाग नहीं है। वेदकसम्यग्दृष्टियोंके अनन्तानुबन्धी चतुष्क, मिथ्यात्व और सम्यगमिध्यात्वका सत्त्व और असत्त्व दोनों सम्भव हैं। उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यगमिथ्याहष्टियोंके अनन्तानुबन्धी चतुष्कका सत्त्व और असत्त्व दोनों सम्भव हैं, अतः इनके इनकी अपेक्षा भागाभाग कहा है। सब सासादनसम्यग्दृष्टियोंके सभी प्रकृतियोंका सत्त्व होता है, अतः भागाभाग नहीं होता।
इसप्रकार भागाभाग अनुयोगद्वार समाप्त हुआ।
३१६८. परिमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा छब्बीस प्रकृतियोंकी विभक्ति और अविभक्ति वाले जीव कितने हैं १ अनन्त है ? सम्यकप्रकृति और सम्यग्मिध्यात्वकी विभक्तिवाले जीव कितने हैं?
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ असंखेजा। अविहत्तिया अणंता । एवमणाहारएसु वत्तव्वं ।
६१६६.आदेसेण णिरयगईए णेरईएसुमिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणु०चउक० विह० अविह० केत्तिया? असंखेज्जा। बारसक०-णवणोक० विह० केत्तिया? असंखेज्जा। एवं पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिं०तिरि०पज्ज०-देवा सोहम्मीसाण जाव अवराइद०-वेउब्धियःतेउ०-पम्म० वत्तव्यं । विदियादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेव । णवरि मिच्छत्तस्स अविह० णत्थि । एवं पंचिंदि तिरि०जोणिणी-भवण-वाण-जोदिसिय० वत्तव्वं ।।
६१७०. तिरिक्खगईए तिरिक्खेसु मिच्छत्त-अणंताणु०चउक्क० विह० केत्ति ? अणंता। अविह० केत्ति०१ असंखेजा। सम्मत्त-सम्मामि० विह० केत्ति० १ असंखेजा। असंख्यात हैं। अविभक्ति वाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। इसी प्रकार अनाहारक जीवोंके कथन करना चाहिये।
विशेषार्थ-ओघसे छब्बीस प्रकृतिवाले जीव अनन्त हैं, क्योंकि गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंको छोड़कर शेष सभी संसारी जीवोंके छब्बीस प्रकृतियां पाई जाती हैं। तथा अविभक्तिवाले भी अनन्त हैं, क्योंकि इनमें सिद्धोंका भी ग्रहण हो जाता है। पर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिवाले जीव असंख्यात ही होते हैं, क्योंकि इन दो प्रकृतियोंके कालमें संचित हुए जीवोंका प्रमाण असंख्यातसे अधिक नहीं होता। शेष सभी जीव इन दो प्रकृतियोंसे रहित हैं अतः उनका प्रमाण अनन्त बन जाता है। छब्बीस प्रकृतियोंकी अविभक्तिवालोंमें अनाहारकोंकी मुख्यता है। अतः अनाहारकोंका कथन ओषके समान करनेका निर्देश किया है।
१६६.आदेशकी अपेक्षा नरकगतिमें नारकियोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति, सभ्यमिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले तथा अविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। बारह कषाय और नौ नोकषायकी विभक्तिवाले जीव कितने हैं? असंख्यात हैं। इसीप्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त, सामान्य देव, सौधर्म ऐशान स्वर्गसे लेकर अपराजित स्वर्ग तकके देव, वैक्रियिककाययोगी, पीतलेश्यावाले और पद्मलेश्यावाले जीवोंके कहना चाहिये। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक भी इसी प्रकार कथन करना चाहिये। इतनी विशेषता है कि द्वितीयादि पृथिवीवाले नारकी जीव मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले नहीं है। इसीप्रकार पंचेन्द्रिय तिथंच योनिमती, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंके कहना चाहिये ।
६१७०.तियंचगतिमें तियं चोंमें मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले जीव कितने है ? अनन्त हैं। अविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। सम्यक्प्रकृति और सम्यगमिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। अविभक्तिवाले तिर्यच जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। बारह कषाय और नौ नोकषायकी विभक्तिवाले
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गा० २२] उत्तरपयडिविहत्तीए परिमाणाणुगमो
१५६ अविह० केत्ति० १ अणंता । वारसक०-णवणोकसाय० विह० केत्ति० १ अणंता । एवमसंजद-तिण्णिलेस्सएत्ति वत्तव्वं । णवरि, किण्ह-णीलले० मिच्छत्त० अविह. के० १ संखेज्जा । पंचिं०तिरि०अपज्ज० सम्मत्त-सम्मामि० विह० अविह० केत्ति० ? असंखेजा । मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० विह. असंखेजा । एवं मणुसअपञ्ज०सम्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपञ्ज०-चत्तारिकाय-बादरसुहुम०-तेसिंपन्ज० -अपज०-बादरबणप्फदि० पत्तेयसरीर०-बादरणिगोदपदिष्टिद०-तेसिंपज०-अपञ्ज०-तसअपज०-विहंग. वत्तव्वं ।
६१७१.मणुसगईए मणुस्सेसु छब्बीसंपयडीणं विह० केत्ति० ? असंखेजा। अविह० केत्ति० १ असंखेजा (संखेजा)। सम्मत्त-सम्मामि० विह० अविह० केत्ति० ? असंखेजा। मणुसपञ्ज०-मणुसिणीसु अठ्ठावीस० विह० अविह० केत्तिया ? संखेजा । एवं मणपजव०संजद०-सामाइय-छेदो० वत्तव्वं । णवरि सामाइयछेदो० लोह. अविह० णत्थि । 'सव्वह० मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणु०चउक्क० विह. अविह० केत्ति० ? संखेजा । बारसक०-णवणोकसाय० विह० केत्ति० ? असंखेजा (संखेजा)। एवमातिर्यच जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। इसीप्रकार असंयत और कृष्ण आदि तीन अशुभ लेश्यावाले जीवोंके कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि कृष्णलेश्यावाले और नीललेश्यावाले जीवोंमें मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंमें सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्ति और अविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी विभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं। इसीप्रकार लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, पृथिवीकायिक आदि चार स्थावरकाय तथा इन चारोंके बादर और सूक्ष्म तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त,बादर बनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर,बादर निगोद प्रतिष्ठित तथा इन दोनोंके पर्याप्त और अपर्याप्त, वसलब्ध्यपर्याप्त और विभंगज्ञानी जीवोंके कहना चाहिये।
६१७१.मनुष्यगतिमें मनुष्योंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले मनुष्य कितने हैं ? असंख्यात हैं । अविभक्तिवाले कितने हैं ? संख्यात हैं। सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्ति और अविभक्तिवाले कितने हैं ? असंख्यात हैं। मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी विभक्ति और अविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। इसीप्रकार मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंके कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोमें लोभकी अविभक्तिवाले जीव नहीं हैं। सर्वार्थसिद्धि में मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति, सन्यग्मिध्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले जीव कितने हैं ?
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे : [पयडिविहत्ती २ हार०-आहारमिस्स०-परिहार० वत्तव्वं ।
१७२.इंदियाणुवादेण एइंदियबादरसुहुम-तेसिंपज्ज०-अपज्ज० छव्वीसपयडि० विहत्तिया केत्तिया ? अणंता । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त० ओघभंगो। एवं वणप्फदि-णिगोद०-तेसिं-बादर-सुहम-तेसिं-पज०-अपज०-मदि-सुदअण्णाणि-मिच्छादि०-असण्णि त्ति वत्तव्वं । पंचिंदिय-पंचिं० पज-तस-तसपज० मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणु०चउक्क० विह० अविह० णारयभंगो, बारसक०-णवणोकसाय० मणुसभंगो । एवं पंचमण-पंचवचि०-आभिणि-सुद०-ओहि०-चक्खु०-ओहिदंस०-सुक्क०-सणि ति।
६१७३. कायजोगीसु मिच्छत्त-अणंताणु० चउक्क० विह० के० १ अणंता । अविह० केत्तिया ? असंखेजा। सम्मत्त-सम्मामि० विह० अविह० ओघभंगो। बारसक०णवणोकसाय० विह० केत्ति० ? अणंता। अविह० संखेजा। एवमोरालिय०-अचक्खु० भवसिद्धि०-आहारएत्ति वत्तव्वं । ओरालियमिस्स० मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोकसंख्यात हैं। तथा बारहकषाय और नोकषायोंकी विभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। इसीप्रकार आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी और परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंके कहना चाहिये।
६१७२. इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रिय तथा इनके बादर और सूक्ष्म तथा इन दोनोंके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। तथा सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा परिमाण ओघके समान है। इसीप्रकार वनस्पतिकायिक और निगोदिया जीव तथा इनके बादर और सूक्ष्म तथा इन दोनोंके पर्याप्त और अपर्याप्त भेद, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके कहना चाहिये। पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस और त्रस पर्याप्त जीवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले जीवोंका परिमाण नारकियोंके समान है । तथा बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी विभक्ति और अविभक्तिवाले जीवोंका परिमाण सामान्य मनुष्योंके समान है। इसीप्रकार पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले और संज्ञी जीवोंके कहना चाहिये ।
६१७३.काययोगी जीवोंमें मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं । तथा अविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्ति और अविभक्तिवाले काययोगी जीवोंका परिमाण ओषके समान है। बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी विभक्तिवाले काययोगी जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। तथा अविभक्तिवाले काययोगी जीव संख्यात हैं। इसीप्रकार औदारिककाययोगी, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंके कहना चाहिये । औदारिकमिश्रकाययोगी
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गा० २२ ] उत्तरपयडिविहत्तीए परिमाणाणुगमो साय० विह० केत्ति० १ अणंता । अविह० केत्ति० १ संखेजा। सम्मत्त-सम्मामि० विह० अविह० ओघमंगो। एवं कम्मइय० । णवरि, अणंताणुबंधिचउक. अविह० केत्ति० असंखेजा। उब्धियमिस्स० मिच्छत्त० विह० केत्ति० असंखेजा । अविह० के० ? संखेजा। सम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणु०चउक्क० विह० अविह० केसि ? असंखेजा। पारसक०-णवणोकसाय० विह० केत्ति० १ असंखेजा।
६१७४.वेदाणुवादेण इत्थिवेदएसु मिच्छत्त-अटक०-णवुस० विह० के० १ असंखेजा। अविह० संखेजा । सम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणु०चउक्क० विह० अविह० के० ? असंखेजा। चत्तारिसंजलण-अहणोक० विह० के० ? असंखेजा । पुरिसद० पंचिंदियभंगो। णपरि, चत्तारिसंज-पुरिस० विह० के० ? असंखेजा । णवूसयवेदेसु मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणु०चउक्क. तिरिक्खोघभंगो । अट्ठक०-इत्थिवेद० . विह० के० १ अणंता । अविह० के० ? संखेजा । चत्तारिसंजलण-अहणोकसाय जीवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी विभक्तिवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। तथा अविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिध्यात्वकी विभक्ति और अविभक्तिवाले जीवोंका परिमाण ओघके समान है।
इसी प्रकार कार्मणकाययोगी जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अविभक्तिवाले कार्मणकाययोगी जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। तथा अविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। सम्यक्प्रकृति, सम्यमिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले और.अविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी विभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असख्यात हैं।
६१७४.वेदमार्गणाके अनुवादसे खीवेदियोंमें मिथ्यात्व, आठ कषाय और नपुंसकवेदकी विभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । तथा अविभक्तिवाले जीव संख्यात है। सम्य
प्रकृति, सम्यमिथ्यात्व, और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्ति और अविभक्तिवाले जीव कितने है ? असंख्यात हैं। चार संज्वलन और आठ नोकषायोंकी विभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। पुरुषवेदी जीवोंका परिमाण पंचेन्द्रियोंके समान है । इतनी विशेषता है कि पुरुषवेदी जीवोंमें चार संज्वलन और पुरुषवेदकी विभक्तिवाले कितने जीव है ? असंख्यात है। नपुंसकवेदी जीवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति, सम्यमिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्ति और अविभक्तिकी अपेक्षा परिमाण तिर्यंच ओघके समान है ।आठ कषाय और स्त्रीवेदकी विभक्तिवाले कितने जीव हैं ? अनन्त है । तथा अविभक्तिवाले कितने जीव हैं। संख्यात हैं। चार संज्वलन और आठ नोकषायोंकी विभक्तिवाले जीव अनन्त हैं । अपगतवेदी जीवोंमें चौबीस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले कितने जीव है ?
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जयघवला सहिदे कसायपाहुडे
[ पयडिविहती २
०
विह· अनंता । अवगदवेद० चउवीसंपयडीणं विह० के० ? संखेजा । अविह० के० १ अणता । एवमकसाय० वत्तव्वं । कोधकसाय० कायजोगिभंगो । णवरि, चत्तारि - संजलण० विह० के० ? अनंता । एवं माण ० । णवरि तिण्णिसंजलण० विह अनंता । एवं माय, णवरि दोण्हं संजलणाणं विह० अणंता । एवं लोभ०, णवरि लोभविह० के० ? अनंता । सुहुमसांपराय० दंसणतिय एक्कारसक० णवणोकसाय ० विह० अविह० ति० ९ संखेज्जा । लोभसंजलण० विह० के० ९ संखेजा । जहाक्खाद० चउवीसंपयडीणं विह० अविह० संखेज्जा | संजदासंजदेसु मिच्छत्त-सम्मत्तसम्मामि० विह० के० ? असंखेज्जा । अविह० के० ? संखेज्जा । अणंताणु० चउक० विह० अवि० के० १ असंखेज्जा । बारसक०-णवणोक० विह० के० १ असंखेज्जा । अभव्व ० छव्वीसंपय० वि० के० ? अनंता । सम्मादिट्टि ० - खइय० सव्वपय० विह० के० १ असंखेज्जा । अविह० के० १ अनंता । वेदयसम्मत्त० मिच्छत्त सम्मामि० विह० संख्यात हैं । तथा अविभक्तिवाले कितने जीव हैं ? अनन्त हैं । अपगतवेदी जीवोंके समान अकषायी जीवोंका परिमाण कहना चाहिये ।
क्रोध कषायी जीवोंका परिमाण काययोगी जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि क्रोधकषायी जीवोंमें चार संज्वलनकी विभक्तिवाले कितने जीव हैं ? अनन्त हैं । इसीप्रकार मानकषायी जीवोंका परिमाण कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि मानादि तीन संज्वलनकी विभक्तिवाले जीव अनन्त हैं । इसीप्रकार मायाकषायी जीवोंका परिमाण कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि मायाकषायी जीवों में मायादि दो संज्वलनकी विभक्तिवाले जीव अनन्त हैं । इसीप्रकार लोभकषायी जीवों में परिमाण कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि लोभकषायी जीवोंमें लोभसंज्वलनवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं ।
सूक्ष्मसां परायिक संयत जीवोंमें तीन दर्शनमोहनीय, ग्यारह कषाय और नौ नोकषायोंकी विभक्तिवाले तथा अविभक्तिवाले कितने जीव हैं ? संख्यात हैं । लोभ संज्वलनकी विभक्तिवाले कितने जीव हैं ? संख्यात हैं । यथाख्यातसंयत जीवों में चौबीस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले जीव संख्यात हैं । संयतासंयत जीवोंमें मिध्यात्व, सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिध्यात्वकी विभक्तिवाले कितने जीव हैं ? असंख्यात हैं । अविभक्तिवाले कितने जीव हैं ? संख्यात हैं । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्ति और अविभक्तिवाले कितने जीव हैं ? असंख्यात हैं । बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी विभक्ति - वाले कितने जीव हैं ? असंख्यात हैं ।
अभव्यों में छब्बीस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले कितने जीव हैं ? अनन्त हैं । सम्यग्ट और क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंमें उनके संभव सभी प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले कितने जीव हैं ? असंख्यात हैं । अविभक्तिवाले कितने जीव हैं ? अनन्त हैं । वेदकसम्यग्दृष्टि
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गो०२२
उत्तरपयडिविहत्तीए खेत्ताणुगमो के० ? असंखेज्जा । अवि० के० ? संखेज्जा । अणंताणु० चउक्क० विह० अविह० के० ? असंखेज्जा । सम्मत्त-बारसक०-णवणोकसाय० विह० के० १ असंखेज्जा । उवसमसम्माइ० अणंताणु०चउक्क० विह० के० १ असंखेज्जा । अविह० के० १ असंखेज्जा। सेसपय० विह० असंखेज्जा । एवं सम्मामि०। सासण. अहाबीसंपयडीणं विह. के. ? असंखेज्जा।
एवं परिमाणं समत्तं । - ११७५.खेत्ताणुगमेण दुविहो णिदेसो, ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण छन्वीसंपयडीणं विह० केवडिखेत्ते ? सव्वलोगे। अविह० केव० खेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे असंखेज्जेसु वा भागेसु सव्वलोगे वा । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं विह० के० खेत्ते ? लोगस्स असंखे भागे। अविह० सव्वलोगे । एवं तिरिक्ख०-सव्वएइंदिय०जीवों में मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले कितने जीव हैं ? असंख्यात हैं। अविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्ति और अविभक्तिवाले कितने जीव हैं ? असंख्यात हैं। सम्यकप्रकृति, बारह कषाय और नौ नोकपायोंकी विभक्तिवाले कितने जीव हैं ? असंख्यात हैं। उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले कितने जीव हैं ? असंख्यात हैं। तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्तिवाले कितने जीव हैं ? असंख्यात हैं। तथा शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले कितने जीव हैं ? असंख्यात हैं। इसी प्रकार सम्यमिथ्यादृष्टि जीवोंके कहना चाहिये । सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले कितने जीव हैं ? असंख्यात है।
विशेषार्थ-आदेशकी अपेक्षा जो सब मार्गणाओंमें परिमाण कहा है सो किस मार्गणावाले जीवोंका कितना प्रमाण है, किस मार्गणामें किन कारणोंसे कितनी प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले
और अविभक्तिवाले जीव होते हैं, इन सब बातोंका विचार करके विवक्षित मार्गणामें विभक्तिवाले तथा विभक्ति और अविभक्तिवाले जीवोंका प्रमाण निकाल लेना चाहिये । विशेष वक्तव्य न होने से अलग अलग विशेषार्थ नहीं लिखा।
इसप्रकार परिमाणानुयोगद्वार समाप्त हुआ। ६१७५.क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा छब्बीस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सब लोकमें रहते है। छब्बीस प्रकृतियोंकी अविभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भाग या लोकके असंख्यात बहुभाग या सर्वलोकप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं। सम्यक्प्रकृति और सम्यगमिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं ? अविभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सर्व लोकप्रमाण क्षेत्र में
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१६४
जवल सहिदे कसा पाहुडे
[ पयडिविहत्ती २
चत्तारिकाय० - बादर - तेसिमपज्ज० -सुहुम० पज्जत्तापज्जत- बादरवणप्फदिपत्तेय० -तेसिमपज्ज० बादरणिगोदपदिडिद० तेसिमपज्ज० वणप्फदि० - बादर - सुहुम० - तेसिं अपज्ज० - काय जोगि - ओरालि ०-ओरालिय मिस्स० कम्मइय० णवुंस० - चत्तारिक० - मदि
पज्ज०
सुदअण्णाणि असंजद० - अचक्खु०- तिण्णिले ०-भवसिद्धि ० -अभवसिद्धि०-मिच्छादि० असण्णि० - आहारि० - अणाहारि त्ति वत्तव्वं । णवरि, काययोगि कम्महय ० - मंवसिद्धियअणाहारिमग्गणाओ मोत्तूण अण्णत्थ केवलिपदं णत्थि । सेसाणं मग्गणाणं अड्डावीसपडणं विहत्तिया के० खेत्ते ? लोगस्स असंखे० भागे । णवरि, बादरवाउपज्जत्ता लोगस्स संखेज्जदिभागे । सव्वत्थ समुक्कित्तणावसेण सव्वपयडीणं विहत्तियाविहत्तियपदविसेसो च जाणिय वतव्वो ।
एवं खेतं समत्तं ।
रहते हैं । इसी प्रकार सामान्य तिर्यंच, सभी एकेन्द्रिय, पृथिवी कायिक आदि चार स्थावर काय, तथा ये चारों बादर और उनके अपर्याप्त, पृथिवी कायिक आदि चार सूक्ष्म और इनके पर्याप्त तथा अपर्याप्त, बादर बनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर तथा इनके अपर्याप्त, बादर निगोदप्रतिष्ठित तथा इनके अपर्याप्त, वनस्पतिकायिक, बादर और सूक्ष्म वनस्पतिकायिक तथा इन दोनोंके पर्याप्त और अपर्याप्त, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणका योगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, कृष्ण आदि तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिध्यादृष्टि, असंझी, आहारी और अनाहारी जीवोंके कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इन उपर्युक्त मार्गणास्थानोंमेंसे काययोगी, कार्मणकाययोगी, भव्य और अनाहारक मार्गणाओंको छोड़कर अन्य मार्गणाओंमें केवलिसमुद्धातपद सम्बन्धी विशेषता नहीं है । शेषं मार्गणाओं में अट्ठाईस प्रकृति1 योंकी विभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं । इतनी विशेषता है कि बादर वायुकायिक पर्याप्त जीव लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में रहते हैं । सर्वत्र समुत्कीर्तनाके अनुसार सर्व प्रकृतियोंकी विभक्ति और अविभक्ति पदोंमें जहां जो विशेषता हो उसको जानकर कथन करना चाहिये ।
1
विशेषार्थ - छब्बीस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंका वर्तमान क्षेत्र सब लोक है यह तो स्पष्ट है, क्योंकि कुछ गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंको छोड़कर शेष सबके छब्बीस प्रकृतियां पाई जाती हैं । किन्तु सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तावाले जीव असंख्यात होते हुए भी स्वल्प हैं अतः इनका वर्तमान क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होगा अधिक नहीं । तथा छब्बीस प्रकृतियोंकी अविभक्तिवाले जीवोंमें सयोगी और सिद्ध जीव मुख्य हैं, अतः इनका वर्तमान क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग, लोकके असंख्यात बहुभाग और सब लोक प्रमाण बन जाता है । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अविभक्तिवालोंमें
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गो० २२ ]
उत्तरपयडिविहतीए फोसणागमो
१६५
O
११७६. फोसणाणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओषेण आदेसेण य । तत्थ ओघे छब्बीसं पय० विह० केवडियं खेतं फोसिदं ?, सव्वलोगो । अविहत्तिएहि केवडि० खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जा भागा सव्वलोगो वा । सम्मत्त०सम्मामि ० विह० के० : लोगस्स असंखेज्जदिभागों अट्ठ चोहसभागा वा देणा सव्वलोगो वा । अविहत्ति० केव० ? सव्वलोगो । एवं तिरिक्खोषं सव्व एइंदिय
सारिकाय- बादर ते सिमपज्ज - सुहुम ० - पज्जत्तापज्जत - बादरवणफदिपत्तेय ० ते सिमपज्जत - बादरणिगोदपदिदि० ते सिमपज्ज० वणष्कदि० - बादर-सुहुम-तेसिं पज्जतापज्जतकाययोग - ओरालिय-ओरालिय मिस्स ० - कम्मइय० णवुंस० - चत्तारिकसाय-मदि-सुदअण्णाणि असंजद० - अचक्खु ० - तिण्णिलेस्सा-भवसिद्धि० - अभवसिद्धि ०-मिच्छादिवि०एकेन्द्रिय मुख्य हैं और उनका वर्तमान क्षेत्र सब लोक है अतः उक्त दो प्रकृतियोंकी अविभक्तिवालों का वर्तमान क्षेत्र भी सब लोक बन जाता है । यह सामान्य कथन हुआ । इसी प्रकार मार्गणाओंकी अपेक्षा कथन करते समय उक्त सभी प्रकृतियोंके सत्त्व और असश्वका विचार करते हुए जहां जो विशेषता संभव हो उसके अनुसार कथन करना चाहिये । जिसका संक्षेप में ऊपर निर्देश किया ही है ।
इसप्रकार क्षेत्रानुयोगद्वार समाप्त हुआ ।
४ १७६. स्पर्शानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से ओघनिर्देशकी अपेक्षा छब्बीस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? सर्वलोकका स्पर्श किया है । अबिभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग, लोकके असंख्यात बहुभाग और सर्वलोक क्षेत्रका स्पर्श किया है । सम्यक् प्रकृति और सम्यगमिध्यात्वकी विभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका, श्रस नालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका और सर्वलोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिया की अविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? सर्वलोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसी प्रकार सामान्य तिर्यच, सभी एकेन्द्रिय, पृथिवीकाय आदि चार स्थावर काय, बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर वायुकायिक और इन चार बादरोंके अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक आदि चार स्थावर काय तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर तथा इनके अपर्याप्त, बादर निगोद प्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर तथा इनके अपर्याप्त, वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक तथा इन दोनोंके पर्याप्त और अपर्याप्त, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चारों कषायवाले, मज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंगत, अचक्षुदर्शनी, कृष्ण आदि तीन देश्यात्राळे, भव्य, अभव्य,
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [पयाडनिहत्ती २ असण्णि-आहारि०-अणाहारि त्ति वत्तव्वं । णवरि, अभवसिद्धि० सम्मत्त-सम्मामि० (बज्जाणं) अविह० णत्थि । कायजोगि०-कम्मइय०-भवसिद्धिय-अणाहारिमग्गणाओ मोत्तण अण्णत्थ केवलिपदं णस्थि । तिरिक्खोघम्मि अणंताणुवंधिचउक्कअविहत्तियाणंछ चोदसभागा। एवमोरालिय०-णवूसयवेदाणं वत्तव्यं । एदेसु मिच्छ० अविह लोगस्स असंखे० भागो। सम्मत्त-सम्मामि० विह० अह चोदसभागा णत्थि । चत्तारि कसाय-असंजद-अचक्खुमिच्छ०-अणंताणु० अविह० अह चोदसभागा । तिण्णिलेस्सा० लोगस्स असंखे०भागा । वुत्तसेस-मग्गणासु सम्मत्त-सम्मामि०वज्जाणमविहत्तिया णत्थि, अण्णत्थ वि विसेसो अत्थि सो जाणिय वत्तव्यो।
६१७७. आदेसेण णिरयगईए णेरइएसु अट्ठावीसपयडीणं विह० सम्मत्त-सम्मामि अविह० केव० खेत्तं फोसिदं? लोगस्स असेखज्जदिभागो, छ चोदसभागा वा देरणा । . मिध्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि अभव्य जीवोंके सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वको छोड़कर शेष प्रकृतियोंकी अविभक्ति नहीं है। तथा काययोगी, कार्मणकाययोगी, भव्य और अनाहारक मार्गणाओंको छोड़कर उपर्युक्त शेष मार्गणाओं में केवलिसमुद्धात पद नहीं है। सामान्य तिर्यंचोंमें अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्तिवाले जीवोंने त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे छह भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसी प्रकार औदारिककाययोगी और नपुंसकवेदी जीवोंके कहना चाहिये । इन उक्त मार्गणाओंमें मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंध्यास भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिध्यात्वकी विभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे आठ भागप्रमाण नहीं है । कोषादि चारों कषायवाले, असंयत और अचक्षुदर्शनी जीवोंमें मिथ्यात्व और अनन्तानुबम्धी चतुष्ककी अविभक्तिवाले जीवोंने असनालीके चौदह भागोंमेंसे आठ मागप्रमाण पेत्रका स्पर्श किया है। तथा कृष्ण आदि तीन लेश्यावाले जीवोंमें मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। उपर जिन मार्गणाओंमें अनन्तानुबन्धी चतुडकके अभावकी अपेक्षा स्पर्श कहा है उन मार्गणाओंको छोड़कर ऊपर कही गई शेष मार्गणाओंमें सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व को छोड़कर शेष प्रकृतियोंकी अविभक्तिवाले जीव नहीं है। इनके अतिरिक्त औदारिकमिश्रकाययोगी आदि मार्गणाओंमें भी विशेषता है सो जान कर उसका कथन करना चाहिये। .. १७७. आदेशनिर्देशकी अपेक्षानरकगतिमें नारकियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले
और सम्यक्प्रकृति तथा सम्यग्मिध्यात्वकी अविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ
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गा० २२ ) . उत्तरपयडिविहत्तीए फोसणाणुगमो
१४७ मिच्छा० अणंताणु० ४ अविह० केव० १ लोगस्स असंखे भागो। पढमपुढवीए खत्तभंगो। एवं णवगेवज्ज० जाव सव्वह०-वेउव्वियमिस्स०-आहार०-आहारमिस्स०-अवगदवेदअकसाय-मणपज्जव०-संजद-सामाइयछेदो०-परिहार०-सुहुम०-जहाक्खादेत्ति वत्तव्यं । णवरि, अवगदवेद-अकसाय-संजद-जहाक्खादेसु अविहत्तियाणं केवलिभंगो कायव्यो । अण्णत्थ वि पदविसेसो जाणियव्यो। विदियादि जाव सत्तमि ति सध्वपयडीणं विहत्तिएहि सम्मत्त-सम्मामि० अविहत्तिएहि य केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेजदिभागो एक बे तिण्णि चत्तारि पंच छ चोद्दसभागा वा देसूणा । अणंताणु अविह० लोग० असंखे० भागो।
६१७८. पंचिंदियतिरिक्खतिएसु सव्वपयडीणं विह० सम्मत्त-सम्मामि० अविह केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखे० भागो सव्वलोगो वा । अणंताणु० ४ अविह० केव० १ लोग० असंखे० भागो छ चोदसभागा । पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिं०तिरि० कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्तिवाले सामान्य नारकियोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। पहली पृथिवीमें स्पर्श क्षेत्रके समान होता है। इसी प्रकार नौ प्रैवेयकसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंके तथा वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायिक, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापना संयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत और यथाख्यातसंयत जीवोंके कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि अपगतवेदी, अकषायी, संयत और यथाख्यातसंयत जीवोंमें उक्त सात प्रकृतियोंकी अविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श केवलिसमुद्धातपदके समान कहना चाहिये । तथा ऊपर कहे गये मार्गणास्थानोंमेंसे मन:पर्ययज्ञानी आदि अन्य मार्गणास्थानोंमें भी पदविशेष जान लेना चाहिये । ___दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक सब प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंने
और सम्यक्प्रकृति तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम एक भाग, दो भाग, तीन भाग, चार भाग, पांच भाग, तथा छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा अनन्तानुबन्धीकी अविभक्तिवाले उक्त द्वितीयादि पृथिवीके नारकियोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है।
१७८. पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त और पंचेन्द्रिय योनिमती तियचोंमें सर्व प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंने और सम्यक्प्रकृति तथा सम्मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और सर्व लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्तिवाले उक्त जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया
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treaलासहिदे कसायपाहुडे
[ पयडिविहती २
पज्ज० मिच्छ० अविद्द० के० ? लोग० असंखे ० भागो । एवं पांच० तिरि० अपज्ज०सव्वमणुस - सव्वविगलिंदिय-पंचिदियअपज्ज० - तसअपज्ज० बादरपुढवि०-यादरआउ०बादरते उ०- बादरवणप्फ दिपत्तेय०- बादरणिगोदपदिद्विदपज्जताणं वत्तम्वं । णवरि, मनुस्सतिए अविहत्तियाणं केवलिभंगो कायव्वो । अण्णत्थ सम्म० सम्मामि० बज्जाणमविह० णत्थि । बादरवाउपज्जत० सव्वपयाड० विह० सम्म० -सम्मामि० अविह० के० खेतं फोसिद ? लोगस्स संखेज्जदिभागो सम्बलोगो वा । णवरि, सम्म० - सम्मामि० वि० वमाणेण लोग असंखे० भागो ।
१७६. देवे सव० विह० सम्म० सम्मामि० अविह० के० खेलं फोसिदं ? लोगस्स असंखे० भागो, अट्ठणव चोदसभागा वा देखूणा । मिच्छत्त- अणंताणु० अविद्द० लोगस्सं असंखे० भागो अह चोदसभागा वा देखणा । एवं सोहम्मीसाणेसु । भवण० - वाण० - जो है ? लोकके असंख्यातवें भाग और त्रस नालीके चौदह भागों में से छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। पंचेन्द्रिय तिर्यच और पंचेन्द्रिय तिर्येच पर्याप्तकों में मिध्यात्वकी अविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यच लब्ध्यपर्याप्तक, सब प्रकार के मनुष्य, सभी विकलेद्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक, श्रस लब्ध्यपर्याप्तक, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बारद जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त. बादर वनस्पति प्रत्येक शरीर पर्याप्त और बादर निगोद प्रतिष्ठित पर्याप्त जीवोंके कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनियोंमें उक्त सात प्रकृतियों की अविभक्तिवाले मनुष्यों का स्पर्श केवलि - समुद्धात पदके समान कहना चाहिये । इनके अतिरिक्त उपर्युक्त अन्य पंचेन्द्रिय तियैच लब्ध्यपर्याप्तक आदि मार्गणाओं में सम्यकप्रकृति और सभ्यमिध्यात्वको छोड़कर शेष प्रकृतियोंकी अविभक्तिवाले जीव नहीं हैं । बादर वायुकायिक पर्याप्तकों में सब प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवने और सम्यक्प्रकृति तथा सम्यमिध्यात्वकी अविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके संख्यातवें भाग क्षेत्रका और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । इतनी विशेषता है कि सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंने वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। $१७९. देवोंमें सब प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंने तथा सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व की अविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और सनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ तथा नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है ? मिध्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्तिवाले देवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और प्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । इसी प्रकार सौधर्म और ऐशान स्वर्ग में देवोंके स्पर्शका कथन करना
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिविहत्तीए फोसणाणुगमो
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दिसि सव्व-पय० विह० सम्म०-सम्मामि० अविह० केवडियं खेतं फोसिदं ? लोग० असंखेज्जदिभागो, अद्भुह अह णव चोदसभागा वा देसूणा । अणंताणु०चउक्क० अविह० केव० खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखे० भागो, अद्भुछ अह चोदसभागा वा देसूणा । सणक्कुमारादि जाव सहस्सारेत्ति सव्वपय० विह० दंसणतिय-अणंताणु० ४ अविह० के० खेतं फोसिदं ? लोगस्स असंखे० भागो, अट्ट चोदसभागा वा देसूणा । आणद-पाणद-आरणच्चुद० सव्वपयडि. विह० सत्तपयडि० अविह० के० खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखे० भागो, छ चोदसभागा वा देसूणा।
- ६१८०.पंचिंदिय-पंचिं०पज०-तस-तसपज्ज० सव्वपय० विह० सम्म०-सम्मामि० अविह० के० खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखे० भागो, अट्ट चोदसभागा वा देसूणा सव्वलोगो वा । सेस० अविह० केवलिभंगो,णवरि अणंताणुबंधि० अविह० अह चोद्दसभागा वा देसूणा । एवं पंचमण०-पंचवचि०-इत्थि-पुरिसवेदेसु वत्तव्वं । णवरि, चाहिये । भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें सब प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंने
और सम्यक्प्रकृति तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका तथा त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम साढ़े तीन, आठ और नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्तिवाले भवनवासी आदि देवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम साढ़े तीन भाग और आठ भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। सनत्कुमार स्वर्गसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंमें सब प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले और दर्शनमोहनीयकी तीन तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्तिवाले देवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । आनत, प्राणत, आरण और अच्युत स्वर्गमें सब प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले और सात प्रकृतियोंकी अविभक्तिवाले देवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और त्रसनालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम छह भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है।
६१८०. पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस और त्रसपर्याप्त जीवोंमें सब प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले और सम्यक्प्रकृति तथा सम्यमिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग और सर्वलोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा शेष प्रकृतियोंकी अविभक्तिवाले उक्त चार प्रकारके जीवोंका स्पर्श केवलिसमुद्धातपदके समान है। इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्तिवाले उक्त चार प्रकारके जीवोंने त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसी प्रकार पांचों
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[पयडिविहत्ती २
केवलिभंगो णात्थ । चक्खुदंसणी-सण्णीणमेवं चेव वत्तव्वं । वेउब्वियकायजोगि० सव्वपय० विह० सम्म०-सम्मामि० अविह० केव० खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखे० भागो, अह तेरह चोदसभागा वा देसूणा । मिच्छत्त-अणंताणु०४ अविह० लोगस्स असंखे०भागो, अह चोद्दसभागा वा देसूणा। ___६१८१. अभिणि-सुद०-ओहि० सत्तपय० विह० सत्तपय० अविह० केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखे०भागो अह चोदसभागा वा देसूणा । सेस० अविह० खेत्तभंगो । एवमोहिदंसण-सम्मादि०-खइय०-वेदय०-उवसम०-सम्मामिच्छाइहीणं वत्तव्वं । गवरि, अविहत्तिय० गदि-[पद] विसेसो जाणिय वत्तव्यो । विहंग० सव्वपय० विह० सम्मत्त-सम्मामि० अविह० के० खेत्तं फोसिदं ? लोग०असंखे० भागो, अह चोदसभागा वा सव्वलोगो वा।
६१८२. संजदासंजद० सव्वपय० विह० अणंताणु० अविह० के० खेत्तं फोसिदं ? मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवोंमें कहना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनमें केवलिसमुद्धातपदके समान स्पर्श नहीं है। चक्षुदर्शनी और संज्ञी जीवोंके भी इसी प्रकार कथन करना चाहिये । वैक्रियिककाययोगी जीवोंमें सब प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले तथा सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका तथा त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग और तेरह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्तिवाले वैक्रियिककाययोगी जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और प्रसनालीके चोदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है।
१८१. मतिज्ञानी श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें सात प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और त्रसनालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम आठ भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। शेष प्रकृतियोंकी अविभक्तिवाले उक्त मतिज्ञानी आदि जीवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि
और सम्यक्मिथ्यादृष्टि जीवोंके कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इन मार्गणाओं: में अविभक्तिवाले जीवोंके पदविशेष जानकर कहना चाहिये। विभंगज्ञानी जीवोंमें सब प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले तथा सम्यक्प्रकृति और सम्यमिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोगके असंख्यातवें भाग, त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है।
६१८२. संयतासंयत जीवोंमें सब प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले और अनन्तानुबन्धी
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गा० २२ उत्तरपयडिविहत्तीए कालाणुगमो
१७१ लोग० असंखे०भागो, छ चोदसभागा वा देसूणा । दसणतिय० अविह० खेत्तभंगो । एवं सुकलेस्सि० । णवरि अविह० केवलिपदमत्थि । तेउ० सोहम्मभंगो। पम्म० सणक्कुमारभंगो। सासण० सव्वपय० विह० के० खेतं फोसिदं ? लोगस्स असंखे० भागो, अष्ट बारह चोदसभागा वा देरणा।
एवं फोसणं समत्तं । ६१८३. कालाणुगमेण दुविहो णिदेसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण अट्ठावीसंपयडीणं विहत्तिया केवचिरं कालादो होंति ? सव्वद्धा । एवं जाव अणाहारएत्ति वत्तव्बं । णवरि, मणुसअपज० छव्वीसं पय० सम्मत्त-सम्मामि० विह० केवचिरं कालादो होंति ? जह० खुद्दाभवग्गहणं एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो। वेउब्धियमिस्स० छब्बीसं पय० सम्मत्त-सम्मामि० विह० केव० ? जह० अंतोमुहुत्तं चतुष्ककी अविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और त्रसनालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम छह भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। तीन दर्शनमोहनीयकी अविभक्तिवाले संयतासंयत जीवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है। इसी प्रकार शुक्ललेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि सब प्रकृतियोंकी अविभक्तिवाले शुक्ललेश्यावाले जीवोंके केयलिसमुद्धातपद है । पीत लेश्यावाले जीवोंका स्पर्श सौधर्म स्वर्गके समान है । पद्मलेश्यावाले जीवोंका स्पर्श सानत्कुमार स्वर्गके समान है। सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंमें सव प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका तथा प्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग और बारह भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है।
इसप्रकार स्पर्शनानुयोगद्वार समाप्त हुआ।
६१८३.कालानुगमकी अपेक्षासे निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा अट्ठाईस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? सर्व काल है। अर्थात् जिनके अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता है ऐसे जीव सर्वदा पाये जाते हैं । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक यथायोग्य कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी और सम्यक्प्रकृति तथा सम्यग्मिथ्यावकी विभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? छब्बीस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण है और सम्यक्प्रकृति तथा सम्यगमिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीवोंका जघन्यकाल एक समय है। तथा दोनोंका उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी तथा सम्यक्प्रकृति और सम्यगमिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है १ जघन्य काल क्रमसे अन्तर्मुहूर्त और एक समय है। तथा दोनोंका
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چیف
जेयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे भागो। आहार० अठ्ठावीसं पय० विह० के० ? जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । एवमवगद०-अकसाय-सुहुमसांपराय-जहाक्खादाणं, णवरि चउवीसपय० वत्तव्वं । आहारमिस्स० अठावीसपय० विहत्ति० के० ? जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० अंतोमुहुत्तं । उवसमसम्मा० अट्ठावीसपय० विह० के० ? जह० अंतोमुहुत्तं । उक्क० पलिदो० असंखे० भागो। एवं सम्मामि० । सासण० अठ्ठावीसपय० विह० के० १ जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो। कम्मइय०-अणाहार० सम्मत्त-सम्मामि० विह० जह० एगसमओ, उक्क० आवलियाए असंखेजदिभागो।
एवं णाणाजीवेहि कालो समत्तो। उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। आहारककाययोगी जीवोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार अपगतवेदी, अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत और यथाख्यातसंयत जीवोंके उक्त प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंका काल जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके अट्ठाईस प्रकृतियोंके स्थानमें चौबीस प्रकृतियां कहना चाहिये । आहारकमिश्र काययोगी जीवोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल भी अन्तर्मुहूर्त है। उपशम सम्यग्दृष्टि जीवोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है। जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त
और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यात भागप्रमाण है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके कहना चाहिये । सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है।
विशेषार्थ-ओघसे अट्ठाईस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीव सर्वदा पाये जाते हैं यह तो स्पष्ट है । इसके अतिरिक्त सान्तर मार्गणाओंको छोड़कर तथा अपगतवेदी, अकषायी
और यथाख्यातसयत जीवोंको छोड़कर शेष सव मार्गणाओंमें भी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीव सर्वदा हैं यह भी स्पष्ट है । पर सान्तर मार्गणाओं और उक्त स्थानोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंका सर्वदा पाया जाना संभव नहीं है, क्योंकि उपशम सम्यक्त्व आदि आठ मार्गणाएं स्वयं सान्तर हैं, इन मार्गणाओंवाले जीव सर्वदा नहीं होते, तथा अपगतवेदी, अकषायी और यथाख्यातसंयत जीव यद्यपि पाये तो सर्वदा जाते हैं पर इनका सर्वदा पाया जाना सयोगियों की अपेक्षासे जानना चाहिये और सयोगी
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गा० २२ ] उत्तरपयडिविहत्तीए अंतराणुगमो
१७३ ६१८४. अंतराणुगमेण दुविहो णिद्देसोओघेण आदेसेण य। तत्थ ओघेण अहावीसण्हं पयडीणं विहत्तियाणमंतरं केव० १ णत्थि अंतरं । एवं जाव अणाहारएत्ति वत्तव्वं । णवरि मणुस-अपज० अहावीसंपयडीणमंतर के० ? जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो। एवं सासण-सम्मामि० वत्तव्वं । वेउव्वियमिस्स० छव्वीसंपय० विहत्ति० अंतरं के० १ जह० एगसमओ, उक्क० बारस मुहुत्ता । सम्मत्त-सम्मामि० विह० अंतरं केव० । जह० एगसमओ, उक्क० चउवीस मुहुत्ता। आहार०-आहारमिस्स० अहावीसंपय० विहत्ति० अंतरं के० ? जह० एगसमओ, उक्क० वासपुधत्तं । एवमअट्ठाईस प्रकृतियोंकी विभक्तिसे रहित होते हैं । इसलिये यहां ऐसे अपगतवेदी, अकषायी और यथाख्यातसंयत जीव विवक्षित हैं जो चौबीस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले हों। ग्यारहवें गुण स्थान तरुके ही जीव ऐसे हो सकते हैं। पर उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणीपर जीव सर्वदा नहीं चढ़ते। अतः इस विवक्षासे ये तीन स्थान भी सान्तर है । इस प्रकार इन सान्तर मार्गणाओंमें और अपगतवेदी आदि स्थानोंमें सम्भव सब प्रकृतियोंका यथासम्भव काल जानना चाहिये जो ऊपर कहा ही है। इन मार्गणाओंमें नाना जीवोंकी अपेक्षा जो जघन्य और उत्कृष्ट काल खुद्दाबन्धमें बतलाया है वही यहां पर लिया गया है । उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है, इसलिये यहां उसका खुलासा नहीं किया है।
इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा काल समाप्त हुआ।
६१८४.अन्तरानुयोगद्वारकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेश निर्देश । उनमेंसे ओघनिर्देशकी अपेक्षा अट्ठाईस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंका कितना
अन्तरकाल है ? अन्तरकाल नहीं है, क्योंकि २८ प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीव सर्वदा पाये जाते हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक यथायोग्य कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंमें अट्ठाईस प्रकृतियों की विभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। इसी प्रकार सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवोंके कहना चाहिये । वैक्रियिक मिश्रकाययोगी जीवों में छब्बीस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल बारह मुहूर्त है । सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल चौबीस मुहूर्त है। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तर काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है। इसी प्रकार अकषायी और यथाख्यातसंयत जीवोंके
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जयधवलास हिदे कसा पाहुडे
[ पयडिविहत्ती २
कसाय० - जहाक्खाद० वत्तन्वं । णवरि चउवीसपयाडेआलावो कायव्वो । अवगदवेद० मिच्छ०-सम्म० -सम्मामि ० अष्टकसाय - दोवेद० विह० अंतरं केव० १ जह० एगसमओ, उक्क० वासपुधत्तं । सेसपय० विह० अंतरं के० १ जह० एगसमओ, उक्क० छम्मासा ।
९१८५. सुहुमसांपराइय० दंसणतिय एक्कारसक० णवणोकसाय० वि० अंतरं haa १ जह० एगसमओ, उक्क० वासपुधत्तं । लोभसंजलण० विहत्ति० अंतरं जह० एगसमओ उक्क० छम्मासा । उवसमसम्माइट्ठी० अट्ठावीसपय० विह० अंतरं के० १ जह० एगसमओ, उक्क० चउवीसमहोरताणि । सत्तरादिंदियाणि त्ति किण्ण परूविजदे ? ण, पाहुडगंथाभिप्पाएण उवसमसम्माइट्टीणं सत्तरादिदियंतरणियमाभावादो | कम्मइय० - अणाहार० सम्मत्त सम्मामि० विह० अंतरं जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । सव्वत्थ अविहत्तियाणं कालंतरपरूवणा जाणिय कायव्वा, सुगमत्तादो । एवमंतरं समत्तं
कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके अट्ठाईस प्रकृतियोंके स्थान में चौबीस प्रकृतियों का कथन करना चाहिये । अपगतवेदी जीवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिध्यात्व, आठ कषाय और दो वेदकी विभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एकसमय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है । तथा शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले अपगतवेदी जीवोंका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है ।
$१८५.सूक्ष्मसांपरायिक संयत जीवों में तीन दर्शनमोहनीय, ग्यारह कषाय और नौ नोकषायकी विभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है । लोभसंज्वलनकी विभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है । उपशमसम्यग्दृष्टि जीवों में अट्ठाईस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक चौबीस दिन रात हैं ।
शंका- अट्ठाईस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले उपशमसम्यग्दृष्टियोंका अन्तरकाल सात दिन रात क्यों नहीं कहा ?
समाधान- नहीं, क्योंकि कसायपाहुड ग्रन्थके अभिप्रायानुसार उपशमसम्यग्दृष्टियों का अन्तरकाल सात दिन रात होनेका नियम नहीं है ।
कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें सम्यक् प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । सभी मार्गणाओंमें अविभक्तिवाले जीवोंके काल और अन्तरका कथन जानकर करना चाहिये, क्योंकि उसका कथन सुगम है ।
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गा० २२ ] उत्तरपयडिविहत्तीए भावाणुगमो
१७५ १८६६ भावाणुगमेण दुविहो णिदेसो, ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सव्व
विशेषार्थ-अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीव सर्वदा पाये जाते हैं इसलिये ओघकी अपेक्षा इनका अन्तर नहीं है । गतिमार्गणा से लेकर अनाहारक मार्गणा तक इसी प्रकार जानना । पर जो आठ सान्तर मार्गणाएं और अकषायी, यथाख्यातसंयत, अवगतवेदी, कार्ममकाययोगी तथा अनाहारक जीव हैं इनमें अन्तरकाल पाया जाता है । सान्तर मार्गणाओंमें लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य, सासादन, मिश्र, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी और उपशमसम्यग्दृष्टियोंका जो जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल है वही यहीं अट्ठाईस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल जानना । वैक्रियिक मिश्रकाययोगियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल वही है जो वैक्रियिक मिश्रकाययोगियोंका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल है। केवल सम्यक्प्रकृति और सम्यमिथ्यात्वकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तरकाल चौबीस मुहूर्त है, इतनी विशेषता है । उपशमश्रेणीकी अपेक्षा उपशान्तमोह और यथाख्यातसंयतोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व होता है इसी अपेक्षासे अकषायी और यथाख्यातसँयतोंमें चौबीस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंका अन्तर आहारककाय योगियोंके समान कहा है । तथा अपगतवेदियोंमें मिथ्यात्व, सम्यगमिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति, आठ कषाय और दो वेदकी विभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल उपशमश्रेणीकी अपेक्षा जानना । उपशमश्रेणीका अन्तर ऊपर बतलाया ही है । तथा शेष प्रकृतियोंका अन्तर क्षपकश्रेणीकी अपेक्षासे जानना । क्षपकश्रेणीका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना होता है। इसीप्रकार सूक्ष्मसांपरायिक जीवोंके कथन करना । इतनी विशेषता है कि सूक्ष्मसंपरायमें क्षपकश्रेणीवालोंके एक सूक्ष्म लोभ रहता है अत: इसका अन्तर क्षपकश्रेणीकी अपेक्षासे और शेष प्रकृतियोंका अन्तर उपशमश्रेणीकी अपेक्षासे कहना । कार्मणकाययोगी
और अनाहारकोंमें सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीवोंका जो जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है उसका मतलब यह है कि उक्त दो प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीव कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक मरकर विग्रहगतिसे नहीं जाते हैं । यहां प्राभृत ग्रन्थके अभिप्रायानुसार उपशमसम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट अन्तरकाल सात दिन रात न बतलाकर साधिक चौबीस दिन रात बतल या है सो प्रकृतमें प्राभृत ग्रन्थसे मूल कसायपाहुड, उसकी चूर्णि और उच्चारणावृत्ति इन सबका ग्रहण होता है । क्योंकि इसका अधिकतर खुलासा उच्चारणावृत्तिमें ही मिलता है।
इसप्रकार अन्तरानुयोगद्वार समाप्त हुआ। . . ६१८६.भावानुगमकी अमेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ निर्देश और आदेश निर्देश
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जयघवलासहिदे कसायपाहुडे . [पयडिविहत्ती २ पयडीणं जे विहत्तिया तेसिं को भावो ? ओदइओ भावो। कुदो ? संतेसु वि अवसेसभावेसु तेसु विवक्खाभावादो।
एवं भावो समत्तो १८७६ अप्पाबहुगाणुगमेण दुविहो णिदेसो, ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सत्थाणपाबहुअं वत्तइस्सामो। तं जहा, सव्वत्थोवा छव्वीसंपयडीणं अविहतिया, विहत्तिया अणंतगुणा । के ते ? उवसंतकसायप्पहुडि जाव मिच्छादिष्टि त्ति । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं सवथोवा विहत्तिया । के ते ? अष्टावीस-सत्तावीस-चउबीससंतकम्मिया तेवीस-बावीससंतकम्मिया च । अविहत्तिया अणंतगुणा । के ते ? छव्वीस-एकवीस संतकम्मियप्पहुडि जाव सिद्धा त्ति । एवं कायजोगि-ओरालिय०-ओरालिमिस्स०उनमें से ओधकी अपेक्षा सब प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंके कौन भाव है ? औदयिक भाव है, यद्यपि उनके अन्य भाव भी रहते हैं किन्तु यहां उनकी विवक्षा नहीं है।
इसप्रकार भावानुगम समाप्त हुआ। ६१८७.अल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओपनिर्देशकी अपेक्षा स्वस्थान अल्पबहुत्वको बतलाते हैं। वह इसप्रकार है-छब्बीस प्रकृतियोंकी अविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे छब्बीस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे हैं।
शंका-छब्बीस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीव कौनसे हैं ?
समाधान-उपशान्तकषायसे लेकर मिथ्यादृष्टि तकके जीव छब्बीस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले होते हैं।
सम्यकप्रकृति और सम्यक्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । शंका-सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीव कौनसे हैं ?
समाधान-जिनके अट्ठाईस, सत्ताईस, चौबीस, तेईस और बाईस प्रकृतियोंकी सत्ता पाई जाती है वे सम्यक्प्रकृति और सम्यमिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीव हैं । ___ सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीवोंसे इन दो प्रकृतियोंकी अविभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे हैं ? __ शंका-जिनके सम्यक्प्रकृति और सम्यगमिथ्यात्वकी विभक्ति नहीं पाई जाती है वे जीव कौनसे हैं ?
समाधान-छब्बीस प्रकृतिवाले जीव और इक्कीस प्रकृतिवाले जीवोंसे लेकर सिद्ध जीवों तकके सब जीव उक्त दो प्रकृतियोंकी अविभक्तिवाले हैं।
इसी प्रकार काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और नपुंसकवेदी जीवोंके कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि नपुंसकवेदमें आठ
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गा० २२ ] उत्तरपयडिविहत्तीए अप्पाबहुप्राणुगमो
१७७ कम्मइय०-णवंस । णवरि णवंसयवेदे अणोकसाय-चदुसंजलगाणं अविहत्तिया णथि । आहारि-अणाहारीणं भवसिद्धियाणं च ओघभंगो। - ६१८८.आदेसेण णिरयगईए णेरईएसु सव्वत्थोवासम्मत्त-सम्मामिच्छताणं विहत्तिया अविहत्तिया असंखजगुणा । मिच्छत्त-अणताणु० चउक्काणं सव्वत्थोवा अविहत्तिया, विहत्तिया असंखेजगुणा। एवं पढमपुढवि-पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खपज्जत-देवसोहम्मादि जाव सहस्सात्ति वत्तव्यं । विदियादि जाव सत्तमि त्ति सव्वत्थोवा अणंताणुबंधिचउक्क० अविहत्तिया, विहत्तिया-[अ] संखजगुणा । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं नोकषाय और चार संज्वलनोंकी अविभक्तिवाले जीव नहीं हैं । आहारक, अनाहारक और भव्य जीवोंके अल्पबहुत्वका भंग ओघके समान है।
विशेषार्थ-बारहवें गुणस्थानसे लेकर चौदहवें गुणस्थान तकके जीव तथा सिद्ध जीव ऐसे हैं जिनके मोहनीय कर्मकी सत्ता नहीं पाई जाती । किन्तु शेष ग्यारहवें गुणस्थान तकके जीवोंके मोहनीय कर्मकी सत्ता है। इसलिये प्रकृतमें मोहनीयकी छब्बीस प्रकृतियोंकी अविभक्तिवालोंसे उन्हींकी विभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे बतलाये हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके सम्बन्धमें विशेष वक्तव्य होनेसे उनकी अपेक्षा अल्पबहुत्व अलगसे कहा है। उसमें भी सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्वकी सत्ता सब जीवों के नहीं पाई जाती किन्तु जो उपशम सम्यग्दृष्टि हैं, या जिन्होंने वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त कर लिया है, या जिन्होंने इन दो प्रकृतियोंकी क्षपणा अथवा उद्वेलना नहीं की है उन्हींके इन दो प्रकृतियोंकी सत्ता पाई जाती है शेष सब संसारी जीवोंके और मुक्त जीवोंके इनकी सत्ता नहीं पाई जाती, इसलिये इन दो प्रकृतियोंकी विभक्तिवालोंसे अविभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे हैं। इन सब प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले कौन जीव हैं और अविभक्तिवाले कौन जीव हैं इसका निर्देश मूलमें किया ही है।
६१८८.आदेशनिर्देशकी अपेक्षा नरक गतिमें नारकियोंमें सम्यक्प्रकृति और सम्यक्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इन दो प्रकृतियोंकी अविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनकी विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार पहली पृथिवी, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्त, सामान्यदेव और सौधर्म स्वर्गसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंके कहना चाहिये । दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक प्रत्येक नरकमें अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। जिन मार्गणाओंमें जीवोंका प्रमाण असंख्यात है उन सभी मार्गणाओंमें सम्यक्प्रकृति और सम्यग्थ्यिात्वकी विभक्ति और अविभक्तिवालोंका कथन नारकियोंके समान करना चाहिये । आशय यह है कि असंख्यात संख्यावाली मार्गणाओंमें सम्यक्
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ असंखेजरासीसु सव्वत्थ णिरयभंगो । एवं पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी०-भवण-वाण. जोदिसिय त्ति ।
१८६.तिरिक्खेसुसव्वत्थोवा मिच्छत्त-अणताणुबंधिचउकाणं अविहत्तिया, विहत्तिया अणंतगुणा । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं विवरीयं वत्तव्वं । एवमेइंदिय-बादरसुहुम-पजत्तापजत्त-वणप्फदिकाइय-णिगोद-बादर-सुहुम-पज्जत्तापज्जत्त-मदि-सुदअण्णाण असण्णि त्ति वत्तव्वं । णवरि मिच्छत्त-अणंताणु० अप्पाबहुअं णत्थि; अविहत्तियाणमभावादो । पंचिंदियातरिक्खअपज्जत्त-मणुसअपज्ज० - तसअपज्ज० -पंचिंदियअपज्जा -सव्वविगलिंदिय-पज्जत्तापज्जत्त-पुढवि-आउ-तेउ-चाउ० तेसिं-बादर-सुहुमपज्जचापज्जत्त-बादरवणप्फदिपत्तेयसरीर-पज्जत्तापज्जत्त-बादरणिगोदपदिहिद-पज्जत्ताप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । तथा सम्यक्प्रकृति
और सम्यग्मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंके जानना चाहिये।
६१८६.तियंचोंमें मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे हैं । यहां सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्ति और अविभक्तिवालोंका कथन इस उपर्युक्त कथनसे विपरीत करना चाहिये । अर्थात् तिर्यंचोंमें सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । तथा सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे हैं। इसी प्रकार एकेन्द्रिय, एकेन्द्रिय बादर, एकेन्द्रिय सूक्ष्म तथा बादर और सूक्ष्मोंके पर्याप्त और अपर्याप्त, वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक तथा बादर और सूक्ष्म वनस्पतिकायिकोंके पर्याप्त और अपर्याप्त, निगोद जीव, बादरनिगोद जीव, सूक्ष्म निगोद जीव तथा बादर और सूक्ष्म निगोद जीवोंके पर्याप्त और अपर्याप्त, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी और असंयत जीवोंके कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इन एकेन्द्रियादि जीवोंमें मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षा अल्पबहुत्व नहीं पाया जाता है क्योंकि इनमें मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुककी अविभक्तिवाले जीव नहीं हैं। __ पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तक, मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तक, त्रस लब्ध्यपर्याप्तक, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक, सभी विकलेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय पर्याप्तक, विकलेन्द्रिय अपर्याप्तक, पृथिवी कायिक, जलकायिक, अग्किायिक, वायुकायिक तथा इन चारोंके बादर और सूक्ष्म तथा बादर और सूक्ष्मोंके पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर बनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर और इनके पर्याप्त अपर्याप्त, बादरनिगोदप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर और इनके पर्याप्त अपर्याप्त जीवोंमें सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनकी अवि
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गा० २२ ] उत्तरपयडिविहत्तीए अप्पाबहुप्राणुगमो
१७६ पज्जत्तएसु सव्वत्थोवा सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं विहत्तिया, अविहत्तिया असंखेनगुणा।
६१६०.मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु सव्वत्थोवा अठ्ठावीसंपयडीणं अविह०, विह. संखेजगुणा। आणदादि जाव सव्वाहेत्ति सव्वत्थोवा सत्तपयडीणं अविह०, विह० संखेजगुणा । वेउव्विय०-वेउव्वियमिस्स-तेउ०-पम्म० देवभंगो । एवं जाणिदण णेदव्वं जाव अणाहारएत्ति ।
६१९१.परत्थाणप्पाबहुगाणुगमेण दुविहो णिद्देसोओघेण आदेसेण य। तत्थ ओघेण सम्वत्थोवा सम्मत्तस्स विहत्तिया, सम्मामिच्छत्तस्स विहत्तिया विसेसाहिया। केत्तियमेत्तो विसेसो ? वावीसविहत्तिएणूणसत्तावीसविहत्तियमेत्तो । लोहसंजलणस्स अविहत्तिया अणंतगुणा । को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमसंखञ्जदिभागो । को पडि• ? सम्मामि० विहत्ति०पडिभागो । मायासंज. अविहत्तिया विसेसाहिया । केत्तियमेत्तो विसेसो ? लोहक्खवगमेत्तो । माणसंजल० अविह० विसेसा । भक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं।
६१६०. मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी अविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। तथा इनकी विभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। आनत स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक मिथ्यात्व आदि सात प्रकृतियोंकी अविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। तथा इनकी विभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं । वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी पीतलेश्यावाले और पद्मलेश्यावाले जीवोंमें सामान्य देवोंके समान अल्पबहुत्व कहना चाहिये । इसी प्रकार जानकर अनाहारक मार्गणा तक कहना चाहिये।
६१६१. परस्थान अल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघनिर्देशकी अपेक्षा सम्यक्प्रकृतिकी विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। विशेषका प्रमाण क्या है ? सत्ताईस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंके प्रमाणमेंसे बाईस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंका प्रमाण कम कर देनेपर जो प्रमाण शेष रहे उतना है। सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीवोंसे लोभ संज्वलनकी अविभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे हैं। गुणकारका प्रमाण क्या है ? अभव्योंसे अनन्तगुणा या सिद्धोंके असंख्यातवें भागप्रमाण है। प्रतिभागका प्रमाण क्या है ? सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीवोंका जितना प्रमाण है उतना प्रतिभागका प्रमाण है। लोभ संज्वलनकी अविभक्तिवाले जीवोंसे मायासंज्वलनकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिकहैं । विशेषका प्रमाण क्या है ? लोभ संज्वलनकी क्षपणा करने वाले जीवोंका जितना प्रमाण है उतना विशेषका प्रमाण है। मायासंज्वलनकी अविभक्तिवाले जीवोंसे मानसंज्वलनकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। विशेषका प्रमाण कितना है ? मायासंज्वलनकी क्षपणा करनेवाले जीवोंका जितना प्रमाण
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ के मेत्तो वि० १ मायासंजलणखक्गमेत्तो । कोधसंज० अवि० विसेसा० । के. मेत्तो ? माणसंजलणखवगमेत्तो । पुरिस० अविह० विसेसा० । के० मेत्तो ? कोधसंजल० खवगमेत्तो। छण्णोक० अविह० विसेसा० । के० मेत्तो ? पुरिस० वकबंधक्खवगमेत्तो। इस्थिवेद० अविह. विसे० । के. मेत्तो ? छण्णोकसायखवगमेत्तो। णQस० अविह० विसे० । के० मेत्तो ? इत्थि०खवगमत्तो । अटकसायाणं अविह० विसेसा० । के० मेतो ? तेरसविहत्तियमेत्तो । मिच्छत्तस्स अविह. विसेसा। के. मेत्तो ? तेवीस-बावीस-इगवीसविहत्तियमेत्तो। अणंताणु० चउक्क० अविह० विसेसा । के. मेत्तो ? चउवीसविहत्तियमेत्तो । तेसिं चेव विहत्तिया अणंतगुणा । को गुणगारो ? अणंताणुबंधि० अविहत्तियविरहिदसव्वजीवरासिम्हि अणंताणुबंधि० अविहत्तिएहि
है उतना विशेषका प्रमाण है। मानसंज्वलनकी अविभक्तिवाले जीवोंसे क्रोधसंज्वलनकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । विशेषका प्रमाण कितना है ? मानसंज्वलनकी क्षपणा करनेवाले जीवोंका जितना प्रमाण है उतना विशेषका प्रमाण है। क्रोधसंज्वलनकी अविभक्तिवाले जीवोंसे पुरुषवेदकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। विशेषका प्रमाण कितना है ? क्रोधसंज्वलनकी क्षपणा करनेवाले जीवोंका जितना प्रमाण है उतना विशेषका प्रमाण है। पुरुषवेदकी अविभक्तिवाले जीवोंसे छह नोकषायोंकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक है। विशेषका प्रमाण कितना है ? पुरुषवेदके नवकबन्धकी क्षपणा करनेवाले जीवोंका जितना प्रमाण है उतना विशेषका प्रमाण है। छह नोकषायोंकी अविभक्तिवाले जीवोंसे स्त्रीवेदकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं ? विशेषका प्रमाण कितना है ? यह नोकषायोंकी क्षपणा करनेवाले जीवोंका जितना प्रमाण है उतना है । स्त्रीवेदकी अविभक्तिवाले जीवोंसे नपुंसकवेदकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। विशेषका प्रमाण कितना है ? स्त्रीवेदकी क्षपणा करनेवाले जीवोंका जितना प्रमाण है उतना है। नपुंसकवेदकी अविभक्तिवाले जीवोंसे आठ कषायोंकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। विशेषका प्रमाण कितना है ? तेरह प्रकृतियोंकी अविभक्तिवाले जीवोंका जितना प्रमाण है उतना है। आठ कषायोंकी अविभक्तिवाले जीवोंसे मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। विशेषका प्रमाण कितना है ? तेईस, बाईस और इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जितना प्रमाण है उतना है। मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले जीवोंसे अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। विशेषका प्रमाण कितना है ? चौबीस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंका जितना प्रमाण है उतना है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्तिवाले जीवोंसे अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे हैं । गुणकारका प्रमाण कितना है ? अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्तिवालोंसे रहित सर्व जीव राशिमें अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्तिवाली जीवराशिका भाग देनेपर जो लब्ध
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गा० २२ ] उत्तरपयडिविहत्तीए अप्पाबहुश्राणुगमो
१८१ भागे हिदे जं भागलद्धं सो गुणगारो। मिच्छत्तस्स विहत्तिया विसेसाहिया। के० मेत्तेण ? चउवीसविहत्तियमेत्तेण । अट्टक० विह. विसेसा०। केन्मेत्तो? तेवीस-बावीसइगवीसविहत्तियमेत्तो। णवूस० विह० विसेसा । के० मेत्तो ? तेरसविहत्तियमत्तो । इस्थिवेद० विह. विसे । के० मत्तो ? बारसविहत्तियमेत्तो। छण्णोकसाय० विह० विसे । के० मेत्तो? एक्कारसविहत्तियमेत्तो । पुरिस० विह० विसे । के० मेत्तो ? पंचविहत्तियमेत्तो। कोधसंजल० विह० विसेसा० । के० मेत्तो ? चत्तारिवहत्तियमेत्तो। माणसंज. विह० विसे । के० मत्तो ? तिण्णिविहत्तियमेत्तो। संज. विह. विसे० के० मेत्तो ? दोण्हं विहत्तियमत्तो । लोभसंजल० विह० विसे० । के० मत्तो ? एगविहत्तियमेत्तो । सम्मामि० अविह० विसेसा० । के० मेत्तो ? सम्मामिच्छत्तविहत्तियआवे उतना गुणकारका प्रमाण है । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले जीवोंसे मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। विशेषका प्रमाण कितना है ? चौबीस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंका जितना प्रमाण है उतना है । मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीवोंसे आठ कषायोंकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। विशेषका प्रमाण कितना है ? तेईस, बाईस और इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जितना प्रमाण है उतना है । आठ कषायोंकी विभक्तिवाले जीवोंसे नपुंसकवेदकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। विशेषका प्रमाण कितना है ? तेरह प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंका जितना प्रमाण है उतना है । नपुंसकवेदकी विभक्तिवाले जीवोंसे स्त्रीवेदकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। विशेषका प्रमाण कितना है ? बारह प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंका जितना प्रमाण है उतना है । स्त्रीवेदकी विभक्तिवाले जीवोंसे बह नोकषायोंकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। विशेषका प्रमाण कितना है ? ग्यारह प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंका जितना प्रमाण है उतना है । छह नोकषायोंकी विभक्तिवाले जीवोंसे पुरुषवेदकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । विशेषका प्रमाण कितना है ? पांच प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंका जितना प्रमाण है उतना है । पुरुषवेदकी विभक्तिवाले जीवोंसे क्रोधसंज्वलनकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । विशेषका प्रमाण कितना है ? चार प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंका जितना प्रमाण है उतना है। क्रोधसंज्वलनकी विभक्तिवाले जीवोंसे मानसंज्वलनकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। विशेषका प्रमाण कितना है ? तीन प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंका जितना प्रमाण है उतना है । मानसंज्वलनकी विभक्तिवाले जीवोंसे मायासंज्वलनकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। विशेषका प्रमाण कितना है ? दो प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंका जितना प्रमाण है उतना है । मायासंज्वलनकी विभक्तिवाले जीवोंसे लोभसंज्वलनकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक है। विशेषका ममाण कितना है ? एकविभक्तिस्थानवाले जीवोंका जितना प्रमाण है इतना
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ विरहिदलोभसंजल० अविहत्तियमत्तो। सम्मत्तस्स अविहत्तिया विसेसाहिया । के. मेत्तो ? वावीसविहत्तिएहि ऊणसत्तावीसविहत्तियमेत्तो।
$ १६२. आदेसेण गदियाणुवादेण णिरयगईए णेरईएसु सव्वत्थोवा मिच्छत्तस्स अविहत्तिया । के ते ? इगिवीस-बावीससंतकम्मिया। अणंताणु० चउक्क० अविहत्तिया असंखेजगुणा । को गुणगारो? आवलियाए असंखेजदिभागो। कुदो ? चउवीससंतकम्मियग्गहणादो । सम्मत्तस्स विहत्तिया असंखेजगुणा । को गुण । आवलियाए असंखेजदिभागो । कुदो ? वावीस-चदुवीसविहत्तियसहिद-अहावीससंतकम्मियग्गहणादो । सम्मामि० विह० विसे । के० मेत्तो ? वावीसविहत्तिएहिं परिहीणहै। लोभसंज्वलनकी विभक्तिवाले जीवोंसे सम्यग्मिध्यात्वकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । विशेषका प्रमाण कितना है ? लोभसंज्वलनकी अविभक्तिवालोंके प्रमाणमेंसे सम्यग्मिध्यात्वकी विभक्तिवालोंके प्रमाणको घटा देनेपर जो शेष रहे उतना है। सम्यमिथ्यात्वकी आवभक्तिवाले जीवोंसे सम्यक्प्रकृतिकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । विशेषका प्रमाण कितना है ? सत्ताईसप्रकृतिक विभक्तिस्थानवाले जीवोंके प्रमाणमें से बाईसप्रकृतिक विभक्तिस्थानवाले जीवोंका प्रमाण कम कर देनेपर जो प्रमाण शेष रहे उतना है।
१६२. आदेशनिर्देशकी अपेक्षा गतिमार्गणाके अनुवादसे नरकगतिमें नारकियोंमें मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले नारकी जीव सबसे थोड़े हैं।
शंका-नारकियोंमें मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले जीव कौनसे हैं।
समाधान-इक्कीस और बाईस प्रकृतिक विभक्तिस्थानवाले नारकी जीव मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले हैं।
मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले नारकियोंसे अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्तिवाले नारकी असंख्यातगुणे हैं। गुणकारका प्रमाण क्या है ? गुणकारका प्रमाण आवलीका असंख्यातवां भाग है। इतने गुणित होनेका कारण यह है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्तिवाले जीवोंमें चौबीस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले नारकियोंका ग्रहण किया गया है । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्तिवाले नारकियोंसे सम्यक्प्रकृतिकी विभक्तिवाले नारकी जीव असंख्यातगुणे हैं । गुणकारका प्रमाण क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग है। इतने गुणित होनेका कारण यह है कि यहां बाईस और चौबीसप्रकृतिक विभक्तिस्थानवाले नारकियोंके साथ अट्ठाईसप्रकृतिक विभक्तिस्थानवाले नारकी जीवोंका ग्रहण किया है। सम्यक्प्रकृतिकी विभक्तिवाले नारकियोंसे सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले नारकी जीव विशेष अधिक हैं। विशेषका प्रमाण कितना है ? सत्ताईसप्रकृतिक विभक्तिस्थानवाले नारकियोंके प्रमाणोंमेंसे बाईसप्रकृतिक विभक्तिवाले नारकियोंका प्रमाण घटा देने
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिविहत्तीए अप्पाबहुअाणुगमो
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सत्तावीससंतकम्मियमेत्तो । सम्मामिच्छत्त-अविहत्तिया असंखेजगुणा । को गुणगारो ? सम्मामि० विहत्तिएहिं किंचूणणेरइयविक्वंभसूचीए ओवट्टिदाए जं भागलद्धं तत्तियमेत्तसेढीओ गुणगारो। कुदो ? छव्वीसविहत्तियाणं पाहण्णण गहणादो । सम्मत्त अविह० विसे । के० मत्तो ? वावीसविहत्तियणसत्तावीससंतकाम्मयमेत्तो । अणताणु० चउक्क० विह० विसेसा० । के० मत्तो ? एक्कवीसविहतिएहि यूणअहावीसविहत्तियमत्तो। मिच्छत्त० विह० विसेसा । केत्ति? चउवीसविहत्तियमेत्तो। बारसक०-णवणोकसायविह विसेसा०। के० मेत्तेण ? वावीस-इगवीसविहत्तियमेत्तेण। एवं पढमपुढवीपंचिंदियतिरिक्व-पंचिंतिरिक्वपज्जत्त-देव-सोहम्मीसाण जाव सहस्सार-वेउव्विय. वेउव्वियमिस्स०-तेउ०-पम्म० वत्तव्यं । पर जो प्रमाण शेष रहे उतना विशेषका प्रमाण है। सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले नारकियोंसे सम्यग्मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले नारकी जीव असंख्यातगुणे हैं। गुणकारका प्रमाण क्या है ? सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले नारकियोंके प्रमाणसे नारकियोंकी कुछ कम विष्कम्भसूचीके भाजित कर देनेपर जो भाग लब्ध आवे उतनी जगछ्रेणियां प्रकृतमें गुणकारका प्रमाण है । इसका कारण यह है कि सम्यग्मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले नारकियोंमें छब्बीसप्रकृतिक विभक्तिस्थानवाले नारकियोंका प्रधानरूपसे ग्रहण किया है। सम्यग्मिध्यात्वकी अविभक्तिवाले नारकियोंसे सम्यक्प्रकृतिकी अविभक्तिवाले नारकी जीव विशेष अधिक है। विशेषका प्रमाण कितना है ? सत्ताईस प्रकृतिक विभक्तिस्थानवाले नारकियोंके प्रमाणमेंसे बाईसप्रकृतिक विभक्तिस्थानवाले नारकियोंके प्रमाणको घटा देनेपर जो शेष रहे उतना विशेषका प्रमाण है । सम्यक्प्रकृतिकी अविभक्तिवाले नारकियोंसे अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले नारकी जीव विशेष अधिक हैं। विशेषका प्रमाण कितना है ? अट्ठाईस प्रकृतिक विभक्तिस्थानवाले नारकियोंके प्रमाणमेंसे इक्कीसप्रकृतिक विभक्तिस्थानवाले नारकियोंका प्रमाण घटा देनेपर जो शेष रहे उतना विशेषका प्रमाण है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले नारकियोंसे मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले नारकी जीव विशेष अधिक हैं। विशेषका प्रमाण कितना है ? चौबीसप्रकृतिक विभक्तिस्थानवाले नारकियोंका जितना प्रमाण है उतना है। मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले नारकियोंसे बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी विभक्तिवाले नारकी जीव विशेष अधिक हैं। विशेषका प्रमाण कितना है ? बाईस और इक्कीसप्रकृतिक विभक्तिस्थानवाले नारकियोंका जितना प्रमाण है उतना है। इसी प्रकार पहली पृथिवीके नारकी, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्त, सामान्यदेव, सौधर्म और ऐशान स्वर्गसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देव, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्नकाययोगी, पीतलेश्यावाले और पद्मलेश्यावाले जीवोंके कहना चाहिये।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे .
[पयडिविहत्ती २
६१६३.विदियादि जाव सत्तमीए सव्वत्थोवा अणंताणु० चउक्क० अविह० । सम्मल विह० असंखेज्जगुणा । सम्मामि विह विसेसा० । तस्सेव अविह० असंखे० गुणा । सम्मत्त. अविह० विसे । अणताणु० चउक्क० विहत्ति विसेसा० । वावीसंपयडीणं विह० विसेसा० । एवं पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी-भवण-वाण-जोदिसि० वत्तव्वं । - ६१६४.तिरिक्खेसु सव्वत्थोवा मिच्छत्त अविह० ।अणंताणु० चउक०अविह असंखेजगुणा । सम्मत्तविह० असंखेज्जगुणा । सम्मामि० विह. विसे० । तस्सेव अविह० अणंतगुणा । सम्मत्तअविह० विसे० । अणंताणुबंधीचउक्कविह० विसेसा० । मिच्छत्तविह० विसेसा० । बारसक०-णवणोकसाय०वि० विसे० । एवमसंजद-किण्ण-णील-काउ
लेस्सा । पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज० सव्वत्थोवा सम्मत्त विहत्तिया। सम्मामि विह० विसेसा० । तस्सेव अविह० असंखेज्जगुणा । सम्मत्त० अविह० विसे । मिच्छत्त-सोल
६१९३. दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्तिवाले नारकी जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे सम्यक्प्रकृतिकी विभक्तिवाले नारकी जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले नारकी जीव विशेष अधिक हैं। इनसे सम्यग्मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले नारकी जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे सम्यक्प्रकृतिकी अविभक्तिवाले नारकी जीव विशेष अधिक हैं। इनसे अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले नारकी जीव विशेष अधिक हैं। इनसे बाईस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले नारकी जीव विशेष अधिक हैं । इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तियंच योनीमती, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंके कहना चाहिये।
१९४.तिर्यचोंमें मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले तिर्यच जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्तिवाले तिर्यच जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे सम्यक्प्रकृतिकी विभक्तिवाले तिर्यंच जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले तिर्यंच जीव विशेष अधिक हैं। इनसे सम्यग्मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले तिर्यच जीव अनन्तगुणे हैं। इनसे सम्यक्प्रकृतिकी अविभक्तिवाले तिथंच जीव विशेष अधिक हैं। इनसे अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले तिर्यंच जीव विशेष अधिक हैं। इनसे मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले तिर्यच जीव विशेष अधिक हैं। इनसे बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी विभक्तिवाले तिर्यच जीव विशेष अधिक हैं । इसी प्रकार असंयत, कृष्णलेश्यावाले, नील- .. लेश्यावाले और कपोतलेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिये ।। . पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तकोंमें सम्यक्प्रकृतिकी विभक्तिवाले जीव सवसे थोड़े हैं। इनसे सम्यग्मिध्यात्वकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे सम्यग्मिथ्यात्वकी अविभक्तिधाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे सम्यक्प्रकृतिकी अविभक्तिवाले जीव विशेष
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१८५ सक०-णवणोकसाय० विह. विसे० । एवं मणुसअपज्जा-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज्ज०-तसअपज्ज०-चत्तारिकाय-बादर-सुहुम-पज्जत्तापज्जत्त-बादरवणप्फदिपत्तेयसरीर०-पज्जत्तापज्जत्त-बादरणिगोदपदिहिद-तेसिं पज्जत्तापज्जत्त-विभंगणाणीणं वत्तव्वं ।
६१६५.मणुसगईए मणुसेसु सव्वत्थोवा लोभसंजल० अविहत्तिया । के ते ? खीणकसायप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति । मायासंजल अविह० विसे । माणसंजल० अविह० विसेकोधसंजल० अविह० विसे० । पुरिस०अविह० विसे। छण्णोकसाय-अविह० विसे। इत्थि० अविह० विसे। णवूस० अविह० विसे० । अट्ठक० अविह० विसे। मिच्छत्त० अविह० संखेन्गुणा। अणंताणु० चउक्क० अविह० संखेज्जगुणा। सम्मत्त विह ० असंखेज्जगुणा । सम्मामि० विह विसेसा० । तस्सेव अविह० असंखेज्जगुणा । सम्मत्त अविह० विसे० । अधिक हैं । इनसे मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इसी प्रकार लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक, त्रस लब्ध्यपर्याप्तक, पृथिवीकायिक आदि चार स्थावरकाय, तथा उनके बादर
और सूक्ष्म तथा बादर और सूक्ष्मोंके पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर निगोदप्रतिष्ठितप्रत्येकशरीर तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त तथा विभंगज्ञानी जीवोंके कहना चाहिये। ६१९५. मनुष्यगतिमें मनुष्योंमें लोभसंज्वलनकी अविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं।
शंका-लोभसंज्वलनकी अंविभक्तिवाले मनुष्य कौनसे हैं ? । .... समाधान-क्षीणकषाय गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तकके जीव लोभसंज्वलनकी अविभक्तिवाले हैं।
__ लोभसंज्वलनकी अविभक्तिवाले मनुष्योंसे मायासंज्वलनकी अविभक्तिवाले मनुष्य विशेष अधिक हैं । इनसे मानसंज्वलनकी अविभक्तिवाले मनुष्य विशेष अधिक हैं। इनसे क्रोधसंज्वलनकी अविभक्तिवाले मनुष्य विशेष अधिक हैं । इनसे पुरुषवेदकी अविभक्तिवाले मनुष्य विशेष अधिक हैं। इनसे छह नोकषायोंकी अविभक्तिवाले मनुष्य विशेष अधिक हैं । इनसे स्त्रीवेदकी अविभक्तिवाले मनुष्य विशेष अधिक हैं । इनसे नपुंसकवेदकी अविभक्तिवाले मनुष्य विशेष अधिक हैं । इनसे आठ कषायोंकी अविभक्तिवाले मनुष्य विशेष अधिक हैं । इनसे मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले मनुष्य संख्यातगुणे हैं। इनसे अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्तिवाले मनुष्य संख्यातगुणे हैं। इनसे सम्यकप्रकृतिकी विभक्तिवाले मनुष्य असंख्यातगुणे हैं। इनसे सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले मनुष्य विशेष अधिक हैं। इनसे सम्यग्मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले मनुष्य असंख्यातगुणे हैं। इनसे सम्प्रकृतिकी अविभक्तिवाले मनुष्य विशेष अधिक हैं। इनसे अनन्तानुबन्धी
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [पयडिविहत्ती २ अणताणुचउक्क० विह. विसे० । मिच्छत्त० विह. विसे० । अटक० विह. विसे० । णस० विह० विसे० । इत्थि० विहत्ति विसे। छण्णोकसायविह. विसे० । पुरिस० विह० विसे । कोधसंजल विह० विसे० । माणसंजल विह. विसे० । मायासंजल विह. विसे। लोहसंजल० विह० विसे० । मणुसपज्जत्ताणमेवं चेव । णवरि, जम्हि असंखेज्जगुणं तम्हि संखेज्जगुणं कायव्वं । मणुसिणीसु सव्वत्थोवा लोभसंजल० अविह० । मायासंज० अविह० विसे । माणसंजल० अविह० विसेसाहिया। कोधसंजल० अविह० विसे । सत्तणोक० अविह० विसे । इत्थि० अविह विसे० । णqस० अविह० विसे । अहकसाय० अविह० विसे० । मिच्छत्त० अविह० संखेज्जगुणा । अणंताणु० चउक्क० अविह० संखेज्जगुणा । सम्मत्त विह० संखेज्जगुणा। सम्मामि विह विसेसा तस्सेव अविह० संखेज्जगुणा। सम्मत्त० अविह० विसे० । अणंताणु० चउक्क० विह० विसे०। चतुष्ककी विभक्तिवाले मनुष्य विशेष अधिक हैं । इनसे मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले मनुष्य विशेष अधिक हैं । इनसे आठ कषायकी विभक्तिवाले मनुष्य विशेष अधिक हैं। इनसे नपुंसकवेदकी विभक्तिवाले मनुष्य विशेष अधिक हैं । इनसे स्त्रीवेदकी विभक्तिवाले मनुष्य विशेष अधिक हैं। इनसे छह नोकषायोंकी विभक्तिवाले मनुष्य विशेष अधिक हैं। इनसे पुरुषवेदकी विभक्तिवाले मनुष्य विशेष अधिक हैं । इनसे क्रोधसंज्वलनकी विभक्तिवाले मनुष्य विशेष अधिक हैं। इनसे मानसंज्वलनकी विभक्तिवाले मनुष्य विशेष अधिक हैं। इनसे मायासंज्वलनकी विभक्तिवाले मनुष्य विशेष अधिक हैं। इनसे लोभ संज्वलनकी विभक्तिवाले मनुष्य विशेष अधिक हैं। मनुष्य पर्याप्त जीवोंके इसी प्रकार कथन करना चाहिये। इतनी विशेषता है कि जहां असंख्यातगुणा है वहां संख्यातगुणा कहना चाहिये। मनुष्यनियों में लोभसंज्वलनकी अविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे मायासंज्वलनकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे मानसंज्वलनकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे क्रोध संज्वलनकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे सात नोकषायोंकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे स्त्रीवेदकी अविभक्तिवाले जीव ।वशेष अधिक हैं । इनसे नपुंसकवेदकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे आठ कषायोंकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे सम्यक्प्रकृतिकी विभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे सम्यग्मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे सम्यकप्रकृतिकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे अनन्ता. नुवन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले
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गा० २२] उत्तरपयडिविहत्तीए अप्पाबहुप्राणुगमो मिच्छत्त० विह. विसे । अटक० विह विसे०। णqस० विह० विसे । इत्थि० विह० विसे । सत्तणोक० विह० विसे० । कोधसंजल० विह० विसे । माणसंजल०-विह० विसे । मायासंजल विह. विसे० । लोभसंजल० विह० विसे ।
६१६६.आणद-पाणदप्पहुडि जाव उपरिमगेवज्जत्ति सव्बत्थोवा मिच्छत्त अविह। सम्मामिच्छत्त०अविह० विसेसा० । सम्मत्त० अविह० विसेसा० । अणंताणु० चउक्क० अविह० संखेज्जगुणा । तस्सेव विह० संखेज्जगुणा। सम्मत्त विह. विसे । सम्मामि० विह० विसेसा० । मिच्छत्त० विह० विसेसा० । बारसक० णवणोक० विह० विसे । अणुद्दिसादि जाव सव्वहे त्ति सव्वत्थोवा सम्मत्त० अविह। मिच्छत्त-सम्मामि० अविह. विसे० । अणताणु० चउक्क० अविह० संखेज्जगुणा । तस्सेव विह० संखेज्जगुणा। मिच्छत्त-सम्मामि० विह० विसेसा। सम्मत्त विह० विसेसाहिया। बारसक०-णवणोक० विह. विसे। जीव विशेष अधिक हैं । इनसे आठ कषायोंकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे नपुंसकवेदकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे स्त्रीवेदकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे सात नोकषायोंकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे क्रोध संज्वलनकी विभक्तिबाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे मानसंज्वलनकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे मायासंज्वलनकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे लोभसंज्वलनकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं।
६१६६.आनत और प्राणत स्वर्गसे लेकर उपरिम अवेयक तक मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे सम्यग्मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे सम्यक्प्रकृतिकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे सम्यक्प्रकृतिकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं।
अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक सम्यक्प्रकृतिकी अविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे सम्यक्प्रकृतिकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे बारह कषाय और नौ नो कषायोंकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं।
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जयपवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ ६१६७. इंदियाणुवादेण एइंदिएसु सव्वत्थोवा सम्मत्त विह० । सम्मामि० विह० विसे। तस्सेव अविह० अणंतगुणा। सम्मत्त अविह विसे । मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० विह० विसे० । एवं बादर-सुहुम-एइंदिय-तेसिं पज्जत्तापज्जत्त-वणप्फदि०-णिगोद०बादर-सुहुम-पज्जत्तापज्जत्त-मदि-सुदअण्णाण-मिच्छाइटि-असण्णि त्ति वत्तव्वं ।
६१६८.पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्त-तस-तसपज्जत्तः सव्वत्थोवा लोभसंजल० अविह। मायासंजल० अविह० विसे । माणसंज. अविह० विसे । कोधसंजल० अविह० विसे । पुरिस० अविह. विसे । छण्णोकसाय० अविह० विसे । इत्थि० अविह. विसे०। णवंस अविह० विसे० । अष्टक० अविह० विसे । मिच्छत्त० अवि० असंखेजगुणा। अणंताणु०चउक्क० अविह० असंखेजगुणा । सम्मत्त विह० असंखेजगुणा । सम्मामि० विह० विसे । तस्सेव अविह० असंखेजगुणा । सम्मत्त० अविह० विसे० । अणंताणु
१९७.इन्द्रिय मार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियोंमें सम्यक्प्रकृतिकी विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे सम्यग्मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे हैं। इनसे सम्यक्प्रकृतिकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इसी प्रकार बादर एकेन्द्रिय और सूक्ष्म एकेन्द्रिय तथा इनके पर्याप्त
और अपर्याप्त, वनस्पतिकायिक, निगोद, बादर वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक बादर बनस्पतिकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्तं, बादर निगोद, सूक्ष्म निगोद, बादर निगोद पर्याप्त, बादर निगोद अपर्याप्त, सूक्ष्म निगोद पर्याप्त, सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके कहना चाहिये ।
६१६८.पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस और त्रस पर्याप्त जीवोंमें लोभसंज्वलनकी अविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे माया संज्वलनकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे मान संज्वलनकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे क्रोधसंज्वलनकी अविभाक्तवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे पुरुषवेदकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे छह नोकषायोंकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे स्त्रीवेदकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे नपुंसकवेदकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे आठ कषायोंकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे मिथ्यात्वकी अविभाक्तवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे सम्यक्प्रकृतिकी विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे सम्यग्मिध्यात्वकी अविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे सम्यकप्रकृतिकी अविभक्तिवाले जीव विशेष
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र ]
गा० २२ ] उत्तरपयडिविहत्तीए अप्पाबहुप्राणुगमो
१८६ चउक्क० विह. विसे । मिच्छत्त० विह० विसे० । अष्टक० विह० विसेसा० । णस० विह० विसेसा० । इत्थि० विह० विसे० । छण्णोक० विह० विसे० । पुरिस० विह० विसे । कोधसंजल० विह० विसे० । माणसंजलण० विह० विसे । मायासंजल विह. विसेसा० । लोभसंजल० विह० विसे । एवं पंचमण-पंचवचि०-चक्खु०-सणि त्ति वत्तव्वं ।
६१६६.काययोगीसु सव्वत्थोवा लोभसंजल अविहः । मायासंजल० अविह. विसे । माणसंजल० अविह. विसे । कोधसंजल० अविह० विसे । पुरिस० अविह० विसे । छण्णोक० अविह० विसे० । इत्थि० अविह. विसे । णबुंस० अविह. विसे० । अटक० अविह० विसे । मिच्छत्त० अविह० असंखेज्जगुणा । अणंताणु० चउक्क० अविह० असंखेज्जगुणा । सम्मत्त० विह० असंखेज्जगुणा । सम्मामि० विह. विसे० । तस्सेव अविह० अणंतगुणा । सम्मत्त० अविह० विसे० । अणंताणु० चउक्क० विह० विसे । अधिक हैं। इनसे अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे आठ कषायोंकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे नपुंसकवेदकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे स्त्रीवेदकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे छह नोकषायोंकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे पुरुषवेदकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे क्रोधसंज्वलनकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे मानसंज्वलनकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे मायासंज्वलनकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे लोभसंज्वलनकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इसी प्रकार पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, चक्षुदर्शनी और संज्ञी जीवोंके कहना चाहिये।
६१६१.काययोगी जीवोंमें लोभसंज्वलनकी अविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे मायासंज्वलनकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे मानसंज्वलनकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे क्रोधसंज्वलनकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे पुरुषवेदकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे छह नोकषायोंकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे स्त्रीवेदकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे नपुंसकवेदकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे आठ कषायोंकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे सम्यक्प्रकृतिकी विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे सम्यग्मिध्यात्वकी अविभक्तिवाले जीव धनन्तगुणे हैं। इनसे सम्यकप्रकृतिकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे अन.
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ मिच्छत्त० विह० विसे० । अटक० विह० विसे । णवूस० विह० विसे० । इत्थि० विह विसे । छण्णोक० विह० विसे० । पुरिस० विह. विसे० । कोधसंजल विह विसे० । माणसंजल विह. विसे । मायासंजल विह. विसेसा। लोभसंजल विह. विसे । एवमोरालिय०-अचक्खु०-भवसिद्धि०-आहारएत्ति वत्तव्वं ।
६२००.ओरालियमिस्स० सव्वत्थोवा बारसक०-णवणोक० अविह ०। मिच्छत्त. अविह० संखेजगुणा । अणंताणुचउक्क० अविह संखेज्जगुणा । सम्मत्त विह असंखेज्जगुणा। सम्मामि० विह० विसे० । तस्सेव अविह० अणंतगुणा । सम्मत्त० अवि० विसे० । अणंताणु० चउक्क० विह० विसे । मिच्छत्त० विह. विसे । बारसक०-णवणोक० विह विसे० । एवं कम्मइय० । णवरि, मिच्छत्त-अविहत्तियाणमुवरि अणंताणु०चउक्क० अविह० असंखेज्जगुणा । आहार-आहारमिस्स० सव्वत्थोवा मिच्छत्त-सम्मत्तन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे आठ कषायोंकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे नपुंसकवेदकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे स्त्रीवेदकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे छह नोकषायकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे पुरुषवेदकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे क्रोधसंज्वलनकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे मानसंज्वलनकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे मायासंज्वलनकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे लोभसंज्वलनकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इसीप्रकार औदारिककाययोगी, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंके कहना चाहिये।
२००. औदारिक मिश्रकाययोगी जीवोंमें बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे सम्यक्प्रकृतिकी विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे सम्यग्मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे हैं। इनसे सम्यक्प्रकृतिकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी विसक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इसी प्रकार कार्मणकाययोगी जीवोंके जानना चाहिपे। इतनी विशेषता है कि कार्मणकाययोगी जीवोंमें मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले जीवोंसे अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अनन्ता
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गा० २२ ।
उत्तरपय डिविहत्तीए अप्पाबहुश्रागम
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सम्मामि० अविहत्तिया । अनंताणु ० चउक्क० अवि संखेज्जगुणा । तस्सेव विह० संखेज्जगुणा | मिच्छत्त-सम्मत्त - सम्मामि ० विह० विसेसा० । बारसक० - णवणोकसाय० विह० विसे० ।
१ २०१. वेदानुवादे इत्थि० सव्क्त्थोवा णवुंस० अविह० । अट्ठक० अविह० संखेज्जगुणा । कुदो ! बारसविहत्तिएहिंतो तेरसविहत्तियाणमा पडिमागेण संखेजगुणत्तसिद्धीए पडिबंधाभावादो । ण च ओघमणुस्सगईयादिसु वि एसो पसंगो आसंकणिजो; तत्थ सिद्धसजोगीणं पमुहभावेणाद्वापडिभागस्स पहाणत्ताभावादो । एसो नुबन्धी चतुष्ककी अविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे मिध्यात्व, सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व की विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं ।
विशेषार्थ - बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अविभक्तिवाले औदारिक मिश्रकाययोगी जीव वे हैं जो कपाट और प्रतर समुद्धात अवस्थाको प्राप्त हैं । इसलिये ये सबसे थोड़े बतलाये हैं । तथा मिध्यात्व की अविभक्तिवाले औदारिक मिश्रकायोगियोंमें, जो क्षायिक सम्यग्दृष्टि देव और नारकी मर कर ममुष्यों में उत्पन्न होते हैं वे, और जो क्षायिकसम्यग्दृष्टि या कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि मनुष्य मर कर मनुष्यों और तिर्यंचोंमें उत्पन्न होते हैं वे लिये गये हैं, इसलिये ये पूर्वोक्त जीवोंसे संख्यातगुणे बतलाये हैं । इसी प्रकार आगेका अल्पबहुत्व भी घटित कर लेना चाहिये । किन्तु कार्मणकाययोगियोंमें जो मिथ्यात्व की अविभक्तिवालोंसे अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे बतलाये हैं सो इसका कारण यह है कि यहां चारों गतियोंके कार्मणकाययोग अवस्थामें स्थित अनन्तानुबन्धी विसंयोजक जीव लिये गये हैं । अतः इनके असंख्यातगुणे होने में कोई आपत्ति नहीं है ।
२०१. वेद मार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदी जीवों में नपुंसकवेदकी अविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे आठ कषायोंकी अविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। क्योंकि बारह प्रकृतिक विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे तेरहप्रकृतिक विभक्तिस्थानवाले जीव कालसम्बन्धी प्रतिभागसे संख्यातगुणे सिद्ध होते हैं । अतः नपुंसकवेदकी अविभक्तिवाले जीवोंसे आठ कषायोंकी अविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं ऐसा मानने में कोई प्रतिबन्ध नहीं है । पर इससे सामान्य प्ररूपणा और मनुष्य गति आदि मार्गणाओं में भी यह प्रसंग प्राप्त होता है ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि वहां सामान्य प्ररूपणा और मनुष्य गति आदिमार्गणाओं में सिद्ध और सयोगी जीवोंका मुख्य रूपसे ग्रहण किया गया है, इसलिये वहां काल सम्बन्धी प्रतिभागकी प्रधानता नहीं है । यह अर्थ यथासंभव अन्य मार्गणाओंमें
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जयघवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पयडिविहत्ती २
०
अत्थो जहासंभव मण्णत्थ वि वत्तव्वो । तदो मिच्छत्त० अविह० संखेखगुणा । अनंताणु० चउक्क० अविह० असंखेज्जगुणा । सम्मत्त ० विह० असंखेजगुणा । सम्मामि० विह० विसे० | तस्सेव अविह० असंखेजगुणा । सम्मत्त० अविह० विसेसा० । अणंताणु०चक्क० विह० विसे । मिच्छत्त० विह० विसे० । अट्ठक० विह० विसे० | वंस० विह० विसे० । चत्तारिसंजल० अट्ठणो ०क० विह० विसे० । पुरिसवेदे सव्वत्थोवा छोक० अहि० । इत्थिवेद ० अविह० संखेज्जगुणा । णवुंस० अविह० विसे० । अक० अवि० [ संखेज्ज ] गुणा । एत्थ कारणं पुव्वं व वत्तव्वं । सेसपंचिदियभंगो जाव छण्णोकसाय ० विह० विसेसाहियाति । तदुवरि चत्तारि संजल० पुरिस० विह० विसे | णवंस सव्वत्थोवा इत्थि० अविह० । अहक्क० अविह० संखेज्जगुणा । सेसं पंचिदियभंगो । णवरि, सम्मामि० अविह० अनंतगुणा । उवरि वि इत्थवेदविहत्तिभी कहना चाहिये । आठ कषायों की अविभक्तिवाले जीवोंसे मिध्यात्वकी अविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे सम्यक्प्रकृतिकी विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे सम्यग्मिध्यात्वकी अविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे सम्यक्प्रकृतिको अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे मिध्यात्वकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे आठ कषायोंकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे नपुंसकवेदकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे चार संज्वलन और आठ नौकषायकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । पुरुषवेदी जीवोंमें छह नोकषायोंकी अविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे स्त्रीवेदकी अविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे नपुंसकवेदकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे आठ कषायों की अविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं । यहां पर कारण पहले के समान कहना चाहिये । अर्थात् बारह प्रकृतिक विभक्तिस्थानके कालसे तेरह प्रकृतिक विभक्तिस्थानका काल संख्यातगुणा है, अतः नपुंसकवेदकी अविभक्तिवाले जीवोंसे आठ कषायोंकी अविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं ऐसा माननेमें कोई बाधा नहीं है । इसके आगे छह नोकषायकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं इस स्थानतकका अल्पबहुत्व पंचेन्द्रियोंके समान है । तथा इसके ऊपर चार संज्वलन और पुरुषवेदकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । नपुंसकवेदी जीवों में स्त्रीवेदकी अविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे आठ कषायोंकी अविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। शेष अल्पबहुत्व पंचेन्द्रियोंके समान है । इतनी विशेषता है कि यहां सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीवोंसे सम्यग्मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे हैं । तथा आगे भी स्त्रीवेदकी विभक्तिवाले जीवोंसे आठ नोकषाय
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एहितो अष्टणोक०- चदुसंजलणविहत्तिया विसेसाहिया त्ति वत्तव्वं । अवगदवेदे सव्वत्थोवा मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि विह० । अट्ठक०-इत्थि०-णवुसं० [विहरू विसेसा०। छण्णोकसाविह० विसे०] । पुरिस० विह० विसे । कोधसंजल विह० विसे । माणसंजल विह विसे।मायासंजल विह. विसे० । लोभसंजल विह० विसे० । तस्सेव अविह० अणंतगुणा । मायासंजल० अविह० विसे । माणसंजल. अविह. विसे । कोधसंज० अविह० विसे । पुरिस० अविह. विसे । छण्णोकसाय० अविह० विसे । अष्टक०-इथि -णस० अविह० विसे । मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०अविह० विसे । __६२०२. कसायाणे [ (णु) वादेण कोहकसाईसु सव्वत्थोवा पुरिस०] अविह० । छष्णोक० अविह० विसे० । इथिवेदअविह० विसे० । णqस० अवि० विसे० । अहक० और चार संज्वलनकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं ऐसा कहना चाहिये ।
अपगतवेदी जीवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे आठ कषाय, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे छह नोकषायोंकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे पुरुषवेदकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे क्रोधसंज्वलनकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे मानसंज्वलनकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे मायासंज्वलनकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे लोभसंज्वलनकी विभक्तिवाले विशेष अधिक हैं। इनसे लोभसंज्वलनकी अविभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे हैं । इनसे मायासंज्वलनकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे मानसंज्वलनकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे क्रोधसंज्वलनकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे पुरुषवेदकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे छह नोकपायोंकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे आठ कषाय, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। ___६२०२. कषाय मार्गणाके अनुवादसे क्रोधकषायवाले जीवोंमें पुरुषवेदकी अविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे छह नोकषायोंकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे स्त्रीवेदकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे नपुंसकवेदकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे आठ कषायोंकी अविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं । शेष कथन
(१) स. . . . . (त्रु० १५) पु-स० ।-स० अविह० सव्वत्थोवा सत्तणोक० विसे० पु-अ०, आ० ।
(२) कसायाण. (त्रु०१५) अविह०-स०। कसायाणमण्णत्थ विसेसाहिया ति लीभसंज० अविह-अ०, आ०।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ प डिविहत्ती २
अवि० संखेजगुणा | सेसस्स ओघभंगो जात्र पुरिस० विहत्तिओ ति । तदुवरि चत्तारि संज० विह० विसे० । एवं माण०, णवरि तिष्णिक० विह० विसे० । एवं माया०, वरि दोणिक० वि० विसे० । एवं लोभ०, णवरि लोभ० विह० विसेसाहिया । अकसायी सम्वत्थोवा मिच्छत्त-सम्मत-सम्मामि० विहत्तिया । [ अट्ठक० ], णवणोक० विह० विसे० । तस्सेव अविह० अनंतगुणा । मिच्छत्त - सम्मत्त - सम्मामि० अविह० विसे० | एवं जहाक्खाद० | णवरि जम्हि अनंतगुणा तम्हि संखेजगुणा वत्तव्वं ।
९२०३. आमिणि० - सुद० - ओहि ० सव्वत्थोवा लोभसंजल० अविह ० । मायासंजलण० अविह० विसे० । एवं जाव अडक० अविह० । सम्मत्त० अविह० असंखेजगुणा । सम्मामि ० अविह० विसे० । मिच्छत्त० अविह० विसे० । अनंताणुबंधिच उक्क० अविह० असंखेजगुणा । तस्सेव विह० असंखेजगुणा । मिच्छत्त० विह० विसे० । सम्मामिच्छत्त ० 'पुरुषवेदकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं' इस स्थानके प्राप्त होने तक ओ समान है । इसके आगे चार संज्वलनकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इसी प्रकार मान कषायवाले जीवोंका अल्पबहुत्व कहना । किन्तु यहां इतनी विशेषता और है कि चार संज्वलनोंकी विभक्तिवालोंसे तीन संज्वलनोंकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इसीप्रकार मायाकषायवाले जीवोंका अल्पबहुत्व जानना । किन्तु इतनी विशेषता है कि तीन संज्वलनोंकी विभक्तिवालोंसे दो संज्वलनोंकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इस प्रकार लोभ कषायवाले जीवोंका अल्पबहुत्व जानना । किन्तु यहां इतनी विशेषता और है कि दो सज्वलनोंकी विभक्तिवालोंसे लोभसंज्वलनकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं ।
अकषायी जीवों में मिध्यात्व, सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे आठ कषाय और नौ नोकषायोंकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे उन्हीं की अविभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे हैं । इनसे मिथ्यात्व, सम्यक् - प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इसी प्रकार यथाख्यातसंयत जीवोंके कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि ऊपर पूर्व में जहां अनन्तगुणा कहा है वहां यथाख्यातसंयतोंके संख्यातगुणा कहना चाहिये ।
२०३. मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों में लोभसंज्वलनकी अविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे मायासंज्वलन की अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। आगे आठ कषायोंकी अविभक्तिस्थान तक इसी प्रकार कथन करना चाहिये । आठ कषायोंकी अविभक्तिबाले जीवोंसे सम्यक्प्रकृतिकी अविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे सम्यग्मिथ्याant अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे मिध्यात्व की अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे उन्हीं की विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे मिध्यात्वकी विभक्तिवाले जीव विशेष
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विह० विसे । सम्मत्त विह० विसे० । अहक० विह० विसे० । एवं जाव लोभ० विह० विसे । एवमोहिदंस० । मणपज्जव०-संजदाणं पि एवं चेव । णवरि, जम्हि असंखेज्जगुणं तम्हि संखेज्जगुणं कायव्वं । एवं सामाइयछेदो० वत्तव्यं । णवरि, अट्ठक० अवि० संखेज्जगुणा । लोभसंजल. अव्हि० णस्थि । परिहार० सव्वत्थोवा सम्मत्त० अविह० । सम्मामि० अविह० विसे । मिच्छत्त० अविह० विसे । अणंताणु०चउक्क० अविह० संखेजगुणा। तस्सेव विह० संखेजगुणा। मिच्छत्त० विह० विसे०। सम्मामि० विह. विसे० । सम्मत्त० विह० विसे० । बारसक०-णवणोक० विह० विसे० । एवं संजदासंजदाणं । णवरि, जम्हि संखेज्जगुणा तम्हि असंखेजगुणा । सुहुमसांपराइय० सव्वत्थोवा दंसणतियस्स विह० । वीसपय० विह० विसे । तेसिं चेव अविह० संखेज्जगुणा। दंसणतिय० अविह० विसे। लोभसंजल विह० विसे० । अधिक हैं । इनसे सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे सम्यक्प्रकृतिकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे आठ कषायोंकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। आगे 'इनसे लोभसंज्वलनकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं' इस स्थान तक इसी प्रकार कहना चाहिये । इसी प्रकार अवधदर्शनी जीवोंके अल्पबहुत्व कहना चाहिये । मनःपर्ययज्ञानी और संयत जीवोंके भी इसीप्रकार कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि मतिज्ञानी आदि जीवोंके जहां असंख्यातगुणा कहा है वहां इनके संख्यातगुणा कहना चाहिये । इसी प्रकार सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंके कहना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनमें आठ कषायकी अविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। तथा इन दोनों संयत जीवोंमें लोभसंज्वलनकी अविभक्ति नहीं हैं। परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंमें सम्यक्प्रकृतिकी अविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे सम्यग्मिध्यात्वकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे उसीकी विभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे सम्यक्प्रकृतिकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इसी प्रकार संयतासंयत जीवोंके कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि जहां परिहार विशुद्धिसंयतोंके संख्यातगुणा है वहां इनके असंख्यातगुणा है। सूक्ष्मसांपरायिक संयतोंमें तीन दर्शनमोहनीयकी विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे बीस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे उन्हीं बीस प्रकृतियोंकी अविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे तीन दर्शनमोहनीयकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे लोभसंज्वलनकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं।
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१६६ अयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[पयडिविहत्ती २ २०४. सुक्क० सव्वत्थोवा लोभसंजल० अविह० । मायासंज० अविह० विसे० । माणसंज० अवि० विसे० । कोधसंज० अविह० विसेसा० । पुरिस० अविह० विसे० । छण्णोक० अविह० विसे० । इत्थि० अविह० विसे० । णस० अविह० विसेसा० । अष्टक० अविह० विसे । मिच्छत्त० अविह० असंखेजगुणा। सम्मामि० अविह० विसे० । सम्मत्त० अविह० विसे० । अणंताणु० चउक्क० अविह० संखेजगुणा । तस्सेव विह. संखेजगुणा । एवं विवरीदकमेण सेसाणं विसेसाहियत्तं वत्तव्वं । अभवसिद्धि०-सासण. णत्थि अप्पाबहुगं ।
२०५. सम्मादिहिसु सव्वत्थोवा अणंताणु० चउक्क० विह० । मिच्छत्त० विह० विसे । सम्मामि० विह० विसे० । सम्मत्त० विह० विसे । अहक विह. विसे । एवं जाव लोभ० विहत्तिओ त्ति विसे । तस्सेव अविह० अणंतगुणा । मायासंजल.
६२०४.शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें लोभसंज्वलनकी अविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे मायासंज्वलनकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे मानसंज्वलनकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे क्रोधसंज्वलनकी अविभक्तिवाले जीव विशेषअधिक हैं । इनसे पुरुषवेदकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे छह नोकपायोकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे स्त्रीवेदकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे नपुंसकवेदकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे आठ कषायोंकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे सम्यग्मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे सम्यक्प्रकृतिकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविमक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे उसीकी विभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे है। इसी प्रकार आगे विपरीतक्रमसे शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंको उत्तरोत्तर विशेषाधिक कहना चाहिये ।
अभव्य जीव और सासादन सम्यग्दृिष्टि जीवोंके अल्पबहुत्व नहीं है क्योंकि वे सब जीव क्रमसे छब्बीस और अट्ठाईस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले ही होते हैं।
$२.०५. सम्यग्दृष्टि जीवोंमें अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे सम्यक्प्रकृतिकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे आठ कषायोंकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । आगे इसी प्रकार लोभसंज्वलनकी विभक्तिवाले जीवों तक विशेष अधिक कहना चाहिये। लोभसंज्वलनकी विभक्तिवाले जीवोंसे उसीकी अविभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे हैं। इनसे मायासंज्वलनकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक है। इनसे मानसंज्वलनकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक है। इनसे
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अविह० विसे० । माणसंजल० अविह० विसे । कोधसंज०अविह० विसे० । पुरिस० अविह० विसे। छण्णोक० अविह. विसे० । इत्थि० अविह० विसे० । णqसय० अविह. विसे । अहक० अविह० विसे । सम्मत्त अविह. विसे । सम्मामि० अविह विसे० । मिच्छत्त अविह० विसे० । अणंताणु० चउक्क० अविह. विसे० । एवं खइयसम्माइटीसु । णवरि, अहकसायादि कायव्वं । वेदगसम्मा० सव्वत्थोवा सम्मामि० अविह० | मिच्छत्त अविह० विसे० । अणंताणु०चउक्क० अविह० असंखेजगुणा । तस्सेव विह० असंखेजगुणा । मिच्छत्त विह. विसे । सम्मामि०विह० विसे । सम्मत्त-बारसक०-णवणोक० विह० विसे० । उवसमसम्मा० सव्वत्थोवा अणंताणु० चउक० अविहः। तस्सेव विह. असंखेज्जगुणा । चउवीसंपय० विह० विसे० । एवं सम्मामि ।
२०६. अणाहार० सव्वत्थोवा सम्मत्त विह० । सम्मामि० विह. विसे । बारसक०-णवणोक० अविह० अणंतगुणा । मिच्छत्त० अविह० विसे० । अणंताणु०क्रोधसंज्वलनकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे पुरुषवेदकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे छह नोकषायोंकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे स्त्रीवेदकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे नपुंसकवेदकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे आठ कषायोंकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे सम्यक्प्रकृतिकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे सम्यग्मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इसी प्रकार क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके आठ कषायोंकी विभक्तिवालोंको आदि लेकर कहना चाहिये । वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें सम्यग्मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे उसीकी विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे सम्यक्प्रकृति, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे उसीकी विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे चौबीस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इसी प्रकार सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये।
२०६. अनाहारक जीवोंमें सम्यक्प्रकृतिकी विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक है। इनसे बारह कषाय और नौ
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ चउक० अविह० विसे० । तस्सेव विह० अणंतगुणा । मिच्छत्त० विह० विसे । बारसक०-णवणोक० विह० विसे० । सम्मामि० अविह० विसे० । सम्मत्त० अविह. विसे ।
एवमप्पाबहुगं समतं ।
॥ एवमेगेग-उत्तरपयडिविहत्ती समत्ता ॥ नोकषायोंकी अविभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे हैं। इनसे मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे उसीकी विभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे हैं। इनसे मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे सम्यग्मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे सम्यक्प्रकृतिकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं ।
___ इस प्रकार अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। इस प्रकार एकैक उत्तरप्रकृतिविभक्ति समाप्त हुई।
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vaisgracity अणियोगद्दारणामाणि
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*पयडिट्ठाणविहत्तीए इमाणि अणियोगद्दाराणि । तं जहा, एंगजीवेण सामित्तं कालो अंतरं, णाणाजीवेहि भंगविचओ परिमाणं खेत्तं फोसणं कालो अंतरं अप्पाबहुअं भुजगारो पदणिक्खेवो वड्ढि त्ति ।
गा० २२ ]
१२०७. मिच्छत्ता दियाओ पयडीओ त्ति घेत्तव्वाओ;क म्मपयाडं मोत्तूण अण्णपयडी हि अहियाराभावादो | चिट्ठेति एत्थ पयडीओ त्ति द्वाणं । अट्ठावीस सत्तावीस-छब्बीसादिपडीणं ठाणाणि पयडिद्वाणाणि । ताणि च बंधद्वाणाणि उदयद्वाणाणि संतद्वाणाणि त्ति तिविहाणि होंति । तत्थ केसिमेत्थ ग्गहणं ? ण बंधद्वाणाणं; तेसिं महाबंधे बंधगेत्ति सणिदे उवरि वणिजमाणत्तादो । गोदयद्वाणाणं गहणं; वेदगेत्ति आणियोगद्दारे पुरदो बण माणत्तादो । परिसेसादो संतपयडिद्वाणाणं अट्ठावीस सत्तावीस छब्वीस चदुवीस तेवीस बावीस एकवीस तेरस बारस एक्कारस पंच चत्तारि तिष्णि दोणि एकं ति देसिं गहणं ।
*प्रकृतिस्थानविभक्तिमें ये अनुयोगद्वार आये हैं । जो इस प्रकार हैं- एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल और अन्तर तथा नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, परिमाण क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, अल्पबहुत्व, भुजगार, पदनिक्षेप और वृद्धि |
२०७. इस कसायपाहुड में प्रकृति शब्द से मिथ्यात्व आदिक कर्मप्रकृतियोंका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि प्रकृत में मिथ्यात्व ध्यादिक कर्मप्रकृतियोंको छोड़कर अन्य प्रकृतियों का अधिकार नहीं है । जिसमें प्रकृतियां रहती हैं उसे अर्थात् प्रकृतियोंके समुदायको स्थान कहते हैं । अट्ठाईस, सत्ताईस और छब्बीस आदि प्रकृतियोंके स्थानोंको प्रकृतिस्थान कहते हैं ।
शंका- वे प्रकृतिस्थान बन्धस्थान, उदयस्थान और सत्वस्थानके भेदसे तीन प्रकारके होते हैं । सो उनमें से यहां किसका ग्रहण किया है ?
समाधान - प्रकृत में बन्धस्थानोंका तो ग्रहण किया नहीं जा सकता है, क्योंकि आगे 'बन्धक ' नामवाले महाबन्ध अधिकार में उनका वर्णन किया जानेवाला है । उदयस्थानोंका भी ग्रहण नहीं हो सकता है, क्योंकि आगे वेदक अनुयोगद्वार में उनका वर्णन किया जानेवाला है । अत: पारिशेष न्यायसे अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, चौबीस, तेईस, बाईस, इक्कीस, तेरह, बारह, ग्यारह, पांच, चार, तीन, दो और एक प्रकृतिरूप सत्त्वप्रकृतिस्थानोंका प्रकृत में ग्रहण किया है ।
विशेषार्थ - प्रकृतमें मोहनीय कर्मके बन्धस्थानों और उदयस्थानोंका कथन न करके उक्त स्वामित्व आदि अनुयोगद्वारोंके द्वारा सत्त्वस्थानोंका कथन किया जा रहा है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
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जयधवलास हिदे कसा पाहुडे
[ पय डिविहत्ती २
२८. पडिडाणाणं विहत्ती भेदो पयडिद्वाणविहत्ती, तीए पयडिट्ठाणविहत्तीए इमाणि अणियोगद्दाराणि होंति त्ति संबंधो कायव्वो । परोकखाणमणिओगद्दाराणं कथमिमाणि ति पच्चक्खणिसो ? ण, बुद्धीए पञ्च्चक्खीकयाणं तदविरोहादो । तेरस अणियोगद्दाराणि त्ति परिमाणमकाऊण सामण्णेण इमाणि त्ति किमहं णिदेसो कदो ! एदाणि तेरस चेव अणियोगद्दाराणि ण होंति अण्णाणि वि समुक्कित्तणा सादिय अणादिय ध्रुव अद्भुव भाव भागाभागेत्ति सत्त अणियोगद्दाराणि एदेसु तेरससु आणिओगद्दारेसु पविद्याणि त्ति जाणावहं परिमाणं ण कदं । एदेसिं सत्तण्हमणिओगद्दाराणं जहा तेरससु आणिओगद्दारेसु अंतभावो होदि तहा वत्तव्वं ।
२०८. प्रकृतिस्थानों की विभक्ति अर्थात् भेदको प्रकृतिस्थानविभक्ति कहते हैं । उस प्रकृतिस्थानविभक्तिके ये अनुयोगद्वार होते हैं प्रकृतमें इस प्रकार सम्बन्ध करना चाहिये | शंका - जब अनुयोगद्वार परोक्ष हैं, तो उनका 'इमाणि' इस पद के द्वारा प्रत्यक्ष रूपसे निर्देश कैसे हो सकता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि बुद्धिसे प्रत्यक्ष करके उनका 'इमाणि' इस पद के द्वारा प्रत्यक्षरूपसे निर्देश करनेमें कोई विरोध नहीं है ।
शंका- 'प्रकृतिस्थानविभक्तिके विषयमें तेरह अनुयोगद्वार हैं' इस प्रकार उनका परि माण न करके सामान्य से 'इमाणि' इस पदके द्वारा उनका निर्देश किसलिये किया ?
२००
समाधान- ये अनुयोगद्वार केवल तेरह ही नहीं हैं किन्तु इनमें इनके अतिरिक्त समुकीर्तना, सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव, भाव और भागाभाग ये सात अनुयोगद्वार और भी सम्मिलित हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिये उक्त अनुयोगद्वारोंका परिमाण नहीं कहा है ।
इन सात अनुयोगद्वारोंका तेरह अनुयोगद्वारोंमें जिस प्रकार अन्तर्भाव होता है। उसका कथन कर लेना चाहिये ।
विशेषार्थ - चूर्णि सूत्रकार ने प्रकृतिस्थानविभक्तिका कथन 'एकजीवकी अपेक्षा स्वामित्व' आदि अनुयोगोंके द्वारा करनेकी सूचना की है जिनकी संख्या तेरह होती है । पर ये अनुयोगद्वार तेरह हैं इस प्रकारका उल्लेख नहीं किया है । इसका कारण बतलाते हुए वीरसेन स्वामी लिखते हैं कि चूर्णिसूत्रकारको यहां समुत्कीर्तना, सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव, भाव और भागाभाग ये सात अनुयोगद्वार और इष्ट हैं जिनका उक्त अनुयोगद्वारोंमें संग्रह कर लेने पर सबका प्रमाण बीस हो जाता है । यही सबब है कि चूर्णि सूत्रकारने 'तेरह ' संख्याका निर्देश नहीं किया । उक्त तेरह अनुयोगद्वारोंमें समुत्कीर्तना सम्मिलित नहीं है पर चूर्णिसूत्रकारने चूर्णिद्वारा इसका कथन किया है । भागाभाग भी सम्मिलित नहीं हैं पर नानाजीवोंकी अपेक्षा भंग विचयके अनन्तर भागाभाग अनुयोगद्वार आता है और वहां
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गा० २२ । पयडिट्ठाणविहत्तीए हाणसमुक्कित्तणा
२०१ कृपयडिहाणविहत्तीए पुव्वं गमणिज्जा हाणसमुक्त्तिणा ।
$२०६.'पुव्वं' पढमं चेव 'गमाणिजा' अवगंतव्वा 'हाणसमुकित्तणा' ठाणवण्णणा; ताए अणवगयाए सेसाणिओगद्दाराणं पढणासंभवादो । तेण हाणसमुकित्तणा सवाणियोगद्दाराणमादीए वत्तव्वेत्ति भणिद होदि ।
अस्थि अट्ठावीसाए सत्तावीसाए कव्वीसाए चउवीसाए तेवीसाए वावीसाए एकवीसाए तेरसण्हं बारसण्हं एकारसण्हं पंचण्हं चदुण्हं तिण्हं दोण्हं एकिस्से च १५ । एदे ओघेण। चूर्णिसूत्रकारने 'सेसाणि अमिओगहाराणि णेदव्वाणि' यह चूर्णिसूत्र कहा है। मालूम होता है इस परसे वीरसेनस्वामीने यह निश्चय किया है कि चूर्णिसूत्रकारको इन तेरहके अतिरिक्त सात अनुयोगद्वार और इष्ट हैं । अब समुत्कीर्तना आदि सात अनुयोगद्वारोंका 'एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व' आदि तेरह अनुयोगद्वारों में किस प्रकार अन्तर्भाव होता है इसका निर्देश करते हैं। समुत्कीर्तनाका स्वामित्व अनुयोगद्वारमें अन्तर्भाव हो जाता है, क्योंकि समुत्कीतनामें स्थानोंका और स्वामित्वमें स्थानोंके स्वामीका कथन रहता है, अतः अलगसे स्थान न कहने पर भी किस स्थानका कौन स्वामी है इसका कथन करनेसे स्थानोंका कथन होही जाता है। सादि,अनादि, ध्रुव और अध्रुवका काल और अन्तर अनुयोगद्वारोंमें अन्तर्भाव हो जाता है, क्योंकि काल और अन्तरका ज्ञान हो जाने पर सादि आदिका ज्ञान हो ही जाता है। मोहनीयके उदयादिके सद्भावमें ही ये अट्ठाईसप्रकृतिक आदि स्थान होते हैं यह बात भावानुयोगद्वारका अलगसे कथन न करने पर भी जानी जाती है। तथा भागाभागका अल्पबहुत्वानुयोगद्वार में अन्तर्भाव हो जाता है, क्योंकि किस स्थानवाले जीव अल्प हैं और किस स्थानवाले जीव बहुत हैं, इसका ज्ञान हो जाने पर भागाभागका ज्ञान हो ही जाता है । इस प्रकार समुत्कीर्तना आदि सात अनुयोगद्वारोंका स्वामित्व आदिकमें अन्तर्भाव जानना चाहिये।
प्रकृतिस्थानविभक्ति में सर्वप्रथम स्थानसमुत्कीर्तनाको जान लेना चाहिये । ६२०९. इस चूर्णिसूत्रमें 'पूर्व' पद 'प्रथम' इस अर्थमें आया है। 'गमणिज्जा'का अर्थ 'जानना चाहिये होता है । 'ट्ठाणसमुक्कित्तणा' का अर्थ 'अट्ठाईस आदि स्थानोंका वर्णन' है। जब तक अट्ठाईस आदि स्थानोंका ज्ञान नहीं हो जायगा तब तक स्वामित्व आदि शेष उन्नीस अनुयोगद्वारोंका कथन करना संभव नहीं है, इसलिये स्थानसमुत्कीर्तना अनुयोगद्वारको सभी अनुयोगद्वारोंके आदिमें कहना चाहिये यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
*मोहनीयके अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, चौवीस, तेईस, बाईस, इक्कीस, तेरह, बारह, ग्यारह, पांच, चार, तीन, दो और एक प्रकृतिक ये पन्द्रह सरवस्थान होते हैं। ये सस्वस्थान ओघसे होते हैं।
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२०२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे । पयडिविहत्ती २ ६२१०. एदे पण्णारस हाणवियप्पा ओघेण होति । एदेसि हाणाणं पदेसपरूवणडं जइवसहाइरियो उत्तरसुत्तं भणदि ।।
एकिस्से विहत्तियो को होदि ? लोहसंजलणोप १२११. जस्स लोहसंजलणमेकं चेव संतकम्मं सो लोहसंजलणो एकिम्से विहत्तिओ।
दोण्हं विहत्तिओ को होदि ? लोहो माया च ।। ६२१२.लोह-मायासंजलणाणि दो चेव जस्स संतकम्ममत्थि सो दोण्हं विहत्तिओ।
तिण्हं विहत्ती लोहसंजलण-माणसंजलण-मायासंजलणाओ.
१२१३. लोभ-माया-माणसंजलणाओ तिण्णि चेव जदा होंति तदा तिण्हं पयडिहाण होदि।
चउण्हं विहत्ती चत्तारि संजलणाओ। *१२१४. चत्तारि संजलणाओ सुद्धाओ जत्थ संतकम्मं होंति तत्थ चदुण्हं विहत्ती णाम हाणं होदि ।
६२१०. ये पन्द्रहों सत्त्वस्थानविकल्प ओघकी अपेक्षा होते हैं । अब इन सत्त्वस्थानोंकी प्रकृतियोंका कथन करने के लिये यतिवृषभ आचार्य आगेका सूत्र कहते हैं
*एक प्रकृतिकी विभक्तिवाला कौन है ? लोभसंज्वलनवाला जीव एक प्रकृतिकी विभक्तिवाला होता है। ..
६२११.जिस जीवके एक लोभसंज्वलनकी ही सत्ता होती है वह लोभसंज्वलनका धारक जीव एक प्रकृतिकी विभक्तिवाला होता है।
*दो प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला कौन है ? संज्वलन लोभ और मायाकी सत्तावाला जीव दो प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला होता है।
६२१२. जिस जीवके लोभसंज्वलन और मायासंज्वलन केवल ये दो कर्म सत्तामें होते हैं वह दो प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला होता है । ___ *जिसके लोभसंज्वलन, मायासंज्वलन और मानसंज्वलन ये तीन कर्म पाये जाते हैं वह तीन प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला होता है।
६२१३. जिस समय जीवके केवल लोभ, माया और मानसंज्वलन ये तीन कर्म पाये जाते हैं उस समय उसके तीनप्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है ।
* जिसके चारों संज्वलनकषाएँ पाई जाती हैं वह चार प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला होता है।
६२१४. जहां पर केवल लोभसंज्वलन आदि चार कर्मोंकी सत्ता होती हैं वहां चार प्रकृतिरूप सत्त्वस्थान होता है।
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गा० २२ ]
vasaire द्वाणसमुक्कित्तणा
(पंचण्डं विहत्ती चत्तारि संजलणाओ पुरिसवेदो च ।
१२१५. पुरिसवेदो चत्तारि संजलणाओ च सुद्धाओ जत्थ संतकम्मं होंति तत्थ पंचपडद्वाणं होदि ।
२०३
| *एकारसहं विहृत्ती, एदाणि चेव पंच छण्णोकसाया च
p
१२१६. चदुसंजल - पुरिसवेद - छण्णोकसाय केवला जत्थ संतकम्मसरूवेण चिति तत्थ एक्कारसहं द्वाणं ।
*बारसहं विहत्ती एदाणि चेव इत्थवेदो च
६२१७. एदाणि एक्कारसकम्माणि इत्थिवेदसहियाणि जत्थे संतकम्मं तत्थ बारसहं ट्ठा होदि ।
(*तेरसहं विहत्ती एदाणि चेव णवंसयवेदो च ।
। १२१८. बारसपयडीओ पुव्वुत्ताओ जत्थ णवुंसयवेदेण सह सतं होंति तत्थ तेरसहं णं ।
(एकवीसाए विहत्ती एदे चेव अट्ठ कसाया च
प
'६२१६. पुव्वुत्ततेरसकम्माणि अडकसाया च जत्थ संतं तत्थ एक्कवीसाए ट्ठाणं । * चारों संज्वलन और पुरुषवेद यह पांचप्रकृतिक विभक्तिस्थान है ।
$२१५. जहां पर केवल पुरुषवेद और चारों संज्वलन ये पांच कर्म सत्ता में पाये जाते हैं वहां पर पांचप्रकृतिक विभक्तिस्थान होता है ।
*पुरुषवेद और चार संज्वलन ये पूर्वोक्त पांच और छह नोकषाय यह ग्यारह प्रकृतिक विभक्तिस्थान है ।
$२१६. जहां पर चारों संज्वलन, पुरुषवेद और हास्यादि छह नोकषाय ये कर्म सत्ता में पाये जाते हैं वहां ग्यारहप्रकृतिक विभक्तिस्थान होता है ।
*पूर्वोक्त ग्यारह और स्त्रीवेद यह बारहप्रकृतिक विभक्तिस्थान है ।
$२१७.जहां पर स्त्रीवेदके साथ पूर्वोक्त ग्यारह कर्म सत्ता में पाये जाते हैं वहां बारह प्रकृतिक विभक्तिस्थान होता है ।
* पूर्वोक्त बारह और नपुंसकवेद यह तेरहप्रकृतिक विभक्तिस्थान है ।
$२१८. जहां पर नपुंसकवेद के साथ पूर्वोक्त बारह कर्म सत्ता में पाये जाते हैं वहां पर तेरहप्रकृतिक विभक्तिस्थान होता है ।
* ये पूर्वोक्त तेरह और आठ कषाय यह इक्कीस प्रकृतिक विभक्तिस्थान है ।
२१. जहां पर पूर्वोक्त तेरह कर्म और अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क तथा प्रत्याख्यानावरण ages ये आठ कर्म सत्तामें पाये जाते हैं वहां पर इक्कीसप्रकृतिक विभक्तिस्थान होता है ।
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अयधवलासहिंदे कसायपाहुडे
[पयडिविहत्ती २ सम्मत्तेण वावीसाए विहत्ती ।। ६२२०. पुव्वुत्तएक्कवीसकम्माणि सम्मत्तण बावीसाए हाणं होदि ।
सम्मामिच्छत्तेण तेवीसाए विहत्ती। ६२२१. पुव्वुत्तबावीसकम्मेसु सम्मामिच्छत्तेण सहिदेसु तेवीसाए हाणं होदि । श्रमिच्छत्तेण चदुवीसाए विहत्ती। २२२. पुव्वुत्ततेवीसकम्माणि मिच्छत्तेण सह चउवीसाए हाणं होदि ।
अट्ठावीसादो सम्मत्तसम्मामिच्छत्तसु अवणिदेसु छव्वीसाए विहत्ती। ६२२३. मोहटावीससंतकम्मिएण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तेसु उव्वेल्लिदेसु छव्वीसाए द्वाणं होदि ।
तत्थ सम्मामिच्छत्ते पक्खित्ते सत्तावीसाए विहत्ती । ३२२४.तत्थ छब्बीसपयाडिहाणम्मि सम्मामिच्छत्ते पक्खित्ते सत्तावीसाए हाणं होदि।
सव्वाओ पयडीओ अट्ठावीसाए विहत्ती । *सम्यक्त्वप्रकृतिके साथ वाईस प्रकृतिक विभक्तिस्थान होता है। ६२२०.पूर्वोक्त इकीस कर्मोमें सम्यक्त्वप्रकृतिके मिला देनेसे बाईसप्रकृतिक विभक्तिस्थान होता है।
*सम्यग्मिथ्यात्वके साथ तेईसप्रकृतिक विभक्तिस्थान होता है।
६२२१.पूर्वोक्त बाइस कमों में सम्यान्मध्यात्व कर्मके मिला देने पर तेईसप्रकृतिक विभक्तिस्थान होता है।
*मिथ्यात्वके साथ चौबीसप्रकृतिक विभक्तिस्थान होता है।
२२२. पूर्वोक्त तेईस कोंमें मिथ्यात्वके मिला देनेपर चौबीसप्रकृतिक विभक्तिस्थान होता है।
*मोहनीयके अट्ठाईस भेदोंमेंसे सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वके निकाल देने पर छवीसप्रकृतिक विभक्तिस्थान होता है।
६२२३.जिसके मोहनीयकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता है वह जब सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना कर देता है तब उसके छब्बीसप्रकृतिक विभक्तिस्थान होता है।
*उसमें सम्यग्मिथ्यात्वके मिला देनेपर सत्ताईसप्रकृतिक विभक्तिस्थान होता है।
६२२४. उसमें अर्थात् छब्बीसप्रकृतिक सत्वस्थानमें सम्यग्मिथ्यात्वके मिला देने पर • सत्ताईसप्रकृतिक विभक्तिस्थान होता है ।
#मोहनीयकी संपूर्ण प्रकृतियां अहाईसप्रकृतिक विभक्तिस्थान होता है।
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पाणवित्त समुक्कित्तणां
२२५. मोहडावीसपयडीओ जत्थ संतं तत्थ अट्ठावीसाए द्वाणं होदि ।
*संपहि एसा ।
९२२६. एदेसिमोघपण्णारसपयाडट्ठाणाणं संदिट्ठी
गा० ३२ ]
*२८ २७२६ २४ २३२२ २१ १३१२११५४३२१ *एवं गदियादिसु णेदव्वा ।
३२२७. गदियादिसु चोदसमग्गणहाणेसु छाणसमुक्कित्तणा जाणिदृण रोदव्वा; सुगमतादो ।
३२२८.संपहि चुण्णिसुताइरियेण सूचिदं मंदबुद्धिजणा गुग्गहरुमुच्चारणाइरियवयणविणिग्गय विवरणं भणिस्सामो। तं जहा - मणुसतिय पचिदिय पंचि ० पञ्ज०-तस-तसपज ०पंचमण० - पंचवचि० -कायजोगि० - ओरालिय० - चक्खु० -अचक्खु सुक्क० भवसि० - सण्णि-आहारीणमोघभंगो (णवरि मणुसिणीसु पंचपयडिद्वाणं णत्थि ।)
२०५
०
२२५. जहां पर मोहनीयकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता पाई जाती है वहां पर अट्ठाईस प्रकृतिक विभक्तिस्थान होता है ।
*अब यह—
$२२६. ओघकी अपेक्षा कहे गये इन पन्द्रह प्रकृति स्थानोंकी संदृष्टि है* २८ २७२६ २४ २३२२ २१ १३ १२ ११५४३२१ *इसी प्रकार गति आदि मार्गणाओंमें उक्त स्थानोंको जान लेना चाहिये ।
६२२७. गति आदि चौदह मार्गणास्थानों में स्थानसमुत्कीर्तनाको जान कर लगा लेना चाहिये, क्योंकि वह सुगम है ।
२२८. अब आगे मन्दबुद्धि जनोंके अनुग्रहके लिये, चूर्णिसूत्रकारोंके द्वारा सूचित किये गये और उच्चारणाचार्य के मुखसे निकले हुए व्याख्यानको कहते हैं । वह इस प्रकार हैसामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनी ये तीन प्रकारके मनुष्य, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रस पर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिक काययोगी, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक इनके पन्द्रहों प्रकृतिसत्त्वस्थान ओघके समान होते हैं । इतनी विशेषता है कि मनुष्यनियोंके - पांच प्रकृतिकसत्त्वस्थान नहीं पाया जाता ।
विशेषार्थ- पहले जो सामान्य से पन्द्रह सत्त्वस्थानोंका कथन कर आये हैं वे सामान्य मनुष्य आदि सभी मार्गणाओं में सम्भव हैं क्योंकि इन मार्गणाओंमें प्रारम्भके बारह गुणस्थान नियमसे पाये जाते हैं । किन्तु मनुष्यनी छह नोकषाय और पुरुषवेदका एक साथ कम करती है अतः उसके पांच प्रकृतिरूप स्थान नहीं पाया जाता ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे. [पयडिविहत्ती २ ६२२६.आदेसेण णिरयगईए णेरइएसु अत्थि अष्टावीस-सत्तावीसछव्वीस-चउवीस. वावीस-एकवीसाए हाणं । एवं पढमाए पुढवीए, तिरिक्खगइ० पचिंदियातरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खपज्ज०-देव-सोहम्मीसाणादि जाव उवरिमगेवज०-वेउव्वियमिस्स०-ओरालियमिस्स-कम्मइय-अणाहारि त्ति वत्तव्वं । विदियादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेव वत्तव्वं । गवरि वावीस-एकवीसपयडिहाणाणि णत्थि । एवं पंचिंदियतिरिक्खजोणिणि-भवण.. वाण-जोदिसिय० वत्तव्यं । पंचिंदियतिरिक्खअपज० अत्थि अहावीस-सत्तावीसछव्वीसपयाडिठाणाणि । एवं मणुसअपज्ज०-सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज०-सव्वपंचकाय-तस०अपञ्ज०-मदि-सुदअण्णाणि-विहंग-मिच्छादिष्टि-असण्णि त्ति वत्तव्वं । अणुद्दिसादि जाव सबढ० अत्थि अहावीस-चउवीस-बावीस-एकवीसपयाडहटाणाणि । वेउब्वियकायजोगीसु अत्थि अट्ठावीस-सत्तावीस-छव्वीस-चउवीस-एक्कवीसपयडिहाणाणि । एवं किण्ह०-गील वत्तव्वं । आहारक०-आहारामिस्सकायजोगीसु अत्थि अट्ठावीस-चउवीस-एकवीसपयडिट्ठाणाणि । ___६२२६.आदेशकी अपेक्षा नरकगतिमें नारकियोंमें अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, चौबीस, बाईस और इक्कीस प्रकृतिरूप छह स्थान पाये जाते हैं। इसीप्रकार पहले नरकमें समझना चाहिये । इसी प्रकार तिथंचगति में सामान्य तिथंच, पंचेन्द्रिय तिथंच और पंचेन्द्रिय तिथंच पर्याप्त तथा सामान्य देव, सौधर्म स्वर्गसे लेकर उपरिम अवेयक तकके देव, वैक्रियकमिश्रकाययोगी औदारिकमिश्रकाययोगी कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिये । दूसरे नरकसे लेकर सातवें नरक तक इसीप्रकार कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके पूर्वोक्त स्थानोंमेंस बाईस और इक्कीस प्रकृतिक स्थान "हीं पाये जाते हैं। इसीप्रकार पंचेन्द्रियतिथंच योनिमती, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंके कहना चाहिये।
विशेषार्थ-दूसरे नरकसे लेकर उक्त सभी मार्गणाओंमें सम्यग्दृष्टि जीव मर कर नहीं उत्पन्न होते हैं, अतः इन मार्गणाओमें २२ और २१ प्रकृतिरूप स्थान किसी प्रकार भी सम्भव नहीं हैं। शेष कथन सुगम है।
पंचेन्द्रियतिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकोंके अट्ठाईस, सत्ताईस और छब्बीस प्रकृतिरूप सत्त्वस्थान होते हैं। इसीप्रकार मनुष्य लब्ध्यपर्याप्त, सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, लब्ध्यपर्याप्तक पंचेन्द्रिय, बादर सूक्ष्म आदि सभी पांचों स्थावरकाय, सलब्ध्यपर्याप्त, मत्यज्ञानी. श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके कहना चाहिये ।
अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंके अट्ठाईस, चौबीस, बाईस और इक्कीस प्रकृतिरूप स्थान होते हैं। वैक्रियिककाययोगियोंके अठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, चौबीस और इक्कीस प्रकृतिरूप स्थान होते हैं। इसीप्रकार कृष्णलेश्यावाले और नीललेश्यावाले जीवोंके कहना चाहिये । आहारककाययोगी और आहारक मिश्रकाययोगी जीवोंके अट्ठाईस,
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गा० २२ ]
पावहत्ती हा समुक्कित्तणा
२३०. वेदानुवादेण इत्थवेदे आत्थ अट्ठावीस - सत्तावीस छन्वीस-चउवीस-तेवीसबावीस-एक्कवीस-तेरस - बारसपयडिट्टाणाणि । एवं णवुंसय वेदम्मि वत्तत्र पुरिसवेदे अस्थि अट्ठावीस - सत्तावीस - छव्वीस - चउवीस तेवीस-बावीस-एक्कवीस-तेरस - बीरस-एक्कारस-पंचपडणाणि । अचगदवेद ० अन्थि चउवीस एकवीस-एक्कारस-पंच- चत्तारि - तिण्णिदोणि- एकपट्टिणाणि 1)
६२३१. कसायाणुवादेण कोधक० अस्थि अट्ठावीस सत्तावीस-छब्वीस - चउवीस-तेवीसवावीस - एकवीस - तेरस - बारस-एक्कारस-पंच- चत्तारिपयडिट्ठाणाणि । एवं माणक ० | पावरि तिष्णिपयडिट्ठाणं पि अस्थि । एवं माया० । णवरि दोपयडिट्ठाणं पि अस्थि । एवं लोभ० । वरि एगपयडिद्वाणं पि अस्थि । अकसाईसु अस्थि चउवीस-एक्कवीसपयडिट्ठाणाणि । एवं सुहुमसांपराय० - जहाक्खाद० वत्तव्वं । णवरि सुहुमसांपराय० पाणं पि अस्थि ।
चौबीस और इक्कीस प्रकृतिरूप स्थान होते हैं ।
I
विशेषार्थ - कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि देव और नारकियोंमें उत्पन्न तो होता है पर वह अपर्याप्त अवस्था में ही क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो जाता है, अतः वैक्रियिककाययोगी जीव के २२ प्रकृतिक स्थान नहीं कहा । नील और कृष्ण लेश्या में २१ प्रकृतिक स्थान मनुष्यों की अपेक्षा से जानना चाहिये, क्योंकि सौधर्मादिस्वर्ग में तीन अशुभ लेश्याएं नहीं होतीं । नारकियों में २१ प्रकृतिक स्थान पहले नरकमें ही पाया जाता है । पर वहां कपोत लेश्या ही होती है। २३०. वेदमार्गण के अनुवाद से स्त्रीवेद में अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, चौबीस, तेईस, बाईस, इक्कीस, तेरह और बारह प्रकृतिरूप स्थान होते हैं । इसीप्रकार नपुंसकवेद में कहना चाहिये । पुरुषवेद में अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, चौबीस, तेईस, बाईस, इक्कीस, तेरह, बारह, ग्यारह और पांच प्रकृतिरूप स्थान होते हैं । अपगतवेद में चौबीस, इक्कीस, ग्यारह, पांच, चार, तीन, दो और एक प्रकृतिरूप स्थान होते हैं ।
९२३१• कषायमार्गणाके अनुवादसे क्रोधकषायी जीवोंके अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, चौबीस तेईस, बाईस, इक्कीस, तेरह, बारह, ग्यारह, पांच और चार प्रकृतिरूप सत्त्वस्थान होते हैं । इसीप्रकार मानकषायी जीवोंके भी कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि मानकपायी जीवोंके तीन प्रकृतिरूप स्थान भी पाया जाता है। इसीप्रकार मायाकषायी जीवोंके भी कहना चाहिये | इतनी विशेषता है कि इनके दो प्रकृतिरूप स्थान भी पाया जाता है। इसी प्रकार लोभकषायी जीवोंके भी कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके एक प्रकृतिरूप स्थान भी पाया जाता है। अकपायी जीवोंके चौबीस और इक्कीस प्रकृतिरूप स्थान होते हैं 1 इसीप्रकार सूक्ष्मसांपराय और यथाख्यात संयमी जीवोंके कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि सूक्ष्मसपरायिक संयतोंके एक प्रकृतिरूप सत्त्वस्थान भी पाया जाता है ।
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trader हिदे कसायपाहुडे
[ पयडिविहती २
९ २३२. आभिणि० - सुद० - ओहि० ओघभंगो । णवरि सत्तावीस - छब्बीसट्टाणाणि णत्थि । एवं मणपजव० संजद ० - सामाइयछेदो ० - ओहिदंसण- सम्मादिहि त्ति वत्तव्यं । परिहार • अत्थि अट्ठावीस - चउवीस तेवीस-बावीस-एक्कवीस पयडिट्ठाणाणि । एवं संजदासंजद० |
O
१२३३. लेस्साणुवादेण काउलेस्सा • वेउच्वियकायजोगिभंगो। णवरि, बावीसपयडिद्वाणं पि अस्थि । तेउ०- पम्म० असंजद ० अत्थि अट्ठावीस सत्तावीस छब्बीस - चउवीसतेवीस-बावीस-एक्कवीसपयडिद्वाणाणि | अभवसिद्धि ० अत्थि छब्बीसपयडिद्वाणं ।
१२३४. खइयसम्माइडी ० अत्थि एक्कवीस-तेरस - बारस-एक्कारस- पंच- चत्तारि-तिष्णिदोणि- एगपय डिट्ठाणाणि । वेदगसम्माइही० श्रत्थि अट्ठावीस - चउवीस-तेवीस-बावीसपयद्वाणाणि । उवसम० अत्थि अट्ठावीस चउवीस ०द्वाणाणि । एवं सम्मामि० । सासण• अस्थि अट्ठावीसाए द्वाणं ।
एवं समुत्तिणा समत्ता ।
१२३२. मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंके ओघके समान स्थान होते हैं । इतनी विशेषता है कि इनके सत्ताईस और छब्बीस प्रकृतिरूप स्थान नहीं होते । इसीप्रकार मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, अवधिदर्शनी और सम्यग्दृष्टि जीवोंके कहना चाहिये । परिहारविशुद्धिसंयतोंके अट्ठाईस, चौबीस, तेईस, बाईस और इक्कीस प्रकृतिरूप स्थान होते हैं । इसीप्रकार संयतासंयतोंके कहना चाहिये ।
१२३३. लेश्यामार्गणाके अनुवादसे कापोतलेश्यावाले जीवोंके वैक्रियिककाययोगी जीवोंके समान सत्त्वस्थान होते हैं । इतनी विशेषता है कि इनके बाईस प्रकृतिरूप स्थान भी पाया जाता है । तेजोलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले और असंयत जीवोंके अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, चौबीस, तेईस, बाईस और इक्कीस प्रकृतिरूप स्थान होते हैं। अभव्य जीवोंके छब्बीस प्रकृतिरूप स्थान होता है।
विशेषार्थ - प्रथम नरकके नारकियों के और अविरतसम्यग्दृष्टि तिर्यंचोंके अपर्याप्त अवस्था में कापोत लेश्या होती है । अतः कापोतलेश्यामें २२ प्रकृतिरूप स्थान बन जाता है । शेष कथन सुगम है ।
१२३४. क्षायिक सम्यग्दृष्टियोंके इक्कीस, तेरह, बारह, ग्यारह, पांच, चार, तीन, दो और एक प्रकृतिरूप स्थान होते हैं । वेदकसम्यग्दृष्टियोंके अट्ठाईस, चौबीस, तेईस और बाईस प्रकृतिरूप स्थान होते हैं । उपशम सम्यग्दृष्टियोंके अट्ठाईस और चौबीस प्रकृतिरूप स्थान होते हैं । इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंके भी उक्त दो स्थान जानना चाहिये | सासादन सम्यदृष्टियों के एक अट्ठाईस प्रकृतिरूप स्थान होता है ।
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गा० २२ ] पयडिट्ठाणविहत्तीए अहियारणामणिदेसो - १२३५.संपहि समुकित्तणं मणिय चुण्णिसुत्ताइरिएण सूचियाणं उच्चारणाइरिएण समुकित्तणा सादि० अणादि० धुव० अद्भुव० एगजीवेण सामित्तं कालो अंतरं णाणाजीवेहि भंगविचओ भागाभागो परिमाणं खेत्तं पोसणं कालो अंतरं भावो अप्पाबहुअं भुजगारो पदणिक्खेवो वड्ढि ति उदिहाणमहियाराणं परूवणाए कीरमाणाए ताव चुण्णिसुत्त सूइदअत्याहियाराणमुच्चारणाइरियस्स उच्चारणं भणिस्सामो। तं जहा-सादि-अणादि-धुवअद्धवाणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण छव्वीसाए हाणं किं सादियं किमणादियं किंधुवं किमद्धवं वा ? सादियं वा अणादियं वा धुवं वा अद्धवं वा । सेसाणि हाणाणि सादि-अर्द्धवाणि । एवं मदि-सुदअण्णाण-असंजद-अचक्खु०
विशेषार्थ-उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके २३ और २२ प्रकृतिरूप स्थानोंके नहीं कहनेका कारण यह है कि उपशमसम्यग्दृष्टि जीव दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ नहीं करते हैं। तथा उपशमसम्यग्दृष्टियोंके समान सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंके भी २८ और २४ ये दो स्थान होते हैं। ऐसा कहनेका यह अभिप्राय है कि यद्यपि मिथ्यादृष्टि जीव सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त कर सकता है तथापि जिसने सम्यक्प्रकृतिकी उद्वेलना कर दी है ऐसा २७ विभक्तिस्थानवाला जीव सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानको नहीं प्राप्त होता। किन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदायमें प्रचलित कर्मप्रकृतिमें बतलाया है कि सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानमें २८, २७ और २४ ये तीन विभक्तिस्थान होते हैं। इससे यह निश्चित होता है कि कर्मप्रकृतिके अभिप्रायानुसार २७ विभक्तिस्थानवाला जीव भी सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त हो सकता है । शेष कथन सुगम है।
इस प्रकार प्रकृतिस्थान समुत्कीर्तना समाप्त हुई। ६३२५.इस प्रकार समुत्कीर्तनाका कथन करके चूर्णिसूत्रकार यतिवृषभ आचार्य के द्वारा सूचित किये गये और उच्चारणाचार्यके द्वारा कहे गये समुत्कीर्तना, सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव, एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल और अन्तर तथा नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व,भुजगार, पदनिक्षेप और वृद्धि इन अधिकारोंकी प्ररूपणा करते समय पहले चूर्णिसूत्रके द्वारा सूचित किये गये अधिकारोंकी उच्चारणाचायके द्वारा कही गई उच्चारणावृत्तिको कहते हैं। वह इस प्रकार है____सादि, अनादि, ध्रुव और अधुवानुगमकी अपेक्षा ओघ और आदेशके भेदसे निर्देश दो प्रकारका है। उनमेंसे ओघनिर्देशकी अपेक्षा छब्बीस प्रकृतिरूप स्थान क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है क्या अध्रुव है ? छब्वीस प्रकृतिरूप स्थान सादि भी है, अनादि भी है, ध्रुव भी है और मध्रुव भी है। इस स्थानको छोड़कर शेष सभी स्थान सादि और अध्रुव हैं। इसीप्रकार मतिअज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, मिथ्या
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२१०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पयडिविहत्ती २
मिच्छा० भवसिद्धि० वत्तव्वं । णवरि, भवसिद्धिएसु धुवं णत्थि । पदविसेसो च जाणिव्वो । अभवसिद्धिएस प्रणादियं धुवं च । सेसासु मग्गणासु सादि अद्भुवं । एवं सादि-अनादि-धुव अद्भुवाणुगमो समत्तो ।
सामित्तं ति जं पदं तस्स विहासा पढमाहियारो ।
९२३६. कुदो, चोहसमग्गणट्ठाणाणुगयत्थाणमाहारत्तणेण अवद्वाणादो । 'तस्स' अहियारस्स एसा 'विहासा' परूवणा ति एदेण सिस्ससंभालणं कयं ।
तं जहा - एकिस्से विहत्तिओ को होदि
२३७. एदं पुच्छासुतं किमहं बुच्चदे ? सत्थस्स पमाणभावपदुप्पायणटुं । कधं दृष्टि और भव्यजीवोंके कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि भव्य जीवोंके ध्रुवपद नहीं पाया जाता है। यहां पदविशेष अर्थात् जिस मार्गणा में जितने सत्त्वस्थान हैं वे स्थान समुत्कीर्तनासे जान लेना चाहिये । अभव्य जीवोंके अनादि और ध्रुव ये दो पद पाये जाते हैं। शेष मार्गणाओंमें जहां जितने सत्त्वस्थान होते हैं वे सादि और अध्रुव होते हैं ।
विशेषार्थ - २६ प्रकृतिक सत्त्वस्थान सादि और अनादि दोनों प्रकार के मिध्यादृष्टियोंके पाया जाता है इसलिये इसमें सादि आदि चारों विकल्प बन जाते हैं । किन्तु शेष सत्त्वस्थान अनादि मिध्यादृष्टिके नहीं होते इसलिये उनमें सादि और अध्रुव ये दो विकल्प ही प्राप्त होते हैं । मूलमें जो मतिअज्ञान आदि मार्गणाएं गिनाई हैं वे सादि और अनादि दोनों प्रकारके मिथ्यादृष्टियोंके सम्भव हैं अतः उनके कथनको ओघके समान कहा है । किन्तु भव्य जीवोंके जब कर्मोंके सम्बन्धकी ध्रुवता नहीं स्वीकार की गई है तब यहां ध्रुव भंग कैसे प्राप्त हो सकता है । यही सबब है कि इनके ध्रुव पदका निषेध किया है । इन मार्गणाओंके अतिरिक्त शेष सब मार्गणाएं बदलती रहती हैं इसलिये उनके सभी प्रकृतिस्थानोंकी अपेक्षा सादि और अध्रुव ये दो ही पद बतलाये हैं । किन्तु अभव्य मार्गणा सदा एकसी रहती है उसमें परिवर्तन नहीं होता और उसमें एक २६ प्रकृतिक सत्त्वस्थान ही पाया जाता है इसलिये उसमें उक्त स्थानकी अपेक्षा अनादि और ध्रुव ये दो ही पद कहे हैं। शेष कथन सुगम है ।
इस प्रकार सादि, अनादि ध्रुव और अध्रुवानुगम समाप्त हुआ ।
*स्वामित्व नामका जो पद है उसका विवरण करते हैं, यह पहला अर्थाधिकार है। ९२३६. चूंकि यह चौदह मार्गणास्थानोंके अर्थाधिकारोंका मूल आधार है अतः यह पहला अधिकार है । उस अधिकारकी यह विभासा अर्थात् विशेष रूपसे प्ररूपणा की जाती है । इससे शिष्यको सावधान किया गया है ।
*वह इस प्रकार है— एकप्रकृतिक स्थानका स्वामी कौन होता है ? १२३७. शंका - यह पृच्छासूत्र किसलिये कहा है ?
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गी० २२ ]
पयडिट्ठाणविहत्तीए सामित्तणिदेसी
२११
पुच्छादो पमाणभावावगमो ? एस गोदमसामिपुच्छा तित्थियरविसया जेण तेण पमाणतमवगम्मदे, सगकत्तारत्तं वा अवणिदमेदेण सुत्तेण ।
(णियमा मस्सो वा मणुस्सिणी वा खवओ एकिस्से विहत्तिए सामिओ
( २३८. मस्सो चैव, णिरय-तिरिक्ख- देवगईसु मोहक्खवणार अभावा दो । तं कुदो वदे ? 'णियमा मणुस्सो' त्ति वयणादो । 'वा' सद्देण ण अण्णगईणं गहणं; मणुस्सिणीसमुच्चय वियस अण्णगइ गहणविरोहादो । विदिओ 'वा' सदो मणुस्सिणीसमुच्चयहो ति काऊण पढमं 'वा' सहो गइसमुच्चयट्टो त्ति किण्ण घेष्पदे ? ण, दोन्हं 'वा' सहाणं
समाधान - शास्त्रकी प्रमाणताके प्रतिपादन करनेके लिये कहा है ।
शंका- पृच्छाके द्वारा शास्त्रकी प्रमाणताका ज्ञान कैसे होता है ?
समाधान - चूंकि यह पृच्छा गौतम स्वामीने तीर्थंकर महावीर भगवान से की हैं । अतः इससे शास्त्रकी प्रमाणताका ज्ञान हो जाता है ।
अथवा, चूर्णिसूत्रकारने इस सूत्र के द्वारा अपने कर्तृत्वका निवारण कर दिया है अर्थात् इससे उन्होंने यह सूचित किया है कि यह वस्तु उनकी स्वयं की उपज नहीं है, किन्तु गौतम स्वामीने भगवान महावीरसे जो प्रश्न किये थे और उन्हें उनका जो उत्तर प्राप्त हुआ था उसे ही उन्होंने निबद्ध किया है ।
*नियमसे चपक मनुष्य और मनुष्यनी ही एकप्रकृतिक स्थानविभक्तिका स्वाभी होता है ।
1
९२३८. मनुष्य ही एक प्रकृतिकस्थानविभक्तिका स्वामी है, क्योंकि नरकगति, तिर्यंचगति, और देवगतिमें मोहनीय कर्मकी क्षपणा नहीं होती है ।
शंका-नरक, तिथंच और देवगतिमें मोहनीय कर्मकी क्षपणा नहीं होती यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान - चूर्णिसूत्र में आये हुए 'णियमा मणुस्सो' इस वचनसे जाना जाता है कि उक्त तीन गतियों में मोहनीय कर्मका क्षय नहीं होता है ।
यदि कहा जाय कि 'मणुस्सो वा' यहां स्थित 'वा' शब्द से अन्य नरकादि गतियोंका ग्रहण हो जायगा सो भी बात नहीं है, क्योंकि यहां पर 'वा' शब्द मनुष्यनियोंके समुच्चय के लिये रखा गया है, अतः उससे अन्य गतिका ग्रहण मानने में विरोध आता है ।
शंका- ' मणुस्सिरणी वा' यहां पर स्थित दूसरा 'वा' शब्द मनुष्यनियोंके समुचयके लिये है ऐसा मानकर पहला 'वा' शब्द अन्य गतियोंके समुच्चयके लिये है ऐसा क्यों नहीं ग्रहण किया जाता है ?
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__ जयपवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ उत्तसमुच्चए चेय पउत्तीदो । 'मणुस्सो' त्ति वुत्ते पुरिस-णqसयवेदविसेसणोवलक्खियमणुस्साणं गहणमण्णहा तत्थ एक्किस्से विहत्तीए अभावप्पसंगादो। 'खबओ ति णिद्देसो उक्सामयपडिसेहफलो । कुदो? तत्थ एकस्स वि कम्मस्स खवणाभावेण सयलपयडीणं घहकयाहलजलवि(चि)-क्खल्लो व्व उवसंतभावेण अवहाणादो।
एवं दोण्हं तिण्हं चउण्हं पंचण्हं एक्कारसण्हं वारसण्हं तेरसण्हं विहत्तिओ।
६२३६. जहा एकिस्से विहत्तीए सामित्तं वुत्तं तहा एदेसि हाणाणं वत्सम्बं, मणुस्सक्खवगं मोत्तूण अण्णत्थ खवणपरिणामाभावादो। तं कुदोणव्वदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो। ते परिणामा मणुस्सेसु व अण्णत्थ किण्ण होंति ? साहावियादो । णवरि, पंचण्हं विहत्ती मणुस्सेसु चेव, ण मणुस्सिणीसु; तत्थ सत्तणोकसायाणमक्कमेण खवणुवलंभादो)
*एक्कावीसाए विहत्तिओ को होदि ? खीणदंसणमोहणिजो।
समाधान-नहीं, क्योंकि उक्त अर्थके समुच्चय करनेमें ही दोनों 'वा' शब्दोंकी प्रवृत्ति होती है, अतः प्रथम 'वा' शब्दके द्वारा अन्य गतियोंका समुच्चय नहीं किया जा सकता है।
चूर्णिसूत्रमें 'मणुस्सो' ऐसा कहनेपर पुरुषवेद और नपुंसकवेदसे युक्त मनुष्योंका ग्रहण करना चाहिये, अन्यथा नपुंसकवेदी मनुष्योंमें एक प्रकृतिस्थान विभक्तिके अभावका प्रसंग प्राप्त होता है। चूर्णिसूत्रमें 'क्षपक' पदसे उपशामकोंका निषेध किया है, क्योंकि उपशामकोंके एक भी कर्मका क्षय न होकर जिसप्रकार जलमें निर्मलीफलको घिस कर डालने से उसका कीचड़ उपशान्त होजाता है उसी प्रकार समस्त कर्मप्रकृतियां उपशान्तरूपसे अवस्थित रहती हैं।
*इसीप्रकार दो, तीन, चार, पांच, ग्यारह, बारह और तेरह प्रकृतिरूप स्थानोंके खामी नियमसे मनुष्य और मनुष्यनी होते हैं।
६२३६. जिसप्रकार एक विभक्तिका स्वामी कहा उसीप्रकार इन स्थानोंका स्वामी कहना चाहिये, क्योंकि मनुष्य ही क्षपक होता है। उसे छोड़ कर अन्य देव नारक आदि जीवोंमें क्षपणाके योग्य परिणाम नहीं होते ।।
शंका-अन्य गतियोंमें क्षपणारूप परिणाम नहीं होते यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-इसी सूत्रसे जाना जाता है। शंका-वे परिणाम मनुष्योंके समान अन्यत्र क्यों नहीं होते ? समाधान-ऐसा स्वभाव है।
यहां इतनी विशेषता है कि पांच प्रकृतिरूप स्थान मनुष्यों में ही पाया जाता है मनुध्वनियोंमें नहीं, क्योंकि मनुष्यनियोंके सात नोकषायोंका एक साथ क्षय होता है।
इक्कीस प्रकृतिक सत्त्वस्थानका खामी कौन होता है ? जिसने दर्शनमोहनीयकर
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गा० २२]
पयडिहाणविहत्तीए सामित्तणिदेसो - २४०. दसणमोहणीयक्खवणा वि चारित्तमोहणीयक्खवणं व मणुस्सेसु चेव होदि; 'णियमा मणुस्सगदीए' ति वयणादो । तम्हा णियमा मणुस्सोवा मणुस्सिणी वा खवओ ति एत्थ वि सामित्तंवत्तव्वं ? ण, खीणदंसणमोहणीयं चउग्गईसु उप्पजमाणं पेक्खिद्ण
रईओ तिरिक्खो मणुस्सो देवो खीणदंसणमोहणिजो एकवीसपयडिहाणस्स सामी होदि ति तहा वयणादो। खविय चउग्गइसुप्पण्णाणं पुव्वुचहाणाणि चउगईसु किण्ण लभंति ? ण, चारितमोहक्खवयाणं णिब्बीजीकरसंतकम्माणं सेसगईसु उप्पत्तीए अमावादो।
*बावीसाए विहत्तीओ को होदि ? मणुस्सो वा मणुस्सिणी वा मिच्छत्ते सम्मामिच्छत्ते च खविदे समत्ते सेसे।
६२४१.एत्थ वि 'मणुस्सों ति वुत्ते पुरिस-णqसयवेदजीवाणं गहणं; अण्णहा णqसयक्षय कर दिया है ऐसा जीव इक्कीस प्रकृतिकस्थानका स्वामी होता है।
२४०. शका-जिसप्रकार चरित्रमोहनीयका क्षय मनुष्योंके ही होता है, उसीप्रकार' दर्शनमोहनीयका क्षय भी मनुष्योंके ही होता है, क्योंकि 'णियमा मणुस्सगदीए' अर्थात् दर्शनमोहनीयका क्षय नियमसे मनुष्यगतिमें होता है ऐसा आगमका वचन है, अतएव इस सूत्रमें भी स्वामित्वको बतलाते हुए 'णियमा मणुस्सो वा मणुस्सिणी वा खवओ' ऐसा कहना चाहिये ?
समाधान-नहीं, क्योंकि जिनके दर्शनमोहनीयका क्षय होगया है ऐसे जीव चारों गतियों में उत्पन्न होते हुए देखे जाते हैं, अतः जिसने दर्शनमोहनीयका क्षय कर दिया है ऐसा नारकी, तिसंच, मनुष्य और देव इक्कीस प्रकृतिकस्थानका स्वामी होता है इसलिये सूत्रमें 'खीणदसण मोहणिज्जो' ऐसा सामान्य वचन दिया है। ___ शंका-चारित्रमोहनीयका क्षय करके चारों गतियोंमें उत्पन्न हुए जीवोंके पूर्वोक्त एक, दो आदि प्रकृतिकस्थान क्यों नहीं पाये जाते हैं ?
समाधान-नहीं, क्योंकि चारित्र मोहनीयका क्षय करनेवाले जीव सत्तामें स्थित . कर्मोको निर्षीज कर देते हैं अतः उनकी शेष गतियों में उत्पत्ति नहीं होती है।
बाईस प्रकृतिक स्थानका स्वामी कौन होता है ? जिस मनुष्य या मनुष्यनीके मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वका क्षय होकर सम्यक्त्व शेष है वह बाईस प्रकृतिक स्थानका स्वामी होता है।
६२४१. यहां पर भी 'मणुस्सो' ऐसा कहने से पुरुषवेदी और नपुंसकवेदी मनुष्योंका ग्रहण करना चाहिये अन्यथा नपुंसकवेदी मनुष्योंके दर्शनमोहनीयके क्षयके अभावका प्रसंग प्राप्त हो जायगा ।
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... अबघवलासहिदे कसायपाहुडे . [पयडिविहत्ती २ . वेदेसु दंसणमोहक्खवणाभावप्पसंगादो। मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्तेसु खविदेसु पुणो पच्छा सम्मत्त खतेण संखेजट्टिदिखडयसहस्साणि पादिय पच्छा चरिमे सम्मत्तहिदिखंडए पादिदे कदकरणिजो णाम होदि । तस्स वि वावीसाए हाणं; तत्थ सम्मत्तसंतसम्भावादो। सो वि कालं काऊण सव्वत्थ उप्पजदि । तेण 'मणुस्सो वा मणुस्सिणी वा' त्ति वयणं ण घडदे । किंतु णेरइओ तिरिक्खो मणुस्सो देवो वा बावीसविहत्तीए सामि त्ति वत्तव्वं ? ण एस दोसो; इच्छिजमाणत्तादो । सुत्तविरुद्धं कथमभुवगंतुं सकिञ्जदे ? ण सुत्तविरुद्धो एसत्थो सुत्तेणेव उवइत्तादो। तं जहा-जदि मणुस्सा चेव बावीसविहत्तिया होंति तो एकिस्से विहत्तियस्स सामित्ते भण्णमाणे जहा णियमा मणुस्सो णियमा खवगो सामी होदि त्ति भणिदं तहा एत्थ वि भणेज ? ण च एवं; णियमसदाभावादो । तम्हा चदुसु वि गदीसु बावीसविहत्तिएण होदव्वं । जदि एवं,
तो सुत्ते सेसगइग्गहणं किण्ण कयं ? ण, तालपलंबसुत्तं व देसामासियभावेण । शंका-मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वके क्षीण हो जानेपर उसके अनन्तर सम्यक्प्रकृतिको क्षय करने वाला जीव जब सम्यक्प्रकृतिके संख्यात हजार स्थितिखण्डोंका घात करके उसके अन्तिम स्थितिखण्डका घात करता है तव उसकी कृतकृत्य वेदक संज्ञा होती है। इस जीवके भी बाईस प्रकृतिक स्थान पाया जाता है, क्योंकि यहां पर सम्यक्प्रकृतिकी सत्ता पाई जाती है। ऐसा जीव मरकर चारों गतियों में उत्पन्न होता है, इसलिये मनुष्य और मनुष्यनी बाईस प्रकृतिक स्थानके स्वामी हैं, यह वचन घटित नहीं होता अतः नारकी, तिथंच, मनुष्य और देव बाईस प्रकृतिरूप स्थानके स्वामी हैं ऐसा कहना चाहिये ?
समाधान-यह दोष ठीक नहीं है, क्योंकि चारों गतिके जीव बाईस प्रकृतिक स्थानके स्वामी हैं यह बात इष्ट ही है।
शंका-चारों गतिके जीव बाईस प्रकृतिरूप स्थानके स्वामी हैं यह कथन उक्त सूत्रके विरुद्ध है। फिर इसे कैसे स्वीकार किया जा सकता है ? . समाधान-यह अर्थ सूत्रविरुद्ध नहीं है, क्योंकि सूत्रमें ही इसका उपदेश पाया जाता है। उसका खुलासा इस प्रकार है-यदि मनुष्य ही बाईस प्रकृतिक स्थानके स्वामी होते तो एक प्रकृतिक स्थानके स्वामित्वका कथन करते समय जिसप्रकार 'णियमा मणुस्सो णियमा खवगो सामी होदि' यह कहा है उसी प्रकार यहां भी कहते । परन्तु यहां ऐसा नहीं कहा क्योंकि उपर्युक्त सूत्रमें 'नियम' शब्द नहीं पाया जाता है, अतः चारों ही गतियों में बाईस प्रकृतिक स्थान होना चाहिये यह सिद्ध होता है।
शंका-यदि ऐसा है तो सूत्रमें शेष गतियोंका ग्रहण क्यों नहीं किया ? समाधान-नहीं, क्योंकि जिस प्रकार 'तालपलंब' सूत्र देशामर्षकभावसे अशेष वनस्प
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गा० २२]
पयडिट्ठाणविहत्तीए सामित्तणिदेसो सेसगइपरूवयत्तादो। ___१२४२. अथवा 'मणुस्सो वा मणुस्सिणी वा' त्ति तईयाए विहत्तीए अत्थे पढमाविहत्ती णिद्देसो दहव्यो। तेण मणुस्सेण वामणुस्सिणीए वा मिच्छत्ते सम्मामिच्छत्ते च खविदे सम्मत्ते च सेसे बावीसविहत्तीओ होदि त्ति एदेण. सुत्तेण वावीसविहत्तियसंभवपरूवणादुवारेण सामित्तपरूवणा कदा । तेण बावीससंतकम्मिओ अण्णदरो सामि त्ति सुत्तत्थो दहव्यो । अथवा, जइवसहाइरियस्स वे उवएसा । तत्थ कदकरणिजो ण मरदि त्ति उवदेसमस्सिदण एवं सुत्तं कदं, तेण मणुस्सा चेव बावीसविहत्तिया ति सिद्धं । कदकरणिो मरदि त्ति उवएसो जइवसहाइरियस्स अत्थि त्ति कथं णव्वदे ? 'पढमसमयकदकरणिजो जदि मरदि णियमा देवेसु उववजदि । जदि णेरइएसु तिरिक्खेसु मणुस्सेसु वा उववादि तो णियमा अंतोमुहुत्तकदकरणिजो' ति जइवसहाइरियपरूविदचुण्णिसुत्तादो । णवरि, उच्चारणाइरियउवएसेण पुण कदकरणिजो ण मरइ चेवेत्ति णियमो तियोंका प्रतिपादक है, उसीप्रकार प्रकृत सूत्र भी देशामर्षकभावसे शेष तीन गतियोंका प्ररूपण करता है।
६२४२.अथवा 'मणुस्सोवामणुस्सिणी वा' यह तृतीया विभक्तिके अर्थमें प्रथमा विभक्तिका निर्देश जानना चाहिये । इसलिये उक्त सूत्रका यह अर्थ हुआ कि मनुष्य या मनुष्यनीके द्वारा मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वका क्षय कर देनेपर और सम्यक्प्रकृतिके शेष रहने पर चारों गतियोंका जीव बाईस प्रकृतिरूप स्थानका स्वामी होता है। इस प्रकार इस सूत्रके द्वारा बाईस प्रकृतिक स्थान किसके संभव है इसकी प्ररूपणाद्वारा उसके स्वामित्वकी प्ररूपणा की। अतः बाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला किसी भी गतिका जीव उक्त स्थानका स्वामी है यह सूत्रका अर्थ समझना चाहिये ।
अथवा, यतिवृषभ आचार्यके दो उपदेश हैं। उनमेंसे कृतकृत्यवेदक जीव मरण नहीं करता है इस उपदेशका आश्रय लेकर यह सूत्र प्रवृत्त हुआ है, इसलिये मनुष्य ही बाईस प्रकृतिक स्थानके स्वामी होते हैं यह बात सिद्ध होती है।
शंका-कृतकृत्यवेदक जीव मरता है यह उपदेश यतिवृषभाचार्यका है यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान-कृतकृत्यवेदक जीव यदि कृतकृत्य होनेके प्रथम समयमें मरण करता है तो नियमसे देवोंमें उत्पन्न होता है। किन्तु जो कृतकृत्य वेदक जीव नारकी, तिर्यंच और मनुष्यों में उत्पन्न होता है वह नियमसे अन्तर्मुहूर्त कालतक कृतकृत्यवेदक रह कर ही मरता है' इसप्रकार यतिवृषभाचार्य के द्वारा कहे गये चूर्णिसूत्रसे जाना जाता है कि कृतकृत्यवेदक जीव मरता है। किन्तु इतनी विशेषता है कि उच्चारणाचार्यके उपदेशानुसार कृत्वकृत्य वेदक
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ णत्थि; चउसु वि गईसु वावीसविहत्तियसंतसमुक्तित्तणादो। सम्यग्दृष्टि जीव नहीं ही मरता है ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि उच्चारणाचार्यने चारों ही गतियों में बाईस प्रकृतिक विभक्ति स्थानका सत्त्व स्वीकार किया है।
विशेषार्थ-यहां यतिवृषभ आचार्यने बाईस विभक्तिस्थानका स्वामी मनुष्य और मनुध्यनीको बतलाया है। इसपर शंकाकारका कहना है कि दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाला मनुष्य जब मिथ्यात्व और सम्यग्मिध्यात्वका क्षय कर चुकता है तब बाईस विभक्ति स्थानका स्वामी होता है । इस समय सम्यक्त्वप्रकृतिकी स्थिति आठ वर्ष प्रमाण होती है। यद्यपि जब तक यह जीव कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि नहीं हो जाता है तब तक नहीं मरता है इसलिये इस अपेक्षासे बाईस विभक्तिस्थानका स्वामी केवल मनुष्य और मनुष्यनी भले ही हो जाओ, पर कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि हो जाने पर इसका मरण भी देखा जाता है और ऐसा जीव मरकर चारों गतियों में उत्पन्न होता है । अत: बाईस विभक्तिस्थानका स्वामी चारों गतिका जीव होता है यतिवृषभ आचार्यको ऐसा कहना चाहिये था। शंकाकारकी इस शंकाका वीरसेन स्वामीने तीन प्रकारसे समाधान किया है। पहले तो यह बतलाया है कि बाईस विभक्तिस्थानके स्वामीका कथन करनेवाले उक्त चूर्णिसूत्रमें 'णियमा' पद न होनेसे यह जाना जाता है कि इस स्थानका स्वामी चारों गतियोंका जीव होता है। यद्यपि उक्त सूत्रमें चारों गतियोंका ग्रहण नहीं किया है फिर भी उक्त सूत्र तालप्रलम्ब सूत्रके समान देशामर्षक है अतः ‘मणुस्सो वा मणुस्सिणी वा' इस पदसे मनुष्यगतिके ग्रहणके समान अन्य तीन गतियोंका भी ग्रहण कर लेना चाहिये । दूसरा समाधान इसप्रकार किया है कि सूत्र में 'मणुस्सो वा मणुस्सिणी' इसप्रकार जो प्रथमाविभक्त्यन्त पद है वह तृतीया विभक्तिके अर्थमें जानना चाहिये। और इसप्रकार यह तात्पर्य निकल आता है कि बाईस विभक्ति स्थानका प्रारम्भ मनुष्यगतिमें ही होता है पर उसकी समाप्ति चारों गतियोंमें हो सकती है। तीसरा समाधान इसप्रकार किया है कि इस विषयमें यतिवृषभ आचार्यके दो उपदेश जानना चाहिये । एक उपदेशके अनुसार कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि जीव मरता नहीं है और दूसरे उपदेशके अनुसार मरता भी है। इनमेंसे पहले उपदेशका संग्रह यहां किया गया है तथा दूसरे उपदेशका संग्रह दर्शनमोहनीयकी क्षपणा नामक अधिकार में किया गया है। इसप्रकार वीरसेनस्वामीने उक्त शंकाके जो तीन उत्तर दिये हैं उनके देखनेसे स्पष्ट हो जाता है कि पहले दो समाधानोंके द्वारा वीरसेनस्वामीने यतिवृषभ आचार्यके भिन्न दो उपदेशोंके समन्वय करनेका प्रयत्न किया है। और तीसरे उत्तरमें समन्वय करनेकी दिशा छोड़कर मतभेदको स्वीकार कर लिया है। मालूम होता है कि वीरसेनस्वामीके सामने ऐसा कोई स्पष्ट आगमबचन न था जिससे 'कृतकृत्यवेदक सम्यगृहष्टि
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गा० २२ ] पयडिट्ठाणविहत्तीए सामित्तणिदेसो
२१७ . * तेवीसाए विहत्तिओ को होदि ? मणुस्सो वा मणुस्सिणी वा मिच्छत्ते खविदे सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ते सेसे। .: ६२४३. णियमग्गहणमेत्थं कायव्वं सेसगइणिवारणहं १ ण, परहपडिसेहमुहेण सगढ-परूवयसद्दम्मि णियमुच्चारणस्स फलाभावादो । अत्रोपयोगी श्लोकः
(निरस्यन्ती परस्यार्थ स्वार्थ कथयति श्रुतिः ।
तमो विधुन्वती भास्यं यथा भासयति प्रभा ॥२॥ ६२४४.जदि एवं तो एक्किस्से विहत्तीए सामित्तसुत्ते वि णियमग्गहणं ण कायव्वं ? ण, तस्स खवगा मणुस्सा चेवेत्ति अवहारफलत्तादो। मिच्छत्तं खविय सम्मामिच्छत्तं खवेतो ण मरदि त्ति कुदो णव्वदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो। कथमेकं सुत्तं दोण्हजीव नहीं मरता है' इस मतकी पुष्टि की जासके । फिर भी चूंकि यतिवृषभ आचार्यने दो स्थलोपर दो प्रकारसे निर्देश किया है इससे सिद्ध होता है कि यतिवृषभ आचार्य के सामने दो मान्यताएं रहीं होंगी। यहां इतनी विशेषता है कि उच्चारणाचार्यके उपदेशसे कृतकृत्यवेदक जीव मरता ही नहीं है ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि उच्चारणाचार्यने चारों ही गतियों में बाईस प्रकृतिक स्थानके अस्तित्वका कथन किया है ।
* तेईस प्रकृतिक स्थानका स्वामी कौन होता है ? जिस मनुष्य या मनुष्यनीके मिथ्यात्वका क्षय होकर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व शेष है वह तेईस प्रकृतिक स्थानका स्वामी होता है।
६२४३. शंका-इस सूत्रमें शेष तीन गतियोंके निवारण करनेके लिये 'नियम' पदका ग्रहण करना चाहिये ?
समाधान-नहीं, क्योंकि प्रत्येक शब्द दूसरे शब्दसे व्यक्त होनेवाले अर्थका प्रतिषेध करके अपने अर्थका प्ररूपण करता है, इसलिये सूत्रमें नियम शब्दके कहनेका कोई प्रयोजन नहीं है। अब यहां उपयोगी श्लोक देते हैं
'जिसप्रकार प्रभा अन्धकारका नाश करके प्रकाश्यमान पदार्थको प्रकाशित करती है उसीप्रकार शब्द दूसरे शब्द के द्वारा कहे जानेवाले अर्थका निराकरण करके अपने अर्थको कहता है ॥२॥
६२४१. शंका-यदि ऐसा है तो एक प्रकृतिक स्थानके स्वामित्वका कथन करनेवाले सूत्र में भी नियम' पदका ग्रहण नहीं करना चाहिये ? '
समाधान-नहीं, क्योंकि उसके स्वामी क्षपक मनुष्य ही होते हैं यह बतलानेके लिये वहां 'नियम' पद दिया है। ..... शंका-मिथ्यात्वका क्षय करके सम्यग्मिथ्यत्वका क्षय करनेवाला जीव नहीं मरता, __ यह कैसे जाना जाता है ? ......... ... . .. ........
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२१८
जयपपलासहिदे कसायपाहुरे ... [पडिपिरती २ मत्थाणं परवयं ? ण, दिवायरम्स अंधयारविणासणदुवारेण घडादिविविहत्वपयासयस्सुवलंभादो।
* घउवीसाए विहत्तिओ को होदि ? अणंताणुबंषिविसंजोइदे सम्मा.. दिही वा सम्मामिच्छादिट्ठी वा अण्णयरो।
६२४५. अहावीससंतकम्मिएण अणंताणुबंधीविसंजोइदे चउवीसविहत्तिओ होदि । को विसंजोअओ? सम्मादिट्ठी । मिच्छाइट्ठीण विसंजोएदि ति कुदो णबदे ? सम्मादिती वा सम्मामिच्छादिही वा चउवीसविहत्तिओ होदि ति एदम्हादो सुत्तादो गब्बदे । अणंताणुबंधिविसंजोइदसम्मादिष्टिम्हि मिच्छत्तं पडिवण्णे चउवीसविहत्ती किण्ण होदि । ण, मिच्छत्तं पडिवण्णपढमसमए चेव चारित्तमोहकम्मक्खंधेसु अणंताणुबंधिसरूवेण परिणदेसु अहावीसपयडिसंतुप्पत्तीदो । सम्मामिच्छाइही अणंताणुवंधिचउकं ण
समाधान-इसी सूत्रसे जाना जाता है। शंका-एक सूत्र दो अर्थोंका कथन कैसे कर सकता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि सूर्य अन्धकारका विनाश करके उसके द्वारा घटादि नाना पदार्थों का प्रकाशन करता हुआ देखा जाता है। इससे प्रतीत होता है कि एक सूत्र दो अर्थोंका कथन कर सकता है। ___ * चौबीस प्रकृतिक स्थानका स्वामी कौन होता है ? अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करदेनेपर किसी भी गतिका सम्यग्दृष्टि या सम्यग्मिध्यादृष्टि जीव चौबीस प्रकृतिक स्थानका स्वामी होता है। __६२४५. अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता वाला जीव अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना कर देने पर चौबीस प्रकृतियोंकी सत्ता वाला होता है।
शंका-विसंयोजना कौन करता है ? समाधान-सम्यग्दृष्टि जीव विसंयोजना करता है। शंका-मिथ्यादृष्टि जीव विसंयोजना नहीं करता यह कैसे जाना जाता है?
समाधान-सम्यग्दृष्टि या सम्यगमिथ्यादृष्टि जीव चौबीस प्रकृतिक स्थानका स्वामी है' इस सूत्रसे जाना जाता है कि मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना नहीं करता है।
शंका-अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करनेवाले सम्यग्दृष्टि जीवके मिथ्यात्वको प्राप्त होजानेपर मिथ्यादृष्टि जीव चौबीस प्रकृतिक स्यानका स्वामी क्यों नहीं होता है?
समाधान-नहीं, क्योंकि ऐसे जीवके मिथ्यात्वको प्राप्त होनेके प्रथम समय में ही चारित्रमोहनीयके कर्मस्कन्ध अनन्तानुबन्धीरूपसे परिणत हो जाते हैं अतः उसके चौबीस प्रकृतियोंकी सत्ता न रहकर अट्ठाईस प्रकृतियोंकी ही सत्ता पाई जाती है।
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गा० २१] पयडिहाणविहत्तीए सामित्तणिहसो
२१९ विसंजोएदि वि दो पव्वदे ? उवरि भण्णमाणचुण्णिसुत्तादो। अविसंजोएंतो सम्मामिच्छाइट्ठी कथं चउनीसविहत्तिओ १ ण, चउबीससंतकम्मियसम्मादिहीसु सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णेसु तत्थ चउवीसपयडिसंतुवलंभादो। चारित्तमोहणीयं तत्थ अणंताणुपंघिसरूवेण किण्ण परिणमह ? ण, तत्थ तप्परिणमणहेदुमिच्छत्तुदयाभावादो, सासणे इव तिब्वसंकिजेसामावादो वा।
६ २४६. का विसंजोयणा ? अणंताणुबंधिचउक्कक्खंधाणं परसरूवेण परिणमणं विसंजोयणा । ण परोदयकम्मक्खवणाए वियहिचारो, तेसिं परसरूवेण परिणदाणं पुणरुप्पत्तीए अभावादो। अण्णदरो ति णिद्देसो किंफलो? णेरइओ तिरिक्खो मणुस्सो
शंका-सम्यग्मिध्याहृष्टि जीव अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना नहीं करता है यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान-आगे कहे जानेवाले चूर्णिसूत्रसे जाना जाता है कि सम्यगमिथ्यादृष्टि जीव अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना नहीं करता है। - शंका-जबकी सम्यग्मिध्यादृष्टि जीव अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना नहीं करता है तो वह चौबीस प्रकृतिक स्थानका स्वामी कैसे हो सकता है?
समाधान-नहीं, क्योंकि चौबीस कर्मोकी सत्तावाले सम्यग्दृष्टि जीवोंके सम्यग्मिध्यात्वको प्राप्त होनेपर उनके भी चौबीस प्रकृतियों की सत्ता बन जाती है।
शंका-सम्यमिथ्यात्व गुणस्थानमें जीव चरित्रमोहनीयको अनन्तानुबन्धीरूपसे क्यों नहीं परिणमा लेता है ? . समाधान-नहीं, क्योंकि वहां पर चरित्रमोहनीयको अनन्तानुबन्धीरूपसे परिणमानेका कारणभूत मिथ्यात्वका उदय नहीं पाया जाता है, अथवा सासादन गुणस्थानमें जिसप्रकारके तीन संश्लेशरूप परिणाम पाये जाते हैं, सम्यमिध्यादृष्टि गुणस्थानमें उसप्रकारके तीव्र संशरूप परिणाम नहीं पाये जाते हैं, इसलिये सम्यगमिथ्यादृष्टि जीव चारित्रमो. इनीयको अनन्तानुबन्धीरूपसे नहीं परिणमाता है।
६२४६.शंका-विसंयोजना किसे कहते हैं ?
समाधान-अनन्तानुबन्धी चतुष्कके स्कन्धोंके परप्रकृतिरूपसे परिणमा देनेको विसयोजना कहते है।
विसंयोजनाका इस प्रकार लक्षण करनेपर जिन कोंकी परप्रकृतिके उदयरूपसे क्षपणा होती है उनके साथ व्यभिचार (अतिव्याप्ति) आ जायगा सो भी बात नहीं है, क्योंकि अनन्तानुबन्धीको छोड़कर पररूपसे परिणत हुए अन्यकमोंकी पुनः उत्पत्ति नहीं पाई जाती है। अतः विसंयोजनाका लक्षण अन्य कर्मोकी क्षपणामें घटित न होनेसे अतिम्याप्ति दोष नहीं जाता है।
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२२० अयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[पयडिविहत्ती २. देवो वा सम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्टी च सामिओ होदि त्ति जाणावणफलो।
शंका-चूर्णिसूत्र में जो 'अन्यतर' पदका निर्देश किया है उसका क्या फल है ? - समाधान-नारकी, तियेच, मनुष्य या देव इनमेंसे किसीभी गतिका सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि जीव चौबीस प्रकृतिक स्थानका स्वामी होता है इस बातके ज्ञान करानेके लिये चूर्णिसूत्रमें 'अन्यतर' पदका ग्रहण किया है ।
विशेषार्थ-अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना वेदकसम्यग्दृष्टि करता है यह तो सर्वसम्मत मान्यता है । पर उपशमसम्यग्दृष्टिके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना होती है इसमें दो मत हैं। कुछ आचार्योंका मत है कि उपशमसम्यक्त्वका काल थोड़ा है और अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाका काल अधिक है अतः उपशमसम्यग्दृष्टि अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना नहीं करता है । पर कुछ आचार्योंका मत है कि उपशमसम्यक्त्वके कालमें भी अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना होती है। यह दूसरा मत्त प्रवाह रूपसे चला आता है, अतः मुख्य है। इससे यह तो निश्चित हो जाता है कि सम्यग्दृष्टि जीव ही अनन्तानुबन्धीकी विसं. योजना करता है। पर ऐसा जीव यदि मिश्र प्रकृतिके उदयसे मिश्रगुणस्थानमें चला जाता है तो वहां भी अनन्तानुबन्धी चतुष्कका अभाव बन जाता है अत: चौबीस विभक्तिस्थानका स्वामी सम्यग्दृष्टि या सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव ही होता है। ऐसा जीव सासादन और मिथ्यात्वमें जा सकता है। पर वहां पहले समयसे ही अनन्तानुबन्धीका बन्ध होने लगता है और चारित्रमोहनीयकी अन्य प्रकृतियोंका अनन्तानुबन्धिरूपसे संक्रमण भी, अतः वहां भी चौबीस विभक्तिस्थान नहीं पाया जाता है। यहां वीरसेन स्वामीने बिसंयोजनाका 'अनन्तानुबन्धी चतुष्कके स्कन्धोंका परप्रकृतिरूपसे परिणमन करना विसंयोजना कहलाती है' यह लक्षण किया है । यद्यपि और भी ऐसी बहुतसी कर्मप्रकृतियां हैं जिनका परोदयरूपसे क्षय होता है । अत: विसंयोजनाका लक्षण परोदयसे होने वाली अन्य प्रकृतियोंकी क्षपणामें चला जाता है इसलिये अतिव्याप्ति दोष आता है। पर इसपर वीरसेन स्वामीका कहना है कि जिस प्रकार अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना होनेपर उसकी पुनः संयोजना देखी जाती है उस प्रकार जिन प्रकृतियोंका अन्य प्रकृतियोंके उदयरूपसे क्षय होता है उनकी पुनः उत्पत्ति नहीं होती, इसलिये विसंयोजनाका लक्षण अन्य प्रकृतियोंकी क्षपणामें नहीं जाता है और इसलिये अतिव्याप्ति दोष भी नहीं आता है। तात्पर्य यह है कि विसंयोजनाके उपर्युक्त लक्षणमें 'पुनः उत्पत्तिकी शक्ति रहते हुए' इतना पद और जोड़ लेना चाहिये इससे विसंयोजनाके लक्षणका परोदयसे होनेवाली कर्मक्षपणामें जो अतिव्याप्ति दोष आता था वह नहीं आता । पर इसका अभिप्राय यह नहीं कि अनन्तानुबन्धीकी षिसंयोजना हो जाने पर उसकी पुनः संयोजना होती ही है। किन्तु इसका यह अभिप्राय है कि जिसके मिथ्यात्वकी सत्ता है उसके अनन्तानुबन्धीकी पुनः संयोजना हो सकती है। तथा
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गा० २२] पयडिहाणविहत्तीए सामित्तणिदेसो
२२१ * छठवीसाए विहत्तिओ को होदि १ मिच्छाइट्ठी णियमा ।
६२४७. एत्थतणमिच्छादिहिणिद्देसो जेण सेसगुणहाणपडिसेहफलो तेण णियमग्गहणं ण कायव्वमिदि ? ण, मिच्छादिही छन्वीसविहत्तिओ चेवेत्ति णियमपडिसेहहं तका(तक)रणादो। __ * सत्तावीसाए विहत्तिओ को होदि ? मिच्छाइट्ठी ।
२४८. अहावीससंतकम्मिओ उबेलिदसम्मत्तो मिच्छाइट्टी सत्तावीसविहत्तिओ होदि । एत्थ वि पुग्विल्ल-णियमग्गहणमणुवावेदव्वं, अण्णहा अहावीस-छव्वीसठाणाणं मिच्छादिष्टिम्मि अभावप्पसंगादो त्ति वुत्ते ण; पुव्वावरसुत्तेहि तेसिं तत्थ अत्थित्तसिद्धीदो ।
* अट्ठावीसाए विहत्तिओ को होदि ? सम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी मिच्छाइट्टी वा। जिसने मिथ्यात्वका क्षय कर दिया है उसके अनन्तानुबन्धीकी उत्पत्ति नहीं ही होती। - * छब्बीस प्रकृतिक स्थानका खामी कौन होता है ? नियमसे मिथ्यादृष्टि जीव छब्बीस प्रकृतिक स्थानका स्वामी होता है।
६२४७. शंका-चूंकि इस सूत्र में आये हुए 'मिथ्यादृष्टि' पदसे ही शेष गुणस्थानोंका निषेध होजाता है, अतः सूत्रमें 'नियम' पदका ग्रहण नहीं करना चाहिये ?
समाधान-नहीं, क्योंकि मिथ्यादृष्टि जीव छब्बीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला ही होता है, इसप्रकारके नियमके निषेध करनेके लिये चूर्णिसूत्र में मिथ्यारष्टि पदके साथ 'णियमा' पदका ग्रहण किया है। जिससे यह अभिप्राय निकल आता है कि मिध्यादृष्टि जीप अन्य प्रकृतिक स्थानोंका भी स्वामी होता है। पर छब्बीस प्रकृतिक स्थान केवल मिध्यादृष्टिक ही होता है अन्यके नहीं।
* सत्ताईस विभक्ति स्थानका स्वामी कौन होता है ? मिथ्यावृष्टि जीव सत्ताईस विभक्ति स्थानका स्वामी होता है।
६२४८. अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला मिथ्यादृष्टि जीव सम्यक्प्रकृतिकी उद्वेलना करके सत्ताईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला होता है।
शंका-इससे पहलेके सूत्रमें कहे गये नियम पदकी अनुवृत्ति इस चूर्णिसूत्रमें भी कर लेनी चाहिये, अन्यथा मिथ्यादृष्टि में अट्ठाईस और छब्बीस प्रकृतिक विभक्ति स्थानोंके अभावका प्रसंग प्राप्त होता है। ___ समाधान-नहीं, क्योंकि इस सूत्रसे पिछले और अगले सूत्रके द्वारा मिध्यादृष्टि जीवमें उक्त दोनों थानोंका अस्तित्व सिद्ध हो जाता है। " _ *अट्ठाईस प्रकतिक विभक्ति स्थानका स्वामी कौन होता है ? सम्यग्दृष्टि, सम्यमि
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३२२
अचवलासहिदे कसा पाहुडे
[ पयडिविहत्ती २
$ २४६. सुगमतादो एत्थ ण वत्तम्बमत्थि । एवमोषेण बहवसहाइरियसामित - सुत्थं परूविय संपहि उच्चारणाइरिय उवसेण आदेसे सामितं भणिस्सामो ।
९ २५०, पंचिंदिय-पंचिदियपञ्ज० तस तसपअ० कायजोगि चक्खुदं० - अचक्खु०भवसिद्धि ०-सण्णि आहारीणं मूलोघभंगो ।
8 २५१. आदेसेण णिरयगईए जेरईएस अट्ठावीसविहती कस्स ? अण्णदरस्स मिच्छाद्विस्स सम्माइट्टिस्स सम्मामिच्छाइट्ठिस्स वा । सत्तावीस-छब्बीसविहत्ती कस्स ? अण्णदरस्स मिच्छा हिस्स । चउवीस-बावीस-एकवीसविहत्ती कस्स ? अण्णदरस्स सम्माइट्ठिस्स । एवं पढमाए पुढवीए; तिरिक्ख पंचिदियतिरिक्ख- पंचिदियतिरिक्ख-देव-सोहम्मीसाणादि जाव उवरिमगेवेजे त्ति वत्तव्यं । विदियादि जाब सत्तमी ति एवं चैव । वरि, वावीस-एकवीसविहत्ती णत्थि । एवं पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीभवण० वाण-जो दिसियत्ति वत्तन्वं ।
पञ०
carefष्ट या मिध्यादृष्टि जीव अट्ठाईस प्रकृतिक विभक्ति स्थानका स्वामी होता है । ६२४९. यह सूत्र सुगम है, अतः इस विषय में अधिक कहने योग्य नहीं है । इस प्रकार ओant अपेक्षा यतिवृषभ श्राचार्य के स्वामित्व विषयक सूत्रोंका अर्थ कहकर अब उच्चारणाचार्य के उपदेशानुसार आदेशकी अपेक्षा स्वामित्वानुयोगद्वारका कथन करते हैं
२५०. पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, प्रसपर्याप्त, काययोगी. चक्षुदर्शनी, भचक्षुदर्यानी, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके मंग मूलोधके समान जानना चाहिये । तात्पर्य यह है कि एक मार्गणाओं में सब विभक्तिस्थानोंका पाया जाना संभव है अतः इनमें स्वामित्वका कथव मूलोबके समान है ।
२५१. आदेशकी अपेक्षा नरक गतिमें नारकियोंमें अट्ठाईस विभक्तिस्थान किसके होता है ? मिध्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि या सम्यरमिध्यादृष्टि किसी भी नारकीके अड्डाईस विभक्ति स्थान होता है । सत्ताईस और छब्बीस विभक्ति स्थान किसके होता है ? किसी भी मिध्यादृष्टि नारकीके होता है। चौबीस, बाईस और इक्कीस विभक्ति स्थान किसके होते हैं ? किसी भी सम्यग्दृष्टिके होते हैं। इसी प्रकार पहली पृथिवीमें तथा तियंच, पंचेन्द्रियतिर्यंच और पंचेन्द्रियतिर्यंच पर्याप्त, सामान्य देव और सौधर्मऐशान स्वर्गसे लेकर उपरिम मैवेयक तकके देवोंके कथन करना चाहिये । नरककी दूसरी पृथ्वीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक भी इसी प्रकार कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि दूसरी पृथ्वीसे लेकर सातवीं पृथ्वी तक नारकियोंके बाईस और इक्कीस विभक्तिरूप स्थान नहीं होते हैं । इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यश्व योनिमती, भवनबासी, व्यन्तर और योतिषी देवोंके भी कहना चाहिये ।
विशेषार्थ - सामान्य से नारकियोंके २८, २७, २६, २४, २२ और २१ मे
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mo २२ ]
tasveere सामित्तमिदेतो
२२३
९ २५२. पंचिदियतिरिक्खअपअ० अट्ठावीस - सत्तावीस-छब्बीस-विहत्ती कंस्स १ सवस्थान होते हैं । इनमें से २८ सत्त्वस्थान नारकियोंके चारों गुणस्थानों में सम्भव है। कारण स्पष्ट है । २७ और २६ सवस्थान मिध्यादृष्टिके ही होते हैं, क्योंकि जिसने सम्यक्त्वकी उद्वेलना की है वह २७ सस्वस्थानका स्वामी होता है। सो सम्यक्त्वकी उद्वेलना चारों गतिका मिध्यादृष्टि ही करता है, इसलिये नारकी मिध्यावृष्टिके २७ प्रकृतिक सस्वस्थान बन जाता है। इसी प्रकार २६ प्रकृतिक सस्वस्थान भी चारों गतिके मिध्यादृष्टिके ही होता है । यह सरवस्थान दो प्रकारसे प्राप्त होता है। एक तो जो अनादि मिध्यादृष्टि होता है उसके यह सस्वस्थान पाया जाता है और दूसरे जिस मिध्यादृष्टिने सम्यग्मिध्यात्वकी उद्वेलनाकी है उसके यह सत्त्वस्थान पाया जाता है । यतः नरक में दोनों प्रकारके जीव सम्भव हैं अतः नारकी मिध्यादृष्टि के २६ प्रकृतिक सत्त्वस्थान भी बन जाता है । अब रहे शेष तीन सस्वस्थान सो वे सम्यग्दृष्टि ratथा में ही प्राप्त होते हैं । उसमें भी केवल अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करनेवालेके २४ प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है । कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि के २२ प्रकृतिक व क्षायिक सम्यग्दृष्टिके २१ प्रकृतिक सस्वस्थान होता है । सामान्यसे नारकीके ये तीनों ही अवस्थाएं सम्भव हैं अतः यहां उक्त सत्त्वस्थान भी सम्भव हैं। इस प्रकार सामान्य से नारकियोंके उक्त सत्त्वस्थान कैसे होते हैं इसका कारण बतलाया । प्रथम नरक आदि कुछ ऐसी मार्गणाएं हैं जिनमें भी उक्त सब अवस्थाएं सम्भव हैं अतः वहां भी ने स्वस्थान पाये जाते हैं । किन्तु दूसरे नरकसे लेकर सातवें नरक तकके जीव और पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिनी, भवन वासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देव इनमें कृतकृत्य बेवसम्पदृयष्टि और क्षयिक सम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होते; इसलिये इनके २२ और २१ प्रकृतिक स्वस्थान नहीं पाये जाते हैं, शेष ४ सस्वस्थान पाये जाते हैं। यद्यपि यहां उच्चारणावृत्ति में सामान्यसे सौधर्म और ऐशानवासी देवोंके २२ और २१ प्रकृतिक सरवस्थान भी बतलाये हैं पर वे पुरुषवेदी देवोंके ही जानना चाहिये देवियोंके नहीं, क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव मर कर जीवेदियों में उत्पन्न नहीं होता ऐसा नियम है । एक बात और है और वह यह कि प्रकृतमें २४ प्रकृतिक सत्त्वस्थानका स्वामी सम्यग्दृष्टिको ही बतलाया है जब कि इसका स्वामी सम्यग्मिध्यादृष्टि भी होता है, सो वह सामान्य वचन है इसलिये कोई विरोध नहीं है। इसी प्रकार २८ प्रकृतिक सत्त्वस्थान सासादनसम्यग्दृष्टिके भी होता है। पर उच्चारणामें उसका उल्लेख नहीं किया है सो यहां सासादनसम्यग्दृष्टिका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें अन्तर्भाव करके ही ऐसा विधान किया गया है ऐसा समझना चाहिये ।
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२५२. पंचेन्द्रिय तिर्यच लम्ध्यपर्याप्त जीवों में अट्ठाईस, सताईस और
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धवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पयडिविहती २
अण्णदरस्स । एवं मणुसअप ० पंचिंदिय अपज० तसअप ० - सव्व एइंदिय- सव्वविगलिंदिय- सव्वपंचकाय - असण्णि-मदि-सुदअण्णाणि विहंग भिच्छाइट्ठी त्ति वत्तब्वं ।
२५३. मणुसगईए मणुसपञ्जत- मणुसिणीणं मूलोघभंगो। एवं पंचमणजे गिपंचवविजोग - ओरालियकायजोगि त्ति वत्तव्वं । सुक्कलेस्साए वि मणुसमहभंगो । बरि, वावीसविहत्ती कस्स ? अण्णदरस्स देवस्स मणुस्सस्स वा अक्खीणदंसणमोहणीयस्स । णिरय - तिरिक्खेसु णत्थि । अणुद्दिसादि जाव सव्वट्टे ति अट्ठावीसचवीस-एक्कवीसविहत्ती कस्स ? अण्णदरस्स० । वावीसविहत्ती कस्स ? अण्णदरस्स अक्खीणदंसणमोहणीयस्स |
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विभक्तिस्थान किसके होते हैं ? किसी एक लब्धपर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंचके होते हैं । इसी प्रकार मनुष्य लब्ध्यपर्याप्त, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, त्रस लब्ध्यपर्याप्त सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, सभी पांचों स्थावर काय, असंज्ञी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी और मिध्यादृष्टि जीवोंके कहना चाहिये । आशय यह है कि उक्त मार्गणावाले जीव मिध्यादृष्टि ही होते हैं और मिध्यादृष्टियों के २८, २७ और २६ ये तीन सत्त्वस्थान पाये जाते हैं, अतः यहाँ ये तीन सवस्थान कहे हैं ।
$ २५३. मनुष्य गतिमें सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनीके मूलोचके समान भंग कहना चाहिये। इसी प्रकार पांचों मनोयोगी, पांचों बचनयोगी और औदारिक काययोगी जीवोंके कहना चाहिये । शुक्ल लेश्या में भी मनुष्य गतिके समान स्थान होते हैं । इतनी विशेषता है कि शुक्ल लेश्यामें बाईस विभक्ति स्थान किसके होता है ? जिसने दर्शनमोहनीयकी सम्यकत्व प्रकृतिका पूरा क्षय नहीं किया है ऐसे किसी एक देव या मनुष्य के बाईस विभक्ति स्थान होता है । नारकी और तिर्यंच जीवोंके बाईस विभक्ति स्थान नहीं होता । तात्पर्य यह है कि मनुष्य गतिको छोड़कर अन्य गतियोंमें बाईस विभक्ति स्थान निरृत्यपर्याप्त अवस्थामें ही पाया जाता है और देवोंको छोड़कर उत्तम भोगभूमिके तिथंच तथा पहले नरकके नारकियोंके अपर्याप्त अवस्था में कापोत लेश्या ही होती है, अतः यहाँ शुक्ल लेश्याके साथ तिर्यंच और नारकियोंके बाईस विभक्ति स्थानका निषेध किया है। शेष कथन सुगम है ।
अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें अट्ठाईस, चौबीस और इक्की विभक्ति स्थान किसके होते हैं ? किसी भी देवके होते हैं । बाईस विभक्ति स्थान किसके होता है ? जिसने दर्शनमोहनीयकी सम्यकत्व प्रकृतिका पूरा क्षय नहीं किया है ऐसे किसी भी देवके होता है । आशय यह है कि ये देव सम्यग्दृष्टि ही होते हैं इस लिये इनके २८, २४, २२ और २१ ये चार सस्वस्थान ही पाये जाते हैं । २७ और २६ सत्वस्थान नहीं पाये जाते
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गा० २२ ] पयडिट्ठाणविहत्तीए सामित्तणिदेसो
२२५ ६२५४. ओरालियमिस्स० अठ्ठावीसविहत्ती कस्स ? अण्णदरस्स तिरिक्ख-मणुस्समिच्छाइहिस्स मणुस्सस्स सम्मादिहिस्स वा । सत्तावीस-छव्वीसविहत्ती कस्स ? अण्ण दुगइमिच्छाइहिस्स। चउवीसविहत्ती कस्स ? अण्णदरस्स[मगुस्स] सम्माइटिस्स । वावीसविहत्ती कस्स ? अण्णदरस्स दुगइअक्खीणदसणमोहस्स । एकवीसविहची कस्स ? दुगइसम्माइटिस्स।
६२५५. वेउब्विय. अहावीसविह० कस्स ? देव-णेरइयमिच्छा० सम्मादिहिस्स
६२५४. औदारिक मिश्र काययोगमें अट्ठाईस विभक्ति स्थान किसके होता है ? किसी भी मिथ्यादृष्टि तिर्यंच या मनुष्यके तथा सम्यग्दृष्टि मनुष्यके होता है। सत्ताईस
और छब्बीस विभक्ति स्थान किसके होते हैं ? तियच और मनुष्य इन दोनों गतियोंके किसी भी मिथ्यादृष्टि जीवके होते हैं। चौबीस विभक्ति स्थान किसके होता है ? किसी भी सम्यग्दृष्टि मनुष्य के होता है। बाईस विभक्ति स्थान किसके होता है ? जिसने दर्शनमोहनीयका क्षय नहीं किया है ऐसे उक्त दोनों गतियोंके किसी भी कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि जीवके होता है । इक्कीस विभक्ति स्थान किसके होता है ? उक्त दोनों गतियोंके सम्यग्दृष्टि जीवके होता है।
विशेषार्थ-औदारिक मिश्र काययोग तिथंच और मनुष्योंके अपर्याप्त अवस्थामें होता है । अब देखना यह है कि औदारिक मिश्र काय योग अवस्थाके रहते हुए इन दो गतियों में से किस गतिमें कौनसा गुणस्थान रहते हुए कौन कौन सत्त्वस्थान होते है। यह तो सुनिश्चित है कि उपशम सम्यग्दृष्टि जीव मर कर मनुष्य और तियचोंमें नहीं उत्पन्न होता । इसलिये उपशम सम्यकत्वकी अपेक्षा २८ प्रकृतिक सत्वस्थान इन दोनों गतियोंकी अपर्याप्त अवस्थामें नहीं पाया जा सकता। कृतकृत्यवेदकके सिवा वेदक सम्यग्दृष्टि जीव मर कर तिर्यचोंमें नहीं उत्पन्न होता, हां मनुष्यों में अवश्य उत्पन्न हो सकता है, इसी से यहाँ औदारिक मिश्रकाययोगके रहते हुए मिथ्यादृष्टि मनुष्य और तिर्यचको तथा सम्यग्दृष्टि मनुष्यको २८ प्रकृतिक सत्त्वस्थानका स्वामी बतलाया है। २७ और २६ प्रकृतिक सत्त्वस्थान दोनों गतियोंके मिथ्यादृष्टिके होता है। यह स्पष्ट ही है। २४ प्रकृतिक सत्त्वस्थान मनुष्य सम्यग्दृष्टिके होनेका कारण यह है कि ऐसा वेदक सम्यग्दृष्टि देव और नारकी मनुष्योंमें ही उत्पन्न होता है, तियचोंमें नहीं। शेष रहे २२ और २१ ये दो सत्त्वस्थान, सो ये दोनों गतियोंमें औदारिक मिश्र अवस्थाके रहते हुए उत्तम भोग भूमि अवस्थाकी अपेक्षा सम्भव हैं। इस प्रकार औदारिक मिश्र काययोगमें २८,२७, २६, २४, २२ और २१ ये छह सत्त्व स्थान किस प्रकार सम्भव हैं इसके कारणका विचार किया ।
६२५५. वैक्रियिककाययोगमें अट्ठाईस विभक्तिस्थान किसके होता है ? मिध्यादृष्टि
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जयधवलासहिदें कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ वा । सत्तावीस-छव्वीसवि० कस्स ? देव-णेरइयमिच्छाइहिस्स । चउवीस-एकवीसविह० कस्स ? देव-णेरइयसम्माइटिस्स । वावीसविहत्ती णस्थि । एवं वेउग्वियमिस्सकायजोगीसु वत्तव्वं । णवरि, वावीसविहत्ती कस्स ? अण्णदरस्स देव-णेरइयसम्माइहिस्स अक्खीणदंसणमोहणीयस्स । - २५६. आहार-आहारमिस्स० अठ्ठावीस-चउवीसविहत्ती कस्स ? अण्ण. वेदयसम्माइटिस्स । एकवीसविहत्ती कस्स ? अण्ण० खइयसम्माइटिस्स । - $२५७. कम्मइय० अट्ठावीसविह० कस्स ? अण्णदरस्स चउगइमिच्छादिहिस्स देव-मणुस्ससम्माइहिस्स वा । सत्तावीस-छव्वीसविहत्ती कस्स ? अण्ण० चउगइमिच्छाया सम्यग्दृष्टि देव और नारकी जीवोंके होता है । सत्ताईस और छब्बीस विभक्तिस्थान किसके होते हैं? मिथ्यादृष्टि देव और नारकी जीवोंके होते हैं। चौबीस और इक्कीस विभक्तिस्थान किसके होते हैं । सम्यग्दृष्टि देव और नारकी जीवोंके होते हैं। यहां बाईस विभक्तिस्थान नहीं पाया जाता है। इसीप्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनमें बाईस विभक्तिस्थान किसके होता है ? जिसने दर्शनमोहनीयका पूरा क्षय नहीं किया है ऐसे किसी भी कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि देव और नारकी जीवके होता है।
विशेषार्थ-वैक्रियिक काययोगमें २२ प्रकृतिक सत्त्वस्थानके नहीं पाये जानेका कारण यह है कि यह सत्त्वस्थान मरकर अन्य गतिको प्राप्त हुए जीवके अपर्याप्त अवस्थामें ही होता है और अपर्याप्त अवस्थामें वैक्रियिककाययोग नहीं होता। यही सबब है कि वैक्रियिक काययोगमें २२ प्रकृतिक सत्त्वस्थानका निषेध करके वैक्रियिक मिश्रकाययोगमें उसे बतलाया है। शेष कयन सुगम है।
६२५६. आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोगमें अट्ठाईस और चौबीस विभक्तिस्थान किसके होते हैं ? किसी भी वेदकसम्यग्दृष्टि प्रमत्त संयत जीवके होते हैं । इक्कीस विभक्तिस्थान किसके होता है ? किसी भी क्षायिकसम्यग्दृष्टि प्रमत्त संयतके होता है। ... विशेषार्थ-आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोग प्रमत्तसंयतके होते हैं। यद्यपि प्रमत्तसंयतके और भी सत्त्वस्थान पाये जाते हैं पर ऐसा जीव क्षायिक सम्यक्त्वकी प्राप्तिका प्रारम्भ नहीं करता इसलिये उसके वेदक और क्षायिक सम्यक्त्वकी अपेक्षा तीन ही सस्वस्थान बतलाये हैं। - २५७. कार्मणकाययोगमें अट्ठाईस विभक्तिस्थान किसके होता है ? चारों गतिके किसी मी मिध्यादृष्टि जीवके और सम्यग्दृष्टि देव तथा मनुष्यके होता है। सत्ताईस
और छब्बीस विभक्तिस्थान किसके होते हैं ? चारों गतियोंके किसी भी मिथ्यादृष्टि जीवके होते हैं। चौबीस विभक्तिस्थान किसके होता है ? दोनों गतियोंके किसी भी सम्यग्दृष्टि
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गो०२२] पयडिहाणवित्तीए सामित्वणिदेसो २२७ इडिस्स | चउवीसविह० कस्स ? अण्ण० दुगइसम्माइष्टिस्स । वावीस-एकवीसवि० कस्स १ अण्ण० चउगइसम्माइटिस्स । ___$२५८. वेदाणुवादेण इत्थिवेद० अहावीसविह० कस्स ? अण्ण तिगइमिच्छा० सम्माइटिस्स वा। सत्तावीस-छव्वीसविह० कस्स ? तिगइमिच्छाइहिस्स । चउवीसविहत्ती कस्स ? अण्ण तिगइसम्माइहिस्स । तेवीस-बावीस-एकवीसवि० कस्स ? अण्ण मणुसिणीसम्माइहिस्स । तेरस-बारसविह० कस्स ? अण्ण० मणुसिणीखवयस्स ।
६२५६. पुरिसवेदे अट्ठावीसविह० कस्स ? अण्ण० तिगइमिच्छा० सम्माइहिस्स वा। सत्तावीस-छव्वीसविह० कस्स ? अण्ण तिगइमिच्छाइहिस्स। चउवीसविह० जीवके होता है । यहां दो गतियोंसे देव और मनुष्य गतिका ग्रहण किया है। बाईस और इक्कीस विभक्तिस्थान किसके होते हैं ? चारों गतियोंके किसी भी सम्यग्दृष्टि जीवके होते हैं।
विशेषार्थ-२८ प्रकृतियोंकी सत्तावाले वेदक सम्यग्दृष्टि देव या नारकी मरकर मनुष्योंमें और मनुष्य मरकर देवोंमें ही उत्पन्न होते हैं, इसलिये कार्मणकाययोगके रहते हुए देव और मनुष्यगतिके ही सम्यग्दृष्टि जीव २८ प्रकृतिक सत्त्वस्थानके खामी बतलाये है। इसीप्रकार २४ प्रकृतिक सत्त्वस्थानके सम्बन्धमें भी जान लेना चाहिये। शेष कथन सुगम है।
६२५८.वेदमार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदमें अट्ठाईस विभक्तिस्थान किसके होता है ? नरकगतिको छोड़कर शेष तीन गतियोंके किसी भी मिथ्यादृष्टि या सम्यग्दृष्टि जीवके होता है। नरकगतिमें स्त्रीवेद नहीं होता इसलिये यहां उसका निषेध किया है। सत्ताईस
और छब्बीस विभक्तिस्थान किसके होते हैं ? नरक गतिके बिना शेष तीन गतियोंके मिथ्यादृष्टि जीवके होते हैं। चौबीस विभक्तिस्थान किसके होता है ? उपर्युक्त तीनों गतियोंके किसी भी सम्यग्दृष्टि जीवके होता है। तेईस, बाईस और इक्कीस विभक्ति स्थान किसके होते हैं ? किसी भी सम्यग्दृष्टि मनुष्यनीके होते हैं। तेरह और बारह विभक्तिस्थान किसके होते हैं ? किसी भी क्षपक मनुष्यनीके होते हैं।
विशेषार्थ-त्रीवेदी द्रव्य मनुष्य दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयकी क्षपणा कर सकते हैं । इसलिए यहां मनुष्यनीके २३, २२, २१, १३ और १२ सत्त्वस्थान बतलाये है। पर कृत्यकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव मरकर स्त्रीवेदियोंमें नहीं उत्पन्न होता इसलिये२२ और २१ प्रकृतिक स्थानका स्वामी भी मनुष्यनीको ही बतलाया है। शेषकथन सुगम है।
६२५६. पुरुषवेदमें अट्ठाईस विभक्ति स्थान किसके होता है ? तियेच, मनुष्य और देव इन तीन गतियोंके किसी भी मिथ्यारष्टि या सम्यग्दृष्टि जीवके होता है। सत्ताईस और 'छब्बीस विभक्ति स्थान किसके होते हैं ? उपर्युक्त तीनों गतियोंके किसी भी मिथ्यादृष्टि जीपके होते हैं। नारकी पुरुषवेदी नहीं होते इसलिये यहां उनका ग्रहण नहीं किया है।
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२२८
जयविलासहिदे कसायेपाहुडे
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[पयडिविहत्ती २
कस्स ? अण्ण० तिगइसम्माइहिस्स । एवमेक्कवीस । तेवीसविह० कस्स ? अण्ण मणुससम्माइहिस्स अक्खविद-सम्मामिच्छत्तस्सं । वावीसविह० कस्स ? अण्ण तिगहसम्माइहिस्स अक्खीणदसणमोहणीयस्स । तेरस-बारस-एक्कारस-पंचविह० कस्स ? अण्ण० मणुस्सखवयस्स ।
६२६०. गवंस० अट्ठावीसविह० कस्स ? अण्ण० तिगइमिच्छा० सम्माइहिस्स वा । सत्तावीस-छव्वीसविह० कस्स ? अण्ण० तिगइमिच्छादिहिस्स । चउवीसविह कस्स ? अण्ण तिगइसम्माइटिस्स | बावीसविह० कस्स ? अण्ण० दुगइसम्माइटिस्स अक्खीणदसणमोहणीयस्स । एक्कावीसविह० कस्स ? अण्ण० दुगइखइयसम्मादिहिस्स । तेवीसविह० कस्स ? अण्ण मणुस्ससम्माइटिस्स अक्खविदसम्मामिच्छत्तस्स । तेरस-बारसविह० कस्स ? अण्ण० मणुस्सखवयस्स । चौबीस विभक्ति स्थान किसके होता है ? उपर्युक्त तीनों गतियोंके किसी भी सम्यग्दृष्टि जीवके होता है। इसी प्रकार इक्कीस विभक्तिस्थान भी उक्त तीन गतियोंके सम्यग्दृष्टि जीवके कहना चाहिये । तेईस विभक्ति स्थान किसके होता है ? जिसने सम्यगमिथ्यात्वका क्षय नहीं किया है ऐसे किसी भी सम्यग्दृष्टि मनुष्यके होता है। दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ और मिथ्यात्व तथा सम्यमिथ्यात्वकी क्षपणा मनुष्य ही करता है, इस लिये २३ प्रकृतिक सत्वस्थानका स्वामी मनुष्यको ही बतलाया है। बाईस विभक्ति स्थान किसके होता है ? जिसने दर्शनमोहनीयका पूरा क्षय नहीं किया है ऐसे उक्त तीनों गतियोंके किसी भी कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीवके होता है। तेरह, बारह, ग्यारह और पांच विभक्तिस्थान किसके होते हैं ? किसी एक क्षपक मनुष्यके होते हैं।
६२६०. नपुंसकवेदमें अट्ठाईस विभक्ति स्थान किसके होता है ? देवगतिको छोड़कर शेष तीन गतिके मिथ्यादृष्टि या सम्यग्दृष्टि जीवके होता है। देवगतिमें नपुंसकवेद नहीं होता इसलिये यहां उसका निषेध किया है। सत्ताईस और छब्बीस विभक्तिस्थान किसके होते हैं ? उक्त तीन गतियोंके किसी भी जीवके होते हैं। चौबीस विभक्ति स्थान किसके होता है ? उक्त तीन गतियोंके किसी भी सम्यग्दृष्टि जीवके होता है। बाईस विभक्ति स्थान किसके होता है ? जिसने दर्शनमोहनीयका पूरा क्षय नहीं किया है ऐसे नरक और मनुष्यगतिके किसी भी कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टिके होता है। इक्कीस विभक्तिस्थान किसके होता है ? नरक और मनुष्य गतिके किसी भी क्षायिक सम्यग्दृष्टिके होता है। सेईस विभक्तिस्थान किसके होता है ? जिसने सम्यगमिथ्यात्वका क्षय नहीं किया है ऐसे किसी भी सम्यग्दृष्टि मनुष्यके है। तेरह और बारह विभक्तिस्थान किसके होते हैं ? किसी भी क्षपक मनुष्यके होते हैं। . विशेषार्थ-कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि या क्षायिक सम्यग्दृष्टि मरकर नरकगतिके सिवा
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ग० २२]
पयडिहाणविहत्तीए सामित्तणिदेसो
२२६
६२६१. अवगद० चउवीस-एकवीसविह. कस्स ? अण्ण उवसंतकसायस्स । एकारस-पंच-चदु-तिण्णि-दोण्णि-एक्कविहत्ती कस्स ? अण्ण खवयस्स ।
६२६२. कसायाणुवादेण कोधक० अठ्ठावीसादि जाव पंच-चत्तारिविहत्ति त्ति मूलो. घमंगो । एवं माण०, गवरि तिविह० अत्थि। एवं माया०, णवरि दुविह० अस्थि । एवं लोम०, णवरि एयविह० अस्थि । अकसा० चउवीम-एक्कधीसविह० कस्स ? अण्ण. उवसंतकसायस्स । एवं जहाक्खाद० ।
६२६३. आभिणि-सुद०-ओहि० अहावीसविह० कस्स ? अण्ण० सम्माइढिस्स । सत्तावीस-छव्वीसविह० णत्थि। सेसाणमोघभंगो । एवमोहिदसणी-सम्माइडि-मणपजवणाणीणं । एवं सामाइय-छेदो० ।। शेष नपुंसकोंमें नहीं उत्पन्न होता, इसलिये २२ और २१ प्रकृतिक सत्त्वस्थानके स्वामी नपुंसकवेदी नारकी और मनुष्य बतलाये हैं। यहां मनुष्यपर्याय जिस भवमें क्षायिक सम्यग्दर्शन पैदा करना है उसी भवकी अपेक्षा लेना चाहिये । शेष कथन सुगम है।
२६१.अपगतवेदियोंमें चौबीस और इक्कीस विभक्तिस्थान किसके होते हैं ? किसी भी उपशान्तकषाय जीवके होते हैं । ग्यारह, पांच, चार, तीन, दो और एक विभक्तिस्थान किसके होते हैं ? किसी भी क्षपकके होते हैं। अपगतवेदियोंके उपशमश्रेणीकी अपेक्षा २४ और २१ तथा क्षपकश्रेणीकी अपेक्षा ११, ५, ४, ३, २ और १ सत्त्वस्थान होते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है।. . ...३२६२. कषाय मार्गणाके अनुवादसे क्रोधकषायी जीवों में अट्ठाईस विभक्तिस्थानसे लेकर पांच और चार विभक्तिस्थान तक मूलोषके समान कथन करना चाहिये। इसीप्रकार मानकषायियोंके भी समझना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनके तीन विभक्तिस्थान भी पाया जाता है। इसीप्रकार मायाकषायवाले जीवोंके भी कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके दो विभक्तिस्थान भी पाया जाता है। मायाकषायवालोंके समान लोभकषायवालोंके भी समझना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनके एक विभक्तिस्थान भी पाया जाता है। कषायरहित जीवोंमें चौबीस और इक्कीस विभक्तिस्थान किसके होते हैं किसी भी उपशान्तकषाय जीवके होते हैं। अकषायी जीवोंके समान यथाख्यात संयतोंके भी कहना चाहिये।
६२६३.मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें अट्ठाईस विभक्तिस्थान किसके होता है ? किसी भी सम्यग्दृष्टिके होता है। उक्त तीन ज्ञानवाले जीवोंके सत्ताईस और छब्बीस विभक्तिस्थान नहीं पाये जाते हैं। शेष चौबीस आदि स्थानोंका ओघके समान कथन करना चाहिये । अवधिदर्शनवाले, सम्यग्दृष्टि और मनःपर्ययज्ञानवाले जीवोंके भी इसीप्रकार समझना चाहिये । इसीप्रकार सामायिक और दोपस्थापनासंयत जीवोंके भी
indiameriwart
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पयडिविहती २
०
१२६४. परिहार • अट्ठावीस - चउवीस तेवीस-बावीस एकवीसविह० कस्स १ अण्ण० संजदस्स | सुहुमसांपराइय० चउवीस-एक्कवीसविह० कस्स अण्ण• उवसामयस्स । एक्कविह० कस्स ? अण्ण० खवयस्स । संजदासंजद • अट्ठावीस चउवीसबिह० कस्स ? अण्ण• दुगई वट्टमाणस्स । तेवीस-बावीस एकवीसविह० कस्स ? अण्ण० मणुस्सस्स मणुस्सिणीए वा । असंजद० अट्ठावीसादि जान एकवीसं ति ओघभंगो ।
O
$ २६ ५ . लेस्साणुवादेण किण्हलेस्साए अट्ठावीस विह० कस्स ? अण्णद ० चउंग मिच्छाइस्म, देवगई विणा तिगइसम्माइहिस्स । छव्वीस सत्तावीसविह० कस्स ? अण्ण० चउगमिच्छाइटिस्स | चउवीसविह० कस्स ? अण्ण० तिगइसम्माइार्डस्स । एकवीसविह० कस्स ? अण्ण० मणुस्स - मणुस्सिणीखइय सम्माइट्ठिस्स । एवं गील- काउलेस्साणं । raft काउलेस्साए बावीसविह० कस्स ? अण्ण० तिगइसम्माइहिस्स अक्खीणदंसणसमझना चाहिये ।
२३०
१२६४. परिहार विशुद्धिसंयतों में अट्ठाईस, चौबीस, तेईस, बाईस और इक्कीस विभक्तिस्थान किसके होते हैं ? किसी भी संयतके होते हैं । सूक्ष्मसांपरायिकशुद्धि संयतोंमें चौबीस और इक्कीस विभक्तिस्थान किसके होते हैं ? किसी भी उपशामक के होते हैं । एक विभक्तिस्थान किसके होता है ? किसी भी क्षपकके होता है । संयतासंयतोंमें अट्ठाईस और चौबीस विभक्तिस्थान किसके होते हैं ? तिर्यच और मनुष्यगतिमें विद्यमान किसी भी जीवके होते हैं । तेईस, बाईस और इक्कीस विभक्तिस्थान किसके होते हैं ? किसी भी मनुष्य या मनुष्यनीके होते हैं । अंसयतोंके अट्ठाईस विमक्तिस्थान से लेकर इक्कीस विभक्तिस्थान तक ओषके समान समझना चाहिये ।
विशेषार्थ - कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि या क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव मरकर यदि तिथेच होता है तो उत्तम भोगभूमिज ही होता है पर वहां संयमासंयमकी प्राप्ति सम्भव नहीं, इसलिये संयतासंयत गुणस्थानमें २२ और २१ ये दो सत्त्वस्थान केवल मनुष्य गतिमें ही बतलाये हैं । शेष कथन सुगम है ।
२६५, लेश्यामार्गणाके अनुवादसे कृष्णलेश्यामें अट्ठाईस विभक्तिस्थान किसके होता है ? चारों गतियोंके मिध्यादृष्टि जीवके और देवगतिको छोड़कर शेष तीन गतियोंके सम्यग्दृष्टि जीवके होता है । छब्बीस और सत्ताईस विभक्तिस्थान किसके होते हैं? चारों गतियोंके किसी भी मिध्यादृष्टि जीवके होते हैं। चौबीस विभक्तिस्थान किसके होता है ? देवगतिको छोड़कर शेष तीन गतियोंके किसी भी सम्यग्दृष्टिके होता है। इक्कीस विभक्तिस्थान किसके होता है ? किसी भी क्षायिक सम्यग्दृष्टि मनुष्य या मनुष्यनीके होता है। इसी प्रकार नील और कपोत लेश्याओंका कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि कापोत के नामें बाईस विभक्तिस्थान किसके होता है ? जिसने दर्शनमोहनी का पूरा क्षय
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गा० २२)
पयडिट्ठाणविहत्तौए सामित्तणिदेसो मोहणीयस्स । एकवीसवीह कस्स ? अण्ण तिगइखइयसम्माइहिस्स । ___६२६६. तेउ-पम्मलेस्सासु अट्ठावीसविह० कस्स ? अण्ण तिगइमिच्छा०-सम्मामि०सम्मादिडीणं । सत्तावीस-छच्चीसविह० कस्स ? अण्ण० तिगइमिच्छाइडिस्म । चउवीसबिह० कस्स ! अण्ण तिगइसम्माइहिस्स । एवमेकवीस० वतव्वं । तेनीसविह. महीं किया है ऐसे नरक, तियच और मनुष्य गतिके किसी भी कृतकृत्यवेदक सम्बग्हष्टिके होता है। इसीस विभक्तिस्थान किसके होता है ? उक्त तीन गतियोंके किसी भी क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवके होता है।
विशेषार्थ-देवगतिके सिवा शेष तीन गतियों में कृष्णलेश्याके रहते हुए सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों प्रकारके जीवोंके २८ प्रकृतिक सत्त्वस्थान बन जाता है यह तो स्पष्ट ही है, किन्तु देवगतिमें कृष्णलेश्याके रहते हुए यह स्थान मिथ्यादृष्टिके ही प्राप्त होता है, क्योंकि कृष्णादि तीन अशुभ लेश्याएं भवनत्रिकमें अपर्याप्त अवस्थामें ही पाई जाती हैं और इनके अपर्याप्त अवस्थामें सम्यग्दर्शन नहीं होता । २७ और २६ प्रकृतिक सत्त्वस्थान चारों गतिके कृष्णलेश्यावाले मिथ्यादृष्टियोंके सम्भव है, क्योंकि ऐसे जीवोंके चारों गतियोमें पाये जानेमें कोई बाधा नहीं। २४ प्रकृतिक सत्त्वस्थान कृष्णलेश्याके रहते हुए देवगतिमें नहीं बतलानेका कारण यह है कि देवगतिमें कृष्णलेश्या अपर्याप्त अवस्थामें भवनत्रिकके पाई जाती है पर वहां सम्यग्दर्शन नहीं होता ऐसा नियम है। कृष्णलेश्यामें २३ और २२ प्रकृतिक सत्त्वस्थान नहीं पाये जाते, क्योंकि वर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ अशुभ लेश्यावाले जीवके नहीं होता। २१ प्रकृतिक सत्त्वस्थान पाया तो जाता है पर यह मनुष्य या मनुष्यनीके ही सम्भव है, क्योंकि क्षायिक सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति हो जानेपर मनुष्यगतिमें छहों लेश्याएँ सम्भव हैं। नीललेश्या और कापोतलेश्यामें भी इसी. प्रकार सत्त्वस्थान प्राप्त होते हैं। किन्तु कापोतलेश्यामें २२ और २१ प्रकृतिक सत्त्वस्थानके सम्बन्धमें कुछ विशेषता है। वात यह है कि प्रथम नरकके नारकी, भोगभूमिज तिर्यच और मनुष्यों के अपर्याप्त अवस्थामें कापोत लेश्या पाई जानेके कारण कापोत लेश्यामें उक्त तीन गतिका जीव २२ और २१ प्रकृतिक सत्त्वस्थानका स्वामी बन जाता है। प्रथम नरकमें कापोतलेश्या ही है और क्षायिकसम्यग्दृष्टि मनुष्यके भी कापोतलेश्या हो सकती है इसलिये इन दो गतिके जीव पर्याप्त अवस्थामें भी २१ प्रकृतिक सत्त्वस्थानके स्वामी हो सकते हैं।
६२६६.पीत और पद्मलेश्यामें अट्ठाईस विभक्तिस्थान किसके होता है ? नरकगतिको छोड़कर शेष तीन गतियों के मिथ्यावृष्टि, सम्यग्मिध्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि जीवके होता है । सत्ताईस और छब्बीस विभक्तिस्थान किसके होते हैं ? उक्त तीन गतियोंके किसी भी मिथ्यादृष्टि जीवके होते हैं । चौबीस विभक्तिस्थान किसके होता है। उक्त तीन गतियों के किसी भी सम्यग्दृष्टि जीवके होता है। इसीप्रकार इक्कीस विभक्तिस्थानका भी कथव
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जयधवनासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ कस्स ? अण्ण मणुस० मणुस्सिणीए वा । वावीसविहती कस्स ? अण्ण. दुगइलक्खीणदंसणमोहणीयस्स । अभवसिद्धि० छच्चीसविह. कस्स ? अण्ण । .... ६२६७.खइयस्स एकवीसविह. कस्स ? अण्ण० चउगइसम्माइहिस्स । सेसमोषभंगो । वेदगसम्माइडिस्स अट्ठावीस-चउवीसविह० कस्स ? अण्ण चउगइसम्माइहिस्स। तेवीसविह० कस्स?मणुस्सस्स मणुस्सिणीए वा । वावीसविह० कस्स? अण्ण० चउगइसम्माइहिस्स अक्खीणदसणमोहणीयस्स | उवसम० अष्ठावीसविह० कस्स ? अण्ण० चउग्महसम्माइहिस्स। चउवीसविह० कस्स ? अण्ण. चउग्गइसम्माइहिस्स विसंजोइदाणंताणुबंधिचउक्कस्स । सासण. अहावीसविह. कस्स ? अण्ण० चउगइसासणसम्माइहिस्स । सम्मामि० अहावीस-चउवीसविह० कस्स ? अण्ण चउगइसम्मामिच्छाइहिस्स। अणाहारि० कम्मइयभंगो।
___ एवं सामित्तं समत्तं । करना चाहिये । तेईस विभक्तिस्थान किसके होता है ? जिसने मिथ्यात्वका क्षय कर दिया है ऐसे किसी भी मनुष्य या मनुष्यनीके होता है। बाईस विभक्तिस्थान किसके होता है ? जिसने दर्शनमोहनीयका पूरा क्षय नहीं किया है ऐसे मनुष्य और देवगतिके किसी भी जीवके बाईस विभक्तिस्थान होता है। अभव्योंमें छब्बीस विभक्तिस्थान किसके होता है ? किसी भी अभव्यके होता है।
६२६७.क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें इक्कीस विभक्तिस्थान किसके होता है ? चारों गतियोंके किसी भी सम्यग्दृष्टिके होता है । क्षायिकसम्यग्दृष्टिके शेष स्थान ओघके समान समझना चाहिये । वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें अट्ठाईस और चौबीस विभक्तिस्थान किसके होते हैं ? चारों गतियोंके किसी भी सम्यग्दृष्टिके होते हैं। तेईस विभक्तिस्थान किसके होता है ? मनुष्य या मनुष्यनीके होता है । बाईस विभक्तिस्थान किसके होता है ? जिसने दर्शनमोहनीयका पूरा क्षय नहीं किया ऐसे चारों गतियोंके किसी भी कृत्यकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीवके होता है। उपशमसम्यग्दृष्टियों में अट्ठाईस विभक्तिस्थान किसके होता है ? चारों गतियोंके किसी भी सम्यग्दृष्टिजीवके होता है। चौबीस विभक्तिस्थान किसके होता है ? जिसने अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना कर दी है, ऐसे चारों गतिके किसी भी उपशमसम्यग्दृष्टिजीवके होता है । सासादनसम्यग्दृष्टियोंमें अट्ठाईस विभक्तिस्थान किसके होता है ? चारों गतिके किसी भी सासादनसम्यग्दृष्टिके होता है। सम्यमिथ्यादृष्टियोंमें अट्ठाईस और चौबीस विभक्तिस्थान किसके होते हैं ? चारों गतिके किसी भी सम्यमिथ्यादृष्टि जीवके होते हैं। कार्मणकाययोगियोंके स्थानोंका जिसप्रकार कथन कर आये हैं उसीप्रकार अनाहारक जीवोंके समझना चाहिये। ४. इसप्रकार स्वामित्वानुयोगद्वार समाप्त हुआ ।
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गा० २२ ]
पयडिट्ठाणविहत्तीए कालो .: *कालो।
६२६८. अहियारसंभालणवयणमेदं । तत्थ कालाणुगमेण दुविहो णिदेसो ओपेण आदेसेण य । तस्थ ओषेण एक्किस्से विहत्तिओ केबचिरं कालादो होदि ? जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुतं । तं जहा-इगिवीससंतकम्मिओ चेव खवणाए अब्भुटेदि, सुद्धसदहणेण विणा चारित्तमोहक्खवणाणुववत्तीदो। तदो सो खवगसेढिमभुष्ट्रिय अणियहिअद्धाए संखेजे भागे गंतूण तदो अकसाए खवेदि । पुणो अंतोमुहुतमुवरि गंतूण थीणगिद्धीतियणिरयगइ-तिरिक्खगइ-णिरयगइपाओग्गाणुपुवी [तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुन्वी] एइंदिय बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिदियजादि-आदावुजोव-थावर-सुहुम-साहारणसरीराणि एदाओ सोलसपयडीओ खवेदि । तदो उपरि अंतोमुहुर गंतूण मणपजवणाणावरणीय-दाणंतराइयाणं सम्वधादिबंधं देसघादिं करेदि । तदो उवरि अंतोमुहुत्वं मंतूण ओहिणाणावरणीय-ओहिदसणावरणीय-लाहंतराइयाणं सब्वधादिबंधं देसघादि करेदि । तदो उवरि अंतोमुहुरा गंतूण सुदणाणावरणीय-अचक्खुदंसणावरणीय-भोगंतराइयाणं सव्वधादिवंध देसधादिं करेदि । तदो उवरि अंतोमुडुत्तं गंतूण चक्खुदंसणावरणीयरस सव्वधादिबंधं
* अब कालानुयोगद्वारका अधिकार है। ....६२६८. कालो' यह वचन अर्थाधिकारका निर्देश करनेके लिए दिया है। . कालानुयोगद्वारकी अपेक्षा ओघ और आदेशके भेदसे निर्देश दो प्रकारका है। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा एक विमक्तिस्थानका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। . .
. .. .: उसका खुलासा इसप्रकार है-जिसके चारित्रमोहनीयकी इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्ता विद्यमान है वही चारित्रमोहकी क्षपणाका प्रारम्भ करता है, क्योंकि क्षायिकसम्यग्दर्शनके विना चारित्रमोहकी क्षपणा नहीं बन सकती। इसप्रकार चारित्रमोहकी इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव क्षपकश्रेणीपर आरोहण करके अनिवृत्तिकरणके कालके संख्यातवें भागको व्यतीत करके अनन्तर अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क और प्रत्याख्यानावरण चतुष्कका क्षय करता है। अनन्तर अन्तर्मुहूर्त बिताकर स्त्यानगृद्वित्रिक, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, तियंचगति, तिथंचगत्यानुपूर्वी, एकेन्द्रियजाति,द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रिवजाति, चतुरिन्द्रियजाति, आताप, उपोत, स्थावर, सूक्ष्मशरीर और साधारणशरीर इन सोलह प्रकृतियोंका क्षय करता है। पुनः अन्तर्मुहूर्त बिताकर मनःपर्ययज्ञानावरण और दानान्तरायके सर्वघातिबन्धको देशघातिरूप करता है। इसके अनन्तर अन्तर्मुहूर्त विताकर अवधिशानावरण; अवधिदर्शनावरण और लाभान्तरायके सर्वघातिबन्धको देशघातीरूप करता है। इसके अनन्तर अन्तर्मुहूर्त विताकर श्रुतज्ञानावरण, अचक्षुदर्शनावरण और भोगान्तरायके सर्वघातिबग्धको देशघातिरूप करता है । इसके अनन्तर अन्तर्मुहूर्त बिताकर चक्षुदर्शना
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [पयडिविहती २ देसघादि करेदि । तदो उवरि अंतोमुहुत्तं गंतूण आभिाणवोहियणाणावरणीय-परिमोगंतराइयाणं सव्वघादिबंधं देसघादि करेदि । तदो उवरि अंतोमुहुर्त गंतूण विरियंतराइयसव्वघादिबंधं देसघादि करेदि । तदो उवरि अंतोमुहुत्तं गंतूण चदुसंजलण-णवणोकसायाणं तेरसण्हं कम्माणमंतरं करेदि, ण अण्णेसि; तेसिं चारित्तमोहत्ताभावादो। अंतरं करेमाणो पुरिसवेद-कोधसंजलणाणं पढमष्ठिदिमतोमुहुत्तपमाणं मोत्तूण अंतरं करेदि, सेसएकारसण्हं कम्माणमुदयावलि मोतूण । तदो कदंतरबिदियसमए मोहणीयस्स आणुपुब्विसंकमो लोभस्स असंकमो मोहणीयस्स एगहाणिओ बंधो एगहाणिओ उदओ णqसयवेदस्स आउत्तकरणसंकामओ सव्वकम्माणं छसु आवलियासु गदासु उदीरणा सव्वमोहणीयस्स संखेज्जवस्सहिदिओ बंधो त्ति एदाणि सत्तकरणाणि जुगवं पारभदि । कयंतरविदियसमयप्पहुडि णqसयवेदं खवेमाणो अंतोमुहुतं गंतूण खवेदि । से काले इत्थिवेदक्खवणं पारमिय तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण तं पि खविजमाणं खवेदि । एदेसिं दोण्हं पि कम्माणं खवणकालो पढमहिदीए संखेजा भागा । तदो इत्थिवेदे खीणे सत्तणोकसाए अंतोमुहुत्तकालेण खवेमाणो सवेददुचरिमसमए पुरिसवेदचिराणसंतकम्म वरणके सर्वघाति बन्धको देशघातिरूप करता है। इसके अनन्तर अन्तर्मुहूर्त बिताकर मतिज्ञानावरण और परिभोगान्तरायके सर्वघातिबन्धको देशघातिरूप करता है। इसके अनन्तर अन्तर्मुहूर्त बिताकर वीर्यान्तरायके सर्वघातिबन्धको देशघातिरूप करता है । इसके अनन्तर अन्तर्मुहूर्त बिताकर चार संज्वलन और नौ नोकषाय इन तेरह काँका अन्तर करता है और दूसरे कर्मोंका अन्तर नहीं करता, क्योंकि और दूसरे कर्म चारित्रमोहनीयके भेद नहीं हैं । उक्त तेरह प्रकृतियोंका अन्तर करते समय पुरुषवेद और क्रोध संज्वलनकी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण प्रथम स्थितिको छोड़कर ऊपरके निषेकोंका अन्तर करता हैं। और अनु. दयरूप शेष ग्यारह कर्मोंकी उदयावलि प्रमाण प्रथम स्थितिको छोड़कर ऊपरके निषकोंका अन्तर करता है।
तदनन्तर अन्तर करनेके दूसरे समयमें क्षपक जीव मोहनीयका आनुपूर्वी क्रमसे संक्रम, लोभका असंक्रम, मोहनीयका एकस्थानिक बन्ध, मोहनीयका एक स्थानिक उदय, नपुंसक वेदका आवृत्तकरण संक्रम, समस्त कर्मोंकी छह आवलीके अनन्तर ही उदीरणाका होना और समस्त मोहनीयका संख्यात हजार वर्ष प्रमाण स्थितिबन्ध इन सात करणोंको एक साथ प्रारंभ करता है। फिर अन्तर करनेके दूसरे समयसे लेकर नपुंसकवेदका क्षय करता हुआ अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कालमें उसका क्षय करता है। उसके अनन्तर स्त्रीवेदकी क्षपणाका प्रारंभ करके अन्तर्मुहूर्त कालमें उसका भी क्षय करता है। इन दोनों ही कर्मोंका क्षपणाकाल प्रथमस्थितिका संख्यात बहुभाग प्रमाण है। इसप्रकार स्त्रीवेदके क्षय हो जाने पर अन्तमुहूर्त कालके द्वारा शेष सात नोकषायोंका क्षय करता हुआ सवेद भागके द्विचरम समयमें
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गा० २२] पयडिट्ठाणविहत्तीए कालो
२३५ छण्णोकसायचरिमफालिं च सव्वसंकमेण कोधसंजलणम्मि संकामेदि । तदो सवेदियचरिमसमयप्पहुडि समयूणदोआवलियमेत्तकालं पंचविहत्तिओ होदि । से काले अवेदओ होण अस्सकण्णकरणं करेमाणो पुरिसवेदणवकबंधं खवेदि । तम्मि खीणे चत्तारि विहत्तिओ होदि । तदो उवरिमंतोमुहुत्तं गंतूण अस्सकण्णकरणे समत्ते चदुण्हं संजलणाणमेकेकिस्से संजलणाए तिण्णि तिण्णि बादरकिट्टीओ अंतोमुहुत्तकालेण करेदि। तदो किड्डीकरणे समते कोधसंजलणस्स तिण्णि किट्टीओ जहाकमेण खवेदि। कोधसंजलणे खविदे तिण्हं विहत्तिओ होदि। तदोजहाकमेण अंतोमुहुत्तकालेण माणसंजलणतिण्णि किडीओ खवेदि । ताघे दोण्हं विहत्तिओहोदि । तदो अंतोमुहुत्तेण कालेण मायासंजलणतिणिकिडीओ खवेमाणो लोभसंजलणपढमकिट्टीए अब्भंतरे दुसमयणदोआवलियमेत्तकालं गंतूण खवेदि । तम्मि खीणे एक्किस्से विहत्तिओ होदि । तदोजहाकमेण दुसमयूणदोआवलियमेत्तकालेणूणो लोभपढमविदियबादरकिट्टीओ लोभसुहुमकिट्टीओ च खवेपुरुषवेदके सत्ता में स्थित पुराने कमाकी और छह नोकषायोंकी अन्तिम फालिका सर्वसंक्रमके द्वारा क्रोध संज्वलनमें संक्रमण करता है। तदनन्तर वेदका अनुभव करने वाला वह जीव सवेदभागके चरम समयसे लेकर एक समय कम दो आवली कालतक पुरुषवेद और चार संज्वलन इन पांच प्रकृतियोंकी सत्तावाला होता है। इसप्रकार सवेद अनिवृत्तिकरणके अनन्तर अवेद अनिवृत्तिकरणके कालमें अवेदक होकर अश्वकर्ण करणको करता हुआ पुरुषवेदके नवकबन्धका एक समयकम दो आवली प्रमाण कालके द्वारा क्षय करता है। इसप्रकार पुरुषवेदके क्षीण हो जानेपर यह जीव चार प्रकृतियोंकी सत्तावाला होता है। अन्तर्मुहूर्त प्रमाणकाल बिताकर अश्वकर्णकरणके समाप्त हो जानेपर अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा चारों सज्वलन कषायोंमेंसे एक एक संज्वलनकी तीन तीन बादरकृष्टियां करता है। इसप्रकार कृष्टिकरणके समाप्त हो जानेपर क्रोधसंज्वलनकी तीनों कृष्टियोंका यथाक्रमसे क्षय करता है। इसप्रकार क्रोधसंज्वलनके क्षीण हो जानेपर यह जीव तीन प्रकृतियोंकी सत्तावाला होता है तदनन्तर अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा मानसंज्वलनकी तीनों कृष्टियोंका यथाक्रमसे क्षय करता है। इसप्रकार मानसंज्वलनके क्षीण होजानेपर उस समय यह जीव दो प्रकृतियोंकी सचावाला होता है। तदनन्तर अन्तर्मुहूर्तकालके द्वारा मायासंज्वलनकी तीन कृष्टियोंका क्षय करता हुआ लोभसंज्वलनकी पहली कृष्टिके भीतर दो समय कम दो आवलीमात्र कालको व्यतीत करके उनका क्षय करता है । इसप्रकार मायासंज्वलनके क्षीण हो जाने पर यह जीव केवल एक लोभप्रकृतिकी सत्तावाला होता है। तदनन्तर लोभकी पहली
और दूसरी बादर कृष्टिका तथा लोभकी सूक्ष्मकृष्टियोंका यथाक्रमसे क्षय करते हुए इस जीवको लोभप्रकृतिके क्षय करनेमें जितना काल लगता है उसमेंसे दो समयकम दो आवलीप्रमाण कालके कम कर देनेपर जो काल शेष रहता है वह एक प्रकृतिरूप स्थानका
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [पयडिकिहत्ती २ माणस्स जो कालो सो एगबिहत्तियस्स जहण्णकालो होदि । ___६२६६. उकस्सकालो वि अंतोमुहुत्तं । तं जहा-पुरिसवेद-लोभसंजलणाणं उदएण जो खवगसेदि चडिदो सो कोधसंजलणोदएण खवगसेटिं चडिदस्स अस्सकण्णकरणकाले कोधसंजलणं फद्दयसरूवेण खवेदि । कोधसंजलणोदएण खवगसेटिं चडिदस्स किट्टीकरणकाले माणसंजलणं फद्दयसरूवेण खवेदि । कोधसंजलणोदएण खवगसेटिं चडिदो जेण कालेण कोधसंजलणतिण्णिकिडीओ वेदयमाणो खवेदि तम्हि व हाणे तेणेव कालेण एसो मायासंजलणं फद्दयसरूवेण खवेदि । कोधोदएण चडिदो जम्मि माणकिटीओ खवेदि तम्हि लोहोदएण चडिदो एगविहत्तिओ होदूण अस्सकपणकरणं करेदि । कोधोदएण खवगसेढिं चडिदो जम्मि मायाए तिषिण किहीओ खवेदि तम्मि उद्देसे तेणेव कालेण लोभस्स तिणि किट्टीओ करेदि। कोधोदएण जम्मि काले लोभपढमविदियबादरकिडीओ सुहुमकिट्टि च वेदेदि लोहोदएण खवगसेटिं चडिदो लोभकिडीओ तम्हि चेव उद्देसे तेणेव कालेण खवेदि । संपहि कोहोदएण जघन्य काल होता है।
६२६१.तथा एक प्रकृतिक स्थानका उत्कृष्ट कालभी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होता है। वह इसप्रकार है-पुरुषवेद और लोभसंज्वलनके उदयसे जो क्षपकश्रेणीपर चढ़ता है वह जीव, क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़े हुए जीवका जो अश्वकर्णकरणका काल है, उस कालमें क्रोधसंज्वलनका स्पर्धकरूपसे क्षय करता है । तथा क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़े हुए जीवके क्रोधसंज्वनके कृष्टिकरणका जो काल है पुरुषवेद और लोभसंचलनके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़ा हुआ जीव उस कालमें मानसंज्वलनका स्पर्धकरूपसे क्षय करता है। तथा क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़ा हुआ जीव जिस काल में क्रोधसंज्वलनकी तीन कृष्टियोंका अनुभव करता हुआ उनका क्षय करता है, पुरुषवेद
और लोभसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़ा हुआ जीव उसी स्थानमें और कालमें मायासंज्वलनका स्पर्धकरूपसे क्षय करता है । क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपक श्रेणीपर चढ़ा हुआ जीव जिस समय मानकी तीन कृष्टियोंका क्षय करता है लोभके उदयसे चढ़ा हुआ जीव उस समय एक प्रकृतिकी सत्तावाला होकर अश्वकर्ण क्रियाको करता है। क्रोधके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़ा हुआ जीव जिस समय मायाकी तीन कृष्टियोंका क्षय करता है लोभके उदयसे क्षपक श्रेणीपर चढ़ा हुआ जीव उसी स्थानमें और उसी कालके द्वारा लोभकी तीन कृष्टियां करता है। क्रोधके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़ा हुआ जीव जिस समय लोभकी पहली और दूसरी बादर कृष्टियोंका तथा सूक्ष्मकृष्टिका वेदन करता है लोभके उदयसे क्षपक श्रेणीपर चढ़ा हुआ जीव उसी स्थानमें और उसी कालके द्वारा लोभकी तीन कृष्टि. योंका क्षय करता है। इसप्रकार क्रोधके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़े हुए जीवके दो समय
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गा० २२]
पयडिट्ठाणविहत्तीए कालो खवगसेढिं चडिदस्स जो माणतिण्णिकिट्टीवेदयकालो दुसमयूणदोआवलियपरिहीणो मायासंजलणतिण्णिकिट्टीवेदयकालो लोभपढमविदियबादराकिट्टीणं सुहुमकिडीए च जो वेदयकालो सो एकिस्से वित्तियस्स उक्कस्सकालो होदि । जहण्णकालादो उक्कस्सकालो अंतोमुहुत्तभावेण सारिसो होदूण संखेजगुणो । ___ * एवं दोण्हं तिण्हं चदुण्हं विहत्तियाणं ।
६२७०.जथा एक्किस्से विहत्तियस्स जहण्णुक्कस्सकालो अंतोमुहुत्तं तहा एदेसिपि जहण्णुकस्सकालो अंतोमुहुतं चेव । तं जहा-दोण्हं विहतियस्स ताव उच्चदे, कोधोदएण खवगसेटिं चडिय माणतिण्णिकिट्टीओ खवेमाणो मायाए पढमकिट्टीवेदयकालमंतरे दुसमयूणदोआवलियमेत्तकालं गंतूण माणणवकबंधं खवेदि से काले दोण्हं विहत्तिओ होदि । पुणो मायासंजलणपढमावदियतदियकिट्टीओ खवेमाणो मायासंजलणणवकबंध लोभसंजलणपढमकिहीवेदगकालभंतरे दुसमयणदोआवलियमेत्तकालं गंतूण खवेदि तेण मायासंजलणतिण्णिकिट्टीवेदयकालो सयलो दोण्हं विहतियस्स जहण्णकालो होदि । दोण्हं कम दो आवलियोंसे न्यून मानकी तीन कृष्टियोंका जो वेदक काल है और माया संज्वलनकी तीन कृष्टियोंका जो वेदक काल है, और लोभसंज्वलनकी पहली और दूसरी बादरकृष्टियोंका तथा सूक्ष्मकृष्टिका जो वेदक काल है वह सब लोभके उदयसे क्षपक श्रेणीपर चढ़े हुए जीवके एक प्रकृतिरूप स्थानका उत्कृष्ट काल होता है। एक प्रकृतिरूप स्थानके जघन्यकालसे उसीका उत्कृष्ट काल सामान्यकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त होता हुआ भी संख्यातगुणा है अर्थात् अन्तर्मुहूर्त सामान्यकी अपेक्षा दोनों काल समान हैं फिर भी जघन्यकालसे उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है।
* इसीप्रकार दो, तीन और चार प्रकृतिक सच्चस्थानोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है।
$२७०.जिस प्रकार एक प्रकृतिकस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कहा है उसीप्रकार इन स्थानोंका भी जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त समझना चाहिये । वह इस प्रकार है। उसमें पहले दो प्रकृतिक स्थानका जघन्य और उत्कृष्टकाल कहते हैं-क्रोधके उदयसे क्षपक श्रेणीपर चढ़नेवाला जीव मानसंज्वलनकी तीन कृष्टियोंका क्षय करता हुआ मायाकी पहली कृष्टिके वेदन करनेके कालमेंसे दो समय कम दो आवलीप्रमाण कालके व्यतीत होनेपर संज्वलनमानके नवक समयप्रबद्धका क्षय करता है और इसप्रकार यह जीव दो प्रकृतिरूप स्थानका स्वामी होता है। पुनः मायासंज्वलनकी पहली, दूसरी और तीसरी कृष्टिका क्षय करता हुआ लोभसंज्वलनकी पहली कृष्टिके वेदन करनेके कालमेंसे दो समय फम दो आवली प्रमाण कालके जानेपर मायासंज्वलनके नवक समयप्रबद्धका क्षय करता है। अतः माया संम्वलनकी तीन कृष्टियोंका समस्त वेदककाल दो प्रकृतिक स्थानका जघन्यकाल
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जयपवलासहिदे कसायपाहुडे । पयडिविहची २ विहत्तियाणमुक्कस्सकालो पुण मायासंजलणोदएण खवगसेढिं चडिदस्स अस्सकण्णकरणकालं किट्टीकरणकालं मायातिण्णिकिट्टीवेदयकालं च घेत्तूण होदि । कुदो पुरिसवेदमाओदएण जो खवगसेढिं चाडदो सो कोधोदएण चडिदस्स अस्सकण्णकरणकाले कोचं फद्दयसरूवण खवेदि । कोधोदएण चडिदस्स किट्टीकरणकाले माणं फद्दयसरूवण खवेदण दोण्हं विहत्तिओ होदि । तदो कोधकिट्टीवेदयकालम्मि मायालोभसंजलणाणमस्स (कण्ण) करणं करेदि । पुणो माणकिट्टीवेदयकालम्मि मायालोभसंजलणकिसीओ करेदि । तदो मायासंजलणाए अप्पणो तिण्णिकिट्टीओ पुष्वविधाणेण खविय एकिस्से विहत्तिओ होदि ति।
६ २७१. तिण्डं विहत्तियस्स जहण्णकालो अंतोमुहुतं । तं जहा-पुरिसवेदकोषसंजलणाणमुदएण जो खवगसेढिं चडदि सो कोधसंजलणतिण्णिकिट्टीओ खवेमाणो माणपढमकिट्टीअभंतरे दुसमयूणदोआवलियमेत्तकालं गंतूण कोघणवकबंधं खवेदि तिण्हं विहत्तिओ होदि । पुणो माणसंजलणतिण्णिकिडीओ खवेमाणो मायासंजलणपढमकिट्टीहोता है । दो प्रकृतिकस्थानका उत्कृष्ट काल तो मायासंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़े हुए जीवके अश्वकर्णकरणके कालको मायासंज्वलनके कृष्टिकरणके कालको और मायासंज्वलनके तीन कृष्टियोंके वेदककालको मिला कर होता है। इसका कारण यह है कि जो जीव पुरुषवेद और मायाके उदयके साथ क्षपकश्रेणीपर चढ़ा है वह, क्रोधके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़े हुए जीवके क्रोधसंज्वलनके अश्वकर्णकरणका जो काल है उस कालमें क्रोधका स्पर्धकरूपसे क्षय करता है। क्रोधके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़े हुए जीवके क्रोधसंज्वलनके कृष्टिकरणका जो काल है मायासंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़ा हुआ जीव उस कालमें मानका स्पर्धकरूपसे क्षय करके दो प्रकृतिरूप स्थानका मालिक होता है। तदनन्तर क्रोधके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़ा हुआ जीव जिस समय क्रोधकी तीन कृष्टियोंका वेदन करता है उस समय, मायाके उदयसे क्षपक श्रेणीपर चढ़ा हुआ जीव माया और लोभसंज्वलनकी अश्वकर्णक्रियाको करता है। तदनन्तर क्रोधके उदयसे आपकश्रेणी पर चढ़ा हुआ जीव जिस समय मानकी तीन कृष्टियोंका वेदन करता है उस समय, मायाके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़ा हुआ जीव माया और लोभसंज्वलनकी तीन कृष्टियोंको करता है। तदनन्तर मायाके उदयसे क्षपक श्रेणीपर चढ़ा हुआ वह जीव मायासंज्वलन सबन्धी अपनी तीन कृष्टियोंका पूर्वोक्त विधि के अनुसार क्षय करके एक प्रकृतिकी सत्तावाला होता है।
६२७१.तीन प्रकृतिक स्थानका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है । वह इसप्रकार है-पुरुषवेद और क्रोधसंज्वलनके उदयसे जो क्षपकश्रेणीपर चढ़ता है वह क्रोधसंज्वलनकी तीन कृष्टियोंका क्षय करके मानसंज्वलनकी पहली कृष्टिके कालमेंसे दो समय कम दो आवली प्रमाण कालके जानेपर क्रोधसंज्वलनके नवक समयप्रबद्धका क्षय करता है और तब तीन प्रकृतिकस्थानका
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गा० २२ ]
tfsgueire कालो
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अन्यंतरे दुसमयूणदो आवलियमेतकालं गंतूण जेण खवेदि तेण माणसंजलण तिण्णि किट्टीखवणकालो तिरहं विहसियस्स जहण्णकालो होइ । तस्सेव उक्कस्सकालो बुच्चदे । तं जहा - जो पुरिसवेद - माणोदएण खवगसेटिं चार्डदो सो कोधोदएण खवगसेटिं चडिदस्स अस्सकण्णकरणकाले कोधसंजलणं फहयसरूवेण खवेदि । ताघे तिन्हं विहसिओ होदि । तदो कोघोदएण चाडदस्स किट्टीकरणकाले माण - माया - लोभसंजलणाणमस्सकण्णकरणं करेदि । कोधोदयक्खवगस्स कोधतिण्णि किट्टीवेदयकालम्मि माण- माया-लोभसंजलणाणं किट्टीओ करेदि । तदो माणसंजलणतिष्णिकिट्टीओ खवेमाणो मायासंजलणपढमकिट्टीअन्तरे दुसमयूणदो आवलियमेत्तकालं गंतूण माणणवकबंधं जेण खवेदि तेण माणोदयक्खवगस्स अस्सकण्णकरणकालो किट्टीकरणकालो किट्टीवेदयकालो च तिन्हं विहत्तियस्स उस्सकालो होदि ।
६२७२. उन्हं विहत्तियस्स जहण्णकालो वुच्चदे । तं जहा - पुरिस वेदमाणोस्वामी होता है । पुनः मानसंज्वलनकी तीन कृष्टियोंका क्षय करता हुआ मायासंज्वलन की पहली कृष्टिके कालमें से दो समय कम दो आवली प्रमाण कालके जानेपर चूंकि उनका क्षय करता है इसलिये मानसंज्वलनकी तीन कृष्टियोंका जो क्षपणकाल है वह तीन प्रकृतिक स्थानका जघन्यकाल होता है ।
अब तीन प्रकृतिक स्थानका उत्कृष्टकाल कहते हैं वह इस प्रकार है- जो पुरुषवेद और मानसंज्वलन के उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़ा है वह जीव क्रोधसंज्वलन के उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़े हुए जीवके क्रोधके अश्वकर्णकरणका जो काल है उस कालमें क्रोधसंज्वलनका स्पर्धकरूपसे क्षय करता है । और तब वह जीव तीन प्रकृतिक स्थानका स्वामी होता है । तदनन्तर क्रोध के उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़े हुए जीवके क्रोधसंज्वलनके तीन कृष्टियोंके करने का जो काल है उसकालमें, मानके उदयसे क्षपक श्रेणीपर चढ़ा हुआ जीव मान, माया और लोभसंज्वलनकी अश्वकर्णक्रियाका करता है । तथा क्रोधके उदयसे क्षपक श्रेणीपर चढ़े हुए जीवके क्रोधकी तीन कृष्टियोंके वेदनका जो समय है, मानके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़ा हुआ जीव उस समय मान, माया और लोभसंज्वलनकी तीन कृष्टियां करता है । तदनन्तर मानसंज्वलनकी तीन कृष्टियोंका क्षपण करता हुआ माया संज्वलनकी पहली कृष्टिके कालमेंसे दो समय कम दो आवली प्रमाण कालके जानेपर मानके नवकवन्धका चूंकि क्षय करता है इसलिये मानके उदयसे क्षपक श्रेणीपर चढ़े हुए जीवके अश्वकर्णकरणकाल, कृष्टिकरणकाल और कृष्टिवेदककाल यह सब मिलकर तीन प्रकृतिकस्थानका उत्कृष्टकाल होता है ।
$२७२. अब चार प्रकृतिरूप स्थानका जघन्यकाल कहते हैं। वह इसप्रकार है- जो पुरुष वेद और मानके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़ा है वह जीव, क्रोधसंज्वलन के उदयसे क्षपक
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे .
[पयडिविहत्ती २
दएण जो खवगसेटिं चडिदो सो कोधसंजलणोदयक्खवयस्स अस्सकणकरणकालम्मि दुसमयूणदोआवलियमेत्तकालं गंतूण पुरिसवेदणवकबंधं खवेदि, ताधे चउण्हं विहतिओ होदि । तदो कोधसंजलणं फद्दयसरूवेण खवमाणो माणोदयक्खवयस्स अस्सकण्णकरणकालभंतरे दुसमयूणदोआवलियमेत्तकालं गंतूण कोधसंजलणणवकबंधे खविदे जेण तिण्हं विहत्तिओ होदि, तेण कोधसंजलणस्स फद्दयसरूवेण खवणद्धा चदुण्हं विहत्तियस्स जहण्णकालो होदि । तस्सेव उक्कस्सकालो वुच्चदे । तं जहा-इत्थिवेदकोधोदएण जो खवगसेढिं चडिदो सो सवेदियचरिमसमए पुरिसवेदबंधगो होदूण तदो अंतोमुहुसमुवरि गंतूण पुरिसवेदेण सह छण्णोकसाएसु खीणेसु जेण चत्तारि विहत्तिओ होदि तेण कोधोदयक्खवगस्स अस्सकण्णकरणकालो किट्टीकरणकालो किट्टीवेदयकालो च दुसमयणदोआवलियब्भहिओ चउण्हं विहत्तियरस उक्कस्सद्धा। श्रेणीपर चढ़े हुए जीवके क्रोधसंज्वलनके अश्वकर्णकरणका जो काल है उसमें दो समयकम दो आवली प्रमाण कालके जानेपर पुरुषवेदके नवकबन्धका क्षय करता है। तब जाकर चार प्रकृतिरूप स्थानका स्वामी होता है। तदनन्तर क्रोधसंज्वलनका स्पर्धकरूपसे क्षय करता हुआ वह जीव चूंकि मानके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़े हुए जीवके अश्वकर्णकरणके कालमें दो समय कम दो आवली प्रमाण काल के व्यतीत होनेपर क्रोधसंज्वलनके नवकबन्धका भय करके तीन प्रकृतिक स्थानका खामी होता है इसलिये क्रोधसंज्वलनके स्पर्धकरूपसे क्षय होनेका जो काल है वह चार प्रकृतिक स्थानका जघन्य काल है। . अब इसी चार प्रकृतिक स्थानका उत्कृष्टकाल कहते हैं । वह इसप्रकार है-जो जीव स्त्रीवेद और क्रोधके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़ा है वह सवेदभागके चरम समयमें पुरुषवेदका बन्धक होकर अन्तर्मुहूर्त बिताकर पुरुषवेदके साथ छह नोकषायोंके क्षीण हो जानेपर चूंकि चार प्रकृतिक स्थानका स्वामी होता है इसलिये क्रोधके उदयसे क्षपक श्रेणीपर चढ़े हुए जीवके अश्वकर्णकरणकाल, कृष्टिकरणकाल और दो समयकम दो आवलियोंसे अधिक कृष्टिवेदककाल यह सब मिलाकर चार प्रकृतिरूप स्थानका उत्कृष्ट काल होता है।
विशेषार्थ-एक, दो, तीन और चार विभक्तिस्थानोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल किस प्रकार प्राप्त होता है इस विषयका ठीक तरहसे ज्ञान करानेके लिये नीचे कोष्ठक दिया जाता है। इससे दो बातें जानी जाती हैं। एक तो यह कि किस कषायके उदयके साथ क्षपकश्रेणी पर चढ़े हुए जीबके चार कषायोंकी क्षपणा किस प्रकार होती है। और दूसरी यह कि किसी एक कषायके उदयसे क्षपक श्रेणीपर चढ़े हुए जीवके जिस समय अमुक क्रिया होती है उसी समय दूसरी कषायके उदयसे क्षपक श्रेणीपर चढ़े हुए जीवके कौनसी क्रिया होती है। .
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गा० २२ ]
काल
अन्त
मुहूर्त
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1:3
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ܕܕ
क्रोध के उदयसे
चारों कषायों का अश्वकर्णकरण
क्रोध, मान, माया व लोभकी १२ कृष्टिकरण
क्रोध तीन कृष्टि क्षय ( नव कबन्ध के बिना)
मान तीन कृष्टि क्षय ( नवबन्धके बिना )
पावती कालो
मानके उदयसे
क्रोधक्षय
| (नवबन्धके बिना)
मान, माया व लोभका अश्वकर्ण करण
मायाके उदय से
लोभके उदयसे
क्रोधक्षय
क्रोधक्षय (नवकबन्धके बिना) ( नवकबन्ध के बिना)
मानक्षय
मानक्षय
| ( नवकबन्ध के बिना) | ( नवकबन्ध के बिना)
मान, माया व लोभकी माया और लोभका ९ कृष्टि करण अश्वकर्ण करण
मान तीन कृष्टि क्षय | ( नवकबन्धके बिना)
माया व लोभकी ६ कृष्टि करण
२४१
| माया तीन कृष्टि क्षय ( नव कबन्ध के बिना)
माया तीन कृष्टि क्षय (नवकबन्धके बिना)
लोभ तीन कृष्टि क्षय
लोभ तीन कृष्टि क्षय
लोभ तीन कृष्टि क्षय लोभ तीन कृष्टि क्षय श्रीवेद के उदयसे जो जीव क्षपकश्रेणीपर चढ़ता है वह छह नोकषाय और पुरुषवेदका एक साथ क्षय कर देता है, अतः स्त्रीवेदके उदयके साथ क्षपक श्रेणीपर चढ़े हुए जीवके अश्वकर्णकरणके कालमें या स्पर्धकरूपसे क्रोधक्षयके कालमें पुरुषवेदके नवकबन्ध क्षयको प्राप्त न होकर पहले ही निर्जरित होजाते हैं । पर जो जीव पुरुषवेद या नपुंसक वेदके उदय के साथ क्षपकश्रेणीपर चढ़ता है उसके अश्वकर्णकरणके कालमें या क्रोधक्षयके कालमें दो समय कम दो आवलि काल तक पुरुषवेदके नवकबन्ध रहते हैं । कोष्ठक के प्रथम नम्बरके चारों खानों में इतनी विशेषता है जो उनमें नहीं दिखाई गई है। अतः इस विशेषताको ध्यान में रखना चाहिये; क्योंकि इतनी विशेषताको ध्यान में रखकर कोष्ठक के ऊपरसे उक्त चारों स्थानोंके जघन्य और उत्कृष्ट कालके ले आनेमें सरलता होती है। अब आगे उन्हीं कालोंको कोष्ठकके ऊपरसे समझानेका प्रयत्न किया जाता है- जो जीव क्रोध, मान या मायाके उदयसे क्षपक श्रेणीपर चढ़ेगा उसके एक विभक्ति स्थानका जघन्य काल दो समय न्यून दो आवलीकम अन्तर्मुहूर्त होगा । यह बात छठे नम्बरके प्रारम्भके तीन खानोंसे भली भांत ज्ञात हो जाती है । अन्तर्मुहूर्त कालमें से दो समय कम दो आवलिकाल कम करनेका कारण यह है कि लोभकी तीन कृष्टियोंके क्षय काल में दो समय कम दो आवलिकाल तक मायाके नवकबन्ध पाये जाते हैं । इसीप्रकार इतना काल कम करने का कारण अन्यत्र भी जानना । तथा जो जीव लोभके उदय से क्षपकश्रेणीपर चढ़ेगा उसके एक विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल प्राप्त होगा । यह बात लोभके उदयसे क्षपक श्रेणीपर चढ़े हुए
३१
माया तीन कृष्टि क्षय (नवकबन्ध के बिना)
मायाक्षय
( नवकबन्धके बिना)
लोभका अश्वकर्ण करण
लोभ ३ कृष्टि करण
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२४२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे .
[पयडिविहत्ती २
जीवके कोष्ठकके जो छह खाने दिये हैं उनमेंसे अन्तिम तीन खानोंसे जानी जाती है। यहां लोभका अश्वकर्णकरण,लोभकी तीन कृष्टिकरण और लोभकी तीन कृष्टियोंका क्षय, इस कालमेंसे दो समय कम दो आवली कम कर देनेपर एक विभक्ति स्थानका उत्कृष्टकाल प्राप्त होता है। दो विभक्तिस्थानका जघन्य काल क्रोध या मानके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़े हुए जीवके होता है यह बात ऊपरसे पांचवें नम्बरके प्रारम्भके दो खानोंसे जानी जाती है। वहां मायाकी तीन कृष्टियोंके क्षयका जो काल बतलाया है वही दो विभक्तिस्थानका जघन्य काल है। यद्यपि मायाके नवकबन्धका क्षय लोभ कृष्टिक्षयके कालमें होता है, अतः दो विभक्तिस्थानका दो समय कम दो आवलिकाल और कहना चाहिये था, पर मायाकृष्टि क्षयके काल में दो समय कम दो आवलिकाल तक मानके नवक बन्धका क्षय होता रहता है अत: यदि अन्तमें इतना काल बढ़ाया जाता है तो प्रारम्भमें उतनाही काल घटाना पड़ता है। इसलिये इस घटाने और बढ़ानेकी विधिको छोड़कर मायाकी तीन कृष्टियोंके क्षयका काल दो विभक्तिस्थानका जघन्य काल है ऐसा कहा । तथा जो जीव मायासंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़ता है उसके दो विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट काल होता है । यह बात मायाके उदयसे क्षपकक्षेणीपर चढ़े हुए जीवके जो छह खाने दिये हैं उनमेंसे तीसरे, चौथे और पांचवें नम्बरके खानोंसे जानी जा सकती है। तीन विभक्तिस्थानका जघन्य काल क्रोधके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़े हुए जीवके होता है। यह बात ऊपरसे प्रारम्भके चौथे खानेसे जानी जानी जा सकती है। विशेष कथन जिस प्रकार दो विभक्तिस्थानके जघन्य कालके कहते समय कर आये हैं उसी प्रकार यहां जानना । तथा तीन विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट काल मानसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़े हुए जीवके होता है। यह बात मानके उदयसे क्षपकश्रेणी पर चढ़े हुए जीवके जो छह खाने दिये हैं उनमेंसे प्रारम्भके दूसरे, तीसरे और चौथे खानेसे जानी जा सकती है। चार विभक्तिस्थानका जघन्यकाल स्त्रीवेदके विना शेष दो वेदोंमेंसे किसी एकके साथ मान, माया व लोभके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़े हुए जीवके होता है। यह बात प्रथम नम्बरके कोष्ठकके अन्तके तीन खानोंसे जानी जाती है। तथा चार विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट काल स्त्रीवेद और क्रोधके उदयके साथ क्षपकश्रेणीपर चढ़े हुए जीवके होता है यह बात क्रोधके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़े हुए जीवके जो छह खाने दिये हैं उनमेंसे प्रारम्भके तीन खानोंसे जानी जाती है। यहां स्त्रीवेदके उदयकी प्रधानतासे उत्कृष्ट काल इसलिये कहा है कि ऐसे जीवके चारों कषायोंके अश्वकर्णकरणके कालमें पुरुषवेदके नवकबन्ध नहीं रहते। अतः अन्यवेदके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए जीवकी अपेक्षा स्त्रीवेदके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़े हुए जीवके दो समय कम दो आवलि काल अधिक प्राप्त होता है। इसप्रकार एक, दो, तीन और चार विभक्तिस्थानोंका जघन्य व उत्कृष्ट काल जानना जाहिये ।
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गौ ० २३ ]
पयडिट्ठाणविहत्तीए कालो
२४३
* पंचहं विहत्तिओ केवचिरं कालादो ? जहण्णुक्कस्सेण दोआवलियाओ समयूणाओ ।
९ २७३. कुदो ? कोधसंजलणपुरिसवेदोदएण क्खवगसेटिं चडिदस्स सवेदिय दुचरिमसमए छण्णोकसाएहि सह खविदपुरिसवेदचिराणसंतस्स सवेदिय चरिमसमए समयूणदोआवलियमेत पुरिसवेदणवकसमयपबद्धाणमुवलंभादो । चिराणसंतसमयपनद्धाणं व णवकबंध सव्वसमयपबद्धाणमेक्कसराहेण विणासो किण्ण होदि ? ण, बंधावलियाए अहकंताए पुणो संकमणआवलिय चरिमसमए सव्वणवकबंधाणं णिस्संतभावुवलंभादो । ते च समयूणदोआवलियणवकसमयपबद्धा कमेणेव परसरूवेण गच्छंति बंधावलियसंकमणावलियचरिमसमयाणं सव्वसमयपबद्ध संबंधियाणमकमेण समत्तीए अभावादो ।
* पांच प्रकृतिक स्थानका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कम दो आवलीप्रमाण है ।
१२७३. शंका- पांच प्रकृतिक स्थानका एक समय कम दो आवलीप्रमाण काल क्यों है ?
समाधान - क्योंकि जो क्रोधसंज्वलन और पुरुषवेदके उदयके साथ क्षपकश्रेणीपर चढ़ा है, अतएव जिसने सवेदभागके द्विचरम समय में छह नोकषायोंके साथ पुरुषवेदके सत्ता में स्थित पुराने कर्मोंका नाश कर दिया है, उसके सवेदभागके चरम समय में एक समय कम दो आवली प्रमाण कालतक स्थित रहनेवाले पुरुषवेदसंबन्धी नवक समयप्रबद्ध पाये जाते हैं। अतः पांच प्रकृतिक स्थानका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कम दो आवली होता है। शंका- पुराने सत्कर्मोंके समान सम्पूर्ण नवक समयप्रबद्धोंका उसीसमय एकसाथ नाश क्यों नहीं हो जाता ?
समाधान- नहीं, क्योंकि बन्धावलिके व्यतीत हो जानेके अनन्तर संक्रमणावलिके अन्तिम समय में सम्पूर्ण नवक समयप्रबद्धों का विनाश देखा जाता है, इसलिये पुराने सत्कर्मो के साथ नवक समयप्रबद्धोंका नाश नहीं होता ।
तथा एक समय कम दो आवलीप्रमाण वे नवक समयप्रबद्ध क्रमसे ही परप्रकृतिरूपसे संक्रान्त होते हैं, क्योंकि सम्पूर्ण समयप्रबद्धसम्बन्धी बन्धावलि और संक्रमणावलिके अन्तिम समयकी एकसाथ समाप्ति नहीं हो सकती ।
विशेषार्थ - यह तो हम पहले ही बतला आये हैं कि स्त्रीवेदके उदयके साथ क्षपक श्रेणीपर चढ़े हुए जीवके छह नोकषायोंकी क्षपणाके साथ पुरुषवेदका क्षय हो जाता है अतः ऐसे जीव के पांच विभक्तिस्थान नहीं होता । पर जो पुरुषवेद या नपुंसकवेदके उदयके साथ क्षपकश्रेणीपर चढ़ता है उसके छह नोकषायोंके क्षपणाके कालमें पुरुषवेदका क्षयतो होता है पर ऐसे जीव के पुरुषवेदके दो समयकम दो आवलीप्रमाण नवकबन्ध समयप्रबद्धों को अतः यह जीव दो समय कम दो आबली काल तक
छोड़कर शेषका ही क्षय होता है ।
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२४४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ( पयडिविहत्ती २ * एकारसण्हं बारसण्हं तेरसण्हं विहत्ती केवचिरं कालावो होदि ? जहण्णुकस्सेण अंतोमुहुत्तं ।।
२७४. एक्कारसविहत्तीए ताव उच्चदे । तं जहा-अण्णदरवेदोदएण खवगसेटिं चडिय इत्थिणqसयवेदेसु खविदेसु एक्कारसविहत्ती होदि । ताव सा होदि जाव छण्णोकसाया परसरूवेण ण गच्छंति । एसो एक्कारसविहत्तीए जहण्णकालो । उक्कस्सओ वि छण्णोकसायखवणकालो चेव अण्णत्थ एक्कारसविहत्तीए अणुवलंभादो । णवरि, छण्णोकसायखवणजहण्णकालादो उक्कस्सकालण विसेसाहिएण संखेजगुणेण वा होदव्वं, अण्णहा एक्कारसविहत्तिकालस्स जहण्णुक्कस्सविसेसणाणुववत्तीदो। अहवा जहण्णकालो उक्कस्सकालो च सरिसो छण्णोकसायखवणद्धामेत्तत्तादो । ण च छण्णोकसायरखवणद्धा अणवाहिदो सव्वेसि पि जीवाणं सरिसेत्ति भणंताणमाइरियाणमुवदेसालंबणादो । ण च पांच विभक्तिस्थान वाला रहता है । यही सबब है कि पांच विभक्तिस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट काल दो समयकम दो आवलिप्रमाण बतलाया है।
* ग्यारह, बारह और तेरह प्रकृतिक स्थानका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूते है।
- १२७४. पहले ग्यारह प्रकृतिक स्थानका काल कहते हैं। वह इसप्रकार है-तीनों वेदोमेंसे किसी एक वेदके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़कर स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके क्षपित हो जानेपर ग्यारह प्रकृतिक स्थान होता है। यह स्थान तबतक होता है जबतक छह नोकषाय परप्रकृतिरूपसे संक्रान्त नहीं होती हैं । ग्यारह प्रकृतिक स्थानका यह जघन्य काल है। इस स्थानका उत्कृष्ट काल भी छह नोकषायोंके क्षपणाका जितना काल है उतना ही होता है, क्योंकि छह नोकपायोंके क्षपणोन्मुख जीवको छोड़कर अन्यत्र ग्यारह प्रकृतिक स्थान नहीं पाया जाता है। इतनी विशेषता है कि छह नोकषायोंकी क्षपणाके जघन्य कालसे छह नोकषायोंकी क्षपणाका उत्कृष्ट काल विशेषाधिक होना चाहिये या संख्यातगुणा होना चाहिये । यदि ऐसा न माना जाय तो ग्यारह प्रकृतिक स्थानके कालके जो जघन्य और उत्कृष्ट विशेषण दिये हैं वे नहीं बन सकते हैं। अथवा, उक्त स्थानका जघन्यकाल और उत्कृष्टकाल समान है; क्योंकि दोनों काल छह नोकषायोंकी क्षपणामें जितना समय लगता है तत्प्रमाण हैं। यदि कहा जाय कि छह नोकषायोंकी क्षपणाका काल अनवस्थित है अर्थात् भिन्न भिन्न जीवोंके भिन्न भिन्न होता है सो ऐसा कहना भी युक्त नहीं है, क्योंकि सभी जीवोंके छह नोकषायोंकी क्षपणाका काल सदृश है, इसप्रकारका कथन करनेवालोंको आचार्योंके उपदेशका आलम्बन है, अर्थात् आचायाँका इसप्रकारका उपदेश पाया जाता है। यदि कहा जाय कि ऐसी अवस्थामें ऊपर चूर्णिसूत्रमें कालके जो जघन्य और उत्कृष्ट विशेषण दे आये हैं वे निष्फल हो जायँगे सो ऐसा कहना भी युक्त नहीं है, क्योंकि दोनों विशेषण विवक्षाभेदसे दिये गये हैं, इसलिये
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गा०२३]
पयडिहाणविहत्तीए कालो जहण्णुक्कस्सविसेसणं णिफलत्तमल्लियइ, विवक्खाविसयाणं दोण्हं णिप्फलतविरोहादो। - ६२७५. बारसविहत्तीए उक्कस्सकालो अंतोमुहुत्तं । तं जहा-इत्थिवेदेण वा पुरिसवेदेण वा खवगसेटिं चडिय णqसयवेदं खविय जावित्थिवेदं ण खवेदि ताव बारसविहत्तियरस उकरसकालो अंतोमुहुत्तमेसो। जहण्णकालो बारसविहत्तीए किण्ण वुत्तो ? उवरि भणिस्समाणत्तादो
२७६. तेरसविहत्तियस्स जहष्णकालो अंतोमुहुत्तं । तं जहा-इत्थिवेदेण वा पुरिसवेदेण वा खवगसेटिं चडिय अहकसाएसु खविदेसु तेरसविहत्ती होदि । सा ताव होदि जाव णqसयवेदसव्वसंकमचरिमसमओ ति । एसो तेरहविहत्तीए जहण्णओ अंतोमुहुत्तकालो। संपहि उक्कस्सो वुच्चदे। तं जहा-णqसयवेदोदयेण खवगसेटिं चढिय अट्ठकसाएसु खविदेसु तेरसविहत्तीए आदी होदि । पुणो ताव तेरसविहत्ती चेव होण गच्छदि जावित्थिवेदखवणकाल चरिमसमओ त्ति । एसो तेरहविहत्तीए उकस्सकालो जहण्णकालादो इत्थिवेदक्खवणकालमत्तेण अब्भहियत्तादो। इन्हें निष्फल माननेमें विरोध आता है।
६२७५. बारह प्रकृतिक स्थानका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। वह इसप्रकार है-स्त्रीवेदके उदयके साथ या पुरुषवेदके उदयके साथ क्षपकश्रेणीपर चढ़ कर और नपुंसकवेदका क्षय करके क्षपकजीव जब तक स्त्रीवेदका क्षय नहीं करता है तब तक बारह प्रकृतिक स्थानका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होता है।
शंका-बारह प्रकृतिक स्थानका जघन्य काल क्यों नहीं कहा ? - समाधान-बारह प्रकृतिकस्थानका जघन्य काल आगे कहनेवाले हैं, अत: यहां नहीं कहा।
६२७६.तेरह प्रकृतिक स्थानका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है। वह इस प्रकार है--स्त्रीवेदके उदयके साथ या पुरुषवेदके उदयके साथ क्षपकश्रेणीपर चढ़ कर अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान माया तथा लोभ इन आठ कषायोंके क्षय कर देनेपर तेरह प्रकृतिक स्थान होता है। यह स्थान तब तक रहता है जब तक नपुंसकवेदके सर्वसंक्रमणका अन्तिम समय प्राप्त होता है । यह इस स्थानका अन्तर्मुहूर्त जघन्यकाल है ।
अब तेरह प्रकृतिक स्थानका उत्कृष्ट काल कहते हैं। वह इस प्रकार है-नपुंसकवेदके उदयके साथ क्षपक श्रेणीपर चढ़ कर आठ कषायोंके क्षय कर देनेपर तेरह प्रकृतिक स्थानका प्रारम्भ होता है। पुनः यह स्थान तब तक अस्तित्व में रहता है जब तक स्त्रीवेदके 'क्षपणकालका अन्तिम समय प्राप्त होता है। यह तेरह प्रकृतिकस्थानका उत्कृष्ट काल अपने जघन्य कालसे स्त्रीवेदके क्षपण करनेका जितना काल है उतना अधिक है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [ पडिविहत्ती २ ६२७७. संपहि बारसविहत्तियस्स जहण्णकालविसेसपरूवणमुत्तरसुत्तं मणदि* णवरिबारसण्हं विहत्ती केवचिरंकालादो? जहणणेण एगसमओ।
६२७८.तं जहा-णसयवेदोदएण खवगसेढिं चढिय अटकसाएसुखविदेसु तेरसविहत्ती होदि । पुणो पच्छा गqसयवेदमप्पणो खवणपारंभपदेसे आढविय खवेमाणो णQसयवेदमप्पणो खवणकाले अक्खविय इत्थिवेदक्खवणामाढवेदि । पुणो इस्थिवेदेण सह णqसयवेदं खवेमाणो ताव गच्छदि जाव इत्थिवेदचिराणखवणकालतिचरिमसमओ ति तदो सवेदियदुचरिमसमए णqसयवेदपढमहिदीए दोहिदिमेत्ताए सेसाए इत्थिणदुसयवेदसव्वसंतकम्मम्मि पुरिसवेदम्मि संछद्धे से काले बारसविहत्तिओ होदि, णसयवेदउदयहिदीए तत्थ विणासाभावादो। विदियसमए एक्कारसविहत्ती होदि, फलं दाऊण पुम्विन्नाहिदीए अकम्मसरूवेण परिणमत्तादो। तेण जहण्णेण एगसमओ ति वुत्तं ।
२७७. अब बारह प्रकृतिक स्थानके जघन्य कालविशेषके कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* इतनी विशेषता है कि बारह प्रकृतिक स्थानका कितना काल है १ जघन्य काल एक समय है।
६२७८. बारह प्रकृतिक स्थानके जघन्य कालका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-नपुंसकवेदके उदयके साथ क्षपकश्रेणीपर चढ़कर आठ कषायोंका क्षयकर देनेपर तेरह प्रकृतिक स्थान प्राप्त होता है। इसके पश्चात् नपुंसकवेदकी क्षपणाके प्रारम्भस्थानसे नपुंसकवेदका क्षय करता हुआ क्षपणकालके भीतर नपुंसकवेदका क्षय न करके स्त्रीवेदकी क्षपणाका प्रारम्भ करता है । अनन्तर स्त्रीवेदके साथ नपुंसकवेदका क्षय करता हुआ तब तक जाता है जब तक स्त्रीवेदके सत्तामें स्थित प्राचीन निषेकोंके क्षपणकालका त्रिचरम समय प्राप्त होता है। अनन्तर सवेद भागके द्विचरम समयमें नपुंसकवेदकी प्रथम स्थितिके दो समयमात्र शेष रहनेपर स्त्रीवेद और नपुंसकवेदसम्बन्धी सत्तामें स्थित समस्त निषेकोंके पुरुषवेदमें संक्रान्त हो जानेपर तदनन्तर नपुंसकवेदी बारह प्रकृतिक स्थानका स्वामी होता है, क्योंकि यहांपर नपुंसकवेदकी उदय स्थितिका विनाश नहीं हुआ है। तथा यही जीव दूसरे समयमें ग्यारह प्रकृतिक स्थानका अधिकारी होता है । क्योंकि पूर्वोक्त स्थिति अपना फल देकर अकर्मरूपसे परिणत हो जाती है। अत: बारह प्रकृतिक स्थानका जघन्यकाल एक समय कहा है।
विशेषार्थ-यदि कोई स्त्रीवेद या पुरुषवेदके उदयके साथ क्षपक श्रेणीपर चढ़ता है तो वह आठ कषायोंका क्षय करनेके बाद पहले नपुंसकवेदका क्षय करके अनन्तर अन्तर्मुहूर्तकालके द्वारा स्त्रीवेदका क्षय करता है । पर जो नपुंसकवेदके उदयके साथ क्षपकश्रेणीपर चढ़ता है वह आठ कषायोंके क्षय करनेके बाद पहले नपुंसकवेदके क्षयका प्रारम्भ करके बीच में ही स्त्रीवेदका क्षय करने लगता है और इस प्रकार स्त्रीवेद और नपुंसक
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गा० २२ ]
पयडिट्ठाणविहत्तीए कालो * एक्काबीसाए विहत्ती केवचिरं कालादो? जहण्णेण अंतोमुहुतं ।
६२७६. कुदो ? चउवीससंतकम्मिएण तिण्णि वि करणाणि काऊण खविददंसणमोहणीएण एकवीसमोहपयडीणमाहारत्तमुवगएण सव्वजहणतोमुहुत्तकालेण खवगसेढिमभुष्टिएण अटकसाएसु खविदेसु इगिवीस विहत्तीए जहण्णेणंतोमुहुत्तकालुवलंभादो।
___ * उक्कस्सेण तेतीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । - २८०. कुदो ? देवस्स गेरइयरस वा सम्माइटिरस चउबीस संतकम्मियरस पुच्चकोडाउअमणुस्सेसुवजिय गन्मादिअष्टवरसाणमुवरि दंसणमोहं खविय इगिवीसविहत्तीए आदि कादण पुवकोडिं सव्वसंजममणुपालेदूण कालं करिय तेत्तीससागरोवमाउए सु देवेसुप्पन्जिय पुणो अवसाणे कालं कादूण पुव्वकोडाउएसु मणुस्सेसु उववन्जिय सव्वजवेदका एक साथ क्षय करता हुआ नपुंसकवेदके क्षय होने के उपान्त्य समयमें ही स्त्रीवेदका क्षय कर देता है । इस प्रकार बारह प्रकृतिक स्थानके जघन्यकाल एक समयको छोड़ कर शेष तेरह और ग्यारह प्रकृतिक स्थानोंके जघन्य और उत्कृष्ट काल तथा बारह प्रकृतिक स्थानका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त ही प्राप्त होते हैं। ग्यारह विभक्तिस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट काल समान होता है या जघन्यसे उत्कृष्ट काल विशेषाधिक या संख्यातगुणा होता है। इस सम्बन्धमें अभी अधिक लिखनेके योग्य सामग्री नहीं प्राप्त हुई अतः यहां उस विषयमें कुछ नहीं लिखा है । इस विषय की चर्चा करते हुए यद्यपि वीरसेन स्वामीने पहले जघन्य कालसे उत्कृष्टकाल विशेष अधिक या संख्यातगुणा होना चाहिये ऐसा निर्देश किया है पर अन्तमें वे स्वयं आचार्य परम्परासे प्राप्त हुए उपदेशानुसार इसी नतीजेपर पहुंचनेकी प्रेरणा करते हैं कि दोनों काल समान होना चाहिये।
* इक्कीस प्रकृतिक स्थानका कितना काल है ? जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है।
२७६. शंका-इक्कीस प्रकृतिक स्थानका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त क्यों है ?
समाधान-चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई एक सम्यग्दृष्टि जीव तीनों करण करके और दर्शनमोहनीय का क्षय करके इक्कीस मोहप्रकृतियोंका स्वामी होता हुआ सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा क्षपकश्रेणीपर चढ़ कर आठ कषायोंका क्षय कर देता है। अतः इक्कीस प्रकृतिक स्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त बन जाता है।
* इक्कीस प्रकृतिक स्थानका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। ६२८०. शंका-ईकीस प्रकृतिक स्थानका उत्कृष्टकाल साधिक तेतीस सागर क्यों है ?
समाधान-चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई एक देव या नारकी सम्यग्दृष्टि जीव पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। वहां गर्भसे लेकर आठ वर्षके अनन्तर दर्शनमोहनीयका क्षय करके इक्कीस प्रकृतिक स्थानका स्वामी हुआ । अनन्तर शेष पूर्वकोटि काल तक सकल संयमका पालन करके और मर कर तेतीस सागरकी आयुवाले देवोंमें
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे. [पयडिविहत्ती २ हण्णंतोमुहुत्तसंसारे सेसे अट्ठकसाए खविय तेरसविहत्तिभावमुक्गयस्स अंतोमुहुत्तम्भहियअट्ठवरसेहियूण वेपुव्वकोडीहि सादिरेयतेत्तीससागरोवममेत्तुक्कस्सकालुवलंभादो ।
* वावीसाए तेवीसाए विहत्तिओ केवचिरं कालादो ? जहण्णुकस्सेणंतोमुहुत्तं।
६२८१. वावीसविहत्तियस्स ताव उच्चदे । तं जहा, तेवीसविहत्तीएण सम्मामिच्छत्ते खविदे वावीसविहत्तीए आदी होदि । पुणो जाव सम्मत्तअक्खीणचरिमसमओ ताव वावीसविहत्तिओ। एसो वावीसविहत्तियस्स जहण्णकालो। उक्कस्सो वि एत्तिओ चेव, एगसमयम्मि वट्टमाणजीवाणमणियट्टिपरिणामे पडुच्च भेदाभावादो । ण च अणियट्टीअद्धाणं विसरिसत्तमत्थि एगसमयम्मि वट्टमाणजीवपरिणामाणं भेदप्पसंगादो।
६२८२. संपहि तेवीसविहत्तीए उच्चदे । तं जहा, चउवीससंतकम्मिएण मिच्छते खविदे तेवीसविहत्तीए आदी होदि । पुणो जाव सम्मामिच्छत्तसंतकम्मं सव्वं सम्मत्तम्मि ण संछुहदि ताव तेवीसविहत्तीए जहण्णकालो । उक्कस्सविवक्खाए वि तेवीसविहउत्पन्न हुआ। पुनः आयुके अन्त में मर कर पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ वहाँ संसारमें रहनेका सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल शेष रह जानेपर आठ कषायोंका क्षय करके तेरह प्रकृतिक स्थानको प्राप्त करता है। इस प्रकार इक्कीस प्रकृतिक स्थानका उत्कृष्टकाल आठ वर्ष और अन्तर्मुहूर्त कम दो पूर्वकोटिसे अधिक तेंतीस सागर होता है।
* बाईस और तेईस प्रकृतिक स्थानका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्ट
काल अन्तर्मुहर्त है।
६२८१. उनमेंसे पहले बाईस प्रकृतिक स्थानका काल कहते हैं। वह इस प्रकार हैतेईस प्रकृतिकी सत्तावाले किसी जीवके द्वारा सम्यगमिथ्यात्वका नाश कर देनेपर बाईस प्रकृतिक स्थानका प्रारम्भ होता है। अनन्तर जब तक सम्यक्प्रकृतिके क्षीण होनेका अन्तिम समय नहीं प्राप्त होता तब तक वह जीव बाईस प्रकृतिक स्थानका स्वामी रहता है । बाईस प्रकृतिक स्थानका यह जघन्यकाल है। इसका उत्कृष्टकाल भी इतना ही होता है, क्योंकि एक कालमें विद्यमान अनेक जीवोंमें अनिवृत्तिरूप परिणामोंकी अपेक्षा भेद नहीं पाया जाता। यदि कहा जाय कि नाना जीवोंकी अपेक्षा होनेवाले अनिवृत्तिकरणसंबन्धी कालोंमें विसदृशता पाई जाती है सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर जो जीव अनिवृत्तिकरणमें समान समयवर्ती हैं उनके परिणामोंमें भेदका प्रसंग प्राप्त होता है।
६२८२. अब तेईस प्रकृतिक स्थानका काल कहते हैं वह इस प्रकार है-चौबीस प्रकृति योंकी सत्तावाले जीवके द्वारा मिथ्यात्वके क्षपित कर देनेपर तेईस प्रकृतिक स्थानका प्रारंभ होता है। अनन्तर जब तक सत्तामें स्थित सम्यमिथ्यात्व कर्म सम्यक्प्रकृतिमें संक्रमित नहीं हो जाता तब तक तेईस प्रकृतिक स्थान पाया जाता है और यही इस स्थानका जघन्य
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गा० २२ ]
पयडिहाणबिहत्तीए कालो लिकालो रतिको चेच, कारने सुगमे ।
* चउवासविहत्ती केवचिरं कालादो ? जहण्णेण अंतोमुहुसं ।
२८३.कुदो ? अहापाससंतकम्मियस्स सम्माइहिस्स अणंताणुपंधिचउकं विसंजोइय चाऊबीसाविहत्तीए आदि कादण सवजहण्णंतोमुहुत्तमच्छिय खविदमिच्छत्तस्स चउवीसविहचीए जहण्णकालुबलंभादो।
_* उक्कस्सेण घे-छावहि-सागरोवमाणि सादिरेयाणि । ... $२८४. कुदो ? छब्बीससंतकम्मियस्स लांतवकाविहमिच्छाइष्टिदेवस्स चोदससागोषमाउहिदियस्स तत्थ पढमे सामरे अंतोमुहुत्तावसेसे उनसमसम्मत्तं पडिपजिय सध्यलड्डुएण कालेण अणताणुवंधिचउकं बिसंजोइय चउचीसविहत्तीए आदि कादृष सन्धुकस्समुवसमसम्मत्तद्धमच्छिय विदियसागरोवमपढमसमए वेदगसम्मत्तं पडिवजिय तेरससायरोवमाणि सादिरेषाणि सम्मत्तमशुपालेदूण कालं कादण पुन्चकोडाउअमणुस्से. सुक्कजिय पुणो एदेण मणुस्साउएणूणवावीससागरोवमाउछिदिएसु देवेसुधपञ्जिय पुणो काल है । उत्कृष्ट कालकी विवक्षा करनेपर तेईस प्रकृतिक स्थानका उत्कृष्ट काल भी इतना ही होता है। जघन्य और उत्कृष्ट दोनों कालोंके समान होनेका कारण सुगम है।
* चौबीस प्रकृतिक स्थानका कितना काल है ? जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। ६२८३. शंका-चौबीस प्रकृतिक स्पानका जघन्य काल अन्तर्मुहुर्त क्यों है ?
समाधान-जिसके प्रारंभमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सचा पाई जाती है पश्चात् जिसने अनन्सानुषन्धी चतुष्कका बिसंयोजन करके चौबीस प्रकृतिक स्थानको प्रारंभ किया है, और इसके अनन्सर सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त कालतक वहां रहकर मिथ्यात्वका क्षय किया है ऐसे सम्यग्दृष्टि जीयके चौबीस प्रकृतिक स्थानका जघन्य काल पाया जाता है।
* चौबीस प्रकृतिक स्थानका उत्कृष्ट काल साधिक एकसौ बत्तीस सागर है।
६२८४. शंका-चौबीस प्रकृतिक स्थानका उत्कृष्ट काल साधिक एकसौ बत्तीस सागर कैसे है ?
समाधान-जिसके प्रारंभमें छब्बीस कर्मोकी सत्ता है और जो चौदह सागर आयु वाला है ऐसा लांसव और कापिष्ट स्वर्गका मिध्वादृष्टि देव जब पहले सागर में अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आयुके शेष रहनेपर उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करके सबसे कम कालके द्वारा चार अनन्तानुबन्धियोंकी विसंयोजना करके चौबीस प्रकृतिक स्थानको प्रारंभ करता है और उपशम सम्यक्त्वके सबसे उत्कृष्ट कालसक उपशम सम्यक्त्वके साथ रहकर दूसरे सागरके पहले समय में वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त करके साधिक तेरह सागर काल तक वहां सम्यक्त्वका पालन करके और मरकर पूर्वकोटि प्रमाण आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ । अनन्तर वहांसे मरकर पूर्वोक्त मनुष्यायुसे कम बाईस सागर प्रमाण आयुवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ। अनन्तर वहांसे
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ पुचकोडाउएसु मणुस्सेसुववाजिय तत्तो कालं काऊण अणंतरमणुस्साउएणूणएक्कतीससागरोवमष्टिदिएसु देवेसुप्पजिय तदो अंतोमुहुत्तावसेसे जीविए सम्मामिच्छतं गंतूण तत्थ अंतोमुहुत्तमच्छिय पुणो सम्मत्तं पडिवजिय कालं काऊण पुव्वकोडाउएसु मणुस्सेसुववन्जिय तदो कालं काऊण मणुस्साउएणूणबीससागरोवमाउद्विदिएसु देवेसुप्पजिय कालं काऊण पुव्वकोडाउअमणुस्सेसुववजिय पुणो मणुस्साउएणूणवावीससागरोवम हिदिएसु देवेसुप्पन्जिय तदो कालं काऊण पुवकोडाउअमणुस्सेसुववन्जिय पुणो अंतोमुहुतब्भहियअवस्साहियमणुस्साउएणूणचउवीससागरोवमहिदीएसु देवेसुववाजिय कालं काण पुव्वकोडाउएसु मणुस्सेसुक्वजिय गब्भादिअहवस्साणमंतोमुहुत्तब्भहियाणमुवरि मिच्छत्तं खविय तेवीसविहत्तियत्तं गयस्स चउवीसविहत्तीए सादिरेयवेछावहिसागरोवममेत्तुक्कस्सकालुवलंभादो।
६२८५. किमदिरेयपमाणं ? सम्मामिच्छत्त-सम्मत्तखवणकालं उवसमसम्मत्तेण सह हिदचउवीसविहत्तियकालम्मि सोहिदे सुद्धसेसमेत्तमदिरेगपमाणं । दसणमोहक्खवणकालादो उवसमसम्मत्तकालो संखेजगुणो त्ति कधं णव्वदे ? अप्पाबहुगवयणादो। तं मरकर पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। फिर वहांसे मरकर पूर्वोक्त मनुघ्यायुसे न्यून इकतीस सागरप्रमाण आयुवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ और वहां आयुमें अन्तमुहूर्त शेष रह जानेपर सम्यमिथ्यात्वको प्राप्त होकर तथा सम्यमिथ्यात्व गुणस्थानमें अन्तर्मुहूर्त कालतक रहकर पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ और मरकर पूर्वकोटिप्रमाण आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ तदनन्तर वहांसे मरकर पूर्वोक्त मनुष्यायुसे कम बीस सागरप्रमाण स्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ । अनन्तर वहांसे मरकर पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुप्योंमें उत्पन्न हुआ। फिर पूर्वोक्त मनुष्यायुसे कम बाईस सागरप्रमाण स्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ। अनन्तर वहांसे मरकर पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। अनन्तर आठवर्ष अन्तर्मुहूर्त अधिक पूर्वोक्त मनुष्यायुसे न्यून चौबीस सागरप्रमाण स्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ। अनन्तर वहांसे मरकर पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। वहां गर्भसे आठवर्ष और अन्तर्मुहूर्त कालके व्यतीत हो जानेपर मिथ्यात्वका क्षय करके तेईस प्रकृतिक स्थानको प्राप्त हुआ। तब उसके चौबीस प्रकृतिक स्थानका उत्कृष्ट काल साधिक एक सौ बत्तीस सागर पाया जाता है।
२८५.शंका-अधिक कालका प्रमाण क्या है ?
समाधान-उपशमसम्यक्त्वके साथ स्थित चौबीस प्रकृतिक स्थानके कालमेंसे सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृतिके क्षपणाके कालको घटा देनेपर जो शुद्धकाल शेष रह जाय वह यहां अधिक कालका प्रमाण है।
शंका-दर्शनमोहनीयके क्षपणाकालसे उपशमसम्यक्त्वका काल संख्यातगुणा है यह .
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गा० २२] पयडिहाणविहत्तीए कालो
२५१ जहा-सव्वत्थोवा चारित्तमोहक्खवय-अणियाट्टअद्धा, तस्सेव अपुन्वअद्धा संखेजगुणा, कसायउवसामयस्स अणियट्टिअद्धा संखेअगुणा, तस्सेव अपुव्वअद्धा संखेजगुणा, दसणमोहक्खवय-आणियहिअद्धा संखेजगुणा, तस्सेव अपुन्व-अद्धा संखेजगुणा, अणंताणुबंधिचउक्कविसंजोएंतस्स अणियटिअद्धा संखेजगुणा, अपुव्वअद्धा संखेजगुणा । दंसणमोहउवसामयस्स अणियहिअद्धा संखेजगुणा, तस्सेव अपुव्वअद्धा संखेजगुणा, उवसमसम्मत्तद्धा संखेजगुणे त्ति । कैसे जाना जाता है ? ... समाधान-अल्पबहुत्वके प्रतिपादक वचनोंसे जाना जाता है कि दर्शनमोहके क्षपणाकालसे उपशमसम्यक्त्वका काल संख्यातगुणा है। वे अल्पबहुत्वके प्रतिपादक वचन इस प्रकार हैं-चारित्रमोह के क्षपक अनिवृत्तिकरणका काल सबसे कम है । इससे चारित्रमोहके क्षपक अपूर्व करणका काल संख्यातगुणा है। इससे कषायके उपशामक अनिवृत्तिकरणका काल संख्यातगुणा है। इससे कषायके उपशामक अपूर्वकरणका काल संख्यातगुणा है। इससे दर्शनमोहके क्षपक अनिवृत्तिकरणका काल संख्यातगुणा है । इससे इसी दर्शनमोहके क्षपक अपूर्वकरणका काल संख्यातगुणा है। इससे अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करनेवाले जीवके अनिवृत्तिकरणका काल संख्यातगुणा है । इससे अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करने वाले जीवके अपूर्वकरणका काल संख्यातगुणा है। इससे दर्शनमोहकी उपशामना करनेवाले जीवके अनिवृत्तिकरणका काल संख्यातगुणा है । इससे उसीके अपूर्वकरणका काल संख्यातगुणा है। इससे उपशमसम्यक्त्वका काल संख्यातगुणा है।
विशेषार्थ-चौबीस विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल साधिक एकसौ बत्तीस सागर होता है जिसे घटित करके ऊपर बतलाया ही है। यहां इतनी ही विशेष बात लिखनी है कि जो जीव उपशमसम्यक्त्वके कालमें अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करके उपशमसम्यक्त्वके सबसे बड़े काल तक चौबीस विभक्तिस्थानके साथ उपशमसम्यक्त्वी होकर रहता है पुनः वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करके कुछ कम छयासठ सागर काल तक वेदक सम्यक्त्वके साथ रह कर अन्तमें सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानमें जाकर अन्तर्मुहूर्त कालके पश्चात् पुनः वेदकसम्यग्दृष्टि हो जाता है और दूसरी बार वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करके व्यासठ सागरमें जब अन्तर्मुहूर्त शेष रह जाय तब मिथ्यात्वकी क्षपणा करके तेईस विभक्तिस्थानवाला हो जाता है उसके ही चौबीस विभक्तिस्थानका यह उत्कृष्ट काल प्राप्त होता है। यहां यदि प्रारम्भमें बतलाये गये चौबीस विभक्तिस्थानके साथ उपशमसम्यक्त्वके कालको अलग करदिया जाय और कुछ कम दूसरे छयासठ सागरमें सम्यग्मिथ्यात्व तथा सम्यक् प्रकृतिके क्षपणाकालको मिला दिया जाय तो प्रारम्भमें प्राप्त हुए वेदकसम्यक्त्वके कालसे लेकर सम्यकप्रकृतिके क्षपणाकाल तक एकसौ बत्तीस सागर होते हैं। किन्तु सम्यग्मि
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहची ३ * छन्वीसविहत्ती केवचिरं कालादो ? अणादि-अपज्जवसियो ।
६२८६. कुदो ! अमध्वस्स अभव्बसमाणभव्वस्स वा छब्बीसविहत्तीए आदि-अंताणमभानादो।
* अणादि-सपजवसिदो।
६२८७. भव्यम्मि छब्बीसबिहात्ति पडि आदिवाजियम्मि सम्मले पडिवण्ये छव्वीसविहत्तीए विणासुवलंभादो।
* सादि-सपजवसिदो।
६२८८. सम्मत्चसम्मामिच्छत्ताणि उव्वेलिय छब्बीसबिहनियमावमुवगयस्स छव्वीसविहत्तीए विणासुवलंभादो। ध्यात्व और सम्यक्प्रकृतिकी क्षपणाके समय चौबीस विभक्तिस्थान नहीं रहता, अतः इन दोनों प्रकृतियोंके क्षपणाकालको एकसौ बत्तीस सागरमेंसे घटा देना चाहिये और प्रारम्भमें बतलाये गये उपशमसम्यक्त्वके काल में चौबीस विभक्तिस्थान रहता है अतः इस कालको सम्यग्मिध्यात्व और सम्यक्प्रकृतिके क्षपणाकालसे रहित एकसौ बचीस सागरप्रमाण काल में जोड़ देना चाहिये तो इस प्रकार चौबीस विभक्तिस्थानका साधिक एकसौ बत्तीस सागरप्रमाण काल आ जाता है । यद्यपि एक ओर सम्यग्मिध्यात्व और सम्यकप्रकृति के क्षपणाकालको घटाया है और दूसरी ओर चौबीस विभक्तिस्थानके साथ स्थित उपशमसम्यक्त्वके कालको जोड़ा है फिर भी उक्त दो प्रकृतियोंके क्षपणाकालसे चौबीस विभक्तिस्थानके साथ स्थित उपशमसम्यक्त्वका काल अधिक है अतः चौबीस विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल साधिक एकसौ बत्तीस सागर हो जाता है।
* छब्बीस प्रकृतिक स्थानका कितना काल है ? अनादि-अनन्त काल है। ६२८६ शंका-छन्बीस प्रकृतिक स्थानका अनादि-अनन्त काल कैसे है ?
समाधान-क्योंकि, जो जीव अभव्य हैं या अभव्योंके समान हैं उनके छब्बीस प्रकृतिक स्थानका आदि और अन्ख नहीं पाया जाता है।
* छब्बीस प्रकृतिक स्थानका काल अनादि सान्त भी है। ६२८७.अनादि मिथ्यादृष्टि भव्यजीवके छब्बीस प्रकृतिक स्थान आदिरहित है, पर जब वह सम्यक्त्वको प्राप्त कर लेता है तब उसके छब्बीस प्रकृतिक स्थानका अन्त हो जाता है, इसलिये छब्बीस प्रकृतिक स्थानका काल अनादि-सान्त भी है।
* तथा छब्बीस प्रकृतिक स्थानका काल सादि सान्त भी है।
६२८८. अट्ठाईस प्रकृतिकी सत्तावाले जिस सादि मिध्यादृष्टिने सम्यक्त्व और सम्यगमिध्यात्वकी उद्वेलना करके छब्बीस प्रकृतिरूपस्थानको प्राप्त किया है उसके छब्बीस प्रकृतिक स्थानका विनाश देखा जाता है, इसलिये छब्बीस प्रकृतिक स्थान सादि-सान्त भी है।
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मा० १२)
पडिहाणविहत्तीए कालो * तस्थ जो सादिलो सपज्जवसिदो जहण्णेण एगसमओ।
६२८६. कुदो ! सत्तावीससंतकम्मिएण मिच्छादिष्टिणा पलिदोरमस्स असंखेजदिमामयेत्तकालेण सम्मामिच्छत्तमुवेल्लमाणेण उव्वेलणकालम्मि अंतोमुहुत्ताक्सेसम्मि उक्समसम्मलाहिमुहभावमुक्गएण अंतरकरणं करिय मिच्छत्तपढमद्विदिम्मि सव्वगोषुच्छाओ नालिय उम्पराविददोगोबुच्छेण विदियष्टिदिम्मि छिदसम्मामिच्छत परिमफालिं समसंकमेण मिच्छत्तस्सुवरि पक्विविय मिच्छचपढमष्टिदिचरिमगोबुच्छेवेदयमाणेण एगसमय छव्वीसविहत्तियत्तमुवणमिय सदुवरिमसमए सम्म पडिकजिय अठ्ठावीससंतकम्मियत्ते समालंविदे छब्बीसबिहतीए एगसमयकालुबलंभादो।
* उकस्सेण उवर्ट पोग्गलपरिय।
६२६०. कुदो ? अणादियमिच्छादिडिम्मि तिष्णि वि करणाणि काऊण उवसमसम्मत्तं पडिवण्णम्मि अगंतसंसारं केतूण हविद-अद्धपोम्गलपरियम्मि पुणो मिच्छत्त मंतूण ___ * छब्बीस प्रकृतिक स्थानके इन तीनों मेदोंमें जो सादि-सान्त छब्बीस प्रकृतिक स्थान है उसका जघन्य काल एक समय है।
१२८६. शंका-सादि-सान्त छब्बीस प्रकृतिक स्थान का जघन्य काल एक समय कैसे है ?
समाधान-जिसके सम्यकप्रकृति के बिना सत्ताईस प्रकृतियोंकी सत्ता पाई जाती है, और जो पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्व कर्मकी उद्वेलना कर रहा है, पर उद्वेलनाके काल में अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहनेपर जो उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करनेके सम्मुख हुआ है तथा अन्तरकरण करके मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिमें सर्व गोपुच्छोंको गला कर जिसके दो गोपुच्छ शेष रह गये हैं, तथा जो दूसरी स्थितिमें स्थित सम्यग्मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिको सर्व संक्रमणके द्वारा मिथ्यात्वमें प्रक्षिप्त करके मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिके अन्तिम गोपुच्छका वेदन कर रहा है वह मिथ्यादृष्टि जीव एक समय तक छब्बीस प्रकृतिक स्थानको प्राप्त करके उसके अनन्तर समयमें सम्यक्त्वको प्राप्त होकर अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला होता है, अतः इसके छब्बीस प्रकृतिक स्थानका जघन्यकाल एक समय पाया जाता है। ____ * सादि-सान्त छब्बीस प्रकृतिक स्थानका उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन है।
३२९०.शंका-सादिसान्त छब्बीस प्रकृतिक स्थानका उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन कैसे है?
समाधान-जो अनादि मिथ्यादृष्टि जीव तीनों करणोंको करके उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ और इस प्रकार जिसने अनन्तसंसारको छेदकर संसारमें रहनेके कालको अर्थपुद्गल परिवर्तन प्रमाण किया । पुनः मिथ्यात्वको प्राप्त होकर सबसे जघन्य पल्योपमके असंख्यातवें
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे. [पयडिविहनी २ सवजहण्णेण पलिदोमस्स असंखेजदिमागमेत्तेण उव्वेलणकालेण सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणि उव्वेल्लिय छव्वीसावहत्तीए आदि कादण अद्धपोग्गलपरियह देसूर्ण परियहिदण अद्धपोग्गलपरियहे सव्व-जहण्णंतोमुहुत्तावसेसे उवसमसम्मत्तं घेतूण अहावीसविहत्तियभावमुवणमिय सिद्धिं गयम्मि छव्वीसविहत्तीए उवड्ढपोग्गलपरियट्टमेत्ते उक्कस्सकालुवलंभादो । केत्तिएणूणमद्धपोग्गलपरियट्टं ? पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेण । सुत्तेण अवुत्तं ऊणतं कधं णव्वदे? ण, ऊणमद्धपोग्गलपरियह उवड्ढपोग्गलपरियहमिदि जयारलो काऊण णिदित्तादो। . * सत्तावीसविहत्ती केवचिरं कालादो ? जहण्णेण एगसमओ।
६२६१. कुदो ? अट्ठावीससंतकम्मियमिच्छादिहिणा सम्मत्तुव्वेक्षणकाले अंतोमुहुत्तावसेसे तिण्णि वि करणाणि कादण अंतरकरणं करिय मिच्छत्तपढमष्टिदिदुचरिमसमए सम्मत्तचरिमफालिं सव्वसंकमेण मिच्छत्तम्मि पक्खित्ते पढमहिदिचरिमसमए सत्तावीस विहत्ती होदि । से काले उवसमसम्मत्तं घेत्तूण जेण अद्यावीसविहत्तिओ होदि तेण भाग प्रमाण उद्वेलन कालके द्वारा सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करके
और इस प्रकार छब्बीस प्रकृतिक स्थानका प्रारम्भ करके देशोन अर्धपुद्गलपरिवर्तन प्रमाण काल तक परिभ्रमण करके अर्धपुद्गल परिवर्तनरूप कालमें सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त कालके शेष रहनेपर उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ और अट्ठाईस प्रकृतिक स्थानको प्राप्त होकर क्रमसे सिद्धिको प्राप्त हुआ उसके छब्बीस प्रकृतिक स्थानका देशोन अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण उत्कृष्ट काल पाया जाता है।
शंका-यहाँ अर्धपुद्गल परिवर्तनको जो देशोन कहा है सो देशोनका प्रमाण क्या है ? समाधान-यहाँ देशोनका प्रमाण पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग इष्ट है।
शंका-सूत्रमें ऊनपनेका निर्देश तो नहीं किया है फिर यह कैसे जाना कि यहाँ देशोन अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण काल इष्ट है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि ऊन+अर्धपुद्गल परिवर्तनके स्थानमें प्राकृतके नियमानुसार णकारका लोप करके उपार्धपुद्गल परिवर्तन शब्दका निर्देश किया है।
* सत्ताईस प्रकृतिकस्थानका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय है। ६ २११. शंका-सत्ताईस प्रकृतिक स्थानका जघन्य काल एक समय कैसे है ?
समाधान-जब अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई मिथ्यादृष्टि जीव सम्यक्प्रकृतिके उद्वेलनाकालमें अन्तर्मुहुर्त शेष रहनेपर तीनों करणोंको करता है और अन्तरकरण करके मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिके उपान्त्य समयमें सम्यक्प्रकृतिकी अन्तिम फालिको सर्वसंक्रमणके द्वारा मिथ्यात्वमें प्रक्षिप्त कर देता है तब वह मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिके अन्तिम समयमें सत्ताईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला होता है। पुनः अनन्तर समयमें उपशम सम्य
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गा० २२] पयडिहाणविहत्तीए कालो
२५५ सत्तावीसविहत्तीए जहण्णकालस्स पमाणमेगसमओ ।
* उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज दिभागो।
६२६२. कुदो ? अहावीससंतकम्मियमिच्छादिष्टिणा पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तकालेण सम्मत्ते उव्वेल्लिदे सत्तावीसविहत्ती होदि । तदो सव्वुक्कस्सेण पलिदोबमस्स असंखेजीदभागमेत्तेण कालेण जाव सम्मामिच्छत्तमुव्वेल्लेदि ताव सत्तावीसविहत्तीए पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तवुक्कस्सकालुवलंभादो।
* अट्ठावीसविहत्ती केवचिरं कालादो होदि ? जहणणेण अंतोमुहुत्तं।
६२६३. कुदो ? छव्वीससंतकम्मियमिच्छाइष्टिम्हि उवसमसम्मत्तं घेत्तूण उप्पाइदअहावीससंतकम्मम्मि सब्वजहण्णमतोमुहुत्तमहावीससंतकम्मेण सह अच्छिय अणंताणुबंधिचउक्कं विसंजोइय उप्पाइदचउवीससंतकम्मम्मि अठ्ठावीसविहत्तियस्स अंतोमुहुत्तमेत्तजहण्णकालुवलंभादो।
* उक्कस्सेण वे-छावहि-सागरोवमाणि सादिरेयाणि ।
६२६४. तं जहा, एको मिच्छाइट्टी उवसमसम्मत्तं घेतूण अहावीसविहत्तिओ जादो। क्त्वको प्राप्त करके चूंकि वह अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला होजाता है इसलिये सत्ताईस प्रकृतिक स्थानके जघन्य कालका प्रमाण एक समय है यह सिद्ध होता है।
* सत्ताईस प्रकृतिक स्थानका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग है। $२९२.शंका-सत्ताईस प्रकृतिक स्थानका उत्कृष्टकाल पल्यके असंख्यातवें भाग कैसे है ?
समाधान-अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातवें भाग प्रमाण कालके द्वारा सम्यक्प्रकृतिकी उद्वेलना करनेपर सत्ताईस प्रकृतिक स्थानवाला होता है। तदनन्तर वह जीव जब तक सबसे उत्कृष्ट पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा सम्यगमिथ्यात्व प्रकृतिकी उद्वेलना करता है तबतक उसके सत्ताईस प्रकृतिक स्थान पाया जाता है। अतः सत्ताईस प्रकृतिक स्थानका उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भाग है।
* अहाईस प्रकृतिक स्थानका कितना काल है ? जघन्य काल अन्तर्मुहुर्त है। ६२१३. शंका- अट्ठाईस प्रकृतिक स्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कैसे है ?
समाधान-छब्बीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले किसी एक मिथ्यादृष्टि जीवने उपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करके अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ताको प्राप्त किया। अनन्तर सबसे जघन्य अन्तमुहूर्त काल तक अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तासे युक्त रहनेके पश्चात् अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करके चौबीसप्रकृतियोंकी सत्ता प्राप्त की। तब उसके अट्ठाईस प्रकृतिक स्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त पाया जाता है।
* अट्ठाईस प्रकृतिक स्थानका उत्कृष्ट काल साधिक एक सौ बत्तीस सागर है । २६४. वह इस प्रकार है-कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव उपशम सम्यक्त्वको ग्रहण
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [पयडिविहत्ती २ तदो मिच्छत्तं गंतूण पलिदोवमस्स असंखेअदिभागमेतसव्युक्स्ससम्मनुव्वेक्षणकाले अंतोमुहुत्ताक्सेसे सत्तावीसविहत्तिओ होदि त्ति ण होदण उव्वेलणकालमचरिमसमए मिच्छत्तपढमहिदीए चरिमणिसेयं काऊण उबसमसम्मत्तं पडिवण्णो । तदो पढमछावहिं ममिय मिच्छन्तं गंतूण पुणो पलिदोषमस्स असंखेजदिभागभूदसबुकस्स सम्मतुव्वेल्लणकालचरिमसमए उवसमसम्मतं घेत्तूण विदियछावष्टिं ममिय मिच्छतं गंतूण पलिदोवमस्स असंखेजदिभाममेतसव्वुकस्ससम्मत्तुव्वेल्लणकालेण सत्तावीसविहत्तिओ जादो । तदो तीहि पलिदोबमस्स असंखेजदिभागेहि सादिरेयाणि बेछावहिसागरोवमाणि अहावीस-विहत्तियस्स उक्कस्सकालो। एवं जइवसहाइरिय-चुण्णि-सुत्तमस्सिदूण ओधे परूवणा कदा।
६२६५. संपहि उच्चारणाइरियफ्रूविद-ओघुधारणं चुण्णिसुत्तसमाणं पुणरुत्तमरण छड़िय आदेसुच्चारणं भणिस्सामो। अचक्खु०-भवसिद्धि० ओघभंमो। ___६२६६. आदेसेण णिरयगईए रईएसु अष्ठावीसविहत्ती केवचिरं कालादो ? करके अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला हुआ। तदनन्तर मिथ्यात्वको प्राप्त होकर सम्यक्झकृतिके सबसे उत्कृष्ट उद्वेलनकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागके व्यतीत होनेपर वह सत्ताईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला होता पर ऐसा न होकर वह उस कालमें अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर उद्वेलना कालके उपान्त्य समयमें मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिके अन्तिम निषेकका अन्त करके उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। तदनन्तर प्रथम छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण करके और मिथ्यात्वको प्राप्त होकर पुनः सम्यक्प्रकृतिके सबसे उत्कृष्ट पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण उद्वेलना कालके अन्तिम समयमें उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ और दूसरे छियासठ सागर काल तक भ्रमण करनेके पश्चात् पुनः मिथ्यात्वको प्राप्त होकर सम्यक्प्रकृतिके सबसे उत्कृष्ट पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा सम्यक्त्वप्रकृतिकी उद्वेलना करके सत्ताईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला हुआ। अतः पन्योपमके तीन असंख्यातवें भागोंसे अधिक एक सौ बत्तीस सागर अट्ठाईस प्रकृतिक स्थानका उत्कृष्ट काल होता है।
इसप्रकार यतिवृषभके चूर्णिसूत्रोंका आश्रय लेकर ओघका कथन किया। .
६२१५.अब यतः उच्चारणाचार्यके द्वारा उच्चारणावृत्तिमें किया गया ओघका कथन चूर्णिसूत्रोंके समान है अतः पुनरुक्त दोषके भयसे उसका कथन न करके उच्चारणामें कहे गये आदेश प्ररूपणाका कथन करते हैं-अचक्षुदर्शनी और भव्य जीवोंके प्रकृतिस्थानोंका काल ओघके समान है । तात्पर्य यह है कि ये दोनों मार्गणाएँ मोहनीयके अवस्थानकाल तक सर्वदापाई जाती हैं । अतः इनमें ओघके समान काल बन जाता है।
६२.६६.आदेशकी अपेक्षा नरक गतिमें नारकियोंमें अट्ठाईस विभक्ति स्थानका कितना काल है ? जघन्य एक समय और उत्कृष्ट तेतीस सागर है। इसीप्रकार छब्बीस विभक्ति स्थानके कालका कथन करना चाहिये । सत्ताईस विभक्ति स्थानका काल कोषके समान
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गा० २२ )
फ्यडिहाणहितीए कालो
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जहण्येण एगसमओ, उकस्सेण तेतीसं सामरोवमाणि । एवं छब्बीस. वत्तव्यं । सचावीस० ओषभंगो । चउवीसविह० केव० ? जह० अंतोमुहुत्तं, उन तेतीसं सागसेवमाणि देखणाणि । वावीसविह० केव० ? जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुतं । एकवीसविह० जह० चउरासीदिवस्ससहस्साणि अंतोमुत्तगाणि । उक्क. सागशेवमं पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेणूणं । एवं पढमाए पुढबीए । णवरि, सगाहिदी बत्तव्वा । विदियादि जाव सत्तमि ति अहावीस-छब्बीस विह० केव० ? बह० एगसमओ, उक्क. सगसगहिदी । सत्तावीस० ओघभंगो । चउपीसविह० केव० ? जह• अंतोमुहुत्तं, उक्क० सगाहिंदी देसूणा । है। चौबीस विभक्तिस्थानका कितना काल है ? जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन तेतीस सागर है। वाईस विभक्तिस्थानका कितना काल है ? जघन्य एक समय और . उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। इक्कीस विभक्ति स्थानका कितना काल है ? जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम चौरासी हजार वर्ष और उत्कृष्ट पल्योपमके असंख्यातवें भाग कम एक सागर है। सामान्य नारकियोंके विभक्तिस्थानोंके कालका जिसप्रकार कथन किया है उसीप्रकार पहले मरकमें समझना चाहिये। इतनी विशेषता है कि यहां उस्कृष्ट काल अपनी स्थिति प्रमाण कहना चाहिये । दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक नारकियोंके अट्ठाईस और छब्बीस विभक्तिस्थानका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। सत्ताईस विभक्तिस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट काल औषके समान है। चौबीस विभक्तिस्थानका कितना काल है ? जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उपदेशोन अपनी अपनी स्थिति प्रमाण है।
विशेषार्थ-जिसके सम्यगमिथ्यात्वकी उद्वेलनामें एक समय शेष रह गया है ऐसा जीव अदि मरकर नरक में उत्पन्न होता है तो उसके नरक अवस्था में २८ विभक्तिस्थानका जघन्य काल एक समय बन जाता है। इसीप्रकार प्रत्येक नरकमें २८ विभक्तिस्थानका एक समय काल जानना चाहिये। तथा अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना किया हुआ जो सम्यग्दृष्टि नारकी मिथ्यात्वमें जाकर और एक समय तक अनन्तानुबन्धीकी सत्ताके साथ रहकर तथा दूसरे समयमें मरकर अन्य गतिको प्राप्त हो जाता है उसके भी २८ . विभक्तिस्थानका जघन्य काल एक समय बन जाता है। पर यह व्यवस्था प्रथमादि छह नरकों में ही लागू होती है सातवेंमें नहीं, क्योंकि सातवेंमें ऐसा जीव अन्तर्मुहूर्त हुए बिना नहीं मरता है ऐसा नियम है। २८ विभक्तिस्थानवाला कोई एक जीव नरकमें उत्पन्न हुआ और वहां वह वेदक सम्यक्त्वके कालके भीतर वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त करके मरण होने में अन्तर्मुहूर्त कालके शेष रहनेपर मिथ्यादृष्टि हो गया उसके २८ किभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल तेतीस सागर पाया जाता है। किन्तु इतनी विशेषता है कि ऐसे जीवके अनन्ता
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे .
[पयडिविहत्ती २
नुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना नहीं होनी चाहिये । २८ विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर अन्य प्रकारसे भी प्राप्त हो सकता है सो उसका विचार कर कथन कर लेना चाहिये। इसीप्रकार प्रथमादि नरकोंमें २८ विभक्तिस्थानके उत्कृष्ट कालका कथन अपने अपने नरककी स्थितिप्रमाण घटितकर लेना चाहिये। जिसके नरकमें रहनेका काल एक समय शेष रहनेपर सम्यक्प्रकृतिकी उद्वेलना हो गई है उसके नरकमें २६ विभक्तिस्थानका जघन्य काल एक समय पाया जाता है। इसीप्रकार सातों नरकोंमें २६ विभक्तिस्थानका जघन्य काल एक समय जानना चाहिये । तथा २६ विभक्तिस्थानवाला जो मिथ्यादृष्टि नारकी जीव नरकमें उत्पन्न होकर जीवन पर्यन्त मिथ्यादृष्टि बना रहता है उस नारकीके सामान्यसे २६ विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर पाया जाता है। इसीप्रकार प्रथमादि नरकोंमें २६ विभक्तिस्थानका अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण उत्कृष्टकाल घटित कर लेना चाहिये। जिसके नरकमें रहनेका काल एक समय शेष रहनेपर सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना हो गई है उसके २७ विभक्तिस्थानका जघन्य काल एक समय ओघके समान बन जाता है। इसीप्रकार प्रथमादि नरकोंमें २७ विभक्तिस्थानका जघन्य काल एक समय जानना चाहिये । तथा ओघकी अपेक्षा जो सत्ताईस विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है वह यहां सामान्यसे नारकियोंमें सत्ताईस विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट काल जानना चाहिये । जिस सम्यग्दृष्टि नारकीने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके चौबीस विभक्तिस्थानको प्राप्त किया और अन्तर्मुहूर्त कालके पश्चात् मिथ्यात्वमें जाकर अनन्तानुबन्धीकी सत्ता प्राप्त कर ली उस नारकीके २४ विभक्तिस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है। इसीप्रकार प्रथमादि नरकोंमें २४ विभक्तिस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त जान लेना चाहिये । तथा कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव नरकमें उत्पन्न हुआ और पर्याप्त होनेके पश्चात् सम्यक्त्वको प्राप्त करके उसने अन्तर्मुहुर्त कालके भीतर अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना कर दी पुनः जीवन भर २४ विभक्तिस्थानके साथ रहकर अन्तमें अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहनेपर वह मिथ्यात्वमें जाकर २८ विभक्तिस्थानवाला हो गया उसके २४ विभक्तिस्थानका कुछ कम तेतीस सागर उत्कृष्ट काल पाया जाता है। सातवें नरकमें २४ विभक्तिस्थानका यही उत्कृष्ट काल होता है। किन्तु प्रथमादि छह नरकोंमें २४ विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहना चाहिये। उसमें जीवन के अन्तमें मिथ्यात्वमें नहीं ले जाना चाहिये, क्योंकि प्रारम्भके छह नरकोंमें सम्यग्दृष्टि नारकियोंका मरण होता है। अतः यहां कुछ कमसे भवके प्रारम्भमें विसंयोजना होने तकके कालका ही ग्रहण करना चाहिये । कृतकृत्य वेदकके कालमें एक समय शेष रहनेपर जो जीव नरकमें उत्पन्न होता है। उसके २२ विभक्तिस्थानका जघन्य काल एक समय पाया जाता है । तथा कृतकृत्य वेदकके कालमें अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर जो जीव नरकमें उत्पन्न होता है उसके २२ विभक्तिस्थानका
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गा० २२) पयडिहाणविहत्तीए कालो
२५६ $२९७.तिरिक्खगईए तिरिक्खेसु अट्ठावीसविह० केव० १ जह० एगसमओ । उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेण सादिरेपाणि। सत्तावीस ओघभंगो। छव्वीसविह० केव० ? जह० एगसमओ, उक्क. अणंतकालमसंखेजा पुग्गलपरियट्टा । चउवीसविह० केव० जह० अंतोमु०, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त पाया जाता है। पहले नरकमें २२ विभक्तिस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट काल इसीप्रकार जानना चाहिये; क्योंकि अन्य नरकोंमें २२ विभक्तिस्थान नहीं होता है। नरकमें इक्कीस विभक्तिस्थानका जघन्य काल जो अन्तर्मुहुर्त कम चौरासी हजार वर्ष प्रमाण बतलाया है उसका यह कारण प्रतीत होता है कि यदि कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि जीव कृतकृत्य वेदकके काल में अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर नरकसम्बन्धी सम्यग्दृष्टिकी जघन्य आयुके साथ मरकर नरकमें उत्पन्न हो तो २१ विभक्तिस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कम चौरासी हजार वर्ष प्रमाण प्राप्त होता है। तात्पर्य यह है कि नरकमें उत्पन्न हुए सम्यग्दृष्टि जीवकी जघन्य आयु चौरासी हजार वर्षसे कम नहीं होती है किन्तु ऐसे जीवके २२ और २१ इन दोनों विभक्ति स्थानोंका पाया जाना भी सम्भव है। अत: यहां २१ विभक्तिस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कम चौरासी हजार बर्ष कहा है। इससे यह भी निष्कर्ष निकल आता है कि जिसके २२ विभक्तिस्थानके कालमें एक समय शेष रहा है ऐसा जीव यदि सम्यग्दृष्टिकी जघन्य आयुके साथ मरकर नरकमें उत्पन्न हो तो उसके २१ विभक्तिस्थानका काल एक समय कम चौरासी हजार वर्ष होता है। इसीप्रकार उत्तरोत्तर बाईस विभक्तिस्थानके कालमें एक एक समय तक बढ़ाते हुए अन्तर्मुहूर्त काल तक ले जाना चाहिये
और इक्कीस विभक्तिस्थानके कालमें एक एक समय घटाते हुए अन्तर्मुहूर्त कम चौरासी हजार वर्ष तक ले जाना चाहिये । उक्त कथनसे यह भी सिद्ध होता है कि कोई २१. विभक्तिस्थानवाला जीव वहां की क्षायिक सम्यग्दृष्टिकी आयुके साथ मरकर यदि नरकमें उत्पन्न हो तो उसके चौरासी हजार वर्षसे कम आयु नहीं पाई जायगी। तथा नरकमें २१ विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट काल पल्यका असंख्यातवां भाग कम एक सागर प्रमाण है। इसका यह तात्पर्य है कि यद्यपि पहले नरककी उत्कृष्ट आयु परिपूर्ण एक सागर प्रमाण है फिर भी वहां उत्पन्न हुए क्षायिक सम्यग्दृष्टिके पहले नरककी उत्कृष्ट आयु नहीं प्राप्त होती है किन्तु, पल्यके असंख्यातवें भाग कम एक सागर ही प्राप्त होती है।
२६७. तियंचगतिमें तिथंचोंमें अट्ठाईस विभक्तिस्थानका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यका असंख्यातवां भाग अधिक तीन पल्य है। सत्ताईस विभक्तिस्थानका काल ओघके समान जानना चाहिये । छब्बीस विभक्तिस्थानका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट अनन्तकाल है। वह अनन्तकाल असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है। चौबीस प्रकृतिक स्थानका काल कितना है ? जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और
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जला सहिदे कला पाहुडे
[ पडविती २
देणाणि | बावीसविह० के० ? जह० एस० उ० अतो बहुतं । एकवीस विह० aro ? जह० पलिदोषमस्स असंखेजदिभागो, उक्क० तिण्णि पलिदोषमाणि । पंचिंदियतिरिक्-पंचिदियतिरिक्खपन० अट्ठावीस-छब्बीसविह० के ० ? जह० एगसमओ उक्क० तिष्णि पलिदोवमाणि पुव्वको डिपुधतेणज्भहियाणि । सेसाणं तिरिक्खोंघभंगो | पंचिदियतिरिक्खजोणिणीसु अट्ठावीस - सत्तावीस-छब्बीस - चउवीस० पंचिदिवतिरिक्खमंगो । पंचिदियतिरिक्खअपज० अड्डावीस- सत्तावीस-छब्बीसविह० केव० १ जह० एगसमओ । उक्क० अंतोमुहुतं । एवं मणुस्सअपज - बादरेइंदिय अपज० -सुहुमपञ्ज० - अपज०-विगलिंदियअपज० पंचिदियअपज० पंचकाय बादर अपज - सुहुमपअ ० अपज०-तस अपज० वत्तव्यं ।
उत्कृष्ट काळ देशोन तीन फल्य है । बाईस विमक्तिस्थानका काल कितना है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इक्कीस प्रकृतिक स्थानका काल कितना है ? जघन्यकाल पल्योपमका असंख्यातवां भाग है और उत्कृष्टकाल तीन पल्य है ।
पंचेन्द्रिय वियंच और पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त जीवोंके अट्ठाईस और छब्बीस प्रकृतिक स्थानका कितना काल है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल पूर्वकोटिपृथक्वसे अधिक तीन पल्य है । उक्त दोनों प्रकारके तिर्थंचोंके शेष सम्भव प्रकृतिकस्थानोंका काळ ओषके समान समझना चाहिये । पंचेन्द्रिय तिर्थंच योनिमती जीवों में अद्वाईस, सत्ताईस, छब्बीस और चौबीस प्रकृतिकस्थानोंके कालका कथन पंचेन्द्रियतिर्थत्रों में उक्त स्थानोंके कहे गये कालके सम्मान करना चाहिये । पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तजीवों में अट्ठाईस, सचाईस, और छब्बीस प्रकृतिक स्थानोंका काल कितना है ? जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार मनुष्य लब्ध्यपर्याप्त, बादर पकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त, विकलेन्द्रिय अपर्याप्त, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, पांचों बादरकाय अपर्याप्त पांचों सूक्ष्मकाय पर्याप्त, पांचों सूक्ष्मकाय अपर्याप्त और त्रसकाय अपर्याप्त इन जीवोंके भी अट्ठाईस, सत्ताईस और छब्बीस प्रकृतिक स्थानोंका काल कहना चाहिये ।
विशेषार्थ - २८, २७, और २६ विभक्तिस्थानके जघन्य काल एक समयका खुलासा जिस प्रकार नरकगतिके कथन के समय कर आये हैं उसी प्रकार यहां भी कर लेना चाहिये । तथा अन्य मार्गणास्थानों में जहां इन विभक्तिस्थानोंका जघन्यकाल एक समय बतलाया हो वहां भी इसी प्रकार खुलासा कर लेना चाहिये। हम पुनः पुनः इसका निर्देश नहीं करेंगे । तिर्यंचगतिमें परिभ्रमण करनेवाले किसी एक जीवके उपशमसम्यक्त्व होकर २८ विभक्तिस्थानकी प्राप्ति हुई । पुनः मिध्यात्वमें जाकर जिसने सम्यग्मिथ्यात्वकी बनेनाका प्रारम्भ किया और अतिदीर्घकाल तक जो तिर्यंचगतिमें ही उसकी उद्वेलना करता हुआ तीन पल्यकी आयुबाले तिथेचोंमें उत्पन्न हुआ और वहां सम्यक्त्व प्राप्तिके योग्य
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गा०.२२)
पयडिहाणविहत्तौए कालो
कालके प्राप्त होने पर जिसने सभ्यग्मिथ्यावकी उद्वेलनाके अन्तिम समयमें पुन: उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त कर लिया। तथा अनन्तर वेदक सम्यग्दृष्टि होकर जो जीवनपर्यन्त उसके साथ रहा उस तिर्यचके २८ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल पल्यका असंख्यातवां भाग अधिक तीन फ्ल्य प्राप्त होता है । जो तिर्थच सम्यग्मिध्यात्वकी उद्वेलनाके प्रारम्भसे अन्त । तक तिर्यच पर्यायमें ही बना रहता है उस तिर्यचके २७ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल ओषके समान पल्यका असंख्यातवां भाग प्राप्त होता है । २६ विभतिस्थानका उत्कृष्टकाल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण होता है वह स्पष्ट ही है, क्योंकि किसी एक जीवके मिथ्यात्वके साथ निरन्तर तिथंचपर्यायमें रहनेका काल उक्त प्रमाण ही है। २४ विभक्तिस्थानका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त नारकियोंके समान घटित कर लेना चाहिये । तथा उत्कृष्टकाल जो कुछ कम तीन पल्य कहा है उसका कारण यह है कि कोई एक जीव उत्तम भोगभूमिमें तीन पल्यकी आयु लेकर उत्पन्न हुआ और वहां पर उसने सम्यक्त्वके योग्य कालके प्राप्त होनेपर सम्यक्त्वको प्राप्त करके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना कर दी। पुनः जीवन भर जो २४ विभक्तिस्थानके साथ रहा । उसके २४ विभक्तिस्थानका उत्कृष्ठ काल कुछ कम तीन पल्य होता है। यहां कुछ कमसे अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना होने तकका काल लेना चाहिये । यहां २२ विभक्तिस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट काल नारकियोंके समान घटित कर लेना चाहिये । भोगभूमिके तिर्यचकी जघन्य आयु पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण और उत्कृष्ट आयु तीन पल्यप्रमाण होती है। इसी अपेक्षासे तियंचोंमें २१ विभक्तिस्मानका जघन्य काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण और उत्कृष्ट काल तीन पल्यप्रमाण कहा है। यहां यह शङ्का की जा सकती है कि सर्वार्थसिद्धि में बतलाया है कि जिसने क्षायिक सम्यग्दर्शनको प्राप्त करनेके पहले तिर्यंचायुका बन्ध कर लिया है ऐसा मनुष्य उत्तम भोगभूमिके नियंत्र पुरुषों में ही उत्पन्न होता है और उत्तम भोगभूमिमें उत्पन्न हुए जीवकी जघन्य आयु भी दो पल्पसे अधिक होती है। अत: यहां २१ विभक्तिस्थानका जयन्यकाल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण नहीं बन सकता है। इस शङ्काका यह समाधान है कि सर्वार्थसिद्धिको छोड़ कर हमने दिगम्बर और श्वेताम्बर संप्रदायमें प्रचलित कार्मिक ग्रन्थ देखे पर वहां हमें यह कहीं लिखा हुआ नहीं मिला कि क्षायिकसम्यग्दृष्टि मर कर अगर तिथंच और मनुष्य होता है तो उत्तमभोगभूमिया ही होता है । वहां तो केवल इतना ही लिखा है कि ऐसा जीव यदि मर कर तिथंच और मनुष्य हो तो असंख्यातवर्षकी आयुवाला भोगभूमिया ही होता है। इससे मालूम होता है कि सर्वार्थसिद्धिमें जो 'उत्तम' पद आया है वह भोगभूमि पदका विशेषण न होकर पुरुष पदका विशेषण है। अथवा ये दोनों कथन मान्यताभेदसे सम्बन्ध रखते हों तो भी कोई आश्चर्य नहीं। इस प्रकार ऊपर जो सामान्य तिर्यचोंके २८ आदि विभक्तिस्थानोंका काल बतलाया है, उसमें से २८ और २६
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे. [पयडिविहषी ३ - ६२६८. मणुस्सेसु अठ्ठावीस-सत्तावीस-छव्वीस-चउवीसविह० पंचिंदियतिरिक्खमंगो। . तेवीस-बावीस-तेरस-बारस-एक्कारस-पंच-चत्तारि-तिण्णि-दोण्णि-एगविहत्तियाणमोघमंगो। एकवीसविह० केब० ? जह० अंतोमुहुत्तं । उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि किंचूणपुवकोडितिभागेणब्भहियाणि । एवं मणुसपञ्ज० । णवरि, बावीसविह० जह.. एगसमओ, उक्क० अंतोमुत्तं । एवं मणुस्सिणीसु । णवरि, बारस० जह.. अंतोमुहुत्तं । एक्कवीसविह० केव०. ? जह० अंतोमुहुत्तं । उक्क० पुव्वकोडी देसूणा । विभक्तिस्थानोंके उत्कृष्टकालको छोड़ कर शेष सब कालविषयक कथन पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय तिथंचपर्याप्तकोंके भी घटित हो जाता है । किन्तु इन दोनों प्रकारके तिर्थचोंके २८ और २६ विभक्तिस्थानोंका उत्कृष्टकाल पूर्वकोटि पृथक्त्वसे अधिक तीन पल्यप्रमाण होता है। यहां पूर्वकोटि पृथक्त्वसे पंचेन्द्रियतिथंचोंके १५ पूर्वकोटियोंका और पंचेन्द्रियतिर्यचपर्याप्तकोंके ४७ पूर्वकोटियोंका ग्रहण करना चाहिये। तथा पंचेन्द्रिय तिथंच योनिमतियोंके २८, २७, २६ और २४ विभक्तिस्थानोंका काल पंचेन्द्रिय तिथंचोंके समान जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके २८ और २६ विभक्तिस्थानोंका उत्कृष्ट काल कहते समय पूर्वकोटिपृथक्त्वसे १५ पूर्वकोटियोंका ही ग्रहण करना चाहिये ।" तात्पर्य यह है कि इनके २८ और २६ विभक्तिस्थानोंका उत्कृष्टकाल १५ पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य होता है । पंचेन्द्रियतिथंच लब्ध्यपर्याप्तकोंके २८, २७ और २६ विभक्तिस्थानका एक समय प्रमाण जघन्यकाल उद्वेलनाकी अपेक्षा घटित कर लेना चाहिये। तथा अपनी उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा यहां उक्त विभक्तिस्थानोंका उत्कृष्टकाल कहा है । इसी प्रकार मनुष्य लब्ध्यपर्याप्त आदि जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें भी जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त घटित कर लेना चाहिये।
६२६८. मनुष्योंमें अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस और चौबीस विभक्तिस्थानोंके जघन्य और उत्कृष्टकालका कथन पंचेन्द्रियतिथचोंमें उक्त स्थानोंके कहे गये जघन्य और उत्कृष्टकालके समान है । तेईस, बाईस, तेरह, बारह, ग्यारह, पांच, चार, तीन, दो और एक स्थानोंका जघन्य और उत्कृष्टकाल ओघके समान है । इक्कीस विभक्तिस्थानका काल कितना है। जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल कुछ कम पूर्वकोटिके त्रिभागसे अधिक तीन पल्य है। इसीप्रकार मनुष्यपर्याप्तकोंके समझना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके बाईस विभक्तिस्थानका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसीप्रकार मनुष्यणिओंके समझना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनके बारह विभक्तिस्थानका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है। तथा इनके इकीस विभक्तिस्थानका काल कितना है ? जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल देशोन पूर्वकोटि है।
. विशेषार्थ-मनुष्योंमें २८, २७, २६ और २४ विभक्तिस्थानोंका काल पंचेन्द्रिय
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गा० २२]
: फ्यडिहाणविहत्तीए कालो
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तिर्यचोंके समान होता है। इसका यह तात्पर्य है कि पंचेन्द्रियतियंचोंके समान सामान्य मनुष्यों में भी २८, २७, और २६ विभक्तिस्थानोंका जघन्यकाल एक समय, २४ विभक्तिस्थानका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त तथा २८ और २६ विभक्तियोंका उत्कृष्टकाल पूर्वकोटि पृथक्त्वसे अधिक तीन पल्य, २७ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल ओघके समान पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण और २४ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल कुछ कम तीन पल्य जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि यहां पूर्वकोटिपृथक्त्वका खुलासा करते समय तिर्यचोंकी ६५ पूर्वकोटियां न कह कर मनुष्योंकी ४७ पूर्वकोटियां ही कहना चाहिये । शेष खुलासा जिस प्रकार पंचेन्द्रियतिथंचोंके कथनके समय कर आये हैं उसी प्रकार यहां कर लेना चाहिये । तथा सामान्य मनुष्योंमें केवल २१ विभक्तिस्थानके कालको छोड़ कर शेष विभक्तिस्थानोंका काल ओघके समान है । अतः ओघका कथन करते समय जिस प्रकार खुलासा कर आये हैं उसी प्रकार यहां कर लेना चाहिये । हां, ओघसे २१ विभक्तिस्थानके कालमें कुछ विशेषता है जो निम्न प्रकार है । उसमें भी सामान्य मनुष्योंके २१ विभक्तिस्थानका जघन्यकाल तो ओघके समान अन्तर्मुहूर्त ही होता है। पर उन्कृष्ट काल जो साधिक तेतीस सागर बतलाया है वह न होकर कुछ कम पूर्वकोटि त्रिभागसे अधिक तीन पल्य प्रमाण ही होता है । यथा-एक पूर्वकोटिकी आयुवाले जिस कर्मभूमिया मनुष्यने आयुके त्रिभागप्रमाण शेष रहनेपर परभवसम्बन्धी मनुष्यायुका बन्ध किया । पुनः आयुबन्धके पश्चात् वेदक सम्यग्दृष्टि होकर अनन्तर क्षायिकसम्यक्त्वको प्राप्त किया। तदनन्तर क्षायिकसम्यक्त्वके साथ शेष आयुका भोग करके और आयुके अन्तमें मरकर उत्तम भोगभूमिमें तीन पल्यकी आयुके साथ मनुष्य हुआ और वहांसे देवगतिमें गया। उसके २१ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल पूर्वकोटिके कुछ कम एक त्रिभागसे अधिक तीन पल्यप्रमाण पाया जाताहै। ऊपर जिस प्रकार सामान्य मनुष्योंमें २८ आदि विभक्तिस्थानोंके कालका खुलासा किया है उसी प्रकार पर्याप्त मनुष्योंके कर लेना चाहिये । पर इतना ध्यान रखना चाहिये कि पर्याप्त मनुष्योंके २८ और २६ विभक्तिस्थानोंके उत्कृष्ट कालका खुलासा करते समय पूर्वकोटिपृथक्त्वसे २३ पूर्वकोटियोंका ही ग्रहण करना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके २२ विभक्तिस्थानका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तमुहूर्तप्रमाण होता है । कृतकृत्य वेदक कालमें एक समय शेष रहनेपर जो मरकर मनुष्यों में उत्पन्न हुआ है उस पर्याप्त मनुष्यके २२ विभक्तिस्थानका जघन्यकाल एक समय पाया जाता है। तथा जिस मनुष्य पर्याप्तने दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ किया है और कृतकृत्यवेदक होकर जो नहीं मरा है उसके २२ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होता है। तथा सामान्य मनुष्योंके समान मनुष्यणियोंके भी २८ आदि विभक्तिस्थानोंका काल जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके बारह विभ
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arraaree hareपाहुडे
[ पडती २
९२६६. देवेसु अट्ठावीस विह० जह० एगसमओ । चडवीसविह० जह० अंतोनुडुतं । उक्क० दोण्हंपि तेत्तीसं सागरोवमाणि । सत्तावीसविह • ओघभंगो। छब्वी सविह० के० १ जह० एगसमओ । उक्क • एक्कत्तीस सागरोवमाणि । वावीसविह० जह० एगसमओ । उक्क० अंतोमुडुत्तं । एकवीसविह० केव० ९ जह० पालदोवमं सादिरेयं, उक्क० तेतीसं सागरोवमाणि । भवण० वाण० जोइसि० अट्ठावीस - छब्बीसविह० केव० ? जह एगसमओ, उक्क ० सहिदी | सत्तावीस० ओघभंगो । चउवीसविह० के० ? जह० अंत, उक्क० सगहिदी देखणा | सोहम्मादि जाव उवरिमगेवजदेवाण मोघभंगो । क्तिस्थानका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त ही होता है, क्योंकि जो जीव स्त्रीवेद के उदयके साथ क्षपणीपर चढ़ता है उसके नपुंसक वेद के क्षय हो जानेके पश्चात् अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा ही स्त्रीवेदका क्षय होता है । इसी प्रकार मनुष्याणियोंके २१ विभक्तिस्थानका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल कुछ कम पूर्वकोटिप्रमाण ही होता है । इनके २१ विभक्तिस्थानका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त क्यों होता है, यह तो स्पष्ट ही है पर उत्कृष्टकाल जो कुछ कम पूर्वकोटिप्रमाण बतलाया उसका कारण यह है कि सम्यग्दृष्टि जीव मर कर मनुष्यणियों में उत्पन्न नहीं होता अतः एक भवकी अपेक्षा ही इनका उत्कृष्टकाल प्राप्त होता है । किन्तु क्षायिक सम्यक्त्वकी प्राप्ति कर्मभूमिज मनुष्यके ही होती है और कर्मभूमिज मनुष्य की उत्कृष्ट आयु एक पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण होती है । साथ ही यह भी नियम है कि कर्मभूमिज मनुष्य के आठ वर्षके पहले सम्यक्त्व उत्पन्न करनेकी योग्यता नहीं होती, अतः एक पूर्वकोटिकी आयुवाले जिस मनुष्यणीने आठ वर्षके उपरान्त बेदक सम्यक्त्वपूर्वक क्षायिक सम्यक्त्वको उत्पन्न किया है उसके २१ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण देखा जाता है ।
२६. देवोंमें अट्ठाईस प्रकृतिक स्थानका जघन्य काल एक समय है और चौबीस प्रकृतिक स्थानका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है। तथा दोंनों स्थानोंका उत्कृष्टकाल तेतीस सागर है । सत्ताईस प्रकृतिक स्थानका जघन्य और उत्कृष्ट काल ओघके समान है । छब्बीस प्रकृतिकस्थानका काल कितना है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल इकतीस सामर है । बाईस प्रकृतिक स्थानका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इक्कीस प्रकृतिक स्थानका कितना काल है जघन्य काल साधिक पल्य और उत्कृष्टकाल तेतीस सागर है ।
भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोमें अट्ठाईस और छब्बीस प्रकृतिकस्थानका कितना काल है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है । सत्ताईस प्रकृतिक स्थानका काल ओघ के समान है । चौबीस प्रकृतिक स्थानका कितना कोल है ? जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल देशोन अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है ।
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गा० २२ ] पयडिट्ठाणविहत्तीए कालो
२६५ णवरि, उक्क० सगष्ठिदी वत्तव्वा । अणुदिसादि जाव सव्वहे ति अहावीस-चउवीसविह० केव० ? जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० सगहिदी। बावीस० णारगभंगो। एक्कवीस० केव०? जह० जहण्णहिदी अंतोमुहुत्तणा, उक० उक्कस्सहिदी।
सौधर्म स्वर्गसे लेकर उपरिम प्रैवेयक तक देवोंके स्थानोंके कालका कथन ओघके समान करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके उत्कृष्टकाल अपनी अपनी स्थिति प्रमाण कहना चाहिये । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक देवोंके अट्ठाईस और चौबीस प्रकृतिक स्थानका काल कितना है ? जघन्यकाल अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्टकाल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। बाईसप्रकृतिक स्थानका काल नारकियोंके समान समझना चाहिये । इक्कीस प्रकृतिक स्थानका काल कितना है ? जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त कम अपनी अपनी जघन्य स्थिति प्रमाण है और उत्कृष्टकाल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है।
विशेषार्थ-जिस वेदकसम्यग्दृष्टि मनुष्यने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना नहीं की है वह मर कर जब उत्कृष्ट आयुके साथ चार विजयादिकमें या सर्वार्थसिद्धि में उत्पन्न होता है और वहां भी यदि वह अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना नहीं करता है तो उसके २८ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल ३३ सागर पाया जाता है। तथा जिसने अनन्दानुबन्धीकी विसंयोजना कर दी है ऐसा जो वेदकसम्यग्दृष्टि मनुष्य उक्त स्थानोंमें पैदा होता है उसके २४ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल ३३ सागर देखा जाता है। २६ विभक्तिस्थान मिथ्यादृष्टिके ही होता है। अतः देवोंमें २६ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल ३१ सागर ही कहना चाहिये, क्योंकि मिथ्यादृष्टि जीव नौद्मवेयक तक ही पैदा होता है और नौवेयकमें उत्कृष्ट आयु ३१ सागरप्रमाण ही है इससे अधिक नहीं । वैमानिकोंमें जघन्य आयु साधिक एक पल्य और उत्कृष्ट आयु तेतीस सागर है अतः यहां २१ विभक्तिस्थानका जघन्यकाल साधिक एक पल्य और उत्कृष्टकाल तेतीस सागर कहा है । भवनत्रिकोंमें चौबीस विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण कहनेका कारण यह है कि इनमें सम्यग्दृष्टि जीव अन्य गतिसे आकर उत्पन्न नहीं होते हैं। अतः वहीं जिन्होंने वेदक सम्यक्त्व प्राप्त करके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना कर दी है उनके ही २४ विभक्तिस्थान होता है जिसका जीवन भर पाया जाना सम्भव है, अतः ‘भवनत्रिकोंमें २४ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल कुछ कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण ही प्राप्त होता है। सौधर्मसे लेकर नौग्रैवेयक तक तो सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों प्रकारके जीव पैदा होते है। अतः वहां २८,२६,२४ और २१ विभक्तिस्थानोंका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण बन जाता है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें यद्यपि सम्यग्दृष्टि ही उत्पन्न होते हैं फिर भी जो वहां उत्पन्न होनेके अनन्तर अन्तमुहूर्त कालके पश्चात् अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना कर देते हैं उनके २८ विभक्तिस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [पयडिषिहत्ती २ ६३००.इंदियाणुवादेण एंइदिय० बादर० सुहुम० अठ्ठावीस-सत्तावीसविह केव० ? जह० एगसमओ उक्क० पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो। छव्वीसवि० जह० एगसमओ, उक्क० सगहिदी। बादरपज अट्ठावीस-सत्तावीस-छन्चीसविह० केव० १ जह• एगसमओ, उक्क० संखेजाणि वस्ससहस्साणि । एवं विगलिंदिय-विगलिंदियपज । पचिंदिय-पंचिंदिऔर जो जीवनके अन्तमें अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहनेपर अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करते हैं उनके चौबीस विभक्तिस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है यहां हमने जिन विभक्तिस्थानोंके जघन्य या उत्कृष्ट कालके विषयमें विशेष कहना था उन्हींके कालका खुलासा किया है शेषका नहीं। अतः शेषका विचार कर लेना चाहिये ।
६३००. इन्द्रियमार्गणाकेअनुवादसे एकेन्द्रिय, तथा इनके बादर और सूक्ष्म जीवोंमें अट्ठाईस और सत्ताईस विभक्तिस्थानका कितना काल है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल पल्यके असंख्यातवें भाग है । छब्बीस विभक्तिस्थानका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है । एकेन्द्रिय बादर पर्याप्त जीवोंमें अट्ठाईस, सत्ताईस
और छब्बीस विभक्तिस्थानका कितना काल है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल संख्यात हजार वर्ष हैं । इसीप्रकार विकलेन्द्रिय,विकलेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके कहना चाहिये।
विशेषार्थ-यद्यपि एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय और सूक्ष्म एकेनि य जीवका निरन्तर उस पर्यायमें रहनेका काल पल्यके असंख्यातवें भागसे अधिक है, फिर भी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें २८ और २७ विभक्तिस्थानोंका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होता है इससे अधिक नहीं । अतः एकेन्द्रियादि उक्त जीवोंके २८ और २७ विभक्तिस्थानोंका काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। किन्तु २६ विभक्तिस्थानके विषयमें यह बात नहीं है अतः उसका काल उक्त जीवोंके अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहा है । तथा बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंका उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष प्रमाण ही होता है अतः इनके २८, २७ और २६ विभक्तिस्थानोंका उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष कहा है । तथा विकलेन्द्रिय और विकलेन्द्रियपर्याप्त जीवोंके भी २८, २७ और २६ विभक्तिस्थानोंका उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष जानना चाहिये। क्योंकि कोई एक जीव विकलेन्द्रिय और विकलेन्द्रियपर्याप्त पर्यायमें निरन्तर संख्यात हजार वर्ष तक ही रहता है । इसके पश्चात् उसकी विवक्षित पर्याय बदल जाती है। बादर एकेन्द्रिय अप
प्ति, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त और विकलेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके २८, २७ और २६ विभक्तिस्थानोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त होता है। जो सुगम होनेके कारण वीरसेनस्वामीने नहीं कहा है। विशेषार्थमें हमने जिन विभक्तिस्थानोंके जघन्य या उत्कृष्ट कालोंका खुलासा नहीं किया है इसका कारण यह है कि उनका खुलासा नरकगति आदिके सम्बन्धमें विशेषार्थ लिखते समय कर आये हैं।
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गौ० ३२ ]
tfsgujarate कालो
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यपञ्ज०-तस-तसपञ्जत्ताणमोघभंगो । णवरि, अट्ठावीस ० जह० एगसमओ उक्क० सगहिदी ? छब्बीस विह० के० ? जह० एगसमओ, उक्क० सगहिदी । पुढवि० - आउ०तेउ० - वाउ०- बादर-सुहुम० वणफदि० - बादर - सुहुम० णिगोद० - बादर-सुहुम० अट्ठावीससत्तावीस ० एइंदियभंगो । छव्वीसविह ० के ० १ जह० एस० उक्क० सगहिदी। बादरपुढवि० - आउ०० तेउ उ०- वाउ०- बादरवणप्फ दिपत्तेय ० - बादरणिगोदपदिद्विदपजत्त० बादरएइंदियपजत्तभंगो |
पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस और त्रस पर्याप्त जीवोंके ओघके समान कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि अट्ठाईस विभक्तिस्थानका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल अपनी अपनी स्थिति प्रमाण है । तथा छब्बीस विभक्तिस्थानका काल कितना है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। पृथिवीकायिक, अष्कायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक तथा इनके बादर और सूक्ष्म, वनस्पतिक्रायिक तथा इनके बादर और सूक्ष्म, निगोदजीव तथा इनके बादर और सूक्ष्म जीवोंके अट्ठाईस और सत्ताईस विभक्ति - स्थानका काल एकेन्द्रियोंके समान जानना चाहिये । उक्त जीवोंके छब्बीस विभक्तिस्थानका काल कितना है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है । बादर पृथिवीकायिकपर्याप्त, बादर अप्कायिकपर्याप्त, बादर अग्निकायिकपर्याप्त, बादर वायुकायिकपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त और बादर निगोद प्रतिष्ठित पर्याप्त जीवोंके २८, २७ और २६ विभक्तिस्थानोंका काल बादर एकेन्द्रियपर्याप्त जीवोंके समान जानना चाहिये ।
विशेषार्थ - २४ विभक्तिस्थान से लेकर शेष सब विभक्तिस्थान पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस और त्रस पर्याप्त जीवोंके ही होते हैं अतः इनके २४ आदि विभक्तिस्थानोंका जघन्य और उत्कृष्टकाल ओघके समान बन जाता है । अब रही २८, २७ और २६ विभक्तिस्थानोंके कालोंकी बात, सो इनके २७ विभक्तिस्थानका जघन्य और उत्कृष्टकाल भी ओघके समान बन जाता है । किन्तु २८ विभक्तिस्थानके जघन्यकालमें और २६ विभक्तिस्थानके उत्कृष्टकालमें कुछ विशेषता है जो ऊपर बताई ही है । तथा एकेन्द्रिय जीवोंके २८ और २७ विभक्तिस्थानोंके कालोंका तथा एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके २६ विभक्तिस्थानके कालका जिसप्रकार खुलासा कर आये हैं उसीप्रकार पृथिवीकायिक आदि जीवोंके भी २८ आदि विभक्तिस्थानोंके कालोंका खुलासा कर लेना चाहिये । तथा वीरसेनस्वामीने जिसप्रकार बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त आदि जीवोंके २८ आदि विभक्तिस्थानोंके कालोंका विवेचन नहीं किया है उसीप्रकार यहांभी इन पृथिवी कायिक आदिके बादर अपर्याप्त, सूक्ष्म पर्याप्त और सूक्ष्म अपर्याप्तभेदोंके २८ आदि विभक्तिस्थानोंके कालोंका विवेचन नहीं किया है सो जिसप्रकार एकेन्द्रिय बादर अपर्याप्त आदिके २८ आदि विभक्तिस्थानोंका काल ऊपर कह
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जयासह कसा पाहुडे
| पर्या डिविहती ३
१३०१. जोगाणुवादेण पंचमण ० पंचवचि० वेउब्विय० - आहार० अप्पप्पणी पदाणं विह० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । कायजोगि० अट्ठावीस - सत्तावीस विह० के० ? जह० एगसमओ, उक्क० पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । छव्वीसविह० के० ? जह० एगसमओ, उक्क० सगहिदी । सेसाणं मणजोगिभंगो। ओरालियकायजोगि० अट्ठावीससत्तावीस - छब्बीसविह० के० ? जह० एगसमओ, उक्क० बावीस वस्ससहस्साणि अंतोमुहुत्तणाणि । सेसाणं मणजोगिभंगो । ओरालियमिस्स ० अट्ठावीस -सत्तावीसछब्वीस-वावीसविह० के० ? जह एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । चउवीस - एकवीस वि० के० ? जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । एवं वेउव्वियमिस्स० । आहारमिस्स ० सव्वपदाणं विह० के० ? जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । कम्मइय० अट्ठावीस - सत्तावीस-छब्बीसविह के० ? जह० एगसमओ, उक्क० तिष्णि समया । चउवीस-बावीस - एकवीसवि० के० १ जह० एगसमओ, उक्क० बेसमया ।
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आये है उसीप्रकार यहां भी कह लेना चाहिये ।
१३०१. योगमार्गणा के अनुवादसे पांचों मनोयोगी, पांचों बचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी और आहारककाययोगी जीवोंके अपने अपने विभक्तिस्थानोंका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । काय योगी जीवोंके अट्ठाईस और सत्ताईस विभक्तिस्थानों का काल कितना है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल पल्य के असंख्यातवें भाग है । छब्बीस विभक्तिस्थानका काल कितना है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अपनी स्थिति प्रमाण है । शेष स्थानोंका काल मनोयोगियों के समान है । औदारिककाययोगी जीवोंके अट्ठाईस, सत्ताईस और छब्बीस विभक्तिस्थानका कितना काल है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त कम बाईस हजार वर्ष प्रमाण है । शेष स्थानोंका काल मनोयोगियोंके समान है । औदारिक मिश्रकाययोगी जीवोंके अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस और बाई विभक्तिस्थानका काल कितना है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। चौबीस और इक्कीस विभक्तिस्थानका काल कितना है ? जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । जिसप्रकार औदारिक मिश्रकाययोगियोंके अट्ठाईस आदि स्थानोंका काल कह आये है उसीप्रकार वैक्रियिकमिश्र काययोगियोंके उक्त स्थानोंका काल जानना चाहिये | आहारक मिश्रकाययोगियोंके संभव सभी स्थानोंका काल कितना है ? जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । कार्माणकाययोगियोंके अट्ठाईस, सत्ताईस और छब्बीस विभक्ति स्थानोंका काल कितना है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्टकाल तीन समय है । चौबीस, बाईस और इक्कीस विभक्तिस्थानोंका काल कितना है जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय है ।
विशेषार्थ- पांचों मनोयोग, पांचों वचनयोग, वैक्रियिककाययोग और आहारक काय
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गी० ३३
पयडिहाणविहत्तौए कालो
योगका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है अतः इन योगोंमें सम्भव अपने अपने विभक्तिस्थानोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बन जाता है। तथा अन्य प्रकारसेभी इन योगों में अपने अपने विभक्तिस्थानोंका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त बन सकता है सो विचार कर कथन कर लेना चाहिये । काययोगमें २८,२७, और २६ विभक्तिस्थानोंका जघन्यकाल एक समय जिसप्रकार नारकियोंके घटित करके लिख आये हैं उसीप्रकार घटित कर लेना चाहिये । सर्वदा काययोग एकेन्द्रियोंके ही रहता है और एकेन्द्रियोंके एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ही होता है अतः काययोगमें २८ और २७ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है, क्योंकि सम्यक्त्व और सभ्यमिथ्यात्वकी उद्वेलनामें इतना ही काल लगता है । काययोगका उत्कृष्टकाल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण होता है अत: इसमें २६ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल इतना ही प्राप्त होता है। क्योंकि इतने काल तक निरन्तर २६ विभक्तिस्थानके होने में कोई बाधा नहीं है। काययोगमें शेष विभक्तिस्थानोंका काल मनोयोगियोंके समान कहनेका कारण यह है कि शेष विभक्तिस्थान संज्ञीके ही होते हैं और वहां तीनों योग बदलते रहते हैं अतः काययोगमें भी शेष विभक्तिस्थानोंका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बन जाता है। औदारिक काययोगमें २८, २७, और २६ विभक्तिस्थानोंका जघन्य काल एक समय पूर्ववत् घटित कर लेना चाहिये । या इसका जघन्यकाल एक समय है इसलिये भी इसमें उक्त विभक्तिस्थानोंका जघन्य काल एक समय बन जाता है। तथा औदारिककाययोगका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कम बाईस हजार वर्ष है अत: इसमें २८, २७ और २६ विभक्तिस्थानोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कम २२ हजार वर्ष प्रमाण बन जाता है। तथा
औदारिक काययोगमें भी शेष विभक्तिस्थानोंका काल मनोयोगियोंके समान घटित कर लेना चाहिये । औदारिक मिश्रकाययोगमें २८, २७, २६ और २२ विभक्तिस्थानोंका जघन्य काल एक समय नारकियोंके समान घटित कर लेना चाहिये । तथा औदारिक मिश्रकाययोगका काल अन्तर्मुहूर्त होनेसे इसमें उक्त विभक्तिस्थानोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बन जाता है। तथा औदारिकमिश्रकाययोगमें २४ और २१ विभक्तिस्थानक' जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त ही प्राप्त होता है, क्योंकि जो २४ और २१ विभक्तिस्थानवाला जीव औदारिकमिश्र काययोगको प्राप्त हुआ है उसके औदारिक मिश्रकाययोगके कालमें २१ और २१ विभक्तिस्थान ही बना रहता है। यद्यपि जो २२ विभक्तिस्थानवाला जीव
औदारिकमिश्रकाययोगको प्राप्त होता है। उसके औदारिकमिश्रकाययोगके रहते हुए ही २२ विभक्तिस्थान बदल कर २१ विभक्तिस्थान आजाता है किन्तु इसप्रकार २१ विभक्तिस्थानके प्राप्त होनेपर भी अन्तर्मुहूर्त काल तक औदारिक मिश्रकाययोग फिर भी बना रहता है अतः औदारिक मिश्रकाययोगमें २१ विभक्तिस्थानका काल अन्तर्मुहूर्तसे कम नहीं कहा
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जैयधवलासहिदे कसायपाहुडे .. [पयडिविहन्नी २ ६३०२. वेदाणुवादेण इत्थि० अहावीसविह० के. १ जह० एगसमओ, उक्क० पणवण्णपलिदोवमाणि सादिरेयाणि । सत्तावीसवि० ओघभंगो । छव्वीसविह० के० १ जह० एगसमओ, उक्क० सगहिदी । चउवीसविह० जह० एगसमओ। कुदो ? उवसमसेढीदो ओदरिय सवेदी होदण विदियसमए कालं कादण देवेसुप्पण्णस्स एगसमयकालुवलंभादो। उक्क०पणवण्णपलिदोवमाणि देसूणाणि । तेवीस-बावीस-तेरसबारसवि. ओघभंगो । गवरि, बारसविह० एयसमओ णत्थि । एकवीसविह० के० ? जह० एगसमओ, उक्क० पुव्वकोडी देसूणा । पुरिसवेदे अट्ठावीस-चउवीसहै। औदारिक मिश्रकाययोगके समान वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें सम्भव विभक्तिस्थानोंका काल होता है, उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। आहारकमिश्रकाययोगका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त होता है अतः इसमें सम्भव २८, २४ और २१ विभक्तिस्थानोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। कामणकाययोगका जघन्य काल एक समय है अतः इसमें सम्भव २८, २७, २६, २४ २२ और २१ विभक्तिस्थानोंका जघन्य काल एक समय कहा है। यहां २८, २७, २६ और २२ विभक्तिस्थानोंका जघन्य काल एक समय अन्य प्रकारसे भी बन सकता है सो विचार कर कथन कर लेना चाहिये । तथा निष्कुट क्षेत्रके प्रति गमन करने वाले जीवोंके ही तीन विग्रह होते हैं और ऐसे जीव मिध्यादृष्टि ही होते हैं। तथा मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें २८, २७ और २६ ये तीन विभक्तिस्थान ही सम्भव है अतः कार्मणकाययोगमें इन तीनोंका उत्कृष्ट काल तीन समय कहा । तथा २४, २२ और २१ विभक्तिस्थानवाले जीव यदि मरते हैं तो अधिकसे अधिक दो विग्रह ही कर लेते हैं अतः कार्मणकाययोगमें इनका दो समय प्रमाण उत्कृष्ट काल कहा है।
६३०२. वेदमार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदमें अट्ठाईस प्रकृतिस्थानका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक पचपन पल्य है । सत्ताईस प्रकृतिक स्थानका काल ओघके समान है। छब्बीस प्रकृतिक स्थानका काल कितना है ? जघन्य काल एक समय उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। चौबीस प्रकृतिक स्थानका जघन्य काल एक समय है।
शंका-स्त्रीवेदमें चौबीस प्रकृतिक स्थानका जघन्य काल एक समय क्यों है ?
समाधान-क्योंकि जो उपशमश्रेणीसे उतरकर वेद सहित हुआ और दूसरे समयमें मर कर देवोंमें उत्पन्न हुआ उस स्त्रीवेदीके चौबीस प्रकृतिकस्थानका जघन्य काल एक समय पाया जाता है। स्त्रीवेदमें चौबीस प्रकृतिकस्थानका उत्कृष्टकाल देशोन पचपन पल्य है। तेईस, बाईस, तेरह और बारह प्रकृतिक स्थानका काल ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि बारह प्रकृतिकस्थानका. जघन्यकाल एक समय नहीं है। इक्कीस प्रकृतिक स्थानका काल कितना है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल देशोन पूर्वकोटिप्रमाण है।
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गा० २२]
पावहत्तीए कालो
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विह० के० ? जह० एगसमओ, अंतोमुहुत्तं । उक्क० ओघभंगो । सत्तावीस० ओघभंगो । छव्वीसविह० के० ? जह० एगसमओ, उक्क० सगहिदी । तेवीस-तेरस -बारसएक्कारसविह० ओघमंगो । णवरि, बारसविह० एयसमओ णत्थि । एकवीसविह० केव० ? जह० अंतोमुहुंत, उक० ओघमंगो । वावीसविह० जह० एमसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । पंचविह० के० ? जहण्णुक० एगसमओ । णवुंस० अठ्ठावीसविह० के० ? जह० एगसमओ, उक्क० तेत्तीससागरोक्माणि सादिरेयाणि । सत्तावीस-छब्बीसवि० एइंदियभंगो | चउवीस-बावीस- एकवीस विह० णारयभंगो | णवरि, चवीसएकवीसवि० जह० एगसमओ । सेसं इत्थिभंगो | णवरि, बारस - वि० जहण्णुक० समओ | अवगदवेदे चउवीस - एक्बीसवि० केव० ? जह० एगसमओ, उक्क० अतोमुहुतं । सेसाणं जहण्णुक्क० अंतोमुहुत्तं । णवरि, पंचविहत्ती केव० ? बेआवलियाओ बिसमऊणाओ ।
पुरुषवेद में अट्ठाईस और चौबीस विभक्तिस्थानका काल कितना है ? इन दोनों स्थानोंका जघन्यकाल क्रमसे एक समय और अन्तर्मुहूर्त है । तथा दोनों ही स्थानोंका उत्कृष्टकाल ओघ के समान है । तथा सत्ताईसप्रकृतिक स्थानका काल ओघके समान है। छब्बीस प्रकृतिकस्थानका काल कितना है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी स्थिति प्रमाण है । तेईस, तेरह, बारह और ग्यारह प्रकृतिकस्थानका काल ओवके समान है । इतनी विशेषता है कि बारह प्रकृतिकस्थानका जघन्यकाल एक समय नहीं है । इक्कीस प्रकृतिकस्थानका काल कितना है ? जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल ओधके समान है। बाईस प्रकृतिकस्थानका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त हैं । पांच प्रकृतिकस्थानका काल कितना है ? जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है ।
नपुंसक वेद में अट्ठाईस प्रकृतिकस्थानका काल कितना है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल साधिक तेतीस सागर है । सत्ताईस और छब्बीस प्रकृतिकस्थानका काल एकेन्द्रियोंके समान है । चौबीस, बाईस और इक्कीस प्रकृतिकस्थानका काल नारकियोंके समान है । इतनी विशेषता है कि चौबीस और इक्कीस प्रकृतिक स्थानोंका जघन्यकाल एक समय है । शेष स्थानोंका काल स्त्रीवेदियोंके समान है । इतनी विशेषता है कि बारह प्रकृतिकस्थानका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय हैं ।
अपगतवेदमें चौबीस और इक्कीस प्रकृतिकस्थानका काल कितना है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । शेष स्थानोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । इतनी विशेषता है कि पांच प्रकृतिकस्थान दो समय कम दो आवली प्रमाण काल तक होता है ।
विशेषार्थ - स्त्रीवेद में २८ विभक्तिस्थानका जो साधिक पचपन पल्य उत्कृष्ट काल
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२७२
trader हिदे कसा पाहुडे
[ पयडिविहती २
किन्तु एकैक प्रकृतिविभक्ति
बतलाते हुए उनका उत्कृष्ट
बतलाया है उसका यह अभिप्राय है कि २ = विभक्तिस्थान वाला कोई एक स्त्रीवेदी मनुष्य पचपन पल्यकी आयुवाली देवियोंमें उत्पन्न हुआ और वहां पर्याप्त होनेके पश्चात् उसने सम्यक्प्रकृतिकी उद्वेलना होनेके अन्तिम समय में उपसमसम्यक्त्व पूर्वक वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त किया किन्तु अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना नहीं की । तथा वह जीवन भर वेदकसम्यक्त्वके साथ ही रहा तो उसके पचपन पल्यकाल तक २८ विभक्तिस्थान पाया जाता है । देवी होने के पहले यह स्त्रीवेदी जीव और कितने काल तक २८ विभक्तिस्थानके साथ रह सकता है इसका स्पष्ट उल्लेख अन्यत्र देखनेमें नहीं आया । स्वयं वीरसेन स्वामी ने भी इस कालको साधिक कहके छोड़ दिया है । अनुयोगद्वार में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट काल काल साधिक पचपन पल्य कहा है। इससे मालूम पड़ता है कि यहां साधिक से सम्यकूप्रकृतिका उद्वेलनाकाल इष्ट है । जो कुछ भी हो तात्पर्य यह है कि स्त्रीवेदमें २८ विभक्तिस्थान साधिक पचवन पल्यकाल तक पाया जाता है । स्त्रीवेदमें २६ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल अपनी स्थिति प्रमाण प्राप्त होता है, क्योंकि स्त्रीवेदके साथ निरन्तर रहनेका उत्कृष्टकाल सौ पल्यपृथक्त्व प्रमाण बतलाया है और इतने काल तक यह जीव मिध्यादृष्टिभी रह सकता है तथा मिध्यादृष्टि के निरन्तर २६ विभक्तिस्थानके होनेमें कोई बाधा नहीं है । अतः स्त्रीवेदमें २६ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल अपनी स्थितिप्रमाण बन जाता है । स्त्रीवेदमें २४ विभक्तिस्थानका जघन्यकाल एक समय स्वयं बीरसेन स्वामीने बतलाया है । तथा उत्कृष्टकाल जो कुछ कम पचपन पल्य बतलाया है उसका यह अभिप्राय है कि कोई एक जीव पचपन पल्यकी आयुवाली देवियोंमें उत्पन्न हुआ और वहां पर्याप्त होनेके पश्चात् वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त करके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी बिसंयोजना कर दी । अनन्तर जीवन भर ऐसा जीव २४ विभक्ति स्थानके साथ रहा तो उसके २४ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल कुछ कम पचवन पल्यप्रमाण प्राप्त होता है । २३ और १३ विभक्तिस्थानका काल ओघके समान है । इसमें ओघसे कोई विशेषता नहीं है । २२ विभक्तिस्थानवाला जीव यद्यपि मर सकता है पर अन्य पर्याय में ऐसे जीवके नपुंसकवेद या पुरुषवेदका ही उदय होता है अतः स्त्रीवेद में २२ विभक्तिस्थानका काल भी ओघके समान बन जाता है । अब रही बारह विभक्तिस्थानकी बात, सो स्त्रीवेदके उदयसे जो जीव क्षपकश्रेणीपर चढ़ता है उसके बारह विभक्तिस्थानका काल अन्तर्मुहूर्त ही पाया जाता है, एक समय नहीं । तथा जो स्त्रीवेदी क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव उपशमश्रेणीपर चढ़ा और वहांसे गिर कर एक समय के लिये सवेदी होकर मर गया उसके २१ विभक्तिस्थानका जघन्यकाल एक समय प्राप्त होता है । तथा जो स्त्रीवेदी जीव आठ वर्षके पश्चात् अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर क्षायिक सम्यक्त्वको प्राप्त करलेता है और आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्वकोटि
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गा० २२ ]
. पडद्वाणविहत्तीए कालो
९३०३. कसायाणुवादेण कोधक० अट्टावीस- सत्तावीस-छब्बीस-चडवीस-तेवीसकाल तक उस पर्याय में बना रहता है उसके २१ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल कुछ कम पूर्वकोटि बर्षप्रमाण प्राप्त होता है। जिस पुरुषवेदी २८ विभक्तिस्थान वाले सम्यग्दृष्टि जीवने अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करके २४ विभक्तिस्थानको प्राप्त किया और एक अन्तर्मुहूर्त कालके पश्चात् मिध्यात्वको प्राप्त कर लिया उस पुरुषवेदी जीवके २४ विभक्तिस्थानका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है । बारह विभक्तिस्थानका जघन्यकाल एक समय जिसप्रकार स्त्रीवेदमें नहीं प्राप्त होता है उसी प्रकार पुरुषवेद में भी नहीं प्राप्त होता है । जो पुरुषवेदी जीव २१ विभक्तिस्थानको प्राप्त करके अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर अपगतवेदी होजाता है उसके २१ विभक्तिस्थानका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है । २२ विभक्तिस्थानके कालमें एक समय शेष रहते हुए जो मनुष्य, तिर्यंच या देवगति में उत्पन्न हुआ है उसके पुरुष वेदके साथ २२ विभक्तिस्थानका जघन्यकाल एक समय प्राप्त होता है । तथा जो जीव पुरुषवेदके उदयके साथ क्षपकश्रेणीपर चढ़ता है, उसके छह नोकषायोंकी क्षपणा अपगतवेदी होनेके उपान्त्य समयमें ही होती है अतः पुरुषवेद में पांच विभक्तिस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय प्राप्त होता है । वेद में २८ विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट काल जिसप्रकार साधिक पचपन पल्य घटित करके लिख आये हैं उसी प्रकार नपुंसकवेद में २८ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल साधिक ३३ सागर घटित कर लेना चाहिये । तथा २४ और २१ विभक्तिस्थानका जघन्यकाल एक समय भी स्त्रीवेद के समान घटित कर लेना चाहिये । तथा जो नपुंसकवेदके उदय के साथ क्षपकश्रेणीपर चढ़ता है उसके नपुंसकवेदके क्षय होनेके उपान्त्य समयमें स्त्रीवेदका क्षय होजाता है इसलिए इसके बारह विभक्तिस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय ही प्राप्त होता है । जो २४ और २१ विभक्तिस्थानवाला जीव एक समय तक अपगतवेदी होकर और दूसरे समय में मरकर देवगतिको प्राप्त होजाता है उस अपगतवेदी जीवके २४ और २१ विभक्तिस्थानका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है । तथा २४ या २१ विभक्तिस्थानवाला जो जीव उपशमश्रेणीपर चढ़ा और नौवें गुणस्थान में अपगतवेदी हो गया । पुनः उतरते समय नौवें गुणस्थान में सवेदी होगया उसके २४ या २१ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है । अपगतवेद में शेष ग्यारह आदि विभक्तिस्थानोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त होता है यह स्पष्ट ही है । किन्तु पांच विभक्तिस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट काल दो समय कम दो आवली प्रमाण है । अतः अपगतवेदीके इसका काल उक्तप्रमाण जानना चाहिये । ऊपर जिस वेद में जिस विभक्ति स्थानके कालका ज्ञान सुगम समझा उसका खुलासा नहीं किया है ।
९ ३०३. कषायमार्गणा अनुवादसे क्रोध कषायमें अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, चौबीस, तेईस, बाईस, और इक्कीस प्रकृतिकस्थानोंका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल
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जयधवलासहिदे कसा पाहुडे
[ पयडिविहत्ती २
वावीस एकवीसवि० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुडुतं । तेरस० बारस आदि काढूण जान चदुविहत्तिओ ति ओघभंगो | एवं माण०; णवरि अस्थि तिन्हं विहत्तिओ । एवं माय ० ; वरि अस्थि दोण्हं विहत्तिओ । एवं लोभ०; णवरि अत्थि एकिस्से बिहसिओ | माण- माया -लोभकसाथीसु चदुण्हं तिण्हं दोण्हं विह० जहण्णा दो आवलियाओ दुसमणाओ । अकसाईसु चउवीस एकवीसविह० केव० ? जहण्ण० एग०समओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । एवं सुहुम० - जहाक्खाद० वत्तव्वं । णवरि, सुहुमसांपisro एकिस्से विहत्तिओ केव० ? जहण्णुक्क० अंतोमु० ।
I
अन्तर्मुहूर्त है । तेरह और बारहसे लेकर चार प्रकृतिकस्थान तकका काल ओघके समान है । क्रोधकषायके समान मानकषायमें भी समझना चाहिये । इतनी विशेषता है कि मानकषाय में तीनप्रकृतिक स्थान भी है । इसीप्रकार मायाकषाय में भी समझना चाहिये । इतनी विशेषता है कि माया कषाय में दोप्रकृतिक स्थान भी है । इसीप्रकार लोभकषायमें भी समझना चाहिये । इतनी विशेषता है कि लोभकषायमें एक प्रकृतिक स्थान भी है । मानकषायी, मायाकषायी और लोभकषायी जीवोंमें क्रमसे चार, तीन और दो प्रकृतिक स्थानका जघन्य काल दो समयकम दो आवलीप्रमाण है ।
कषाय रहित जीवों में चौबीस और इक्कीस प्रकृतिक स्थानका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसीप्रकार सूक्ष्म सांपराय संयत और यथाख्यात संयतोंके कहना चाहिए । इतनी विशेषता है कि सूक्ष्मसांपरायिक संयतके एक प्रकृतिक स्थानका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ।
विशेषार्थ - क्रोधादि कषायोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है अतः इनमें २८, २७, २६, २४, २३, २२ और २१ विभक्तिस्थानोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बन जाता है । किन्तु जिस कषायके उदयसे जीव. क्षपकश्रेणी चढ़ता है उसके अपनी अपनी कृष्टि वेदनके काल तक उसीका उदय बना रहताहै, अतः क्रोधमें चार विभक्तिस्थान तकका काल, मानमें तीन विभक्तिस्थान तकका काल, मायामें दो विभक्तिस्थान तकका काल और लोभमें एक विभक्तिस्थान तकका काल ओघके. समान बन जाता है । किन्तु जो जीव क्रोध के उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़ता है उसके मानकषाय में चार विभक्तिस्थानका जघन्य काल दो समय कम दो आवलिप्रमाण प्राप्त होता है । जो मानके उदयसे क्षपक श्रेणीपर चढ़ता है उसके मायाकषाय में तीन विभक्ति - स्थानका जघन्य काल दो समय कम दो श्रावलिप्रमाण प्राप्त होता है। तथा जो मायाके उदयसे क्षपक श्रेणीपर चढ़ता है उसके लोभकषायमें दो विभक्तिस्थानका जघन्यकाल दो समय कम दो आवलिप्रमाण प्राप्त होता है । अकषायी सूक्ष्मसांपरायिक संयत और यथाख्यात संयत जीवोंमें २४ और २१ विभक्तिस्थानोंका जघन्य काल एक समय उपशमश्रेणी में
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गा० २२]
vaisgranate कालो
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१३०४. णाणाणुवादेण मदि-सुदअण्णाणि० अट्ठावीसवि० केव० ? जह० अंतोमु०, उक्क० पलिदो● असंखे० भागो । सत्तावीस - छव्वीसविह० ओघभंगो । विभंग० अट्ठावीससत्तावीसविह ० के ० १ जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखेज्जदिभागो । छब्वीसवि० के० ? जह० एगसमओ उक्क० तेत्तीससागरोमाणि देसूणाणि ।
कषाय आदि होनेके एक समय बाद मरणकी अपेक्षासे कहा है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त उक्त विभक्तिस्थानोंके साथ इन अकषायी आदिके उपशमश्रेणीमें इतने काल तक रहने की अपेक्षा से कहा है । किन्तु इतनी विशेषता है कि क्षपकश्रेणीपर चढ़े हुए सूक्ष्मसांपरायिक जीवके एक विभक्तिस्थान ही होता है अतः सूक्ष्मसाम्परायिक संयतके विभक्तिस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहना चाहिये ।
९३०४. ज्ञानमार्गणाके अनुवादसे मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें अट्ठाईस प्रकृतिकस्थानका काल कितना है ? जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग है। सत्ताईस और छब्बीस प्रकृतिकस्थानका काल ओघके समान है । विभंगज्ञानियोंमें अट्ठाईस और सत्ताईस प्रकृतिकस्थानका काल कितना है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग है । छब्बीस प्रकृतिकस्थानका काल कितना है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल देशोन तेतीस सागर है ।
विशेषार्थ - मिध्यात्व गुणस्थान में रहनेका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है । यद्यपि सासादनका जघन्यकाल एक समय है, पर ऐसा जीव नियमसे मिध्यात्वमें ही जाता है और मतिअज्ञान तथा श्रुताज्ञान इन दोनों गुणस्थानोंमें ही पाये जाते हैं । इस लिये इन दोनों अज्ञानियोंके २८ विभक्तिस्थानका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है । तथा उत्कृष्टकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण सम्यक्प्रकृतिकी उद्वेलनाके उत्कृष्टकालकी अपेक्षासे कहा है, क्योंकि जब तक कोई एक मत्यज्ञानी या श्रुताज्ञानी जीव सम्यक्प्रकृतिकी उद्वेलना करता रहता है तब तक उसके २८ विभक्तिस्थान बना रहता है । तथा इनके २७ और २६ विभक्तिस्थानका काल ओघके समान घटित कर लेना चाहिये । सुगम होनेसे नहीं लिखा है । जो अवधिज्ञानी २४ विभक्तिस्थानवाला जीव मिध्यात्वमें आकर और एक समय रह कर मर जाता है उसके विभंगज्ञानके रहते हुए २८ विभक्तिस्थानका जघन्यकाल एक समय प्राप्त होता है । तथा जो सम्यक्प्रकृतिकी उद्वेलना करनेवाला विभंगज्ञानी उद्वेलना करने के एक समय पश्चात् उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करता है उसके २७ विभक्तिस्थानका जघन्यकाल एक समय प्राप्त होता है । तथा इनके २८ और २७ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकालं पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण उद्वेलनाकी अपेक्षा से कहा है। जो विभगज्ञानी जीव सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करनेके पश्चात् एक समय तक २६ विभक्तिस्थानके साथ रह कर पश्चात् उपशमसम्यक्त्व प्राप्त कर लेता है उसके २६ विभक्तिस्थानका जघन्य काल एक समय
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जयघवलासहिदे कसायपाहुडे
पयडिविहती २
३०५. आभिणि० - सुद० - ओहि० अट्ठावीस - चउवीसविह० के० ? जह० अंतोसु०, उक्क छावहिसागरोवमाणि देसूणाणि । णवरि, चउवीसविह० सादिरेयाणि । सेस० ओषभंगो । एवमोहिदंस० सम्माइडि० वत्तव्वं । मणपजव० अट्ठावीसविह० ० ? प्राप्त होता है । तथा अपर्याप्त अवस्था में विभंगज्ञान नहीं होता । अतः इतने कालसे कम तेतीस सागर काल तक जो नारकी २६ विभक्तिस्थानके साथ मिथ्यादृष्टि बना रहता है उसके २६ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागर प्राप्त होता है ।
१३०५. मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों में अट्ठाईस और चौबीस प्रकृतिक स्थानका काल कितना है ? जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल देशोन छयासठ सागर है । इतनी विशेषता है कि चौबीस प्रकृतिकस्थानका काल साधिक छयासठ सागर है । शेष स्थान ओघ के समान हैं । इसीप्रकार अवधिदर्शनी और सम्यग्दृष्टि जीवों के भी कहना चाहिये ।
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विशेषार्थ - जो मिध्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्व या वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करके और अन्तर्मुहूर्त काल तक उनके साथ रह कर अनन्तर सम्यक्त्व से च्युत हो जाता है उसके मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञानके रहते हुए २८ विभक्तिस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है । तथा जो मतिज्ञानी श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीव अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करके और २४ विभक्तिस्थानके साथ अन्तर्मुहूर्त काल तक रह कर सम्यक्त्वसे च्युत हो जाता है उसके २४ विभक्तिस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त देखा जाता है । वेदकसम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल छयासठ सागर प्रमाण है । अब यदि इसमें उपशमसम्यक्त्वका काल जोड़ दिया जाये और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना होनेके अनन्तरका मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वका क्षपणाकाल घटा दिया जाय तो उक्त काल कुछ कम छयासठ सागर प्रमाण रह जाता है, जो २८ विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट काल ठहरता है, अतः उक्त तीन ज्ञानोंमें २८ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल कुछ कम छयासठ सागर प्रमाण कहा है। तथा जो उपशमसम्यक्त्वके कालमें अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करके वेदकसम्यग्दृष्टि होता है और अपने उत्कृष्ट काल तक वेदकसम्यक्त्वके साथ रहते हुए अन्तमें मिध्यात्वकी क्षपणा करता है उसके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजनासे लेकर मिध्यात्वकी क्षपणा तकका काल छ्यासठ सागरसे अधिक प्राप्त होता है और यही २४ विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट काल है । अतः उक्त तीन ज्ञानों में २४ विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ सागर कहा है । इन तीन ज्ञानोंमें शेष २३ आदि विभक्तिस्थानोंका काल ओघके समान जानना चाहिये, क्योंकि उक्त विभक्तिस्थान सम्यग्दृष्टि जीवके ही होते हैं और वहाँ इन तीनों ज्ञानोंका पाया जाना सम्भव ही है। अवधि दर्शनी और सम्यग्दृष्टि भी विभक्तिस्थानोंके काल मतिज्ञानी आदिके समान जान लेना चाहिये ।
मन:पर्ययज्ञानी जीवों में अट्ठाईस प्रकृतिकस्थानका काल कितना है ? जघन्य काल
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गा० २२) पयडिहाणविहत्तीए कालो
२७७ जहण्ण. अंतोमुहुसं, उक्क० पुवकोडी देसूणा। एवं चउवीसविह० वत्तव्वं । तेवीसबावीस-तेरसादि जाव एकिस्से विहत्तिओ त्ति ओघभंगो । णवरि बारसविह० एगसमओ णस्थि । एकवीस विह. केव० ? जह. अंतोमुहुत्तं, उक्क० पुव्वकोडी देसूणा । एवं संजद० । णवरि बारस० जह० एगसमओ । एवं सामाइयछेदो०, णवरि इगिवीसचउवीसविह० जह० एगसमओ। परिहार० अहावीस-चउवीस-तेवीस-बावीस-एकवीसविह० मणपञवभंगो। एवं संजदासंजद । असंजद० अहावीस-सत्तावीस-छव्वीस. अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल देशोन पूर्वकोटिप्रमाण है । इसीप्रकार चौबीस प्रकृतिकस्थानके कालका कथन करना चाहिये। तेईस, बाईस, और तेरहसे लेकर एक प्रकृतिकस्थान तकका काल ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि बारह प्रकृतिकस्थानका जघन्य काल एक समय नहीं है । इक्कीस प्रकृतिकस्थानका कालं कितना है ? जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल देशोन पूर्वकोटि है। इसीप्रकार संयतोंके समझना चाहिये । इतनी विशेषता है कि संयतोंके बारह प्रकृतिकस्थानका जघन्य काल एक समय है। इसी प्रकार सामायिक संयत और छेदोपस्थापना संयत जीवोंके समझना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इन दोनों संयतोंके इक्कीस और चौबीस प्रकृतिकस्थानका जघन्य काल एक समय है । परिहारविशुद्धि संयतोंमें अट्ठाईस, चौबीस, तेईस, बाईस और इक्कीस प्रकृतिकस्थानोंका काल मनःपर्ययज्ञानियोंके समान है। इसीप्रकार संयतासंयतोंके समझना चाहिये ।
विशेषार्थ-मनःपर्ययज्ञान छद्मस्थ संयतके होता है अतः छद्मस्थ संयतका जो जघन्य और उत्कृष्ट काल है वही मन:पर्ययज्ञानमें २८ और २४ विभक्तिस्थानका जघन्य और स्कटकाल जानना चाहिये जो ऊपर बतलाया ही है। तथा २१ विभक्तिस्थानके उत्कृष्ट काल और १२ विभक्तिस्थानके कालको छोड़ कर शेष २३ आदि विभक्तिस्थानोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल मनःपर्ययज्ञानमें भी ओपके समान बन जाता है। किन्तु २१ विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्व कोटि वर्ष प्रमाण प्राप्त होता है। यहां कुछ कमसे आठ वर्ष और अन्तर्मुहूर्त काल लिया गया है। तथा बारह विभक्तिस्थानका जघन्य
और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त ही प्राप्त होता है, क्योंकि मन:पर्ययज्ञान पुरुषवेदी जीवके होता है और पुरुषवेदमें १२ विभक्तिस्थानका जघन्य काल एक समय नहीं बनता है। मनःपर्ययज्ञानके समान संयतोंके भी जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके बारह विभक्तिस्थानका जघन्यकाल एक समय भी बन जाता है, क्योंकि संयतोंमें नपुंसकवेदवाले जीवोंका भी समावेश है। संयतोंके समान सामायिक और छेदोपस्थापना संयतोंके भी जानना चाहिये । किन्तु इनके २४ और २१ विभक्तिस्थानोंका जघन्य काल एक समय भी बन जाता है क्योंकि जो जीव उपशमश्रेणीसे उतर कर और एक समय तक सामायिक और छेदोपस्थापना संयत रह कर मर जाते हैं उनके २१ और २१
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जयपषलासहिदे कसायपाहुडे . [पयडिपिहनी २ मदिअण्णाणिभंगो। णवरि, अठावीस उक० तेत्तीससागरो० पलिदो. असंखे० भागेण सादिरेयाणि । चउवीस-एक्कवीसविह० के० १ जह० अंतोमुहुतं, उक्क० तेतीस सागरोवमाणि सादिरेयाणि । वाचीसविह० के० ? जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमूहुतं । चक्खुदंस तसपञ्जत्तभंगो। विभक्तिस्थानोंका जघन्यकाल एक समय पाया जाता है। परिहार विशुद्धि संयतोंके २८, २४, २३, २२ और २१ विभक्तिस्थानोंका काल यद्यपि मनःपर्ययज्ञानीके समान होता है फिर भी इनके २८, २४ और २१ विभक्तिस्थानोंका उत्कृष्ट काल कहते समय पूर्वकोटि वर्षमेंसे ३८ वर्ष कम करना चाहिये। तथा संयतासंयतोंके २८, २४, २३, २२ और २१ विभक्तिस्थानोंका काल मनःपर्ययज्ञानियों के समान कहना चाहिये । __ असंयतोंके अट्ठाईस, सत्ताईस और छब्बीस प्रकृतिकस्थानोंका काल मत्यज्ञानियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि अट्ठाईस प्रकृतिकस्थानका उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भाग अधिक तेतीस सागर है। चौबीस और इक्कीस प्रकृतिकस्थानोंका काल कितना है ? जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। बाईस प्रकृतिकस्थानका काल कितना है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। चक्षुदर्शनवाले जीवोंके स्थानोंका काल त्रसपर्याप्त जीवोंके समान जानना चाहिये ।
विशेषार्थ-यद्यपि असंयतोंमें २८ विभक्तिस्थानका जघन्यकाल और २७ तथा २६ विभक्तिस्थानोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल मत्यज्ञानियोंके समान बन जाता है किन्तु असंयतोंमें २८ विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागसे अधिक तेतीस सागर प्राप्त होता है, क्योंकि असंयत पद्रसे मिथ्यात्वादि चार गुणस्थानोंका ग्रहण होता है और इस अपेक्षासे असंयतोंके २८ विभक्तिस्थानका उक्त काल प्राप्त होने में कोई बाधा नहीं आती है। तथा जिस असंयतने अनन्दानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना की है या दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियोंकी क्षपणा की है उसके अन्तर्मुहूर्त कालके बाद ही अन्य गुणस्थानकी प्राप्ति होती है अतः असंयतोंके २४ और २१ विभक्तिस्थानका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है। जो जीव अनन्तानुबन्धी चतुष्काकी या तीन दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करके संयत होता है, तथा मर कर एक समय कम तेतीस सागरकी आयुवाले देवों में उत्पन्न होता है और वहांसे च्युत होकर एक पूर्वकोटिकी आयुवाला मनुष्य होकर भवके अन्तमें अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर संयत हो क्षपकश्रेणीपर आरोहण करता है उसके असंयत अवस्थामें २४ और २१ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागर देखा जाता है। तथा जो संयत बाईस विभक्तिस्थानके काल में एक समय शेष रहनेपर अन्य गतिको प्राप्त होजाता है उसके असंयत अवस्थामें २२ विभक्तिस्थानका जघन्यकाल एक समय प्राप्त होता है। तथा उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त स्पष्ट
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गा० २२] पयडिहाणविहत्तीए कालो
२७६ ___६३०६. लेस्साणुवादेण किण्हणील-काउ० अष्टावीस-छव्वीसवि० के० ? जह० एगसमओ, उक्क० तेत्तीस-सत्तारस-सत्तसागरोवमाणि सादिरेयाणि । सत्तावीसविह० ओघभंगो । चञ्चीसनिह० जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० तेत्तीस-सत्तारस-सत्तसागरो० देसूणाणि । वावीसविह० केव० ? जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । एकवीसवि० जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० सागरोवमं देरणं । णवरि, किण्ह-णील. वावीसविहत्ती पत्थि । एकवीसविहत्ती जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुतं । तेउ०पम्म० अहावीस-छव्वीसविह. जह० एगसमओ, उक्क० वे-अहारस सागरो० सादिरेयाणि । सत्तावीसविह० ओघमंगो। चउवीसविह० के० १ जह• अंतोमुहुत्तं, उक्क वे अहारससागरो• सादिरेयाणि । तेवीस-बावीसवि. जह० अंतोमु० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । एकवीसवि० जह० एगसमओ उक्क० बे-अहारससागरो० सादिरेयाणि । सुक्कले० अहावीसविह. ही है। चक्षुदर्शनवाले जीवोंके विभक्तिस्थानोंका काल त्रस पर्याप्तकोंके समान ही है उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। __६३०६.लेश्यामार्गणाके अनुवादसे कृष्ण, नील और कपोत लेश्यावाले जीवोंमें अट्ठाईस
और छब्बीस प्रकृतिकस्थानोंका काल कितना है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल क्रमसे साधिक तेतीस सागर, साधिक सत्रह सागर और साधिक सात सागर है। सचाईस प्रकृतिकस्थानका काल ओघके समान है। चौबीस प्रकृतिकस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल क्रमशः कुछ कम तेतीस, कुछ कम सत्रह और कुछ कम सात सागर है। बाईस प्रकृतिकस्थानका काल कितना है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। तथा इक्कीस प्रकृतिकस्थानका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल कुछ कम एक सागर है। इतनी विशेषता है कि कृष्ण और नील लेश्यावालोंके बाईस प्रकृतिकस्थान नहीं पाया जाता है तथा इकीस प्रकृतिकस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है।
पीत और पद्मलेश्यावालोंके अट्ठाईस और छब्बीस प्रकृतिकस्थानका जघन्य काल एक समय है । उत्कृष्ट काल क्रमशः साधिक दो और साधिक अठारह सागर है । तथा सत्ताईस प्रकृतिकस्थानका काल ओघके समान है। चौबीस प्रकृतिकस्थानका काल कितना है ? जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल क्रमशः साधिक दो और साधिक अठारह सागर है। तेईस प्रकृतिकस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और बाईस प्रकृतिकस्थानका जघन्य काल एक समय है। तथा दोनों स्थानोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इक्कीस प्रकृतिकस्थानका जघन्य काल एक समय तथा उत्कृष्ट काल क्रमसे साधिक दो सागर और साधिक
अठारह सागर है। .. शुक्ल लेश्यावालोंके अट्ठाईस प्रकृतिकस्थानका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट
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२८०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [पयडिविहत्ती २ जह० एगस०, उक्क० तेत्तीससागरोवमाणि सादिरेयाणि । सत्तावीस-छवीसविह० देवोधभंगो । णवरि छब्बीस० एकत्तीससागरो० सादिरेयाणि । चउवीसविह० जह अंतोमुहत्तं, उक्क० तेत्तीससागरो० सादिरेयाणि । एकवीसविह० जह० एगसमओ। उक्क० तेत्तीससागरो० सादिरेयाणि । सेस० ओघभंगो। णवरि वावीस० जह एगसमओ । अभव्वसिद्धि० छव्वीसवि० केव० १ अणादि-अपजवसिदो।
६३०७. खइयसम्मादिहीसु एकवीसादि जाव एयविहतिओत्ति ओघभंगो। वेदगसम्मादि० अहावीस-चउवीस-तेवीस-बावीसविह० आमिणि भंगो। णवरि चदुवीस० छावहिसागरो० देसूणाणि । उवसमे अठ्ठावीस-चउवीस० जहण्णुक्क० अंतोमुहुत्तं । सासणे अहावीसविह० के० १ जह० एगसमओ, उक्क० छावलियाओ । सम्मामि० उवसमसम्माइटिभंगो । मिच्छाइटि० मदिअण्णाणिभंगो । सण्णीसु छव्वीस० परिस० भगो । सेस० ओघभंगो । असण्णि० एइंदियभंगो। आहार० छव्वीसविह० के० १ जह० एगसमओ, उक्क० सगहिदी। सेस० ओघं जाणिदृण भाणिदव्वं । काल साधिक तेतीस सागर है। सत्ताईस और छब्बीस प्रकृतिकस्थानका काल सामान्य देवोंके समान जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि छब्बीस प्रकृतिकस्थानका उत्कृष्ट काल साधिक इकतीस सागर है। चौबीस प्रकृतिकस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। तथा इक्कीस प्रकृतिकस्थानका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। शेष स्थानोंका काल ओघके समान जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके बाईस प्रकृतिकस्थानका जघन्य काल एक समय है। अभव्योंके छब्बीस प्रकृतिकस्थानका काल कितना है ? अनादि-अनन्त है।
६३०७.क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें इक्कीस प्रकृतिक स्थानसे लेकर एक प्रकृतिक स्थान तक प्रत्येक स्थानका काल ओघके समान है। वेदक सम्यग्दृष्टियोंमें अट्ठाईस, चौबीस, तेईस और बाईस प्रकृतिक स्थानका काल मतिज्ञानियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि चौबीस प्रकृतिकस्थानका उत्कृष्ट काल देशोन छयासठ सागर है। उपशमसम्यक्त्वमें अट्ठाईस और चौबीस प्रकृतिकस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। सासादनमें अट्ठाईस प्रकृतिकस्थानका काल कितना है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल छह आवली है। सम्यग्मिध्यादृष्टिका काल उपशम सम्यग्दृष्टिके समान जानना चाहिये। मिथ्यादृष्टिका काल कुमतिज्ञानीके समान जानना चाहिये ।
संज्ञी जीवोंमें छब्बीस प्रकृतिकस्थानका काल पुरुषवेदके समान है। शेष कथन ओषके समान है । असंज्ञी जीवोंमें एकेन्द्रियोंके समान है।
आहारक जीवोंमें छब्बीस प्रकृतिकस्थानका काल कितना है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी स्थिति प्रमाण है। शेष कथन ओघके समान कहना चाहिये ।
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गां० २२ ) पयडिट्ठाणविहत्तीए अंतरं
२८१ अणाहारि० कम्मइयभंगो।
- एवं कालो समतो। . ___ * अंतराणुगमेण एक्किस्से विहत्तीए णत्थि अंतरं।
३०८. कुदो ? खवगसेढीए उप्पण्णत्तादो । ण च खविदकम्मंसाण पुणरुप्पत्ती अस्थि, मिच्छत्तासंजम-कसाय-जोगाणं संसारकारणाणमभावादो। ण च कारणेण विणा कजमुप्पजइ, अणवत्थापसंगादो। अनाहारक जीवोंमें कार्मण काययोगियोंके समान जानना चाहिये ।
विशेषार्थ-कृष्ण, नील और कापोत लेश्यामें २१ विभक्तिस्थानका जघन्य काल जो अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक सागर बतलाया है सो यहाँ उत्कृष्ट काल कापोत लेश्याकी अपेक्षासे जानना चाहिये; क्योंकि यह काल प्रथम नरककी अपेक्षासे प्राप्त होता है और प्रथम नरकमें कपोन लेश्या ही होती है। किन्तु कृष्म और नील लेश्यामें २१ विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहुर्त ही प्राप्त होगा, क्योंकि २१ विभक्तिस्थानके रहते हुए कृष्ण और नील लेश्या कर्मभूमिज मनुष्योंके ही सम्भव है पर इनके प्रत्येक लेश्याका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहुर्तसे अधिक नहीं होता है। तथा कृष्ण और नील लेश्यामें जो २२ विभक्तिस्थानका निषेध किया है सो इसका कारण यह है कि २२ विभक्तिस्थानके रहते हुए यदि अशुभ लेश्या होती है तो एक कापोत लेश्या ही होती है। लेश्याओंमें शेष कालोका कथन सुगम है अतः यहाँ खुलासा नहीं किया है। इसी प्रकार आगेकी मार्गणामों में भी अपने अपने विभक्तिस्थानोंका काल सुगम होनेसे नहीं लिखा है। हाँ वेदकसम्यक्त्वमें २४ विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट काल जो कुछ कम छयासठ सागर प्रमाण बतलाया है सो इसका कारण यह है कि वेदक सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल पूरा छयासठ सागर है जिसमें कृतकृत्यवेदक तकका काल सम्मिलित है, अतः इसमेंसे सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृतिके क्षपणा कालको कम कर देनेपर २४ विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट काल प्राप्त होता है।
इसप्रकार कालानुयोगद्वार समाप्त हुआ। * अन्तरानुगमकी अपेक्षा एक प्रकृतिक स्थानका अन्तर नहीं होता है। ६३०८. शंका-एक प्रकृतिक स्थानका अन्तर क्यों नहीं होता है ?
समाधान-क्योंकि एक प्रकृतिक स्थान क्षपकश्रेणीमें होता है, अतः उसका अन्तर नहीं पाया जाता। क्योंकि जिन कर्मों का क्षय कर दिया जाता है उनकी पुनः उत्पत्ति होती नहीं, क्योंकि उनका क्षय करदेनेवाले जीवोंके संसारके कारणभूत मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग नहीं पाये जाते । और कारणके विना कार्यकी उत्पत्ति मानना युक्त नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर कार्य-कारणभावकी व्यवस्था नहीं बन सकती। ..
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२८२
जयचक्लासहिदे कसायपाहुरे . [पयडिविहत्ती २ . * एवं दोण्हं तिण्हं चउण्हं पंचण्हं एकारसण्हं बारसह तेरसहं एकवीसाए बावीसाए तेवीसाए बिहत्तियाणं ।
६३०६.जहा एक्किस्से वित्तियाणं पत्थि अंतरं तहा एदेसि पि, खवणाए उप्पण्णत्तं पडि विसेसाभावादो। ___ * चउवीसाए विहत्तियस्स केवडियमंतरं? जह० अंतोमुहुत्तं ।
६३१०. कुदो ? अष्टावीससंतकम्मियसम्माइटिस्स अणंताणु० चउकं विसंजोइय चउवीसविहत्तीए आदि कादण अंतोमुहुत्तमच्छिय मिच्छत्तं गंतूण अठ्ठावीसविहत्तिओ होदण अंतोमुहुत्तमंतरिय पुणो सम्मत्तं घेत्तूण अणंताणु० विसंजोइय चउवीसविहत्तियभावमुवगयस्स चउवीसविहत्तीए अष्ठावीसविहत्तिएहि अंतोमुहुत्तमेतरुवलंभादो।
* उकस्सेण उवट्टपोग्गलपरियह देसूणमद्धपोग्गलपरियह । ६३११. कुदो? अद्धपोग्गलपरियट्टस्स आदिसमए अणादियमिच्छादिही उवसमस
* इसीप्रकार दो, तीन, चार, पाँच, ग्यारह, बारह, तेरह, इक्कीस, बाईस और तेईस प्रकृतिकस्थानोंका भी अन्तर नहीं होता है।
६३०६. जिसप्रकार क्षपकश्रेणीमें उत्पन्न होनेके कारण एक प्रकृतिकस्थानका अन्तर नहीं होता है उसीप्रकार ये दो आदि प्रकृतिकस्थान भी क्षपकश्रेणीमें ही उत्पन्न होते हैं, अत: एक प्रकृतिकस्थानसे इनमें कोई विशेषता नहीं है, और इसलिये इन दो आदि स्थानोंका भी अन्तर नहीं पाया जाता है।
* चौबीस प्रकृतिकस्थानका अन्तर कितना है । जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। ६३१०. शंका-चौबीस प्रकृतिकस्थानका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त क्यों है ?
समाधान-कोई एक सम्यग्दृष्टि अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला है। उसने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके चौबीस प्रकृतिकस्थानका प्रारंभ किया। पुनः वह सम्यक्त्व दशामें अन्तर्मुहूर्त रह कर मिथ्यात्वमें गया और अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता वाला हुआ उसके एक अन्तर्मुहूर्त तक चौबीस प्रकृतिकस्थान नहीं रहा। पुनः अन्तर्मुहूर्तके बाद सम्यक्त्वको प्राप्त करके और अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके चौबीस प्रकृतिकस्थानको प्राप्त हो गया। इसप्रकार पूर्वोक्त जीवके अट्ठाईस प्रकृतिकस्थानकी अपेक्षा चौबीस प्रकृतिकस्थानका अन्तर्मुहूर्त मात्र अन्तर पाया जाता है। __* चौबीस प्रकृतिकस्थानका उत्कृष्ट अन्तर उपार्धपुद्गल परिवर्तन अर्थात् देशोन अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण है।
६३११. शंका-चौबीस प्रकृतिकस्थानका उत्कृष्ट अन्तर देशोन अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण कैसे है ?
समाधान-कोई एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीव अर्धपुद्गल परिवर्तन कालके प्रथम समयमें "
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मा० २२
पया हिची अंतरं
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म्मतं घे तूण अठावीसविहतिओ होतॄण अंतोमुहुत्तमाच्छय पुगो अनंतापु० विसंजोएदूण चउवीसविहत्तीए आदि काढूण मिच्छत्तं गंतूणंतरिदो । तदो उवढपोग्गलपरिवहं ममिदूण अंतोमुहुत्ता बसेसे सिंज्झिदव्वये चि उवसमसम्मतं घेतूण अट्ठावीसविहतिओ होण जेण अनंताणुबंधिचक्कं विसंजोएदूण चउवीसविहत्तियत्तमुप्पा इदंतस्स दोहि अंतोमुहुतेहि ऊण-अद्धपोग्गलपरियमेत्तअंतरुवलंभादो । उवरि अण्णे वि अंतोमुडुत्ता अस्थि ते किण्ण गहिदा ? गहिदा चेव, किंतु तेसु सव्वेसु मेलिदेसु वि अंतोमुहुत्तं चेव होदि चि वैहि व अंतोमुहुत्तेहि अद्धपोग्गलपरियट्टमूणमिदि भणिदं ।
* छव्वीसविहत्तीए केवडियमंतरं ? जहण्णेण पलिदो० असंखे० भागो । ३१२. कुदो ? जो मिच्छादिट्ठी छब्वी सविहत्तिओ होदूणच्छिदो, पुणो उवसमसम्मत्तं तूण अट्ठावीसविहचिओ होण अंतरिदो, मिच्छत्तं गंतूण सव्वजहण्णेण पलिंदोवमस्स उपशम् सम्यक्त्वको ग्रहण करके अट्ठाईस प्रकृतिकस्थानकी सत्तावाला हुआ और अन्तर्मुहूर्त वहाँ रह कर तथा अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके उसने चौबीस प्रकृतिकस्थानका प्रारंभ किया। अनन्तर मिध्यात्वमें जाकर अट्ठाईस प्रकृतिकस्थान वाला होकर उसने चौबीस प्रकृतिकस्थानका अन्तर किया । तदनन्तर उपार्धपुद्गल परिवर्तन कालतक संसारमें परिभ्रमण करके सिद्ध होने के लिये जब अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहा तब वह उपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करके अट्ठाईस प्रकृतिक स्थानवाला हुआ । पुनः चूँकि वह इतना काल जानेपर अनन्तानुबन्धी चरक विसंयोजना करके चौबीस प्रकृतिकस्थानको उत्पन्न करता है, इसलिये उसके चौबीस प्रकृतिकस्थानका अन्तर दो अन्तर्मुहूर्त कम अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण पाया जाता है ।
शंका- ऊपर जिन दो अन्तर्मुहूर्तों को कम किया है उनके अतिरिक्त अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण कालमेंसे कम करने योग्य और भी अन्तर्मुहूर्त हैं, उन्हें यहाँ क्यों नहीं ग्रहण किया ? समाधान - कम करने योग्य शेष सभी अन्तर्मुहूर्तोंका यहाँ ग्रहण कर ही लिया है। किन्तु पुनः उपशम सम्यक्त्वकी प्राप्तिसे लेकर मोक्ष जाने तकके उन सब अन्तर्मुहूतों के मिलाने पर भी एक ही अन्तर्मुहूर्त होता है इसलिये सभी अन्तर्मुहूर्त को अलग से न गिना कर चौबीस प्रकृतिकस्थानका अन्तर दो अन्तर्मुहूर्त कम अर्धपुदल परिवर्तन काल होता है ऐसा कहा है।
* छब्बीस प्रकृतिकस्थानका कितना अन्तर है ? जघन्य अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है ।
३३१२. शंका-छब्बीस प्रकृतिकस्थानका जघन्य अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्यों है ?
समाधान - छब्बीस प्रकृतिवाला जो मिध्यादृष्टि जीव उपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करके और अट्ठाईस प्रकृतिवाला होकर छब्बीस प्रकृतिकस्थान के अन्तरको प्राप्त हुआ । अनन्तर
भ
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२८॥
अपवलासहिदे कसायमाहुरे (डिविहत्ती १ असंखेजदि भागमेत्तुव्वेलणकालेण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणि उव्वेलिय छब्बीसविहत्तिओ जादो तस्स पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तजहणतरुवलंमादो। ___ * उकस्सेण बेछावहि सागरोवमाणि सादिरेयाणि।
६३१३. कुदो ? अष्ठावीस-सत्तावीसविहत्तियाणं जो उकस्सकालो पुष्वं परूविदो सो छव्वीसविहत्तियस्स उक्स्संतरकालो त्ति अब्भुवगमादो। ___ * सत्तावीसविहत्तीए केवडियमंतरं ? जहण्णेण पलिदो० असंखे० भागो।
६३१४. कुदो ? सत्तावीसविहत्तिपमिच्छाइट्टी उवसमसम्मत्तं घेत्तण अहावीसविहतिओ होदूण अंतरिदो । पुणो मिच्छत्तं गंतूण सव्वजहण्णुब्वे लणकालेण सम्मत्तमुब्वेलिय जो सत्तावीसविहत्तिओ जादो, तत्थ पलिदो० असंखे० मागमेत्तअंतरकालुवलंभादो ।
___* उकस्सेण उवढपोग्गलपरियढें । मिथ्यात्वमें जाकर सबसे जघन्य पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण उद्वेलन कालके द्वारा सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करके पुनः छब्बीस प्रकृतिक स्थानवाला हो गया । उसके छब्बीस प्रकृतिकस्थानका जघन्य अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण पाया जाता है।
* छब्बीस प्रकृतिकस्थानका उत्कृष्ट अ.तर साधिक एक सौ बत्तीस सागर है।
३१३. शंका-छब्बीस प्रकृतिकस्थानका उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक सौ बत्तीस सागर कैसे है ?
समाधान-अट्ठाईस और सचाईस प्रकृतिकस्थानोंका जो उत्कृष्ट काल पहले कह आये हैं वह छब्बीस प्रकृतिकस्थानका उत्कृष्ट अन्तर काल होता है ऐसा स्वीकार किया गया है, अतः छब्बीस प्रकृतिकस्थानका उत्कृष्ट अन्तर काल साधिक एक सौ बत्तीस सागर है।
* सत्ताईस प्रकृतिकस्थानका अन्तर कितना है ? जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग है। . ६३१४.शंका-सत्ताईस प्रकृतिकस्थानका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग क्यों है ?
समाधान-जो सत्ताईस प्रकृतिकस्थानवाला मिथ्यादृष्टि जीव उपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करके और अट्ठाईस प्रकृतिकस्थानवाला होकर सत्ताईस प्रकृतिकस्थानके अन्तरको प्राप्त हुआ। पुनः मिथ्यात्वमें जाकर सबसे जघन्य उद्वेलन कालके द्वारा सम्यक्प्रकृतिकी उद्वेलना करके सचाईस प्रकृतिकस्थान वाला हो गया। उसके सत्ताईस प्रकृतिकस्थानका जघन्य अन्तर काल पल्यके असंख्यातवें भाग पाया जाता है।
* सत्ताईस प्रकृतिकस्थानका उत्कृष्ट अन्तरकाल उपापुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है।
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२५५
गा० ३३)
पडिहाणपिहात्तीए अंतर ___ ३१५. कुदो ? अणादियमिच्छादिही अद्धपोग्गलपरियडस्स आदिसमए सम्म घेतूण जहाकमेण सत्तावीसविहत्तिओ जादो । तदो सम्मामिच्छत्तमुन्वेल्लिदणंतरिदो। उवठ्ठपोग्गलपरियहम्मि सव्वजहण्णपालदोवमस्स असंखेन्जादिभागमेत्तकाले सेसे उवसमसम्म घेत्तूण अंतोमुहुत्तमच्छिय मिच्छसं गंतूण तदो सम्मत्तुव्वेलणकाले सव्वजहण्णंतोमुहुत्तावसेसे सम्मत्ताहिमुहो होदूण अंतरं करिय मिच्छत्तपढमष्टिदिदुचरिमसमए सम्मत्तमुव्वेल्लिय चरिमसमए सत्तावीसविहत्तिओ होदूण कमेण जो सिद्धो जादो तस्स पढमिल्लेण पलिदो० असंखे०भागमेत्तकालेण पच्छिमेण अंतोमुहुत्तकालेण च ऊण-अद्धपोग्गलपरियहमेत्तुक्कस्संत्तरकालुवलंभादो। .
* अट्ठावीसविहत्तियस्स जहण्णेण एगसमओ।
$ ३१६. कुदो ? अहावीसविहात्तओ मिच्छाइट्टी सम्मत्तुव्वेलणकाले अंतोमुहुत्तावसेसे उवसमसम्मत्ताहिमुहो होदूण अंतरं करिय मिच्छत्तपढमहिदिदुचरिमसमए सम्मत्तमुन्वे
१३१५.शंका-सत्ताईस प्रकृतिकस्थानका उत्कृष्ट अन्तर उपार्धपुद्गलपरिवर्तन प्रमाण कैसे है ? ___समाधाम-जब संसारमें रहनेका काल अर्धपुद्गलपरिवर्तनमात्र शेष रह जाय तब उसके प्रथम समयमें जो अनादि मिथ्यादृष्टि जीव सम्यक्त्वको ग्रहण करके यथाक्रमसे सत्ताईस प्रकृतिकस्थानवाला हुआ। तदनन्तर सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करके सत्ताईस प्रकृतिक स्थानके अन्तरको प्राप्त हुआ। पुन:जब उपापुद्गल परिवर्तनकालमें सबसे जघन्य पल्योपमका असंख्यातवां भागप्रमाण काल शेष रहा तब उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण करके और अन्तर्मुहूर्तकाल तक उसके साथ रह कर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। तदनन्तर सम्यक्प्रकृतिके उद्वेलनाकाल में जब सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्न काल शेष रहा तब सम्यक्त्वके अभिमुख होकर और अन्तरकरण करके मिथ्यात्वकी प्रथमस्थितिके उपान्त्य समयमें सम्यक्प्रकृतिकी उद्वेलना · करके मिध्यात्वकी प्रथमस्थितिके अन्तिम समयमें सत्ताईस प्रकृतिवाला होकर क्रमसे जो सिद्ध हो गया, उसके सत्ताईस प्रकृतिकस्थानका, सत्ताईस प्रकृतिकस्थानके अन्तरके पहले जो पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण उद्वेलनाकाल कह आये हैं और अन्तरके वाद जो सिद्ध होने तकका अन्तर्मुहूर्तकाल कह आये हैं इन दोनोंसे कम अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण उत्कृष्ट अन्तरकाल पाया जाता है। .
* अहाईस प्रकृतिकस्थानका जघन्य अन्तरकाल एक समय है। ६३१६.शंका-अट्ठाईस प्रकृतिकस्थानका जघन्य अन्तरकाल एक समय कैसे है.
समाधान-अट्ठाईस प्रकृतिकस्थानकी सचावाला जो मिथ्यादृष्टि जीव सम्यक्प्रकृतिके उद्वेलनाकालमें अन्तर्मुहूर्त शेष रह जानेपर उपशमसम्यक्त्वके अभिमुख होकर और अन्तरकरण करके मिथ्यात्वकी प्रथम स्थिति के उपान्त्य समयमें सम्यकप्रकृतिकी उद्वेलना
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जमवलातहि कला पाहुडे
[ पयडिविहती २
क्रिय चरिमसमंद सत्तावीसविहसिओ जो जादो तेण से काले उबसमसम्मतं घेतूण अट्ठावीससं समुप्पादे एमसमय अंतरुवलंभादो ।
* उक्कस्सेण उवड्ढपोग्गलपरियहं ।
९३१७. कुदो, अणादियमिच्छाही अद्धपोग्गल परियहस्तादिसमए उपसमलम्मचं पेतून जो अट्ठावीसविहत्तिओ जादो, संत्थ अट्ठावीसविहत्तीए आदि काढूण तदो सबचष्ण पलिदोषमस्स असंखे ० भागमेत्तकालेण सम्मत्तमुव्वेल्लिय सत्तावीसविहसिओ जादो। अंतरिय अद्धपोग्गलपरियहं भमिय सब्वजहण्णंतोमुंहुत्तावसेसे संसारे उपसमसम्मतं बेचून अट्ठावीसविहत्तिओ होदूण तदो अंतोसुहुतेण सिद्धो जादो । तस्स पुव्विल्लेण पलिदो • असंखे० भागेण पच्छिल्लेण अंतोमुडुत्तेण च ऊण-अद्धपोग्गलपरियहमेत्तुकस्संतरकालुवलंभादो । एवमचक्खु०-भवसिद्धियाणं वत्तव्वं ।
३३१८. संपहि उच्चारणाइरियवकखाणमस्सिदृण भणिस्सामो । उच्चारणाए ओघो करके मिध्यात्वकी प्रथमस्थितिके अन्तिम समयमें सत्ताईस प्रकृतिवाला हुआ । पुनः तदनन्तर कालमें उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण करके अट्ठाईस प्रकृतिकी सत्ता उपार्जित की, उसके अट्ठाईस प्रकृतिकस्थानका अन्तरकाल एक समय पाया जाता है ।
* अट्ठाईस प्रकृतिकस्थानका उत्कृष्ट अन्तरकाल उपाधपुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । ५ ३१७, शंका-अट्ठाईस प्रकृतिकस्थानका उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्ध पुगल परिवर्तनप्रमाण कैसे है ।
समाधान - अब संसार में रहनेका काल अर्धपुद्गलपरिवर्तन शेष रह जाय तब जो अनादि मिध्यादृष्टि जीव अर्धपुद्गलपरिवर्तनकालके प्रथम समय में उपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करक अट्ठाईस प्रकृतिस्थानकी सचावाला हुआ, और इसप्रकार अट्ठाईस प्रकृतिकस्थानका प्रारंभ करक अनन्तर सबसे जघन्य पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र कालके द्वारा सम्यक्प्रकृति की उद्वेलना करके सत्ताईस प्रकृतिकस्थानवाला होकर अट्ठाईस प्रकृतिकस्थानकें अन्तरको प्राप्त हुआ और उपार्थपुद्रलपरिवर्तन कालतक संसारमें परिभ्रमण करके संसार में भ्रमण करनेका काळ सबसे जघन्य अन्तर्मुहुर्त प्रभाग शेष रहनेपर उपशम सम्यक्स्वको ग्रहण करक जो पुनः अट्ठाईस प्रकृतिकस्थानवाला होकर अनन्तर अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा सिद्धं हो जाता है उसक अट्ठाईस प्रकृतिक स्थानका, अट्ठाईस प्रकृतिकस्थानके अन्तर होनेके पहलेके पल्यके असंख्यातवेंभाग प्रमाण कालसे और पुनः अट्ठाईस प्रकृतिकस्थानके प्राप्त होनेके बदके अन्तर्मुहूर्त कालसे न्यून अर्धपुलपरिवर्तनमात्र उत्कृष्ट अन्तर काल होता है। इसी• प्रकार अचक्षुदर्शनी और भव्य जीवोंके कहना चाहिये ।
३३१८. अब उच्चारणाचार्यके व्याख्यानका आश्रय लेकर अन्तरकालको कहते हैं । - उच्चारणा वृत्तिके अनुसार ओघ अन्तरकालका कथन क्यों नहीं किया १
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गा० २२ पपडिष्ठाणविहीए अंतरं
२८७ किण्ण बुञ्चदे ? ण, तम्मि चुण्णिसुत्समाणे भण्णमाणे पुणरुत्तदोसप्पसंगादो।
३१६. आदेसेण णिस्यमईए परईएस अठावीस-सत्तावीस-छब्बीस-चउवीसवि० जह० एगसमओ, पलिदो० असंखे०भागो, अंतोमुहुतं । उक० सम्बेसि तेत्तीससागरो० देखणाणि । वावीस-एकवीसवि० णत्थि अंदरं । पढमाए पुढवीए अट्ठावीस-सत्तावीसछवीस-चउवीसविह० जह० एगसमओ, पलिदो० असंखे० भागो, अंतोमुहुत्तं । उक्क. सगहिदी देसूणा। बावीस०-एकवीसविह० णत्थि अंतरं । विदियादि जाव सत्तमित्ति अदावीस-सत्तावीस-छव्वीस-चउवीसविह० जह० एगस०, पलिदो० असंखे० भागो, अंतोमु । उक्क० सगसमद्विदी देखणा । - समाधान-नहीं, क्योंकि चूर्णिसूत्रके समान होनेसे उसका पुनः कथन करने पर पुनरुक्क दोषका प्रसंग प्राप्त होता है, अतः उच्चारणाका आश्रय लेकर ओघ अन्तरकालको नहीं कहा। ___६३१९.आदेशकी अपेक्षा नरकगतिमें नारकियों में अट्ठाईस प्रकृतिकस्थानका जघन्य अन्तर एक समय, सत्ताईस और छम्बीस प्रतिकस्थानका जघन्य अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण तथा चौबीस प्रकृतिकस्थानका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। उक्त तीनों प्रकृतिस्थानोंका उत्कृष्ट अन्तर देशोन तेतीस सागर है। बाईस और इक्कीस प्रकृतिकस्थानोंका अन्तर नहीं होता है। पहली पृथिवीमें अट्ठाईस प्रकृतिकस्थानका जघन्य अन्तर एक समय सत्ताईस और छब्बीस प्रकृतिकस्थानका जघन्य अन्तर पल्यके असख्यातवें भाग तथा चौबीस प्रकृतिकस्थानका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । उक्त तीनों स्थानोंका उत्कृष्ट अन्तर देशोन अपनी स्थितिप्रमाण है । बाईस और इक्कीस प्रकृतिस्थानका अन्तर नहीं है। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं तक प्रत्येक नरकमें अट्ठाईस प्रकृतिकस्थानका जघन्य अन्तर एक समय, सत्ताईस और छब्बीस प्रकृतिकस्थानका जघन्य अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भाग तथा चौबीस प्रकृतिकस्थानका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । तथा उक्त तीनों स्थानोंका उत्कृष्ट अन्तर देशोन अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है।
विशेषार्थ-जो नारकी सम्यकृत्वप्रकृतिकी उद्वेलना करनेके परचात् एक समय वाद उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त होता है उसके २८ विभक्तिस्थानका जघन्य अन्तर एक समय पाया जाता है। जो २७ विभक्तिस्थानवाला नारकी उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करके अति लघु अन्तर्मुहूर्त कालमें मिथ्यात्वमें जाता है और वहां पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा सम्यक्त्वप्रकृतिकी उद्वेलना करता है उसके २७ विभक्तिस्थानका जघन्य अन्तर पल्यको असंख्यातवें भाग. प्रमाण प्राप्त होता है। जो २६ विभक्तिस्थानवाजा नारकी उपशमसम्यक्त्वको प्राप्तकरके अति लघु अन्तर्मुहूर्त कालमें मिथ्यात्वमें जाता है और वहां पल्यके
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२८८
अयपवलासहिदे कसायपाहुडे.
[पयडिविहत्ती २
असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना कर देता है उसके २६ विभक्तिस्थानका जघन्य अन्तर काल पल्यके असंख्यात भाग प्रमाण प्राप्त होता है । तथा जो २४ विभक्तिस्थानवाला नारकी मिथ्यात्वमें जाकर और अति लघु कालके द्वारा पुनः सम्यग्दृष्टि होकर अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना कर देता है उसके २४ विभक्तिस्थानका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है। तथा इन सब विभक्तिस्थानों का उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । जो निम्न प्रकार है-कोई एक जीव अट्ठाईस विभक्तिस्थानके साथ तेतीस सागरकी अ युवाला नारकी हुआ । अनन्तर पर्याप्त होनेके पश्चात् वेदकसम्यग्दृष्टि होकर उसने अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना कर दी और जीवन भर २४ विभक्ति स्थानके साथ रहा । अन्तमें अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहने पर वह मिथ्यादृष्टि होगया और इस प्रकार २- विभक्तिस्थानको प्राप्त कर लिया तो उसके २८ विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट अन्तर काल प्रारम्भके और अन्तके दो अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कालको छोड़कर तेतीस सागर प्रमाण पाया जाता है। कोई एक २७ विभक्तिस्थान वाला जीव नरकमें उत्पन्न हुआ और अन्तर्मुहूर्त कालके पश्चात् उसने उपशम सम्यक्त्व पूर्वक वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त कर लिया और जब आयुमें पल्यका असंख्यातवां भागप्रमाण काल शेष रहा तब मिथ्यात्वमें जाकर उसने सम्यक्त्वप्रकृति की उद्वेलनाका प्रारम्भ किया । तथा आयुमें एक समय शेष रहनेपर वह २७ विभक्तिस्थानवाला होगया तो उसके अन्तर्मुहूर्त कालको छोड़कर शेष ३३ सागर काल २७ विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट अन्तरकाल होता है। इसी प्रकार २६ विभक्तिस्थानका अन्तर काल कहना चाहिये । विशेषता इतनी है कि प्रारम्भमें २६ विभक्तिस्थानसे उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करावे तथा पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके शेष रहनेपर सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करावे । कोई एक जीव ३३ सागरकी आयुके साथ नरकमें उत्पन्न हुआ और अन्त. मुहूर्त कालमें वेदक सम्यदृष्टि होकर उसने अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करदी। पश्चात् अन्तर्मुहूर्त कालके बाद वह मिथ्यात्वमें गया और जीवन भर मिथ्यादृष्टि बना रहा। किन्तु अन्तमें अन्तर्मुहूर्त कालके शेष रहनेपर पुन: वह उपशम सम्यक्त्व पूर्वक वेदक सम्यग्दृष्टि होगया और अनन्तानुबन्धी चतुककी विसंयोजना करदी, तब जाकर उसके प्रारम्भके और अन्त के कुछ अन्तर्मुहूर्त कालोंको छोड़कर शेष तेतीस सागर काल २४ विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट अन्तर काल होता है। किन्तु ऐसे जीवको मरते समय अन्तर्मुहूर्त पहले पुनः मिथ्यात्वमें ले जाना चाहिये । तथा नरकमें २२ और २१ विभक्ति. स्थान होते हैं पर उनका अन्तर काल नहीं पाया जाता । प्रथमादि नरकमें भी इसी प्रकार अन्तरका कथन करना चाहिये किन्तु उत्कृष्ट अन्तरका कथन करते समय कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण कहना चाहिये । तथा आगेकी मार्गणाओंमें भी जहां जिन
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गा० २२]
पयडिहाणविहत्तीए अंतरं
१३२०.तिरिक्समदीए तिरिक्खेसु अष्ठावीस-सत्तावीस-चउवीसविह० ओषभंगो । बीसबिह० जह० पलिदो० असंखे० भामो, उक्क० तिष्णि पलिदो० सादिरेयाणि । बावीस-एकवीसविह० णत्थि अंतरं । पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्वपचर-पंचिं० विरि जोगिणीसु अहावीस-सत्तावीस-छव्वीस-चउवीसविह जह• एमसमओ, पलिदो० असंखे० भागो, अंतोमुहुत्तं । उक्क० तिणि पलिदोवमाणि पुन्चकोडिपुषत्तेणब्भहियाणि । वावीस-एकवीसविह० माथि अंतरं । पवरि, जोणिमी० वावीस-इगिवीस पत्थि । पंचिंदियतिरिक्खअपञ्जत. सव्वपदाणं पत्थि अंतरं । एवं मणुसअपज०. अणुद्दिसादि जाव सबढ़०-सव्यएइंदिय-सबक्गिलिंदिय-पंचिंदियअपजत्त-सक पंचकाय-तसअपज०-ओरालियमिस्स०-वेउब्वियमिस्स०-आहार-आहारमिस्स -कम्म इय-अवगदवेद-अकसायि०-सव्वणाणि केवलक्ज-सव्वसंजम असंजदवज-ओहिदंसकअभवसिद्धि०-सव्वसम्मादिहि-असण्णि-अमाहारि त्ति वत्तव्यं । विभक्तिस्थानोंका अन्तर सम्भव है वहां इसी प्रकार विचार कर उसका कथन करना चाहिये । किन्तु उत्कृष्ट अन्तरका कथन करते समय उस उस मार्गणाकी उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा ही उसका कथन करना जाहिये।
६३२०.तिर्यचगतिमें तिर्यंचोंमें अट्ठाईस, सत्ताईस और चौबीस प्रकृतिकस्थानका अन्तर ओघके समान है । तथा छब्बीस प्रकृतिकस्थानका जघन्य अन्तर पल्यकें असंख्याये भागप्रमाण और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्प है। बाईस और इक्कीस प्रकृतिक स्थानका अन्तर नहीं है। पंचेन्द्रियतिथंच, पंचेन्द्रियतिथंच पर्याप्त और पंचेन्द्रियतियच योनिमती जीवोंमें अट्ठाईस प्रकृतिक स्थानका जघन्य अन्तर एक समय, सत्ताईस और छब्बीस प्रकृतिक स्थानका जघन्य अन्तर पल्यका असंख्यातवां भाग और चौबीस प्रकृतिक स्थानका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । तथा उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य है। बाइस और इक्कीस प्रकृतिकस्थानका अन्तर नहीं है। इतनी विशेषता है कि पंचेन्द्रियतियच योनिमती जीवोंमें बाईस और इक्कीस प्रकृतिक स्थान नहीं पाया जाता है। पंचे. न्द्रियतियच लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंमें संभव सभी पदोंका अन्तरकाल नहीं होता है । इसीप्रकार लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य, अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि सकके देव, सभी प्रकारके एकेन्द्रिय, सभी प्रकारके विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, सभी प्रकारके पांच स्थावरकायिक जीष, त्रस अपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, केवलज्ञानको छोड़ कर शेष समस्त ज्ञानवाले, असंयतोंको छोड़कर सभी संयमवाले, अवधिदर्शनी, अभव्य, सभी प्रकारके सम्यग्दृष्टि, असंही और अनाहारक जीवोंके कथन करना चाहिये । अर्थात् इन जीवोंके किसी भी स्थानका अन्तरकाल नहीं पाया जाता है।
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२६०
जयधवलासहिदे कसायपाहुई . [पडिविहत्ती २ ६३२१. मणुस्स-मणुस्सपजत्त-मणुसिणीसु अट्ठावीस-सत्तावीस-छव्वीस-चउवीसविह० जह० एगसमओ, पालदोवमस्स असंखेजदिभागो, अंतोमु० । उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि पुवकोडिपुत्तेणब्भहियाणि । तेवीस-बावीसादि उवरि० णत्थि अंतरं ।
६३२२. देवेसु अट्ठावीस-सत्तावीस-छव्वीस-चदुवीस जह० एयसमओ, पलिदो० असंखे० भागो, अंतोमुहुत्तं । उक्क० एकत्तीसं सागरो० देसूणाणि । वावीस-इगिवीस० णत्थि अंतरं। भवण-वाण-जोदिसि अट्ठावीस-सत्तावीस-छव्वीस-चउवीसविह० जह एगसमओ, पलिदो० असंखे० भागो, अंतोमु० । उक्क० सगहिदी देसूणा। सोहम्मादि जाव उवरिमगेवजेत्ति अठ्ठावीस-सत्तावीस-छब्बीस-चउवीसवि० जह० एगसमओ, पलिदो० असंखे भागो, अंतोमु०। उक्क० सगढिदी देसूणा। वावीस-एकवीसविह० णत्थि अंतरं । पंचिंदिय-पचिंदियपज्ज०-तस-तसपज्ज० अठ्ठावीस-सत्तावीसछव्वीस-चउवीसविह० जह० एगसमओ, पलिदो० असंखे० भागो, अंतोमुहुत्तं । उक्क०
६३२१. मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियोंमें अट्ठाईस प्रकृतिक स्थानका जघन्य अन्तर एक समय, सत्ताईस और छब्बीस प्रकृतिक स्थानका जघन्य अन्तर पल्यका असंख्यातवां भाग और चौबीस प्रकृतिक स्थानका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। तथा उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य है। किन्तु तेईस और बाईससे लेकर आगे एक प्रकृतिकस्थान तक किसी भी स्थानका अन्तर नही होता है।
६३२२. देवोंमें अट्ठाईस प्रकृतिक स्थानका जघन्य अन्तर एक समय, सत्ताईस और छब्बीस प्रकृतिकस्थानका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग और चौबीस प्रकृतिक स्थानका अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। तथा उत्कृष्ट अन्तर देशोन इकतीस सागरोपम है। बाईस और इक्कीस प्रकृतिक स्थानका अन्तर नही होता है। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें अट्ठाईस प्रकृतिकस्थानका जघन्य अन्तर एक समय, सत्ताईस और छब्बीस प्रकृतिक स्थानका जघन्य अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण और चौबीस प्रकृतिक स्थानका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। तथा उत्कृष्ट अन्तर देशोन अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। सौधर्म स्वर्गसे लेकर उपरिम प्रैवेयक तकके देवोंमें अट्ठाईस प्रकृतिक स्थानका जघन्य अन्तर एक समय, सत्ताईस और छब्बीस प्रकृतिक स्थानका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग और चौबीस प्रकृतिक स्थानका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। तथा उत्कृष्ट अन्तर देशोन अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। बाईस और इक्कीस प्रकृतिक स्थानका अन्तर नहीं होता । पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस, त्रस पर्याप्त जीवोंमें अट्ठाईस प्रकृतिक स्थानका जघन्य अन्तर एक समय, सत्ताईस और छब्बीस प्रकृतिकस्थानका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग और चौबीस प्रकृतिक स्थानका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । तथा उत्कृष्ट अन्तर देशोन अपनी अपनी स्थिति प्रमाण है। इतनी विशेषता है कि इन जीवोंमें छब्बीस
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गा० २२ ] . . पयडिहाणविहत्तीए अंतरं
२६॥ सगहिदी देसूणा । छब्बीसविह० ओघमंगो। सेसाणं णत्थि अंतरं ।
$३२३.जोगाणुवादेण पंचमण-पंचवचि० अठ्ठावीसवि० जह• एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुतं । सेसाणं हाणाणं णत्थि अंतरं । एवं कायजोगि-ओरालिय०-वेउब्बिय०चत्तारिकसाय० वत्तव्वं ।।
६३२४. वेदाणुवादेण इस्थि-पुरिस-णqसयवेदेसु अट्ठावीस-सत्तावीस-चउवीसविह. जह० एगसमओ, पलिदो० असंखे० भागो, अंतोमु० । उक्क० पलिदोवमसदपुधत्तं, सागरोवमसदपुधत्तं, उवदृपोग्गलपरियटं । छव्वीसविह० जह. पलिदो० असंखे० भागो। उक्क. पणवण्णपालदोवमाणि, वे छावष्टिसागरोवमाणि, तेचीससागरोवमाणि सादिरेयाणि । सेसाणं हाणाणं णत्थि अंतरं । असंजद० णबुंस० भंगो। चक्खु० तसभंगो।
६३२५.लेस्साणुवादेणकिण्ण-णील-काउ०अष्टावीस-सत्तावीस-छव्वीस-चउवीसवि० प्रकृतिक स्थानका उत्कृष्ट अन्तर ओघके समान है। शेष स्थानोंका अन्तर नहीं होता है।
३३२३. योगमार्गणाके अनुवादसे पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी जीवोंमें अट्ठाईस प्रकृतिक स्थानका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। शेष सत्ताईस आदि प्रकृतिकस्थानोंका अन्तर नहीं होता है । इसीप्रकार काययोगी, औदारिक काययोगी, वैक्रियिककाययोगी और चारों कषायवाले जीवोंमें अट्ठाईस आदि स्थानोंका अन्तर कहना चाहिये। . ६३२४. वेदमार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और नपुंसकवेदी जीवोंमें अट्ठाईस प्रकृतिकस्थानका जघन्य अन्तर एक समय, सत्ताइसप्रकृतिक स्थानका जघन्य अन्तर पल्योपम असंख्यातवें भाग और चौबीस प्रकृतिकस्थानका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त है। तथा स्त्रीवेदी जीवोंमें अट्ठाईस, सत्ताईस और चौबीस प्रकृतिकस्थानका उत्कृष्ट अन्तर सौ पल्य पृथक्त्व है। पुरुषवेदी जीवोंमें अट्ठाईस, सत्ताईस और चौबीस प्रकृतिक स्थानोंका उत्कृष्ट अन्तर सौ सागर पृथक्त्व है। तथा नपुंसकवेदी जीवोंमें अट्ठाईस, सत्ताईस और चौबीस प्रकृतिकस्थानोंका उत्कृष्ट अन्तर उपापुद्गल परिवर्तन प्रमाण है। तथा उक्त तीनों वेदवाले जीवोंमें छब्बीस प्रकृतिकस्थानका जघन्य अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भाग है। और उत्कृष्ट अन्तर श्रीवदी जीवोंमें साधिक पचपन पल्य, पुरुषवेदी जीवों में साधिक एक सौ बत्तीस सागर और नपुंसकवेदी जीवोंमें साधिक तेतीस सागर है। संभव शेष स्थानोंका अन्तर ही नहीं है। असंयतोंमें नपुंसकवेदियोंके समान जानना चाहिये । चतुदर्शनी जीवोंमें त्रस जीवोंके समान जानना चाहिये।
६३२५. लेश्यामार्गणाके अनुवादसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले जीवोंमें अट्ठाईस प्रकृतिक स्थानका जघन्य अन्तर एक समय, सत्ताईस और छब्बीस प्रकृतिक स्थानका जघन्य अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भाग और चौबीस प्रकृतिक स्थानका जघन्य अन्तर अन्त
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२१२
terrorist sarयपाहुडे
[ पयडिविहती २
०
जह० एगसमओ, पलिदो ० असंखे० भागो, अंतोसु० । उक० तेतीस सत्तारस-सरासमयसेवमाणि देणाणि । णवरि, सत्तावीस० सादिरेय० । एगवीसविह० णत्थि अंतरं । जवर • वाणीलवि० अस्थि । यवरि सिस्सेवि अंतरं णत्थि । तेउ०- पम्म० सुक० अट्ठावीस - सत्तावीस - छव्वीस - चउवीसविह० जह० एगसमओ, बलिदो० असंखे • भागो, अंतो | उक० वे - अहारससागरो० सादिरेयाणि, एकतीस सागरोषमाणि देखणाणि । पाचरि सतावीस ० सादिरे० । सेसाणं णत्थि अंतरं । सण्णी० पुरिसभंगो । आहारि० अडा पीस सत्तावीस - चउवीसवि० जहण्ण• एगसमओ, पलिदो • असंखे० भागो, अंब्रोमु० । उक० अंगुलस्स असंखे० भागो । छब्बीसविह० ओघभंगो । सेसाणं पति अंतरं ।
एवमंतरं समत्तं ।
1
* णाणाजीवेहि भंगविचओ । जेसिं मोहणीयपयडीओ अत्थि मुहूर्त है। तथा उत्कृष्ट अन्तर कृष्णलेश्यावालों में देशोन तेतीस सागर, नील लेश्यावालों में देशोन सत्रह सागर और कापोत लेश्यावालोंमें देशोन सात सागर होता है । इतनी विशेषता है कि सत्ताईस प्रकृतिक स्थानका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कमकी जगह स्मधिक कहना चाहिये । यद्यपि उक्त तीनों लेश्यावालोंके इक्कीस प्रकृतिकस्थान संभव है पर वह स्थान अन्तररहित है । इतनी विशेषता है कि कापोत लेश्यावालोंके बाईस प्रकृतिकस्थान भी संभव है परन्तु उसका भी अन्तर नहीं होता है । पीत, पद्म और शुक्ल लेश्यावाले जीव में अट्ठाईस प्रकृतिक स्थानका जघन्य अन्तर एक समय, सत्ताईस और छब्बीस प्रकृतिकस्थानका जघन्य अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भाग और चौबीस प्रकृतिक स्थानका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त होता है । उक्त चारों स्थानोंका उत्कृष्ट अन्तर पीतलेश्यावाले जीवों में साधिक दो सागर, पद्मलेश्यावाले जीवों में साधिक अठारह सागर और शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें कुछ कम इकतीस सागर होता है । इतनी विशेषता है कि सत्ताईस प्रकृतिक स्थानका उत्कृष्ट अन्तर तीनों लेश्यावालोंके कुछ कमके स्थानमें साधिक कहना चाहिये । शेष स्थानोंका अन्तर ही नहीं होता है ।
संज्ञी जीवों के पुरुषवेदियों के समान कहना चाहिये । आहारक जीवोंमें अट्ठाईस प्रकृतिक स्थानका जघन्य अन्तर एक समय, सत्ताईस प्रकृतिक स्थानका जघन्य अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भारा और चौबीस प्रकृतिकस्थानका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त होता है । तथा उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण आकाशके जितने प्रदेश हों उतने समय प्रमाण होता है । परन्तु छब्बीस प्रकृतिक स्थानका अन्तर ओघके समान जानना चाहिये । शेष स्थानका अन्तर ही नहीं पाया जाता ।
इस प्रकार अन्तरानुयोगद्वार समाप्त हुआ ।
# अब नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविषय अनुयोगद्वारका कथन करते हैं। जिन
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गा० १२ ]
तेसु पथदं ।
९३२६. 'णाणाजीह भंगविचओ' ति एत्थ 'कीरदे' इथेदेण पदेण संबंधो कायव्वो, अण्णा अस्थावगमाभावादो । जेसु जीवेसु मोहणीयपयडी अत्थि तेसु चेष एत्थ पयदं, मोहणीए अहियारादो ।
vasurasite मंगविश्व !
* सव्वे जीवा अट्ठावीस सत्तावीस-छब्बीस-चवीस- एकवीससंतकम्मविहत्तिया णियमा अस्थि ।
९३२७. सव्वे जीवा अट्ठावीसविहत्तिया ते णियमा अत्थि त्ति संबंधो ण कायव्वो, सवेसिं जीवाणं अट्ठावीसविहसित्ताभावादो । किंतु जो (जे) अट्ठावीसविहत्तिया जीवा, ते सब्वे अस्थि ति संबंधो कायव्वो । एवं सव्वत्थ वत्तव्वं । तदो एदेसिं द्वाणानं मिहत्तिया अविहन्तिया च णियमा अस्थि ति सिद्धं ।
* सेस विहत्तिया भजियव्वा ।
२६३
९३२८. २३, २२, १३, १२, १९, ५, ४, ३, २, १ । एदाणि भयणिजाणि पदाणि । पुणो एदेसिं भणिजपदाणं भंगपमाणपरूत्रणगाहा एसा । तं जहा, 'मजिपदा तिगुणा अण्णोष्णगुणा पुणो वि कायव्या । धुरया रूवूणा धुवसहिया तत्तिया चेव ॥ ३ ॥'
irah मोहनीय कर्मकी प्रकृतियां पाई जाती है उनका वहां प्रकरण है ।
९३२६. 'णाणाजीवेहिं भंगविचओ इस वाक्यमें 'कीरदे' पदका सम्बन्ध कर लेना चाहिये, अन्यथा अर्थका ज्ञान नहीं हो सकता। जिन जीवोंमें मोहनीयकर्म विद्यमान है इस अधिकार में उनका ही प्रकरण है, क्योंकि प्रकृत में मोहनीयकर्मका अधिकार है ।
* जो जीव मोहनीय कर्मप्रकृतियोंकी अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, चौबीस और इक्कीस विभक्तिवाले हैं वे सब नियमसे हैं ।
९३२७. सभी जीव अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले नियमसे हैं इसप्रकार संबन्ध नहीं करना चाहिये, क्योंकि सभी जीवोंके अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता नहीं पाई जाती है । किन्तु ऐसा सम्बन्ध करना चाहिये कि जो जीव अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले हैं वे सभी हैं । इसीप्रकार सभी स्थानों में कहना चाहिये । इस कथनसे इन अट्ठाईस आदि स्थानोंसे युक्त जीव और न अट्ठाईस आदि स्थानोंसे रहित जीव नियमसे हैं यह सिद्ध होता है ।
* शेष तेईस आदि विभक्तिस्थानवाले जीव कभी होते हैं और कभी नहीं भी होते ।
३ ३२८. २३, २२, १३, १२, ११, ५, ४, ३, २, और १ ये स्थान भजनीय हैं । अब इन भजनीय पदोंके अंगोंके प्रमाणको बतलानेवाली गाथा देते हैं
" भजनीय पदोंका १ १ इसप्रकार विरलन करके तिगुना करे । पुनः उस तिगुनी बिरलित राशि का परस्पर में गुणा करे । इस क्रियाके करनेसे जो लब्ध आता है उससे अध्रुव
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
(पडिविहत्ती २
९३२६. एदिस्से गाहाए अत्थो वुच्चदे । तं जहा, भयणिपाणि दस । पुणो एदाणि विरलिय तिगं काढूण अण्णोष्णेण गुणिदे सव्वभंगा उप्पयंति । तेर्सि पमाणमेदं - ५६०४६ । पुणो एत्थ एगरूवे अवणिदे भयाणजपदभंगा होंति । तम्हि चैव अवणिदरूवे पक्खित्ते धुवभंगेण सह सव्वभंगा उपति ।
३३०. संपहि तिगुणिय अण्णोष्णगुणस्स कारणे भण्णमाणे ताव एसा संदिट्ठी ११११११११११ २२२२२२२२२२
वेदवा |
। एत्थ उवरिमअंका एयवयणस्स हेट्टिम - अंका वि बहुवयणस्स । एवं हविय तदो एदोसिमालावपरूवणा कीरदे । तं जहा - सिया एदे भङ्ग एक कम होते हैं और ध्रुवभङ्ग सहित अध्रुवभङ्ग उक्त संख्याप्रमाण ही होते हैं । " ९३२१.अब इस गाथाका अर्थ कहते हैं । वह इसप्रकार है - प्रकृतमें २३, २२, १३, १२, ११, ५, ४, ३, २ और इसप्रकार ये दस विभक्तिस्थान भजनीय हैं । इन १० पदोंका १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ इसप्रकार विरलन करके इन्हें ३ ३ ३ ३ , ३ ३ ३ ३ ३ इसप्रकार तिगुना करे और परस्परमें ३४३४३४३४३४३×३×३ ३४३ गुणा कर दे । ऐसा करनेसे सभी ध्रुव और अध्रुव भङ्ग उत्पन्न हो जाते हैं। उन सबका प्रमाण ५६०४६ होता है । इस उपर्युक्त राशिमेंसे १ कम कर लेनेपर भजनीय पदोंका प्रमाण ५६०४८ होता है । तथा इस संख्यामें, जो एक घटाया था उसे मिला देने पर ध्रुवभङ्गके साथ सभी भङ्गोंका प्रमाण ५६०४६ आता है ।
उदाहरण - भजनीयपद १०, भजनीय पदका विरलनविरलितराशिका त्रिगुणीकरण
और परस्पर गुणा ५६०४६-१=५६०४८ अध्रुवभंग ।
५६०४८+१=५६०४९ ध्रुव और अध्रुव सभी भंग ।
९३३०. विरलित राशिके प्रत्येक एकको तिगुना करनेके और उसके परस्पर गुणा करनेके कारणको बतलानेके लिये निम्न लिखित संदृष्टि स्थापित करनी चाहिये
१ १ १ १ १ १ १ १ १
२ २ २ २ २ २ २
एकका अंक एकवचनका और नीचे रखा हुआ दो इसप्रकार संदृष्टिको स्थापित करके अब उन अंगों के
२६४
१ १ १ १ १ १ १ १ १ १
}-३×३×३×३×३=
१
२ २ २
इस संदृष्टिमें ऊपर रखा हुआ का अंक बहुवचनका द्योतक है । आलापका कथन करते हैं। वह इसप्रकार है
कदाचित् २८, २७, २६, २४ और २१ ध्रुवस्थानवाले ही जीव होते हैं ।
×३×३×३×३=५१०४१ ।
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गा० २२ ] पयडिहाणविहत्तीए भंगविचो
२६५ च, सिया एदे च तेवीसविहत्तिओ च, सिया एदे च तेवीसविहत्तिया च ।
६३३१.'सिया एदे च' एवं भाणिदेधुवपदाणं गहणं, तेसिंबहुवयणणिद्देसो चेव जीवेसु बहुवेसु चेव धुवपदाणमवहाणादो। 'तेवीसविहतिओ च' एवं भणिदे एगवयणग्गहणं । कुदो ? सणमोहक्खवगस्स तेवीसविहत्तियस्स कयाइ एकस्सेव उवलंभादो । 'सिया तेवीसविहत्तिया च' एवं भणिदे हेडिमबहुवयणस्स गहणं। कुदो ? तेवीसविहत्तियाणं दसणमोहक्खवयाणं कयाइ अष्टोत्तरसयमेत्ताणमुवलंभादो। एवमुप्पण्णदोभंगसंदिही एसा २। पुणो एदेसिं करणकिरियाए आगमणे इच्छिजमाणे एगरूवं हविय दोहि स्वेहि गुणिदे धुवभंगेण विणा तेवीसविहत्तियस्स एयबहुवयणभंगा चेव आगच्छति । पुणो ध्रुवभंगेण सह आगमणमिच्छामो त्ति दोरूवेसु रूत्रं पक्खिविय गुणिदे धुवभंगेण सह तिण्णिभंगा आगच्छन्ति ३ । एदेण कारणेण भयाणजपदं तीहि सोहि गुणिजदि । कदाचित् ये अट्ठाईस आदि ध्रुवविभक्तिस्थानवाले अनेक जीव और तेईस विभक्तिस्थानवाला एक जीव होता है । कदाचित् ये अट्ठाईस आदि ध्रुवविभक्तिस्थानवाले अनेक जीव और तेईस विभक्तिस्थानवाले अनेक जीव होते हैं।
३३१. 'सिया एदे च' ऐसा कहनेपर ध्रुवपदोंका ग्रहण करना चाहिये । उन ध्रुवपदोका बहुवचनके द्वारा निर्देश किया है, क्योंकि ध्रुव पद बहुत जीवोंमें ही पाये जाते हैं। अर्थात् उपर्युक्त अट्ठाईस आदि ध्रुवस्थानोंके धारक सर्वदा अनेक जीव रहते हैं, अतः ध्रुवपदोंका निर्देश बहुवचनके द्वारा किया गया है। तेवीसविहत्तिओ च' इसप्रकार कहनेपर एक वचनका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि जो मिथ्यात्व नामक दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करके तेईस विभक्तिस्थानको प्राप्त हुआ है ऐसा जीव कदाचित् एक ही पाया जाता है। 'सिया तेवीसविहत्तिया च' ऐसा कहनेपर जो संदृष्टि पीछे दे आये हैं उसमें नीचेरखे हुए दो अंकसे सूचित होनेवाले बहुवचनका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि कदाचित् मिथ्यात्व नामक दर्शनमोहनीयका क्षय करके तेईस विभक्तिस्थानको प्राप्त हुए एक सौ आठ जीव पाये जाते हैं। इसप्रकार ध्रुवभंगके विना तेईस विभक्तिस्थानके निमित्तसे उत्पन्न हुए दो भंगोंकी संदृष्टि यह है २ । गणितकी विधिके अनुसार यदि इन दो भंगोंको लाना इष्ट हो तो एक अंकको स्थापित करके उसे दो अंकसे गुणितकर देनेपर तेईस विभक्तिस्थानके ध्रुवभंगके बिना एकवचन और बहुवचनके द्वारा कहे गये दो भंग ही आते हैं। और यदि ध्रुवभंगके साथ तेईस विभक्तिस्थानके भंग लाना इष्ट हो तो दोके अंकमें एकको जोड़ देनेपर ध्रुवभंगके साथ तीन भंग उत्पन्न होते हैं ३ । इसी कारणसे भजनीयपदको तीनसे गुणित करे ऐसा कहा है। उदाहरण-१४२२ तेईस विभक्तिस्थानके भंग ।
२+१=३, १४३=३ Qवभंगके साथ तेईस विभक्तिस्थानके भंग।
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__ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे. पियडिविहत्ती २ एवं सेसवावीसकिहत्तियप्पहुडि जाव एमविहक्तिओ ति ताव पादेक तिमि गुणो कारणं बत्तन्वं ।
६३३२. संपहि तिगुणिय अण्णोग्णगुणस्स कारणं कुच्चदे। तं जहा-सिया एदे, वात्रीसविहसिओ च, सिया एदे च वावीसविहत्तिया च । एवं वाकीसविहत्यिस्स एगसंजोगेण एगबहुवयणाणि अस्सिदण दो भंगा २। पुणो वावीस-तेवीसविहतियाणं
संजोगो वुच्चदे । तं जहा-सिया एदे च तेवीसविहत्तिओ च वावीसविहत्तिओ च १। सिया एदे च तेवीसविहत्तिओ च वावीसविहत्तिया च २। सिया एदे च तेकीसविहसिया च वावीसविहत्तिया (ओ) च ३३ सिया एदे च तेवीसविहलिया च वावीसविहत्तिया च ४। एवं कावीसविहत्तियस्स दुसंजोगभंगा चत्तारि हवंति । पुणो एदेसु पुग्घुसेगसजोगभंगेसु पंक्खित्तेसु छब्भवति । ६३३३. पुणो एदेसिं करणकिरियाए आणयणं वुच्चदे । तं जहा-पुन्वुत्ततेवीसविह
इसीप्रकार शेष बाईस विभक्तिस्थानसे लेकर एक विभक्तिस्थान तक प्रत्येक स्थानको तीनसे गुणा करनेका कारण कहना चाहिये ।।
६३३२. अब विरलित राशिके प्रत्येक एकको तिगुना करके परस्परमें गुणा करे यह कह आये हैं उसका कारण कहते हैं। वह इसप्रकार है
कदाचित् ये २८ आदि ध्रुवस्थानवाले अनेक जीव और बाईस विभक्तिस्थानवाला एक जीव होता है। कदाचित् ये अट्ठाईस आदि ध्रुवस्थामवाले अनेक जीव और बाईस विभक्तिस्थानवाले अनेक जीव होते हैं। इसप्रकार एकवचन और बहुवचनका आश्रय लेकर बाईस विभक्तिस्थानके एकसंयोगी भङ्ग दो होते हैं। अब बाईस और तेईस विभक्तिस्थानोंके दोसंयोगी भङ्ग कहते हैं। वे इसप्रकार हैं- कदाचित् ये अट्ठाईस आदि ध्रुव स्थानवाले अनेक जीव, तेईस विभक्तिस्थानवाला एक जीव और बाईस विभक्तिस्थानवाला एक जीव होता है । यह पहला भङ्ग है । कदाचित् ये अट्ठाईस आदि ध्रुवस्थानवाले अनेक जीव, तेईस विभक्तिस्थानवाला एक जीव और बाईस विभक्तिस्थानयाले अनेक जीव होते हैं। यह दूसरा भंग है। कदाचित् ये अट्ठाईस आदि ध्रुवस्थानवाले अनेक जीव, तेईस विभक्तिस्थानवाले अनेक जीव और बाईस विभक्तिस्थानवाला एक जीव होता है। यह तीसरा भंग है । कदाचित् ये अट्ठाईस आदि ध्रुवस्थानवाले अनेक जीव, तेईस विभक्तिस्थानवाले अनेक जीव और बाईस विभक्तिस्थानवाले अनेक जीव होते हैं । यह चौथा भङ्ग है। इस प्रकार बाईस विभक्तिस्थानके तेईस विभक्तिस्थानके संयोगसे द्विसंयोगी भंग चार होते हैं, इन चार भंगोंमें पहले कहे गये बाईस विभक्तिस्थानके एक संयोगी दो भङ्गोंके मिला देनेपर कुल भङ्ग छह होते हैं।
६३३३. अब ये छहों भङ्ग गणितकी विधिके अनुसार कैसे निकलते हैं यह बतलाते हैं।
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गा० २२ ]
पयडिट्ठाणविहत्तीए भंगविचओ यतिण्णिभंगेसु दोहि रूवेहि गुणिदेसु तेवीसविहत्तियस्स तिहि भंगेहि विणा वावीसविहत्तियस्स एगदुसंजोगभंगा चेव आगच्छति । पुणो तेसिं णट्ठभंगाणं पि आगमणमिच्छामो चि पुग्विल्लगुणगारम्मि रूवं पक्खिविय गुणिर्दै वावीसविहतियस्स एगदुसंजोगभंगा तेवीसविहशिपस्स एगसंजोगभंगा च सव्वे एगवारेण आगच्छति । तेसि पमाणमेदं । एवं तेवीस-बावीसविहत्तियाणमेगदुसंजोगपरूवणा कदा ।
६३३४. संपहि तिगुणण्णोण्णगुणस्स णिण्णयत्थं पुणो विपरूवणा कीरदे। तं जहातेरसविहनियस्स एगसंजोगेण एग-बहुवयणाणि अस्सिदण दो भंगा उप्पजाते २ । पुणो तस्सेव दुसंजोगाला भण्णमाणे पुव्वं व तेरस-तेवीसविहत्तियाणं संजोएण चत्तारि ४ । तेरस-वावीसविहत्तियाणं संजोगेण वि चचारि चेव ४ । पुणो तेरसविहत्तियस्स तिसंजोगे भण्णमाणे तेवीस-बावीस-तेरसविहरियाणं हविदसंदिट्टीए एग-बहुवयणाणि अस्सिदण अक्खपरावत्ते कदे अह तिसंजोगभंगा उप्पजंति । संपहि तेरसविहात्तियस्स एगदोतिसंजोगाणं सव्वभंगसमासो अहारस १८। एदेसि करणकिरियाए आणयणं वुचदे । तं जहा-तेवीस-बावीसविहत्तियाणं णवभंगेसु दुगुणिदेसु वह विधि इसप्रकार है- तेईस विभक्तिस्थानसंबन्धी पूर्वोक्त तीन भङ्गोंको दोसे गुणित कर देनेपर तेईस विभक्तिस्थानके तीन भंगोंके बिना केवल बाईस विभक्तिस्थानके एक संयोगी और द्विसंयोगी भंग ही आते हैं। अब यदि इन बाईस विभक्तिस्थानके भंगोंके साथ तेईस विभक्तिस्थानके घटाए हुए भंगोंको लाना भी इष्ट है तो पूर्वोक्त दो संख्यारूप गुणकारमें एक संख्या मिला कर पूर्वोक्त गुण्यराशिसे गुणित करने पर बाईस विभक्तिस्थानके एक-द्विसंयोगी और तेईस विभक्तिस्थानके एक संयोगी सभी भंग एक साथ आ जाते हैं। उन सभी भङ्गोंका प्रमाण र होता है। इसप्रकार तेईस और बाईस विभक्तिस्थानके एक संयोगी और द्विसंयोगी भंगोंकी प्ररूपणा की।
६३३४. अब विरलित राशिके प्रत्येक एकको तिगुना करके परस्पर गुणा करनेकी विधिके निर्णय करनेके लिये और भी कहते हैं। उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है- एकवचन और बहुवचनका आश्रय लेकर तेरह विभक्तिस्थानके एकसंयोगी दो भंग उत्पन्न होते हैं। पुनः उसी तेरह विभक्तिस्थानके द्विसंयोगी भंगोंका कथन करनेपर पूर्ववत् तेरह और तेईस विभक्तिस्थानोंके संयोगसे चार भंग तथा तेरह और बाईस विभक्तिस्थानोंके संयोगसे भी चार भंग होते हैं। तथा तेरह विभक्तिस्थानके त्रिसंयोगी भंगोंका कथन करनेपर तेईस बाईस और तेरह विभक्तिस्थानोंकी जो संदृष्टि स्थापित है उसमें एकवचन और बहुवचनका आश्रय लेकर अक्षसंचार करनेपर त्रिसंयोगी भंग आठ उत्पन्न होते हैं। इसप्रकार तेरह विभक्तिस्थानके एकसंयोगी, द्विसंयोगी और त्रिसंयोगी सभी भंगोंका जोड़ अठारह होता है। अब इनकी गणितके अनुसार विधि कहते हैं। वह इसप्रकार है- तेईस और बाईस
३८
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२६८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे. [पयडिविहत्ती २ तेवीस-बावीसविहरियाणं मंगेहि विणा तेरसविहत्तियस्स भंगा चेव आगच्छति । संपहि तेवीस-बावीस-तेरसविहतियसव्वभंगाणमागमणमिच्छामो त्ति पुव्वुत्तणवमंगेसु तीहि स्वेहि गुणिदेसु तेवीस-बावीस-तेरसविहत्तियाणं एग-बहुवयणाणि अस्सिदण एग-दु-तिसंजोगसव्वभंगा सत्तावीस २७ । एवं सेसवारसदिविहत्तियाणं पि एगबहुवयणमस्सिदण एग-दुसंजोगादिभंगा जाणिदृणुप्पाएदव्वा । एवमुप्पाइदे सव्वमंगसमासो रातओ होदि ५६०४६ । एवं भयणिजपदाणं तिगुणे दव्वस्स अण्णोण्णगुणणाए च कारणं वुत्तं । विभक्तिस्थानोंके नौ भंगोंको दूना कर देनेपर तेईस और बाईस विभक्तिस्थानोंके भंगोंके बिना तेरह विभक्तिस्थानके सभी भंग आते हैं। अब यदि तेईस, बाईस और तेरह विभक्तिस्थानोंके समी भगोंके लानेकी इच्छा हो तो पूर्वोक्त नौ भङ्गोंको तीनसे गुणित करनेपर एकवचन और बहुवचनका आश्रय लेकर तेईस, बाईस और तेरह विभक्तिस्थानोंके एक संयोगी, द्विसंयोगी और तीन संयोगी सब भङ्ग सत्ताईस होते हैं। इसी प्रकार एकवचन और बहु बचनकी अपेक्षा शेष बारह विभक्तिस्थानोंके भी एकसंयोगी और द्विसंयोगी आदि भङ्ग उत्पन्न कर लेना चाहिये । इसप्रकार उत्पन्न हुए सब भङ्गोंका जोड़ ५६०४६ होता है। इस प्रकार भजनीय पदोंको विरलित करके तिगुना क्यों करना चाहिये और तिगुणित द्रव्यको परस्परमें गुणित क्यों करना चाहिये इसका कारण कहा । उदाहरण
१ ध्रुवभङ्ग २ तेईस विभक्तिस्थानके भङ्ग
३ ध्रुषभङ्ग सहित तेईस विभक्तिस्थानके भङ्ग ३४२=६ बाईस विभक्तिस्थानके प्रत्येक व संयोगी सब भंग ३४३= ध्रुवभंग सहित २३ व २२ स्थानके सब भंग २४२=१८ तेरह विभक्तिस्थानके प्रत्येक व संयोगी सब भंग २४३=२७ ध्रुवभंग सहित २३,२२व१३ विभक्तिस्थानोंके सब भंग २७४२=५४ बारह विभक्तिस्थानके प्रत्येक व संयोगी सब भंग २७४३८१ ध्रुवभंगसहित २३,२२,१३व१२वि० स्थानके सबभंग -१४२=१६२ ग्यारह विभक्तिस्थानके प्रत्येक व संयोगी सब भंग ८१४३ २४३ ध्रुवभंग सहित २३ से ११ तकके स्थानोंके सब भंग २४३४२४८६ पांच विभक्तिस्थानके प्रत्येक व संयोगी भंग २४३४३=७२६ ध्रुवभंग सहित २३ से ५ तकके स्थानोंके सब भंग ७२६४२-१४५८ चार विभक्तिस्थानके प्रत्येक व संयोगी भंग
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गी० २२ ]
पयडिट्ठाणविहत्तीए मंगविचश्रो
७२६×३=२१८७ ध्रुवभंग सहित २३ से ४ तकके स्थानोंके भंग २१८७२ = ४३७४ तीन विभक्तिस्थानके प्रत्येक व संयोगी भंग २१८७ × ३=६५६१ ध्रुवभंग सहित २३ से ३ तकके स्थानोंके भंग ६५६१ × २=१३१२२ दो विभक्तिस्थानके प्रत्येक व संयोगी भंग ६५६१ × ३=१९६८३ ध्रुवभंग सहित २३ से २ तकके स्थानोंके भंग १६६८३x२=३६३६६ एक विभक्तिस्थानके प्रत्येक व संयोगी भंग ११६८३×३=५६०४६ ध्रुवभंग सहित २३ से १ तकके स्थानोंके सब भंग
नोट - तेईस विभक्तिस्थानको प्रथम मान कर ये उत्तरोत्तर भंग लाये गये हैं । ये भंग विवक्षित स्थानसे पीछेके सब स्थानोंके भंगोंको २ से गुणा करने पर उत्पन्न होते हैं । अतः आगे जो बाईस आदि एक एक स्थानके भंग बतलाये गये हैं उनमें उस उस स्थानके प्रत्येक भंग और उस स्थान तकके स्थानोंके द्विसंयोगी आदि भंग सम्मिलित हैं । ये भंग विवक्षित स्थानसे पीछे के सब स्थानोंके भंगोको दो से गुणा करनेपर उत्पन्न होते हैं तथा इन भंगोंमें पीछे पीछेके स्थानोंके भंग मिला देनेपर वहां तकके सब भंग होते हैं। ये भंग विवक्षित स्थानसे पीछेके सब स्थानोंके भंगोंको तीनसे गुणा करनेपर उत्पन्न होते हैं ।
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विशेषार्थ - मोहनीय कर्मके २८ भेद हैं । उनमें से किसीके २८ किसीके २७ और किसीके २६, २४, २३, २२, २१, १३, १२, ११, ५, ४, ३, २ या १ प्रकृतियोंकी सत्ता पाई जाती है। इस प्रकार इसके पन्द्रह विभक्तिस्थान होते हैं । इनमें से २८, २७, २६, २४ और २१ विभक्तिस्थानवाले बहुतसे जीव संसार में सर्वदा पाये जाते हैं ऐसा समय नहीं है जब इन विभक्तिस्थानवाले जीवोंका अभाव होवे । अर्थात् इनका कभी अभाव नहीं होता, अतः ये पांचों ध्रुव स्थान हैं। तथा शेष स्थानवाले कभी एक और कभी अनेक जीव होते हैं अतः शेष अध्रुवस्थान हैं, यहां ध्रुवस्थानों की अपेक्षा २८, २७, २६, २४ और २१ विभक्तिस्थानवाले नाना जीव हैं यही एक भंग होगा पर अध्रुवस्थानोंकी अपेक्षा एक संयोगी, द्विसयोगी आदि प्रस्तार विकल्प और उनमें एक जीव तथा नामा जीवोंकी अपेक्षा अनेक भंग प्राप्त होते हैं । तात्पर्य यह है कि प्रत्येक स्थानके या अभ्य दूसरे स्थानोंके संयोगसे द्विसंयोगी आदि जितने विकल्प प्राप्त होते हैं उतने प्रस्तार होते हैं। यहां आलापोंके स्थापित करनेको प्रस्तार कहते हैं । और इन प्रस्तारोंमें उनके जितने आलाप होते हैं उतने भंग होते हैं। यहां पहले जो 'भयणिज्जपदा' आदि करण गाथा दी है उससे प्रस्तार विकल्प उत्पन्न न होकर आलाप विकल्प ही उत्पन्न होते हैं। जो ध्रुवभंगके साथ उत्तरोत्तर तिगुने तिगुने होते हैं। ये खालापविकल्प या भंग उत्तरोत्तर तिगुने क्यों होते हैं इसका कारण मूलमें ही दिया है।
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जयपवलासहिंद कसायपाहुडे
पिडिबिहत्ती ३
६३३५. संपहि एदेसिं चेव भंगाणमण्णेण पयारेण आणयणं वुश्चदे । तं जहा... एकोत्तरपदवृद्धो रूपाभाजितश्च पदवृद्वैः । .. गच्छस्संपातफलं समाहतस्सन्निपातफलम् ॥ ४ ॥
१०,६,८,७,६,५,४, ३,२,१ ३३३६. एदीए अजाए एसा संदिही
वेयठेवा। सास १,२,३,४,५,६,७,८,६,१०, एवं ठविय तदो एग-दु-तिसंजोगादिपत्थारसलागाओ आणिजंति । तत्थ तेवीसविहत्तियस्स एगसंजोगपत्थारो एसो : : । एत्थ उवरिमसुण्णाओ धुवं ति ठविदाओ।
६३३५. अब अन्य प्रकारसे इन भंगोंके लानेकी विधि कहते हैं। वह इसप्रकार है
"आदिमें स्थापित एकसे लेकर बढ़ी हुई संख्यासे, अन्तमें स्थापित एकसे लेकर बढ़ी हुई संख्यामें भाग देना चाहिये । इस क्रियाके करनेसे संपात फल अर्थात एकसंयोगी (प्रत्येक) भंग गच्छ प्रमाण होते हैं और सम्पात फलको नौ वटे दो आदिसे गुणित कर देनेपर सन्निपातफल प्राप्त होता है ॥ ४ ॥"
$ ३३६. इस आर्याकी यह संदृष्टि लिखना चाहिये
१ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १० उदाहरण संपातफलका
१० १ = १० सम्पातफल या प्रत्येक भंग। उदाहरण सन्निपातफलका-१०४३= ४५ द्विसंयोगी
१०x२x६=१२० त्रिसंयोगी
१०x२x६xx=२१० चतुःसंयोगी पांच संयोगी आदि भंगोंको इसी क्रमसे ले आना चाहिये। . इसप्रकार संदृष्टिको स्थापित करके इससे एकसंयोगी, द्विसंयोगी और त्रिसंयोगी
आदि प्रस्तार संबन्धी शलाकाएं ले आना चाहिये। उनमें से तेईस विभक्तिस्थानका एकसंयोगी प्रस्तार : यह है। इस प्रस्तारमें ध्रुव विभक्तिस्थानोंके द्योतन करनेके लिये अड्डोंके ऊपर शून्य रखे हैं। उन शून्योंके नीचे जो १ और २ के अङ्क रखे हैं उनसे क्रमसे
(१) 'एकाधकात्तरा अंका यस्ता भाज्याः क्रमस्थितः। परः पूर्वेण संगुण्यस्तत्परस्तेन तेन च ।' -लीला •पृ० १०७ । (२) सम्माहतं-स० । समाहृतं आ० । समाहितः-अ०। (३) एवं द्वविय अंतिमघउसठ्ठीए एगरूवेण भाजिदाए च उसट्ठी सपातफलं लब्भदि ६४ । कि संपादफलं णाम ? संपादो एगसंजोगो तस्स फलं सपादफलं णाम । पुणो तिसट्ठिदुब्भागेण संपादफले गुणिदे चउदिअक्ख राणं दुसंजोगभंगा एतिया हॉति २०१६ । xx संपहि चउसटुिअक्खराणं तिसंजोगभंगे भण्णमाणे दुसंजोगभंगे उप्पणसोलसुत्तरवेसहस्सेसु तिसंजोगभंगा एत्तिया होंति ४१६६४ ।'-० मा० ८७३ ।
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गा० २२) पडिहाणविहत्तीए मंगविची हेट्ठिमएक-अंका वि तेवीसविहत्तियस्स एग-बहुवयणाणि त्ति गेण्हिदव्वाणि ।
३३३७.संपहि तेवीसविहत्तियस्स एगसंजोगपत्थारालावोवुच्चदे । तं जहा-सिया एदे च तेवीसविहत्तिओ च १। सिया एदे च तेवीसविहत्तिया च २। एदाहि उच्चारणातेईस विभक्तिस्थानके एकवचन और बहुवचनका ग्रहण करना चाहिये।
विशेषार्थ-वीरसेन स्वामीने 'एकोत्तरपदवृद्धो' इत्यादि आर्याकी १, ९ ६ इत्यादि संदृष्टि बतलाई है । अतः हमने आयर्याके पूर्वार्धका इसीके अनुसार अर्थ किया है। पर प्रकृति अनुयोगद्वारमें श्रुतके संयोगी अक्षरोंके भंग लाते समय उन्होंने उक्त आर्याकी
१ २ ३ इत्यादि रूपसे भी संदृष्टि स्थापित की है । लेखकने प्रमादसे इसे उलट कर लिख दिया होगा सो भी बात नहीं है; क्योंकि 'एदं ठविय अंतिमचउसटाए एगरूवेण भाजिदाए चउसठी संपातफलं लब्भदि' ( इस संदृष्टिको स्थापित करके अन्तमें आये हुए चौसठमें एकका भाग देनेपर संपातफल चौसठ प्राप्त होता है)। इससे जाना जाता है कि उक्त प्रकारसे इस संदृष्टिको स्वयं वीरसेन स्वामीने स्थापित किया है। इसके अनुसार आर्याका अर्थ निम्न प्रकार होगा- 'एकसे लेकर एक एक बढ़ाते हुए पदप्रमाण संख्या स्थापित करो। पुनः उसमें अन्तमें स्थापित एकसे लेकर पदप्रमाण बढ़ी हुई संख्याका भाग दो। इस क्रियाके करनेसे संपातफल गच्छप्रमाण प्राप्त होता है और संपातफलको नौ वटे दो आदिसे गुणित कर देने पर सन्निपातफल प्राप्त होता है'। इन दोनों अर्थों में से किसी भी अर्थके ग्रहण करनेसे तात्पर्य में अन्तर नहीं पड़ता। और आर्याके पूर्वार्धके दो अर्थ सम्भव हैं । मालूम होता है इसीसे वीरसेन स्वानीने एक अर्थका यहां और एकका प्रकृति अनुयोगद्वारमें संकलन कर दिया है । यहां सम्पातफलसे एकसंयोगी भंगोंका ग्रहण किया है इसीलिये उन्हें गच्छप्रमाण कहा है। तथा सनिपातफलसे द्विसंयोगी आदि भंगोंका ग्रहण किया है। दस भजनीय पदोंमें एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगोंका ग्रहण करना है अतः भजनीय पदोंके संयोगसे जितने विकल्प आते हैं उतने प्रस्तार विकल्प जानना चाहिये । यहां ये प्रस्तार विकल्प ही उक्त आ के अनुसार निकाल कर बतलाये गये हैं। तात्पर्य यह है कि यहां स्थानोंके संयोगी भंग और उनमें एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा अवान्तर भंग इसप्रकार दो दो बातें हैं । अत: यहां स्थानों के संयोगी भंग प्रस्तारविकल्प हो जाते हैं। जो आर्याके द्वारा निकाल कर बतलाये गये हैं। पर अन्यत्र जहां अवान्तर भंग नहीं होते हैं वहां इस आर्याक द्वारा केवल भंग ही उत्पन्न किये जाते हैं।
६३३७. अब तेईस विभक्तिस्थानके एक संयोगी प्रस्तारका आलाप कहते हैं। वह इसप्रकार है-कदाचित् अट्ठाईस आदि ध्रुवस्थानवाले अनेक जीव और तेईस प्रकृतिस्थानवाला एक जीव होता है। कदाचित् अट्ठाईस आदि ध्रुवस्थानवाले अनेक जीव और वेईस विभक्ति स्थानवाले
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अयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [ पयडिविहत्ती ३ सलागाहि पुरदो कजं भविस्सीहिदि : : एसो एगो पत्थारो । एदस्स एका सलागा घेपदि । संपहि वावीसविहत्तियस्स भण्णमाणे एसो पत्थारो ; । संपहि एदस्सालावो वुच्चदे। तं जहा-सिया एदे च वावीसविहत्तिओ च१, सिया एदे च वावीसविहत्तिया च २ । एदस्स वि पत्थारस्स सलागा एका १। एवं तेवीस-बावीसविहत्तियाणमेगसंजोगपत्थारसलागाओ भाणदाओ। संपहि तेरसादीणं पि हाणाणमेगसंजोगपत्थारालावा पुध पुध भणिदूण गेण्हिदव्वा । णवरि, एगेगपत्थारम्भिएगेगा चेव सलागा लब्भदि तासिं लद्धसलागाणं पमाणमेदं १० । अथवा पुवहविदसंदिहिम्हि एगरूवेण दससु ओवट्टदेसु पुन्वुत्तदसपत्थारसलागाओ लन्भंति । एवं भयणिजपदाणमेगसंजोगपत्थारसलागपमाणपरूवणा कदा । संपहि दुसंजोगपत्थारसलागपमाणपरूवणं कस्सामो। तत्थ एस पत्थारो होदि । उवरिमसव्वसुण्णाओ धुवस्स, मज्झिमसव्व-अंका तेवीसाए, हेहिमसबका वावीसाए । अनेक जीव होते हैं। इन कही गई शलाकाओंसे आगे काम पड़ेगा। : : यह एक प्रस्तार है। इसकी एक शलाका लेना चाहिये ।
अब बाईस विभक्तिस्थानका कथन करते हैं। उसका प्रस्तार ; : यह है । अब इसके आलाप कहते हैं। वे इसप्रकार हैं-कदाचित् अट्ठाईस आदि ध्रुवस्थानवाले अनेक जीव और बाईस विभक्तिस्थानवाला एक जीव होता है। कदाचित अट्ठाईस आदि ध्रुवस्थानबाले अनेक जीव और बाईस विभक्तिस्थानवाले अनेक जीव होते हैं। इस बाईस विभक्तिस्थानके प्रस्तारकी भी एक शलाका है। इसप्रकार तेईस और बाईस विभक्तिस्थानोंके एक संयोगी प्रस्तारोंकी शलाकाएं कहीं। इसीप्रकार तेरह आदि विभक्तिस्थानोंके भी एक संयोगी प्रस्तार और उनके आलाप अलग अलग कहकर ग्रहण करना चाहिये। इतनी विशेषता है कि एक एक प्रस्तार में एक एक शलाका ही प्राप्त होती है। अतः उन तेईस आदि विभक्तिस्थानोंके एक संयोगी भंगोंकी शलाकाओंका प्रमाण १० है। अब पहले 'एकोत्तरपदवृद्धो' इत्यादि आर्याकी जो संदृष्टि स्थापित कर आये हैं उसमेंसे एकके द्वारा दसके भाजित कर देनेपर पूर्वोक्त दस प्रस्तारशलाकाएं प्राप्त होती हैं।
इसप्रकार भजनीय पदोंके एक संयोगी प्रस्तारोंकी शलाकाओंका प्रमाण कहा। अब द्विसंयोगी प्रस्तारोंकी शलाकाओंका प्रमाण कहते हैं । द्विसंयोगी प्रस्तारोंकी शलाकाएं उत्पन्न करते समय प्रस्तार निम्नप्रकार होगा । इस प्रस्तारमें उपरके सभी शून्य ध्रुवस्थानोंके घोतक हैं । बीचके सभी अंक तेईस विभक्तिस्थानके द्योतक हैं और नीचेके सभी अंक बाईस विभक्तिस्थानके द्योतक हैं।
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गा० २२]
पयडिट्ठाणविहत्तीए भैगविचओ ६३३८. संपाहि एदस्सालावो वुच्चदे । तं जहा-सिया एदे च तेवीसविहत्तिओ च वाबीसविहतिओ च १। सिया एदे च तेवीसविहत्तिओ च वावीसविहत्तिया च २ । सिया एदे च तेवीसविहत्तिया च वावीसविहत्तिओ च ३ । सिया एदे च तेवीसविहत्तिया च वावीसविहत्तिया च ४ । एवं तेवीस वावीसविहत्तियाणं दुसंजोगस्स एक्का
व पत्थारसलागा होदि १ । उच्चारणसलागाओ पुण ताव पुध हवेदव्या । संपहि तेवीस-तेरसविहतियाणं पत्थारे हविय एवं चेव आलावा वत्तव्वा । एवं वे दुसंजोगपत्थारसलागा २। तेवीसबारसण्हं संजोगेण तिणि पत्थारसलागा ३ । तेवीसाए सह एकारसण्हं संजोगेण चत्तारि पत्थारसलागा ४ । तेवीसाए पंचण्हं संजोगेण पंच पत्यारसलागा ५ । तेवीसाए चदुण्ठं संजोगेण छ पत्थारसलागा ६। तेवीसाए
६ ३३८. अब इस प्रस्तारका आलाप कहते हैं। वह इसप्रकार है
कदाचित् ये अट्ठाईस आदि ध्रुवस्थानवाले अनेक जीव, तेईस विभक्तिस्थानवाला एक जीव और बाईस विभक्तिस्थानवाला एक जीव होता है। कदाचित ये अट्ठाईस आदि ध्रुवस्थानवाले अनेक जीव, तेईस विभक्तिवाला एक जीव तथा बाईस विभक्तिस्थानवाले अनेक जीव होते हैं। कदाचित् ये अट्ठाईस आदि ध्रुवस्थानवाले अनेक जीव, तेईस विभक्तिस्थानबाले अनेक जीव और बाईस विभक्तिस्थानवाला एक जीव होता है। कदाचित् ये अट्ठाईस आदि ध्रुवस्थानवाले अनेक जीव, तेईस विभक्तिस्थानवाले अनेक जीव और बाईस विभक्तिस्थानबाले अनेक जीव होते हैं। इसप्रकार तेईस और बाईस विभक्तिस्थानोंके द्विसंयो. योगकी एक ही प्रस्तारशलाका होती है। पर उसकी जो चार उच्चारणशलाकाएं अर्थात् आलाप कह आये हैं उन्हें अलग स्थापित करना चाहिये । तेईस और तेरह विभक्तिस्थानोंके प्रस्तारको स्थापित करके इसीप्रकार आलाप कहना चाहिये । इसप्रकार तेईस
और बाईस विभक्तिस्थानोंकी द्विसंयोगी एक प्रस्तार शलाका तथा तेईस और तेरह विभतिस्थानोंकी द्विसंयोगी एक प्रस्तारशलाका ये द्विसंयोगी दो प्रस्तारशलाकाएं होती हैं। तेईस
और बारह विभक्तिस्थानोंके संयोगसे एक प्रस्तारशलाका होती है । इस प्रकार ऊपरकी दो और एक यह सब मिलकर तीन प्रस्तारशलाकाएं हो जाती हैं। इनमें तेईस विभक्तिस्थानको ग्यारह विभक्तिस्थानके साथ मिलानेसे उत्पन्न हुई एक प्रस्तार शलाकाके मिला देने पर चार प्रस्तारशलाकाएं हो जाती हैं। इनमें तेईस विभक्तिस्थानको पांच विभक्तिस्थानके साथ मिलानेसे उत्पन्न हुई एक प्रस्तार शलाकाके मिला देनेपर पांच प्रस्तार शलाकाएं हो जाती हैं। इनमें तेईस विभक्तिस्थानको चार विभक्तिस्थानके साथ मिलादेनेसे उत्पन्न हुई एक प्रस्तार शलाकाके मिला देनेपर छह प्रस्तार शलाकाएं हो जाती हैं। इनमें तेईस विभक्तिस्थानको तीन विभक्तिस्थानके साथ मिलानेसे उत्पन्न हुई एक प्रस्तारशलाकाके मिला देनेपर सात प्रस्तारशलाकाएं हो जाती हैं। इनमें तेईस विभक्तिस्थानको दो
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३०४
जाहिदे कसायपाहुडे
[ पयडिविहत्ती २
तिन्हं संजोगेण सत्त पत्थारसलागा ७ । तेवीसाए दोन्हं संजोगेण अट्ठ पत्थारसलागा
८ । तेवीसाए एकिस्से संजोगे णव पत्थारसलागा है ।
Q
१
२
१ २
९३३६ संपहि वावीसतेरसण्हं दुसंजोगपत्थारो एसो १ २। उवरिमचदुसुणाओ धुवस्स, मज्झिमअंका वावीसविहत्तियस्स, हेट्टिमअं का तेरसविहत्तियस्स । संपहि दस आलावो वुच्चदे । सिया एदे च वावीसविहत्तिओ च तेरस विहत्तिओ च । एवं सेसालावा जाणिदृण वत्तव्त्रा । एवं वावीसाए सह वारसादि जान एगविहत्तिओ पत्ते पत्तेयं दुसंजोगं काढूण अट्ठा पत्थारसलागाओ उत्पाएयव्त्राओ ८ ।
३ ३४०. संपहि तेरसण्हं बारसेहि सह दुसंजोगालावा वत्तव्वा । तत्थ एगा पत्थारसलागा लब्भदि १ । एवं तेरस धुवं काढूण णेयव्वं जाव एगविहत्तिओ ति । एवं णीदे तेरसविहत्तियस्स दुसंजोएण सत्त पत्थारा उप्पांति ७ । बारसविहत्तियस्स एक्का - रसादीहि सह दुसंजोगे भण्णमाणे छप्पत्थारसलागाओ लब्भंति ६ । एक्कारसविहत्तियस्स उवरिमेहि सह दुसंजोए भण्णमाणे पंच पत्थारसलागाओ लब्भंति ५ । पंचPreferrनके साथ मिलानेसे उत्पन्न हुई एक प्रस्तारशलाकाके मिला देनेपर आठ प्रस्तार शलाकाएं हो जाती हैं । इनमें तेईस विभक्तिस्थानको एक विभक्तिस्थानके साथ मिला देनेसे उत्पन्न हुई एक शलाकाके मिला देनेपर नौ प्रस्तारशलाकाएं हो जाती हैं ।
१३१८. अब बाईस और तेरह विभक्तिस्थानका द्विसंयोगी प्रस्तार कहते हैं । वह यह है
०
१
1
ऊपर के चार शून्य ध्रुवस्थानके सूचक हैं। मध्य के अङ्क बाईस विभक्तिस्थान के सूचक हैं । नीचेके अंक तेरह विभक्तिस्थानके सूचक हैं। अब इस प्रस्तारके आलाप कहते हैं । कदाचित् ये अट्ठाईस आदि ध्रुवस्थानवाले अनेक जीव बाईस विभक्तिस्थानवाला एक जीव और तेरह विभक्तिस्थानवाला एक जीब होता है । इसीप्रकार शेष तीन आलाप भी जानकर कहना चाहिये । इसीप्रकार बाईस विभक्तिस्थानके साथ बारह विभक्तिस्थान से लेकर एक विभक्तिस्थान तक बाईस बारह, बाईस ग्यारह, बाईस पांच इसप्रकार द्विसंयोग करके प्रत्येककी आठ प्रस्तारशलाकाएं उत्पन्न कर लेना चाहिये ।
९३४०. अब तेरह विभक्तिस्थानका बारहविभक्तिस्थानके साथ द्विसंयोगी आलाप कहना चाहिये। यहां एक प्रस्तारशलाका प्राप्त होती है । इसप्रकार तेरह विभक्तिस्थानको ध्रुव करके एक विभक्तिस्थानतक ले जाना चाहिये । इसप्रकार ले जानेपर तेरह विभक्तिस्थानके द्विसंयोगी सात प्रस्तार उत्पन्न होते हैं। बारह विभक्तिस्थानके ग्यारह आदि विभक्तिस्थानों के साथ द्विसंयोगी प्रस्तारोंका कथन करनेपर छह प्रस्तारशलाकाएं प्राप्त होती हैं । ग्यारह विभक्तिस्थानके ऊपर के पांच आदि विभक्तिस्थानोंके साथ द्विसंयोगी प्रस्तारोंका कथन करने पर पांच प्रस्तारशलाकाएं उत्पन्न होती हैं। पांच विभक्तिस्थानके ऊपरके चार आदि विभक्ति
०
.
२
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गा० २२]
पयडिट्ठाणविहत्तीए भंगविचओ
विहत्तियस्स उवरिमेहि सह दुसंजोगे भण्णमाणे चत्तारि पत्थारसलागाओ लब्भंति ४ । चत्तारिविहत्तियस्स उवरिमेहि सह दुसंजोगे कीरमाणे तिण्णि पत्थारसलागाओ ३ । तिण्णिविहत्तियस्स उवरिमेहि सह दुसंजोगे कीरमाणे दोण्णि पत्थारसलागाओ २। दोण्हं विहत्तियस्स एक्किस्सेहि विहत्तीए सह दुसंजोगे कीरमाणे एक्का पत्थारसलागा १। एवं दुसंजोगसव्वपत्थारसलागाओ एक्कदो मेलिदे पंचेतालीस ४५ होति । अहवा पुव्वहविदसंदिहिम्हि उवरिमदस-णवण्हं अण्णोण्णगुणदाणं हेछिमअण्णोण्णगुणिदएक-वै-अंकेहि ओवट्टणम्मि कदे पुव्वुत्तपत्थारसलागा आगच्छति । एवं दुसंजोगपरूवणा गदा ।
० ० ० ० ० ० ० ० ३४१. तिसंजोगपत्थारो : ११ १ १ १ १ २ २ २ २
२ एसो। एत्थ उवरिम'१ १ २ २ १ १ २ २५
१ २ १ २ १ २ १ २ असुण्णाओ धुवस्स । ततो अणंतरहेष्टिमअंकपंती तेवीसविहत्तियस्स । उवरीदो तदियस्थानोंके साथ द्विसंयोगी प्रस्तारोंका विचार करनेपर चार प्रस्तारशलाकाएं उत्पन्न होती हैं। चार विभक्तिस्थानके ऊपरके तीन आदि विभक्तिस्थानोंके साथ द्विसंयोगी प्रस्तारोंका विचार करनेपर तीन प्रस्तारशलाकाएं उत्पन्न होती हैं। तीन विभक्तिस्थानके ऊपरके दो आदि विभक्तिस्थानोंके साथ द्विसंयोगी प्रस्तारोंका विचार करनेपर दो प्रस्तारशलाकाएं उत्पन्न होती हैं। दो विभक्तिस्थानके एक विभक्तिस्थानके साथ द्विसंयोगी प्रस्तारके लाने पर एक प्रस्तारशलाका उत्पन्न होती है। इसप्रकार द्विसंयोगी सभी प्रस्तारशलाकाओंको एकत्रित करनेपर कुल जोड़ पैंतालीस होता है । अथवा, 'एकोत्तरपदवृद्धो' इत्यादि आर्याकी जो ऊपर संदृष्टि स्थापित कर आये हैं उसमें ऊपरकी पंक्तिमें स्थित १० और ६ का अलग गुणा करे । तथा नीचेकी पंक्तिमें स्थित १ और २ का अलग गुणा करे । अनन्तर १० और के गुणनफलको १ और २ के गुणनफलसे भाजित कर दे। इस प्रकारकी विधि करनेपर भी पूर्वोक्त पैंतालीस प्रस्तारशलाकाएं आ जाती हैं । इसप्रकार द्विसंयोगी प्ररूपणा समाप्त हुई। ३४१.त्रिसयोगी प्रस्तार यह है- ० ० ० ० ० ० ० ०
१ १ १ १ २ २ २ २
१ २ १ २ १ २ १ २ इस प्रस्तारमें ऊपरके आठ शून्य ध्रुवस्थानके सूचक हैं । उसके अनन्तर नीचेकी पंक्तिमें स्थित अंक तेईस विभक्तिस्थानके सूचक हैं। इसके अनन्तर ऊपरसे तीसरी पंक्ति में स्थित
(१) -स्से वि०स० ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पयडिविहत्ती २
अकपंती वावीसविहत्तियस्स । सव्वहेडिमअंकपंती तेरसविहत्तियस्स । संपहि एदस्सालावो वुच्चदे । सिया एदे च तेवीसविहात्तिओ च वावीसविहत्तिओ च तेरसविहात्तओ च । एवं सेसालावा जाणिदण वत्तव्वा । एत्थ एगा पत्थारसलागा लब्भदि १ । उच्चारणाओ पुण अह होति ८ । ताओ पुण ताव हवणिजाओ। संपहि तेवीसवावीसहिदअक्खे धुवे काऊण बारसविहत्तिएण सह तिसंजोगपत्थारो होदि ति विदियपत्थारसलागा २ । एवमेक्कारसविहत्तियप्पहुडि जाणिदूण णेदव्वं जाव एगविहत्तिओ ति । एवं णीदे अतिसंजोगपत्थारसलागाओ उप्पजंति ८ । संपहि तेवीसविहत्तियक्खं धुवं कादण तेरस-बारसविहत्तिएहि सह विदिओ तिसंजोगपत्थारो २ । पुणो तेवीसतेरसक्खे धुवे कादूण एक्कारसादीसु णेदव्वं जाव एगविहत्तिओ ति । एवं णीदे सत्तपत्थारसलागाओ उपजंति ७। एवं तिसंजोगसेसपत्थारावही जाणिदण णेदव्वो। एवं णीदे अहण्हं संकलणासंकलणमेत्तपत्थारसलागाओ वीसुत्तरसयमेत्तीओ उपजंति १२० । अंक बाईस विभक्तिस्थानके सूचक हैं। तदनन्तर सबसे नीचेकी पंक्तिमें स्थित अंक तेरहविभक्तिस्थानके सूचक हैं। अब इसका आलाप कहते हैं- कदाचित् ये अट्ठाईस आदि ध्रुवस्थानवाले अनेक जीव तेईसविभक्तिस्थानवाला एक जीव, बाईस विभक्तिस्थानवाला एक जीव और तेरह विभक्तिस्थानवाला एक जीव होता है । इसीप्रकार शेष सात आलाप भी जानकर कहना चाहिये । इन सभी आलापोंकी एक प्रस्तारशलाका प्राप्त होती है। परन्तु आलाप आठ होते हैं अभी उन आठों आलापोंको स्थापित कर देना चाहिये । इसीप्रकार तेईस और बाईस विभक्तिस्थानोंके अक्षोंको ध्रव करके बारह विभक्तिस्थानके साथ त्रिसंयोगी एक प्रस्तार होता है। इसप्रकार यह दूसरी प्रस्तारशलाका हुई। इसीप्रकार तेईस और बाईस विभक्तिस्थानोंको ध्रुवकरके ग्यारह विभक्तिस्थानसे लेकर एक विभक्तिस्थान तक जान कर प्रस्तारशलाकाएँ उत्पन्न कर लेना चाहिये । इसप्रकार प्रस्तारशलाकाओंके लानेपर त्रिसंयोगी आठ प्रस्तारशलाकाएँ उत्पन्न होती हैं। इसीप्रकार तेईस विभक्तिस्थानसंबन्धी अक्षको ध्रुव करके तेरह और बारह विभक्तिस्थानोंके साथ अन्य त्रिसंयोगी प्रस्तार ले आना चाहिये । अनन्तर तेईस और तेरह विभक्तिस्थानसंबन्धी अक्षोंको ध्रव करके एक विभक्तिस्थानतक ग्यारह आदि विभक्तिस्थानोंमें इसीप्रकार ले जाना चाहिये । इसप्रकार प्रस्तारोंके उत्पन्न करनेपर त्रिसंयोगी सात प्रस्तारशलाकाएँ उत्पन्न होती हैं। इसीप्रकार त्रिसंयोगी शेष प्रस्तारविधिको जानकर शेष प्रस्तारशलाकाएँ उत्पन्न कर लेना चाहिये । इसप्रकार त्रिसंयोगी प्रस्तारशलाकाएँ उत्पन्न करनेपर आठ गच्छके संकलनाके जोड़प्रमाण कुल एकसौ बीस प्रस्तारशलाकाएँ उत्पन्न होती । अथवा, 'एकोत्तरपदवृद्धो' इत्यादि आर्याकी
(१) 'गच्छकदी मूलजुदा उत्तरगच्छादिएहि संगुणिदा। छहि भजिदे जं लद्धं संकलणाए हवे कलणा-अव०प०अ०५०८४७।
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गा० २२]
tassiupaहत्ती मंगविच
३०७
अहवा पुव्वुत्तसंदिट्ठिम्हि उवरिमदस-णव- अट्ठण्हमण्णोष्णगुणिदाणं हे टिमएक-वे-ती ह अण्णोष्णगुणिदेहि ओवट्टणम्मि कदे अहं संकलणा संकलणमेचपत्थारसलागाओ लब्भंति । एदेण बीजपदेण चदुसंजोगादीणं सव्वपत्थारा जाणिदूण णेदव्वा जाव दस संजोगपत्थारो ति ।
जो ऊपर संदृष्टि स्थापित कर आये हैं उसमें ऊपरकी पंक्ति में स्थित १०, ६ और ८ का गुणा करे | तथा नीचेकी पंक्ति में स्थित १, २ और ३ का अलग गुणा करे । अनन्तर १०, और के गुणनफल ७२० को १, २ और ३ के गुणनफल ६ से भाजित करनेपर आठ गच्छके संकलनाके जोड़ प्रमाण कुल प्रस्तारशलाकाएं प्राप्त होती हैं। इसी बीजपदसे चारसंयोगी आदिसे लेकर दस संयोगी प्रस्तार तक सभी प्रस्तार जानकर निकाल लेना चाहिये ।
C
विशेषार्थ - धवला प्रकृति अनुयोगद्वार में मुख्यतः त्रिसंयोगी भंगोंके लाने के लिये एक करणसूत्र आया है । जिसका आशय यह है कि 'गच्छका वर्ग करके उसमें वर्गमूलको जोड़ दे । पुनः आदि उत्तरसहित गच्छसे गुणा करके छहका भाग दे दें तो संकलनाकी कळना अर्थात् जोड़ प्राप्त होता है'। इसके अनुसार प्रकृत में भजनीय पद १० होते हुए भी उनमें से दो कम कर देनेपर शेष ८ प्रमाण गच्छ होता है, क्योंकि त्रिसंयोगी भंग उत्पन्न करते समय क्रमसे कोई दो पद व होते जाते हैं और शेष पदोंपर एक एक करके तीसरे अक्षका संचार होता है । अतः ८ का वर्ग ६४ हुआ, तथा इसमें ८ मिलाने पर ७२ हुए । पुनः आदि उत्तर सहित गच्छसे गुणा करनेपर ७२० हुए । तदनन्तर इसमें ६ का भाग देनेपर ८ गच्छकी संकलना की कलना अर्थात् जोड़ १२० हुआ । यहां ये ही त्रिसंयोगी प्रस्तारविकल्प जानना चाहिये । वीरसेन स्वामीने ऊपर 'अट्ठण्यं संकलणा संकलणमेत्तपत्थारस लागाओ' पदसे इन्हीं १२० प्रस्तारविकल्पों का उल्लेख किया है । पृथक् पृथक् वे १२० प्रस्तारविकल्प इस प्रकार प्राप्त होते हैं
ध्रुव किये हुए २ पद तीसराअक्ष
२३, २२
२३, १३
२२, १३
२३, १२
२२, १२
१३, १२.
२३, ११
२२, ११
१३ से १ तक कोई
१२ से १ तक
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११ से १ तक
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५ से १ तक
भंग ध्रुव किये हुए २ पद तीसराअक्ष
१३, ११
१२, ११
२३, ५
२२, ५
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39
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७
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५
१३, ५
१२, ५.
११, ५
२३, ४
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४ से १ तक
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३ से १ तक
भङ्ग
५.
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8
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जयधवलासहिंद कसायपीहुडे [पयडिविहाची ३ ___६३४२. तेसिं पत्थाराणमुच्चारणाए विणा हवणविहाणपरूवणगाहा एसा । तं जहा
'भंगायामपमाणो लहुओ गरओ ति अक्खणिक्खेगी।
तत्तो य दुगुण-दुगुणो पत्यारो होइ कायव्वो ॥५॥' २२, ४
२३, २ १२, ४
३ से १ तक कोई ३
१ स्थान
2 m
ه
ه
२३,
२ व १ कोई
mmmmm MMMMMC
س
n o
२२, ३
१३, ३
20 m
१२, ३ ११, ३
प्रस्तारविकल्प १२०
__ अथवा ये १२० प्रस्तारविकल्प ‘एकोत्तरपदवृद्धो' इत्यादि करणसूत्रके नियमानुसार भी प्राप्त किये जा सकते हैं जो अनुवादमें बतलाये ही हैं। तथा चारसंयोगी आदि प्रस्तारविकल्प भी इसी प्रकार प्राप्त किये जा सकते हैं । यथा
चारसंयोगी-१२०४४ =२१० प्रस्तारविकल्प पांचसंयोगी-२१०४६ =२५२ छहसंयोगी- २५२४५ =२१० सातसयोगी-२१०x४ =१२० आठसंयोगी-१२०४३ =४५ नौसंयोगी- ४५ ४३ =१०
दससंयोगी-१० ४. १ ६३४२. आलापोंके बिना, उन प्रस्तारोंकी स्थापनाकी विधिका प्ररूपणा करनेवाली गाथा इस प्रकार है
'पहली पंक्तिमें जहां जितने भंग हों तत्प्रमाण एक लधु उसके 'अनन्तर एक गेर इस प्रकार क्रमसे अक्षका निक्षेप करना चाहिये । तथा इसके आगे द्वितीयादि पंक्तियोंमें दना दूना करना चाहिये । इस प्रकार करनेसे प्रस्तार प्राप्त होता है ॥५॥ (१) पादे सबगुरावाद्याल्लघु न्यस्य गुरोरधः। यथोपरि तथा शेषं भूयः कुदिमु विधिम् ।२।।
ऊने दद्यात गुरूनेव यावत्सर्वलघुर्भवेत् । प्रस्तारोऽयं समास्यातरा छन्दोविचितिवेदिभिः ॥३॥' वृत्तर० अ०६ श्लो०२-३।
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गा० २२
पयडिट्ठाणविहत्तीए भंगविचओ $ ३४३. संपहि फरणकमेणाणिदचदुसंजोगपत्थारसलागपमाणमेदं २१० । पंचसंजोगपत्थासलागा एत्तिया २५२। छसंजोगपत्थारसलागा एत्तिया २१० । सत्तसंजोगपत्थारसलागा १२० । अहसंजोगपत्थारसलागा ४५ । णवसंजोगपत्थारसलागा १० । दससंजोगपत्थारसलागा १ ।
विशेषार्थ-यद्यपि ऊपर प्रत्येक, द्विसंयोगी और त्रिसंयोगी स्थानोंके प्रस्तारोंका निर्देश कर आये हैं किन्तु इस गाथामें सर्वत्र प्रस्तारोंकी स्थापनाकी विधिका निर्देश किया है। यहां गाथामें लघु और दीर्घ शब्द आये हैं जिनसे लघु और दीर्घ वर्णोंका बोध होता है। किन्तु यहां जीवोंके भंग लाना इष्ट है अतः लघु शब्दसे एक जीव और दीर्घ शब्दसे अनेक जीवोंका ग्रहण करना चाहिये । प्रस्तार रचनाके समय जहां एक ही स्थानके प्रस्तारकी रचना करना हो वहां जितने भंग हों उतनी बार क्रमसे हस्व और दीर्घ लिख लेना चाहिये । यथा १ २ । जहां द्विसंयोगी प्रस्तार लाना हो वहां पहली पंक्तिमें द्विसंयोगी प्रस्तारके जितने भंग हों उतनी बार लघु और दीर्घ लिखे तथा द्वितीयादि पंक्तियोंमें इन्हें दूना दूना करता जाय । यथा- द्वितीयपंक्ति १ १ २ २
प्रथमपंक्ति १ २ १ २ इसी प्रकार त्रिसंयोगी, चारसंयोगी आदि प्रस्तारोंको ले आना चाहिये । तीनसंयोगी प्रस्तार
तृ. पं० १ १ १ १ २ २ २ २ द्वि० पं० १ १ २ २ १ १ २ २
प्र. पं० १ २ १ २ १ २ १ २ चारसंयोगी प्रस्तार
च० पं० १ १ १ १ १ १ १ १ २ २ २ २ २ २ २ २ तृ. पं० १ १ १ १ २ २ २ २ १ १ १ १ २ २ २ २ . द्वि० पं० १ १ २ २ १ १ २ २ १ १ २ २ १ १ २ २
प्र० पं० १ २ १ २ १२ १२ १ २ १ २ १ २ १ २ . आगे पांचसंयोगी आदि प्रस्तार इसी प्रकार दूने दूने प्राप्त होते जाते हैं। ६३४३. इसप्रकार करणसूत्रके नियमानुसार 'लाये हुए चारसंयोगी प्रस्तारोंकी' शलाकाओंका प्रमाण २१० है । तथा पांचसंयोगी प्रस्तारशलाकाएं २५२, छसंयोगी प्रस्तारशलाकाएं २१०, सातसंयोगी प्रस्तार शलाकाएं १२०, आठसयोगी प्रस्तारशलाकाएं ४५, नौसंयोगी प्रस्तार शलाकाएं ? और दस संयोगी प्रस्तार शलाका १ होती है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पपडिविहत्ती २ ३३४४. एवं विहाणेणुप्पाइदपत्थारसलागाओ अस्सिदण तेसिं पत्याराणमुच्चारणसलागाणयणहमेसा अजा
___ 'सूत्रानीतविकल्पेण्वेकविकल्पान् द्विकेन संगुणयेत् ।
द्वयादिविकल्पान् भाज्यान् द्विगुणद्विगुणेन तेनैव ॥६॥' ६३४५. एदिस्से अत्थो वुच्चदे । तद्यथा-'रूपोत्तरपदवृद्ध' इति सूत्रम् । एतेन सूत्रेण आनीतविकल्पाः १०, ४५, १२०, २१०, २५२, २१०, १२०,४५,१०, १, एतेषु विकल्पेषु 'एकविकल्पान्' एकसयोगविकल्पान् 'द्विकेन' द्वाभ्यां रूपाभ्यां 'गुणयेत्' ताडयेत् । कुतः ? एकसंयोगे एकबहुवचनभेदेन द्वयोरेव भंगयोस्समुत्पत्तेः । 'यादिविकल्पान्' द्विसंयोगादिप्रस्तारविकल्पान् 'भाज्यान्' भाज्यस्थानसम्बंधिनः 'तेनेव' ताभ्यां द्वाभ्यामेव रूपाभ्यां गुणयेत् । कीदृक्षाभ्यां 'द्विगुणद्विगुणेन' द्विगुणद्विगुणाभ्यां । एवं गणयित्वा एकत्र कृते सति सर्वोच्चारणसङ्ख्योत्पद्यते । २, ४, ८, १६, ३२, ६४, १२८, २५६, ५१२, १०२४, एते गुणकाराः। कुता, द्विगुणद्विगुणक्रमेणोच्चारणशलाकोत्पत्तेः। एतैगुण्यमानराशिषु गुणितेषु समुत्पन्नाचा
३४४.इसप्रकार विधिपूर्वक उत्पन्नकी हुई प्रस्तार शलाकाओंका आश्रय लेकर उन प्रस्तारोंके आलापोंकी शलाकाओंके लानेके लिये यह निम्नलिखित आर्या है
"रूपोत्तरपदवृद्धः' इत्यादि सूत्रके अनुसार लाये गये प्रस्तार विकल्पोंमें एकसयोगी प्रस्तार विकल्पोंको दोसे गुणित करे । तथा द्विसंयोगी आदि भजनीय प्रस्तार विकल्पोंको उत्तरोत्तर दुगुने दुगुने उसी दोसे गुणा करे । ऐसा करनेसे आलापोंके सब भंग आ जाते हैं ॥६॥
३४५. अब इस आर्याका अर्थ कहते हैं । वह इस प्रकार है- पूर्वोक्त आर्या में आये हुए 'सूत्र' पदसे 'रूपोत्तरपदवृद्धः' इत्यादि सूत्र लिया गया है। इस सूत्रसे लाये हुए एक संयोगी आदि प्रस्तारों की शलाकाएँ क्रमसे १०,४५,१२०,२१०,२५२, २१०,१२०, १५, १० और १ होती हैं। इन प्रस्तार शलाकाओंमेंसे एकसंयोगी शलाकाओंको दोसे गुणित करे, क्योंकि एकसंयोगीके एक वचन और बहुवचनके भेदसे दो ही भंग होते हैं। तथा भाज्य अर्थात भजनीय स्थानसम्बन्धी द्विसंयोगी आदि प्रस्तार शलाकाओंको उसी दोसे गुणित करे । पर द्विसंयोगी आदि प्रस्तार शलाकाओंको दोसे गुणा करते समय वह दो उत्तरोचर दूना दूना होना चाहिये । इसप्रकार गिनती करके एकत्र करनेपर सभी आलापोंकी संख्या उत्पन्न होती है। दोको इसप्रकार दूना दूना करनेपर एकसंयोगी आदि मस्तार शलाकाओंके क्रमसे २, ४, ८, १६, ३२, ६४,१२८, २५६, ५१२ और १०२१ थे गुणकार होते हैं, क्योंकि आलाप शलाकाएँ उत्तरोत्तर दूने दूनेके क्रमसे उत्पन्न होती हैं। इन गुणकारोंके द्वारा गुण्यमामराशि १०, १५, १२०, २१०, २५२, २१०, १२०,
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गा० २२)
पयडिट्ठाणविहत्तीए भंगविचओ
३११
रणभंगाः पृथक् पृथगेते भवन्ति-२०, १८०, ६६०, ३३६०, ८०६४, १३४४०, १५३६०, ११५२०, ५१२०, १०२४ । एतेषां सर्वेषां भंगानां मानः इयान् भवति ५६०४८ । ध्रुवे प्रक्षिप्ते सति इयती सङ्ख्या ५६०४६ । एवं मणुस्सतियस्स । णवरि, मणुस्सिणीसु भयाणजपदाणि णव होंति पंचण्हमभावादो।।
६३४६. पंचिंदिय-पंचिं० पज-तस-तसपज०-पंचमण-पंचवचि-कायजोगि०४५, १० और १ को क्रमसे गुणित करनेपर सभी आलाप भंग अलग अलग २०, १८०, २६०, ३३६०, ८०६४, १३४४०,१५३६०,११५२०, ५१२० और १०२४ उत्पन्न होते हैं। इन सब भंगोंका प्रमाण ५१०४८ होता है। इसराशिमें एक ध्रुव भंगके मिला देने पर कुल जोड़ ५६०४६ होता है।
___ इसीप्रकार सामान्य, तथा पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यणियोंके समझना चाहिये । अर्थात् इनके ऊपर कहे गये विभक्तिस्थान सम्बन्धी सभी भंग होते हैं । इतनी विशेषता है कि मनुष्यिणियोंमें भजनीय पद नौ होते हैं। क्योंकि उनके पांच विभक्तिस्थान नहीं पाया जाता।
विशेषार्थ-ऊपर भजनीय पद दस कह आये हैं। वे दसों पद सामान्य मनुष्य और पर्याप्त मनुष्यके पाये जाते हैं । अतः इन दसों भजनीय पदोंके एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा होनेवाले समग्र ५६०४८ भंग सामान्य और पर्याप्त मनुष्योंके सम्भव हैं। तथा अट्ठाईस आदि विभक्तिस्थान सम्बन्धी एक ध्रुवपद भी इन दोनों प्रकारके मनुष्योंके निरन्तर पाया जाता है, अतः ओघ प्ररूपणामें कुल भंग जो ५६०४६ कहे हैं वे सभी सामान्य और पर्याप्त मनुष्योंके सम्भव हैं, इसलिये इनकी प्ररूपणा ओघ प्ररूपणाके समान है। परन्तु मनुष्यिणियोंके दस भजनीय पदोंमें पांच विभक्तिस्थान नहीं पाया जाता है, अतः उनके २३, २२, १३, १२, ११, ४, ३, २ और १ ये नौ भजनीय पद जानना चाहिये । जिनके एकसंयोगीसे लेकर नौसंयोगी तक प्रस्तारविकल्प क्रमशः १, ३६, ८४, १२६, १२६, ८४, ३६, र और १ होंगे। तथा आलाप भंग २, ४, ८, १६, ३२, ६४, १२८, २५६ और ५१२ होंगे। इन { आदि प्रस्तार विकल्पोंको २ आदि आलाप भंगोंसे क्रमशः गुणित कर देनेपर एक संयोगी आदि भंगोंका प्रमाण १८, १४४, ६७ , २०१६, ४०३२, ५३७६, ४६०८, २३०४ और ५१२ होगा । जिनका कुल जोड़ १९६८२ होता है। ये अध्रुव भंग हैं। इनमें ध्रुव भंगके मिला देने पर मनुष्यनियोंमें कुल भंगोंका प्रमाण १९६८३ होगा। तेईस विभक्तिस्थानके एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा दो भंग और एक ध्रुव भंग इसप्रकार इन तीन भंगोंको उत्तरोत्तर आठ बार तिगुना तिगुना करनेसे भी सब भंगोंका प्रमाण १९६८३ आ जाता है।
६३४६.पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस, सपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, (१) -षां... ( त्रु० ४) मा-स० । -षां गुण्यमा-अ०, आ० ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
३.१२
[पयडिविहत्ती २
ओरालि० - इत्थि० - पुरिस० - वुम० चत्तारिक० - असंजद ० चक्खु ० - अचक्खु ० तेउ०- पम्म - ० सुक० भवसिद्धि०-सण्णि ० - आहारिति मूलोघभंगो | णवरि इत्थि० - पुरिस० णवुंस ०संजदासंजद - असंजद - तेउ०- पम्म० चत्तारि कसायाण भयणिञ्जपदपमाणं णादूण भंगा उप्पादेदव्वा ।
$३४७. आदेसेण णिरयगईए पेरईएस अट्ठावीस -सत्तावीस-छब्बीस-चउवीस-एककापयोगी औदारिक काययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चारों कषायवाले, अंसयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, तेजोलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारी जीवोंके मूलोधके समान भंग जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी,नपुंसकवेदी, संयतासंयत, असंयत, तेजोलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले और क्रोधादि चारों कषायवाले जीवोंके भजनीय पदों का प्रमाण जानकर उनके भंग उत्पन्न करना चाहिये ।
विशेषार्थ-पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, पांचो मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, शुक्ल लेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके ध्रुव अट्ठाईस आदि और भजनीय तेईस आदि सभी पद पाये जाते हैं, इसलिए इनके ऊपर कहे गये ५६०४६ ये सभी भंग सम्भव हैं । स्त्रीवेदी और नपुंसकवेदी जीवके ध्रुवपद तो सभी पाये जाते हैं पर भजनीय पदोंमें तेईस, बाईस, तेरह और बारह ये चार विभक्तिस्थान ही पाये जाते हैं, अतः इन दोनों वेदवालोंके भजनीय पदसम्बन्धी ८० भंग और १ ध्रुवभंग इसप्रकार कुल ८१ भंग सम्भव हैं । पुरुषवेदियोंके ध्रुवपद सभी पाये जाते है और भजनीय पदोंमें तेईस, बाईस, तेरह, बारह, ग्यारह, और पांच ये छह विभक्तिस्थान पाये जाते हैं । अतः पुरुषवेदी जीवोंके भजनीय पदसम्बन्धी ७२८ भंग और १ ध्रुवभंग इसप्रकार कुल ७२६ मंग सम्भव हैं । असंयत, तेजोलेश्यावाले और पद्मलेश्यावाले जीवोंके ध्रुवपद सभी पाये जाते हैं और भजनीयपदों में तेईस और बाईस ये दो पद ही पाये जाते हैं, अतः इनके भजनीय पदसम्बन्धी भंग और १ ध्रुवभंग इसप्रकार र भंग सम्भव हैं । क्रोधादि चारों कषायवाले जीवोंके ध्रुवपद सभी पाये जाते हैं और अध्रुव पद क्रोधकषायवालोंके तेईस, बाईस, तेरह, बारह, ग्यारह, पांच और चार ये सात पद, मानकषायवाले जीवोंके इन सात पदोंमें तीन विभक्तिस्थानके मिला देनेसे आठ पद, मायाकषायवाले जीवोंके इन आठ पदोंमें दो विभक्तिस्थानके मिला देनेपर नौ पद और लोभकषायवालोंके इन नौ पदोंमें एक विभक्तिस्थानके मिला देनेपर दस पद पाये जाते हैं, अतः इन क्रोधादि कषायवाले जीवोंके क्रमशः २१८७, ६५६१, १९६८३ और ५६०६६ भंग सम्भव हैं ।
९३४७. आदेशकी अपेक्षा नरकगतिमें नारकियोंमें अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, चौबीस, और इक्कीस विभक्तिवाले जीव नियमसे हैं । बाईस विभक्तिस्थानवाले जीव
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गा० २२]
पयडिहाणविहत्तीए भंगविचो वीसविहत्तियाणियमा अस्थि। बावीसविहत्तिया भयाणजा। सिया एदे च बावीसविहत्तिओ च १, सिया एदे च बावीसविहात्तया च २। धुवे पक्खित्ते तिण्णिभंगा ३। एवं पढमपुढवि ०-तिरिक्ख ०-पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंतिरि०पज० काउलेस्सा-देव-सोहम्मादि जाव सव्वहसिद्धेत्ति । णवरि णवाणुदिस-पंचाणुत्तरेसु सत्तावीस-छब्बीसविहचिया णत्थि।
३४८. विदियादि जाव सत्तमि त्ति अठावीस-सत्तावीस-छब्बीस-चउवीसविहत्तिया णियमा अस्थि । एवं जोणिणी-भवण-वाण जोदिसि० वत्तव्यं । पंचि० तिरि० अपजत्तएसु अट्ठावीस-ससावीस-छव्वीसविहत्तिया णियमा अस्थि । एवं सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपञ्ज० -पंचकाय०-तस अपञ्ज०-वेउन्धियःभजनीय हैं। अतः बाईस विभक्तिस्थानकी अपेक्षा दो भंग होंगे। १-कदाचित् ये अट्ठाईस आदि विभक्तिस्थानवाले अनेक जीव और बाईस विभक्तिस्थानवाला एक जीव होता है। २कदाचित् ये अट्ठाईस आदि विभक्तिस्थानवाले अनेक जीव और बाईस विभक्तिस्थानवाले अनेक जीच होते हैं। इन दो भङ्गोंमें एक ध्रुव भङ्गके मिला देनेपर नारकियोंमें तीन भङ्ग होते हैं। इसी प्रकार पहली पृथिवीके जीवोंके तथा तियंच, पंचेन्द्रिय तिर्यच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त और कापोतलेश्यावाले जीवोंके तथा सामान्य देवोंके और सौधर्म स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंके समझना चाहिये । इतनी विशेषता है कि नौ अनुदिश और पांच अनुत्तरवासी देवोंमें सत्ताईस और छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीव नहीं होते।
विशेषार्थ-सामान्य नारकियोंके जो तीन भङ्ग बताये हैं वे ही तीनों भङ्ग उपर्युक्त सभी जीवोंके सम्भव हैं; क्योंकि सामान्य नारकियोंके ध्रुव और भजनीय जो विभक्तिस्थान पाये जाते हैं वे सभी इन उपर्युक्त जीवोंके पाये जाते हैं। यद्यपि नौ अनुदिश और पांच अनुत्तरबासी देवोंके सत्ताईस और छब्बीस विभक्तिस्थान नहीं बतलाये हैं फिर भी इन स्थानोंके न होनेसे भङ्गोंकी संख्यामें कोई अन्तर नहीं पड़ता है, क्योंकि इन देवोंके अट्ठाईस, चौबीस और इक्कीस इन तीन ध्रुव पदोंकी अपेक्षा एक ध्रुवभङ्ग हो जाता है।
६३४८. दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक नारकियोंमें अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस और चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीव नियमसे होते हैं । अतः यहां 'अट्ठाईस आदि चार विभक्तिस्थानवाले जीव सर्वदा नियमसे होते हैं' यही एक ध्रुवभङ्ग पाया जाता है। इसी प्रकार तिथंच योनिमती जीवोंमें तथा भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें उक्त अट्ठाईस आदि विभक्तिस्थानोंकी अपेक्षा एक ध्रुवभङ्ग कहना चाहिये। __पंचेन्द्रिय तियंच लबध्यपर्याप्तकोंमें अट्ठाईस, सत्ताईस और छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीव नियमसे होते हैं । अतः इनमें 'अट्ठाईस आदि तीन विभक्तिस्थानवाले जीव सर्वदा नियमसे होते हैं' यही एक ध्रुवभङ्ग पाया जाता है। इसीप्रकार सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, पांचों प्रकारके स्थावरकाय, त्रस लब्ध्यपर्याप्त, वैक्रियिक
४०
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ मदिसुदअण्णाण-विहंग-किण्ह०-णील-मिच्छा-असण्णि त्ति वत्तव्वं । णवरि वेउव्विय०किण्ह०-णील० चउवीस-एकवीसविहत्तिया णियमा अत्थि। मणुस्सअपजत्तएसु सव्वपदा भयणिज्जा । एवं वेउब्बियमिस्स-आहार०-आहारमिस्स०-अवगद०-अकसाय०सुहुमसांपराय०- जहाक्खाद०-उवसमसम्मत्त-सम्मामि० वत्तव्यं । काययोगी, मत्यज्ञानी,श्रुताज्ञानी, विभङ्गज्ञानी, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, मिथ्यादृष्टि
और असंज्ञी जीवोंके अट्ठाईस आदि विभक्तिस्थानोंकी अपेक्षा एक ध्रुवभङ्ग कहना चाहिये। इतनी विशेषता है कि वैक्रियिककाययोगी, कृष्णलेश्यावाले और नीललेश्यावाले जीवोंमें चौबीस और इक्कीस विभक्तिवाले जीव भी नियमसे होते हैं।
, लब्ध्यपर्याप्त मनुष्योंमें सभी पद भजनीय हैं। इसीप्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, सूक्ष्मसांपरायसंयत, ययाख्यातसंयत, उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें कहना चाहिये।
विशेषार्थ-अपगतवेदी, अकषायी और यथाख्यात संयत इन तीन स्थानोंको छोड़कर शेष सात मार्गणाएं सान्तर हैं। इन मार्गणाओंमें कभी एक और कभी अनेक जीव होते हैं। तथा कभी इनमें जीवोंका अभाव भी रहता है। शेष तीन अपगतवेदी आदि मार्गणाएं यद्यपि सान्तर तो नहीं हैं क्योकि वेदरहित, कषायरहित और यथाख्यात संयत जीव लोकमें सर्वदा पाये जाते हैं। फिर भी मोहनीयकी सत्तासे युक्त इन मार्गणाओंवाले जीव कभी बिलकुल नहीं होते हैं, कभी एक होता है और कभी अनेक होते हैं, अतः इस अपेक्षा से ये तीन मार्गणाएं भी सान्तर हैं ऐसा समझना चाहिये । इसप्रकार इन उपर्युक्त दस मार्गणाओंके सान्तर सिद्ध होजानेपर इनमें संभव सभी पद भजनीय ही होंगे। लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंके अट्ठाईस, सत्ताईस और छब्बीस ये तीन स्थान पाये जाते हैं, अतः यहां प्रस्तारविकल्प सात और उच्चारणाविकल्प अर्थात् भंग छब्बीस होंगे। वैक्रियिक मिश्र काययोगियोंके अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, चौबीस, बाईस और इक्कीस ये छह स्थान पाये जाते हैं, अतः यहां प्रस्तारविकल्प ६३ और भंग ७२८ होंगे। आहारककाययोगी
और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंके अट्ठाईस, चौबीस और इक्कीस ये तीन स्थान पाये जाते हैं, अतः यहां प्रस्तारविकल्प सात और भंग २८ होंगे । अपगतवेदी जीवोंके २४, २१, ११, ५, ४, ३, २ और १ ये आठ स्थान पाये जाते हैं, अतः यहाँ प्रस्तारविकल्प २५५ और भंग ६५६० होंगे। कषायहित जीवोंके और यथाख्यातसंयतोंके २४ और २१ ये दो स्थान पाये जाते हैं, अतः यहांपर प्रस्तारविकल्प ३ और भंग ८ होंगे। सूक्ष्मसांपराय संयतोंके २४, २१ और १ ये तीन स्थान पाये जाते हैं, अतः यहांपर प्रस्तारविकल्प ७ और भंग २८ होंगे । उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवोंमें २८ और २४ ये दो स्थान पाये जाते हैं, अत: यहां प्रस्तार
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गा० २२]
पयडिट्ठाणविहत्तीए भंगविचो
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३३४६. ओरालियमिस्स० अष्ठावीस-सत्तावीस-छव्वीस० णियमा अस्थि । सेसपदा भयणिज्जा । कम्मइय० छव्वीस० णियमा अस्थि सेसपदा भयणिज्जा । एवमणाहारि० । आभिणि-सुद०-ओहि० अहावीस-चउवीस-एकवीसविह० णियमा अस्थि । सेसपदा भयणिज्जा । एवं मणपजव०-संजद-सामाइयच्छेदो०-परिहार०-संजदासंजदओहिदंस०-सम्मादिहि-वेदय० वत्तव्वं । णवरि वेदय० इगिवीसं णस्थि । अब्भवसिद्धि० छव्वीसविह० णियमा अस्थि । खयिगे एकवीसविह० णियमा अस्थि । सेसपदा विकल्प ३ और भंग ८ होंगे। सासादन सम्यग्दृष्टि स्थान भी सान्तर मार्गणा है पर उसके भंग आगे चल कर स्वतन्त्र गिनाये हैं, अतः यहां उसके सम्बन्धमें कुछ भी नहीं लिखा है।
६३४९. औदारिकमिश्र काययोगियोंमें अट्ठाईस, सत्ताईस और छब्बीस विभक्तिस्थानके धारक जीव नियमसे हैं। शेष स्थान भजनीय हैं। कार्मण काययोगमें छब्बीस विभक्तिस्थान नियमसे है, शेष स्थान भजनीय हैं। इसीप्रकार अनाहारक काययोगियों में समझना चाहिये।
विशेषार्थ-औदारिकमिश्र काययोगियोंमें २८, २७, २६, २४, २२ और २१ ये छह स्थान पाये जाते है। इनमेंसे २८, २७ और २६ स्थानके धारक उक्त जीव सर्वदा रहते हैं, अतः इन तीन स्थानोंकी अपेक्षा एक एक ध्रुवभंग होगा। शेष २४, २२ और २१ ये तीन स्थान भजनीय हैं । अतः इनकी अपेक्षा प्रस्तार विकल्प ७ और भंग २८ होंगे इसप्रकार प्रस्तार विकल्प ७ और कुल भंग २६ होंगे।
___ मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें अट्ठाईस, चौबीस और इक्कीस विभक्तिस्थान नियमसे हैं। शेष स्थान भजनीय हैं। इसीप्रकार मनःपर्ययज्ञानी, संयत, : सामायिक संयत, छेदोपस्थापना संयत, परिहारविशुद्धि संयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि और वेदक सम्यग्दृष्टि जीवोंमें कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि वेदक सम्यग्दृष्टियोंके इक्कीस विभक्तिस्थान नहीं होता है।
विशेषार्थ-मतिज्ञानी आदि जीवोंके सचाईस और छब्बीसके सिवा मोहनीयके सभी स्थान पाये जाते हैं, अतः उनके भजनीय २३ आदि दसों विभक्तिस्थानोंके प्रस्तार विकल्प १०२३ और ध्रुव तथा अध्रुव सभी भंग ४६०४६ पाये जाते हैं। परिहारविशुद्धि संयत और संयतासंयत जीवोंके २८, २४, २३, २२ और २१ ये पांच स्थान तथा वेदक सम्यग्दृष्टियोंके २१ विभक्तिस्थानके विना शेष चार स्थान पाये जाते हैं। इनमेंसे २३ और २२ विभक्तिस्थान तीनों मार्गणाओंमें भजनीय हैं, अतः इन तीनोंमेंसे प्रत्येक मार्गणामें ३ प्रस्तार विकल्प और र भंग होते हैं। इनमें एक ध्रुवभंग भी सम्मिलित है।
अभव्य जीवोंके नियमसे छब्बीस विभक्तिस्थान पाया जाता है। क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंके इक्कीस विभक्तिस्थान नियमसे है। तथा शेष २३ आदि स्थान भजनीय हैं।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ भयणिजा । सासण. सिया अठ्ठावीसविहत्तिया सिया अट्ठावीसविहलिओ।
एवं णाणाजीवेहि भंगविचओ समत्तो । * सेसाणिओगद्दाराणि णेदव्वाणि । ६३५०. कुदो ? सुगमत्तादो । संपहि चुण्णिसुत्रेण सूचिदाणमुच्चारणामस्सिद्ग सेसाहियाराणं परूवणं कस्सामो ।
६३५१. भागाभागाणुगमेण दुविहो णिदेसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओषेण छव्वीसविह० सव्वजीवाणं केवडिओ भागो। अणंता भागा। सेतपदा सव्वनीवाणं केवडिओ भागो १ अणंतिमभागो। एवं तिरिक्ख-सव्वएइंदिय-वणप्फदि-णिगोद०कायजोगि०-ओरालिय० -ओरालियमिस्स-कम्मइय०-णस० - चत्तारिक०-मदि-सुदअण्णाण-असंजद-अचक्खु -तिष्णिलेस्सा-भवसिद्धि -मिच्छादि०-असण्णि०-आहारि०अणाहारित्ति वत्तव्यं । सासादन सम्यग्दृष्टियों में कदाचित् २८ विभक्तिस्थानवाले अनेक जीव होते हैं और कदाचित् अट्ठाईस विभक्तिस्थान वाला एक जीव होता है।
विशेषार्थ-अभव्योंके २६ विभक्तिस्थानको छोड़कर और दूसरा कोई स्थान नहीं पाया जाता है तथा अभव्यराशि ध्रुव है। इसलिये यहां एक ही भंग संभव है। क्षायिक सम्यग्दृष्टियोंके इक्कीस विभक्तिस्थान ध्रुव है शेष ८ स्थान भजनीय हैं, अतः यहां प्रस्तार विकल्प २५५ और ध्रुव तथा अध्रुव दोनों प्रकारके भंग ६५६१ होंगे। सासादन सान्तर मार्गणा है । अतः यहां २८ स्थानकी अपेक्षा भी २ भंग होंगे।
इसप्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । * भागाभाग, परिमाण आदि शेष अनुयोगद्वार जान लेने चाहिये। ६३५०.शंका-यहां शेष अनुयोगद्वारोंका कथन न करके सूचनामात्र क्यों की है ? समाधान-क्योंकि वे सुगम हैं, अतः चूर्णिसूत्रकारने उनकी सूचनामात्र की है।
अब चूर्णिसूत्रके द्वारा सूचित किये गये भागाभाग आदि शेष अनुयोगद्वारोंका उच्चारणाका आश्रय लेकर कथन करते हैं
६३५१. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमें से ओघकी अपेक्षा छब्बीस विभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहभाग हैं। शेष विभक्तिस्थानवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग प्रमाण हैं। इसीप्रकार सामान्य तिथंच, सभी प्रकारके एकेन्द्रिय, सब वनस्पतिकायिक, सब निगोदकायिक, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्र काययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, कृष्ण आदि तीम लेश्याओंमें प्रत्येक लेश्यावाले, भव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक इनके भी भागाभाग
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गा०२२]
पयडिट्ठाणविहत्तीए भागाभागाणुगमो
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६३५२. आदेसेण णिरयगईए रईएसु छन्वीसविहत्तिया सव्वजीवाणं केव० ? असंखेजाभागा । सेसपदा सव्वजीव० केव० ? असंखे० भागो। एवं सव्वणेरइय-सव्धपंचिंदिय तिरिक्ख-मणुस्स-मणुस्स अपज०-देव०-भवणादि जाव सहस्सारे त्ति-सव्वविगलिंदिय पंचिंदिय-पंचिं० पञ्ज०-पंचिं० अपज०-चत्तारिकाय०-तस-तसपज०-तसअपज्ज.० -पंचमण-पंचवचि० -वेउव्विय ०-वेउ • मिस्स०-इत्थि ० -पुरिस -विहंगचक्खु०-तेउ०-पम्म०-सण्णि त्ति वत्तव्यं । मणुस्सपज०-मणुस्सिणीसु छव्वीसविह० सव्वजीवाणं के० भागो ? संखेजा भागा। सेसपदा संखे० भागो । आणदादि जाव उवरिमगेवजेत्ति अठ्ठावीसविह. सव्वजीवाणं के० भागो ? संखेजा भागा । छव्वीसचउवीस-एक्कवीसविह० संखेजदि भागो। वावीस-सत्तावीसविह० असंखेजदि भागो । अणुदिसादि जाव अवराइद त्ति अहावीसविह० सव्वजीवाणं के० भागो? संखेजा भागा । सेसपदा संखेजदि भागो । वावीसवि० असंखे० भागो । ओघप्ररूपणाके समान जानना चाहिये । तात्पर्य यह है इन उक्त मार्गणाओंमें छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीव अनन्त बहुभाग प्रमाण हैं और शेष विभक्तिस्थानवाले जीव अनन्तवें भाग प्रमाण हैं । अतः इनके कथनको ओघके समान कहा है।
६३५२. आदेशकी अपेक्षा नरक गतिमें नारकियोंमें छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीव सर्व . जीवोंके कितनेवें भाग हैं ? असंख्यात बहुभाग हैं। शेष विभक्तिस्थानवाले जीव सभी जीवोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं। इसीप्रकार सभी नारकी, सभी पंचेन्द्रियतिथंच, सामान्य मनुष्य, लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य, सामान्य देव तथा भवनवासी देवोंसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देव, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, त्रस, त्रसपर्याप्त, त्रस लब्ध्यपर्याप्त, पांचों प्रकारके मनोयोगी, पांचों प्रकारके वचनयोगी, वैक्रियिक काययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभंगज्ञानी, चक्षुदर्शनी, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले और संज्ञी जीवोंके कहना चाहिये।
पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनियोंमें छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीव सब उक्त जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं। तथा शेष स्थानवाले संख्यातवें भाग हैं ? आनत कल्पसे लेकर उपरिम प्रैवेथिक तक अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले जीव सब उक्त जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं। छब्बीस, चौबीस और इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातवें भाग हैं। तथा बाईस और सत्ताईस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातवें भाग हैं। अनुदिशसे लेकर अपराजित तक प्रत्येक स्थानके अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले जीव सब उक्त जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं। शेष विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातवें भाग हैं। तथा बाईस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातवें भाग हैं।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ ३३५३. सव्वहे अट्ठावीस० सव्वजीवाणं के ? संखेजा भागा। सेसपदा संखेज्जदि भागो । एवमाहार ०-आहारमिस्स ०-मणपज्ज -संजद ०-सामाइय-छेदो०-परिहार० वत्तव्वं । अवगदवेदः चउण्हं वि०सव्वजीवाणं के० १ संखेज्जा भागा । सेसप० संखे० भागो। अकसाय० चउवीस० सव्वजीवाणं के०१ संखेज्जा भागा। सेसप० संखे० भागो। एवं जहाक्खाद० । आभिणि-सुद-ओहि. अहावीसविह० सव्वजीवाणं के० ? असंखेज्जा भागा। सेसपदा असंखे० भागो । एवं संजदासंजद० ओहिदसण-सम्मादि०वेदग०-उवसम०-सम्मामिच्छाइहि त्ति वत्तव्वं । सुहुमसांपराय० एकविह० सव्वजीवाणं के• ? संखेज्जा भागा। सेसप० संखे० भागो। सुक्क. अहावीस० के० १ संज्जा भागा । छव्वीस-चउवीस-एकवीस० संखे० भागो । सेसप० असंख० भागो । अभव्वसिद्धि०-सासण० णत्थि भागाभागो। खइए एकवीसविह० सव्वजीवाणं के० ?
६३५३. सर्वार्थसिद्धिमें अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले जीव सब उक्त जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहु भाग हैं। शेष विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातवें भाग हैं। इसीप्रकार आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत और परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंके कहना चाहिये ।
अपगतवेदवालोंमें चार विभक्तिस्थानवाले जीव सब अपगतवेदी जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं। शेष विभक्तिस्थानवाले संख्यातवें भाग हैं। कषायरहित जीवोंमें चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीव सब कषायरहित जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं। शेष विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातवें भाग हैं । इसीप्रकार यथाख्यातसंयतोंके जानना चाहिये। __मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले जीव उक्त सब जीवोंके कितने भाग हैं ? असंख्यात बहुभाग हैं। शेष विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातवें भाग हैं। इसीप्रकार संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके कहना चाहिये ।
सूक्ष्मसांपरायिक संयतोंमें एक विभक्तिस्थानवाले जीव सब सूक्ष्मसांपरायिक जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं। तथा शेष विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातवें भाग हैं। शुक्ललेश्यावालोंमें अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले जीव कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं। छब्बीस, चौबीस और इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातवें भाग हैं। तथा शेष विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातवें भाग हैं। अभव्य और सासादनसम्यग्दष्टियोंमें विभक्तिस्थानसम्बन्धी भागाभाग नही पाया जाता है। क्षायिक सम्यग्दृष्टियोंमें इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीव सब क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके कितने भाग हैं ? असंख्यात
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गा० २२] पयडिट्ठाणविहत्तीए परिमाणाणुगमो असंखेज्जा भागा। सेसप० असंखेज्जदिभागो।
__ एवं भागाभागो समत्तो। ६३५४. परिमाणाणुगमेण दुविहो णिदेसो ओघेण आदेसेण य। तत्थ ओघेण अट्ठावीस-सत्तावीस-चउवीस-एकवीसवि० केत्तिया ? असंखेज्जा । छव्वीसवि० के० ? अणंता। सेसट्ठाणविहत्तिया केत्तिया ? संखेज्जा। एवं तिरिक्ख-कायजोगि-ओरालिय०-णqसय०-चत्तारिक०-असंजद०-अचक्खु०-भवसि०-आहारि ति वत्तव्वं ।
६३५५. आदेसेण णिरयगईए णेरईएसु अठ्ठावीस-सत्तावीस-छव्वीस-चउवीस-एक्कवीसवि० केत्ति० १ असंखेज्जा। वावीसविह० के० ? संखेज्जा । एवं पढमपुढवि०-पचिंदिय तिरिक्ख- पंचिंतिरि०पज्ज०-देव-सोहम्मीसाणादि जाव उवरिमगेवज्जे त्ति । विदिबहुभाग हैं। शेष विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातवें भाग हैं।
इसप्रकार भागाभागानुयोगद्वार समाप्त हुआ।
६३५४.परिमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और.आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघनिर्देशकी अपेक्षा अट्ठाईस, सत्ताईस, चौबीस और इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। शेष विभक्तिस्थानवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। इसीप्रकार तिर्यंच सामान्य, काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चारों कषायवाले, असंयत, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंके कहना चाहिये।
विशेषार्थ-ओघसे जिस विभक्तिस्थानवाले जीवोंकी जो संख्या बतलाई है वह तियंच सामान्य आदि मार्गणाओंमें भी बन जाती है । यद्यपि विविध मार्गणाओंमें संख्या बट जाती है अतः ओघप्ररूपणासे आदेश प्ररूपणामें अन्तर पड़ना संभव है फिर भी अनन्तत्व सामान्य आदिको उक्त मार्गणास्थानवाले जीव उस उस विभक्तिस्थानवाले जीवोंकी संख्याकी अपेक्षा उल्लंघन नहीं करते हैं अत: इनकी प्ररूपणा ओघके समान कही है। किन्तु इतनी विशेषता है कि तिर्यंच सामान्य आदि मार्गणाओंमें कहां कितने विभक्तिस्थान पाये जाते हैं यह बात स्वामित्व अनुयोगद्वारसे जानकर ही कथन करना चाहिये, क्योंकि उक्त सब मार्गणाओंमें सब विभक्तिस्थान नहीं पाये जाते हैं।
६३५५. आदेशकी अपेक्षा नरकगतिमें नारकियोंमें अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, चौबीस और इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । बाईस विभक्तिस्थानवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । इसीप्रकार पहली पृथ्वीके नारकी, पंचेन्द्रियतिथंच, पंचेन्द्रियतिर्यचपर्याप्त, सामान्य देव और सौधर्म स्वसे लेकर नौवेयक तकके देवोंकी संख्या कहना चाहिये।
विशेषार्थ-ऊपर जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें प्रत्येकका प्रमाण असंख्यात है।
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जयधवलासहिदे कसाथपाहुडे [पयडिविहत्ती २ यादि जाव सत्तनि ति सव्वपदा केत्तिया ? असंखेज्जा । एवं पंचिंतिरि जोणिणीपांचं तिरि ० अपज्ज ० -मणुसअपज्ज ० -भवण ०-वाण -जोदिसि ० -सव्वविगलिंदियपंचिंदियअपज्ज०-चत्तारिकाय-बादर-सुहुम पज्ज० अपज्ज-तस अपज्ज०- विहंग. वत्तव्यं ।
६३५६. मणुसगईए मणुस्सेसु अठ्ठावीस-सत्तावीस-छव्वीसविह केत्ति० ? असंखेज्जा । सेसपद० संखेज्जा० । मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु सव्वपदा के० ? संखेज्जा । एवं सबह-आहार-आहारमिस्स०-अवगद०-अकसा०-मणपज्ज०-संजद०समाइयछेदो०-परिहार०-सुहुम०-जहाक्खाद० वत्तव्यं । अतः इनमें २८, २७, २६, २४ और २१ विभक्तिस्थानवालोंका प्रमाण असंख्यात बन जाता है । पर २२ विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यात ही होंगे; क्योंकि सामान्य बाईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका प्रमाण असंख्यात नहीं होता। अतः मार्गणाविशेषमें उनका असंख्यातप्रमाण किसी भी हालतमें सम्भव नहीं है। __दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक प्रत्येक पृथिवीमें स्थित अट्ठाईस आदि संभव सभी विभक्तिस्थानवाले नारकी जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसीप्रकार पंचेन्द्रियतिथंच योनिमती, पंचेन्द्रियतिथंच लब्ध्यपर्याप्त, मनुष्य लब्ध्यपर्याप्त, भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी, सभी प्रकारके विकलेन्द्रिय, पंचेद्रियलब्ध्यपर्याप्त, बादर और सूक्ष्म तथा पर्याप्त,
और अपर्याप्त चारों प्रकारके पृथिवी आदि कायवाले, त्रस लब्ध्यपर्याप्त और विभङ्गज्ञानी जीवोंकी संख्या कहना चाहिये।
विशेषार्थ-ज्योतिषी देवों तक ऊपर जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें २८, २७, २६ और २४ ये चार विभक्तिस्थान पाये जाते हैं किन्तु शेष विकलेन्द्रिय आदि मार्गणाओंमें २८, २७.और २६ ये तीन विभक्तिस्थान ही पाये जाते हैं । तथा इन सभी मार्गणाओंमें प्रत्येक मार्गणावाले जीवोंका प्रमाण असंख्यात है अतः यहां उक्त प्रत्येक विभक्तिस्थानवाले जीवोंका प्रमाण असंख्यात बन जाता है।
६३५६. मनुष्यगतिमें मनुष्योंमें अट्ठाईस, सत्ताईस और छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। तथा शेष विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यात हैं। मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनीमें सभी विभक्तिस्थानवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। इसीप्रकार सर्वार्थसिद्धिके देव तथा आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायसंयत और यथाख्यात संयत जीवोंकी संख्या कहना चाहिये।
विशेषार्थ-इन उपर्युक्त मार्गणाओंमें कहां कितने विभक्तिस्थान होते हैं, इसका उल्लेख पहले कर आये हैं। यहां इन मार्गणास्थानवी जीवोंकी संख्या पर्याप्त मनुष्य और
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गा० २२ । पयडिट्ठाणविहत्तीए परिमाणाणुगमो
३२१ ६३५७. अणुद्दिसादि जाव अवराइद त्ति वावीसविह० केत्ति० ? संखेज्जा । सेसपदा असंखेज्जा । एइंदिय-बादरेइंदिय-सुहमेइंदिय० अहावीस-सत्तावीसविह केत्तिया ? असंखेज्जा । छवीसविह० के० ? अगंता। एवं वणप्फदि०-णिगोद०पज्ज. अपज्ज -मदि-सुदअण्णाण-मिच्छादि०-असण्णि त्ति वत्तव्वं । पंचिंदिय-पंचिंदियपज्ज-तस-तसपज्ज० अठ्ठावीस-सत्तावीस-[छठवीम] विह० चउवीसविह० एक्कवीसविह० केत्तिया ? असंखेज्जा । सेसप० संखेज्जा । एवं पंचमण-पंचवचि०पुरिस०-चक्खु०-सण्णि त्ति वत्तव्वं ।। मनुष्यनीकी संख्याके साथ संख्यात सामान्यकी अपेक्षा समान है यह दिखाने के लिये 'एवं सब्बढ०' इत्यादि कहा है।
६३५७. नौ अनुदिशोंसे लेकर अपराजिततक प्रत्येक स्थानमें बाईस विभक्तिस्थानवाले देव कितने हैं ? संख्यात हैं । तथा अपनेमें संभव शेष स्थानवाले देव असंख्यात हैं ।
एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय और सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें अट्ठाईस और सत्ताईस विभक्तिस्थानवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। इसीप्रकार वनस्पतिकायिक, पर्याप्त वनस्पतिकायिक, अपर्याप्त वनस्पतिकायिक, निगोद, पर्याप्त निगोद, अपर्याप्त निगोद, मतिअज्ञानी, श्रुताज्ञानी, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंकी संख्या कहना चाहिये ।
विशेषार्थ-२८ और २७ विभक्तिस्थानवाले वे ही जीव होते हैं जिन्होंने कभी उपशम सम्यक्त्व प्राप्त किया हो अतः इनका प्रमाण असंख्यात ही होगा। पर २६ विभक्तिस्थानवाले जीवोंमें सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृतिसे रहित सभी मिथ्यादृष्टियोंका ग्रहण हो जाता है अतः इनका प्रमाण अनन्त होगा। इसी अपेक्षासे उपर्युक्त अनन्त संख्यावाली मार्गणाओंमें २८ और २७ विभक्तिस्थान वालोंका प्रमाण असंख्यात और २६ विभक्तिस्थानवालोंका प्रमाण अनन्त कहा है।
__ पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस और त्रसपर्याप्त जीवोंमें अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस चौबीस और इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। तथा शेष विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यात हैं। इसीप्रकार पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, पुरुष वेदी, चक्षुदर्शनी और संज्ञी जीवोकी संख्या कहना चाहिये ।
विशेषार्थ-उपर्युक्त मार्गणाओं में सभी स्थान सम्भव हैं पर जिन विभक्तिस्थानोंमें रहनेवाले उक्त जीव असंख्यात होते हैं ऐसे विभक्तिस्थान २८, २७, २६, २४, और २१ ही हो सकते हैं। अतः इन विभक्तिस्थानवाले पंचेन्द्रिय आदिका प्रमाण असंख्यात कहा है। तथा इनसे अतिरिक्त शेष विभक्तिस्थानवाले जीव सर्वत्र संख्यात ही होते हैं। अतः उनका प्रमाण संख्यात ही कहा है।
४१
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ ६३५८. ओगलियमिस्स० अहावीस-सत्तावीसविह० केत्ति० १ असंखेज्जा। छव्वीसविह० के० १ अणंता । वावीस-एक्कवीस-चउवीसविह० के० ? संखेज्जा । एवं कम्मइय० । णवरि चउवीस० असंखेज्जा । एवमणाहार० । एवं वेउब्वियमिस्स । णवरि छब्बीस० असंखेज्जा । उब्धिय० सव्वपदा० असंखेज्जा । इत्थि० पंचिंदियभंगो। णवरि एकवीस० केत्तिया ? संखेज्जा । आभिणि-सुद-ओहि० अठ्ठावीसचउवीस-एकवीसविह० के० । असंखेज्जा। सेसप० संखेज्जा। एवं ओहिदंस-सम्माइटि०-वेदयसम्माइहि त्ति वत्तव्वं । णवरि वेदयसम्माइट्ठीसु इगिवीसादिपदं णत्थि ।
$३५८. औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें अट्ठाईस और सत्ताईस विभक्तिस्थानवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। बाईस, इक्कीस और चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। इसीप्रकार कार्मणकाययोगी जीवोंकी संख्या जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि कार्मणकाययोगी चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यात हैं। इसीप्रकार अनाहारकोंमें जानना चाहिये। तथा इसीप्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें जानना चाहिये । पर यहां इतनी विशेषता है कि छब्बीस विभक्तिस्थानवाले वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीव असंख्यात होते हैं।
विशेषार्थ-जो कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि या क्षायिक सम्यग्दृष्टि मनुष्य भोगभूमिके तिथंच और मनुष्योंमें उत्पन्न होते हैं उन्हींके बाईस और इक्कीस विभक्तिस्थानके होते हुए
औदारिक मिश्रकाययोग होता है। जो क्षायिक सम्यग्दृष्टि देव या नारकी मरकर मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं उन्हींके इक्कीस विभक्तिस्थानके होते हुए औदारिक मिश्रकाययोग होता है । तथा जो वेदक सम्यग्दृष्टि देव और नारकी मरकर मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं उन्हींके चौबीस विभक्तिस्थानके रहते हुए औदारिक मिश्रकाययोग होता है। अतः औदारिकमिश्रकाययोगमें इन तीन विभक्तिस्थानवाले जीवोंका प्रमाण संख्यात कहा है। शेष कथन सुगम है।। ___ वैक्रियिककाययोगियोंमें सभी सम्भव विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यात हैं। खीवेदियोंमें संभव अट्ठाईस आदि विभक्तिस्थानवाले जीवोंकी संख्या पंचेन्द्रियोंके समान जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेदी इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीव कितने है ? संख्यात हैं।
विशेषार्थ-स्त्रीवेदके रहते हुए मनुष्य ही इक्कीस विभक्तिस्थानवाले होते हैं अतः इनका प्रमाण संख्यात कहा है। शेष कथन सुगम है।
मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें अट्ठाईस, चौबीस और इक्कीस विभतिस्थानवाले जीव कितने है ? असंख्यात हैं। तथा शेष विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यात हैं । इसीप्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें संख्या कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके इक्कीस आदि विभक्तिस्थान नहीं हैं।
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गा० २२ ] पयडिट्ठाणविहत्तीए परिमाणाणुगमो
६३५६. संजदासंजद० अट्ठावीसविह० चउवीसविह० केव० ? असंखेज्जा । सेसप० संवेज्जा । काउ० तिरिक्खोघभंगो। किण्ह० णील० एवं चेव । णवरि एकवीसविह० के० १ संखेज्जा। तेउ० पम्म० सुक्क० पंचिंदियभंगो। अभव्वसिद्धि० छब्बीसवि० केत्ति० ? अणंता । खइए० एकवीसविह० के० असंखेज्जा । सेसपदा संखेज्जा । उवसमे अठ्ठावीस-चउवीसवि० के० ? असंखेज्जा । सासण अहावीसवि० असंखेज्जा । सम्मामि० अहावीस-चउवीस० के० १ असंखेज्जा ।
एवं परिमाणं समत्तं । विशेषार्थ-उपर्युक्त मार्गणाओं में २७ और २६ विभक्तिस्थान नहीं पाये जाते हैं क्योंकि वे मिथ्यादृष्टिके ही होते हैं। शेष सब पाये जाते हैं किन्तु वेदकसम्यग्दृष्टियोंके २८, २४, २३ और २२ ये चार विभक्तिस्थान ही पाये जाते हैं । अतः उपर्युक्त मार्गणाओंमें जहां जितने स्थान पाये जाते हैं उन स्थानवाले जीवोंकी संख्या ओघके समान बन जाती है।
१३५६. संयतासंयत जीवोंमें अट्ठाईस और चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। तथा अपनेमें संभव शेष स्थानवाले जीव संख्यात हैं। कापोत लेश्यामें ओघतियं चक समान जानना चाहिये। कृष्ण और नील लेश्यामें इसीप्रकार जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि कृष्ण और नील लश्याम इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। पीत, पद्म और शुक्ल लश्यामें पंचेन्द्रियोंके समान जानना चाहिये।
विषार्थ-संयतासंयत गुणस्थानमें २८ और २४ विभक्तिस्थानवाले तिथंच भी होते हैं अतः इन दा स्थानवाले संयतासंयतोंका प्रमाण असंख्यात बन जाता है । तथा शेष स्थानवाले मनुष्य ही होते हैं अतः उनकी अपेक्षा संयतासंयतोंका प्रमाण संख्यात ही होगा । छहा लेइयावालोम किसके कितने स्थान किस किस गतिकी अपेक्षा संभव हैं यह बात स्वामित्व अनुयोगद्वारसे जान लेना चाहिये। उससे किस लेश्यामें किस स्थानवाले जीव कितने सम्भव हैं इसका भी आभास मिलजाता है जिसका उल्लेख ऊपर किया ही है। ___ अभव्योंमें छब्बीस विभकिस्थानवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। क्षायिक सम्यग्दृष्टियोंमें इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। अपनेमें संभव शेष विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यात ह । उपशम सम्यक्त्वमें अट्ठाईस और चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। सासादनसम्यक्त्वमें अट्ठाईस विभक्तिस्थान वाले जीव कितने हैं ? असंख्यात है। सम्यग्मिथ्यात्वमें अट्ठाईस और चौबीस विभक्तिस्थान वाले जीव कितने हे ? असंख्यात हैं।
विशेषार्थ-सभी अभव्य छब्बीस विभक्तिस्थानवाले ही होते हैं और उनका प्रमाण अनन्त है, अतः अभव्योंमें २६ विभक्तिस्थानवाले जीवोंका प्रमाण अनन्त कहा है। यद्यपि छह
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traiसहिदे कसायपाहुडे
[ पयडिविहत्ती २
C
९३६०. खेतानुगमेण दुविहो णिद्देसो, ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण छब्बीसविहत्तिया केवडिए खेत्ते १ सव्वलोगे । सेसप० के० खेत्ते ? लोग० असंखे० भागे । एवं तिरिक्ख - सव्वए इंदिय - पुढवि०- ० आउ० तेउ वाउ० तेसिं बादर अपज्ज - सुहुमपज्ज० अपज्ज० वणफदि० - णिगोद० - वादर सुहुम० पज्ज० अपज्ज० - कायजोगि०-ओरालि०ओरालिय मिस्स ० - कम्मइय० णवुंस ० चत्तारिक-मदि- सुदअण्णाण - असंजद ० - अचक्खु० माह और आठ समय में संख्यात जीव ही क्षायिक सम्यक्त्वको उत्पन्न करते हैं पर उनक संचयकाल साधिक तेतीस सागर होनेसे २१ विभक्तिस्थानवाले क्षायिक सम्यग्दृष्टियोंका प्रमाण असंख्यात बन जाता है। तथा शेष विभक्तिस्थानवाले जीव क्षायिक सम्यग्दृष्टि और मनुष्य ही होते हैं अतः उनका प्रमाण संख्यात ही होगा । उपशम सम्यग्दृष्टियों में २८ विभक्तिस्थानवाले जीवोंका प्रमाण असंख्यात है यह तो स्पष्ट है । किन्तु उपशम सम्यक्त्व में २४ विभक्तिस्थानवाले जीवोंका प्रमाण असंख्यात उसी मतके अनुसार प्राप्त होगा जो उपशम सम्यक्त्वके कालमें भी अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना मानते हैं । सासादन में एक अट्ठाईस विभक्तिस्थान ही होता है और उनका प्रमाण असंख्यात है अतः यहां सासानमें अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका प्रमाण असंख्यात कहा है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका प्रमाण भी असंख्यात है और उनमें २८ और २४ विभक्तिस्थानवाले जीव पाये जाते हैं अतः सम्यग्मिथ्यात्वमें २८ और २४ विभक्तिस्थानवाले जीवोंका प्रमाण असंख्यात कहा है ।
३२४
इस प्रकार परिमाणानुयोगद्वार समाप्त हुआ ।
३३६०. क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघनिर्देश और आदेश निर्देश । उनमें से ओघकी अपेक्षा छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सर्वलोक में रहते हैं । शेष विभक्तिस्थानवाले जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में रहते हैं । इसीप्रकार सामान्य तिर्यंच, सभी प्रकार के एकेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, बादरपृथिवीकायिक, बादरपृथिवीकायिक अपर्याप्त, बादर जलकायिक, बादर जलकायिक अपर्याप्त, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, बादरवायुकायिक, बादरवायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म जलकायिक पर्याप्त अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अभिकायिक पर्याप्त अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त अपर्याप्त, वनस्पतिकायिक, साधारण वनस्पतिकायिक, बादरवनस्पति, बांदरवनस्पति पर्याप्त बादर वनस्पति अपर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पति, सूक्ष्म वनस्पति पर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पति अपर्याप्त, बादर निगोद, बादर निगोदपर्याप्त, बादर निगोद अपर्याप्त, सूक्ष्म निगोद, सूक्ष्म निगोद पर्याप्त, सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त, काययोगी, औदारिक काययोगी, औदारिकमिश्र काययोगी
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गा० २२] पयडिट्ठाणविहत्तीए खेताणुगमो
३२५ तिण्णिले०-भवसि०-मिच्छा-असण्णि आहारि० अणाहारि त्ति वत्तव्वं ।।
६३६१. आदेसेण णिरयगईए णेरइएसु सन्चप० के० खेत्ते ? लोग० असंखे० भागे । एवं सत्रपुढवि०-सव्वपंचिंदिय तिरिक्ख-सव्वमणुस्स सव्वदेव-सव्वविगलिंदियसव्वपंचिंदिय-बादरपुढवि ० -आउ ० -तेउ ०-बादरवणप्फदिपत्तेय-णिगोद-पदिहिदपजत्ततसपजत्तापजत्त-पंचमण-पंचवचि०-वेउब्धिय०-वेउ० मिस्स०-आहार-आहारमिस्स०इत्थि०-पुरिस ०-अवगद०-अकसा० विहंग०-आभिणि ०-सुद०-ओहि ०-मणपज० -संजदसामाइयछेदो० - परिहार० - सुहुम ० - जहाक्खाद ० -संजदासंजद-चक्खु ० -ओहिंदंस०तिण्णिसुहलेस्सा-सम्मादि ०-खहय०-वेदग-उवसम -सम्मामि०-सण्णि ति वत्तव्वं । कार्मण काययोगी, नपुंसक वेदी, क्रोधादि चारों कषायघाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले, भव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंके २६ विभक्तिस्थानकी अपेक्षा सर्वलोक और शेष संभव विभक्तिस्थानोंकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवां भागप्रमाण क्षेत्र कहना चाहिये।
विशेषार्थ-यह परिमाणानुयोगद्वारमें ही बतला आये हैं कि २८, २७, २४ और २१ विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यात हैं, २६ विभक्तिस्थानवाले जीव अनन्त हैं तथा शेष विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यात हैं। अत: २६ विभक्तिस्थानवाले जीवोंका क्षेत्र सब लोक और शेष विभक्तिस्थानवाले जीवोंका क्षेत्र लोकका असंख्यातवां भागप्रमाण बन जाता है। ऊपर जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें भी इसी प्रकार विभक्तिस्थानोंका विचार करके ओघके समान क्षेत्रका कथन कर लेना चाहिये। .....६३६१. आदेशकी अपेक्षा नरकगतिमें नारकियोंमें संभव सभी विभक्तिस्थानवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में रहते हैं। इसीप्रकार द्वितीयादि शेष सभी पृथिवियों में रहनेवाले नारकी, सभी पंचेन्द्रियतियंच, सभी मनुष्य, सभी देव, सभी विकलेन्द्रिय, सभी पंचेन्द्रिय, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पति प्रत्येक शरीर पर्याप्त, बादर निगोद प्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर पर्याप्त, त्रस, सपर्याप्त, त्रसअपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, वैक्रियिक काययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, अपगतवेदी, अकषायी, विभंगज्ञानी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिक संयत, यथाख्यात संयत, संयतासंयत, चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, पीत आदि तीन शुभ लेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिध्यादृष्टि, और संझीजीवोंमें सभी विभक्तिस्थानवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहना चाहिये । बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंमें छब्बीस विभक्ति
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ बादरवाउ० पज्ज० छव्वीस लोग० संखे० भागे। सेसपदाणं लोगस्स असंखे० भागे। अभव्यसिद्धि• छव्वीसविह० के० खेते ? सव्वलोगे । सासण. अष्टावीस० के० खेत्ते ? लोग असंखे० भागे ।
एवं खेत्तं समत्तं । ६३६२. फोसणाणुगमेण दुविहो णिदेसो, ओघेण आदेसेण य.। तत्थ ओघेण अट्ठावीस-सत्तावीस. केव० खेत्तं फोसिदं ? लोग० असंखे० भागो, अह-चोद्दसभागा देसूणा, सबलोगो वा। छन्वीस० केवडियं खेत्तं फोसिदं ? सव्वलोगो। चउवीसएकवीस० केव० खे० फोसिदं ? लोगस्त असंखे० भागो, अह-चोदसभागा वा देसूणा । सेसप० खेत्तभंगो । एवं कायजोगि०-चत्तारिकसाय-अचक्खु०-भवसिद्धि०-आहारि त्ति वत्तव्यं । स्थानवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण है। तथा इनमें संभव शेष विभक्तिस्थानवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवेंभाग प्रमाण है। अभव्यों में छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सर्व लोकमें रहते हैं ? अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले सासादन सम्यग्दृष्टि जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं।
विशेषार्थ-बादर वायुकायिक पर्याप्त और अभव्य जीवोंको छोड़ कर ऊपर जितने मार्गणास्थान गिनाये हैं उनमें जितने पद सम्भव हों उनकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवां भागप्रमाण ही क्षेत्र प्राप्त होता है । किन्तु बादर वायुकायिक पर्याप्तकोंमें २६ विभक्तिस्थानवाले जीवोंका क्षेत्र लोकका संख्यातवां भाग प्रमाण होता है तथा अभव्योंमें २६ विभक्तिस्थान ही होता है और उनका वर्तमान क्षेत्र सब लोक है अतः २६ विभक्तिस्थानवाले अभव्योंका वर्तमान क्षेत्र सब लोक जानना चाहिये । ___ इस प्रकार क्षेत्रानुयोगद्वार समाप्त हुआ।
६३६२. स्पर्शानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघनिर्देशकी अपेक्षा अट्ठाईस और सत्ताईस विभक्तिस्थानवाले जीवोने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग, कुछ कम आठ बटे चौदह भाग और सर्व लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? सर्व लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। चौबीस और इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और कुछ कम आठ बटे चौदह भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। शेष पदोंका स्पर्श क्षेत्रके समान जानना चाहिये । इसीप्रकार काययोगी, क्रोधादि चारों कषायवाले, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंके कथन करना चाहिये।
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गा० २२] पयडिहाणविहत्तीए फोसणाणुगमो
३६३. आदेसेण णिरयगईए णेरईएसु अष्ठावीस-सत्तावीस-छव्वीसविह० के० खेत्तं फोसिदं ? लोग० असंखे० भागो, छ-चोद्दसभागा वा देसूणा । सेसपदाणं खेत्तभंगो। पढमाए खेत्तभंगो । विदियादि जाव सत्तमि त्ति अट्ठावीस-सत्तावीस-छव्वीसवि० के० खेत्तं फोसिदं ? लोग० असंखे० भागो, एक्कबे-तिण्णि-चचारि-पंच-छ. चोदसभागा वा देसूणा । चउवीस० खेत्तभंगो।
विशेषार्थ-यहां ओघकी अपेक्षा २८ और २७ विभक्तिस्थानवाले जीवोंका अतीत कालीन स्पर्श जो त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग प्रमाण कहा है वह देवोंकी मुख्यतासे कहा है; क्योंकि तीन गतिके जीवोंमें देवोंका स्पर्श मुख्य है। तथा सब लोकप्रमाण स्पर्श तियचोंकी मुख्यतासे कहा है। इसीप्रकार २४ और २१ विभक्तिस्थानवालोंका अतीत कालीन स्पर्श भी देवोंकी मुख्यतासे कहा है। शेष गतियोंकी अपेक्षा २४ और २१ विभक्तिस्थानवाले जीवोंका स्पर्श उसमें गर्भित हो जाता है । शेष कथन सुगम है।
६३६३.आदेशकी अपेक्षा नरकगतिमें नारकियोंमें अट्ठाईस, सत्ताईस और छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और कुछ कम छह बटे चौदह भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। शेष पदोंका स्पर्श क्षेत्रके समान जानना चाहिये। पहले नरकमें स्पर्श क्षेत्रके समान है। दूसरे नरकसे लेकर सातवें नरक तक अट्ठाईस, सत्ताईस और छब्बीस विमक्तिस्थानवाले नारकियोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा दूसरे नरककी अपेक्षा कुछ कम एक बटे चौदह भाग, तीसरे नरककी अपेक्षा कुछ कम दो बटे चौदह भाग, चौथे नरककी अपेक्षा कुछ कम तीन बटे चौदह भाग, पांचवें नरककी अपेक्षा कुछ कम चारबटे चौदह भाग, छठे नरककी अपेक्षा कुछ कम पांच बटे चौदह भाग और सातवें नरककी अपेक्षा कुछ कम छह बटे चौदह भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। इन द्वितीयादि नरकोंमें चौबीस विभक्तिस्थानवालोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है ।
विशेषार्थ-सामान्यसे नारकियोंका या प्रत्येक पृथिवीके नारकियोंका जो वर्तमान और अतीत कालीन स्पर्श है वही वहां २८, २७ और २६ विभक्तिस्थानकी अपेक्षा वर्तमान और अतीत कालीन स्पर्श जानना चाहिये, क्योंकि इन विभक्तिस्थानवाले जीवोंकी नारंकियोंमें गति और आगतिका प्रमाण अधिक है किन्तु २४ विभक्तिस्थानवाले नारकियोंमें यह बात नहीं है। चौबीस विभक्तिस्थानवाला अन्य गतिका जीव तो नारकियोंमें उत्पन्न होता ही नहीं। हां ऐसा नारकी जीव मनुष्योंमें अवश्य उत्पन्न होता है पर उनका प्रमाण अति स्वल्प है अतः २४ विभक्तिस्थानकी अपेक्षा सामान्य नारकियोंका और प्रत्येक
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे । पयडिविहत्ती २ . ___६३६४. तिरिक्ख० अठ्ठावीस-सत्तावीस० के० खेत्तं फोसिदं ? लोग० असंखे० भागो। सव्वलोगो वा । छब्बीसर ओघभंगो। चउवीस० के० खे० फोसिदं ? लोगस्स असंख० भागो, छ-चोहसभागा वा देसूणा । सेसप०खेत्तभंगो। पंचिंदियतिरिक्व-पंचिं० तिरि० पज-पंचिं०तिरि०जोणिणीसु अठ्ठावीस-सत्तावीस-छव्वीस० के० खे० फोसिदं ? लोगस्स असंखेभागो, सव्वलोगो वा । सेसप०तिरिक्वभंगो। णवरि, पचिं० तिरि० जोणिणीसु वावीस-एक्कवीसविहत्तिया णत्थि । पंचिं० तिरि० अपज्ज० अहावीस-सत्तावीस-छब्बीसवि० के खेत्तं फोसिदं ? लोग० असंखे० भागो, सव्वलोगो वा । एवं मणुसअपज० पंचिं० अपञ्ज-तसअपज०-बादर पुढवि०-आउ०तेउ०-पज० वत्तव्वं । मणुम-मणुसपजत्त-मणुसिणीसु अठ्ठावीस-सत्तावीस-छब्बीस.. नारकियोंका वर्तमान व अतीत कालीन स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि मनुष्यभी नरकमें उत्पन्न होते हैं पर ऐसे जीव पहली पृथिवी तक हो जाते हैं। अतः नारकियोंमें २२ विभक्तिस्थानवाले जीवोंका वर्तमान और अतीत कालीन स्पर्श भी लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है।
६३६४. तिथंचगतिमें तिथचोंमें अट्ठाईस और सत्ताईस विभकिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है। लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और सर्वलोकका स्पर्श किया है। छब्बीस विभक्तिस्थानवालोंका स्पर्श ओघके समान है। चौबीस विभक्तिस्थानवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका तथा कुछ कम छह बटे चौदह भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। शेष पदोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है।
पंचेन्द्रियतिर्यच, पंचेन्द्रियतिथंच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियों में अट्ठाईस, सत्ताईस और छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग तथा सर्वलोकक्षेत्रका स्पर्श किया है। शेष पदोंका स्पर्श सामान्यतिर्थश्चोंके समान है । इतनी विशेषता है कि पंचेन्द्रिय तिथंच योनिमतियों में बाईस और इक्कीस विभक्तिस्थान नहीं पाये जाते हैं।
विशेषार्थ-सामान्य तियंचोंके स्पर्शमें शेष पदसे २२ और २१ विभक्तिस्थानोंका ग्रहण करना चाहिये। शेष कथन सुगम है।
पंचेन्द्रिय तिथच लब्ध्यपर्याप्तकों में अट्ठाईस, सत्ताईस और छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और सर्वलोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसी प्रकार लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, त्रस लब्ध्यपर्याप्त, बादर पृथिवी कायिक पर्याप्त, बादर जलकायिकपर्याप्त और बादर अग्निकायिक पर्याप्त जीवोंके कहना चाहिये। ____सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और सीवेदी. मनुष्योंमें अट्ठाईस, सत्ताईस और
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गा० २२ ]
vastufeत्ती फोसणा मुगमो
पंचि० तिरिक्खभंगो, विसेसा (सेसवि०) खेचभंमो ।
९३६५. देवेसु अट्ठावीस सत्तावीस-छब्बीसवि० के० खेतं फोसिदं ? लोग० असंखे ० भागो, अढ णव - चोहसभागा वा देसूणा । चउवीस - एकवीस० के० खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखे० भागो, अट्ठ- चोहसभागा वा देखणा । बावीस ० के० खेतं फोसिदं ? लोग० असंखे ० भागो । एवं सोहम्मीसाणदेवाणं । भवण० वाण० जोदिसि० अट्ठावीस - सत्तावीस-छब्वीस० के० खेत्तं फोसिदं । लोग० असंखे० भागो, अगुड-अट्ठ-कचोभागा वा देखणा | चउवीस० के० खेतं फोसिदं ? लोग० असंखे० भागो, अजुङ- अट्ठचोहस० देखणा | सणक्कुमारादि जाव सहस्सारे ति बावीस ० खेत्तभंगो । सेसपदाणं छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका स्पर्श पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान है । संभव शेष पदोंका स्पर्श क्षेत्र के समान है ।
विशेषार्थ - २८, २७ और २६ विभक्तिस्थानवाले उक्त तीन प्रकारके मनुष्य सर्वत्र उत्पन्न होते हैं तथा उक्त विभक्तिस्थानवाले चारों गतियों के जीव आकर इनमें उत्पन्न होते हैं अतः इनका वर्तमान और अतीतकालीन स्पर्श पंचेन्द्रिय तिर्थचोंके समान बन जाता है । अब रही शेष विभक्तिस्थानोंकी अपेक्षा स्पर्शकी बात । सो उनमें से २४, २२ और २१ विभक्तिस्थानवाले मनुष्य ही अन्य गतिमें जाकर उत्पन्न होते हैं या देव और नरक गतिके २४ और २१ विभक्तिस्थानवाले जीव आकर मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं। पर ये सम्यम्हष्टि होते हुए अतिस्वल्प होते हैं अतः इनका वर्तमान और अतीतकालीन स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है । इनसे अतिरिक्त शेष विभक्ति स्थानवाले मनुष्यों का स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होगा यह बात स्पष्ट है ।
९३६५. देवों में अट्ठाईस, सत्ताईस और छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका तथा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग और कुछ कम नौ बटे चौदह भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। चौबीस और इक्कीस विभक्तिस्थानवाले देवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग तथा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। बाईस विभक्तिस्थानवाले देवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्क्ष किया है । इसीप्रकार सौधर्म और ऐशान स्वर्गके देवोंके स्पर्शका कथन करना चाहिये । भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में अट्ठाईस, सत्ताईस और छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग तथा कुछ कम साढ़े तीन बटे चौदह भाग, कुछ कम आठ बटे चौदह भाग और कुछ कम नौ बटे चौदह भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके भाग तथा कुछ कम साढ़े तीन बड़े चौदह भाग और कुछ कम आठ बड़े
४२
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असंख्यात बें चौदह माम
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पयडिविहत्ती २
लोग० असंखे० भागो, अह-चोदस० देखूणा। एवमाणद-पाणद-आरणच्चुद० । णवरि छ-चोदस० देसूणा । उवरि खेत्तभंगो। एवं वेउव्वियमिस्स -[आहार]आहारमिस्स०-अवगद०-अकसाय०-मणपज्जव०-संजद-सामाइय-छेदो०-परिहार०सुहुम०जहाक्खाद-अभव्वसिद्धि० वत्तव्वं ।
६३६६. इंदियाणुवादेण एइंदिय० अट्ठावीस-सत्तावीस० के० खेत्तं फोसिदं ? लोग० असंखे० भागो, सव्वलोगो वा। छव्वीसवि० के० खेतं फोसिदं ? सव्वलोगो । एवं बादरेइंदिय-बादरेइंदियपज ० -बादरेइंदियअपज ०-सुहुमेइंदिय-सुहुमेइंदियपज ०सुहुमेइंदियअपज्ज -पुढवि ०-बादरपुढवि ०-बादरपुढ० अपज ०-सुहुमपुढवि -सुहुमपुढ वि० पज०-सुहुमपुढ० अपज०-आउ ०-बादरआउ ०-बादरआउ ०अपजत्त-सुहुमआउ०सुहुमआउ० पजत्तापज्जत-तेउ०-बादरतेउ० बादरतेउ• अपजत्त-सुहुमतेउ०-सुहुमतेउ० पजत्तापज्जत्त-वाउ ०-बादरवाउ ०-बादरवाउअपज ०-सुहुमवाउ ०-सुहुमवाउ० पज्जत्ताक्षेत्रका स्पर्श किया है । सानत्कुमार कल्पसे लेकर सहस्रार कल्प तक बाईस विभक्तिस्थानवाले देवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है। तथा शेष पदोंका स्पर्श लोकके असंख्यातवें भाग तथा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग है । इसीप्रकार आनत, प्राणत, आरण और अच्युत कल्पमें जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि यहां कुछ कम आठ बटे चौदह भागके स्थानमें कुछ कम छह बटे चौदह भाग स्पर्श कहना चाहिये । सोलह कल्पोंके ऊपर नौ अवेयक आदिमें स्पर्श क्षेत्रके समान है। अपने अपने क्षेत्रके समान ही वैक्रियिकमिश्र- . काययोगी, आहारक काययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायसंयत, यथाख्यातसंयत और अभव्य जीवोंके कहना चाहिये ।
६३६६.इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियोंमें अट्ठाईस और सत्ताईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग तथा सर्वलोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? सर्वलोकका स्पर्श किया है। इसी प्रकार बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त, पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त, जलकायिक, बादर जलकायिक, बादर जलकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म जलकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अनिकापिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त,
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गा० २२]
पयडिट्ठाणविहत्तीए फोसणाणुगमो
पजत्त-वणप्फदिकाइय-बादरवणफदिकाइय-बादर वणप्फदि ०-पजत्तापज्जत्त-सुहुमवणप्फदि०-सुहुमवणप्फदि० पजत्तापजत्त-बादरवणप्फदिपत्तेयसरीर-बादरवणप्फदि पत्तेयसरीर अपज-बादराणेगोदपदिहिद-बादराणिगोदपदिहिद अपज०-णिगोद०-बादरणिगोद तेसिं पञ्जत्तापजत्त, सुहमणिगोद०-सुहमणिगोद पजत्तापजत्त० वत्तव्वं । बादरवाउपज० अहावीस-सत्तावीस० के० खेतं फोसिदं ? लोगस्स असंखे० भागो, सव्वलोगो वा। छव्वीस० के० खेतं फोसिदं ? लोग० संखे० भागो, सबलोगो वा । बादर वणफदिपत्तेयसरीरपज०-बादर-णिगोदपदिहिदपज०-सव्वविगलिंदियाणं तसअपज्जत्तभंगो । पंचिंदिय-पंचिं०पज्ज-तस-तसपज्ज. अहावीस-सत्तावीस-छब्बीस० के० खेत्तं फोसिदं ? लोग० असंखे० भागो, अट्ट-चोद्दसभागा वा देसूणा, सव्वलोगो वा । सेसप० ओघभंगो । एवं पंचमण--पंचवचि०-पुरिस०-चक्खु०-सणि त्ति वत्तव्यं ।।
६३६७.ओरालिय० अठ्ठावीस-सत्तावीस-छब्बीस-चउवीस तिरिक्खोघभंगो। सेसपदाणं खेत्तभंगो। ओरालियमिस्स० अहावीस-सत्तावीस० के० खेत्तं फोसिदं ? लोग० वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक, सुक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, बादर वनस्पति प्रत्येकशरीर, बादर वनस्पति प्रत्येकशरीर अपर्याप्त, बादर निगोद प्रतिष्ठित प्रत्येकशरीर, बादर निगोद प्रतिष्ठित प्रत्येकशरीर अपर्याप्त, निगोद, बादर निगोद बादर निगोद पर्याप्त, बादर निगोद अपर्याप्त, सूक्ष्म निगोद, सूक्ष्म निगोद पर्याप्त और सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीवोंके कहना चाहिये। बादरवायुकायिक पर्याप्तकोंमें अट्ठाईस और सत्ताईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यात भाग
और सर्व लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके संख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त, बादर निगोद प्रतिष्ठित प्रत्येकशरीर पर्याप्त और सभी प्रकार के विकलेन्द्रिय जीवोंका स्पर्श लब्ध्यपर्याप्त त्रसोंके समान जानना चाहिये।
पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस और त्रसपयाँप्तकोंमें अट्ठाईस, सत्ताईस और छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवेंभाग, त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग तथा सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। शेष पदोंकी अपेक्षा स्पर्श ओघके समान जानना चाहिये । इसीप्रकार पांचोंमनोयोगी, पांचों वचनयोगी, पुरुषवेदी, चक्षुदर्शनी और संज्ञी जीवोंके कहना चाहिये।
३६७. औदारिककाययोगियोंमें अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, और चौबीस विभक्तिस्थानवालोंका स्पर्श सामान्य तियचोंके समान है। तथा शेष पदोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है। औदारिकभिशकाययोगियोंमें अट्ठाईस और सचाईस विभक्ति स्थानवाले जीवोंने कितने
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे । पडिविहत्ती २ असंखे० भागो, सव्वलोगो वा । छव्वीस० सबलोगो । सेस० खेत्तभंगो । कम्मइय० अठ्ठावीस सत्तावीस० के० खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदि भागो, सव्वलोगो वा। छठवीस. केव० खेत्तं फोसिदं ? सव्वलोगो। चउवीस० लोगस्स असंखे. भागो, छ-चोदस० । सेसपदाणं खेत्तभंगो । एवमणाहारि० । वेउब्धिय० अट्ठावीससत्तावीस-छव्वीस० के० खेतं फोसिदं ? लोग० असंखे० भागो; अह-तेरह-चोहसभामा वा देसूणा । चउवीस-एकवीस० के० खेत्तं फोसिदं ? लोग० असंखे० भागो, अह-चोदस० देसूणा । इत्थिवेदे पंचिंदियभंगो। णवरि एकवीस० खेत्तभंगो। णबुंस० अहावीस-सत्तावीस-छव्वीस-चउवीस० तिरिक्खोघभंगो। सेसपदाणं खेत्तभंगो। मदि-सुद-अण्णाण अठावीस-सत्तावीस० के० खेत्तं फोसिदं ? लोग० असंखे०भागो, सबलोगो वा । छव्वीस० सव्वलोगो। एवं मिच्छादि०-असण्णि । विहंम० क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग तथा सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। छब्बीस विभक्ति स्थानवाले औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंने सर्व लोकका स्पर्श किया है। तथा शेष पदोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है।
कार्मणकाययोगियोंमें अट्ठाईस और सत्ताईस विभक्ति स्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग तथा सर्व लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । छब्बीस विभक्तिस्थानवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? सर्व लोकका स्पर्श किया है। चौबीस विभक्तिस्थानवालोने लोकके असंख्यातवें भाग तथा त्रस नालीके चौदह भागों में से छह भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। शेष पदोंका स्पर्श क्षेत्रके समान जानना चाहिये । इसीप्रकार अनाहारक जीवोंके स्पर्शका कथन करना चाहिये ।।
वैक्रियिक काययोगियोंमें अट्ठाईस, सत्ताईस और छब्बीस विभक्ति स्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग तथा त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग और कुछ कम तेरह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। चौबीस और इक्कीस विभक्तिस्थानवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग तथा त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है।
स्त्रीवेदियों में स्पर्श पंचेन्द्रियोंके समान जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इक्कीस विभक्तिस्थानको प्राप्त हुए स्त्रीवेदियोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है। नपुंसकवेदियों में अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस और चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका स्पर्श सामान्य तियचोंके समान जानना चाहिये । तथा शेष पदोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है।
मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें अट्ठाईस और सत्ताईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग तथा सर्वलोक प्रमाण
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गा० २२ ]
पावहत्तीए फोसणाणुगमो
३३३
असंखे० भागो, अट्ठअट्ठावीस - चउवीस-एक
अट्ठावीस - सत्तावीस-छब्बीस० के० खेतं फोसिदं 2 लोग० चोदस० देसूणा, सव्वलोगो वा । आभिणि० - सुद० - ओहि० वीस० के० खेत्तं फोसिदं ? लोग० असंखे ० भागो, अट्ठ- चोहस० देखणा | सेसप० खेत्तभंगो । एवमोहिदंस० - सम्मादिट्ठी त्ति वत्तव्वं । संजदासंजद० अट्ठावीस - चउवीस ० के० खेत्तं फोसिदं ९ लोग० असंखे० भागो, छ- चोदस० देखणा । सेसप० खेत्तभंगो । असंजद० सव्वपदाणमोघभंगो ।
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३६८. किह-णील काउ० अट्ठावीस-सत्तावीस - छब्वीस ० तिरिक्खोघभंगो | सेस० खेतभंगो । वरि काउलेस्साए वावीस ० के० खेत्तं फोसिदं ? लोग० असंखे० भागो । तेउ० अट्ठावीस - सत्तावीस - छव्वीस - चउवीस एकवीस० सोहम्मभंगो | तेवीस-बावीस ० खेत्तभंगो । पम्मलेस्सा० अट्ठावीस - सत्तावीस - छब्वीस - चउवीस-एक्कवीस • सहस्सारभंगो । क्षेत्रका स्पर्श किया है । छब्बीस विभक्तिस्थानवाले उक्त जीवोंने सर्व लोकका स्पर्श किया है । इसीप्रकार मिध्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंका स्पर्श जानना चाहिये । विभंगज्ञानियोंमें अट्ठाईस, सत्ताईस और छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग, त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है ।
मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें अट्ठाईस, चौबीस, और इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और श्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । उक्त जीवोंके शेष पदोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है । इसीप्रकार अवधिदर्शनी और सम्यग्दृष्टियोंके स्पर्श कहना चाहिये ।
संयतासंयतों में अट्ठाईस और चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। शेष पदोंका स्पर्श क्षेत्रके सभी पदोंका स्पर्श ओघके समान है ।
३६८. कृष्ण, नील और कापोत लेश्यामें अट्ठाईस, सत्ताईस और छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका स्पर्श सामान्य तिर्यंचोंके समान है । तथा शेष पदोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है । इतनी विशेषता है कि कापोत लेश्यामें बाईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है ।
पीतलेश्या में अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, चौबीस और इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीवों का स्पर्श सौधर्मकल्पके देवोंके स्पर्शके समान है । तेईस और बाईस विभक्तिस्थानवालों का स्पर्श क्षेत्रके समान है । पद्मलेश्या में अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, चौबीस और इक्कीस
भागों में से कुछ कम समान है । असंयतों में
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ तेवीस-बावीस० खेत्तभंगो। सुक्कलेस्सा० अट्ठावीस-सत्तावीस-छव्वीस-चउवीस-एकवीस० आणदभंगो। सेस० खेत्तभंगो।
६३६९. वेदग० अठ्ठावीस-चउवीस० के० खेत्तं फोसिदं ? लोग० असंख० भागो, अहचोदस० देसूणा । तेवीस-बावीस० खेत्तभंगो । खइयसम्माइट्टी० एकवीस० के. खेत्तं फोसिदं ? लोग० असंखे० भागो, अह-चोदस० देसूणा । सेस० खेत्तभंगो। उवसम० अठ्ठावीस०-चउचीस० के० खेतं फोसिदं ? लोग. असंखे भागो, अट्ठचोद्दस० देसूणा। सासणे अट्ठावीस० के० खेतं फोसिदं ?, लोग० असंखे० भागो, अष्टबारह-चोदस० देसूणा । सम्मामिच्छाइही. अहावीस-चउवीस० के० खेत्तं फोसिदं ? लोग० असंखे० भागो, अह-चोदस० देसूणा ।।
एवं फोसणं समत्तं । ६३७०. कालाणुगमेण दुविहो णिद्देसो, ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण अहाविभक्तिस्थानवालोंका स्पर्श सहस्त्रार स्वर्गके देवोंके स्पर्शके समान है । तेईस और बाईस विभक्तिस्थानवालोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है । शुक्ललेश्यामें अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, चौबीस और इक्कीस विभक्तिस्थानवालोंका स्पर्श आनत कल्पके देवोंके स्पर्शके समान है। तथा शेष पदोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है।
३६६. वेदक सम्यग्दृष्टियोंमें अट्ठाईस और चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंनेकितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । तथा तेईस और बाईस विभक्तिस्थान वालोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है । क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और त्रस नालीके चौदह भागों मेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। शेष पदोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है। उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें अट्ठाईस और चौवीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। सासादनसभ्यग्दृष्टियोंमें अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवेंभाग तथा त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग और कुछ कम बारह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंमें अट्ठाईस और चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है।
इसप्रकार स्पर्शनानुयोगद्वार समाप्त हुआ। - ३३७०. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश ।
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गा० २२]
पयडिट्ठाणविहत्तीए कालाणुगमो
वीस-सत्तावीस-छन्वीस-चउवीस-एकवीस० केवचिरं कालादो होंति ? सव्वद्धा । तेवीसवावीस-तेरस-एक्कारस-चदु-तिण्णि-दोण्णि-एक० के० १ जहण्णुक० अंतोमुहुत्तं । बारस० के. ? जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । पंच० के० ? जह० वे आबलियाओ विसमऊणाओ, उक्क० अंतोमु० । एवं पंचिंदिय-पंचिं०पज०-तस-तसपज्ज०-चक्खु०अचक्खु०-भवसिद्धि०-सण्णि आहारि त्ति वत्तव्यं ।
६३७१. आदेसेण णेरइएसु वावीस० के० ? जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुतं । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, चौबीस और इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका कितना काल है ? सर्व काल है। तेईस, बाईस, तेरह, ग्यारह, चार,तीन, दो और एक विभक्तिस्थानवालोंका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तमुहूर्त है । बारह विभक्तिस्थानवालोंका कितना काल है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। पांच विभक्तिस्थानवालोंका कितना काल है ? जघन्य काल दो समय कम दो आवली और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके कहना चाहिये ।
विशेषार्थ-यहां नाना जीवोंकी अपेक्षा कालका निर्देश किया है। अतः ओघसे २८, २७, २६, २४, और २१ विभक्तिस्थानवाले जीवोंका काल सर्वदा बन जाता है, क्योंकि उक्त विभक्तिस्थानवाले जीव लोकमें सर्वदा पाये जाते हैं। इनके अतिरिक्त शेष विभक्तिस्थान सान्तर हैं कभी होते हैं और कभी नहीं होते। जब होते हैं तो कभी उनमें एक जीव और कभी नाना जीव पाये जाते हैं। फिर भी हर हालतमें २३,२२, १३, ११, ४, ३, २ और १ विभक्तिस्थानोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त ही प्राप्त होता है, क्योंकि लगातार क्रमसे अनेक जीवोंके उक्त विभक्तिस्थानोंको प्राप्त होनेपर भी प्रत्येक विभक्तिस्थानमें लगातार रहनेके कालका योग अन्तर्मुहूर्तसे अधिक नहीं होता है । जो नपुंसक वेदी एक या अनेक जीव एक साथ क्षपक श्रेणीपर चढ़ते हैं उनके बारह विभक्तिस्थानका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है। तथा जो स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी एक या अनेक जीव एक साथ या क्रमसे क्षपक श्रेणीपर चढ़ते हैं उनके बारह विभक्तिस्थानका काल अन्तर्मुहूर्त ही प्राप्त होता है । अतः बारह विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। एक जीवकी अपेक्षा पांच विभक्तिस्थानका काल दो समय कम दो आवली प्रमाण है। अब यदि क्रमसे अनेक जीव क्षपक श्रेणीपर चढ़ते हैं तो पांच विभक्तिस्थानका काल कई आवलिप्रमाण हो जाता है, अतः पांच विभक्तिस्थानका जघन्य काल दो समय कम दो आवलि और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बन जाता है । ऊपर जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें यह ओघपरूपणा घटित हो जाती है अतः उनके कथनको ओघके समान कहा है ।
६३७१.आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें बाईस विभक्तिस्थानवालोंका कितना काल है ?
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३३६
जयधवासहिदे कसायपाहुडे
[ पयडिविहृत्ती २
सेसपदाणं सव्वद्धा । एवं पढमाए तिरिक्ख पंचिं ०तिरिक्ख पंचिं० तिरि० पा०-देवा सोहम्मीसाणादि जाव सव्वट्टेति वत्तव्यं । बिदियादि जाव सत्तमित्ति सव्वपदाणं सव्वद्धा । एवं पंचिं• तिरि० अपज० - भवण० वाण ० - जोदिसि० पंचि० तिरि० जोणीसव्वएइंदिय- सव्वविगलिंदिय-पंचिं ० अपज० - पंचकाय- बादर सुहुम पजत्तापञ्जत्त-तसअपत्त-वेउच्चिय०-मदि- सुदअण्णाण विहंग०-मिच्छादि ० - असणि त्ति वत्तव्यं ।
९३७२. मणुस० ओघभंगो । एवं मणुसपञ्ज० । णवरि बाबीस० जह० एग समओ, उक्क० अंतोमु० । मणुस्सिणी० ओघभंगो | णवरि बारस० जहण्णुक्क० जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । शेष पदोंका सर्व काल है । इसीप्रकार पहले नरकमें तथा तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यच, पंचेन्द्रिय तिर्थच पर्याप्त, देव और सौधर्म-ऐशानसे लेकर सर्वार्थ सिद्धि तक्के देवोंके कहना चाहिये । दूसरे नरकसे लेकर सातवें नरक तक के नारकियों के सभी संभव पर्दोंका काल सर्वदा है । इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्त, भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी, पंचेन्द्रिय तिर्थच योनिमती, सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, बादर और सूक्ष्म तथा पर्याप्त अपर्याप्त के भेदसे पांचो स्थावरकाय, त्रस लब्ध्यपर्याप्त, वैक्रियिक काययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, मिध्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके कहना चाहिये ।
विशेषार्थ-कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टियोंके भी २२ विभक्तिस्थान होता है और इनके सम्बन्धमें ऐसा नियम है कि कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टिके कालके चार भाग करे । उनमें से यदि पहले भाग में कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि मरता है तो नियमसे देवोंमें उत्पन्न होता है, दूसरे भाग में यदि मरता है तो देव और मनुष्यों में उत्पन्न होता है, तीसरे भागमें यदि मरता है तो देव, मनुष्य और तियंचों में उत्पन्न होता है तथा चौथे भागमें यदि मरता है तो चारों गतिके जीवोंमें उत्पन्न होता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि अन्तिम भागमें मरा हुआ कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि चारों गतियोंमें उत्पन्न हो सकता है । अतः सामान्य नारकियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धिके देवों तक उक्त मार्गणाओंमें २२ विभक्तिस्थानका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बन जाता है । इसमें शेष २८ २७, २६, २४ और २१ विभक्तिस्थानोंका काल सर्वदा है; क्योंकि ये विभक्तिस्थानवाले जीव उक्त मार्गणाओंमें सर्वदा पाये जाते हैं । इसी प्रकार दूसरे नरकसे लेकर असंज्ञी तक जो ऊपर मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें भी २८, २७, २६ और २४ विभक्तिस्थानों का काल सर्वदा जानना चाहिये । यहां शेष विभक्तिस्थान सम्भव नहीं हैं ।
९३७२. मनुष्यों में ओघ के समान काल कहना चाहिये । इसीप्रकार मनुष्य पर्याप्त कोंके कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि बाईस विभक्तिस्थानवाले पर्याप्त मनुष्यों का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । स्त्रीवेदी मनुष्योंका काल ओघ के समान
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गा० २२ ]
पडा वित्तीकालागुगमो
३३७
अंत | मणुस्सअप ० अट्ठावीस - सत्तावीस - छब्बीस० के० १ जह० एगसमओ, उक्क० पलिदोवमस्स असंखेजदि भागो
९३७३. जोगाणुवादेण पंचमण० - पंचवाचि० अट्ठावीस सत्तावीस-छब्वीस- चउवीसएकवीस० के० १ सव्वद्धा । तेवीस-बावीस - तेरस - बास- एक्कारस-पंच-चदु-तिण्णिदोणि- एगविहत्ति० के० ? जह एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । एवं कायजोगी, ओरालि० | ओरालियमिस्स अट्ठावीस सत्तावीस - छव्वीस० के० : सव्वद्धा । चउवीसएकवीस ० के ० १ जहण्णुक्क अंतोमुहुत्तं । वावीस० केवचिरं० ? जह० एगसमओ, कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि बारह विभक्तिस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यों में अट्ठाईस सत्ताईस और छब्बीस विभक्तिस्थानवालोंका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्टकाल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है ।
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विशेषार्थ - कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टियोंके मर कर मनुष्यों में उत्पन्न होनेपर यदि कृतकृत्यवेदक सम्यक्त्वके कालमें एक समय शेष रह जाता है, तो उन पर्याप्त मनुष्यों के २२ विभक्तिस्थानका जघन्यकाल एक समय प्राप्त होता है । तथा उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त स्पष्ट ही है । जो जीव स्त्रीवेदके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़ते हैं उनके बारह विभक्तिस्थानका काल अन्तर्मुहूर्त से कम नहीं होता है अतः स्त्रीवेदी मनुष्योंके बारह विभक्ति - स्थानका जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है । अट्ठाईस और सत्ताईस विभक्तिस्थानों के कालमें एक समय शेष रहतेहुए जो नाना जीव एक साथ लब्ध्यपर्याप्तकोंमें उत्पन्न हो जाते हैं उनके २८ और २७ विभक्तिस्थानका जघन्यकाल एक समय पाया जाता है । तथा जिन २८ विभक्तिस्थानवाले नाना जीवोंके मरणमें एक समय शेष रहने पर २७ विभक्तिस्थान आ जाता है उनके २७ विभक्तिस्थानका जघन्यकाल एक समय इस प्रकार भी प्राप्त हो जाता है । तथा २७ विभक्तिस्थानवाले जिन नाना जीवोंके मरणमें एक समय शेष रहनेपर २६ विभक्तिस्थान आ जाता है उनके २६ विभक्तिस्थानका जघन्यकाल एक समय प्राप्त होता है । तथा शेष काल सुगम है । अत: उसका खुलासा नहीं किया ।
६३७३. योगमार्गणा के अनुवादसे पांचों मनोयोगी और पांचो वचनयोगी जीवों में अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, चौबीस और इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका काल कितना है ? सर्वकाल है | तेईस, बाईस, तेरह, बारह, ग्यारह, पांच, चार, तीन, दो और एक विभक्तिस्थानवालोंका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसीप्रकार काययोगी और औदारिक काययोगी जीवोंका काल जानना चाहिये । औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें अट्ठाईस, सत्ताईस और छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका काल कितना है ? सर्वकाल है । चौबीस और इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका काल
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जयघवलासहिदे कसायपाहुडे
[पयडिविहत्ती २
उक्क० अंतोमु० । वेउब्धियमिस्स० अठ्ठावीस-सत्तावीस-छब्बीस० के० १ जह• एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो। चउवीस० के० १ जह० अंतोमु०, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो। बावीस० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । एकवीस० जहण्णुक० अंतोमु०। आहार सव्वपदा० के० १ जह० एगसमओ, उक० अंतोमुहुत्तं । आहारमिस्स० जहण्णुक० अंतोमुहुतं । कम्मइय० अठ्ठावीस-सत्तावीस-चउवीस० के० ? जह० एगसमओ, उक्क० आवलि० असंखे • भागो। छव्वीस. के. ? सव्वद्धा । वावीस-एकवीस० जह० एगसमओ, उक० संखेजा समया। कितना है ? जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । बाईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका काल कितना है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें अट्ठाईस, सत्ताईस, और छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका काल कितना है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका काल कितना है ? जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । बाईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्य
और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। आहारककाययोगियोंमें संभव सर्व विभक्तिस्थानवाले जीवोंका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । आहारकमिश्रकाययोगियोंमें संभव समी स्थानवाले जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। कार्मणकाययोगियोंमें अट्ठाईस, सत्ताईस और चौबीस विभक्ति स्थानवाले जीवोंका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है । छब्बीस विभक्ति स्थानवाले जीवोंका कितना काल है ? सर्व काल है। बाईस और इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है।
विशेषार्थ-२८, २७, २६, २४ और २१ विभक्तिस्थान सर्वदा पाये जाते हैं और पांचों मनोयोगी तथा पांचों वचनयोगी जीव भी सर्वदा होते हैं। अतः पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी जीवोंमें उक्त विभक्तिस्थानोंका काल सर्वदा कहा । तथा २३, २२, १३, १२, ११, ५, ४, ३, २ और १ विभक्तिस्थान सर्वदा नहीं होते और इन विभक्तिस्थान वाले जीवोंके योग बदलते रहते हैं । अतः पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी जीवोंमें उक्त विभक्तिस्थानोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा । इसी प्रकार काययोगमें और औदारिक काययोगमें भी घटित कर लेना चाहिये । औदारिक मिश्रकाययोगमें २८, २७, और २६ विभक्तिस्थानवाले जीवोंका सर्वकाल होता है यह सुगम है । किन्तु २४ और २१ विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यात ही होते हैं अत: इनका
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गां० २२ )
पयडिट्ठाणविहत्तीए कालाणुगमो
६३७४. वेदाणुवादेण इथिवेद० अठ्ठावीस-सत्तावीस-छव्वीस-चउवीस-एकवीस० के० ? सव्वद्धा । तेवीस-बावीस-तेरस-बारस० जहण्णुक० अंतोमु०। एवं णस० । जघन्य और उत्कष्ट काल अन्तर्मुहूर्त ही होगा। तथा कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टियोंके मरकर औदारिकमिश्र काययोगी होनेपर यदि कृतकृत्यवेदकके कालमें एक समय शेष रह जाता है तो उनके २२ विभक्तिस्थानका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है। तथा उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त स्पष्ट ही है। जिसप्रकार लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंके २८, २७ और २६ विभक्तिस्थानोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण घटित करके लिख आये हैं उसीप्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके घटित कर लेना चाहिये। २४ विभक्तिस्थानवाले जीव कमसे कम अन्तर्मुहूर्तकाल तक और लगातार पल्यके असंख्यातवें भाग कालतक वैक्रियिक मिश्रकाययोगी हो सकते हैं, अतः वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें २४ विभक्तिस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा । तथा वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें २२ विभक्तिस्थानका जघन्य
और उत्कृष्ट काल औदारिकमिश्रकाययोगके समान घटित कर लेना चाहिये । वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें २१ विभक्तिस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बतलानेका कारण यह है कि २१ विभक्तिस्थानवाले वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंका प्रमाण संख्यात है। अहारककाययोगका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्त है अतः इसमें सम्भव सब पदोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। आहारकमिश्रकाययोगका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है अतः इसमें सम्भव सब पदोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा। यद्यपि कार्मणकाययोगका काल सर्वदा है तो भी २८,२७ और २४ विभक्तिस्थानवाले जीव मरकर निरन्तर कार्मणकाययोगको नहीं प्राप्त होते हैं अतः इनका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण बन जाता है। तथा २६ विभक्तिस्थानवाले जीव निरन्तर कार्मणकाययोगको प्राप्त होते रहते हैं अतः उनका काल सर्वदा कहा है। तथा जो २२ और २१ विभक्तिस्थानवाले जीव एक विग्रहसे अन्य गतिमें उत्पन्न होते हैं या जिनके २२ विभक्तिस्थानके कालमें एक समय शेष रहनेपर कार्मणकाययोग प्राप्त होता है और इसके बाद ब्यवधान पड़ जाता है उनके २२ और २१ विभक्तिस्थानका जघन्य काल एक समय पाया जाता है । तथा जो २२ और २१ विभक्तिस्थानवाले जीव निरन्तर कार्मणकाययोगी होते रहते हैं उनके २२ और २१ विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट काल संख्यात समय पाया जाता है, क्योंकि ऐसे जीव संख्यात ही होते हैं।
३७४. वेद मागेणाके अनुवादसे स्त्रीवेदमें अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, चौबीस और इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका काल कितना है ? सर्व काल है । तेईस, बाईस, तेरह
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[पयडिविहत्ती २
णवरि० वावीस० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमु०। बारस० के० १ जह० एगसमओ, उक्क० संखेजा समया। पुरिस० अठ्ठावीस-सत्तावीस-छव्वीस-चउवीस-एकवीस० के० १ सव्वद्वा । तेवीस-तेरस-बारस-एकारस० जहण्णुक्क० अंतोमु० । वावीस० जह० एगसमओ, उक्क० अंतामुहुत्तं । पंचवि० के० ? जह० एगसमओ उक्क० संखेजा समया। अवगद० चउवीस-एकवीस० के० ? जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । एक्कारस-चदु-तिण्णि-दोणि-एयविह० के० ? जहण्णुक्क० अंतोमु०। पंचवि० जह० वे आवलियाओ विसमऊगाओ, उक्क० अंतोमु० । और बारह विभक्तिस्थानवालोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार नपुंसकवेदमें कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि बाईस विभक्तिस्थानवाले नपुंसकवेदी जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त होता है । तथा बारह विभक्तिस्थानवाले नपुंसकवेदियोंका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय होता है । पुरुषवेदमें अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, चौबीस और इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका कितना काल है ? सर्व काल है । तेईस, तेरह, बारह, और ग्यारह विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । बाईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। पांच विभक्तिस्थानवाले जीवोंका काल कितना है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । अपगतवेदमें चौबीस और इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका काल कितना है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । ग्यारह, चार, तीन, दो और एक विभक्तिस्थानवाले अपगतवदी जीवोंका काल कितना है ? जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। पांच विभक्तिस्थानवाले जीवोका जघन्य काल दो समय कम दो आवली और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है।
विशषार्थ-कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टियोंके मर कर नारकी होनेपर यदि कृतकृत्यवेदकके कालम एक समय शेष रहता है तो नपुंसक वेदमें २२ विभक्तिस्थानका जघन्य काल एक समय पाया जाता है। तथा नपुंसकवदी नाना जीवोंके एक साथ १२ विभक्तिस्थानको प्राप्त होनेपर याद अन्तर पड़ जाता है तो १२ विभक्तिस्थानका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता हे और यदि अन्तर नहीं पड़ता है तो १२ विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट काल संख्यात समय प्राप्त होता है। इसी प्रकार पुरुषवेदियोंक पांच विभक्तिस्थानका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय घटित कर लेना चाहिये। तथा पुरुषवेदियोंके २२ विभक्तित्थानका जघन्य काल एक समय भी नपुंसकवेदियोंके समान घटित कर लेना चाहिये। किन्तु ऐसे जीवोंको नारकियोंमें नहीं उत्पन्न कराना चाहिये । जो एक समय तक अपगतवेदी रहकर मर जाते हैं उनके २४ और २१ विभक्तिस्थानका जघन्य काल एक
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गा० २२]
पयडिहाणविहत्तीए कालाणुगमो
३४१
६३७५. कसायाणुवादेण कोधक० अट्ठावीस-सत्तावीस-छब्बीस-चउवीस-एकवीस० के० ? सव्वद्धा । तेवीस-बावीस० के० ? जह० एयसमओ, उक्क० अंतोमु० । तेरसबारस-एक्कारस-पंच-चदु० ओघभंगो। एवं माण०, णवरि तिण्हं विहत्तिया अस्थि । एवं माय०, णवरि दोहं विहत्तिया अस्थि । एवं लोभ०, गवरि एय० अस्थि । माणमाया-लोभकसाईसु जहाकम चदुण्हं तिण्डं दोण्ठं विह० जह० दोआवलि० दु-समऊणाओ। अकसा० चउवीस-एक्कवीस० के० ? जह० एगसमओ, उक्क. अंतोमु० । एवं जहाक्खाद० । सुहुमसांपराइय० एवं चेव । णवरि एयवि० जहण्णुक्क० अंतोमु० । समय प्राप्त होता है। तथा जो अपगतवेदी निरन्तर पांच विभक्तिस्थानवाले होते रहते हैं उनके पांच विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त पाया जाता है । यहां निरन्तर होनेका तात्पर्य यह है कि नाना जीव पांच विभक्तिस्थानको प्राप्त हुए और उनके पांच विभक्तिस्थानके कालके समाप्त होनेके अन्तिम समयमें अन्य नाना जीव पांच विभक्तिस्थानको प्राप्त हो गये । इसी प्रकार तीसरी, चौथी आदि वार भी जानना । किन्तु ऐसे वार अति स्वल्प ही होते हैं अतः उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्तसे अधिक नहीं प्राप्त होता। शेष कथन सुगम है।
३३७५.कषायमार्गणाके अनुवादसे क्रोध कषायमें अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, चौबीस और इक्कीसं विभक्तिस्थानवालोंका काल कितना है ? सर्व काल है। तेईस और बाईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका काल कितना है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । तेरह, बारह, ग्यारह, पांच और चार विभक्तिस्थानवाले जीवोंका काल ओघके समान है । इसीप्रकार मान कषायमें जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि मान कषायमें तीन विभक्तिस्थानवाले जीव भी पाये जाते हैं। इसीप्रकार मायाकषायमें जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि माया कषायमें दो विभक्तिस्थानवाले भी जीव पाये जाते हैं । इसी प्रकार लोगकषायमें जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि यहां एक विभक्तिस्थानवाले भी जीव पाये जाते हैं। मान, माया और लोभकषायी जीवोंमें यथाक्रमसे चार, तीन और दो विभक्तिस्थानोंका जघन्य काल दो समय कम दो आवली है। अकषायी जीवोंमें चौबीस और इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका काल कितना है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसीप्रकार यथाख्यात संयतोंमें जानना चाहिये । तथा इसीप्रकार सूक्ष्मसांपराय संयतोंके कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि सूक्ष्म सांपरायिक संयतोंमें एक विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त होता है।
विशेषार्थ-क्रोध कषायमें जो २८, २७, २६, २४ और २१ विभक्तिस्थानोंका काल सर्वदा बतलाया सो इसका कारण यह है कि क्रोध कषायवाले जीव और उक्त विभक्तिस्थानवात जीव सर्वदा पाये जाते हैं, अतः क्रोध कषायमें उक्त विभक्तिस्थानोंका सर्वदा
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ ३३७६.आभिणि-सुद०-ओहि० अठ्ठावीस-चउवीस-एकवीस केव० १ सम्बद्धा । सेसप० ओघभंगो। एवं मणपजव०-संजद०-सामाइय-छेदोव०-संजदासंजद०-ओहिदंस०-सम्मादिही त्ति वत्तव्वं । वरि मणपज्जव० वारस० जह० एगसमओ णस्थि । पाया जाना असम्भव नहीं है । २३ और २२ विभक्तिस्थानवाले जो नाना जीव एक समय तक क्रोध कषायमें रहे और दूसरे समयमें उनकी कषाय बदल गई उन क्रोध कषायवाले जीवोंके २३ और २२ विभक्तिस्थानका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है। तथा क्रोध कषायमें २३ और . २ विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्त स्पष्ट ही है। इसी प्रकार क्रोध कषायमें १३, १२, ११, ५ और ४ विभक्तिस्थानोंका काल जो ओघके समान बतलाया है सो इसका यह अभिप्राय है कि जो क्रोधके उदयके साथ क्षपक श्रेणीपर चढ़ते हैं उनके क्रोध कषायमें उक्त विभक्तिस्थानोंका काल ओघके समान बन जाता है । इसी प्रकार मान, माया और लोभ कषायमें विभक्तिस्थानोंका काल जानना चाहिये । किन्तु मान कषायमें तीन विभक्तिस्थान, माया कषायमें दो विभक्तिस्थान और लोभ कषायमें एक विभक्तिस्थान भी होता है जिनका उत्कृष्ट काल ओघके समान बन जाता है। किन्तु जो जीव क्रोध कषायके उदयके साथ क्षपक श्रेणीपर चढ़े हैं, उनके मान कषायमें चार विभक्तिस्थानका, माया कषायमें तीन विभक्तिस्थानका और लोभ कषायमें दो विभक्तिस्थानका जघन्य काल दो समय कम दो आवलिप्रमाण प्राप्त होगा। जो मानके उदयसे क्षपक श्रेणीपर चढ़े हैं उनके माया कषायमें तीन विभक्तिस्थानका और लोभ कषायमें दो विभक्तिस्थानका जघन्य काल दो समय कम दो आवलिप्रमाण प्राप्त होता है। तथा जो जीव मायाके उदयसे क्षपक श्रेणीपर चढ़े हैं उनके लोभ कषायमें दो विभक्तिस्थानका जघन्य काल दो समय कम दो आवलिप्रमाण प्राप्त होता है। जो जीव एक समयतक अकषायी होकर दूसरे समयमें मर जाते हैं उनके २१ और २४ विभक्तिस्थानका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है। तथा उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त स्पष्ट ही है। अकषायी जीवोंके समान यथाख्यात संयत और सूक्ष्म साम्पराय संयत जीवोंके जानना। किन्तु सूक्ष्म साम्पराय संयतोंके एक विभक्तिस्थान भी होता है जिसका काल ओघके समान जानना चाहिये।
६३७६. मतिज्ञानी श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें अट्ठाईस, चौवीस और इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका काल कितना है ? सर्व काल है। शेष पदोंका काल ओषके समान है। इसीप्रकार मनःपर्थयज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी और सम्यग्दृष्टियोंके कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि मनःपर्ययज्ञानियों में बारह विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्यकाल एक समय नहीं है।
विशेषार्थ-जो जीव नपुंसक वेदके उदयसे क्षपक श्रेणीपर चढ़ते हैं उनके बारह
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गा० २२ ]
पट्ठाण हित्ती कालागुगमो
३४३
परिहार • तेवीस-बावीस ० के० ? जहण्णुक्क० अंतोमु० । सेसपदाणं सव्वद्धा । असंजद० अट्ठावीस - सत्तावीस छव्वीस - चउवीस- एक्कवीस० के० १ सव्वद्धा । तेवीस -वावीस० जहण्णुक्क० अंतोमु० । णवरि वावीस० जह० एगसमओ । एवं किण्ह णील०, णवरि तेवीस-बावीस ० णत्थि । काउ० असंजदभंगो । णवरि तेवीसं णत्थि । तेउ पम्म० अट्ठावीस सत्तावीस-छब्वीस-चउवीस-एकवीस० के० ? सव्वद्धा । तेवीस - वावीस ० जह० अंतोमु० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० | सुकलेस्सा० मणुसभंगो । णवरि वावीस ० जह० एयसमओ |
विभक्तिस्थानका जघन्यकाल एक समय होता है पर मन:पर्ययज्ञानी जीवोंके नपुंसकवेद और स्त्रीवेदका उदय नहीं पाया जाता । अतः मनः पर्ययज्ञान में बारह विभक्तिस्थानके जघन्यकाल एक समयका निषेध किया है। शेष कथन सुगम है ।
परिहारविशुद्धिसंयतों में तेईस और बाईस विभक्ति स्थानवाले जीवोंका काल कितना है ? जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । तथा शेष पदका सर्वकाल है । असंयतोंमें अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, चौबास और इक्कीस विभक्तिस्थान वाले जीवोंका काल कितना है ? सर्व काल है । तथा तेईस और बाईस विभक्तिस्थानवालोंका जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । इतनी विशेषता है कि बाईस विभक्तिस्थानवालोंका जघन्य काल एक समय है । इसोप्रकार कृष्ण और नील लेश्यावाले जीवों के जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इन दोनों लेश्यावाले जीवोंके तेईस और वाईस विभक्तिस्थान नहीं पाये जाते हैं । कापोत लेश्यावाले जीवोंके विभक्तिस्थानों की अपेक्षा काल असंयतोंके कालके समान जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके तेईस विभक्तिस्थान नहीं पाया जाता है । पीत और पद्म लेश्यावाले जीवोंमें अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, चौबीस और इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका काल कितना है ? सर्व काल है । तथा तेईस और बाईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्यकाल क्रमशः अन्तर्मुहूर्त और एक समय है । तथा उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । शुक्ललेश्यावाले जीवोंके मनुष्योंके समान जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनमें बाईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्यकाल एक समय है ।
विशेषार्थ - बाईस विभक्तिस्थानवाले संयत या संयतासंयत जीवोंके मर कर असंयत होने पर यदि उनके बाईस विभक्तिस्थानका काल एक समय शेष रहता है तो असंयतों के बाईस विभक्तिस्थानका जघन्यकाल एक समय प्राप्त होता है । शुभलेश्यावाले जीवोंके ही दर्शनमोहनी की क्षपणा होती है । अब यदि कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि हो जाने पर लेश्या में परिवर्तन हो तो कारण विशेषसे कापोत लेश्या तक प्राप्त हो सकती है अतः कृष्ण और नील लेश्यामें २३ और २२ विभक्तिस्थान तथा कापोत लेश्यामें २३ विभक्तिस्थान नहीं
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे । पयडिविहत्ती २ ६३७७. अभव्यसिद्धि० छव्वीस० के० ? सव्वद्धा । वेदय० अट्ठावीसचउवीस० के० १ सव्वद्धा । तेवीस-बावीस० ओघभंगो । खइय० एक्कवीस. के. ? सव्वद्धा । सेसप० ओघभंगो। उवसम० अठ्ठावीस० के०? जह० अंतोमु० उक्क. पलिदो० असंखे० भागो । चउवीस० के० ? जह० अंतोमु० उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । सासण. अहावीस० जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो। सम्मामि० अठ्ठावीस-चउवीस० के० ? जह० अंतोमु०, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । अणाहारिय० कम्मइयभंगो।।
एवं कालो समत्तो। ६३७८, अंतराणुगमेण दुविहो णिदेसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण अहाहोता यह सिद्ध हुआ। शेष कथन सुगम है।
६३७७. अभव्योंमें छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका काल कितना है ? सर्व काल है। वेदक सम्यग्दृष्टियोंमें अट्ठाईस और चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका काल कितना है ? सर्व काल है। तेईस और बाईस विभक्तिस्थानवाले वेदक सम्यग्दृष्टियोंका काल ओपके समान है । क्षायिक सम्यग्दृष्टियोंमें इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका कितना काल है ? सर्व काल है । तथा शेष पदोंका काल ओघके समान है। उपशम सम्यग्दृष्टियोंमें अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका काल कितना है ? जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। तथा चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका काल कितना है ? जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल पल्यके असंख्यातवें भाग है। सासादन सम्यग्दृष्टियोंमें अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके अट्ठाईस और चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका काल कितना है ? जघन्यकाल अन्तर्मुहूते और उत्कृष्टकाल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । तथा अनाहारक जीवोंमें कार्मणकाययोगियोंके समान कहना चाहिये।
विशेषार्थ-उपशम सम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि ये तीन सान्तर मार्गणाएं हैं अत: इनमें अपने अपने विभक्तिस्थानोंका यथायोग्य जघन्यकाल प्राप्त हो जाता है । तथा उत्कृष्टकाल जो पल्यके असंख्यावें भाग प्रमाण कहा सो इसका कारण यह है कि उक्त मार्गणास्थानवाले जीव निरन्तर इतने काल तक होते रहते हैं। अतः इनमें सम्भव विभक्तिस्थानोंका काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण बन जाता है। शेष कथन सुगम है।
इस प्रकार कालानुयोगद्वार समाप्त हुआ। ६३७८. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ निर्देश और आदेश
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३४५
गा० २२]
पयडिट्ठाणविहत्तीए अंतराणुगमो वीस-सत्तावीस-छब्बीस-चउवीस-एकवीस० अंतरं केवचिरं कालादो होदि १ णत्थि अंतरं । तेवीस-बावीस-तेरस-बारस-एक्कारस-पंच-चत्तारि-तिण्णि-दोण्णि-एगविहत्तियाणमंतरं केव० ? जह० एगसमओ, उक्क छम्मासा । णवरि पंचवि. वासं सादिरेयं । एवं मणुस-मणुसपज०-पंचिंदिय-पंचि० पञ्ज०-तस-तसपज०-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालिय०-लोभ०-चक्खु०-अचक्खु०-भवासिद्धि-साण्ण-आहारि त्ति वत्तव्वं । मणुसिणीसु अंतरमेवं चेव । वरि उक्क० वासपुधत्तं ।। निर्देश । उनमेंसे ओघनिर्देशकी अपेक्षा अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, चौबीस और २१ विभक्तिस्थानवाले जीवोंका कितना अन्तरकाल है ? इनका अन्तरकाल नहीं है। ये अट्ठाईस आदि उपर्युक्त विभक्तिस्थानवाले जीव सर्वदा पाये जाते हैं। तेईस, बाईस, तेरह, बारह, ग्यारह, पांच, चार, तीन, दो और एक विभक्तिस्थानवाले जीवोंका कितना अन्तरकाल है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह माह है। इतनी विशेषता है कि पांच विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक एक वर्ष है । इसी प्रकार सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, सपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, लोभ कषायवाले, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके कहना चाहिये । स्त्रीवेदी मनुष्योंमें भी इसी प्रकार अन्तर होता है। इतनी विशेषता है कि उनमें उत्कृष्ट अन्तर छह माहके स्थानमें वर्ष पृथक्त्व होता है।
विशेषार्थ-२८, २७, २६, २४. और २१ विभक्तिस्थानवाले जीव सर्वदा पाये जाते हैं अतः इन विभक्तिस्थानोंका ओघसे अन्तर नहीं प्राप्त होता है। जब नाना जीव २३, २२, १३, १२, ११, ५, ४, ३, २ और १ विभक्तिस्थानवाले हो जाते हैं और एक समय बाद दूसरे नाना जीव इन विभक्तिस्थानोंको प्राप्त होते हैं तब उक्त विभक्तिस्थानों का जघन्य अन्तरकाल एक समय प्राप्त होता है। तथा जब छह माह तक कोई जीव न तो दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करते हैं और न क्षपक श्रेणीपर चढ़ते हैं तब उक्त २९ आदि विभक्तिस्थानोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल छह माह प्राप्त होता है। किन्तु पांच विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक एक वर्ष प्राप्त होता है, क्योंकि पुरुषवेद और नपुंसकवेदके उदयसे क्षपक श्रेणीपर चढ़े हुए जीवोंके पांच विभक्तिस्थान होता है और पुरुषवेदके उदयसे किसी जीवके क्षपक श्रेणीपर चढ़नेका उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक वर्ष है तथा नपुंसकवेदके उदयसे क्षपक श्रेणीपर चढ़नेका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। अतः कभी ऐसा समय आता है जब साधिक एक वर्ष तक किसीके पांच विभक्तिस्थान नहीं होता है। किन्तु तब स्त्रीवेदके उदयसे ही जीव क्षपकश्रेणीपर चढ़ते हैं। ऊपर और जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें यह व्यवस्था बन जाती है। अतः उन मार्गणाओंमें उक्त सब विभ
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३४६
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ ६३७६. आदेसेण णेरइएसु वावीस० अंतरं के० १ जह० एगसमओ, उक्क० वासपुधत्तं । सेसप० णत्थि अंतरं । एवं पढमाए पुढवीए, तिरिक्ख-पंचिं० तिरिक्खपंचिं०तिरि०पजत्त देव-सोहम्मादि जाव सबहकाउलेस्सिया ति वत्तव्वं । णवरि सव्वटे वावीस० उक० पलिदो० असंखे० भागो। विदियादि जाव सत्तमि त्ति सव्वपदाणं णत्थि अंतरं । एवं पंचिं० तिरि० जोणिणी-पंचिं० तिरि० अपज्ज०-भवणवाण -जोदिसि -सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय ०-पंचि० अपज ० -पंचकाय ० -तसअपज०-वेउबिय-किण्ह० णील० वत्तव्वं । मणुसअपज्ज. अहावीस-सत्तावीस-छव्वीस अंतरं केव० ? जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । क्तिस्थानोंका अन्तरकाल ओघके समान कहा है। किन्तु स्त्रीवेदी मनुष्योंके २५, २२, १३, १२, ११, ४, ३, २, और १ विभक्तिस्थानोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व प्राप्त होता है, क्योंकि कोई भी स्त्रीवेदी मनुष्य दर्शनमोहनीय और चारित्र मोहनीयकी क्षपणा न करे तो अधिकसे अधिक वर्षपृथक्त्व काल तक नहीं करता है ऐसा नियम है।
३७९. आदेशकी अपेक्षा नाराकयोंमें बाईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है। नारकियोंमें शेष विभक्तिस्थानोंका अन्तरकाल नहीं पाया जाता है। इसीप्रकार पहली पृथिवीमें नारकियोंके तथा सामान्य तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तियंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त जीवोंके, सामान्य देवोंके, सौधर्म स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंके और कापोत लेश्यावाले जीवोंके अन्तरकाल कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि सर्वार्थसिद्धि में बाईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवीतक सभी पदोंका अन्तरकाल नहीं पाया जाता है । इसीप्रकार पंचेन्द्रियतिथेच योनिमती, पंचेन्द्रियतिथंच लब्ध्यपर्याप्त, भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी, समी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रियलब्ध्यपर्याप्त, पांचों स्थावरकाय, त्रस लब्ध्यपर्याप्त, वैक्रियिककाययोगी, कृष्णलेश्यावाले और नील लेश्यावाले जीवोंके अन्तरकाल कहना चाहिये। लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंमें अट्ठाईस, सत्ताईस और छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका अन्तर काल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है।
विशेषार्थ-नरकमें जो २२ विभक्तिस्थानका जघन्य अन्तर एक समय कहा है इसका यह तात्पर्य है कि नरकमें जो पहले २२ विभक्तिस्थानवाले जीव थे उनके एक समयके पश्चात् २२ विभक्ति स्थानवाले जीव वहां पुनः उत्पन्न होसकते हैं। तथा उत्कृष्ट अन्तर जो वर्षपृथक्त्व कहा है इसका यह तात्पर्य है कि यदि २२ विभक्तिस्थानवाले जीवोंका नरकमें उत्पन्न होना बन्द हो जाय तो अधिकसे अधिक वर्षपृथक्त्व काल तक ही ऐसा
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गो० २२ ]
पयडिट्ठाण विहत्तीए अंतराणुगमो
३४७
०
१३८०, ओरालियमस्स० चउवीस एक्कवीस० अंतरं के० ? जह० एगसमओ, उक्क० मासपुधत्तं । वावीस० के० ? जह० एगसमओ, उक्क वासपुधत्तं । सेसपदाणं णत्थि अंतरं । वेउब्वियमिस्स अट्ठावीस सत्तावीस - छव्वीस अंतर केव० १ जह० एगसमओ, उक्क० बारसमुहुत्ता । चदुवीस - एक्कवीस० के० ? जह० एगसमओ, उक्क० मासपुधत्तं । वावीस० अंतर के० १ जह० एगसमओ, उक्क० वासपुधत्तं । आहार० - आहारमिस्स ० अट्ठावीस - चउवीस एक्कवीस० जह० एगसमओ, उक्क० वासधत्तं । कम्मइय० छब्बीस ० णत्थि अंतरं । अट्ठावीस सत्तावीस० जह० एगसमओ,
०
होगा इसके बाद २२ विभक्तिस्थान वाले जीव नियमसे नरकमें उत्पन्न होंगे । किन्तु नरक में वहां सम्भव शेष विभक्तिस्थानोंका अन्तर काल नहीं पाया जाता है। पहली पृथिवी से लेकर सर्वार्थसिद्धि तक ऊपर और जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें भी इसीप्रकार जानना चाहिये | किन्तु सर्वार्थसिद्धि में २२ विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है । इसका यह तात्पर्य है कि यदि कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव मरकर सर्वार्थसिद्धिमें उत्पन्न न हो तो असंख्यात वर्ष तक नहीं होता इसके बाद अवश्य उत्पन्न होता है । दूसरी पृथिवीसे लेकर नीललेश्यातक ऊपर और जितनी मार्गणाएं गिनाई है उनमें अन्तर काल नहीं है । तथा लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंका जो जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर काल है वही उनमें २८, २७ और २६ विभक्तिस्थानोंका अन्तर काल जानना चाहिये ।
१३८०. औदारिक मिश्रकाययोगमें चौबीस और इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल मास पृथक्त्व है । बाईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है । औदारिकमिश्रकाययोगमें शेष पदोंका अन्तरकाल नहीं पाया जाता है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें अट्ठाईस, सत्ताईस और छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल बारह मुहूर्त है । तथा चौबीस और इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल मासपृथक्त्व है। बाईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है । आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोगमें अट्ठाईस, चौबीस, और इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है । कार्मणकाययोग में छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका अन्तरकाल नही पाया जाता है। अट्ठाईस और सत्ताईस बिभ
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३४८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे । पयडिविहत्ती २ उक्क० अंतोमुडुत्तं । चउवीस-एकवीस० अंतरं के० १ जह• एगसमओ, उक्क० मासपुधत्तं । बावीस०जह० एगसमओ, उक्क. वासपुधत्तं ।
६३८१. वेदाणुवादेण इत्थि० तेवीस-तेरस-बारस० जह० एगसमओ, उक्क० वासपुधत्तं । सेसप० णस्थि अंतरं । एवं णवूस० वत्तव्वं । पुरिस० तेवीस-बावीस जह. एगसमओ, उक० छम्मासा । तेरस-वारस-एक्कारस-पंच० जह० एगसमओ, उक्क० वासं सादिरेयं । सेसप० णत्थि अंतरं । अवगद० चउवीस-एक्कवीम० जह० एगक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । चौबीस और इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल मासपृथक्त्व है। बाईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है।
विशेषार्थ-औदारिकमिश्रकाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोगमें २४ और २१ विभक्तिस्थानों का जघन्य अन्तरकाल एक समय स्पष्ट ही है । कि तु उत्कृष्ट अन्तर जो मासपृथक्त्व बतलाया है उसका यह अभिप्राय है कि २४ और २१ विभक्तिस्थानवाले जीवोंका यदि मरण न हो तो एक मासपृथक्त्व तक नहीं होता है । तथा उक्त योगोंमें जो २२ विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व बतलाया है उसका यह अभिप्राय है कि २२ विभक्तिस्थानवाले जीवोंका यदि मरण न हो तो वर्षपृथक्त्व काल तक नहीं होता है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें जो २८, २७ और २६ विभक्तिस्थानोंका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर बतलाया है वह वैक्रियिक मिश्रकाययोगके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकी अपेक्षासे जानना चाहिये। इसी प्रकार आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोगमें २८, २१ और २१ विभक्तिस्थानोंका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोगके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकी अपेक्षासे जानना चाहिये । तथा कार्मणकाययोगमें २८ और २७ विमक्तिस्थानोंका जो जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त बतलाया है इसका यह अभिप्राय है कि २८
और २७ विभक्तिस्थानवाले कोई भी जीव कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक कार्मणकाययोगी नहीं होते।
६३८१.वेदमार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदमें तेईस, तेरह और बारह विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है। त्रीवेदमें शेष पदोंका अन्तर नहीं पाया जाता है। इसी प्रकार नपुंसकवेदमें कथन करना चाहिये। पुरुषवेदमें तेईस और बाईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है। तेरह, बारह, ग्यारह और पांच विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल. एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक एक वर्ष है।
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गा. २२)
पयडिहाणविहत्तीए अंतराणुगमो समओं, उक्क० वासपुधत्तं । सेसाणं ५० जह० एगसमओ, उक्क ० छम्मासा । णवरि पंचवि० वासं सादिरेयं ।।
६३८२. कसायाणुवादेण कोधक० तेवीस-बावीस० जह० एगसमओ, उक्क० छमासा । तेरसादि जाव चत्तारि विहत्ति त्ति जह० एयसमओ, उक्क. वासं सादिरेयं । सेमप० णस्थि अंतरं । एवं माण०, णवरि तिविह० अस्थि । एवं माय०, णवरि पुरुषवेदमें शेष पदोंका अन्तरकाल नहीं पाया जाता है। अपगतवेदियोंमें चौबीस और इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है। शेष पदोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है । इतनी विशेषता है कि यहां पांच विभक्तिस्थानवाले जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक वर्ष है।
विशेषार्थ-ऐसा नियम है कि स्त्रीवेदी और नपुंसकवेदी जीव यदि दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयकी क्षपणा न करें तो वर्षपृथक्त्व काल तक नहीं करते हैं अतः स्त्रीवेद और नपुंसकवेदमें २३, १३ और १२ विभक्तिस्थानोंका जघन्य अन्तर एक समय
और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व कहा है। यदि पुरुषवेदी जीव दर्शनमोहनीयकी क्षपणा न करें तो छह माह तक नहीं करते हैं और यदि चारित्रमोहनीयकी क्षपणा न करें तो साधिक एक वर्ष तक नहीं करते हैं । अतः पुरुषवेदमें २३ और २२ विभक्तिस्थानोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह मास प्राप्त होता है तथा १३, १२, ११, और ५ विभक्तिस्थानोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक वर्ष प्राप्त होता है। उपशमश्रेणीका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व बतलाया है। अतः अपगतवेदमें २१ और २१ विभक्तिस्थानोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व प्राप्त होता है। तथा क्षपकश्रेणीका उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है अतः अपगतवेदमें शेष पदोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना बन जाता है। किन्तु इतनी विशेषता है कि ५ विभक्तिस्थान पुरुषवेदी और नपुंसकवेदी जीवोंके ही होता है
और पुरुषवेदी जीव अधिकसे अधिक साधिक एक वर्ष तक तथा नपुंसकवेदी जीव वर्षपृथक्त्व काल तक क्षपकश्रेणीपर नहीं चढ़ते हैं अतः अवगतवेदमें ५ विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक एक वर्ष कहा।
६३८३.कषायमार्गणाके अनुवादसे क्रोधकषायमें तेईस और बाईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर काल छह महीना है। तथा तेरहसे लेकर चार तकके विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर काल साधिक एक वर्ष है। शेष पदोंका अन्तर काल नहीं पाया जाता है। इसीप्रकार मानकषायमें जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि मानकषायमें तीन
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जयंधवलासहिदे कसायपाहुडे । पयडिविहत्ती २ दोण्हं वि० अत्थि । अकसा० चउवीस-एक्कवीस० अंतरं के० १ जह० एयसमओ, उक्क. वासपुधत्तं । एवं जहाक्खाद० । एवं सुहुमसांप०, णवरि एयवि० जह० एयसमओ, उक्क० छम्मासा । मदि-सुद-विहंगअण्णाण. एइंदियभंगो। एवमभवसिद्धि० मिच्छादि असणि ति । आभिणि-सुद० अट्ठावीस-चउवीस-एकवीस० णत्थि अंतरं । सेसपदाणं विभक्तिस्थान भी पाया जाता है। इसीप्रकार मायाकषायमें जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि मायाकषायमें दो विभक्तिस्थान भी पाया जाता है। कषायरहित जीवोंमें चौबीस और इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तर काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है। इसीप्रकार य ख्यात संयत और सूक्ष्मसांपरायिक संयतोंमें कथन करना चाहिये। इतनी विशेषता है कि सूक्ष्मसांपरायिक संयतोंमें एक विभक्तिस्थानका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर काल छह महीना है।
विशेषार्थ-क्रोधकषायी, मानकषायी और मायाकषायी जीव यदि दर्शनमोहनीयकी क्षपणा न करें तो अधिक से अधिक छ महीना काल तक नहीं करते हैं इसके पश्चात् अवश्य करते हैं और इसीलिये इन कषायोंमें २३ और २२ विभक्तिस्थानोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना कहा है। तथा उक्त कषायवाले जीव यदि क्षपक श्रेणीपर नहीं चढ़ते हैं तो अधिकसे अधिक साधिक एक वर्ष तक नहीं चढ़ते हैं और इसीलिये क्रोधकषायमें १३, १२,११, ५ और ४ विभक्तिस्थानोंका, मानकषायमें १३, १२, ११, ५, ४ और ३ विभक्तिस्थानोंका तथा माया कषायमें १३, १२, ११, ५, ४, ३ और २ विभक्तिस्थानोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक एक वर्ष कहा है। इन कषायोंमें शेष विभक्तिस्थानोंका अन्तरकाल नहीं पाया जाता है। उपशमश्रेणीका उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्ष पृथक्त्व कहा है और इसीलिये अकषायी जीवोंके २४ और २१ विभक्तिस्थानोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व प्रमाण होता है। तथा अकषायी जीवोंके समान यथाख्यातपंयत और सूक्ष्मसाम्पराय संयत जीवोंके जानना। किन्तु इतनी विशेषता है कि सूक्ष्मसाम्परायसंयतके एक विभक्तिस्थान भी होता है तथा क्षपक सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान अधिकसे अधिक छह महीनाके पश्चात् नियमसे होता है, अतः सूक्ष्मसाम्पराय संयतोंके एक विभक्तिस्थानका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना कहा है। ___ मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी और विभंगज्ञानी जीवोंमें एकेन्द्रियोंके समान जानना चाहिये। तथा इसीप्रकार अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके कथन करना चाहिये ।
विशेषार्थ-ऊपर जितने मार्गणास्थान गिनाये हैं उनमें, जहां जितने विभक्तिस्थान सम्भव हैं उनका अन्तरकाल नहीं पाया जाता यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
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गा० २२ ]
पयडिट्ठाणविहत्तीए अंतराणुगमो
ओघभंगो । एवं संजद-सामाइय-छेदो०-संजदासंजद-सम्मादि०-वेदय० वत्तव्वं । णवरि वेदय० एकवीस० णत्थि । ओहि-मणपज० एवं चेव, णवरि वासपुधत्तं । एवं परिहार० ओहिदंसण० वत्तव्बं । असंजद०-तेउ०-पम्म० सुक्क० अप्पणो पदाणं ओघभंगो । खइय० एकवीस० णत्थि अंतरं । सेसप० ओघभंगो। उवसम० अहावीस० जह० एगसमओ, उक्क० चउवीसमहोरत्ती० । एवं चउवीसविह० । सासण० अटावीस० के० ? जह० एयसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो। सम्मामिच्छाइही० अट्ठावीस-चउवीस० जह० एयसमओ, उक० पलिदो० असंखे० भागो। अणाहार० ___ मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानी जीवोंमें अट्ठाईस, चौबीस और इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं पाया जाता है। तथा शेष पदोंका अन्तरकाल ओघके समान है । इसीप्रकार संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापना संयत, संयतासंयत, सम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टियोंके कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि वेदकसम्यक्त्वमें इक्कीस विभक्तिस्थान नहीं पाया जाता है । अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानमें भी इसीप्रकार कथन करना चाहिये। इतनी विशेषता है कि उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व कहना चाहिये । इसीप्रकार परिहार विशुद्धिसंयत और अवधिदर्शनमें कथन करना चाहिये ।
विशेषार्थ-वेदकसम्यक्त्वमें १३ आदि विभक्तिस्थान तो होते ही नहीं। साथ ही २१ विभक्तिस्थान भी नहीं होता । अत: मातज्ञानी और श्रुतज्ञानी जीवोंके २३ और २२ तथा १३ आदि स्थानोंका अन्तरकाल जहां ओघके समान होगा वहां वेदकसम्यक्त्वमें २३ और २२ विभक्तिस्थानोंका अन्तरकाल भी ओघके समान होगा। तथा अवधिज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी जीव अधिकसे अधिक वर्षपृथक्त्व काल तक न तो दर्शनमोहनीयकी और न चारित्रमोहनी यकी क्षपणा करते हैं अतः इनके २३, २२ और १३ आदि विभक्तिस्थानोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षष्टथक्त्व कहा है । तथा अवधिज्ञानी जीवोंके समान परिहारविशुद्धिसंयत और अवधिदर्शनी जीवोंके जानना चाहिये । किन्तु परिहारविशुद्धिसंयतमें १३ आदि विभक्तिस्थान नहीं होते ।
असंयतोंमें तथा पीत, पद्म और शुक्ललेश्यामें अपने अपने पदोंका अन्तरकाल ओघके समान कहना चाहिये । क्षायिकसम्यक्त्वमें इक्कीस विभक्तिस्थानका अन्तरकाल नहीं पाया जाता है। शेष पदोंका अन्तरकाल ओघके समान है। उपशमसम्यक्त्वमें अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल चौवीस दिनगत है । इसी प्रकार उपशमसम्यग्दृष्टियोंके चौबीस विभक्तिस्थानका अन्तरकाल जानना चाहिये। सासादनमें अट्ठाईस विभक्तिस्थानका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। सम्यग्मिथ्यादृष्टियों में अट्ठाईस और चौबीस विभक्तिस्थानवालोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ कम्मइयभंगो।
एवमंतरं समत्तं । ६३८३. भावाणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सव्वपदाणं को भावो ? ओदइओ भावो । एवं णेदव्वं जाव अणाहारए त्ति । णवरि अप्पप्पणो पदाणि जाणियव्वाणि ।।
एवं भावो समत्तो। * अप्पाबहु।
६३८४. पुव्वं परिमाणादिना अवगयपदाणं थोवबहुत्तं परूवेमो ति जइवसहाइरएण कयपइजावयणमेयं । तम्मि जीव-अप्पाबहुए भण्णमाणे पुवं ताव पदविसयकालाणमप्पाबहुअं उच्चदे, तेण विणा जीवप्पाबहुअस्स अवगमोवायाभावादो। तं जहाकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अनाहारकोंका अन्तरकाल कार्मणकाययोगियोंके अन्तरकालके समान जानना चाहिये।
इस प्रकार अन्तरानुयोगद्वार समाप्त हुआ।
३३८३. भावानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से ओघनिर्देशकी अपेक्षा अट्ठाईस आदि सभी पदोंका कौनसा भाव है ? औदयिकभाव है। इसीप्रकार अनाहारकों तक कथन करते जाना चाहिये । इतनी विशेषता है कि सर्वत्र अपने अपने पद जानकर कथन करना चाहिये।
विशेषार्थ-अट्ठाईस आदि सब पद मोहनीयके उदयके रहते हुए होते हैं इस अपेक्षासे यहां अट्ठाईस आदि सबपदोंका औदयिक भाव कहा है। तात्पर्य यह है कि यद्यपि उपशान्तमोही जीवके २४ और २१ विभक्तिस्थान मोहनीयके उदयके अभावमें भी होते हैं तो भी वे स्थान उदयके अनुगामी हैं, क्योंकि ऐसा जीव उपशान्तमोह गुणस्थानसे नियमसे च्युत होकर पुनः मोहनीयके उदयसे संयुक्त हो जाता है, अतः २८ आदि विभक्तिस्थानोंका औदायिक भाव कहने में कोई आपत्ति नहीं है।
इसप्रकार भावानुयोगद्वार समाप्त हुआ। * अब अल्पबहुत्वानुयोगद्वारका कथन करते है ।
६३८४.पहले संख्या आदिके द्वारा जाने गये पदोंके अल्पबहुत्वका कथन करते हैं, इस बातका ज्ञान करानेके लिये यतिवृषभ आचार्यने यह प्रतिज्ञावचन किया है। उसमें भी जीव विषयक अल्पबहुत्वका कथन करनेसे पहले अट्ठाईस आदि पदोंके कालोंका अल्पबहुत्व कहते हैं, क्योंकि इसके बिना जीवविषयक अल्पबहुत्वके ज्ञान करानेका कोई दूसरा उपाय नहीं है । पदविषयक कालोंका अल्पबहुत्व इसप्रकार है
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गा० २२ ]
vastuferre
बहु श्रानुगमो
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३८५. काल - अप्पा बहुआणुगमेण दुविहो णिद्देसो, ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सव्वथोवो पंचविहत्तियकालो । लोभसुहुमसंगह किट्टीवेदयकालो संखेजगुणो, पंचविहचियसमयूण- दो आवलिकालेण संखेजावलियमेतसुडुमार्कही वेदयकालम्म भागे हिदे संखेजरूवोवलंभादो | लोभबिदिय बादर किट्टीवेदयकालो विसेसाहियो । केत्तियमेत्तो बिसेसो ? संखेज्जावलियमेत्तो । उवरि वि जत्थ विसेसाहियं भणिहिदि तत्थ तत्थ सो विसेसो संखेज्जावलियमेत्तोत्ति घेत्तव्वो । लोभ० पढमसंगहकिट्टीवेदयकालो विसेसाहिओ । मायाए तदियसंगह किट्टीवेदयकालो विसेसाहिओ । तिस्से चैव विदियसंगह किट्टी वेदयकालो विसे० । पढमसंगहाकट्टी वेदयकालो विसे० | माणत दिय संगह किट्टी वेदयकालो विसे० । विदियसंगह किडीवेदयकालो विसे । पढमसंगह किहीवेदयकालो विसेसाहिओ । कोहतदियसंगह किडीवेदयकालो विसे० । विदियसंगह किट्टीवेदयकालो विसे० । पढमसंग किट्टी वेदय कालो
विशेषार्थ-यहां अल्पबहुत्वके दो भेद कर दिये हैं एक काल अल्पबहुत्व और दूसरा जीव अल्पबहुत्व | काल अल्पबहुत्वके द्वारा विभक्तिस्थान विषयक कालोंके अल्पबहुत्वका विचार किया गया है और जीव अल्पबहुत्व के द्वारा एक आदि विभक्तिस्थानवाले जीवों के अल्पबहुत्वका विचार किया गया है ।
$ ३८५. काल-अल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से ओधकी अपेक्षा पांच विभक्तिस्थानका काल सबसे थोड़ा है इससे लोभी सूक्ष्म संग्रहकृष्टिका वेदककाल संख्यातगुणा है। पांच विभक्तिस्थानका जो एक समय कम दो आवली काल कहा है उसका लोभके सूक्ष्म संग्रहकृष्टि के संख्यात आवलीप्रमाण वेदकाल में भाग देनेपर संख्यात अंक प्राप्त होते हैं। इससे जाना जाता है कि पांच विभक्तिस्थानके कालसे लोभकी सूक्ष्म संग्रहकृष्टिका वेदक काल संख्यातगुणा है । इससे लोभकी दूसरी बादरकृष्टिका वेदककाल विशेष अधिक है । यहां विशेषका प्रमाण कितना है ? संख्यात आवली है । आगे भी जहां जहां पूर्व स्थानके कालसे उससे आगे स्थानका काल विशेष अधिक कहा जायगा वहां वह विशेष संख्यात आवली प्रमाण लेना चाहिये । लोभकी दूसरी बादरकृष्टिके कालसे लोभकी पहली संग्रहकृष्टिका बेदक काल विशेष अधिक है। इससे मायाकी तीसरी संग्रहकृष्टिका वेदक काल विशेष अधिक है । इससे मायाकी दूसरी संग्रहकृष्टिका वेदककाल विशेष अधिक है । इससे मायाकी पहली संग्रहकृष्टिका वेदककाल विशेष अधिक है । इससे मानकी तीसरी संग्रहकृष्टिका वेदककाल विशेष अधिक है । इससे मानकी दूसरी संग्रहकृष्टिका वेदककाल विशेष अधिक है । इससे मानकी पहली संग्रहकृष्टिका वेदककाल विशेष अधिक है । इससे क्रोधकी तीसरी संग्रहकृष्टिका वेदककाल विशेष अधिक है । इससे क्रोधकी दूसरी संग्रहकृष्टिका वेदककाल
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जयघवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पयडिविहत्ती २
विसे० । चदुण्हं संजलणाणं किट्टीकरणद्धा संखेजगुणा । अस्सकण्णकरणद्धा विसे० छण्णोकसायखवणद्धा त्रिसे० । इत्थि० खवणद्धा विसे० । णत्रुंस० खत्रणद्धा विसे० । तेरसविहत्तियकालो संखेजगुणो, बावीसविहत्तियकालो विसे, तेवीसविहत्तियकालो विसेसाहिओ । सत्तावीसविहत्तिय कालो असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखे० भागो | एकवीसविहत्तियकालो असंखेञ्जगुणो । चउवीसविहत्तियकालो संखेजगुणो । अट्ठावीसविहत्तियकालो विसे० । केत्तियमेतो विसेसो ? तिणि पालदो ० असंखेजदिभागमेत्तो । कुदो १ चउवी सविहत्तियउक्कस्सकालो अंतोमुहुत्तन्भहियवे छावट्टिसागरोममेतो । तं पेक्खिय अट्ठावीसविहत्तियकालस्स तीहि पलिदो० असंखेज्जदिभागेहि अन्भहियबेछावद्विसागरोवममेत्तस्स विसेसाहियत्तुवलंभादो । छवीसविहत्तियकालो अनंतगुणो । चउन्हं तिण्डं दोण्हमेकिस्से विहत्तियकालो जहण्णओ वि अत्थि उकस्सओ वि । तत्थ परोदएण चडिदस्स जहण्णओ । सोदएण चडिदस्स उक्कस्सो होदि । पंचवित्तिय पहुडि जाव तेवीसविहत्तिओ त्ति ताव एदेसिं जहण्णुक्कस्सकालो सरिसो । कुदो विशेष अधिक है । इससे क्रोधकी पहली संग्रहकृष्टिका वेदककाल विशेष अधिक है । इससे चारों संज्वलनोंके कृष्टिकरणका काल संख्यातगुणा है । इससे अश्वकर्णकरणका काल विशेष अधिक है। इससे छह नोकषायोंके क्षपणका काल विशेष अधिक है । इससे स्त्रीवेदके क्षपणका काल विशेष अधिक है। इससे नपुंसकवेदके क्षपणका काल विशेष अधिक है । इससे तेरह विभक्तिस्थानका काल संख्यातगुणा है । इससे बाईस विभक्तिस्थानका काल संख्यातगुणा है । इससे तेईस विभक्तिस्थानका काल विशेष अधिक है । इससे सत्ताईस विभक्तिस्थानका काल असंख्यातगुणा है । गुणकारका प्रमाण क्या है ? यहां गुणकारका प्रमाण पस्योपमका असंख्यातवां भाग है । इससे इक्कीस विभक्तिस्थानका काल असंख्यात - गुणा है। इससे चौबीस विभक्तिस्थानका काल संख्यातगुणा है । इससे अट्ठाईस विभक्तिस्थानका काल विशेष अधिक है । यहां विशेषका प्रमाण कितना है ? पल्योपमके तीन असंख्यातवें भागमात्र है; क्योंकि चौबीस विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त अधिक एकसौ बीस सागर है । और अट्ठाईस विभक्तिस्थानका काल पल्योपमके तीन असंख्यातवें भागों से अधिक एकसौ बत्तीस सागर प्रमाण है । अतः इन दोनों कालोंको देखते हुए चौबीस विभक्तिस्थान के कालसे अट्ठाईस विभक्तिस्थानका काल विशेष अधिक है यह सुनिश्चित होता है । अट्ठाईस विभक्तिस्थानके कालसे छब्बीस विभक्तिस्थानका काल अनन्तगुणा है । चार, तीन, दो और एक विभक्तिस्थानका काल जघन्य भी पाया जाता है और उत्कृष्ट भी । उनमें से अन्य कषायके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़े हुए जीवके जघन्य काल पाया जाता है और स्वोदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़े हुए जीवके उत्कृष्ट काल पाया जाता है । पांच विभक्तिस्थान से लेकर तेईस विभक्तिस्थान तक ५, ११, १२, १३, २१, २२, २३
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गा० २२]
पयडिट्ठाणविहत्तीए अप्पाबहुप्राणुगमो
णव्वदे ? आइरियपरंपरागयसयलसुत्ताविरुद्धवक्खाणादो। णवरि तेरस-बारसविहत्तियकालो जहण्णो वि अस्थि सो एत्थ ण विवक्खिओ।
एवमोघप्पाबहुअं समत्तं । ३८६. आदेसेण णेरइएसु सव्वथोवो बावीसवि० कालो। सत्तावीसविह कालो असंखेजगुणो, एकवीसविह० कालो असंखेजगुणो, चउवीसविह० संखेजगुणो, छव्वीस-अहावीसविहत्तियकालो विसेसो । पढमाए पुढवीए सव्वत्थोवो वावीसवि. कालो, सत्तावीसविह० असंखेजगुणो, एकवीसविह० असंखेजगुणो, चउवीसविह० इन सात विभक्तिस्थानोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल समान है।
शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-आचार्य परंपरासे सकल सूत्रोंका जो अविरुद्ध व्याख्यान चला आ रहा है, उससे जाना जाता है कि उक्त विभक्तिस्थानोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल समान है। यहां इतनी विशेषता है कि तेरह और बारह विभक्तिस्थानोंका जघन्य काल भी पाया जाता है पर उसकी यहां विवक्षा नहीं की गई है।
विशेषार्थ-क्रोधके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़े हुए जीवके चार विभक्तिस्थानका, मानके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़े हुए जीवके तीन विभक्तिस्थानका, मायाके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़े हुए जीवके दो विभक्तिस्थानका और लोभके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़े हुए जीवके एक विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट काल प्राप्त होता है । तथा इनसे अतिरिक्त कषायके उदयसे आपकश्रेणीपर चढ़े हुए जीवके चार आदि विभक्तिस्थानोंका जघन्य काल प्राप्त होता है। किन्तु ऊपर लोभकी सूक्ष्म संग्रह कृष्टिसे लेकर अश्वकर्णकरणके काल तक जो अल्पबहुत्व बतलाया है वह क्रोधके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़े हुए जीवकी प्रधानवासे जानना चाहिये । तथा जो जीव नपुंसकवेदके उदयसे क्षपक श्रेणीपर चढ़ता है उसके १३ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल प्राप्त होता है और बारह विभक्तिस्थानका जघन्य । तथा जो जीव पुरुषवेद या स्त्रीवेदके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़ता है उसके १३ विभक्तिस्थानका जघन्य काल प्राप्त होता है और १२ विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट । किन्तु इस अल्पबहुत्वमें १३ और १२ विभक्तिस्थानके जघन्य कालके कथनकी विवक्षा नहीं की गई है।
इस प्रकार ओघ अल्पबहुत्व समाप्त हुआ।
३८६.आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें बाईस विभक्तिस्थानका काल सबसे थोड़ा है। इससे सचाईस विभक्तिस्थानका काल असंख्यातगुणा है । इससे इक्कीस विभक्तिस्थानका काल असंख्यातगुणा है। इससे चौबीस विभक्तिस्थानका काल संख्यातगुणा है । इससे छब्बीस और अट्ठाईस विभक्तिस्थानका काल विशेष अधिक है। .. पहली प्रथिवीमें वाईस विभक्तिस्थानका काल सबसे थोड़ा है। इससे सचाईम
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३५६
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे । पयडिविहत्ती २ विसेसाहिओ। केत्तियमेत्तेण ? पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेण । छब्बीस अहावीस-विहत्तियाणं काला बे वि सरिसा विसेसाहिया। केत्तियमेत्तेण ? अंतोमुत्तेण । विदियादि जाव सत्तमि ति सव्वत्थोवो सत्तावीसविह० कालो। चउवीसवि• कालो असंखेजगुणो। छव्वीस-अहावीसविह० कालो दो वि सरिसा विसेसाहिया। एवं भवण-वाण जोदिसि. वत्तव्वं । ___ १३८७. तिरिक्खगईए तिरिक्खेसु सव्वत्थोवो बावीसविह• कालो । सत्तावीसविह० कालो असंखेजगुणो। चउवीसविह० कालो असंखजगुणो । एकवीसविह० कालो विसे०। केत्तियमेत्तेण ? मासपुधत्तेण सादिरेएण । अहावीसविह० कालो वि०॥ के० मेतेण? पलिदो० असंखे० भागेण । छव्वीसविह० कालो अणंतगुणो । एवं दोण्हं पंचिंदियतिरिक्खाणं । णवरि एकवीस-विहत्तियकालस्सुवरि अट्ठावीस-छब्बीसविहत्तियकालो विसेसा० । केत्तियमेत्तेण? पुवकोडिपुधत्तेण । एवं जोगिणीणं । णवरि वावीसविभक्तिस्थानका काल असंख्यातगुणा है। इससे इक्कीस विभक्तिस्थानका काल असंख्यातगुणा है। इससे चौबीस विभक्तिस्थानका काल विशेष अधिक है। कितना विशेष अधिक है ? पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण विशेष अधिक है । छब्बीस और अट्ठाईस विभक्तिस्थानोंके काल परस्पर समान होते हुए भी चौबीस विभक्तिस्थानके कालसे विशेष अधिक हैं। कितने विशेष अधिक हैं ? अन्तर्मुहूर्तप्रमाण विशेष अधिक हैं।
दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक प्रत्येक पृथिवीमें सत्ताईस विभक्तिस्थानका काल सबसे थोड़ा है। इससे चौबीस विभक्तिस्थानका काल असंख्यातगुणा है । छब्बीस और अट्ठाईस विभक्तिस्थानके काल परस्पर समान होते हुए भी चौबीस विभक्तिस्थानके काल से विशेष अधिक हैं। इसीप्रकार भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंके कहना चाहिये ।
३८७.तियंचगतिमें तिथंचोंमें बाईस विभक्तिस्थानका काल सबसे थोड़ा है। इससे सत्ताइस विभक्तिस्थानका काल असंख्यातगुणा है। इससे चौबीस विभक्तिस्थानका काल असंख्यातगुणा है। इससे इक्कीस विभक्तिस्थानका काल विशेष अधिक है। कितना विशेष अधिक है ? साधिक मासपृथक्त्व विशेष अधिक है। इक्कीस विभक्तिस्थानके कालसे अट्ठाईस विभक्तिस्थानका काल विशेष अधिक है। कितना विशेष अधिक है ? पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण विशेष अधिक है। अट्ठाईस विभक्तिस्थानके कालसे छब्बीस विभक्तिस्थानका काल अनन्तगुणा है । इसीप्रकार पंचेन्द्रिय तियच और पंचेन्द्रिय पर्याप्त तियंचोंके कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इन दोनोंके इक्कीस विभक्तिस्थानके कालसे अद्वाईस और छब्बीस विभक्तिस्थानोंका काल विशेष अधिक कहना चाहिये । कितना विशेष अधिक कहना चाहिये ? पूर्वकोटि पृथक्त्व विशेष अधिक कहना चाहिये। इसीप्रकार योनिमती पंचेन्द्रिय तिर्यचोंके कथन कहना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनके
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गा० २२)
पयडिट्ठाणविहत्तीए अप्पाबहुप्राणुगमो
एकवीसविहत्तिया णत्थि। पंचिंदियतिरिक्ख-मणुस्सअपजत्तएसु णत्थि कालअप्पाबहुअं। कुदो ? अट्ठावीस-सत्तावीस-छव्वीसवि० उक्कस्सकालाणं तत्थ सरिसत्तवलंभादो। अथवा पंचिंदियतिरिक्ख-मणुस्सअपजत्तएसु सम्वत्थोवो छव्वीस-सत्तावीसअष्ठावीसवि० जहण्णकालो। उक्कस्सओ असंखेजगुणो ।
१३८८. मणुस्सेसु पंचविहत्तिय-कालप्पहुडि जाव तेवीसविहत्तियकालो त्ति ताव मूलोघभंगो। तदो सत्तावीसविह० कालो असंखजगुणो। चउवीसविह० कालो असंखेजगुणो । एक्कवीसविहत्तियकालो विसेसाहिओ पुव्वकोडितिभागेण सादिरेएण । छव्वीस-अष्टावीसविह० कालो विसेसाहिओ पुवकोडिपुधत्तेण । एवं मणुसपजचाणं । मणुसिणीसु लोभसुहुमकिट्टीवेदय-कालप्पहुडि जाव तेवीसविहत्तियकालो ति ताव मूलोघभंगो । तदो तेवीस-विहत्तियकालस्सुवरि एक्कवीसविहत्तियकालो संखजगुणो, सत्तावीसविह० कालो असंखेजगुणा, चउवीसविहत्तियकालो असंखेजगुणो, छब्बीसअहावीसविह. कालो विसे० । बाईस और इक्कीस विभक्तिस्थान नहीं पाये जाते हैं। पंचेन्द्रिय तियंच लब्ध्यपर्याप्त और मनुष्य लब्ध्यपर्याप्त जीवोंमें कालविषयक अल्पबहुत्व नहीं पाया जाता है, क्योंकि इन जीवोंके अट्ठाईस, सत्ताईस और छब्बीस विभक्तिस्थानोंका उत्कृष्टकाल समान पाया जाता है। अथवा पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्त और मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तकों में छब्बीस, सत्ताईस और अट्ठाईस विभक्तिस्थानोंका जघन्यकाल सबसे थोड़ा है और उत्कृष्टकाल असंख्यातगुणा है।
३८८. मनुष्योंमें पाँच विभक्तिस्थानके कालसे लेकर तेईस विभक्तिस्थानके काल तकके स्थानोंका कालविषयक अल्पबहुत्व मूलोधके समान है। तदनन्तर तेईस विभक्तिस्थानके कालसे सत्ताईस विभक्तिस्थानका काल असंख्यातगुणा है। इससे चौबीस विभक्तिस्थानका काल असंख्यातगुणा है । इससे इक्कीस विभक्तिस्थानका काल विशेष अधिक है। यहां विशेष अधिकका प्रमाण साधिक पूर्वकोटिका त्रिभाग है। इक्कीस विभक्तिस्थानके कालसे छब्बीस और अट्ठाईस विभक्तिस्थानका काल विशेष अधिक है। यहां विशेष अधिकका प्रमाण पूर्वकोटिपृथक्त्व है । इसीप्रकार मनुष्य पर्याप्तकोंके कथन करना चाहिये । स्त्रीवेदी मनुष्यों में लोभकी सूक्ष्मकृष्टिके वेदककालसे लेकर तेईस विभक्तिस्थान तक काल विषयक अल्पबहुत्व मूलोधके समान जानना चाहिये । तदनन्तर तेईस विभक्तिस्थानके कालसे इकीस विभक्तिस्थानका काल संख्यातगुणा है। इससे सत्ताईस विभक्तिस्थानका काल असंख्यातगुना है। इससे चौबीस विभक्तिस्थानका काल असंख्यातगुणा है । इससे छब्बीस और अट्ठाईस विभक्तिस्थानका काल विशेष अधिक है।
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__ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ ६३८६. देवेसु सव्वत्थोवो वावीसविह० कालो। सत्तावीसविह० असंखेजगुणो। छब्बीसविह० असंखेजगुणो। एकवीस-चवीस-अहावीसवि० कालो विसेसाहिओ । सोहम्मादि जाव उवरिमगेवज ति ताव सव्वत्थोवो वावीसवि० कालो, सत्तावीसवि० कालो असंखेजगुणो, एकवीस-चउवीस-छब्बीस-अहावीसवि० काला चत्तारि वि सरिसा असंखेजगुणा । अणुद्दिसादि-अणुत्तरविमाणवासियदेवेसु सव्वत्थोवो वावीसवि० कालो । एकवीस-चउवीस अहावीविह० काला तिण्णि वि सरिसा असंखेजगुणा। ___३६०. इंदियाणुवादेण एइंदिएसु सव्वत्थोवो सत्तावीसवि० कालो, अठ्ठावीसविह० कालो असंखेजगुणो, छव्वीसविह० कालो अणंतगुणो। एवं जाणिदण णेदव्वं जाव अणाहारए त्ति ।
एवं काल-अप्पाबहुअं समत्तं । ६३६१.संपहि कालमस्सिदण जीव-अप्पाबहुअं परूवणहं जइवसहाइरियो उत्तरसुत्तं
३८६.देवोंमें बाईस विभक्तिस्थानका काल सबसे थोड़ा है। इससे सत्ताईस विभक्तिस्थानका काल असंख्यातगुणा है । इससे छब्बीस विभक्तिस्थानका काल असंख्यातगुणा है। इससे इक्कीस, चौबीस और अट्ठाईस विभक्तिस्थानका काल विशेष अधिक है। सौधर्म कल्पसे लेकर उपरिम प्रैवेयक तक बाईस विभक्तिस्थानका काल सबसे थोड़ा है। इससे सत्ताईस विभक्तिस्थानका काल असंख्यातगुणा है। इक्कीस, चौबीस, छब्बीस और अट्ठाईस विभक्तिस्थानोंके चारों काल परस्परमें समान होते हुए भी सत्ताईस विभक्तिस्थानके कालसे असंख्यातगुणे हैं। अनुदिशसे लेकर अनुत्तर विमान तक रहनेवाले देवोंमें बाईस विभक्तिस्थानका काल सबसे थोड़ा है। इक्कीस, चौबीस और अट्ठाईस विभक्तिस्थानोंके काल परस्परमें समान होते हुए भी बाईस विभक्तिस्थानके कालसे असंख्यातगुणे हैं।
६३९०.इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियोंमें सत्ताईस विभक्तिस्थानका काल सबसे थोड़ा है। इससे अट्ठाईस विभक्तिस्थानका काल असंख्यातगुणा है। इससे छब्बीस विभक्तिस्थानका काल अनन्तगुणा है । इसीप्रकार जानकर अनाहारक मार्गणा तक कथन करना चाहिये।
विशेषार्थ-यहां शेषमार्गणाओंमें विभक्तिस्थानोंके काल विषयक अल्पबहुत्वका कथन नहीं किया है किन्तु जानकर कथन कर लेनेकी सूचना की है। सो पहले सब मार्गणाओं में एक जीवकी अपेक्षा कालका कथन कर आये हैं । अतः उसके अनुसार यहां अल्पबहुत्वका विचार करलेना चाहिये।
इस प्रकार कालविषयक अल्पबहुत्व समाप्त हुआ।
६३९१.अब कालका आश्रय लेकर जीवविषयक अल्पबहुत्वके कथन करनेके लिये पतिवृषभ भाचार्य आगेका सूत्र कहते हैं
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गा० २२ ] पयडिट्ठाणविहत्तीए अप्पाबहुप्राणुगमो
३५६ भणदि
* सव्वयोवा पंचसंतकम्मविहत्तिया 10
३६२. जीवा इदि एत्थ वत्तव्वं ? ण, अत्थावत्तीदो चेव तदवगमादो । कुदो एदेसिं थोवत्तं ? समयूणदोआवलियाहि संचिदत्तादो । (* एकसंतकम्मविहत्तिया संखेजगुणा ।।
३६३. कुदो ? संखेज्जावलियकालभंतरे संचिदत्तादो। संखेजावलियत्तं कुदो णवदे ? उच्चदे, तं जहा-लोभसुहुमकिट्टीवेदयकालं आणियट्टिम्म विदियबादरलोभ संगहकिट्टि वेदय-काल (-किहिवेदयकालं ) समयूणदोआवलिऊणलोभपढमसंगहकिट्टीवेदयकालं च धेतूण एगविहत्तियकालो होदि । पुणो एदे तिष्णि वि काला पादेक्कं संखेजावलियमेत्ता अण्णोणं पेक्खिय संखेज्जावलियाहि समया (समन्भ) हिया । तेण एकिस्से
* पांच विभक्तिस्थानवाले जीव सबसे थोड़े हैं। ६३९२.शंका-इस उपर्युक्त सूत्र में 'जीवा' इस पदको और निक्षिप्त करना चाहिये था ?
समाधान-नहीं, क्योंकि उक्त सूत्रमें 'जीवा' इस पदके नहीं रखने पर भी अर्थापत्तिसे ही उसका ज्ञान हो जाता है।
शंका-ये पांच विभक्तिस्थानवाले जीव अन्य सभी विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे थोड़े क्यों हैं ?
समाधान-क्योंकि पांच विभक्तिस्थानका काल एक समय कम दो आवली है, अतः इतने काल में सबसे थोड़े ही जीव संचित होंगे।
* पांच विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे एक विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं।
६३९३. शंका-ये एक विभक्तिस्थानवाले जीव पांच विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे संख्यातगुणे क्यों हैं ?
समाधान-क्यों कि एक विभक्तिस्थानका काल संख्यात आवली है जो कि पांच विभक्तिस्थानके कालसे संख्यातगुणा है। अतः पांच विभक्तिस्थानके कालसे संख्यातगुणे कालके भीतर संचित एक विभक्तिस्थानवाले जीव पांच विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे संख्यातगुणे ही होंगे।
शंका-एक विभक्तिस्थानका काल संख्यात आवली है यह किससे जाना जाता है ?
समाधान-इस शंकाका समाधान इसप्रकार है-लोभकी सूक्ष्मकृष्टिका वेदककाल तथा अनिवृत्तिकरणमें लोभकी दूसरी बादर संग्रहकृष्टिका वेदककाल और लोभकी पहली संग्रहकृष्टिका एक समयकम दो आवलीसे न्यून वेदककाल इन तीनों कालोंको मिलाकर एक विभक्तिस्थानका काल होता है, इससे जाना जाता है कि एक विभक्तिस्थानका काल संख्यात आवलीप्रमाण है। तथा ये तीनों ही काल अलग अलग संख्यात आवलीप्रमाण हैं और एक दूसरेसे संख्यात आवली अधिक हैं। इससे जाना जाता है कि एक विभक्तिस्थानका
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [ पयडिविहत्ती २ विहत्तियकालो संखेजगुणो। लोमतदियवादरकिट्टीवेदयकालो एकिस्से विहात्तिए कालभंतरे किण्ण गहिदो ? ण, तिस्से सगसरूवेण उदयाभावेण वेदयकालाभावादो। अट्ठसमयाहियछम्मामभंतरे जेण अह चेव सिद्धसमया होति तेण समयूण-दोआवलियमेत्तकालभंतरे संखेज्जावलियासु च अहसमयसंचओ सव्वो लब्भइ त्ति जीव-अप्पाबहुअसाहण्ठं परूविदकाल-अप्पाबहुअंणिरत्थयमिदि ? होदि णिरत्थयं जदि अहसमयाहियछम्मासम्भंतरे चेव अहसिद्धसमया होति ति णियमो, किंतु अंतोमुहुत्त-दियसपक्ख-मासभंतरे वि अट्ठसिद्धसमया वि होंति, सत्त-छ-पंच-चत्तारि-ति-दु-एक्कसिद्धसमया वि होति अणियमेग तेण कालपडिभागेणेव संचओ त्ति काल-अप्पाबहुअंण काल पांच विभक्तिस्थानके कालसे संख्यातगुणा है।
शंका-लोभकी तीसरी बादरकृष्टिका वेदककाल एक विभक्तिस्थानके कालमें सम्मिलित क्यों नहीं किया गया है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि लोभकी तीसरी बादरकृष्टिका स्वस्वरूपसे उदय नहीं होता है, अतः उसका वेदककाल नहीं पाया जाता । तात्पर्य यह है कि लोभकी तीसरी बादर कृष्टि सूक्ष्म कृष्टिरूपसे परिणत हो जाती है जिसका उदय सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानमें होता है। अतः लोभकी तीसरी बादरकृष्टिका अलगसे वेदककाल नहीं बतलाया है । . शंका-चंकि आठ समय और छह महीना कालमें केवल आठ ही सिद्ध समय होते हैं अतः आठ सिद्ध समयों में होनेवाला जीवोंका समस्त संचय एक समय कम दो आवलि कालके भीतर तथा संख्यात आवली कालके भीतर प्राप्त हो जाता है, इसलिये जीवविषयक अल्पबहुत्वकी सिद्धिके लिये जो कालविषयक अल्पबद्दुत्व कहा है वह निरर्थक है । इस शंका का यह तात्पर्य है कि छह माह और आठ समयोंमें जो आठ सिद्ध समय होते हैं वे लगातार होनेके कारण पांच विभक्तिस्थानके एक समय कम दो आवलिप्रमाण काल में तथा अन्य एक आदि विभक्तिस्थानोंके संख्यात आवलिप्रमाण कालमें भी एक साथ प्राप्त हो जाते हैं। अतः विभक्तिस्थानके कालविषयक अल्पबहुत्वकी अपेक्षा जो जीवोंका अल्पबहुत्व कहा है वह नहीं बनता है।
समाधान-यदि आठ समय अधिक छह महीना कालके भीतर ही लगातार आठ सिद्धसमय होते हैं ऐसा नियम होता तो जीवविषयक अल्पबहुत्वकी सिद्धि के लिये कहा गया काल विषयक अल्पबहुत्व निरर्थक होता, किन्तु एक अन्तर्मुहूर्त, एक दिन, एक पक्ष, और एक महीनाके भीतर भी अनियमसे आठ सिद्ध समय भी प्राप्त होते हैं और सात छह, पांच, चार, तीन, दो और एक सिद्ध समय भी प्राप्त होते हैं । अतः कालके प्रतिभागसे ही जीवोंका संचय होता है ऐसा मानना चाहिये और इसलिये कालविषयक अल्पबहुत्व निरर्थक नहीं है।
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गा० २२ ]
पयडिट्ठाणविहत्तीए अप्पाबहुअाणुगमो
णिरत्थयं । ण च जीवट्ठाणसुत्तेण असमयाहियछमासणियमबलेण एगेगगुणहाणम्मि जीवसंचयं सरिसभावेण परूवणेण सह विरोहो, पुधभद-आइरियाणं मुहविणिग्गयमेत्तेण दोण्हं थप्पभावमुक्गयाणं विरोहाणुववत्तीदो ।
__ यदि कहा जाय कि आठ समय अधिक छह महीनाके नियमके बलसे एक एक गुणस्थानमें जीवोंके संचयका समानरूपसे कथन करनेवाले जीवस्थानके सूत्रके साथ इस कथन का विरोध हो जायगा सो भी बात नहीं है, क्यों कि ये दोनों उपदेश अलग अलग आचार्योंके मुखसे निकले हैं, अतः दोनों स्वतन्त्ररूपसे स्थित होनेके कारण इनमें विरोध नहीं हो सकता।
विशेषार्थ-दसवें गुणस्थानमें १ विभक्तिस्थान होता है और नौवें गुणस्थानमें २, ३, ४, ५, ११, १२ और १३ विभक्तिस्थान होते हैं । यद्यपि २१ विभक्तिस्थान भी नौवें गुणस्थानमें होता है किन्तु वह केवल नौवेंमें न होकर अन्यत्र भी होता है और इस विभक्तिस्थानवाले जीवोंकी संख्याका निर्देश भी इसी अपेक्षासे किया गया है । अत: इसे छोड़ भी दिया जाय तो भी दसवें गुणस्थानसे नौवें गुणस्थानमें कई गुनी जीवराशि प्राप्त होती है। यह बात उक्त विभक्तिस्थानोंके अल्पबहुत्वपर ध्यान देनेसे समझमें आ जाती है। किन्तु जीवट्ठाणके द्रव्यप्रमाणानुयोगद्वार में बतलाया है कि अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय, क्षीणमोह और अयोगिकेवली गुणस्थानमें जीवोंकी उत्कृष्ट संख्या समान होती है। अतः यतिवृषभ आचार्यके चूर्णिसूत्रोंके उक्त कथनका जीवढाणके कथनके साथ विरोध आता है। किन्तु वीरसेन स्वामीने इसको मान्यताभेद कह कर समाधान किया है। वे लिखते हैं कि कदाचित् छह माह और आठ समयके अन्तमें लगातार आठ सिद्ध समय प्राप्त होसकते हैं और उनमें ६०८ जीव क्षपक श्रेणीपर चढ़ सकते हैं । अतः प्रत्येक गुणस्थानमें ६०८ जीव बन जाते हैं यह जीवट्ठाणके द्रव्यप्रमाणानुयोग द्वारके उक्त सूत्रका अभिप्राय है। किन्तु चूर्णिसूत्रोंका यह अभिप्राय है कि यद्यपि आठ सिद्ध समयोंके प्राप्त होनेका कोई नियम नहीं है कदाचित् ७, ६, ५, ४, ३, २ और १ सिद्ध समय भी प्राप्त होते हैं, फिर भी वे लगातार न प्राप्त होकर एक अन्तर्मुहूर्त, एक दिन, एक पक्ष आदिके भीतर भी प्राप्त होते हैं । अतः प्रत्येक गुणस्थानमें ६०८ जीव न मान कर कालके प्रतिभागके अनुसार ही जीवोंकी संख्या मानना चाहिये। तात्पर्य यह है कि कदाचित् इस क्रमसे जीव क्षपकश्रेणीपर चढ़ें जिससे उक्त विभक्तिस्थानोंके कालके अनुसार बटवारा होगया । इसप्रकार यह बात चूर्णिसूत्रों के अभिप्रायानुसार सम्भव है, किन्तु जीवट्ठाणके अभिप्रायानुसार सम्भव नहीं। तथा जो बात जीवट्ठाणके अभिप्रायानुसार सम्भव है बह चूर्णिसूत्रोंके अभिप्रायानुसार सम्भव नहीं है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ * दोण्हं संतकम्मविहत्तिया विसेसा० ।
६३९४. कुदो ? लोभतिण्णिकिट्टीवेदयकालसंचिदजीवेहिंतो मायाए तिण्णिसंगहकिट्टीवेदयकालेण लोभतिणिसंगहकिट्टीवेदयकालादो विसेसाहिएण संचिदजीवाणं पि विसेसाहियत्तदंसणादो । ण च विसेसाहियदंसणमसिद्धं पुन्विल्लकालादो अहियसंखेजावलियासु सिद्धासिद्धसमएहि करंबियासु संचिदजीवोपलंभादो।
* तिण्हं संतकम्मविहत्तिया विसेसाहिया ।। - ३६५. क्रुदो ? मायातिण्णिसंगहकिट्टीवेदयकालसंचिंदजीवेहितो माणतिण्णिसंगहाहीवेदयकालेण मायातिण्णिसंगहाकट्टीवेदयकालादो विसेसाहिएण संचिदजीवाणं विसेसाहियत्तुवलंभादो। ण च संचयकाले विसेसाहिए संते जीवसंचओ सरिसो, विरोहादो।
* एक विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे दो विभक्तिस्थानवाले जीव विशेष अधिक हैं।
६३९४. शंका-एक विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे दो विभक्तिस्थानवाले जीव विशेष अधिक क्यों हैं ?
समाधान-जब कि लोभकी तीन संग्रहकृष्टिके वेदककालसे मायाकी तीन संग्रहकृष्टिका वेदककाल विशेष अधिक है, तब लोभकी तीन संग्रहकृष्टिके वेदककालमें जितने जीवोंका संचय होता है, उससे मायाकी तीन संग्रहकृष्टिके वेदककालमें जीवोंका संचय भी विशेष अधिक ही देखा जाता है। और यह विशेष अधिक जीवोंका पाया जाना असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि एक विभक्तिस्थानके कालसे दो विभक्तिस्थानका काल संख्यात आवलि प्रमाण होते हुए भी विशेष अधिक है, और उन संख्यात आवलियोंमें, जिनमें कि सिद्ध समय और असिद्ध समय, दोनों पाये जाते हैं, जीव संचित होते हैं। अतः दो विभक्तिस्थानका काल बहुत होनेसे उसमें संचित होने वाले जीव भी बहुत हैं।
* दो विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे तीन विभक्तिस्थानवाले जीव विशेष अधिक हैं। ६३१५. शंका-दो विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे तीन विभक्तिस्थानवाले जीव विशेष अधिक क्यों हैं ?
समाधान-मायाकी तीन संग्रहकृष्टिके वेदककालसे मानकी तीन संग्रहकृष्टियोंका वेदककाल विशेष अधिक है, अतः मायाकी तीन संग्रहकृष्टियोंक वेदककालमें जितने जीवोंका संचय होता है उससे मानकी तीन संग्रहकृष्टियोंके वेदककालमें साधिक जीवोंका संचय पाया जाता है । यदि कहा जाय कि दो विभक्तिस्थानवाले जीवोंके संचय कालसे तीन विभक्तिस्थानवाले जीवोंका संचयकाल विशेष अधिक भले ही पाया जाय पर दोनों विभक्तिस्थानोंमें जीवोंका संचय समान ही होता है सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेमें विरोध आता है।
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गा० २२) पयडिट्ठाणविहचीए अप्पाबहुआणुगमो
* एक्कारसण्हं संतकम्मविहत्तिया विसेसाहिया ।
३६६. कुदो ? माणतिण्णिसंगहकिट्टीवेदयकालसंचिदजीवेस्तिो छण्णोकसायक्ववणकालेण माणतिण्णिसंगहकिट्टीवेदयकालादो विसेसाहिएण संचिदएकारसविहत्तियाण-मद्धाबहुत्तबलेण बहुत्तसिद्धिदा। माणतिण्णिासंगहकिट्टीवेदयकालादो कोधतिण्णिसंगहाकहीवेदयकालो संखेज्जावलियाहि अब्भाहओ । कोधतिण्णिसंगहकिट्टीवेदयकालादो किटीकरणद्धा संखेजावलियाहि अन्भहिया। तत्तो अस्सकण्णकरणद्धा संखेजावलियाहि अब्भहिया। तत्तो छण्णोकसायक्खवणद्धा संखेजावलियाहि अब्भहिया । एदाओ चत्तारि संखेजावलियाओ मिलिदण तिण्णिसंगहाकहीवेदयकालस्स संखेजदिभागमेत्ताओ चेव होंति । तेण तिण्हं विहात्तिएहिंतो एकारसण्हं विहत्तिया विसेसाहिया त्ति भणिदं । तिहं विहत्तियाणमुवरि चउण्णं विहात्तिया किण्ण पादिदा ? ण, तिण्हं विहत्तियकालादो संखेजगुणम्मि चउण्हं विहत्तियकालम्मि संचिदजीवाणं संखेज
* तीन विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे ग्यारह विभक्तिस्थानवाले जीव विशेष अधिक हैं।
३२६. शंका-तीन विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे ग्यारह विभक्तिस्थानवाले जीव विशेष अधिक क्यों हैं ?
समाधान-क्योंकि मानकी तीन संग्रहकृष्टियों के वेदक कालसे छह नोकषायोंका क्षपणकाल विशेष अधिक है। अतः मानकी तीन संग्रहकृष्टियोंके वेदककालमें जितने जीवोंका संचय होता है उससे छह नोकषायोंके क्षपणकालमें संचित हुए ग्यारह विभक्तिस्थानवाले जीव संचयकालके अधिक होनेसे बहुत सिद्ध होते हैं । मानकी तीन संग्रहकृष्टियों के वेदककालसे क्रोधकी तीन संग्रहकृष्टियोंका वेदककाल संख्यात आवली अधिक है । क्रोधकी तीन संग्रहकृष्टियोंके वेदककालसे कृष्टिकरणका काल संख्यात आवली अधिक है। कृष्टिकरणके कालसे अश्वकर्णकरणका काल संख्यात आवली अधिक है । अश्वकर्मकरणके कालसे छह नोकषायोंका क्षपणकाल संख्यात आवली अधिक है । ये चारों (विशेषाधिकरूप ) संख्यात आवलियां मिलकर तीन संग्रह कृष्टियोंके वेदककालके संख्यातवें भागमात्र ही होती हैं, इसलिये तीन विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे ग्यारह विभक्तिस्थानवाले जीव विशेष अधिक हैं यह कहा है। __ शंका-तीन विभक्तिस्थानवाले जीवोंके अनन्तर चार विभक्तिस्थानवाले जीव क्यों नहीं कहे ?
समाधान-नहीं, क्योंकि तीन विभक्तिस्थानके कालसे चार विभक्तिस्थानका काल संख्यातगुणा है, अतः संख्यातगुणे कालमें संचित हुए जीव तीन विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे संख्यातगुणे ही होंगे। इसलिये यहां तीन विभक्तिस्थानवाले जीवोंके कथनके अनन्तर चार
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३१४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ गुण दट्ठण तथा अपरूवणादो । ण च तकालस्स संखेज्जगुणत्तमसिद्धं, कोध-अस्सकण्णकरणकालं कोध-किट्टीकरणकालं कोधतिण्णिसंगहकिट्टीवेदयकालं च घेत्तण चउण्हं विहाचियाणमद्धाए अवष्ठाणादो। णेदमेत्थासंकणिज्ज सोदएण चडिदस्स तिण्हं दोण्ह मेकिस्से विहतियकालो वि एक्कारसविहत्तियकालादो संखेज्जगुणो लब्भइ तदो तेहि. म्मि एकारसविहत्तिएहितो संखेज्जगुणेहि होदव्वामिदि । किं कारण ? कोहोदएण खवगसेटिं चडंताणमेव सव्वत्थ पहाणभावोवलंभादो। तदो ण किंचि विरुज्झदे ।
* बारसण्हं संतकम्मविहत्तिया विसेसाहिया।
६३६७. कुदो १ छण्णोकसायखवणकालादो इत्थिवेदखवणकालस्स संखेजावलिविभक्तिस्थानवाले जीवोंका कथन नहीं किया है।
तीन विभक्तिस्थानके कालसे चार विभक्तिस्थानका काल संख्यातगुणा है यह बात असिद्ध नहीं है, क्योंकि क्रोधके अश्वकर्णकरणका काल, क्रोधको कृष्टिकरणका काल और क्रोधकी तीन संग्रहकृष्टियोंका वेदककाल इन तीनोंको मिलाकर चार विभक्ति- . स्थानका काल होता है।
यहां पर ऐसी आशंका भी नहीं करना चाहिये कि स्वोदयसे चढ़े हुए जीवके तीन, दो और एक विभक्तिस्थानका काल भी ग्यारह विभक्तिस्थानके कालसे संख्यातगुणा पाया जाता है इसलिये तीन, दो और एक विभक्तिस्थानवाले जीव भी ग्यारह विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे संख्यातगुणे होने चाहिये। इसका कारण यह है कि क्रोधके उदयसे क्षपकश्रेणोपर चढ़े हुए जीवोंकी ही सर्वत्र प्रधानता देखी जाती है, इसलिये पूर्वोक्त कथनमें कोई विरोध नहीं आता है । तात्पर्य यह है कि यद्यपि मानके उदयसे चढ़े हुए जीवोंके दो विभक्तिस्थानका काल, मायाके उदयसे चढ़े हुए जीवोंके तीन विभक्तिस्थानका काल और लोभके उदयसे चढ़े हुए जीवोंके एक विभक्तिस्थानका काल ग्यारह विभक्तिस्थानके कालसे संख्यातगुणा होगा। पर मान, माया और लोभके उदयके साथ क्षपकश्रेणीपर चढ़नेवाले जीव बहुत थोड़े होते हैं । अतः एक, दो और तीन विभक्तिस्थानवाले जीव ग्यारह विभक्तिस्थानवाले जीवोंके संख्यातगुणे न होकर कम ही होते हैं। ___ग्यारह विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे बारह विभक्तिस्थानवाले जीव विशेष अधिक हैं। ___$३९७.शंका-ग्यारह विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे बारह विभक्तिस्थानवाले जीव विशेष अधिक क्यों हैं ?
समाधान-क्योंकि छह नोकषायोंके क्षपणकालसे स्त्रीवेदका क्षपणाकाल संख्यात श्रावली अधिक पाया जाता है । अतः ग्यारह विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे बारह विभक्तिस्थान . बाले जीव विशेष अधिक हैं।
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गा० २२] पयडिभणविहत्तीए अप्पाबहुअाणुगमो याहि समहियत्तुवलंभादो। केत्तियमेतेण विसेसाहिया ? अहियसंखेजावलियासु संचिदजीवमेत्तेण ।
* चदुहं संतकम्मविहत्तिया संखेज्जगुणा। ६३६८. को गुणगारो ? किंचूण तिण्णि रूवाणि । कुदो ? इत्थिवेदक्खवणकालादो चत्तारिविहत्तियकालस्स किंचूणतिगुणत्तुवलंभादो । तं जहा-दुसमयूणदोआवलियूणअस्सकण्णकरणकालो कोधकिट्टीकरणकालो कोधतिषिणसंगहकिट्टीवेदयकालो त्ति, एदे तिणि चदुण्हं विहत्तियकाला बारसविहत्तियकालादो पादेकं विसेसहीणा । संपहि एदेसु तिसु कालेसु तत्थ एगकालस्स संखेजदिभागं घेत्तूण सेसदोकालेसु जहा परिवाडीए दिण्णेसु ते दो वि काला इत्थिवेदखवणकालेण सरिसा होदूण तत्तो दुगुणतं पावेंति । पुणो संखेजदिभागूणो गहिदसेसकालो इत्थिवेदखवणकालादो जेण किंचूणो तेण बारसविहत्तियकालादो चदुण्हं विहत्तियकालो किंचूणतिगुणो त्ति सिद्धं । एदम्मि काले संचिदजीवाणं पि एसो चेव गुणगारो; कालाणुसारिजीवसंचयम्भुवगमस्स
शंका-उन विशेष अधिक जीवोंका प्रमाण क्या है ?
समाधान-ग्यारहवें विभक्तिस्थानके कालसे बारहवें विभक्तिस्थानका काल जितनी संख्यात आवलियां अधिक है, उसमें जितने जीवोंका संचय होता है उतना ही विशेषाधिक जीवोंका प्रमाण है।
* बारह विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे चार विभाक्तस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। ६ ३९८. शंका-यहां गुणकारका प्रमाण क्या है ? समाधान-कुछ कम तीन गुणकारका प्रमाण है। शंका-गुणकारका प्रमाण इतना क्यों है ?
समाधान-क्योंकि स्त्रीवेदके क्षपणकालसे चार विभक्तिस्थानका काल कुछ कम तिगुना पाया जाता है। उसका खुलासा इसप्रकार है-दो समयकम दो आवलियोंसे न्यून अश्वकर्णकरणका काल, क्रोधकी कृष्टि करणका काल और क्रोधकी तीन संग्रह कृष्टियोंका वेदक काल ये तीनों काल मिलकर चार विभक्तिस्थानका काल होता है। किन्तु इस तीनों कालों में से प्रत्येक काल बारह विभक्तिस्थानके कालसे विशेषहीन है । अब इन तीनों कालोंमेंसे किसी एक कालके संख्यातवें भागको ग्रहण करके और उसके दो भाग करके प्रत्येक भागके ऊपर शेष दो कालोंको क्रमसे देयरूपसे दे देनेपर वे दोनों ही प्रत्येक काल स्त्रीवेदके कालके समान होते हैं और मिलकर स्त्रीवेदके कालसे दूने हो जाते हैं । तथा संख्यातवें भागसे न्यून शेष तीसरा काल चूंकि स्त्रीवेदके क्षपणकालसे कुछ कम होता है, इससे सिद्ध होता है कि बारह विभक्तिस्थानके कालसे चार विभक्तिस्थानका काल कुछ कम तिगुना है। तथा इस कालमें संचित हुए जीवोंका गुणकार भी इतना ही होगा। कालके अनुसार
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जयंधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पडिविहत्ती २ पमाणाणुकूलत्तदंसणादो।
* तेरसण्हं संतकम्मविहत्तिया संखेजगुणा ।
६ ३६६. कुदो ? चदुण्हं वित्तियकालादो संखेजगुणम्मि तेरसविहत्तियकालम्मि संचिदजीवाणं पि जुत्तीए संखेजगुणत्तदंसणादो। तेरसविहत्तियकालस्स संखेजगुणत्तं कथं व्वदे ? जुत्तीदो। तं जहा-थीणगिद्धियादिसोलसकम्माणं खवणकालो मणपजवणाणावरणादिवारसण्हं देसघादीबंधकरणकालो अंतरकरणकालो अंतरकरणे कदे णqसयवेदक्खवणकालो च एदे चत्तारि वि काला तेरसवित्तियस्स । अस्सकण्णकरणकालो कोधकिहीकरणकालो कोधतिष्णिसंगहकिट्टीवेदयकालो च एदे तिणि वि चदुहं विहत्तियस्स । एदे तिण्णिषि काले पेक्खिदण पविल्लकालो संखेजगुणो। कालतियं पेक्खिदण पुचिलकालचउकं विसेसाहियं किण्ण होदि ? ण, णवण्हं कालाणं समुदयसमागमेण कालचदुक्कुप्पत्तीदो । के ते णवकाला? जीवोंके संचयकी पद्धति प्रमाणानुकूल देखो जाती है।
* चार विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे तेरह विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यात गुणे होते हैं।
६३६१. शंका-चार विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे तेरह विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे क्यों हैं ? ___समाधान-चूंकि चार विभक्तिस्थानके कालसे तेरह विभक्तिस्थानका काल संख्यातगुणा है, इसलिये युक्तिसे यही सिद्ध होता है कि चार विभक्तिस्थानके कालमें संचित हुए जीवोंसे तेरह विभक्तिस्थानके काल में संचित हुए जीव संख्यातगुणे होते हैं। __ शंका-चार विभक्तिस्थानके कालसे तेरह विभकिस्थानका काल संख्यात गुणा है यह केसे जाना जाता है ?
समाधान-युक्तिसे जान जाता है। उसका खुलासा इसप्रकार है-स्त्यानगृद्धि आदि सोलह कर्मों का क्षपणकाल, मनःपर्यय ज्ञानावरण आदि बारह कर्मोंका देशघातिबन्धकरणकाल, अन्तरकरणकाल, और अन्तरकरण करनेके अनन्तर नपुंसकवेदका क्षपणकाल ये चारों मिलाकर तेरह विभक्तिस्थानका काल है । तथा अश्वकर्णकरणकाल, क्रोधकृष्टिकरणकाल और क्रोधकी तीन संग्रहकृष्टियोंका वेदककाल ये तीनों ही चार विभक्तिस्थानके काल हैं। इस. प्रकार इन तीनों कालोंको देखते हुए इनकी अपेक्षा पूर्वोक्त तेरह प्रकृति स्थानका काल संख्यातगुणा है।
शंका-पूर्वोक्त तेरह विभक्तिस्थानसंबन्धी चारों काल चार विभक्तिसंबन्धी तीनों कालोंसे विशेषाधिक क्यों नहीं हैं ?
समाधान नहीं, क्योंकि नौ कालोंके समुदायके समागमसे चार कालोंकी उत्पत्ति हुई
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गा० २२) पपडिट्ठाणविहत्तीए अप्पाबहुप्राणुगमो
३६७ थीणगिद्धियादि सोलसकम्मक्खवणकालो १, मणपज्जव-दाणंतराइयाणं देसघादीबंधकरणकालो २, ओहिणाण-ओ हदंस-लाहंतराइयाणं देसघादिबंधकरणकालो ३, सुदणाण-अचक्खु०-भोगंतराइयाणं देसघादिबंधकरणकालो ४, चक्खुदंस० देसपादिबंधकरणकालो ५, आभिणि०-परिभोग० देसघादिबंधकरणकालो ६, विरियंतराइयदेसधादिबंधकरणकालो ७, तेरसण्ह कम्माणमंतरकरणकालो ८, णवंसयवेदक्खवणकालो ६, एदे णव काला । चदुण्हं विहत्तियकाला पुण तिण्णि चेव । तेण एदे पेक्खियूण पुबिल्लकाला संखेजगुणा । किंच सोलसकम्माणि खविय जाव मणपजवणाणावरणीयं बंधेण देसघादि ण करेदि ताव से कालो चेव चउण्हं विइत्तियकालादो संखेजगुणो संखेजहिदिबंधसहस्सगब्भिणत्तादो। सव्वकालसमूहो पुण संखेजगुणो ति को संदेहो ? पुब्बिल्लकालअप्पाबहुगादो वा तेरसविहत्तियकालस्स संखेज्जगुणत्तं णव्वदे। है अर्थात् इन चार कालोंमें नौ काल सम्मिलित है । अतः वे चार विभक्तिस्थानसंबन्धी तीन कालोंसे विशेषाधिक नहीं हो सकते ।
शंका-वे नौ काल कौनसे हैं ?
समाधान-पहला स्त्यानगृद्धि आदि सोलह कर्मोंका क्षपणकाल, दूसरा मन:पर्यय और दानान्तराय इन दो प्रकृतियोंका देशघातिबन्धकरणकाल, तीसरा अवधिज्ञानावरण अवधिदर्शनावरण और लाभान्तराय इन तीन प्रकृतियोंका देशघातीबन्धकरणकाल, चौथा श्रुतज्ञानावरण, अचक्षुदर्शनावरण, और भोगान्तराय इन तीन प्रकृतियोंका देशघातिबन्धकरणकाल, पांचवा चक्षुदर्शनावरण प्रकृतिका देशघातिबन्धकरणकाल, छठा मतिज्ञानावरण परिभोगान्तराय इन दो प्रकृतियोंका देशघातीबन्धकरणकाल, सातवां वीर्यान्तराय प्रकृतिका देशघातिबन्धकरणकाल, आठवां मोहनीयकी तेरह प्रकृतियोंका अन्तरकरण काल और नौवां नपुंसकवेदका क्षपणकाल इसप्रकार ये नौ काल हैं, पर चार विभक्तिस्थानके काल तीन ही होते हैं। इससे इन दोनों कालोंको देखते हुए ज्ञात होता है कि चार विभक्तिस्थानसंबन्धी कालोंसे तेरह विभक्तिस्थानसंबन्धी काल संख्यातगुणे हैं । दूसरे स्त्यानगृद्धि आदि सोलह कर्मोंका क्षय करके तेरह विभक्तिस्थानवाला जीव जब तक मन:पर्ययज्ञानावरणीय कर्मके बन्धको देशघाति नहीं करता है तब तक जो काल होता है वही चारविभक्तिस्थानके कालसे संख्यातगुणा होता है, क्योंकि मनःपर्ययज्ञानावरणीय कर्मके देशघाति बन्धकरण संबन्धी कालके भीतर संख्यात हजार स्थितिबन्ध गर्भित हैं। अतएव तेरह विभक्तिस्थानका समस्त काल मिलकर चार विभक्तिस्थानके कालसे संख्यातगुणा है इसमें क्या सन्देह है। अथवा, पहले जो कालविषयक अल्पबहुत्व कह आये हैं उससे जाना जाता है कि चार विभक्तिस्थानके कालसे तेरह विभक्तिस्थानका काल संख्यातगणा है।
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- जयभवलासहिदे कसायपाहुडे
पयडिविहत्ती२ * बावीससंतकम्मविहत्तिया संखेजगुणा ।
६४००. कुदो ? चारित्तमोहणीय-अणियट्टीकालादो संखेजगुणम्मि दंसणमोहणीय-आणियट्टिकालम्मि संचिदजीवाणं पि संखेज्जगुणत्तं पडि विरोहाभावादो। अट्टवस्सहिदिसंतकम्मे चेष्टिदे तदो प्पहुडि जाव सम्मत्तक्खवणद्धाचरिमसमओ त्ति ताव वावीसविहत्तियकालो । एसो चारित्तमोहक्खवग-अणियट्टी-अद्धादो संखेजगुणो त्ति कधं णव्वदे ? एवं मा जाणिजदु, किंतु तेरसविहत्तियकालादो एसो कालो संखेजगुणो त्ति णव्वदे । कत्तो ? पुव्विल्लकाल-अप्पाबहुगादो । चारित्तमोहक्खवणं पट्टवेत. जीवहितो दंसणमोहक्खवणं पडवेंतजीवा संखेजगुणा त्ति ण घेत्तव्वं, उभयत्थ अठठुत्तरसदजीवे मोत्तूण एत्तो बहुआणं चडणासंभवादो । ण च पट्टवणकालस्स थोवबहुत्त
* तेरह विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे बाईस विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। ___४००.शंका-तेरह विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे बाईस विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यात. गुणे क्यों हैं ?
समाधान-चूंकि चारिमोहनीयके अनिवृत्तिकरणसंबन्धी कालसे दर्शनमोहनीयका अनिवृत्तिकरणकाल संख्यातगुणा है, इसलिये इसमें संचित हुए जीव भी संख्यातगुणे होते हैं इस कथनमें कोई विरोध नहीं है।
शंका-स्थितिका पुनः पुनः अपकर्षण करते हुए जब सत्तामें स्थित कर्मोंकी स्थिति आठ वर्ष प्रमाण रह जाती है उस समयसे लेकर सम्यक्प्रकृतिके क्षपणकालके अन्तिम समय तक बाईस विभक्तिस्थानका काल होता है। यह काल चारित्रमोहनीयके क्षपक जीवके अनिवृत्तिकरणके कालसे संख्यातगुणा है यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान-इस प्रकारका ज्ञान भले ही मत होओ किन्तु तेरह विभक्तिस्थानके कालसे बाईस विभक्तिस्थानका काल संख्यातगुणा है यह तो जाना ही जाता है ।
शंका-किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-पूर्वोक्त कालविषयक अल्पबहुत्वसे जाना जाता है।
यहां पर चारित्रमोहकी क्षपणाका प्रारम्भ करनेवाले जीवोंसे दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ करनेवाले जीव संख्यातगुणे होते हैं ऐसा नहीं ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि दोनों जगह एक सौ आठ जीवोंसे अधिक जीव दर्शनमोहनीय या चारित्रमोहनीयकी क्षपणाके लिये एक साथ आरोहण नही करते है । यदि कहा जाय कि चारित्रमोहनीयके क्षपणाके प्रारम्भ कालसे दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भकाल अधिक होगा इसलिये दोनोंके कालमें विशेषता होगी सो बात भी नहीं है, क्योंकि, दोनों प्रस्थापककालों में संख्यात समयका नियम देखा जाता है। यदि कहा जाय कि जघन्य अन्तर और उत्कृष्ट
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गा० २२ ]
पयडिट्ठा विहत्तीए अप्पा बहुश्राणुगमो
३६६
कओ विसेसो अस्थि, उमयत्थ संखेजसमयणियमदंसणादो। ण च जहण्णुक संतरविसेसो अत्थि एगसमय छम्मासन्भंतरणिय मदंसणादो । तदो पुब्विलत्थो चेव घेत्तव्वो ।
* तेवीसाए संतकम्मविहत्तिया विसेसाहिया ।
९४०१. कुदो ? सम्मत्तक्खवणकालादो विसेसाहियम्मि सम्मामिच्छत्तक्खवणकालम्मि संचिदजीवाणं वि जुत्तीए विसेसाहियत्तदंसणादो । सम्मत्तक्खवणकालादो सम्मामिच्छत्तक्खवणकालो विसेसाहिओ त्ति कुदो णव्वदे ? पुब्विल्ल अद्धप्पाबहुआदो । * सत्तावीसाए संतकम्मविहन्तिया असंखेज्जगुणा ।
ว
४०२. को गुणगारो ? पार्लदो ० असंखेभागो । कुदो ? पलिदो असंखे ० भागमेकाले संचिदत्तादो सम्मत्तादो मिच्छत्तं पडिवजमाणजीवाणं बहुत्तुवलंभादो च । अन्तर की अपेक्षा दोनों प्रस्थापककालों में विशेषता होगी सो बात भी नहीं है, क्योंकि दोनों प्रस्थापककालों में जघन्य अन्तरके एक समय और उत्कृष्ट अन्तर के छह महीना होनेका नियम देखा जाता है । अतः तेरह विभक्तिस्थान के कालसे बाईस विभक्तिस्थानका काल संख्यातगुणा है यह पूर्वोक्त अर्थ ही ग्रहण करना चाहिये ।
* बाईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे तेईस विभक्तिस्थानवाले जीव विशेष अधिक हैं ।
४०१. शंका - बाईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे तेईस विभक्तिस्थानवाले जीव विशेष अधिक क्यों हैं ?
समाधान-क्योंकि सम्यक्प्रकृतिके क्षपणाकाल से सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका क्षपणकाल विशेष अधिक है । अत: उसमें संचित हुए जीव भी विशेष अधिक हैं । यह युक्तिसे सिद्ध होता है ।
शंका-सम्यक्प्रकृतिके क्षपणकालसे सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिका क्षपणकाल विशेष अधिक है, यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान- पूर्वोक्त कालविषयक अल्पबहुत्व से जाना जाता है ।
* तेईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे सत्ताईस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातहैं।
९ ४०२. शंका - प्रकृतमें गुणकारका प्रमाण क्या है ?
समाधान - प्रकृत में पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकारका प्रमाण है ।
शंका- प्रकृतमें पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकारका प्रमाण क्यों है ? समाधान - क्योंकि सत्ताईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका सञ्जय पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण काल तक होता रहता है और सम्यक्त्वसे मिथ्यात्वको प्राप्त होने वाले
४७
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३७०
. जयघवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ . * एकवीसाए संतकम्मविहत्तिया असंखेजगुणा।
६४०३. को गुणगारो? आवलियाए असंखेजदिभागो । कुदो ? बे सागरोवमकालभंतरउवक्कमणकालम्मि संचिदत्तादो। गुणगारो आवलियाए असंखेजदिभागो ति कुदो णव्वदे ? आइरियपरंपरागयसुत्ताविरुद्धवक्खाणादो। अहवा गुणगारो तप्पाओग्गअसंखेजरूवमेत्तो, सम्मामिच्छत्तुव्वेल्लणकालम्मि संचिदजीवे पडुच्च पलिदोवमस्स आवलियाए असंखेजदिमागो चेव भागहारो होदि त्ति णियमकारणाणुवलंभादो। जुत्तीए पुण असंखेजावलियाहि भागहारेण होदव्वं, अण्णहा एकवीसविहत्तियभागहारादो असंखेजगुणत्ताणुववत्तीदो। तं जहा-संखेजावलियाओ अंतरिय जदि संखेजा उवक्कमणसमया एकवीसविहत्तियाणं लब्भंति, तो दोसु सागरेसु किं जीव बहुत पाये जाते हैं, इन दोनों कारणोंसे जाना जाता है कि यहां गुणकारका प्रमाण पल्योपमका असंख्यातवां भाग है।
* सत्ताईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे इक्कीस विभक्तिस्थानबाले जीव असंख्यातगुणे हैं। ६४०३. शंका-प्रकृतमें गुणकारका प्रमाण क्या है ? समाधान-प्रकृतमें गुणकारका प्रमाण आवलीका असंख्यातवां भाग है । शंका-प्रकृतमें आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकारका प्रमाण क्यों है ?
समाधान-क्योंकि प्रकृतमें दो सागरोपमकालके भीतर जितने उपक्रमण काल होते हैं उनमें संचित हुए इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीव लिये गये हैं। अतएव प्रकृतमें गुणकारका प्रमाण आवलीका असंख्यातवां भाग कहा है।
शंका-फिर भी इससे यह कैसे जाना जाता है कि प्रकृत में गुणकारका प्रमाण आवलीका असंख्यातवां भाग है ?
समाधान-आचार्य परम्परासे सूत्रके अविरुद्ध जो व्याख्यान चला आ रहा है उससे जाना जाता है कि प्रकृतमें गुणकारका प्रमाण आवलीका असंख्यातवां भाग है।
अथवा तत्प्रायोग्य अर्थात् सत्ताईस विभक्तिस्थानमें संचित जीवराशिका इक्कीस विभक्तिस्थानमें संचित जीवराशिमें भाग देनेपर जो असंख्यात प्रमाण लब्ध आता है उतना ही यहां गुणकारका प्रमाण है; क्योंकि पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण सम्यग्मिथ्यात्वके उद्वेलन कालमें संचित हुए जीवोंकी अपेक्षा विचार करनेपर पल्योपमका भागहार आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण ही होता है, इस प्रकारके नियमका कोई कारण नहीं पाया जाता। परन्तु युक्तिसे असंख्यात आवली प्रमाण भागहार होना चाहिये, अन्यथा वह भागहार इक्कीस विभक्तिस्थानके भागहारसे असंख्यात गुणा नहीं हो सकता है। आगे इसीका खुलासा करते हैं-संख्यात आवलियोंके अन्तरालसे यदि इक्कीस
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गा० २२) पडिट्ठाणविहत्तीए अप्पाबहुआणुगमो
३७१ लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदमिच्छामोवहिदे संखेजावलियाहि पालिदोवमे खंडिदे एगभागो एकवीसविहत्तियाणमुवकमणकालो होदि । उवरिमवीसकोडाकोडीरूवमेत्तपलिदोवमगुणगारादो हेट्ठा आवलियाए हविदगुणगारो संखेजगुणो ति कुदो णव्वदे ? पलिदोवममेत्तकम्मष्टिदीए आवाधा संखेजावलियमेत्ता होदि ति आइरियवयणादो, आवाधाकंडयपरूवयसुत्तादो च णव्वदे । एदम्हादो अवहारकालादो एकवीसविहत्तियअवहारकालो जदि वि संखेजगुणहीणो तो वि संखेजावलियमेत्तेण होदव्वं अद्रुत्तरसदमेतजीवहिंतो उवरि उवक्कमणाभावादो। अह जइ बहुआ होति आउअवसेण, तो वि आवलियाए असंखेजदिभागमेतेण होदव्वं । एदमवहारकालं तप्पाओग्ग-असंखेजरूवेहि गुणिदे सत्तावीसवित्तिय-अवहारकालो जेण होदि तेण सत्तावीसविहत्तियाणमवहारकालो असंखेजावलियमेतो त्ति सिद्धं । विभक्तिस्थानवाले जीवोंके संख्यात उपक्रमण-समय प्राप्त होते हैं तो दो सागर प्रमाण कालमें कितने उपक्रमण-समय प्राप्त होंगे ! इस प्रकार त्रैराशिक करके फलराशिसे इच्छारशिको गुणित करनेपर जो लब्ध आवे उसमें प्रमाणराशिका भाग देनेपर संख्यात आवलियोंसे पल्योपमको भाजित करने पर एक भागप्रमाण इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका उपक्रमणकाल आता है।
शंका-ऊपर अर्थात् 'तो दोसु सागरेसु किं लभामो' यहां पर जो पल्यका गुणकार बीस कोडाकोड़ी अंक प्रमाण है, उससे नीचे अर्थात् 'संखेज्जावलियाहि पलिदोवमे खंडिदे' यहां पर आवलिका गुणकार जो संख्यातगुणा स्थापित किया है, सो यह बात किस प्रमाणसे जानी जाती है ?
समाधान-एक पल्य कर्मस्थितिकी आबाधा संख्यात आवलिप्रमाण होती है इस प्रकारके आचार्य वचनसे और आबाधाकाण्डकका कथन करनेवाले सूत्रसे जानी जाती है।
इस अवहारकालसे इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका अवहारकाल यद्यपि संख्यातगुणा हीन होता है तो भी वह संख्यात आवलि प्रमाण होना चाहिये, क्योंकि अधिकसे अधिक एक साथ एक सौ आठ क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव उपक्रमण करते हैं अधिक नहीं । अथवा आयुकी न्यूनाधिकताके कारण अधिक जीव उपक्रमण करते हैं ऐसा मान लिया जाय तो भी इक्कीस विभक्तिस्थान वाले जीवोंका अवहारकाल आवलिके संख्यातवें भाग प्रमाण होना चाहिये। और इस अवहारकालको सत्ताईस विभक्तिस्थान वाले जीवोंके अवहारकालके योग्य असंख्यात अंकोंसे गुणित कर देनेपर चूंकि सत्ताईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका अवहार काल प्राप्त होता है अतः सत्ताईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका अवहारकाल असंख्यात आवलि प्रमाण सिद्ध होता है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे । पयडिविहत्ती २ * चउवीसाए संतकम्मिया असंखे० गुणा ।
$४०४. को गुणगारो ? आवलि० असंखे० भागो । एकवीसविहत्तियकालेण चउवीसविहत्तियकालो सरिसो, सोहम्मीसाणकप्पेसु सयल-असंजदसम्मादिहीणिवासेसु चेव चउवीस-एकवीसविहत्तियाणं संभवादो। उवरि किण्ण घेप्पदे १ ण, सोहम्मीसाणसम्माइटीहितो असंखेजगुणहीणेसु घेप्पमाणे कारणबहुत्ताभावेण असंग्वेजगुणहीणाणं गहणप्पसंगादो। ण च उवकमणकालमस्सिदूण गुणगारो आवलियाए असंखेजदि भागो त्ति वोत्तुं सक्किअदे, सोहम्मीसाण-उवक्कमणकालादो बेछावहिसागरभरुवक्कमणकालस्स वि संखेजगुणस्सेव उवलंभादो। एवमुवकमणकाले सरिसे संते कथमसंखेजगुणतं जुजदि त्ति, ण एस दोसो, मणुसेहि समुप्पज्जमाणखइयसम्माइष्टिसंखेजजीवहितो सोहम्मीसाणकप्पेसु अणंताणुबंधिचउकं विसंजोएमाण-अठ्ठावीससंतकम्मियवेदगसम्माइट्ठीण मुवसमसम्माइट्टीणं च समयं पडि पलिदो० असंखे० भागमेत्ताणमुवलं
* इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं।
६४०४. शंका-प्रकृतमें गुणकारका प्रमाण क्या है ? समाधान-प्रकृतमें गुणकारका प्रमाण आवलीका असंख्यातवां भाग है।
शंका-चौबीस विभक्तिस्थानका काल इक्कीस विभक्तिस्थान के कालके समान है, क्योंकि समस्त असंयतसम्यग्दृष्टियों के निवासभूत सौधर्म और ऐशान कल्पमें ही चौबीस और इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीव अधिक संभव हैं। शायद कहा जाये कि सौधर्म और ऐशान कल्पके ऊपरके सभ्यग्दृष्टि जीव प्रकृतमें क्यों नहीं ग्रहण किये गये हैं तो उसका समाधान यह है कि सौधर्म और ऐशान कल्पके सम्यग्दृष्टियोंसे ऊपरके कल्पोंमें असंख्यातगुणे हीन सम्यग्दृष्टि होते हैं,अतः उनके ग्रहण करनेपर बहुत्वका कारण न होनेसे इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंकी अपेक्षा चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हीन स्वीकार करना पड़ेंगे। तथा उपक्रमण कालकी अपेक्षा इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका गुणकार आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि प्रकृतमें यदि एकसौ बत्तीस सागरके भीतर होनेवाले उपक्रमण कालका भी ग्रहण किया जाय तो वह सौधर्म और ऐशानके उपक्रमणकालसे संख्यातगुणा ही पाया जायेगा। इसप्रकार उपक्रमण कालके समान रहते हुए इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे चौबीस विभक्तिस्थान. वाले असंख्यातगुणे कैसे बन सकते हैं ? ___ समाधान-यह ठीक नहीं है, क्योंकि सौधर्म और ऐशान कल्पमें मनुष्योंमेंसे उत्पन्न होने वाले संख्यात क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंकी अपेक्षा अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करने वाले अहाईस विभक्तिस्थानी वेदक सम्यग्दृष्टि तथा उपशमसम्यग्दृष्टि जीव प्रति समय पल्योपम
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गा० २२] पयडिहाणविहत्तीए अप्पाबहुप्राणुगमो
३७३ भादो, असंखेजदीवेसु भोगभूमिपडिभागेसु कम्मभूमिपडिभागदीवसमुद्देसु च णिवसंतचउवीससंतकम्यियसम्माइट्ठीणं सोहम्मीसाणेसु असंखजाणमुवक्कमणसमयं पडि उप्पजमाणाणमुवलंभादो च । जदि एवं तो पलिदोवमस्स असंखेजदिमागेण गुणगारेण होदव्वं ? ण, सव्वोवक्कमणसमएसु पलिदो० असंखे० भागमेत्ताणं जीवाणं चउवीससंतकम्मियभावमुवक्कममाणाणमणुवलंभादो। जदि एवं तो कधमुवकमंति ? कत्थ वि एक्को, कत्थ वि दोण्णि, एवं गंतूण कथवि० संखेजा, कत्थ वि आवलियाए असंखेज्जदिमागमेत्ता, कत्थ वि आवलियमेत्ता, संखेज्जावलियमेत्ता असंखेज्जावलियभेत्ता वा उवक्कमंति चउवीससंतकम्मियभावं, तेण आवलियाए असंखे० भागेणेव गुणगारेण होदव्वं । चउवीससंतकम्मियभागहारेण आवलियाए असंखेज्जदिभागेण संखेज्जावलियमेत्ते एकवीसविहत्तियभागहारे ओवट्टिदे आवलियाए असंखेज्जदिभागुवलंभादो वा गुणगारो आवलियाए असंखे० भागो। संखेज्जावलियमेत्ते सोहके असंख्यातवें भाग पाये जाते है, तथा भोगभूमिसम्बन्धी असंख्यात द्वीपोंमें और कर्मभूमिसम्बन्धी द्वीप समुद्रोंमें निवास करने वाले चौबीस विभक्तिस्थानवाले सम्यग्दृष्टि जीव सौधर्म और ऐशान कल्पमें प्रत्येक उपक्रमणकालमें असंख्यात उत्पन्न होते हुए देखे जाते हैं। इन हेतुओंसे प्रतीत होता है इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यात गुणे होते हैं।
शंका-यदि ऐसा है तो प्रकृतमें गुणकारका प्रमाण आवलीका असंख्यातवां भाग न होकर पल्योपमका असंख्यातवां भाग होना चाहिये ?
समाधान-नहीं, क्योंकि सभी उपक्रमण कालोंमें पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण जीव चौबीस विभक्तिस्थानको प्राप्त होते हुए नहीं पाये जाते हैं, अतः प्रकृतमें गुणकारका प्रमाण पल्योपमका असंख्यातवां भाग नहीं कहा।
शंका-यदि ऐसा है तो सम्यग्दृष्टि जीव किस क्रमसे चौबीस विभक्तिस्थानको प्राप्त होते है ?
समाधान-किसी उपक्रमणकालमें एक जीव, किसीमें दो, इसप्रकार उत्तरोत्तर किसीमें संख्यात, किसीमें आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण, किसी में आवली प्रमाण, किसीमें संख्यात आवली प्रमाण, किसी में असंख्यात आवलीप्रमाण जीव चौबीस विभक्तिस्थानको प्राप्त होते हैं, इससे यह निश्चित होता है कि गुणकार आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होना चाहिये। अथवा आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण चौबीस विभक्तिस्थान संबन्धी भागहारसे संख्यात आवली प्रमाण इक्कीस विभक्तिस्थान संबन्धी भागहारको भाजित कर देनेपर आवलीका असंख्यातवां भागमात्र प्राप्त होता है, इससे भी यही निश्चित होता है कि प्रकृतमें गुणकारका प्रमाण आवलीका असंख्यातवां भाग ही है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ म्मीसाणकप्पेसु एकवीसविहत्तिया (-य) जीवभागहारे संते णिरयतिरिक्खेसु असंखेज्जावलियमेत्तेण भागहारेण होदव्वं ? ण च एवं, वातपुधत्तमेत्तुवक्कमणंतरेण उक्कस्सेण सह विरोहादो। ण एस दोसो, णिरयतिरिक्खगईसु एकवीसविहत्तियाणमसंखेज्जावलियमेत्तभागहारभुवगमादो । ण च वासपधत्तंतरेण सह विरोहो, तस्स वइपुलवाचयत्तावलंबणादो । पयारंतरेण वि एत्थ परिहारो चिंतिय वत्तब्वो।
* अट्ठावीससंतकम्मिया असंखेनगुणा ।
६४०५. कुदो ? अहावीससंतकम्मिए सम्मादिष्ठिणो मोत्तूण अण्णत्थ अणंताणु० चउक्कस्स विसंजोयणाभावादो। ण च ते सव्वे विसंजोएंति तेसिमसंखेज्जदिभागमेत्ताणं चेव जीवाणं अणंताणुबंधिविसंजोयणपरिणामाणं संभवादो। एत्थ को गुण
शंका-जब कि सौधर्म और ऐशान कल्पमें इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका प्रमाण लानेके लिये भागहार संख्यात आवली प्रमाण है तो नारकी और तियचोंमें इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका प्रमाण लानेके लिये भागहारका प्रमाण असंख्यात आवली होना चाहिये। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि ऐसा माननेपर नारकी और तिर्यंचोंमें इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंके उत्कृष्ट उपक्रमणकालका अन्तर जो वर्षपृथक्त्व प्रमाण कहा उसके साथ विरोध आता है ?
समाधान-यह दोष ठीक नहीं है, क्योंकि नरकगति और तिर्यचगतिमें इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंकी संख्या लानेके लिये भागहारका प्रमाण असंख्यात आवली स्वीकार किया है। किन्तु ऐसा स्वीकार करनेपर भी इस कथनका वर्षपृथक्त्व प्रमाण अन्तर कालके साथ विरोध नहीं आता है, क्योंकि यहां वर्षपृथक्त्व पद वैपुल्यवाची स्वीकार किया है । अथवा यहां उक्त शंकाका परिहार प्रकारान्तरसे विचार करके कहना चाहिये। ___ * चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं।
४०५. शंका-चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे क्यों हैं ?
समाधान-अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले सम्यग्दृष्टि जीवोंको छोड़ कर अन्यत्र चार अनन्तानुबन्धी प्रकृतियोंकी विसंयोजना नहीं होती है। पर सभी अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले सम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना नहीं करते हैं, क्योंकि उनके असंख्यातवें भागमात्र ही जीवोंके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजनाके कारणभूत परिणाम सम्भव हैं । इससे प्रतीत होता है कि चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे अट्ठाईस विभकिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे होते हैं।
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गा० २२] पयडिहाणविहत्तीए अप्पाबहुप्राणुगमो
३७५ गारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । उवक्कमणकालविसेसो एत्थ ण णिहालेयव्वो, उवक्कममाणजीवाणं पमाणेण अविसेसे संते उवक्कमणकालविसयफलोवलंभादो।
* छव्वीसविहत्तिया अणंतगुणा।
४०६. को गुणगारो ? छव्वीसविहत्तियरासिस्स असंखेज्जदिभागों । एवं चुण्णिसुत्तोपो उच्चारणोघसमाणो समत्तो ।
६४०७. संपहि उच्चारणमस्सियूण आदेसप्पाबहुअंवत्तहस्सामो । कायजोगि-ओरा लिय०-अचक्खु०-भवसिद्धि०-आहारि त्ति ओघभंगो।
६४०८. आदेसेण णिरयगईएणेरईएसु सव्वथोवा वावीसविहत्तिया। सत्तावीसबिह० असंखेज्जगुणा, एक्कवीसविह० असंवेज्जगुणा, चउवीसवि० असंग्वेज्जगुणा, अहावीसवि० असंखे० गुणा, छव्वीसविह० असंखेज्जगुणा। एवं पढमपुढवि-पंचिंदियतिरिक्ख
शंका-चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंकी संख्यासे अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंकी संख्याके लानेके लिये गुणकारका प्रमाण क्या है ?
समाधान-गुणकारका प्रमाण आवलीका असंख्यातवां भाग है।
प्रकृतमें उपक्रमण कालविशेषका विचार नहीं करना चाहिये, क्योंकि उपक्रमण कालों में उत्पन्न होनेवाले जीवोंकी संख्या यदि समान हो तो उपक्रमणकालकी अपेक्षा विचार करने में सार्थकता है।
* अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीव अनन्तगुणे हैं।
४०६. शंका-प्रकृतमें गुणकारका प्रमाण क्या है ?
समाधान-प्रकृतमें गुणकारका प्रमाण छव्वीस विभक्तिस्थानवाली जीवराशिका असंख्यातवां भाग है। ___ इस प्रकार चूर्णिसूत्रके ओघका कथन समाप्त हुआ। इसके समान ही उच्चारणाका ओघका कथन है।
६४०७. अब उच्चारणाका आश्रय लेकर आदेशकी अपेक्षा अल्पबहुत्वको बतलाते हैं- काययोगी, औदारिककाययोगी, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक इनमें अट्ठाईस आदि विभक्तिस्थानवाले जीवोंका अल्पबहुत्व ओघके समान है।
६४०८. आदेशसे नरकगतिमें नारकियोंमें बाईस विभक्तिस्थानवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे सत्ताईस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार पहली पृथिवीके नारकी जीवोंमें, पंचेन्द्रिय
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जयघवलासहिदे कसायपाहुडे । पडिविहत्ती २ पंचिंतिरि०पज्जत्त-देव-सोहम्मादि जाव सहस्सारे ति वत्तव्वं । विदियादि जाप सत्तमि त्ति एवं चेव वत्तव्वं । णवरि वावीस-एक्कपीसविहत्तिया णत्थि। एवं पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी-भवण-वाण-जोदिसि० वत्तव्यं । तिरिक्व० पढमपुढविभंगो। णवरि छव्वीसविहात्तया अणंतगुणा । पंचिंदियतिरिक्वअपज्ज. सव्वत्थोवा सत्तावीसविह० । अहावीसविह० असंखेज्जगुणा । छव्वीसविह० असं० गुणा । एवं मणुसअपज्ज-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदिय अपज्ज-चत्तारिकाय यादर-सुहुम-पज्जत्तापज्जत्ततस अपज्ज-विहंग० वत्तव्वं ।
६ ४०६. मणुस्सेसु सव्वत्थोवा पंचविहत्तिया। एगवि० संखेज्जगुणा, दुवि विसेसाहिया, तिवि० विसेसा०, एक्कारसवि० विसे०, बारसवि० विसे०, चदुवि० संखेज्जगुणा, तेरसवि• संखे० गुणा०, वावीसवि० संखे० गुणा, तेवीसवि० विसे०, एकतिर्यच और पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त जीवोंमें तथा सौधर्म और ऐशान स्वर्गसे लेकर सहस्त्रार तकके देवोंमें अल्पबहुत्वका कथन करना चाहिये। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवी पृथिवी तक भी इसीप्रकार कथन करना चाहिये। इतनी विशेषता है कि यहां बाईस और इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीव नहीं होते हैं। दूसरी आदि पृथिवियोंमें अल्पबहुत्वका जिसप्रकार कथन किया है उसीप्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती जीवोंमें तथा भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें कहना चाहिये। सामान्य तिर्यंचोंमें पहली पृथिवीके समान अल्पबहुत्वका कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि यहां पर अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीव अनन्तगुणे होते हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकोंमें सत्ताईस विभक्तिस्थान वाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार मनुष्य लब्ध्यपर्याप्त, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, बादर और सूक्ष्म तथा पर्याप्त और अपर्याप्तके भेदसे पृथिवी आदि चारों स्थावरकाय, त्रसलब्ध्यपर्याप्त और विभंगज्ञानी जीवोंमें कथन करना चाहिये ।
६४०१. मनुष्योंमें पांच विभक्तिस्थानवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे एक विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे दो विभक्तिस्थानवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे तीन विभक्तिस्थानवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे ग्यारह विभक्तिस्थानवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे बारह विभक्तिस्थानवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे चार विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे तेरह विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे बाईस विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे तेईस विभक्तिस्थानवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे सत्ताईस विभ
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गा० २२ ] पयडिट्ठाणविहत्तीए अप्पाबहुप्राणुगमो
३७७ वीसवि० संखेजगुणा, 'घउवीसवि० संखेजगुणा, सत्तावीसवि० असंखेजगुणा, अहावीसवि. असंखे० गुणा, छव्वीसवि. असंखे० गुणा। एवं मणुसपज०, णवरि संखजगुणं कायव्वं । मणुस्सिणीसु सव्वत्थोवा एगविहत्तिया, दुवि० विसेसा०, तिवि० विसे०, एक्कारसवि. विसे०, बारसवि. विसे०, चदुवि० संखे० गुणा, तेरसवि० संखे० गुणा, बावीसविह० संखे० गुणा, तेवीसवि० विसेसा०, एकवीसवि० संखेजगुणा, चउवीसवि० संखेजगुणा, सत्तावीसविह० संखे० गुणा, अहावीसवि० संखे० गुणा, छव्वीसवि० संखे० गुणा ।। ___४१०. आणदादि जाव उवरिमगेवजे ति सव्वत्थोवा वावीसवि०, सत्तावीसवि० असंखे० गुणा, छव्वीसवि० असंखे० गुणा, एक्कावीसवि० संखे० गुणा, चउवीसवि० संखे० गुणा, अट्ठावीसवि० संखे० गुणा । अणुद्दिसादि जाव अवराइदत्ति सव्वत्थोवा बाबीसवि०, एक्कवीसवि० असंखे० गुणा, चउवीसवि० संखे० गुणा, क्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार पर्याप्त मनुष्यों में अल्पबहुत्वका कथन करना चाहिये। इतनी विशेषता है कि सामान्य मनुष्योंमें सत्ताईस, अट्ठाईस और छब्बीस स्थानवाले उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे हैं। पर पर्याप्तमनुष्योंमें उक्त स्थानवाले जीवोंको उत्तरोत्तर संख्यातगुणे कहना चाहिये । स्त्रीवेदी मनुष्योंमें एक विभक्तिस्थानवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे दो विभक्तिस्थान वाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे तीन विभक्तिस्थानवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे ग्यारह विभक्तिस्थानवाले जीव विशेष . अधिक हैं । इनसे बारह विभक्तिस्थानवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे चार विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे तेरह विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे बाईस विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे तेईस विभक्तिस्थान वाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे सत्ताईस विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अट्ठाईस विभक्तिस्थान वाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं।
४१०. आनतकल्पसे लेकर उपरिम प्रैवेयक तकके देवोंमें बाईस विभक्तिस्थानवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे सत्ताईस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। अनुदिशसे लेकर अपराजित तकके देवोंमें बाईस विभक्तिस्थानवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीव
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ अहावीसवि० संखे० गुणा । एवं सबढे, णवरि संखेजगुणं कायव्वं । - $ १११. इंदिशाणुवादेण एइंदिय-बादर० पज० अपज-सुहुमेइंदिय-सुहुमेइंदियपन्ज-सुहुमेइंदिय अपजत्तएसु सव्वत्थोवा सत्तावीसविहत्तिया। अहावीसवि० असंखेजगुणा, छन्चीसवि० अणंतगुणा । एवं सबवणफदि-सव्वणिगोद-मदि-सुद-अण्णाणमिच्छादिष्टि असण्णि त्ति वत्तव्यं । णवरि बादरवणप्फदिकाइय-पत्तेयसरीरपज. अपज०-बादरणिगोदपदिहिदपजत्तअपजत्ताणं पुढविकाइयभंगो । पंचिंदिय-पंचिंदियपज०-तस-तसपज्ज० ओघमंगो। णवरि छव्वीसवि० असंखे० गुणा । एवं पंचमणपंचवचि०-सण्णि-चक्खु ति क्त्तव्वं ।
६४१२. ओरालियमिस्स० सव्वत्थोवा वावीसविहत्तिया, एकवीसवि० संखे० गुणा, चउवीसवि० संखे० गुणा, सत्तावीसवि० असंखे० गुणा, अट्ठावीसवि० असंखे० असंख्यातगुणे हैं । इनसे चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें भी कथन करना चाहिये। इतनी विशेषता है कि अनुदिशादिकमें बाईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे कह आये हैं, पर यहां बाईस विभक्तिस्थानवालोंसे इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे होते हैं।
६४११. इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवों में सत्ताईस विभक्तिस्थानवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीव अनन्तगुणे हैं। इसीप्रकार सभी वनस्पतिकायिक, सभी निगोद, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, मिथ्यादृष्टि और असंझी जीवोंमें कथन करना चाहिये। इतनी विशेषता है कि बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त, बादरवनस्पति प्रत्येक शरीर अपर्याप्त, बादर निगोद प्रतिष्ठित प्रत्येकशरीर पर्याप्त और बादर निगोद प्रतिष्ठित प्रत्येकशरीर अपर्याप्त जीवोंमें पृथिवी कायिक जीवोंके अल्पबहुत्वके समान अल्पबहुत्व कहना चाहिये । पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस और त्रसपर्याप्त जीवोंमें ओषके समान अल्पबहुत्व कहना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनमें छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीव अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे अनन्तगुणे न होकर असंख्यातगुणे होते हैं । इसीप्रकार पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, संज्ञी और चक्षुदर्शनी जीवोंमें अल्पबहुत्वका कथन करना चाहिये।
६४१२. औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें बाईस विभक्तिस्थानवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे सत्ताईस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे
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गा० २२ पयडिट्ठाणविहत्तीए अप्पाबहुआणुगमो
३७६ गुणा, छव्वीसवि० अणंतगुणा । वेउन्चिय० सव्वत्थोवा सत्तावीसवि० एकवीसवि० असंखे० गुणा, चउवीसवि० असंखे० गुणा, अहावीसवि० असंखे० गुणा, छवीसवि० संखे० गुणा । वेउव्वियमिस्स० सव्वत्थोवा वावीसविहत्तिया, एकवीसवि० संखे० गुणा, सत्तावीसवि० असंखे० गुणा, चउवीसवि० असंखे० गुणा, अहावीसवि० असंखे० गुणा, छब्बीसवि० असंखे० गुणा । कम्मइय० एवं चेव । णवरि छन्वीसवि० अणंतगुणा । एवमणाहार० वत्तव्वं । आहार-आहारमिस्स० सव्वट्ठभंगो, णवरि वावीसं णत्थि।
६४१३. वेदाणुवादेण इत्थि० सव्वत्थोवा बारसविहत्तिया, तेरसवि० संखे० गुणा, बावीसवि० संखे० गुणा, तेवीसवि. विसे०, एकवीसवि० संखे० गुणा, सत्तावीसवि० असंखे० गुणा, चउवीसवि० असंखे० गुणा, अहावीसवि० असंखे० गुणा, छव्वीसवि. अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीब अनन्तगुणे हैं। वैक्रियिक काययोगी जीवोंमें सत्ताईस विभक्तिस्थानवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यागुणे हैं। इनसे छब्बोस विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें बाईस विभक्तिस्थानवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे सत्ताईस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार कार्मणकाययोगी जीवोंमें भी अल्पबहुत्वका कथन करना चाहिये। इतनी विशेषता है कि कार्मणकाययोगियों में अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीव अनन्तगुणे होते हैं। कार्मणकाययोगियोंके समान अनाहारक जीवोंमें अल्पबहुत्वका कथन करना चाहिये । आहारक और आहारकभित्रकाययोगी जीवोंमें सर्वार्थसिद्धिके देवोंके समान अल्पबहुत्वका कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इन दो योगवाले जीवोंके बाईस विभक्तिस्थान नहीं पाया जाता है।
४१३.वेद मार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदमें बारह विभक्तिस्थानवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे तेरह विभक्तिस्थानत्राले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे बाईस विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे तेईस विभक्तिस्थानवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे सत्ताईस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्या
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ असंखे० गुणा । पुरिसवेदे सव्वत्थोवा पंचविहत्तिया, एक्कारसवि० संखे० गुणा, बारसवि० विसेसा०, तेरसवि० संखे० गुणा, बावीसवि० संखे० गुणा, तेवीसवि० विसे०, सत्तावीसवि० असंखे० गुणा, एकवीसवि० असंखे० गुणा, चउवीसवि० असंखे० गुणा, अट्ठावीसवि० असंखे० गुणा, छव्वीसवि० असंखे० गुणा । णqसए सम्बत्थोवा बारसविहतिया, तेरसवि० संखे० गुणा, वावीसवि० संखे० गुणा, तेवीसवि० विसे०, सत्तावीसवि० असंखे० गुणा, एकवीसवि० असंखे० गुणा, चउवीसवि० असंखे० गुणा, अहावीसवि० असंखे० गुणा, छव्वीसवि० अणंतगुणा । अवगद० सव्वत्थोवा एकारसवि०, एक्कवीसवि० संखे० गुणा, चउवीसवि० संखे० गुणा, पंचवि० संखे० गुणा, एगवि० संखे० गुणा, दुवि० विसेसा०, तिवि० विसेसा०, चदुवि० संखेजगुणा।
४१४. कसायाणुवादेण कोधक० सव्वत्थोवा पंचविहत्तिया, एक्कारसवि० संखे० तगुणे हैं। पुरुषवेदमें पांच विभक्तिस्थानवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे ग्यारह विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे बारह विभक्तिस्थानवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे तेरह विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे बाईस विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे तेईस विभक्तिस्थानवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे सत्ताईस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। नपुंसकवेदमें बारह विभक्तिस्थानवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे तेरह विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे बाईस विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे तेईस विभक्तिस्थानवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे सत्ताईस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातंगुणे हैं । इनसे इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीव अनन्तगुणे हैं। अपगतवेदमें ग्यारह विभक्तिस्थानवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे पांच विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे एक विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे दो विभक्तिस्थानवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे तीन विभक्तिस्थानवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे चार विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं।
११४. कषाय मार्गणाके अनुवादसे क्रोधकषायमें पांच विभक्तिस्थानवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे ग्यारह विभकिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे बारह विभक्ति.
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गा० २२ ] पयडिहाणविहत्तीए अप्पाबहुप्राणुगमो गुणा, बारसवि० विसे०, चदुवि० संखे० गुणा । सेसमोघभंगो। माणक० सव्वत्थोवा पंचवि०, चदुण्हं० संखे० गुणा, एक्कारसवि० विसे०, बारसवि० विसे०, तिण्हं संखे० गुणा, तेरसण्हं० संखे० गुणा । सेसमोघमंगो । मायाकसाय० सव्वत्थोवा पंचण्ह विहत्तिया, तिण्हं वि० संखे० गुणा, चदु० विसे०, एकारस० विसे०, बारस. विसे०, दोण्हं संखे० गुणा, तेरस० संखे० गुणा । सेसमोघमंगो। लोभक० सव्वत्थोवा पंचण्हं, दोण्ह० संखे० गुणा, तिण्हं. विसे०, चदुण्हं० विसे०, एक्कारस० विसे०, बारस० विसे०, एकवीस० संखे० गुणा, तेरसण्हं वि० संखे० गुणा । सेसमोघमंगो। अकसायि० सम्वत्थोवा एक्कवीसविहत्तिया, चउवीस० संखे० गुणा । एवं जहाक्खादाणं वत्तव्यं ।
$ ४१५. आमिणि-सुद०-ओहि सव्वत्थोवा पंचविहत्तिया, एक्कवि० संखे० स्थानवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे चार विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। शेष कथन ओघके समान है । मानकषायमें पांच विभक्तिस्थानवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे चार विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे ग्यारह विभक्तिस्थानवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे बारह विभक्तिस्थानवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे तीन विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे तेरह विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। शेष कथन ओघके समान है। मायाकषायमें पांच विभक्तिस्थानवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे तीन विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे चार विभक्तिस्थानवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे ग्यारह विभक्तिस्थानवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे बारह विभक्तिस्थानवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे दो विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे तेरह विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। शेष कथन ओघके समान है। लोभकषायमें पांच विभक्तिस्थानवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे दो विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे तीन विभक्तिस्थानवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे चार विभक्तिस्थानवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे ग्यारह विभक्तिस्थानवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे बारह विभक्तिस्थानवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे एक विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे तेरह विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। शेष कथन ओघके समान है। अकषायी जीवोंमें इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। अकषायी जीवोंमें जिसप्रकार अल्पबहुत्वका कथन किया है उसीप्रकार यथाख्यातसंयतोके भी अल्पबहुत्वका कथन करना चाहिये।
४१५. मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें पांच विभक्तिस्थानवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे एक विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इसप्रकार तेईस विभक्ति
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[पयडिविहत्ती २
गुणा । एवं जाव तेवीसविहत्तिओ त्ति ओघभंगो। तदो एकवीस० असंखे० गुणा, चउबीस० असंखे० गुणा, अट्ठावीस० असंखे० गुणा । एवमोहिदंसण० सम्मादिहि त्ति वत्तव्वं । मणपज्ज० एवं चेव, णवरि संखेज्जगुणं कायव्वं । एवं संजद० सामाइयच्छेदो० वत्तव्वं । परिहार० सव्वत्थोवा वावीसविहत्तिया, तेवीसविह. विसे०, एकवीसवि० संखे. गुणा, चउवीसवि० संखे. गुणा, अट्ठावीसवि० संखे० गुणा । एवं संजदासजदाणं । णवरि चउवीसवि० असंखे० गुणा, अहावीसवि० असंखे० गुणा । सुहुमसांपरा० सव्वत्थोवा एक्कवि०, चउवीसवि० संखे० गुणा, एकवीस० संखे० गुणा। असंजद० सव्वत्थोवा वावीसविह०, तेवीसविह० विसे०, सत्तावीस० असंखे गुणा, एकवीसवि० असंखे० गुणा, चउवीस० असंखे० गुणा, अठावीसवि० असंखे० गुणा, छव्वीसवि. अणंतगुणा । एवं तेउ०-पम्म०। णवरि छव्वीस० स्थान तक ओघके समान कथन करना चाहिये । तदनन्तर तेईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार अवधिदर्शनी और सम्यग्दृष्टि जीवोंके भी कथन करना चाहिये । मनःपर्ययज्ञानी जीवोंके भी इसीप्रकार कथन करना चाहिये। इतनी विशेषता है कि मतिज्ञानी आदि जीवोंमें जिन स्थानवाले जीवोंको असंख्यातगुणा कहा है उन्हें यहां संख्यातगुणा कर लेना चाहिये। मनःपर्ययज्ञानी जीवोंके अल्पबहुत्वके समान संयत, सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंके अल्पबहुत्वका कथन करना चाहिये । परिहारविशुद्धिसंयतोंमें बाईस विभक्तिस्थानवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे तेईस विभक्तिस्थानवाले जीव विशेष अधिक है। इनसे इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार संयतासंयतोंके कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनमें इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। सूक्ष्मसांपरायिकसंयतोंमें एक विभक्तिस्थानवाले जीवसबसे थोड़े हैं। इनसे चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। असंयतोंमें बाईस विभक्तिस्थानवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे तेईस विभक्तिस्थानवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे सत्ताईस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इससे चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इससे छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीव अनन्तगुणे हैं। इसीप्रकार तेजोलेश्या और पद्मलेश्यामें कथन करना चाहिये। इतनी विशेषता है कि
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गा० २२]
असंखे ० गुणा ।
S ४१६. किण्ह० - पील० सव्वत्थोवा एक्कवीसविह०, सत्तावीसविह० असंखे० गुणा, चवीस असंखे० गुणा, अट्ठावीस ० असंखे० गुणा, छव्वीस ० अनंतगुणा । काउ सव्वत्थोवा बावीस विह०, सत्तावीस ० असंखे० गुणा । सेसं ओघभंगो । सुक्कलेस्सि० ० जाव तेवीसविहत्तिया त्ति ओघभंगो । तदो सत्तावीस असंखे० गुणा । उवरि आणदभंगो | अभवसिद्धि० सासण० णत्थि अप्पा बहुगं । खइयसम्माइट्ठीसु जाव तेरस विहत्तिओ त्ति ओघभंगो । तदो एकवीस असंखेजगुणा । वेदय० सव्वत्थोवा वावीसविह०, तेवीसविह० विसेसा०, चउवीस० असंखे० गुणा, अहावीस ० असंखे ० गुणा । उवसम० सव्वत्थोवा चउवीसविह०, अट्ठावीस ० असंखे० गुणा । एवं सम्मामिच्छवि ।
पावहती अप्पा बहुश्राणुगमो
0
एवमप्पा बहुगं समत्तं ।
इनमें अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे होते हैं।
. ३८३
१४१६. कृष्ण और नील लेश्यामें इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीव सबसे थोड़े है । इनसे सत्ताईस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीव अनन्तगुणे हैं । कपोतलेश्या में बाईस विभक्तिस्थानवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे सत्ताईस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । शेष कथन ओघके समान है । शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें तेईस विभक्तिस्थान तक अल्पबहुत्व ओघ के समान है । तदनन्तर तेईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे सत्ताईस विभक्तिस्थानवाले असंख्यातगुणे हैं । इनके ऊपर आनतके समान जानना चाहिये । अभव्य और सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंमें अल्पबहुत्व नहीं है । क्षायिकसम्यग्दृष्टियों में तेरह विभक्तिस्थान तक अल्पबहुत्व ओघके समान है । तेरह विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । वेदकसम्यग्दृष्टियों में बाईस विभक्तिस्थानवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे तेईस विभक्तिस्थानवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इसीप्रकार सम्य मिध्यात्व में भी कथन करना चाहिये ।
इसप्रकार अल्पबहुत्वानुयोगद्वार समाप्त हुआ ।
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trader हिदे कसा पाहुडे
* भुजगारो अप्पदरो अवद्विदो कायव्वो ।
S ४१७. देण भुजगाराणिओगद्दारं सूचिदं जइवसहाइरिएण । कथं भुजगारअप्पदर - अवहिदाणं तिन्हं पि भुजगारसण्णा ? ण, तिन्हमण्णोष्णाविणाभावीण मण्णोष्णसणाविरोहादो, अवयविदुवारेण तिन्हमवयवाणमेयत्तादो वा । भुजगाराणिओगद्दारं किमहं वुच्चदे ? पुव्वतपदाणमवद्वाणाभावपरूवणां । तत्थ भुजगारविहत्तीए इमाणि सत्तारस आणओगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति । तं जहा - समुक्कित्तणा सादियविहत्ती अणादिवत्ती धुवहित्ती अद्ध्रुवविहत्ती एगजीवेण सामित्तं कालो अंतरं, णाणाजीवेहि भंगविचओ भागाभागो परिमाणं खेतं पोसणं कालो अंतरं भावो अप्पाबहुअं चेदि ।
३८४
१४१८. समुक्कित्तणाणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण अत्थि भुजगार - अप्पदर - अवद्विदविहत्तिया । एवं सत्तसु पुढवीसु | तिरिक्ख-पांचदियतिरिक्ख-पंचिं० तिरि० पज्ज०-पंचिं० तिरि० जोणिणी - मणुसतिय देव भवणादि जाव * अब विभक्तिस्थानोंके विषय में भुजगार, अन्पतर और अवस्थित स्थानोंका कथन करना चाहिये ।
$ ४१७. यतिवृषभ आचार्यने इस उपर्युक्त सूत्रके द्वारा भुजगार अनुयोगद्वारको सूचित किया है।
[ पयडिविहत्ती २
शंका- भुजगार, अल्पतर और अवस्थित इन तीनोंकी भुजगार संज्ञा कैसे हो सकती है ?
समाधान-भुजगार, अल्पतर और अवस्थित ये तीनों एक दूसरेकी अपेक्षासे होते हैं, इसलिये इन्हें तीनोंमें से कोई एक संज्ञा के देने में कोई विरोध नहीं आता है । अथवा अवrathी अपेक्षा ये तीनों अवयव एक हैं, इसलिये भी ये तीनों किसी एक नामसे कहे जा सकते हैं।
शंका- यहां भुजगार अनुयोगद्वारका कथन किसलिये किया है ?
समाधान- पूर्वोक्त विभक्तिस्थान सर्वथा अवस्थित नहीं है, इसका ज्ञान कराने के लिये यहां भुजगार अनुयोगद्वारका कथन किया है ।
भुजगार विभक्तिस्थान में ये सत्रह अनुयोगद्वार जानने चाहियें। वे इसप्रकार हैंसमुत्कीर्तना, सादिविभक्ति, अनादिविभक्ति, ध्रुवविभक्ति और अध्रुवविभक्ति, एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल और अन्तर तथा नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व ।
४१. उनमें से समुत्कीर्तनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा भुजगार अल्पतर और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव हैं । इसीप्रकार सातों पृथिवियोंके नारकियोंमें तथा तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय पर्याप्त तियंच, पंचेन्द्रिय योनिमती तियंच, सामान्य, पर्याप्त और स्त्रीवेदी ये
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गा० २२ ] भुजगारविहत्तीए समुक्तित्तणा
३८५ उवरिमगेवज्जे सि-पंचिंदिय पंचिं०पज्ज०-तस-तसपज्ज०-पंचमण०-पंचवचि०-कायजोगि-ओरालिय०-वेउव्विय तिण्णिवेद०-चत्तारि कसाय-असंजद-चक्खु०-अचक्खु.. छलेस्स-भवसि०-सण्णि-आहारि त्ति वत्तव्यं । पंचिं० तिरिक्खअपज्ज० अस्थि अप्पदर-अवष्टिदविहत्तिया । एवं मणुसअपज्ज०-अणुद्दिसादि जाव सबह सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचिं. अपज्ज-पंचकाय-तसअपज्ज० ओरालियमिस्स०- . देउव्यियमिस्स-कम्मइय०-अवगद०-मदि- सुद - अण्णाण - विहंग आभिाण ०-सुद०. ओहि०-मणपज्ज०-संजद-सामाइयच्छेदो०-परिहार०-संजदासंजद-ओहिंदंस० सम्मादि. खड्य-वेदय०-उवसम-मिच्छादि -असण्णि-अणाहारित्ति वसव्वं । आहार०-आहारमिस्स० अस्थि अवहिदविहत्तिया। एवमकसायि०-सुहुमसांपराइय०-जहाक्खाद०अभवसिद्धि ०-सासण-सम्मामिच्छाइ० ।
एवं समुक्त्तिणा समत्ता। तीनों प्रकारके मनुष्य, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर उपरिम अवेयक तकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, सपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पाचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिक काययोगी, वैक्रियिक काययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी, चारों कषायवाले, असंयत, चक्षुर्दशनी, अचक्षुदर्शनी, छहों लेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंमें कथन करना चाहिये । अर्थात् इन उपर्युक्त मार्गणाओंमें भुजगार, अल्पतर और अस्थित ये तीनों प्रकारके स्थान पाये जाते हैं।
पंचेन्द्रियतिथंच लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंमें अल्पतर और अवस्थित ये दो स्थान पाये जाते हैं भुजगार नहीं। इसीप्रकार लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य, अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव, सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, पांचों स्थावरकाय, त्रसलब्ध्यपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, अपगतवेदी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, मिथ्याष्टि, असंज्ञो और अनाहारक जीवोंमें कथन करना चाहिये । अर्थात् इन उपर्युक्त मार्गणाओंमें भुजगारके बिना अल्पतर और अवस्थित ये दो स्थान पाये जाते हैं।
आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें केवल एक अवस्थित विभक्तिस्थानवाले ही जीव होते हैं। इसीप्रकार अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, अभव्य, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यमिथ्यादृष्टि जीवोंमें जानना चाहिए।
इस प्रकार समुत्कीर्तना अनुयोगद्वार समाप्त हुआ।
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३८६
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पयडिविहत्ती २
६४१६. सादिय-अणादिय धुव-अद्भुव-अणिओगद्दाराणि जाणिदण वत्तव्वाणि ।
६४२०.सामित्ताणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य। तत्थ ओघेण भुजगारअप्पदर-अवष्टिदविहत्ती कस्स ? अण्णदरस्स सम्मादिष्ठिस्स मिच्छादिष्ठिस्स वा । एवं सत्तमपुढवि०-तिरिक्ख-पंचिंतिरिक्ख-पंचिं० तिरि० पज्ज-पंचिं० तिरि० जोणिणीमणुस्सतिय-देव-भवणादि जाव उवरिमगेवज्ज-पंचिंदिय-पंचिं० पज०-तस-तसपज०पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि-ओरालिय०-वेउब्धिय-तिण्णिवेद-चत्तारि क०-असंजदचक्खु०-अचक्खु०-छलेस्सा०-भवसिद्धिय०-सण्णि-आहारि त्ति वत्तव्वं । पंचिं. तिरि० अपज० अप्पदर० अवष्टिद० कस्स ? अण्णदरस्स । एवं मणुसअपज०, अणुद्दिसादि जाव सव्वट्ठ०-सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचिं. अपज०-पंचकायतसअपज्ज०-ओरालियामिस्स० वेउव्वियमिस्स-कम्मइय - मदि- सुद-अण्णाण-विहंग०मिच्छाइ०-असण्णि-अणाहारि त्ति वत्तव्वं ।
६४२१. आहार-आहारमिस्स० अवष्ठिद० कस्स ? अण्णदरस्स । एवमकसायि०६४११. सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव अनुयोगद्वारोंको जानकर कथन करना चाहिये।
६४२०. स्वामित्व अनुयोगद्वारकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओपनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से ओघकी अपेक्षा भुजगार, अल्पतर और अवस्थित विभक्तिस्थान किसके होते हैं ? यथासम्भव किसी एक सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टिके होते हैं। इसी प्रकार सातवीं पृथ्वीके जीवोंमें तथा तिर्यंच, पंचेन्द्रियतियंच, पंचेन्द्रियतिथंच पर्याप्त, पंचेन्द्रियतिर्यंच योनीमती, सामान्य पर्याप्त और स्त्रीवेदी ये तीन प्रकारके मनुष्य, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर उपरिम अवेयक तकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी, चारों कषायवाले, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, छहों लेश्यावाले, भव्य, संज्ञो और आहारक जीवोंके कथन करना चाहिये ।
पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तकोंमें अल्पतर और अवस्थित विभक्तिस्थान किसके होते हैं ? किसी भी पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकके होते हैं। इसी प्रकार लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य, अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव, सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, लब्ध्यपर्याप्त पंचेन्द्रिय, पांचों स्थावरकाय, त्रस लब्ध्यपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाय. योगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिए।
६४२१. आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें अवस्थित विभक्तिस्थान किसके होता है ? किसी भी आहारककाययोगी या आहारकमिश्रकाययोगी जीवके होता है । इसी प्रकार अकषायी, यथाख्यातसंयत, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्या
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गा० २२) भुजगारविहचीए कालो
३८७ जहाक्खाद०-सासण-सम्मामि०वत्तव्वं । अवगद० अप्पदरं कस्स ? खवयस्स । अवद्विदं कस्स ? अण्ण. उवसामयस्स खवयस्स वा। आभिणि-सुद०-ओहि०मणपज्ज० अप्पदरं कस्स ? अण्ण० । अवष्टिदं कस्स ? अण्ण० । एवं संजदासंजदसामाइय-छेदो०-परिहार ०-संजद-ओहिदंस०-सम्मादि०-वेदय-उवसम० वत्तव्वं । सुहुमसांपराइय. अवष्ठिदं कस्स ? अण्णदर० उवसामयस्स खवयस्स वा । अब्भवसि० अवडिदं कस्स ? अण्णद० । खइयसम्माइहि० अप्पदरं कस्स ? खवयस्स । अवछिद० कस्स ? अण्ण ।
___ एवं सामित्तं समत्तं । * एत्थ एगजीवेण कालो। ६४२२. समुक्तित्तणं सामित्तं सेसाणिओगद्दाराणि च अभणिदण कालाणिओग. चेव भणंतस्स जइवसह-भयवंतस्स को अहिप्पाओ ? कालाणिओगद्दारे अवगए संते दृष्टि जीवोंके कथन करना चाहिये । - अपगतवेदी जीवोंमें अल्पतर विभक्तिस्थान किसके होता है ? क्षपक अपगतबेदीके होता है। अवस्थित विभक्तिस्थान किसके होता है ? किसी भी उपशामक या क्षपक अपगतवेदी जीवके होता है। ___मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी जीवोंमें अल्पतर विभक्तिस्थान किसके होता है ? किसी भी मतिज्ञानी आदि जीवके होता है। उक्त चार ज्ञानवाले जीवोंमें अवस्थित विभक्तिस्थान किसके होता है ? किसी भी.मतिज्ञानी आदि जीवके होता है। इसीप्रकार संयतासंयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयत, अबधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टिके कहना चाहिये।
सूक्ष्मसांपरायिकसंयतोंमें अवस्थित विभक्तिस्थान किसके होता है ? किसी भी उपशामक या क्षपक सूक्ष्मसांपरायिकसंयत जीवके होता है। अभव्योंमें अवस्थित विभक्तिस्थान किसके होता है ? किसी भी अभव्यके होता है। क्षायिकसम्यग्दृष्टियों में अल्पतर विभक्तिस्थान किसके होता है ? किसी भी क्षपक क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवके होता है। अवस्थित विभक्तिस्थान किसके होता है ? किसी भी क्षायिकसम्यग्दृष्टिक होता है।
इसप्रकार खामित्वानुयोगद्वार समाप्त हुआ। * अब एक जीवकी अपेक्षा कालका कथन करते हैं।
$ ४२२. शंका-यतिवृषभ आचार्यने समुत्कीर्तना, स्वामित्व और शेष अनुयोगद्वारोंका कथन न करके केवल कालानुयोगद्वारका कथन किया, सो इससे उनका क्या अभिप्राय है?
समाधान-कालानुयोगद्वारके ज्ञात हो जानेपर बुद्धिमान शिष्य दूसरे अनुयोगद्वारोंको
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिषिहत्ती २ सेसाणिओगद्दाराणि बुद्धिमंतेहि सिस्सेहि अवगंतुं सकिजंति, सेसाणिओगद्दाराणं काल- . जोणित्तादो, तेण कालाणुओगदारं चेव परूवेमि त्ति एदेण अहिप्पाएण एत्थ एगजीवेण कालो त्ति भणिदं ।
(* भुजगार-संतकम्मविहत्तिओ केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुकस्सेण एगसमओ।)
६४२३. कुदो १ छव्वीसविहत्तिएण सत्तावीसविहत्तिएण वा सम्मत्ते गहिदे जहण्णुकस्सेण भुजगारस्स एगसमयमेत्तकालुवलंभादो को भुजगारो णाम ? अप्पदरपयडिसंतादो बहुदरपयडिसंतपडिवजणं भुजगारो) चउवीससंतकम्मियसम्मादिष्टिम्मिमिच्छतमुवगदम्मि वि भुजगारस्सेगसमओ लब्भइ, चउवीससंतादो अहावीससंतमुवगयस्स पयडिवड्ढिदसणादो।
* अप्पदर-संतकम्मविहत्तिओ केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एगसमओ। जान सकते हैं, क्योंकि शेष अनुयोगद्वारोंका काल अनुयोगद्वार योनि है। इसलिये 'मैं ( यतिवृषभ आचार्य) कालानुयोगद्वारका ही कथन करता हूँ' इस अभिप्रायसे यतिवृषभ आचार्यने यहां 'एगजीवेण कालो' यह सूत्र कहा है ।
* भुजगार विभक्तिस्थानवाले जीवका काल कितना है ? जघन्य और उत्कृष्ट . काल एक समय है।
६४२३. शंका-भुजगार विभक्तिस्थानवाले जीवका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कैसे है ?
समाधान-जब कोई एक छब्बीस विभक्तिस्थानवाला या सत्ताईस विभक्तिस्थानवाला जीव सम्यक्त्वको ग्रहण करके अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाला होता है तब उसके भुजगारका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय पाया जाता है।
शंका-भुजगार किसे कहते हैं ?
समाधान-थोड़ी प्रकृतियोंकी सत्तासे बहुत प्रकृतियोंकी सत्ताको प्राप्त होना भुजगार कहलाता है। तथा अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना होकर जिसके चौबीस प्रकृतियोंकी सत्ता है ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव जब मिथ्यात्वको प्राप्त होता है तब उसके भी मुजगारका एक समय मात्र काल देखा जाता है, क्योंकि चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तासे अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ताको प्राप्त हुए जीवके प्रकृतियोंमें वृद्धि देखी जाती है, इसलिये यह भुजगार है।
* अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीवका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय है।
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गा० २२]
भुजगारविहवीए कालो १४२४. क्रुदो ? अट्ठावीस-विहत्तिएण अणंताणुवंघिचउक्के विसंजोइदे अप्पदरस्स एगसमयकालुवलंभादो। एवं सम्मत्तसम्मामिच्छत्तुव्वेजिदपढमसमए मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्त-सम्मत्ताणि खविदपढमसमए खवगसेढीए खविदपपडीणं पढमसमए च अप्पदरस्स एगसमओ जहण्णओ परूवेयव्यो ।
* उकस्सेण वे समया। ६४२५ कुदो ? णqसयवेदोदएण खवगसेढिं चडिदम्मि सवेदयदुचरिमसमए इत्थिवेदे परसरुवेण संकामिदे तेरससंतकम्मादो बारससंतकम्ममुवणमिय से काले णqसयवेदे उदयहिदं गालिय बारससंतकम्मादो एक्कारससंतकम्ममुनगयम्मिणिरंतरमप्पदरस्स बेसमयउवलंभादो।
* अवढिदसंतकम्मविहत्तियाणं तिणि भंगा।
$ ४२६. तं जहा, केसि पि अणादिओ अपज्जवसिदो, अभव्वेसु अभव्बसमाणभब्वेसु च णिश्चणिगोदभावमुवगएसु अवहाणं मोत्तूण भुजगारअप्पदराणमभावादो ।
$ १२४. शंका-अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीवका जघन्यकाल एक समय कैसे है?
समाधान-जो अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाला जीव अनन्तानुबन्धी चारकी विसंयोजना करता है उसके अल्पतरका एक समय मात्र काल देखा जाता है।
इसीप्रकार सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिकी उद्वेलना कर चुकनेपर पहले समयमें, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृतिके क्षय कर चुकनेपर पहले समयमें तथा क्षपक श्रेणीमें क्षयको प्राप्त हुई प्रकृतियोंके क्षय हो चुकनेपर पहले समयमें अल्पतरके एक समयप्रमाण जघन्य कालका कथन करना चाहिये। .
* अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीवका उत्कृष्टकाल दो समय है।
४२५. शंका-अल्पतर विभक्तिस्थानवालेका उत्कृष्टकाल दो समय कैसे है ? समाधान-जब कोई जीव नपुंसकवेदके उदयके साथ क्षपकश्रेणीपर चढ़कर और और सवेद भागके द्विचरम समयमें खीवेदको परप्रकृतिरूपसे संक्रान्त करके तेरह प्रकतियोंकी सत्तासे बारह प्रकृतियोंकी सत्ताको प्राप्त होता है और उसके अनन्तर समयमें ही नपुंसकवेदकी उदयस्थितिको गलाकर बारह प्रकृतियोंकी सत्तासे ग्यारह प्रकृतियोंकी सत्ताको प्राप्त होता है तब उसके अल्पतरका निरन्तर दो समय प्रमाण काल देखा जाता है।
* अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंके अवस्थित विभक्तिस्थानोंके तीन मंग होते हैं।
६४२६.वे इसप्रकार हैं-किन्हीं जीवोंके अवस्थित विभक्तिस्थान अनादि-अनन्त होता है, क्योंकि जो अभव्य हैं या अभव्योंके समान नित्यनिगोदको प्राप्त हुए भव्य हैं, उनके अपस्थित स्थानके सिवाय भुजगार और अल्पतर स्थान नहीं पाये जाते हैं। किन्हीं जीवोंके
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३६०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[पयडिविहत्ती २
केसि पि अणादिओ सपञ्जवसिदो, अणादिसरूवेण छव्वीसपयडीसंतम्मि अच्छिय सम्मत्तमुवगयजीवम्मि अवठाणस्स अणादिसणिहणत्तदंसणादो। केसि पि सादिसपज्जवसिदो।
* तत्थ जो सो सादिओ सपज्जवसिदो तस्स जह• एगसमओ।
६४२७. कुदो ? अंतरकरणं करिय मिच्छत्तपढमहिदिदुचरिमसमयम्मि सम्मत्तमुव्वेलिय अप्पदरं काऊण तदो मिच्छादिष्टिचरिमसमयम्मि एगसमयमवहाणं काऊण तदियसमए सम्मत्तं पडिवण्णजीवम्मि अप्पदरभुजगाराणं मज्झे अवट्टिदस्स एगसमयकालुवलंभादो। ___* उक्कस्सेण उवट्ठपोग्गलपरियद । अवस्थित विभक्तिस्थान अनादि-सान्त होता है, क्योंकि जिस जीवके अनादि कालसे छब्बीस प्रकृतियोंकी सत्ता है उसके सम्यक्त्वको प्राप्त होनेपर अवस्थित विभक्तिस्थान अनादि-सान्त देखा जाता है। किन्हीं जीवोंके अवस्थित विभक्तिस्थान सादि-सान्त होता है।
* इन तीनोंमेंसे जो अवस्थित विभक्तिस्थानका सादि-सान्त भंग है उसका जघन्यकाल एक समय है।
४२७. शंका-इसका जघन्यकाल एक समय कैसे है ?
समाधान-जो जीव अन्तरकरण करनेके अनन्तर मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिके द्विचरम समयमें सम्यक्त्वकी उद्वेलना करके अट्ठाईस विभक्तिस्थानसे सत्ताईस विभक्तिस्थानको प्राप्त होकर एक समय तक अल्पतर विभक्तिस्थानवाला होता है। अनन्तर मिध्यादृष्टि गुणस्थानके अन्तिम समयमें सत्ताईस विभक्तिस्थानरूपसे एक समय तक अवस्थित रहकर मिथ्यात्वके उपान्त्य समयसे तीसरे समयमें सम्यक्त्वको प्राप्त होकर अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाला होता है उसके अल्पतर और भुजगारके मध्यमें अवस्थितका जघन्यकाल एक समय देखा जाता है।
विशेषार्थ-यहां अवस्थित विभक्तिस्थानका जघन्यकाल एक समय बतलाते समय मिथ्यात्वगुणस्थानके अन्तके दो समय और उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुए सम्यग्दृष्टिका पहला समय, इसप्रकार ये तीन समय लेना चाहिये। इनमेंसे पहले समयमें सम्यक्त्वकी उद्वेलना कराके सत्ताईस विभक्तिस्थान प्राप्त करावे, दूसरे समयमें तदवस्थ रहने दे और तीसरे समयमें उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण कराके अट्ठाईस विभक्तिस्थानको प्राप्त करावे । तब जाकर अल्पतर और भुजगार विभक्तिस्थानके मध्य में अवस्थितविभक्तिका जघन्यकाल एक समय प्राप्त होता है। इसीप्रकार सम्यग्मिध्यात्वकी उद्वेलनाकी अपेक्षा भी अवस्थितका एक समय काल प्राप्त किया जा सकता है । ... * अवस्थित विभक्तिस्थानका उपापुद्गल परिवर्तनप्रमाण उत्कृष्टकाल है।
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गा० २२ ]
भुजगारविहत्तीए कालो .
६४२८. ऊणस्स अद्धपोग्गलपरियट्टस्स उवढपोग्गलमिदि सण्णा । उपशब्दस्य हीनार्थवाचिनो ग्रहणात् । तं जहा-एगो अणादियमिच्छादिट्ठी तिण्णि वि करणाणि काऊण पढमसम्मत्तं पडिवण्णो। तत्थ सम्मत्तं पडिवण्णपढमसमए संसारमणतं सम्मत्तगुणेण छेत्तूण पुणो सो संसारो तेण अद्धपोग्गलपरियट्टमेत्तो कदो। सव्वलहुएण कालेण मिच्छत्तं गंतूण सव्वजहण्णुव्वेलणद्धाए सम्मत-सम्मामिच्छत्ताणि उव्वेलिय अप्पदरं करिय अवहाणमुबगदो। पुणो एदेण पलिदो० असंखे० भागेणूणमद्धपोग्गलपरियट्टमवष्टिदेण सह परिभमिय अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे सम्मत्तं घेत्तण भुजगारविहत्तिओ जादो। एवमवडिदस्स पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेणूणमद्धपोग्गलपरियहमुक्कस्सकालो। एवमचक्खु० भवसिद्धि० ।। - ४२६. संपहि जइवसहाइरियपरूविदमोघमुच्चारणसरिसं भणिय बालजणाणुग्गहटं परूविदमुच्चारणादेसं वत्तइस्सामो। ६४३०. आदेसेण णिरयगईए णेरईएसु भुज. अप्प० जहण्णुक्क० एगसमओ।
६ ४२८. अर्धपुद्गलपरिवर्तनकालसे कुछ कम कालकी उपार्धपुद्गलपरिवर्तन संज्ञा है, क्योंकि यहांपर 'उप' शब्दका अर्थ हीन लिया है। उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है-कोई एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीव तीनों ही करणोंको करके प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। तथा सम्यक्त्वके प्राप्त होनेके पहले समयमें सम्यक्त्वगुणके द्वारा अनन्त संसारका छेदन कर उसने उस संसारको अर्धपुद्गलपरिवर्तनमात्र कर दिया । अनन्तर वह अतिलघु कालके द्वारा मिथ्यात्वको प्राप्त होकर और सबसे जघन्य उद्वेलनकालके द्वारा सम्यक्प्रकृति तथा सम्यमिथ्यात्वप्रकृतिकी उद्वेलना करके २८ विभक्तिस्थानसे सत्ताईस और सत्ताईस विभक्तिस्थानसे छब्बीस, इसप्रकार अल्पतर करता हुआ छब्बीस विभक्तिस्थानमें अवस्थानको प्राप्त हो गया। यह सब काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है । अतः इस कालसे न्यून अर्धपुद्गलपरिवर्तन तक अवस्थित विभक्तिस्थानके साथ संसारमें परिभ्रमण करके वह जीव संसारमें रहने का काल अन्तर्मुहूर्त शेष रह जानेपर सम्यक्त्वको ग्रहण करके छब्बीस विभक्तिस्थानसे अट्ठाईस विभक्तिस्थानको प्राप्त करके भुजगारविभक्तिस्थानवाला हो जाता है। इसप्रकार अवस्थित विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालसे कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनमात्र प्राप्त होता है। इसीप्रकार अचक्षुदर्शनी और भब्य जीवोंके कहना चाहिये।
६४२६. इसप्रकार यतिवृषभाचार्यके द्वारा कहे गये ओघनिर्देशका, जो कि उच्चारणाके समान है, कथन करके अब बाल जनोंके अनुग्रहके लिये कहे गये उच्चारणामें वर्णित आदेशको बतलाते हैं
६४३०. आदेशनिर्देशकी अपेक्षा नरकगतिमें नारकियोंमें भुजगार और अल्पतरका
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अयधवलासहिदे कसापाहुडे [पयडिविहत्ती २ अव४ि० जह० एगसमओ, उक० तेत्तीसं सागरोवमाणि | षढमादि जाव सत्तमित्ति मुज० अप्प० जहण्णुक० एगसमओ, अवष्टिद. जह. एगसमओ, उक्क० अप्पप्पणो उकस्सहिदी। एवं तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिं० तिरि० पज०-पंचिं० तिरि. जोणिणीसु । णवरि अवहिद० उक्क० अप्पप्पणो उक्कस्सहिदी । एवं मणुस-मणुसपअत्तएसु। णवरि अप्प० जह० एगस० उक्क० बे समया। मणुसणीणमेवं चेव, णव.र अप्प० जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ। पंचिं० तिरि० अपज अप्पदर० केव० ? जहण्णुक्क० एगसमओ। अवहिद० के० ? जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । एवं मणुस अपज वत्तव्वं ।
६ ४३१. देव० भुज० अप्पदर० केव०१ जहण्णुक्क एगसमओ । अवविद० के० ? जह० एगसमओ, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि । भवणादि जाव उवरिमगेवजे त्ति भुज. अप्पदर० जहण्णुक्क० एगसमओ। अवष्टिद० के० १ जह० एगसमओ, उक्क. सगजघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थितका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। पहली पृथ्वीसे लेकर सातवीं पृथ्वी तक प्रत्येक नरकमें मुजगार
और अल्पतरका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय तथा अवस्थितका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । इसीप्रकार सामान्य तियंच, पंचेन्द्रिय तियंच, पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती जीवोंमें भुजगार
आदि तीनोंके जघन्य और उत्कृष्ट कालका कथन करना चाहिये। यहां इतनी विशेषता है कि इन सामान्य तिर्यंच आदिकमें अवस्थितका उत्कृष्टकाल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण कहना चाहिये। इसीप्रकार सामान्य मनुष्य और मनुष्य पर्याप्त जीवोंमें कथन करना चाहिये। इसनी विशेषता है कि इनके अल्पतरका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल दो समय कहना चाहिये । स्त्रीवेदी मनुष्योंमें भी इसीप्रकार कथन करना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनके अल्पतरका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय होता है। __पंचेन्द्रिय तियंच लब्ध्यपर्याप्तकोंमें अल्पतरका काल कितना है ? जघन्य और संस्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थितका काल कितना है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसीप्रकार लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंके अल्पतर और अवस्थितके जघन्य और उत्कृष्टकालका कथन करना चाहिये ।
६ ४३१. देवोंमें भुजगार और अल्पतरका काल कितना है ? इन दोंनोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थितका काल कितना है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। भवनवासियोंसे लेकर उपरिमप्रैवेयक तक प्रत्येक चातिके देवों में भुजगार और अल्पतरका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है। अबस्थितका काल कितना है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण
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गा० २२
भुजगारविहत्तीए कालो सगुकस्सहिदी। अणुद्दिसादि जाव सवढे त्ति अप्पदर जहण्णुक्क० एगसमओ। अवछिद० के० १ जह० एगसमओ, उक्क० सगसगउकस्सहिदी।
६ ४३२. एइंदिय० अप्पदर० जहण्णुक० एकसमओ। अबहिद० के० ? जह० एगसमओ, उक्क० अणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियष्टा । बादरसुहुम-एइंदियाणमेवं चेव । णवरि अवहिद० उक्क० सगसगुक्कस्सहिदी। बादरेइंदियपज० अप्पदर० के० १ जहएणुक्क० एयसमओ। अवडिद० जह० एयसमओ, उक्क० संखेजाणि वाससहस्साणि । बादरेइंदियअपज-सुहुमेइंदियपजत्तापजत्त-विगलिंदियपज० (अपज०)-पंचिं० अपज०पंचकायाणं बादर-अपज० तेसि सहुम पजत्तापजत्त-तस अपज-ओरालियमिस्स०वेउव्वियमिस्सकायजोगीणं पंचिं० तिरिक्ख अपजत्तभंगो। विगलिंदिय-विगलिंदियपज०-पंचकायाणं बादरपज० बादरेइंदियपज्जत्तभंगो। पंचिंदिय-पंचिं० पज०-तसतसपजत्ताणं भुज. अप्पदर० ओघभंगो। अवडिद० जह० एगसमओ, उक्क० सगसगुक्कस्सहिदी। है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक प्रत्येक स्थानमें अल्पतरका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थितका काल कितना है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है।
६४३२. एकेन्द्रियोंमें अल्पतरका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थितका काल कितना है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्टकाल अनन्तकाल है जो असंख्यत पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। बादर एकेन्द्रिय और सूक्ष्म एकेन्द्रियोंके अल्पतर और अवस्थितका जघन्य और उत्कृष्टकाल इसीप्रकार कहना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनमें अवस्थितका उत्कृष्टकाल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण कहना चाहिये । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकों में अल्पतरका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थितका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है । बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त, विकलेन्द्रिय अपर्याप्त, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, पांचों स्थावर काय बादर अपर्याप्त, पांचों स्थावरकाय सूक्ष्म पर्याप्त, पांचों स्थावर काय सूक्ष्म अपर्याप्त, बस अपर्याप्त, औदारिक मिश्रकाययोगी और वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तकों के समान अल्पतर और अवस्थितका काल जानना चाहिये । विकलेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय पर्याप्त, पांचों स्थावर काय बादर अपर्याप्त जीवोंके अल्पतर और अवस्थितका काल बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके समान जानना चाहिये। पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस और त्रस पर्याप्त जीवोंके भुजगार और अल्पतरका काल ओघके समान है। तथा अवस्थितका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ ४३३. जोगाणुवादेण पंचमण-पंचवचि० भुज० अप्प० ओघभंगो । अवष्टि. जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । कायजोगि-ओरालिय. भुज० अप्पदर० ओघभंगो । अवष्टि जह० एयसमओ, उक्क० सगहिदी। आहार० अवहि. जह० एगसमओ, उक्क. अंतोमुहुत्तं । एवमकसाय०-सुहुमसांपराय०-जहाक्खाद० वत्तव्वं । आहारमिस्स० अवष्टि० जहण्णुक्क० अंतोमुहुत्तं । एवमुवसम-सम्मामि० । णवरि उवसम० अप्प० जहण्णुक्क० एयसमओ। कम्मइय० अप्पदर० के० ? जहण्णुक० एयसमओ । अवष्टि० जह० एगसमओ, उक्क० तिणि समया। वेउव्विय० भुज० अप्पदर० जहण्णुक्क० एगसमओ । अवहि० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० ।
४३४. वेदाणुवादेण इत्थि-पुरिस-णबुंसयवेदेसु भुज० अप्पदर० जहण्णुक्क० एगसमओ, अवहि० जह० एगसमओ, उक्क. सगसगुक्कस्सहिदी। अवगद० अप्पदर० जहण्णुक्क० एगसमओ, अवहिद० जह• एगसमओ उक्क० अंतोमुहुत्तं । कोध-माण
६४३३. योगमार्गणाके अनुवादसे पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी जीवोंमें भुजगार और अल्पतरका काल ओघके समान है। तथा अवस्थितका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। काययोगी और औदारिक काययोगी जीवोंमें भुजगार और अल्पतरका काल ओघके समान है । तथा अवस्थितका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। आहारक काययोगमें अवस्थितका जघन्यकाल एक समय
और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है । इसीप्रकार कषाय रहित जीवोंमें तथा सुक्ष्मसांपरायिक संयत और यथाख्यातसंयत जीवोंके कथन करना चाहिये । आहारकमिश्रकाययोगमें अवस्थितका जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। इसीप्रकार उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि उपशमसम्यक्त्वमें अल्पतरका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है। कार्मणकाययोगियोंमें अल्पतरका काल कितना है ? जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है। तथा अवस्थितका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल तीन समय है । वैक्रियिककाययोगियोंमें भुजगार और अल्पतरका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है । तथा अवस्थितका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है।
६४३४. वेदमार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदमें भुजगार और अल्पतरका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है। तथा अवस्थितका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। अपगतवेदमें अल्पतरका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। तथा अवस्थितका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है।
संज्वलनक्रोध, संज्वलनमान, संज्वलनमाया और संज्वलन लोभमें भुजगार और
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गा० २२ ]
भुजगारविहीए कालो
३६५
माया - लोभसंजल० भुज० अप्प० ओघभंगो । अवट्ठि० जह० एयसमओ, उक्क० अंतो
मु
०
४३५. मदि-सुद- अण्णाण अप्प० जहण्णुक्क० एगसमओ, अवहि० तिण्णि भंगा। जो सो सादि सपज्जवसिदो, तस्स जह० एगसमओ उक्क उवड्ढपोग्गलपरियडुं । एवं मिच्छादिहीणं वत्तव्यं । विहंग० अप्प जहण्णुक्क० एगसमओ | अवद्विद० जह० एगसमओ, उक्क० सगुक्कस्सहिदी | आमिणि० - सुद० - ओहि० अप्पद० ओघभंगो । अवदि० जह० दुसमऊण दोआवलियाओ, उक्क० छावसागरोमाणि सादिरेयाणि । एवमोहिदंस • सम्मादिट्ठी • वत्तव्वं । मणपज० अप्पदर० जहण्णुक्क० एगसमओ । अवदि० जह० दुसमऊण दोआवलिय०, उक्क० पुव्वकोडी देसूणा । एवं परिहार० संजदासंजद० । णवरि, अवट्टिद० जह० अंतोमुहुत्तं । सामाइय छेदो० अप्पदर० ओघभंगो | अवदि० मणपजवभंगो । णवरि जह० एयसमओ । संजद० अप्पदर ० अवदि • सामाइयछेदोवट्ठावणभंगो । णवरि अवधि ० जह० दुसमयूण दो आवलि० । अल्पतरका काल ओघके समान है। तथा अवस्थितका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ।
०
४३५. मत्यज्ञान और श्रुताज्ञानमें अल्पतरका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । तथा अवस्थितके तीन भंग हैं । उनमें से सादि-सान्त अवस्थितका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल उपार्थपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है । इसीप्रकार मिथ्यादृष्टि जीवों के भी अल्पतर और अवस्थितके कालका कथन करना चाहिये । विभंगज्ञानियों में अल्पतरका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अवस्थितका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों में अल्पतरका काल ओघके समान है । तथा अवस्थितका जघन्य काल दो समय कम दो आवलीप्रमाण और उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ सागर प्रमाण है । इसीप्रकार अवधिदर्शनी और सम्यग्दृष्टि जीवोंके अल्पतर और अवस्थितका काल कहना चाहिये । मन:पर्ययज्ञानमें अल्पतरका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । तथा अवस्थितका जघन्य काल दो समय कम दो आवलीप्रमाण और उत्कृष्टकाल कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण है । इसीप्रकार परिहार विशुद्धि संयत और संयतासंयत जीवोंके कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीवोंके अवस्थितका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है । सामायिक और छेदोपस्थापना संयतोंमें अल्पतरका काल ओघके समान है। तथा इनके अवस्थितका काल मन:पर्ययज्ञानके समान है । इतनी विशेषता है कि इनके अबस्थितका जघन्यकाल एक समय है । संयतों में अल्पतर और अवस्थितका काल सामायिक और छेदोपस्थापना के समान जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि संयतों में
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे । पयडिविहत्ती ३ असंजद० भुज० अप्प० जहण्णुक्क० एगसमओ। अवहिद० मदि-अण्णाणीभंगो ।
६४३६. चक्खु० तसपज्जत्तभंगो। पंचलेस्सा० भुज० अप्प० णारयभंगो। अवहि० जह० एयसमओ, उक्क० तेत्तीस सत्तारस सत्त बे अट्ठारस सागरोवमाणि सादिरेयाणि । सुक्कले० भुज० अप्प० ओघभंगो। अवहि० जह• एयसमओ, उक्क० तेत्तीससागरो० सादिरेयाणि । एवं खइय० । णवरि० भुज० णत्थि । अव४ि० जह० दुसमयूण दोआवलि० । वेदग० आभिणिभंगो। णवरि अप्प० जहण्णुक्क० एगसमओ । अवहि० जह० अंतोमु०, उक्क० छावहिसागरोवमाणि देसूणाणि । अभव० अवडि० अणादिअपञ्जवसिदं । सासण. अवहि० जह० एगसमओ, उक्क० छआवलियाओ। सण्णि. भुज० अप्पदर० ओघभंगो। अवष्टि० पुरिसभंगो। असण्णि० एइंदियभंगो। आहारि० भुज० अप्प० ओघभंगो । अवहि. जह एगसमओ, उक्क० अंगुलस्स असंखे० भागो। अवस्थितका जघन्यकाल दो समय कम दो आवलीप्रमाण है। असंयतोंमें भुजगार और अल्पतरका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है। तथा अवस्थितका काल मत्यज्ञानी जीवोंके समान है।
६४३६. चक्षुदर्शनी जीवोंमें भुजगार आदिका काल त्रस पर्याप्त जीवोंके समान है। कृष्ण आदि पांच लेश्याओंमें भुजगार और अल्पतरका काल नारकियोंके समान है । तथा अवस्थितका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल क्रमसे साधिक तेतीस सागर, साधिक सत्रह सागर, साधिक सात सागर, साधिक दो सागर और साधिक अठारह सागरप्रमाण है। शुक्ललेश्यामें भुजगार और अल्पतरका काल ओघके समान है। तथा अवस्थितका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागरप्रमाण है। इसीप्रकार क्षायिकसम्यग्दृष्टियों में कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि क्षायिकसम्यगदृष्टियों में भुजगार विभक्तिस्थान नहीं पाया जाता है । तथा अवस्थितका जघन्य काल दो समय कम दो आवलीप्रमाण है। वेदकसम्यग्दृष्टियों में अल्पतर आदिका काल मतिज्ञानियोंके समान है । इतनी विशेषता है कि वेदकसम्यग्दृष्टियोके अल्पतरका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। तथा अवस्थितका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम छयासठ सागर प्रमाण है। अभव्योंमें अवस्थितका काल अनादि-अनन्त है। सासादनसम्यग्दृष्टियोंमें अवस्थितका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल छह आवलीमात्र है। संज्ञी जीवोंमें भुजगार और अल्पतरका काल ओघके समान है। तथा अवस्थितका काल पुरुषवेदियोंके समान है। असंज्ञी जीवोंमें एकेन्द्रियोंके समान जानना चाहिये। आहारक जीवोंमें भुजगार और अल्पतरका काल ओघके समान है। तथा अवस्थितका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण
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गो० २२
भुजगारविहत्तीए अंतरं अणाहारि० कम्मइयभंगो।
एवमेगजीवेण कालो समत्तो। * एवं सव्वाणि अणिओगद्दाराणि णेदव्वाणि ।
६४३७. सुगमत्तादो। एवं जइवसहाइरिएण सूइदाणं सेसाणिओगद्दाराणं मंदबुद्धिजणाणुग्गहढं उच्चारणाइरिएण लिहिदुच्चारणमेत्थ वत्तइस्सामो।
६४३८. अंतराणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण भुज० विह० अंतरं के० १ जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० अद्धपोग्गलपरियह देसूणं । अप्पदर० जह• दो आवलियाओ दुसमयूणाओ, उक्क० अद्धपोग्गलपरियट्ट देसूणं । अवडि० जह० एयसमओ, उक० बेसमया । एवमचक्खु० भवसिद्धि० वत्तव्वं । एवं तिरिक्खा० णस० असंजद० । णवरि अप्पदरस्स जहण्णंतरं दुसमयूण-दोआवलियमेतं णत्थि किंतु अंतोमुहुत्तमेत्तं । कथमवहिदस्स उकस्संतरं दुसमयमेत्तं? उच्चदे-पढमसम्मत्ताहिमुहेण दंसणमोहस्स कयंतरेण अवट्ठिदपदावहिदेण मिच्छत्तपढमहिदिचरिमसमए है। अनाहारक जीवों में कार्मणकाययोगियोंके समान जानना चाहिये।
इसप्रकार एक जीवकी अपेक्षा काल समाप्त हुआ। * इसीप्रकार शेष अनुयोगद्वारोंका कथन कर लेना चाहिये ।
३ ४३७. चूँकि शेष अनुयोगद्वारोंका कथन सरल है, अतएव यतिवृषभ आचार्यने यहां उनका कथन नहीं किया।
इसप्रकार यतिवृषभ आचार्यने उपर्युक्तसूत्रके द्वारा जिन शेष अनुयोगद्वारोंकी यहां सूचना की है, उच्चारणाचार्यके द्वारा लिखी गई उन अनुयोगद्वारोंकी उच्चारणाको मन्दबुद्धि जनोंके अनुग्रहके लिये यहां बतलाते हैं
४३८. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है, ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघनिर्देशकी अपेक्षा भुजगारविभक्तिका अन्तर कितना है ? जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है। अबस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। इसीप्रकार अचक्षुदर्शनी और भव्य जीवोंके भुजगार आदि विभक्तियोंका अन्तर कहना चाहिये । इसीप्रकार सामान्य तिथंच, नपुंसकवेदी और असंयत जीवोंके कहना चाहिये। यहां इतनी विशेषता है कि इन जीवोंके अल्पतरका जघन्य अन्तर काल दो समय कम दो बावली नहीं है किन्तु अन्तर्मुहूर्त है।
शंका-अवस्थितका उत्कृष्ट अन्तरकाल दो समय कैसे है ?
समाधान-जिसने दर्शनमोहनीयका अन्तरकरण किया है और जो मोहनीयकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सचारूपसे अवस्थितपदमें स्थित है ऐसा कोई एक प्रथमोपशम
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमेकदरमुव्वेलिय अप्पदरेणंतरिय विदियसमए सम्मत्तं घेत्तम उव्वेखिदपयडिसंतमुप्पाइय भुजगारेणंतरिय तदियसमए अवट्ठाणे पदिदस्स उकस्सेण बेसमया अवडिदस्स अंतरं।
४३६. आदेसेण णेरइय० भुज० अप्पद० जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० तेत्तीससागरोवमाणि देसूणाणि । अवहि. जह• एगसमओ, उक्क० बे-समया । कारणमेस्थ वि उवरिं पि पुग्विल्लमेव वत्तव्वं । पढमादि जाव सत्तमि ति भुज० अप्प० जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० सग-सगुक्कस्साहिदीओ देसूणाओ। अवटि० जह० एगसमओ, उक्क० बेसमया। पंचिंदियतिरिक्खतिगे भुज० अप्प० जह० अंतोमु०, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि पुन्वकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि । अवहि० ओघभंगो । एवं मणुसतियस्स वत्तव्वं । णवरि मणुस-मणुसपज्जत्तएसु अप्प. जह० दोआवलियाओ दु-समयणाओ। पंचिंदियतिरिक्खअपज० अप्पदरस्स णत्थि अंतरं । अवहि० जह० उक्क० एगसमओ। सम्यक्त्वके सम्मुख हुआ जीव जब सम्यक्प्रकृति और सम्यगमिथ्यात्वप्रकृति इन दोमेंसे किसी एक प्रकृतिकी उद्वेलना करके मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिके अन्तिम समयमें अल्पतर पदके द्वारा अवस्थित पदको अन्तरित करता है । तथा दूसरे समयमें प्रथमोपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करके उद्वेलित प्रकृतिकी सत्ताको पुनः उत्पन्न करके भुजगार पदके द्वारा अवस्थित पदको अन्तरित करता है और तीसरे समयमें पुनः अवस्थानपदको प्राप्त करता है तब उसके अवस्थितपदका उत्कृष्टरूपसे दो समय प्रमाण अन्तरकाल देखा जाता है।
४३१. आदेशनिर्देशकी अपेक्षा नारकियोंमें भुजगार और अल्पतरका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरप्रमाण है। तथा अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। यहां पर भी अवस्थितके उत्कृष्ट अन्तरकाल दो समय होनेका कारण पहलेके समान कहना चाहिये । पहले नरकसे लेकर सातवें नरक तक प्रत्येक नरकमें भुजगार और अल्पतरका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछकम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। तथा अवस्थितका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल दो समय है।
पंचेन्द्रिय तिथंच, पंचेन्द्रिय पर्याप्ततियंच और पंचेन्द्रिय योनिमती तिर्यचोमें भुजगार और अल्पतरका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक तीन पल्यप्रमाण है। तथा अवस्थितका अन्तरकाल ओघके समान है। इसीप्रकार सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और स्त्रीवेदी मनुष्योंके भुजगार आदिका अन्तरकाल कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि सामान्य मनुष्य और पर्याप्त मनुष्यों में अल्पतरका जघन्य अन्तरकाल दो समय कम दो आवली प्रमाण है।
पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक तियंचोंमें अल्पतरका अन्तरकाल नहीं पाया जाता है।
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गा० २२]
भुजगारविहत्तीए अंतरं एवं मणुसअपज०। अणुद्दिसादि जाव सव्वट्ठसिद्धी एइंदिय-बादरएइंदिय-तेसिं पज. अपज-सुहुम०-तेसिं पज० अपज्ज०-सव्वविगलिंदिय-पचिं० अपज्ज-पंचकाय०-सेप्ति बादर०-तेसिं पज० अपज०-सव्वसुहुम-तसअपज-ओरालिवमिस्स-वेउब्धियमिस्स-कम्मइय-मदि-सुद-अण्णाण-विहंग-मिच्छादि० असण्णि-अणाहारित्ति वत्तव्वं । णवरि एइंदिय-बादर-सुहुम०-पंचकाय० बादर-सुहुम-मदि-सुद -अण्णाण-विहंग०मिच्छादि० असण्णीसु अप्पदर० जहण्णुक्क० पलिदो० असंखे० भागो ।
६४४०. देवेसु भुज० अप्प० जह० अंतोमुहत्तं, उक्क० एक्कसीससागरोवमाणि देसूणाणि । अवट्टि ओघमंगो। भवणादि जाव उवरिम-गेवज त्ति भुज० अप्प० जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० सगसगुक्कस्सद्विदीओ देसूणाओ। अवट्टि० जहण्णुक० ओघमंगो। पंचिंदिय-पंचिं० पज०-तस-तसपज्ज. भुज. जह• अंतोमुहुत्तं, अप्पदर० जह० दोआवलियाओ दु-समऊणाओ। उक्क० दोण्हं पि सगुक्कस्साहिदी देसूणा । अवढि० ओघभंगो। पंचमण-पंचवचि० भुज० णत्थि अंतरं । अप्पद • जहण्णुक. तथा अवस्थितका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है। इसीप्रकार लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य, अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव, एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सभी प्रकारके विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, पांचों प्रकारके स्थावरकाय, पांचों प्रकारके बादर स्थावरकाय और उनके पर्याप्त अपर्याप्त, सभी प्रकारके सूक्ष्म, त्रस लब्ध्यपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिये। इतनी विशेषता है कि बादर और सूक्ष्म एकेन्द्रिय, बादर और सूक्ष्म पांचों स्थावरकाय, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंमें अल्पतरका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है।
६४४०. देवोंमें भुजगार और अल्पतरका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम इकतीस सागर है । तथा अवस्थितका अन्तरकाल ओघके समान है। भवनवासियोंसे लेकर उपरिम अवेयक तक प्रत्येक स्थानमें भुजगार और अल्पतरका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। तथा अवस्थितका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल ओघके समान है।
पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस और त्रसपर्याप्त जीवोंमें भुजगारका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । अल्पतरका जघन्य अन्तरकाल दो समय कम दो आवली है । तथा भुजगार और अल्पतर इन दोनोंका ही उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। तथा अवस्थितका अन्तरकाल ओघके समान है।
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जवलासहिदे कसा पाहुडे.
[ पयडिविहत्ती २ बे-आवलियाओ दुसमऊणाओ । अवट्टि० ओघभंगो । एवमोरालिय० कायजो० । ज० णत्थि अंतरं । अप्प० जह० दो आवलियाओ दु-समऊणाओ, उक० पार्लदोवमस्स असंखे० भागो । अवट्ठि० ओघभगो । आहार - आहारमिस्स० अवट्ठि० णत्थि अतरं । एवमकसा० - सुहुम० - जहाक्रवाद ० - सासण० सम्मामि ० - अभव्वसि० वत्तव्वं । वेउव्विय० भुज० अप्प० जहण्णुक्क० णत्थि अंतरं । अवद्वि० जह० एयसमओ, उक्क० बेसमया ।
४४१. वेदाणुवादेण इत्थि पुरिस० भुज० अप्प० जह० अंतोमुहुतं, उक्क० सहिदी देखणा । अवद्वि ओघभगो । अवगद ० अप्प० जहण्णुक्क० अंतोमु०, अवद्वि० जहण्णुक्क० एगसमओ । चत्तारि कसाय भुज० णत्थि अंतरं । अप्प० जह० दुसमऊणदोआवलिय०, उक्क० अंतोमु० । अवद्विद० ओघभंगो । आमिणि० - सुद० - ओहि ०
पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी जीवों में भुजगारका अन्तर नहीं पाया जाता है । अल्पतरका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल दो समय कम दो आवली प्रमाण है । तथा अवस्थितका अन्तरकाल ओघके समान है । इसीप्रकार औदारिककाययोगमें जानना चाहिये । यहां भी भुजगारका अन्तरकाल नहीं पाया जाता है । अल्पतरका जघन्य अन्तरकाल दो समय कम दो आवली और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । तथा अवस्थितका अन्तरकाल ओघके समान है । आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोगमें अवस्थितका अन्तरकाल नहीं पाया जाता है । इसीप्रकार अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिक संयत, यथाख्यात संयत, सासादन सम्यग्दृष्टि सम्यग्मिथ्यादृष्टि, और अभव्य जीवों में कहना चाहिये । वैक्रियिक काययोगमें भुजगार और अल्पतरका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल नहीं पाया जाता है । तथा अवस्थितका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल दो समय है ।
$ ४४१. वेदमार्गणा अनुवादसे स्त्रीवेद और पुरुषवेद में भुजगार और अल्पतरका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है । तथा अवस्थितका अन्तरकाल ओघके समान है । अपगदवेद में अल्पतरका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है तथा अवस्थितका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है ।
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चारों कषायोंमें भुजगारका अन्तरकाल नहीं पाया जाता है । अल्पतरका जघन्य अन्तरकाल दो समय कम दो आवली और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । तथा अवस्थितका अन्तरकाल ओघके समान है ।
मतिज्ञान श्रुतज्ञान और अवधिज्ञानमें अल्पतरका अन्तरकाल दो समय कम दो आवली और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक छयासठ सागर है । तथा अवस्थितका अन्तर
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गा० २२]
भुजगारविहत्तीए अंतरं
अप्प० जह० दो आवलियाओ दुसमऊणाओ, उक्क० छावहि सागरोवमाणि सादिरेयाणि । अवट्टिद० ओघभंगो। एवं सम्मादि०-ओहिंदंसणी० । मणपञ्जव० अवहि० जहण्णुक्क० एगसमओ । अप्प० जह० दोआवलियाओ दुसमऊगाओ, उक्क० पुचकोडी देसूणा । संजदासंजद-सामाइय छेदो० अप्पदर० अवढि मणपञ्जवमंगो। णवरि संजदासंजद० अप्प० जह. अंतोमु०। सामाइयछेदो० अवहि० उक्क० बेसमया। परिहार० संजदासंजदभंगो । चक्खु तमपञ्जत्तभंगो।।
६४४२. पंचलेस्सा० भुज० अप्प० जह० अंतोमु०, उक्कतेतीस-सत्तारस-सत्तसागरो० देसूणाणि सादि०, बे अट्ठारस सागरो० सादिरेयाणि । अबढि० ओघं । सुक० भुज. अप्प० जह० अंतोमु० दुसमऊण-दोआवलिय०, उक्क० एकतीससागरो० देवणाणि सादि० । अवहि० ओघभंगो । बेदयसम्मादि० अप्पदर० जह० अंतोमु० छावटि० सा० देसूणाणि । अवहि० जहण्णुक्क० एयसमओ। खइय० अप्प० जह० काल ओघके समान है। इसीप्रकार सम्यग्दृष्टि और अवधिदर्शनी जीवोंके जानना चाहिये। मनःपर्यय ज्ञानमें अवस्थितका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है। तथा अल्पतरका जघन्य अन्तरकाल दो समय कम दो आवली और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पूर्वकोटि है। संयतासंयत, सामायिकसंयत और छेदोपस्थापना संयत जीवोंके अल्पतर और अवस्थितका अन्तरकाल मनःपर्ययज्ञानके समान है। इतनी विशेषता है कि संयतासंयतजीवके अल्पतरका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। तथा सामायिक और छेदोपस्थापना संयत जीवोंके अवस्थितका उत्कृष्ट अन्तरकाल दो समय है । परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंके संयतासंयत जीवोंके समान कथन करना चाहिये । चनुदर्शनमें सपर्याप्तकोंके समान कथन करना चाहिये।
६४४२. कृष्णादि पांचों लेश्याओंमें भुजगार और अल्पतरका जघन्य अन्तरकालअन्तर्मुहूर्त है और भुजगारका उत्कृष्ट अन्तरकाल कृष्ण, नील और कपोल लेश्यामें क्रमसे कुछ कम तेतीस सागर, कुछ कम सत्रह सागर, कुछ कम सात सागर तथा अल्पतरका उत्कृष्ट अन्तर काल साधिक तेतीस सागर, साधिक सतरह सागर और साधिक सात सागर है। तथा पीत और पद्मलेश्यामें दोनोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल क्रमशः साधिक दो सागर और साधिक अठारह सागर है । तथा अवस्थितका अन्तरकाल ओघके समान है। शुछ लेश्यामें भुजगार और अल्पतरका जघन्य अन्तरकाल क्रमसे अन्तर्मुहूर्त और दो समय कम दो आवली है तथा भुजगारका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम इकतीस सागर और अल्पतरका अन्तरकाल साधिक इकतीस सागर है । तथा शुक्लेश्यामें अवस्थितका अन्तरकाल ओघके समान है ।
वेदकसम्यग्दृष्टियों में अल्पतरका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम छयासठ सागर है । तथा अवस्थितका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक
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अवलास हिदे कसायपाहुडे
[ पयडिविहत्ती २
दुसमऊणदोआलि०, उक० अंतोमु० । अवद्वि० जह० एगसमओ, उक्क० बे-समया । उवसम० अ० णत्थि अंतरं । अवधि जहण्णुक्क० एयसमओ । सण्णि० पुरिसंभंगो। णवरि अप० जह० दुसमऊणदोआवलि० । आहारि० भुज० अप्प० जह० अंत दुसमऊण- दोआवलि०, उक्क० अंगुलस्स असंखे० भागो । अवद्वि० ओघभंगो । एवमेगजीवेण अंतरं समत्तं ।
१४४३. णाणाजीवेहि भंगविचयाणुममेण दुविहो णिद्देसो, ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण अवदि० णियमा अत्थि, सेसपदाणि भयणिजाणि । एवं सचसु पुढवीसु, तिरिक्ख० - पंचिदियतिरिक्ख- पांच० तिरि० पज०-पंचिं० तिरि० जोणिणी-मणुसतिय देव भवणादि जाव उवरिमगेवजं ति पंचिदिय पंचि०पज० तस-तसपञ्ज ० ०-पंचमण० - पंचवचि० - कायजोगि०- ओरालिय० - वेउब्विय० - तिण्णिवेद - चत्तारिकसाय - असंजद- चक्खु०-अचक्खु ० छलेस्सा० भवसिद्धि ०-सणि० - आहारि त्ति वत्सव्वं ।
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समय है । क्षायिकसम्यग्दृष्टियों में अल्पतरका जघन्य अन्तरकाल दो समय कम दो आवली और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । तथा अवस्थितका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल दो समय है । उपशमसम्यग्दृष्टियों में अल्पतरका अन्तरकाल नही पाया जाता है । तथा अवस्थितका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है ।
संज्ञी मार्गणामें पुरुषवेदके समान जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके अल्पतरका जघन्य अन्तरकाल दो समय कम दो आवली प्रमाण है । आहारक जीवोंमें भुजगार और अल्पतरका जघन्य अन्तरकाल क्रमसे अन्तर्मुहूर्त और दो समय कम दो आवली प्रमाण है । उत्कृष्ट अन्तरकाल दोनोंका अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । तथा अवस्थितका अन्तरकाल ओघके समान है ।
इस प्रकार एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल समाप्त हुआ ।
१४४३. नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है ओघ - निर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से ओघनिर्देश की अपेक्षा अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव नियमसे हैं । शेष पद भजनीय हैं अर्थात् भुजगार और अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीव कभी रहते भी हैं और कभी नहीं भी रहते हैं। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती जीवोंमें तथा सामान्य, पर्याप्त और स्त्रीवेदी मनुष्योंमें, सामान्य देवोंमें और भवनवासियोंसे लेकर उपरिम मैवेयक तक के देवोंमें तथा पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, पांचों मनोयोगी. पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिक काययोगी, वैक्रियिककाययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, छह लेश्यावाले, भव्य, सज्ञी और आहारक जीवोंमें कहना चाहिये । अर्थात् इन मार्गणाओंमें अवस्थित विभक्तिस्थानवाले
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गा० २२ ]
भुजगारविnate मंगविचचो
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S४४४. पंचि० तिरि० अपज० सिया सव्वे जीवा अवद्विदविहत्तिया, सिया अवदिविहत्तिया च अप्पदरविहत्तिओ च, सिया अवद्विदविहत्तिया च अप्पदरविहतिया च । एवं तिणि भंगा ३ । एवमणुदिसादि जाव सव्वट्ट ति-सव्वएइंदियसव्व विगलिंदिय पंचिं० अपज० - पंचकाय० - तस अपज० - ओरालिय मिस्स ०- कम्मइय ०मदिअण्णाण सुद- अण्णा०-विहंग०- आभिणि० सुद० - ओहि ० -मणपत्र ०- संजद - सामाइय-छेदो०- परिहार० -संजदासंजद - ओहिंदंस०- सम्मादि० खइय० - वेदय० - मिच्छादि० असण्णि० ० अणाहारए त्ति वत्तव्वं । मणुसअपञ्जत्त० अट्टभंगा ८ । एवं वेउन्वियमिस्स० - अवगद ० -उवसम० वत्तव्वं ।
नाना जीव निरन्तर नियमसे पाये जाते हैं। पर शेष दो स्थानवाले जीव कदाचित् होते भी हैं और कदाचित् नहीं भी होते हैं।
४४. पंचेन्द्रिय तिर्थच लब्ध्यपर्याप्तकों में कदाचित् सभी जीव अवस्थितविभक्तिस्थानवाले होते हैं । कदाचित् अनेक जीव अवस्थित विभक्तिस्थानवाले और एक जीव अल्पतर विभक्तिस्थानवाला होता है । कदाचित् नाना जीव अवस्थित विभक्तिस्थानवाले और नाना जीव अल्पतर विभक्तिस्थानवाले होते हैं । इसप्रकार तीन भंग पाये जाते हैं । इसीप्रकार अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितक के देवोंमें तथा सभी प्रकारके एकेन्द्रिय, सभी प्रकारके विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, पांचों प्रकारके स्थावर काय, त्रस लब्ध्यपर्याप्त, औदारिकमिश्न काय योगी, कार्मणका योगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, निध्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंमें कहना चाहिये । अर्थात् इन मार्गणास्थानोंमें लब्ध्यपर्याप्तक पंचेन्द्रियतियेचोंके समान कदाचित् सब जीव अवस्थित विभक्तिस्थानवाले होते हैं । कदाचित् नाना जीव अवस्थित विभक्तिस्थानवाले और एक जीव अल्पतर विभक्तिस्थानवाला होता है । तथा कदाचित् नाना जीव अवस्थित विभक्तिस्थानवाले और नाना जीव अल्पतर विभक्तिस्थानवाले होते हैं ।
मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तकों में अवस्थित और अल्पतर विभक्तिस्थानों में एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा आठ भंग होते हैं । इसीप्रकार वैक्रिथिकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें कहना चाहिये ।
विशेषार्थ-ये लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य आदि ऊपरकी चारों मार्गणाएं सान्तरमार्गणाए हैं । इनमें कदाचित् एक जीव और कदाचित् नाना जीव पाये जाते हैं । तथा कदाचित् इन मार्गणाओं में एक भी जीव नहीं पाया जाता है । अतः इनमें अवस्थित विभक्तिस्थानवाले कदाचित् नाना जीवोंका और कदाचित् एक जीवका तथा अस्पतर विभक्तिस्थानवाले कदा
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जयपवलासहिदे कसायपाहुडे । पयडिविहत्ती २ ६४४५. आहार-आहारमिस्स. सिया अवष्टिदविहत्तिओ, सिया अवद्विदविहत्तिया, एवं बे भंगा२। एवमकसाय सुहमसांपराय०-जहाक्खाद० सासण-सम्मामि० बसब्वं । अभव्व० अवहिणियमा अस्थि ।
एवं णाणाजीवेहि भंगविचओ समत्तो । ४४६. परिमाणाणुगमेण दुविहो णिदेसो, ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मुज० अप्पद० विहत्तिया केत्तिया ? असंखेजा। अवष्टि० केत्तिया ? अणंता। एवं तिरिक्ख-कायजोगि०-ओरालिय०-णस०-चत्तारि कसाय० असंजद-अचक्खु०तिण्णिले०-भवसिाद्ध०-आहार त्ति वत्तन्छ ।
६४४७. आदसेण णेरईएसु भुज० अप्पद० अवहि० केत्ति० १ असंखेजा। एवं सत्तसु पुढवीम, पंचिंदियतिरिक्खतिय-देव-भव गादि जाव उवरिमगेवज०- पंचिंदियचित नाना जीवोंका और कदाचित् एक जीवका पाया जाना संभव है । अतः इनके प्रत्येक और दिसंयोगी इसप्रकार कुल आठ भंग हो जाते हैं।
६४४५. आहारककाययोगो और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें कदाचित् अवस्थित विभक्तिस्थानवाला एक जीव तथा कदाचित् अवस्थित विभक्तिस्थानवाले अनेक जीव इसप्रकार दो भंग होते हैं। इसीप्रकार अकषायी, सूक्ष्म सांपरायसंयत, उपशमश्रेणीपर चढ़े हुए यथाख्यातसंयत, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवों में कहना चाहिये । ये उपर्युक्त सभी मार्गणाएं सान्तरमार्गणाएं हैं और इनमें एक अवस्थित विभक्तिस्थान ही पाया जाता है । इसलिये इनमें एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा दो ही भंग होते हैं। अमम्यों में अवस्थित बिभक्तिस्थानवाळे जीव नियमसे हैं।
इसप्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयानुगम समाप्त हुआ।
११४६. परिमाणाणुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघानर्देशकी अपेक्षा भुजगार और अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। अवस्थित विभकिस्थानवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। इसीप्रकार तिच, काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चारों कषायवाले, असंयत, अचक्षुदर्शनी, कृष्णादि तानों लश्यावाले, भव्य और आहारक जीवोंमें कथन करना चाहिये । अर्थात् इन उपर्युक्त मार्गणास्थानों में भुजगार और अल्पतर विभक्तिस्थान वाले जीव असंख्यात और अवस्थित विभक्तिस्थानवाल जीव अनन्त हैं।
११७. आदेशानदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें भुजगार, अल्पतर और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । इसीप्रकार सातों पृथिवियों में, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त और पंचेन्द्रिय योनिमती तिथंचोंमें, देवोंमें तथा भवनवासियोंसे लेकर उपरिम अवेयक तकके देवों में, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, प्रस, त्रस पर्याप्त, पांचों मनोयोगी,
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गो० - २२ ]
मुजगारविहत्तीए परिमाणायुगमौ
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पंचि ०प०-तस-तस पज० - पंचमण० पंचवचि० - वेडव्वि प० - इत्थि० - पुरिस०- चक्खु ०उ०- पम्म० - सुक्क० - साण्णि० वत्तव्वं । पंचिदियतिरिक्खअपजत्तएस अप्पदर० अवद्वि० के० ? असंखेजा । एवं मणुसअप ० - अणुद्दिसादि जाव अवराजिद ० - सव्व विगलिंदियपंचिदिय अपज० - चत्तारिकाय० तसअपज ० वे उव्त्रियामिस्स ० - विहंग०-आभिणि० सुद०ओहि ० - संजदासंजद - ओहिदंस० सम्मादिट्ठि-वेदय० -उवसम० वत्तं ।
४४८. मणुस्सेसु भुज० के० ? संखेजा । अप्पदर० अवद्वि० के० १ असंखेजा । मणुसपज० - मणुसिणी० भुज० अप्पदर० अवट्टि० के० ? संखेजा । सव्वट्ठे अप्पदर • अबट्टि ० के० ? संखेजा । एवमवगद ० -मणपञ्ज० संजद० - सामाइयछेदो ० - परिहार • वत्तव्वं ।
४४. एइदिए अप्पदर० के० ? असंखेजा । अवद्वि० के० ? अनंता । एवं पांचों वचनयोगी, वैक्रयिककाययोगी, खीवेदी, पुरुषवेदी, चक्षुदर्शनी, पीतलेइयावाले, पद्मलेश्यावाले, शुक्ललेश्यावाले और संज्ञी जीवोंमें कथन करना चाहिये । अर्थात् इन उपर्युक्त मार्गणास्थानों में नारकियोंके समान भुजगार आदि तीनों विभक्तिस्थानवाले जीव पृथकू पृथक् असंख्यात असंख्यात हैं ।
पंचेन्द्रियतिथंच लब्ध्यपर्याप्तकों में अल्पतर और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । इसीप्रकार लब्ध्यपर्याप्त मनुष्योंमें, अनुदिशसे लेकर अपराजित तकके देवोंमें, तथा सभी प्रकार के विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक, पृथिवी आदि चार प्रकार के स्थावर काय, त्रस लब्ध्यपर्याप्तक, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, विभंगज्ञानी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें कहना चाहिये । अर्थात् इन उपर्युक्त मार्गणास्थानोंमें पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तकोंके समान अल्पतर अवस्थित ये दो स्थान होते हैं । तथा प्रत्येक स्थान में असंख्यात जीव होते हैं ।
§ ४४८. सामान्य मनुष्योंमें भुजगार विभक्तिस्थानवाले जीव कितने होते हैं ? संख्यात होते हैं । तथा अल्पतर और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव कितने हैं १ असंख्यात हैं । मनुष्यपर्याप्त और स्त्रीवेदी मनुष्यों में भुजगार, अल्पतर और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । सर्वार्थसिद्धिमें अल्पतर और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । इसीप्रकार अपगत वेदी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापना संयत और परिहारविशुद्धिसंयतों में अल्पतर और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंकी संख्या कहना चाहिये ।
४४. एकेन्द्रियोंमें अल्पतर विभक्तिस्थानषाले जीव कितने हैं ? असंख्यात है । अबस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। इसीप्रकार बादर एकेन्द्रिय
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ बादरेइंदिय-बादरेइंदियपजतापजत्त- सुहुमेइंदिय-सुहुमेइंदियपजत्तापजत्त-सव्ववणफदिकाइय-ओरालियमिस्स-कम्मइय०-मदि-सुद-अण्णाण-मिच्छादिहि-असणि आणाहारि त्ति वत्तव्वं । आहार आहारमिस्स० अवढि० के० ? संखेजा। एवमकसाय०-सुहुम० जहाक्खाद० वत्तव्यं । अभन्ब० अवहि० के० १ अणंता । खइय। अप्पदर० के० ? संखेजा। अवष्टि० के० ? असंखेजा। सासण-सम्माभि० अवहि० के० ' असंखेजा।
एवं परिमाणाणुगमो समत्तो । ६४५०. भागाभागाणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण अवष्टिदविहत्तिया सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? अणंता भागा। मुजगार-अप्पदरविहत्तिया सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? अणंतिमभागो। एवं तिरिक्ख-कायजोगिओरालि०- णस० - चत्तारिक० -असंजद -अचक्खु ० -तिण्णिले ० -भवसि० - आहारि० वत्तव्वं । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सभी प्रकारके वनस्पतिकायिक, औदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, और अनाहारक जीवोंमें अल्पतर और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंकी संख्या कहना चाहिये। ___ आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। इसीप्रकार अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत और यथाख्यात संयत जीवोंमें अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यात कहना चाहिये।
अमव्योंमें अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। क्षायिक सम्यग्दृष्टियोंमें अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। तथा अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्यगमिथ्यादृष्ठि जीवोंमें अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं।
इसप्रकार परिमाणानुगम द्वार समाप्त हुआ।
६१५०. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है ? ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओपनिर्देशकी अपेक्षा अवस्थित विभक्तिवाले जीव सर्व जीवोंके कितनेवें भाग हैं ? अनन्त बहुभाग हैं। भुजगार और अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीव सर्व जीवोंके कितनेवें भाग हैं ? अनन्तवें भागप्रमाण हैं। इसीप्रकार सामान्य तियंच, काययोगी, औदारिक काययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चारों कषायवाले, असंयत, अचक्षुदर्शनी, कृष्ण आदि तीन लेश्यावाले, भव्य और आहारक जीवों में अवस्थित आदि विभक्तिस्थानबाले जीवोंका भागाभाग कहना चाहिये ।
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गा०२२]
भुजगारविहत्तीए भागाभागाणुगमो
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६४५१. आदेसेण णेरईएसु अवट्टिद० के० भागो ? असंखेजा भागा। भुज. अप्पद० के० भागो ? असंखे० भागो । एवं सत्तसु पुढवीसु पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिं० तिरि० पञ्ज-पंचिंतिरि०जोणिणी-मणुस-देव-भवणादि जाव उवरिमगेवज०-पंचिंदियपंचि० पज० -तस-तसपज-पंचमण-पंचवचि०-वेउब्विय०- इथि०- पुरिस०-चक्खु.. तिण्णिले०-सण्णि त्ति वत्तव्वं । पंचिं०तिरि०अपज० अवष्टि० सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? असंखेजा भागा। अप्पदर. असंखे०भागो। एवं मणुसअपज०-अणुद्दिसादि जाब अवराइद०-सव्वविगालंदिय-पंचिं० अपज० -चत्तारिकाय-तसअपज०-वेउव्वियभिस्स-विहंग०-आभिणि-सुद०-ओहि०-संजदासंजद-ओहिदसण-सम्मादि०. खड्य०-वेदय०-उवसम० वत्तव्वं ।
६४५२. मणुस्सपज०-मणुसिणी० अवष्टि० संखेज्जा भागा। भुज. अप्पदर० केव० ? संखे० भागो । सव्वट्ठ० अवष्टि० सव्वजी० के०१ संखेज्जा भागा। अप्प०
६१५१. आदेशनिर्देशकी अपेक्षा नारकियोंमें अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव सर्व नारकियोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। भुजगार और अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीव कितनेवें भागप्रमाण हैं ? असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। इसीप्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी तथा पंचेन्द्रिय तिथंच, पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तिर्यच योनीमती, सामान्य मनुष्य और सामान्य देवोंमें तथा भवनवासियोंसे लेकर उपरिम प्रैवेयक तकके देवोंमें तथा पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, प्रस, त्रसपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों बचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, चक्षुदर्शनी, कृष्ण आदि तीन लेश्यावाले और संज्ञी जीवोंमें कहना चाहिये ।
पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तकोंमें अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव सर्व पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके कितनेवें भागप्रमाण हैं ? असंख्यात बहुभाग प्रमाण हैं । तथा अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। इसीप्रकार मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तकोंमें, अनुदिशसे लेकर अपराजित तकके देवोंमें तथा सभी प्रकारके विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, पृथिवी आदि चार स्थावरकाय, त्रस लब्ध्यपर्याप्त, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, विभङ्गज्ञानी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशम सम्यग्दृष्टि जीवोंमें अल्पतर और अवस्थित विभक्तिस्थानोंकी अपेक्षा भागाभाग कहना चाहिये ।
६४५२. मनुष्यपर्याप्त और स्त्रीवेदी मनुष्योंमें अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यात बहुभागप्रमाण है। तथा भुजगार और अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीव कितनेवें भागप्रमाण हैं ? संख्यातवें भागप्रमाण हैं। सर्वार्थसिद्धिमें अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव सर्वार्थसिद्धिके सभी देवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। तथा
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४०८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ संखे० भागो । एवं अवगद० - मणपज्ज०-संजद-सामाइयछेदो०-परिहार० वत्तव्वं । सव्वएइंदिएसु अवढि० सव्व० के० १ अणंता भागा। अप्पद० सब० के० । अणंतिमभागो। एवं वणप्फदि०-णिगोद०-ओरालियमिस्स० -कम्मइय०-मदिअण्णाण. सुद०-मिच्छादि०-असण्णि. अणाहारि० वत्तव्वं । आहार-आहारमिस्स० अवधि भागाभागो णत्थि । एवमकसा० सुहुमसांप० - जहाक्खाद० -अब्भव० -सासण. सम्मामि० वत्तव्वं ।
एवं भागाभागाणुगमो समत्तो। ६४५३. खेत्ताणुगमेण दुविहो णिद्देसो, ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण अबहिदविहत्तिया केवडिखेत्ते ? सव्वलोए । भुज अप्पद० के० खेत्ते ? लोगस्स असंखे० भागे । एवं सव्वासिमणंतरासीणं चत्तारिकाय बादर० अपज० सुहुमपज्जत्तापज्जताणं अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं। इसीप्रकार अपगतवेदी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, और परिहारविशुद्धि संयत जीवोंमें अवस्थित और अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीवोंका भागाभाग कहना चाहिये।
सभी प्रकारके एकेन्द्रियोंमें अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव सभी एकेन्द्रियों के कितनेवें भागप्रमाण है ? अनन्त बहुभागप्रमाण हैं। तथा अल्पतर विभक्तिम्थानवाले जीव सभी एकेन्द्रियोंके कितनेवें भागप्रमाण हैं ? अनन्तवें भाग प्रमाण हैं। इसीप्रकार वनस्पतिकायिक, निगोद, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंमें अवस्थित और अल्पतर विभक्तिस्थानवाले . जीवोंका भागाभाग कहना चाहिये। ___ आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें एक अवस्थित विभक्तिस्थान ही पाया जाता है, इसलिये वहां भागाभाग नहीं है। इसीप्रकार अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिक संयत, यथाख्यात संयत, अभव्य, सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें एक अवस्थित विभक्तिस्थान पाया जाता है इसलिये यहां मी भागाभाग नहीं पाया जाता, ऐसा कहना चाहिये।
इसप्रकार भागाभागानुगम समाप्त हुआ।
६४५३. क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघनिर्देशकी अपेक्षा अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सर्व लोकमें रहते हैं। भुजगार और अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं। इसीप्रकार जितनी भी अनन्त राशियां हैं उनका तथा पृथिवी आदि चार स्थावरकाय तथा इनके बादर और बादरअपर्याप्त, सूक्ष्म, सूक्ष्मपर्याप्त और सूक्ष्म अपर्याप्त जीवोंका क्षेत्र कहना चाहिये । इतनी
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गा० २२ ]
भुजगारविहत्तीए फोसणाशुगमो
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च वत्तव्यं । वरि पदविसेसो जाणियव्वो । वादरवाउ०पज्ज० अवद्वि० के० ? लोगस्स संखे० भागे । अप्प असंखे भागे । सेससंखेज्जा संखेज्ज सव्वरासीओ केवडि० खेते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे ।
०
एवं खेत्ताणुगमो समत्तो ।
६४५४. फोसणाणुगमेण दुत्रिहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण भुजगारविहतिएहि केवडियं खेतं फोसिदं ? लोगस्स असंखे० भागो, अट्ठ-चोदसभागा वा देखणा । अप्पदर विहत्तिए केवडियं खेतं फोसिदं ? लोग० असंखे० भागो, अट्ठ- चोहसभागा देसूणा, सव्वलोगो वा । अवट्टि • सव्वलोगो । एवं कायजोगिचारि कसाय असंजद ० - अचक्खु ० भवसिद्धि० आहारि ति वत्तव्वं ।
१४५५. आदेसेण रइसु भुज० खेतभंगो। अप्पदर० अवद्विदविहत्तिएहि केव० फोसिदं ? लोगस्स असंखे० भागो, छ चोइस भागा वा देखणा । पढमपुढवि० विशेषता है जहां जितने अवस्थित आदि पद हों उन्हें जानकर ही तदनुसार क्षेत्र कहना चाहिये | बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंमें अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं । तथा ये ही बादरवायुकायिक अल्पतर विभक्तिस्थानवाले पर्याप्त जीव लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं । शेष संख्यात और असंख्यात संख्यावाली सर्व जीव राशियां कितने क्षेत्रमें रहती हैं ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहती हैं ।
इसप्रकार क्षेत्रानुगम समाप्त हुआ ।
$ ४५४. - स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है ? ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से ओघनिर्देशकी अपेक्षा भुजगार विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और त्रस नालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है? लोकके असंख्यातवें भाग, त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछकम आठ भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? सर्वलोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसीप्रकार काययोगी, क्रोधादि चारों कषायवाले, असंयत, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंमें भुजगार आदि विभक्तिस्थानवाले जीवोंका स्पर्शन कहना चाहिये ।
४५५. आदेश की अपेक्षा नारकियों में भुजगारविभक्तिस्थानवाले जीवों का स्पर्श क्षेत्र के समान है । नारकियों में अल्पतर और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। पहली पृथिवीमें भुजगार आदि विभक्तिस्थानवाले जीवोंका
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जयवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पयडिविहत्ती २
खेत्तभंगो । विदियादि जाव सत्तमि ति भुज० खेत्तभंगो । अप्पदर ० अहि के० खेत्तं फोसिदं ? लोग० असंखे० भागो । एक्क-वे-तिष्णि चत्तारि पंच-छ-चोदसभागा वा देखणा ।
O
४५६. तिरिक्खेसु भुज० अवहिदाणं खेत्तभंगो । अप्पद० के० खेत्तं फोसिदं ? लोग असंखे ० भागो, सव्वलोगो वा । एवमोरालि० णवुंस० - तिण्णिले० वत्तव्वें । पंचिदियतिरिक्ख-पांच ० तिरि० पज० पंचिं० तिरि० जोणिणीसु भुजगार० खत्तेभंगो । अप्पद० अवद्वि० के० खेत्तं फोसिद : लोग० असंखे०भागो, सव्वलोगो वा । एवं मणुसतियस्स वत्तव्वं । पंचि तिरि० अपज० अप्पद० अवद्विदवि० के० खे० फोसिदं ? लोग० असंखे० भागो, सव्वलोगो वा । एवं मणुसअपज ० सव्वविगलिंदिय-पंचिंदिय
अपज० ।
स्पर्श उनके क्षेत्र के समान है। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके भुजगार विभतिस्थानवाले जीवोंका स्पर्श उनके क्षेत्रके समान है । दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक अल्पतर और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और त्रसनालीके चौदह भागों में से दूसरी पृथिवीकी अपेक्षा कुछ कम एक राजु, तीसरी पृथिवीकी अपेक्षा कुछ कम दो राजु, चौथी पृथिवीकी अपेक्षा कुछ कम तीन राजु, पांचवीं पृथिवीं की अपेक्षा कुछ कम चार राजु, छठी पृथिवीकी अपेक्षा कुछ कम पांच राजु और सातवीं पृथिवीकी अपेक्षा कुछ कम छह राजु प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है ।
४५६. तिर्यचोंमें भुजगार और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंका स्पर्श क्षेत्र के समान है । तिर्यचोंमें अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और सर्वलोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । इसी प्रकार औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदी और कृष्ण आदि तीन लेश्यावाले जीवोंके कहना चाहिये | पंचेन्द्रियतिर्यंच, पंचेन्द्रियतिर्यंच पर्याप्त और पंचेन्द्रियतिर्यंच योनिमती जीवों में भुजगार विभक्तिस्थानवाले जीवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है । तथा इन्हीं तीन प्रकारके तिर्यचोंमें अल्पतर और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । इसी प्रकार सामान्य, पर्याप्त और स्त्रीवेदी मनुष्योंके स्पर्शका कथन करना चाहिये ।
1
पंचेन्द्रिय तिर्यच लब्ध्यपर्याप्तकों में अल्पतर और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और सर्वलोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसीप्रकार मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तक, सभी विकलेन्द्रिय, और पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्यातक जीवोंमें अल्पतर और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंका स्पर्श कहना चाहिये ।
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गा० २२ ]
भुजगारविहती फोसणा युगमो
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१४५७. देव० भुज० के० खेतं फोसिदं ? लोगस्स असंखे० भागो, अट्ठ चोदसभागा वा देखणा | अष्पद० अवद्वि० के० खेतं फोसिदं ९ लोग० असंखे ० भागो, अट्ठ-व-चोद सभागा वा देखणा । एवं सोहम्मीसाणेसु । भवण० वाण ० - जो दिसि० एवं चैत्र, णवर जम्मि अह - णव चोदसभागा देणा त्ति वृतं तम्मि अद्भुट्ट-अट्ठ-णवचोहसभागा देणा त्ति वत्तव्वं । सणक्कुमारादि जाव सहस्सारे त्ति भुज० अप्प० अवडि० केव० ? लोग० असंखे० भागो, अट्ठ- चोहसभागा वा देभ्रूणा । आणदपाणद-आरणच्चुद एवं चेव । णवरि छ चोदसभागा देखणा । उवरि खेतभंगो । एवं वेव्वय मिस्स ० आहार - आहार मिस्स ० अवगदवेद ० अकसा० -मणपञ्जव० सामाइयछेदो०- परिहार ०- सुहुमसांप ० - जहाक्खाद ० - अभविय० वत्तव्वं ।
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३४५८. एईदिंएस अप्प ० के० खेतं फोसिदं ? लोग ० असंखे० भागो, सव्वलोगो
४५७. देवोंमें भुजगार विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । तथा अल्पतर और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले देवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण तथा त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । इसीप्रकार सौधर्म और ऐशान कल्पमें भुजगार आदि विभक्तिस्थानवाले जीवोंका स्पर्श कहना चाहिये । भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें भी इसीप्रकार कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि सामान्य देवोंमें जिन विभक्तिस्थानवाले जीवोंने त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और कुछ कम नौ भाग प्रमाण स्पर्श कहा है, भवनत्रिक देवोंमें त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम साढ़े तीन भाग, कुछ कम आठ भाग और कुछ कम नौ भाग प्रमाण स्पर्श कहना चाहिये । सनत्कुमार स्वर्गसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तक के देवोंमें भुजगार, अल्पतर और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले देवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग तथा त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। आनत, प्राणत, आरण और अच्युत कल्पके देवोंमें भी इसीप्रकार स्पर्श कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि यहांके भुजगार आदि विभक्तिस्थानवाले देवोंने त्रस नालीके चौदह भागों में से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । इनके ऊपर नौ मैवेयक आदिके देवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है । इसीप्रकार वैक्रियिकमिश्र काययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्र काययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, मन:पर्ययज्ञानी, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसपिरायसंयत, यथाख्यातसंयत और अभव्य जीवों में कहना चाहिये ।
४५८. एकेन्द्रियों में अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया
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tradariहिदे कला पाहुडे
[ पयडिविहती २
वा । अवद्वि० के० खेत फोसिदं ? सव्वलोगो । एवं बादरेइंदिय- बादरेइंदियपअ ०सुडुमेईदिय सुडुमेइंदियपञ्ज सुहुमेदि ०
०
बादरेइंदियअप अपज • - पुढवि बादरपुढवि० - बादरपुढवि० अपअसुहुमपुढवि० सुहुम पुढविपअत्ताप अत- आउ०बादर आउ०- बादरआउ० अपज० - सुहुम आउ० - मुहुम आउ० पअत्तापअ च ते उ० - बादरउ०- वादरतेउ० अपज० - सुहुमते उ०- सुहुमते उ० पत्ता पत्ताणं वतव्वं । बादरपुढवि ० पज० - बादर आउ० प० - बादरते उपजताणं अप्पदर - अवद्विदविहत्तिएहि के० खेतं फोसिदं ? लोग० असंखे० भागो, सव्वलोगो वा । वाउ०- बादरवाउ०- बादर बाउअपअं ० - सुहुमवाउ०- सुहुमवा० पज्जतापजत्त-ओरालियमिस्स० असण्णीणमेइंदियभंगो । वादरवाउ० पञ्ज० अप्पद • लोग • असंखे० भागो, सव्वलोगो वा । अवहि० के० खे फोसिदं ? लोगस्स संखे ० भागो, सव्वलोगो वा ।
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४५. पंचिदिय-पंचिदियपज-तस तसपज० भुज० अप्प० ओघभंगो । अवट्टिο है ? लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । तथा अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? सर्व लोकप्रमाण क्षेत्र का स्पर्श किया है। इसीप्रकार बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त, पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त, अष्कायिक, बादर अष्कायिक, बांदर अकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अकायिक, सूक्ष्म अष्कायिक पर्याप्त, सूक्ष्म अष्कायिक अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अभिकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अमिकायिक पर्याप्त और सूक्ष्म अभिकायिक अपर्याप्त जीवों में अल्पतर और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंका स्पर्श कहना चाहिये । बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त और बादर
कायिक पर्याप्त जीवोंमें अल्पतर और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और सर्वलोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । बायुकायिक, बादर बायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त, औदारिक मिश्रकाय योगी और असंज्ञी जीवोंका स्पर्श एकेन्द्रियोंके समान है । बादर वायुकायिक पर्याप्तकों में अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्वलोकक्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा उनमें अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके संख्यातवें भाग और सर्व लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है
$ २५, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस और स पर्याप्त जीवों में भुजगार और अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीमोंका स्पर्श ओषके समान है। तथा उक्त चारों प्रकार के
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गा० २२ ]
भुजगारविहतीए फोसयागमो
४१३
ง
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के० खेत फोसिदं ? लोग० असंखे ० भागो अह चोहसभागा वा देखणा, सव्वलोगो वा । एवं पंचमण० - पंचवचि० इत्थि पुरिस० चक्खु०-सण्णि० वत्तव्यं । वेउध्विय० भुज० अप्प० अवद्वि० के० खेतं फोसिदं १ लोगस्स असंखे ० भागो, अह-तेरह चोदस-भागा वा देखणा । णवरि भुज० तेरस० णत्थि । कम्मइय० अप्प० के० खेतं फोसिद ? लोग० असंखे० भागो, सव्वलोगो वा । अवद्विद० के० खेतं फोसिद ? सम्बलोगो । मदि - अण्णाण - सुद- अण्णाण ० अप्प० ओवमंगो, अबट्टि० ओवं । एवं मिच्छदिट्ठी० । विहंग० अप्प० अवधि ० के खेतं फोसिदं ? लोगस्स असंखे • भागो, अ-चोद सभागा वा देखणा सव्वलोगो वा । आभिणि० सुद० ओहि० अप्प० अवधि ० के ० खेत्तं फोसिदं ? लोग० असंखे० भागो । अट्ठ- चोदस० देखणा । एवrain अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग, त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । इसीप्रकार पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, चक्षुदर्शनी और संज्ञी जीवोंमें भुजगार आदि विभक्तिस्थानबाले जीवों का स्पर्श कहना चाहिये ।
वैऋियिक काययोगी जीवोंमें भुजगार, अल्पतर और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले trait कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग तथा त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग और कुछ कम तेरह भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । इतनी विशेषता है कि वैक्रियिककाययोगियों में भुजगार विभक्तिस्थानवाले जीवोंका स्पर्श
मनाली के तेरह भाग प्रमाण नहीं पाया जाता है । कार्मणकाययोगियोंमें अल्पतर विभक्ति स्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है ।
मति - अज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवों में अस्पतर विभक्तिस्थानवाले जीवों का स्पर्श ओघके समान है । तथा अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवों का भी स्पर्श ओघके समान है । इसीप्रकार मिध्यादृष्टियों में अल्पतर और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंका स्पर्श कहना चाहिये । विभङ्गज्ञानियोंमें अल्पतर और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ! लोकके असंख्यातवें भाग, त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग और सर्वलोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों में अल्पतर और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसीप्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि
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जयवलासहिदे कसा पाहुडे
[ पयडिविहती २
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मोहिदंस०- सम्मादि० - बेदय ० - उवसम० वत्तव्यं । संजदासंजद अध्य० के० खेतं फोसिदं ? लोग असंखे० भागो । अवहि० लोग० असंखे ० भागो, छ चोहस० देखणा । तेउ० सोहम्मभंगो । पम्म० सणक्कुमारभंगो । सुक्क० आणदभंगो । खइय० अप्प खेत्तभंगो | अवडि० लोग० असंखे० भागो, अड चोदस० देखणा । सम्मामि० अवट्टि ० के ० खेत्तं फोसिदं ? लोग० असंखे० भागो, अह चोहस० देगा | सासण० श्रवट्टि • लोग असंखे० भागो, श्रह - बारह चोदस० देखणा । णाहारि० कम्मइय भंगो । एवं फोसणाणुगमो समत्तो ।
९४६०. कालानुगमेण दुविहो णिद्देसो, ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओषेण भुज ० अप्प के ? जह० एगसमओ उक्क० आवलियाए असंखे० भागो । अवद्वि० के० १ सव्वद्ध। । एवं सव्वणिरयतिरिक्ख पंचि०तिरिकखतिय देव भवणादि जाव उवरिगे - और उपशम सम्यग्दृष्टि जीवों में कहना चाहिये । संयतासंयतों में अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है । तथा अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और चौदह राजुमें से कुछ कम छह भागमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है ।
तेजोलेश्यामें सौधर्म स्वर्गके समान, पद्मलेश्या में सानत्कुमार स्वर्गके समान और शुक्ललेश्या में आनत स्वर्गके समान स्पर्श जानना चाहिये । क्षायिक सम्यग्दृष्टियों में अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीवोंका स्पर्श उनके क्षेत्रके समान है । तथा अवस्थित विभकिस्थानवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवोंमें अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । सासादनसम्यदृष्टियों में अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग और कुछ कम बारह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । अनाहारक जीवोंमें कार्मणकाययोगियोंके समान जानना चाहिये ।
इसप्रकार स्पर्शनानुगम समाप्त हुआ ।
S ४६०. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघनिर्देशकी अपेक्षा भुजगार और अल्पतरविभक्तिस्थानवाले जीवोंका काल कितना है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है । तथा अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंका काल कितना है ? सर्वकाल है । इसी प्रकार सभी नारकी, सामान्य तिथंच, पंचेन्द्रिय तिर्यच, पंचेन्द्रिय पर्याप्त वियंच पंचेन्द्रिययोनीमती तियंच, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर उपरिम मैवेयक तकके देव
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गा० २२].
भुजगारविहत्तीए कालाणुगमो वज०-पंचिंदिय-पंचिंपञ्ज-तस-तसपञ्ज-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालि०बेउब्विय०-तिण्णिवेद०-चत्तारि कसाय०-असंजद-चक्खु०-अचक्खु०-छल्लेस्स०-भवसिद्धि०--सण्णि-आहारि० वत्तव्वं । पंचिं० तिरि०अपज० अप्पद० जह० एगसमओ, उक्क० आवलि. असंखे० भागो। अवहि० सम्बद्धा । एवमणुदिसादि जाव अवराइदसव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचि० अपज०-पंचकाय-तसअपज०-ओरालियमिस्स०कम्मइय० --मादिअण्णाण - सुदअण्णाण - विहंग० - आभिणि० -सुद० - ओहि. - संजदा. संजद०-ओहिंदंस०-सम्मादि-वेदगसम्मा०-मिच्छादि०-असाण्ण-अणाहारित्ति वत्तव्वं ।
६४६१. मणुस. भुज० जह० एयसमओ, उक्क० संखेज्जा समया। अप्प० जह० पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी,
औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, छहों लेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंमें भुजगार आदि विभक्तिस्थानवाले जीवोंका काल कहना चाहिये ।
विशेषार्थ-जब बहुतसे जीव एक समय तक भुजगार और अल्पतर विभक्तिको करते है, किन्तु दूसरे समयमें संसार में कोई जीव इन विभक्तियों को नहीं करता तब भुजगार
और अल्पतरका जघन्यकाल एक समय पाया जाता है । तथा प्रत्येक समयमें अन्य अन्य नाना जीव भुजगार और अल्पतर विभक्तियोंको निरन्तर करें तो आवलीके असंख्यातवें भाग काल तक करते हैं। अतः भुजगार और अल्पतरका उत्कृष्टकाल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है । तथा अवस्थित पदका काल सर्वदा स्पष्ट ही है। ऊपर और जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें उक्त व्यवस्था बन जाती है अतः उनमें भुजगार आदिके कालको बोधके समान कहा है।
पंचेन्द्रिय तिर्यंच लमध्यपर्याप्तकोंमें अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा अवस्थित विभक्तिस्थानवाले पंचेन्द्रिय तिर्यच लब्ध्यपर्याप्त जीव निरन्तर पाये जाते हैं, इसलिये उनका सर्वकाल है । इसीप्रकार अनुदिशसे लेकर अपराजित तकके देवोंमें तथा सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, पांचों स्थावरकाय, त्रस लब्ध्यपर्याप्त,
औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभङ्गज्ञानी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, वेदक सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंमें अल्पतर और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंका काल कहना चाहिये।
६४६१. सामान्य मनुष्योमें भुजगार विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्य काल
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४१६
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ एयसमओ, उक्क० आवलि० असंखे० भागो। अवहि० सव्वद्धा । मणुसपञ्जा-मणुसिणीसु भुज. अप्प० जह० एगसमओ, उक० संखेजा समया। अवहि० सव्वद्धा । मणुसअपज० अप्पद० जह० एयसमओ, उक० आवलि० असंखे० भागो। अवाहिक जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । एवं बेउब्धियमिस्स० । सव्वहे अप्पद० जह० एगसमओ, उक० संग्वेजा समया । अवष्टि० सम्बद्धा। एवं मणपज-संजदसामाइय-छेदो०-परिहार० खइयसम्माइहि त्ति वत्तव्वं । आहार अवहि जह० एयसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । एवमकसा०-सुहुम :-जहाक्खाद० वत्तव्वं । आहारमिस्स. अवष्टि० जहण्णुक्क० अंतोमुहुत्तं ।
६४६२. उवसम० सम्मामि० अवष्टि० जह० अंतोमुहुत्तं उक्क० पार्लिदो० असंखे० एय समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। तथा अवस्थित विभक्तिस्थानवाले मनुष्य सर्वदा पाये जाते हैं इसलिये उनका सर्व काल है। पर्याप्त मनुष्य और स्त्रीवेदी मनुष्योंमें भुजगार और अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। तथा अवस्थित विभक्तिस्थानवाले पर्याप्त और स्त्रीवेदी मनुष्य सर्वदा पाये जाते हैं इसलिये इनका सर्व काल है। लब्ध्यपर्याप्त मनुष्यों में अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है । तथा अवस्थित विभक्तिस्थानवाले लब्ध्यपर्याप्त मनुष्योंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। इसीप्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगियों में अल्पतर और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंका काल जानना चाहिये।
सर्वार्थसिद्धिमें अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। तथा अवस्थित विभक्तिस्थानवाले सर्वार्थसिद्धिके देघ सर्वदा पाये जाते हैं इसलिये उनका सर्वकाल है। इसीप्रकार मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवों में अल्पतर और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंका काल कहना चाहिये ।
आहारक काययोगी जीवोंमें अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसीप्रकार अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत और यथाख्यात संयतोंमें अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंका काल कहना चाहिये। आहारकमिश्रकाययोगियोंमें अवस्थितविभक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है।
६४६२. उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवों में अवस्थितविभक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है।
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गा०२२]
भुजगारविहत्तीए कालाणुगमो
भागो।
४६३. उवसमसम्मादिहिस्स अणंताणुबंधिचउकं विसंजोएंतस्स अप्पदरं होदि ति तत्थ अप्पदरकालपरूवणा कायव्वा ति ? ण, उवसमसम्मादिडिम्मि अणंताणुपंधिविसंजोयणाए अभावादो । तदभावो क्रुदो णवदे ? उवसमसम्मादिहिम्मि अवाहिदपदं घेव परूवेमाण-उच्चारणाइरियषयणादो णध्वदे। उवसमसम्मादिहिम्मि अणंताणुवंघिचउकविसंजोयण भणंत-आइरियवयणेण विरुज्झमाणमेदं वयणमप्पमाणभावं किंण दुकदि ? सचमेदं जदि तं सुत्त होदि। सुत्तेण वक्खाणं बाहिदि ण पक्खाणेण वक्खाणं । एत्थ पुण दो वि उवएसा परवेयव्वा दोण्हमेक्कदरस्स सुत्ताणुसारित्तावगमाभावादो। किमहमुवसमसम्मादिहिम्मि अणंताणुबंधिचउकविसंजोयणा णत्थि ?
६१६३. शंका-जो उपशमसम्यग्दृष्टि चार अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करता है उसके अल्पतर विभक्तिस्थान पाया जाता है, इसलिए उपशम सम्यग्दृष्टियों में अल्पतर विभक्तिस्थानके कालकी प्ररूपणा करनी चाहिये ?
समाधान-नहीं, क्योंकि उपशमसम्यग्दृष्टि जीवके अनन्तानुबन्धी चारकी विसयोजना नहीं पाई जाती है।
शंका-उपशमसम्यग्दृष्टि जीवके अनन्तानुषन्धी चारकी विसंयोजना नहीं होती है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-उपशमसन्यग्दृष्टिके एक अवस्थित पद ही होता है इसप्रकार प्रतिपादन करनेवाले उच्चारणाचार्यके वचनसे जाना जाता है कि उपशमसम्यग्दृष्टि के अनन्तानुबन्धी चारकी विसंयोजना नहीं होती।
शंका-उपशमसम्यग्दृष्टिके अनन्तानुबन्धी चारकी विसंयोजना होती है इसप्रकार कथन करनेवाले आचार्य बचनके साथ यह उक्त वचन विरोधको प्राप्त होता है इसलिये यह वचन अप्रमाण क्यों नहीं है ?
समाधान-यदि उपशमसम्यग्दृष्टिके अनन्तानुबन्धी चारकी विसंयोजनाका कथन करनेवाला वचन सूत्रवचन होता तो यह कहना सत्य होता, क्योंकि सूत्रके द्वारा व्याख्यान बाधित होजाता है, परन्तु एक व्याख्यानके द्वारा दूसरा व्याख्यान बाधित नहीं होता। इसलिये उपशमसम्यग्दृष्टिके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना नहीं होती है यह वचन अप्रमाण नहीं है। फिर भी यहां पर दोनों ही उपदेशोंका प्ररूपण करना चाहिये; क्योंकि दोनोंमेंसे अमुक उपदेश स्त्रानुसारी है इसप्रकारके ज्ञान करनेका कोई साधन नहीं पाया जाता है।
शंका-उपशमसम्यग्दृष्टिके अनन्तानुबन्धी चारकी विसंयोजना क्यों नहीं होती है ?
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११८
जयपपलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ उवसमसम्मत्तकालं पेक्खिय अणंताणुबंधिचउक्कविसंजोयणाकालस्स बहुत्तादो अणंताणुबंधिविसंजोयणपरिणामाणं तत्थाभावादो वा । एत्थ पुण विसंजोयणापक्खो चेव पहाणभावेणावलंबियव्वो पवाइजमाणत्तादो चउवीससंतकम्मियस्स सादिरेयबेछावहिसागरोवममेत्तकालपरूवयसुत्ताणुसारित्तादो च। तदो अप्पदरसंभवो वि सव्वत्थाणुम
समाधान-उपशम सम्यक्त्वके कालकी अपेक्षा अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजनाका काल अधिक है, अथवा वहां अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाके कारणभूत परिणाम नहीं पाये जाते हैं। इससे प्रतीत होता है कि उपशमसम्यग्दृष्टिके अनन्तानुबधीकी विसंयोजना नहीं होती है।
फिर भी यहां उपशमसम्यग्दृष्टिके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना होती है यह पक्ष ही प्रधानरूपसे स्वीकार करना चाहिये; क्योंकि, इस प्रकारका उपदेश परंपरासे चला आ रहा है। तथा इस प्रकारका उपदेश 'चौबीस सत्त्वस्थानवाले जीवका काल साधिक एकसौ बत्तीस सागरप्रमाण है' इस प्रकार प्ररूपण करनेवाले सूत्रके अनुसार है। इस लिये सर्वत्र उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें अल्पतर विभक्तिस्थानकी सम्भावना भी समझ लेना चाहिये ।
विशेषार्थ-यहां उपशमसम्यक्त्वमें अल्पतरविभक्तिका कथन नहीं किया है। इसपर शंकाकारका कहना है कि उपशमसम्यग्दृष्टि जीव भी अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करके २८ विभक्तिस्थानसे २४ विभक्तिस्थानको प्राप्त होता है अतः उसके अल्पतरविभक्तिका कयन करना चाहिये । इस शंकाका समाधान करते हुए बीरसेन स्वामीने बतलाया है कि 'उच्चारणाचार्यने उपशमसम्यग्दृष्टिके एक अवस्थित पदका ही कथन किया है और यहां भुजगारविभक्तिका कथन उन्हींके कथनानुसार किया जा रहा है। अत: उपशमसम्यक्त्वमें अल्पतरविभक्तिका कथन नहीं किया है। यद्यपि उच्चारणाचार्यका यह उपदेश उपशमसम्यस्त्वमें अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाका कथन करनेवाले उपदेशके प्रतिकूल पड़ता है, किन्तु मूल सूत्रप्रन्योंमें अनुकूल या प्रतिकूल कोई उल्लेख न होनेसे ये दोनों उपदेश परस्पर बाधित नहीं होते, अतः दोनों उपदेशोंका संग्रह करना चाहिये।' उपशमसम्यक्त्वमें अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना नही होती इसकी पुष्टिमें बीरसेन स्वामीने दूसरी यह युक्ति दी है कि उपशमसम्यक्त्वके कालसे अनन्तानुबन्धी चतुष्कका विसंयोजनाकाल संख्यातगुणा है। अत: उपशमसम्यक्त्वके कालमें अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना सम्भव नहीं है। किन्तु वीरसेनखामी 'उपशमसम्यक्त्वके कालसे अनन्तानुबन्धी चतुष्कका विसंयोजना काल संख्यातगुणा है' यह किस आधारसे लिख रहे हैं इसका हमें अभी स्रोत नहीं मिल सका। मालूम होता है यह मत भी उन्हीं उच्चारणाचार्यका होगा जिनके मतसे यहां उपशमसम्यक्त्वमें अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजनाका निषेध किया है। हां, यह उल्लेख अवश्य पाया जाता है कि 'अनन्तानुबन्धी चतुष्कके विसंयोजनाकालसे उपशम
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गो० ३३] - भुजगारविहत्तीए अंतराणुगमो ग्गियव्वो त्ति । सासण. अवष्टि० जह• एयसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे. भागो । अभविय० अवहि० सव्वद्धा।
एवं कालाणुगमो समतो।। ४६४. अंतराणुगमेण दुविहो णिदेसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओषेण राज. अप्पदर० अंतरं के० १ जह० एगसमओ, उक्क० चउवीस-अहोरत्ता सादि० । अवडि पत्थि अंतरं । एवं सव्वणिरय-तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्ख०-पांचं० तिरि० पञ्जापंचिंतिरि जोणिणी-मणुसतिय-देव-भवणादि जाव उवरिमगेवज०-पंचिंदिय-पंचिं. पज०-तस-तसपज०-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालि०-वेउब्धिय-तिण्णिवेद०-चत्तारिकसा०-असंज० चक्खु०-अचक्खु०-छलेस्स० -भवसिद्धि०-सण्णि०-आहारि सम्यक्त्वका काल संख्यातगुणा है। जिसका प्रतिपादन स्वयं वीरसेन स्वामी २४ विभक्तिस्थानके उत्कृष्टकालका कथन करते समय कर आये हैं। इससे तो यही सिद्ध होता है कि उपशमसम्यक्त्वमें अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना हो सकती है। स्वयं वीरसेन स्वामी इसे प्रवाहमान उपदेश बतला रहे हैं। तथा यतिवृषभ आचार्यने जो २४ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल साधिक एक सौ बत्तीस सागर बतलाया है वह उपशमसम्यक्त्वमें अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना माने बिना बन नहीं सकता । अतः सिद्ध होता है कि प्रकृत कषायप्राभूतमें उपशमसम्यक्त्वके रहते हुए अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना हो सकती है यह उपदेश मुख्य है । और अन्तमें स्वयं वीरसेन स्वामी इसी उपदेश पर जोर देते हैं।
सासादनसम्यग्दृष्टियों में अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अभव्यों में अवस्थित विभक्तिस्थानपाले जीव ही सर्वदा पाये जाते हैं इसलिये उनका सर्वकाल है।
इसप्रकार कालानुगम समाप्त हुआ।
६१६१. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओपनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघनिर्देशकी अपेक्षा भुजगार और अल्पतर विभक्तिस्थानवालोंका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक चौबीस दिन रात है । अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं पाया जाता है। इसीप्रकार समी नारकी, सामान्य तियंच, पंचेन्द्रिय तियंच, पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्त, पंचेन्द्रियतिर्यच योनिमती, सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य, स्त्रीवेदी मनुष्य, सामान्यदेव, भवनवासियोंसे लेकर उपरिम अवेयक तकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, प्रस, त्रस पर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, तीनों वेदपाले, क्रोधावि चारों कषायवाले, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, ग्रहों
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terrane कसा पाहुडे
४१०
ति वत्तव्वं ।
९४६५. पंचिंदियतिरिक्खअपज० अप्पदर० जह० एगसमओ उक्क० चउवीस अहो रत्ता सादि० | अवधि ० णत्थि अंतरं । एवमणुद्दिसादि जाव अवराइद ति सव्वएइंदियसव्वविगलिंदिय- पांच० अपज०- पंचकाय० तसअपज० - ओरालियमिस्स ०- कम्मइय०मदि - अण्णाण-सुदअण्णाण विहंग०-आभिणि०- सुद० - ओहि ० मणपज० -संजद- सामाइयछेदो० - परिहार • संजदासंजद ० - ओहिदंस० - सम्मादि० - वेदय०-मिच्छादि० - असण्णि० -अणा हारि त्ति वत्तव्वं । मणुस-अपज अप्पदर अवट्टि० जह० एयसमओ, उक्क० पलिदो ० असंखे • भागो । सव्वट्टे अप्पद० जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । S१६६. अणुद्दिसादि अवराइयदंताणं अप्पदरस्स अंतरं एत्थ उच्चारणाए चउवीस अहोरत्तमेत्तमिदि भणिदं । बप्पदेवाइरियलिहिद- उच्चारणाए वासपुधत्तमिदि परूविदं । दासिंदोहमुच्चारणाणमत्थो जाणिय वत्तव्वो अम्हाणं पुण वास धत्तंतरं सोहलेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके कहना चाहिये ।
०
[ पयडिविहती २
९४६५. पंचेन्द्रिय तिर्यच लब्ध्यपर्याप्तकों में अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीवोंका अघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक चौबीस दिन रात है । तथा अबस्थित विभक्तिस्थानका अन्तरकाल नहीं पाया जाता है । अर्थात् अवस्थित विभक्तिस्थानवाले पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तक जीव सर्वदा पाये जाते हैं । इसीप्रकार अनुविशसे लेकर अपराजित तक के देवोंमें तथा सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, पांचों स्थावरकाय, त्रस लब्ध्यपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थानासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि वेदकसम्म दृष्टि, मिध्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंमें अल्पतर और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंका अन्तरकाल कहना चाहिये ।
मनुष्य लब्ध्यपर्याप्त जीवोंमें अल्पतर और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । सर्वार्थसिद्धिमें अल्पतर विभक्तिस्थानबाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है ।
$ ४६६. अनुदिशसे लेकर अपराजितकल्प तकके देवोंके अल्पतर विभक्तिस्थानका अन्तरकाल यहाँ उच्चारणा में चौबीस दिनरात कहा है, पर वप्पदेवके द्वारा लिखी गई उषारणा वर्षपृथक्त्व कहा है । अतएव इन दोनों उच्चारणाओंका अर्थ समझकर अन्तर कालका कथन करना चाहिये । पर हमारे ( वीरसेन स्वामीके ) अभिप्रायसे वर्ष पृथक्त्व अन्तरकाल ही ठीक प्रतीत होता है। क्योंकि अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाका उत्कृष्ट
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गा० २२)
मुजगारविहत्तीए अंतराणुगमो
णमिदि अहिप्पाओ । कुदो ? अणंताणुबंधिविसंजोयणाए उक्कस्सेण वासपुधत्तंतरे संते विसंजोयत्ताणमभावादो। तत्थ चउवीस-अहोरत्ताणि अंतरं होदि जत्य सम्मतसम्मामिच्छत्ताणमुवेलणादो अप्पदरमिच्छिादि । एत्थ पुण तं णस्थि । तम्हा वासपुधत्तंतरमणुद्दिसादिसु णिरवजमिदि।
$४६७. वेउव्वियमिस्स, अप्पदर० एगसमओ, उक्क० चउबीस अहोरत्ताणि सादि० । अवष्टि० जह• एगसमओ, उक्क० बास्स मुहुत्ता । आहार. आहारमिस्स० अवष्टि जह० एगसमओ, उक्क. वासपुत्त । एवमकसाय० जहाक्खाद० णेदच्वं । अवगद० अप्पदर० अवहि० जह० एगसमओ, उक्क० छम्मासा । सुहुमसांपराइय. अवहि० जह० एगसमओ उक्क० छम्मासा। अभध्व० अवष्टि णस्थि अंतरं । खइय. अप्प० जह० एयसमओ, उक्क० छम्मासा । अवहिणस्थि अंतरं। उवसम०-सासणअन्तरकाल वर्षपृथक्त्व रहते हुए बीचमें विसंयोजना नहीं बन सकती है। अल्पतर विभक्तिस्थानका चौबीस दिनरात अन्तरकाल तो वहां होता है जहां सम्यक्प्रकृति और सम्यगमिथ्यात्व प्रकृतिकी उद्वेलनासे अल्पतर विभक्तिस्थान स्वीकार किया जाता है। पर अनुदिशसे लेकर अपराजित तकके देवों में इस प्रकारका अल्पतर विभक्तिस्थान ही नहीं पाया जाता है । इससे प्रतीत होता है कि अनुदिशादिकमें अल्पतर विभक्तिस्थानका वर्षपृथक्त्वप्रमाण अन्तरकालका कथन निर्दोष है।
१६७.वैक्रियिकमिश्रकाययोगियों में अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक चौबीस दिनरात है। तथा अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल बारह मुहूर्त है। आहारककाययोगी और आहारकमिभकाययोगी जीवों में अवलित यिभक्तिस्थानकाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है। इसीप्रकार अकषायी और यथाख्यातसंयत जीवोंमें अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंका अन्तरकाल कहना चाहिये।
अपगतवेदियों में अल्पतर और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जपन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है । सूक्ष्मसापरायिकसंयतोंमें अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है। अभव्योंमें सर्वदा अवस्थित विभक्तिस्थानकाले ही जीव पाये जाते हैं इसलिये उनमें अन्तरकाल नहीं पाया जाता है।
क्षायिकसम्यग्दृष्टियों में अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल बह महीना है। तथा क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें अवस्थित विभक्तिस्थानका बन्तरकाल नहीं पाया जाता है। उपशमसम्यगरष्टि, सासादन सम्यग्
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taaree कसा पाहुडे
[ पयडिविहती २
सम्मामि ० अवद्वि० जह० एगसमओ । उक्क० चउवीसअहोरत्ताणि सादि ० उवसमसम्मादिद्वीणमंतरं । सेसदोण्हं वि पालदो ० असंखे० भागो । उवसम० अप्पदर० अवदि० भंगो । एवमंतराणुगमो समत्तो ।
६४६८. भावानुगमेण सव्वत्थ ओदइओ भावो ।
एवं भावाणुगमो समत्तो ।
६४६६. अप्पा बहुगाणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सव्वत्थोवा अप्पदरविहत्तिया, भुजगारविहत्तिया विसेसाहिया, अवद्विदविहत्तिया अनंतगुणा । एवं तिरिक्ख - कायजोगि ओरालिय० णवुंस० - चत्तारिकसा० - असंजद ० - अचक्खु० किण्ह णील- काउ०- भवसिद्धि ० - आहारिति ।
६४७०. आदेसेण णेरइएसु सव्वत्थोवा अध्पदर०, भुज० विसेसाहिया, अवधि ० असंखेअगुणा । एवं सव्वणेरइय-पंचिदियतिरिक्खतिय देव भवणादि जाव उवरिमगेवज० - पंचिदिय पंचिं० पज० -तस तसपज० - पंचमण० - पंचवचि ० - वेउब्विय० - इस्थिदृष्टि और सम्यमिध्यादृष्टि जीवों में अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है । और उपशमसम्यग्दृष्टियों में उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिन रात है तथा सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टियों में उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग है । उपशमसम्यग्दृष्टियों में अल्पतर विभक्तिस्थानका अन्तर अवस्थितके समान है । इसप्रकार अन्तरानुगम समाप्त हुआ ।
४६८. भावानुगमकी अपेक्षा सर्वत्र औदायिक भाग होता है ।
इसप्रकार भावानुगम समाप्त हुआ ।
६ ४६६. अम्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से ओघकी अपेक्षा अल्पतर विभक्तिस्थान वाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे भुजगार विभक्तिस्थानवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे अवस्थित विभक्तिस्थान वाले जीव अनन्तगुणे हैं । इसीप्रकार सामान्य तिर्यंच, काययोगी, औदारिक काययोगी नपुंसक वेदी, क्रोधादि चारों कषायवाले, असंयत, अचक्षुदर्शनी, कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले, भव्य तथा आहारक जीवोंमें अल्पतर आदि विभक्तिस्थानवाले जीवोंका अल्पबहुत्व कहना चाहिये ।
S ४७०. आदेश की अपेक्षा नारकियोंमें अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे भुजगारविभक्तिस्थानवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार सभी नारकी, पंचेन्द्रियतियच, सामान्य पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यंच, पंचेन्द्रिय योनिमती तिर्यंच, सामान्यदेव, भवनवासियोंसे लेकर उपरिम प्रैवेयक तक के देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस त्रपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचो
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गा० २२]
भुजगारविहत्तीए अप्पाबहुगाणुगमो पुरिस-चक्खु-तेउ०-पम्म-सुक्क०-सण्णि ति। पंचिंदियतिरिक्खअपज०-मणुसअपज०-अणुद्दिसादि जाव अवराइद ति-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज०-चत्तारिकाय- तसअपज० -वेउब्वियमिस्स० -विहंग०-आमिणि-सुद०-ओहि०-संजदा-संजद
ओहिदंस०-सम्माइही-वेदय०-खइयसम्मादिहि ति एदेसु सव्वेसु वि सन्चस्थोवा अप्पदरविहतिया, अवविद०. असंखे गुणा । सवढे सव्वत्थोवा अप्पदरविहत्तिया, अवद्विदविहत्तिया संखेजगुणा । एवमवेद०-मणपजव०-संजद०-सामाइयछेदो०-परिहार० वत्तव्वं ।
६४७१. मणुस्सेसु सव्वत्थोवा भुज०, अप्पदर० असंखेजगुणा, अवष्टि० असंखेजगुणा । मणुसपञ्जत्त-मणुसिणीसु सव्वत्थोवा भुज०, अप्पदर० संखेजगुणा, अवाहिक संखेजगुणा।
६४७२. एइंदिएसु सव्वत्थोवा अप्पदर०, अवट्टि० अणंतगुणा । एवं सव्ववणप्फदि वचनयोगी, वैक्रियिक काययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, चक्षुदर्शनी, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, शुक्ललेश्यावाले और संज्ञी जीवोंमें अल्पतर आदि विभक्तिस्थानवाले जीवोंका अल्पबहुत्व जानना चाहिये ।
पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तक, मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तक, अनुदिशसे लेकर अपराजित तकके देव, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक, पृथिवी आदि चार स्थावरकाय, त्रसलब्ध्यपर्याप्तक, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, विभंगज्ञानी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें सबसे थोड़े अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीव हैं। इनसे अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं।
सर्वार्थसिद्धिमें अल्पतरविभक्तिस्थानवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार अपगतवेदी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसयत, छेदोपस्थापनासंयत और परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंमें अल्पतर आदि विभक्तिस्थानवाले जीवोंका अल्पबहुत्व कहना चाहिये ।
४७१. मनुष्योंमें भुजगार विभक्तिस्थानवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव असं रूयातगुणे हैं । मनुष्य पर्याप्त और स्त्रीवेदी मनुष्यों में भुजगार विभक्तिस्थानवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं।
४७२. एकेन्द्रियोंमें अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव अनन्तगुणे हैं। इसीप्रकार सभी वनस्पतिकायिक, सभी
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१२४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पयडिविहत्ती २
सवाणगोद० -ओरालियमिस्स० -कम्मइय-मदि-सुद-अण्णाण -मिच्छा० -असण्णिअणाहारित्तिवत्तव्यं। आहार०-आहारमिस्स०-अकसाय०-सुहुम०-जहाक्खाद०-अभब०. उपसम० सासण-सम्मामि० णात्थ अप्पाबहुअं एगपदत्तादो। अथवा उवसमा सम्वत्थो० अप्पद०, अवढि० असंखेगुणा ।
एवं पयडिभुजगारविहत्ती समत्ता ।
-
निमोद, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, मिथ्यारष्टि, असंही और अनाहारक जीवों में अल्पतर आदि विभक्तिस्थानवाले जीवोंका अल्पबहुत्व कहना चाहिये।
आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाच्यातसंयत, अभव्य, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टियों में अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि, इनमें एक अवस्थितस्थान ही पाया जाता है । अथवा, उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें अल्पतरविभक्तिस्थानवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अवस्थितविभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं।
इसप्रकार प्रकृतिभुजगारविभक्ति समाप्त हुई ।
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गा० २२]
पदणिक्खेवे समुक्त्तिणा * पदणिक्खेवे वढीए च अणुमग्गिदाए सम्मत्ता पयडिविहत्ती।
६४७३. पदणिक्खेवो णाम अहियारो अवरो बढी णाम । एदेसु दोसु अहियारेसु एत्थ परूविदेसु पयडिविहत्ती समप्पदि त्ति जइवसहाइरिएण भणिदं ।
६४७४. संपहि जइवसहाइरिय-मूहदाणं दोण्हमत्थाहियाराणमुच्चारणाइरियपरूविदमुच्चारणं वत्तइस्सामो
४७५. पदणिक्खेवे तिण्णि अणियोगद्दाराणि समुकित्तणा, सामित्तमप्पाबहुअं चेदि । को पदणिक्खेवो णाम ? जहण्णुकस्सपदविसयणिच्छए खिवदि पादेदि त्ति पदणिक्खेवो । तत्थ समुक्तित्तणाणुगमो दुविहो उक्कस्सओ जहण्णओ चेदि । तत्थ उक्कस्सए पयदं।
* यहां पर पदनिक्षेप और वृद्धि इन दो अनुयोगद्वारोंका विचार कर लेनेपर प्रकृतिविभक्तिका कथन समाप्त होता है।
४७३. एक अधिकारका नाम पदनिक्षेप है और दूसरेका नाम वृद्धि । इन दोनों अधिकारोंका यहां कथन कर देनेपर प्रकृतिविभक्तिका कथन समाप्त होता है, यह यतिवृषभाचार्यका अभिप्राय है।
६४७४. अब यतिवृषभाचार्य के द्वारा सूचित किये गये दोनों अर्थाधिकारोंकी उच्चारणाचार्यके द्वारा कही गई उच्चारणावृत्तिको बतलाते हैं
$ ४७५. पदनिक्षेपमें तीन अनुयोगद्वार हैं-समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व । शंका-पदनिक्षेप किसे कहते हैं ?
समाधान-जो जघन्य और उत्कृष्ट पदविषयक निश्चयमें ले जाता है उसे पदनिक्षेप कहते हैं।
पदनिक्षेपके उन तीनों अनुयोगद्वारों मेंसे समुत्कीर्तनानुयोगद्वार उत्कृष्ट और जघन्यके भेदसे दो प्रकारका है। उन दोनोंमेंसे उत्कृष्ट समुत्कीर्तना प्रकृत है अर्थात् पहले उत्कृष्ट समुत्कीर्तनाका कथन करते हैं
विशेषार्थ-पहले २८, २९ आदि विभक्तिस्थान बतला आये हैं। उनमेंसे अमुक स्थान से अमुक स्थानकी प्राप्ति होते समय वह हानिरूप है या वृद्धिरूप इत्यादि बातोंका इसमें विचार किया गया है। यथा-एक जीव अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाला है उसने सम्यक्त्वकी उद्वेलना करके सत्ताईस विभक्तिस्थानको प्राप्त किया तो यह जघन्य हानि हुई । तथा एक जीव इकोस विभक्तिस्थानवाला है उसने क्षपकश्रेणीपर चढ़कर आठ कषायोंका क्षय करके तेरह विभक्तिस्थानको प्राप्त किया तो यह उत्कृष्ट हानि है । इसी प्रकार सत्ताईस विभक्तिस्थानवाले जिस जीवने उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करके अट्ठाईस विभक्तिस्थानको प्राप्त किया तो यह जघन्य वृद्धि है तथा चौबीस विभक्तिस्थानवाले एक जीवने मिथ्यात्वमें जाकर अट्ठाईस
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४२४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पयडिविहत्ती २
६४७६. उक्कस्सपदसमुक्कित्तणाणुगमेण दुविहो णिद्देसो, ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण अत्थि उक्कस्सवड्ढी-हाणि-अवट्ठाणाणि । एवं सत्तपुढवि०-तिरिक्ख०पंचिंदियतिरिक्खतिय-मणुसतिय-देव-भवणादि जाव उवरिमगेवज०-पंचिंदिय-पंचिं. पज०-तस-तसंपन्ज -पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालि०-वेउव्वि०-तिण्णिवेद
चत्वारि क०-असंजद०-चक्खु०-अचक्खु०-छलेस्सा-भवसिद्धि०-सण्णि-आहारि ति। पंचि० तिरि०अपज अस्थि उक्कस्सहाणि-अवठाणाणि । एवं मणुसअपज०-अणुद्दिसादि विभक्तिस्थानको प्राप्त किया तो यह उत्कृष्ट वृद्धि है। यहां इतनी विशेषता है कि हानि सब स्थानोंसे होती है पर वृद्धि २७, २६ और २४ इन तीन विभक्तिस्थानोंसे ही होती है । इस प्रकार इन सब बातोंका विचार इस पदनिक्षेप अनुयोगद्वारमें किया गया है।
६४७६. उत्कृष्ट पद समुत्कीर्तनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघनिर्देशकी अपेक्षा उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान होते हैं । इसीप्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, सामान्य तिर्यच, पंचेन्द्रियतिथंच आदि तीन प्रकारके तियंच, सामान्य मनुष्य आदि तीन प्रकारके मनुष्य, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर उपरिम अवेयक तकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, प्रस पर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिक काययोगी, वैक्रियिककाययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, कृष्णादि छहों लेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके कहना चाहिये।
विशेषार्थ-ओघकी अपेक्षा २१ विभक्तिस्थानसे १३ विभक्तिस्थानकी प्राप्तिके समय उत्कृष्टहानि और २४ विभक्तिस्थानसे २८ विभक्तिस्थानकी प्राप्तिके समय उत्कृष्ट वृद्धि होती है। तथा उत्कृष्ट हानिके पश्चात् होनेवाले अवस्थानको हानिसम्बन्धी और उत्कृष्ट वृद्धिके पश्चात् होनेवाले अवस्थानको वृद्धिसम्बन्धी उत्कृष्ट अवस्थान कहते हैं। ऊपर जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उन सबमें उत्कृष्ट हानि, उत्कृष्ट वृद्धि और उत्कृष्ट अवस्थान संभव हैं अतः उनके कथनको ओघके समान कहा । पर इसका यह अभिप्राय नहीं कि सक्त सभी मार्गणाओंमें २१ विभक्तिस्थानसे १३ विभक्तिस्थानकी प्राप्ति होती है। किन्तु यहां ओघके समान कहनेका यह अभिप्राय है कि उक्त मार्गणाओं में हानि, वृद्धि और अवस्थान तीनों सम्भव हैं अतः उनका कथन ओघके समान कहा गया है। किस मार्गणामें अधिकसे अधिक कितनी प्रकृतियोंकी हानि, वृद्धि और तदनन्तर अवस्थान होता है इसका आगे खामित्व अनुयोगद्वारमें खुलासा किया ही है। अतः इस विषयको वहांसे जान लेना चाहिये। ... पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तकोंमें उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान होते हैं। इसीप्रकार लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य, अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देव, सर्व एकेन्द्रिय,
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४२७.
गा० २२]
पणिक्खेवे समुक्तित्तणा जाव सव्वदृ०-सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचिं० अपज्ज०-पंचकाय-तसअपज०-ओरालियमिस्स ० - वेउव्वियमिस्स ० - कम्मइय ० -अवगदवेद-मदि - सुदअण्णाण-विहंगआभिणि-सुद०-ओहि०-मणपज्ज०-संजद०-सामाइयछेदो०-परिहार०- संजदासंजद०ओहिदंस०-सम्मादि-खइय०-वेदय-मिच्छादि-सण्णि-अणाहारित्ति। आहार-आहारमिस्स०-अकसा०-सुहुम०-जहाक्खाद०-अभव्व०-उवसम०-सासण-सम्मामि० अस्थि उकस्समवहाण ।
एवमुक्कस्सवड्ढी-हाणि-अवट्ठाण-समुक्त्तिणा समत्ता। ६४७७. जहण्णए पयदं । दुविहो णिदेसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सर्व विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, पांचों स्थावरकाय, त्रस लब्ध्यपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, अपगतवेदी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, संज्ञी और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिये।
विशेषार्थ-आदेशकी अपेक्षा उत्कृष्ट वृद्धि नहीं होती। किन्तु उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थानका विचार करते समय जिस जिस मार्गणामें अधिकसे अधिक जितनी प्रकृतियोंकी हानि और तदनन्तर अवस्थान होता है वही यहां उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान लिया गया है । उदाहरणके लिये लठध्यपर्याप्त तिथंचों में अधिकसे अधिक एक प्रकृतिकी ही हानि होती है तथा मतिज्ञानियोंके अधिकसे अधिक आठ प्रकृतियोंकी हानि होती है । अतः ये अपनी अपनी अपेक्षासे उत्कृष्ट हानियां जानना चाहिये। इसीप्रकार ऊपर जितनी और मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें भी समझ लेना। ___ आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अकषायी, सूक्ष्मसापरायिकसयत, यथाख्यातसंयत, अभव्य, उपशमसम्यग्दृष्टि सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि, जीवोंमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है।
विशेषार्थ-ये आहारककाययोगी आदि मार्गणाएं ऐसी हैं जिनमें स्थानकी हानि वृद्धि तो नहीं होती, परन्तु इनमें अभव्यमार्गणाको छोड़ कर शेष सब मार्गणाओंमें उत्कृष्ट और जघन्य अवस्थान सम्भव है। उनमेंसे यहां उत्कृष्ट अवस्थानका ग्रहण किया है । यद्यपि उपशमसम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करते हैं, अतः वहां उत्कृष्ट हानि सम्भव है पर यह कुछ आचार्योंका मत है इसलिये इसकी यहां विवक्षा नहीं की।
इस प्रकार वृद्धि हानि और अवस्थानरूप समुत्कीर्तना समाप्त हुई । - $४७७. अब जघन्य वृद्धि आदिकी समुत्कीर्तनाका प्रकरण है। इसकी अपेक्षा निर्देश
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पयडिविंहची २
अस्थि जहण्णव ड्ढि-हाणि-अवहाणाणि । एवं णिरय-तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खतिय मणुसतिय-देव-भवणादि जाव उवरिमगेवज०-पंचिंदिय-पंचिं० पज० तस-तसपज.. पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालि०-वेउव्विय०-तिण्णिवेद०-चत्तारिकसायअसंजद०-चक्खु०-अचक्खु०-छलेस्सा०-भवसिद्धि-सणि-आहारि त्ति । पंचिंदियतिरिक्ख-अपज० अस्थि जहण्णहाणि-अवहाणाणि । एवं मणुसअपञ्ज०-अणुद्दिसादि जाव सन्बह-सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचिं० अपज०-पंचकाय-तसअपज०-ओरालिय. मिस्स वेउब्धियमिस्स-कम्मइय०-अवगदवेद०-मदि-सुदअण्णाण-विहंग० -आभिणि सुद०-ओहि०-मणपज-संजद० -सामाइयच्छेदो०-परिहार० -संजदासंजद० -ओहिदंस० सम्मादि०-खइय०-वेदय०-मिच्छा०-असण्णि-अणाहारित्ति । आहार-आहारमिस्स०अकसाइ० सुहुम०-जहाक्खाद०-उवसम-सासण-सम्मामि० अस्थि जहण्णमवहाणं । दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा जघन्यवृद्धि जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान होते हैं। इसीप्रकार नारकी, तिथंच, पंचेन्द्रियतियच आदि तीन प्रकारके तिथच, सामान्य मनुष्य आदि तीन प्रकारके मनुष्य, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर उपरिम प्रैवेयक तकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिक काययोगी, वैक्रियिककाययोगी, तीनों वेवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, छहों लेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके कहना चाहिये । ___ पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तकोंमें जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान होते हैं। इसीप्रकार लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य, अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, पांचों स्थावर काय, त्रसलब्ध्यपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाय. योगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, अपगतवेदी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्थयज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिये ।
___ आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें जघन्य अवस्थान होता है। - विशेषार्थ-जघन्य वृद्धि आदिकी समुत्कीर्तनामें जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थानका प्रहण किया है, जो स्वामित्व अनुयोगद्वारसे जाना जा सकता है। अभव्योंके एक २६ विभक्तिरूप ही स्थान होता है अतः उसका जघन्य अवस्थानमें निर्देश नहीं किया है।
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गां ० २२ ]
पदणिक्खेवे सामित्तं
एवं समुत्तिणा समत्ता ।
४७८. सामित्तं दुविहं जहण्णुक्कस्सं च । उक्कस्से पयदं । दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण उक्कस्सिया वड्ढी कस्स ? अण्णदरो जो चउवीससंतकम्मिओ मिच्छत्तं गदो तस्स उक्कस्सिया वड्ढी । उक्कस्सिया हाणी कस्स ? अण्णदरस्स जो एकवीससंतकम्मिओ अडकसाए खवेदि तस्स उक्कस्सिया हाणी । तस्सेव से काले उक्कस्समवद्वाणं । एवं मणुसतिय-पंचिदिय-पंचिं ० पञ्ज०-तस-तसपज० पंचमण० - पंच वचि०- कायजोगि०- ओरालि० - तिष्णिवेद० - चत्तारि क० चक्खु०- अचक्खु ० -सुक्क०भवसिद्धि०-सणि आहारिति ।
४२६
४७६. आदेसेण रइएसु उक्कस्सिया वड्ढी कस्स ? अण्णदरस्स अनंतापुबंधिचक्कं विसंजोइय संजुत्तस्स । हाणी कस्स ! अण्णदरस्स अट्ठावीस -संतकम्मियस्स अणंताणुबंधिचउक्कं विसंजोएंतस्स उक्कस्सिया हाणी । एगदरत्थ अवद्वाणं । एवं सव्वणिरय-तिरिक्ख-पंचिं० तिरि०- पंचितिरि० पञ्ज० - पंचितिरि० जोगिणी - देव-भवणादि जाव
इसप्रकार समुत्कीर्तना समाप्त हुई ।
४७८. जघन्य और उत्कृष्ट के भेदसे स्वामित्व दो प्रकारका है । उनमें से उत्कृष्ट स्वामित्वका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? चौबीस प्रकृतियों की सत्तावाला जो कोई जीव मिध्यात्वको प्राप्त हुआ, उसके उत्कृष्ट वृद्धि होती है । उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जो कोई जीव आठ कषायों का क्षय करता है उसके उत्कृष्ट हानि होती है । तथा इसी जीवके तदनन्तर कालमें उत्कृष्ट अबस्थान होता है । इसीप्रकार सामान्य, पर्याप्त और स्त्रीवेदी इन तीन प्रकारके मनुष्य, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी औदारिककाययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, शुक्ल लेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके कहना चाहिये ।
३ ४७५. आदेशसे नारकियोंमें उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करके पुनः उससे संयुक्त होता है अर्थात् अनन्तानुबन्धीकी सत्तावाला होता है उस नारकी जीवके उत्कृष्ट वृद्धि होती है । नारकियोंमें उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जिस नारकीके पहले अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता है उसके अनन्तर जिसने अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना की है उसके उत्कृष्ट हानि होती है । तथा इनमें से किसी एक स्थानमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है । इसीप्रकार सभी नारकी, तिथंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर उपरिम मैवेयक तकके देव, वैक्रियिककाययोगी, असंयत और कृष्ण आदि पांच लेश्याबाले
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ उवरिमगेवज०-वेउव्विय०-असंजद-पंचलेस्साणं वत्तव्वं । पंचिंतिरि०अपज० उक्क० हाणी कस्स ? अण्णदरस्स अट्ठावीससंतकम्मियस्स सत्तावीससंतकम्मियस्स वा सम्मत्तं सम्मामिच्छतं वा उव्वेल्लंतस्स उक्कस्सिया हाणी । तस्सेव से काले उक्कस्समवहाणं । एवं मणुसअपज०-सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदिय-पंचिंदिय अपज०-पंचकायतसअपज०-मदि-सुदअण्णाण-विहंग-मिच्छादि० - असण्णीणं वत्तव्यं । अणुद्दिसादि जाव सव्वह० उक्क०हाणी कस्स ? अण्णद. अष्ठावीससंतकम्मियस्स अणंताणुवंधिचउक्कविसंजोएंतस्स णिस्संतकाम्मयपढमसमए उक्कस्सिया हाणी। तस्सेव से काले उकस्समवहाणं । एवं परिहार०-संजदासंजद०-वेदय० सम्मादिहीणं वत्तव्यं । ओरालियमिस्स० उक्कास्सिया हाणी कस्स ? अण्णदरस्स वावीससंतकम्मियस्स कदकरणिअस्स पुवाउअंबंधवसेण तिरिक्खेसुव्वण्णसम्मादिहिस्स अपज्जत्तकाले एक्कावीससंतकम्मियपढमसमए वहमाणस्स उक्क० हाणी। तस्सेव से काले उकस्समवहाणं । जीवोंके कहना चाहिये।
पंचेन्द्रिय तियंच लब्ध्यपर्याप्तकोंमें उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जिसके पहले अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता है अनन्तर जिसने सम्यक्प्रकृतिकी उद्वेलना की है उसके या जिसके पहले सत्ताईस प्रकृतियोंकी सत्ता है अनन्तर जिसने सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना की है उसके उत्कृष्ट हानि होती है। तथा इसी उत्कृष्ट हानिवाले पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तक जीवके उत्कृष्ट हानिके अनन्तर कालमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है। इसीप्रकार लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य, सर्व एकेन्द्रिय, सर्व विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक, पांचों स्थावर काय, त्रसलब्ध्यपर्याप्त, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके कहना चाहिये।
अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जिसके पहले अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता है अनन्तर जिसने अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना की है उसके अनन्तानुबन्धी कर्मका अभाव होनेके पहले समयमें उत्कृष्ट हानि होती है। तथा इसीके अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है । इसी प्रकार परिहारविशुद्धि संयत, संयतासंयत और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके कहना चाहिये। ___ औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जिसके बाईस प्रकृतियोंकी सत्ता है, अतएव जो कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि है और सम्यग्दर्शन होने के पहले तियंचायुका बन्ध कर लेनेके कारण तिथंच सम्यग्दृष्टि जीवोंमें उत्पन्न हुआ है ऐसे किसी औदारिकमिश्रकाययोगी जीवके अपर्याप्त कालमें बाईस प्रकृतियोंसे इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्ताके प्राप्त होने पर पहले समयमें उत्कृष्ट हानि होती है। तथा इसी जीवके तदनन्तर कालमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है। इसीप्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी और कार्मणकाययोगी
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गा० २२ ]
पदणिक्खेवे सामित्तं वेउव्वियमिस्स-कम्मइय० एवं चेव वत्तव्यं । णवरि देव-णेरइय-अपञ्जत्तएसु वेउब्वियमिस्सकायजोगीसु विग्गहगदीए च वट्टमाणवावीसविहत्तियसम्माइट्ठीसु वत्तव्वं । अणाहारीणं कम्मइयभंगो। आहार०-आहारमिस्स०-अकसा०-सुहुम०-जहाक्खाद०अभव्व-उवसम०-सासण-सम्मामिच्छादिहीणं वड्ढी-हाणी-अवहाणाणि णत्थि । कुदो अवट्ठाणस्स अभावो ? वढीहाणीणमभावादो। ण च समुक्त्तिणाए वियहिचारो, तत्थ वढीहाणिणिरवेक्खतत्तियमेत्तावठाणमस्सिऊण तहा परविदत्तादो । अवगद० उक्क० हाणी कस्स ? जो अवगदवेदो एक्कारसविहत्तिओ सत्त णोकसाए खवेदि तस्स उक्क० हाणी । तस्सेव से काले उक्कस्समवट्ठाणं । आभिणि-सुद०-ओहि०-मणपज्ज.. संजद०-सामाइय-छेदो०-ओहिदंस०-सम्मादि-खइयसम्माइट्ठीणं उक्कस्सिया हाणी कस्स ? अण्णदरस्स अणियहियस्स अटकसाए खवेंतस्स उक्कस्सिया हाणी। तस्सेव जीवके उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थानका कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि वैक्रियिकमिश्रकाययोगियों में उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान कहते समय देव और नारकियोंकी अपर्याप्त अवस्थामें कहना चाहिये । तथा कार्मणकाययोगमें कहते समय विग्रहगतिमें विद्यमान बाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाले सम्यग्दृष्टि में ही कहना चाहिये । अनाहारक जीवों में उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान कार्मणकाययोगियों के समान जानना चाहिये।
आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, अभव्य, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवोंके प्रकृतियोंकी वृद्धि, हानि और अवस्थान नहीं पाये जाते हैं।
शंका-उक्त जीवोंके प्रकृतियोंके अवस्थानका अभाव कैसे है ?
समाधान-यतः उक्त जीवोंके प्रकृतियोंकी वृद्धि और हानि नहीं पाई जाती है, अतः यहां अवस्थानका भी अभाव कहा है। ___ यदि कहा जाय कि इस कथनका समुत्कीर्तनासे व्यभिचार हो जायगा सो भी बात नहीं है, क्योंकि समुत्कीर्तनामें वृद्धि और हानिकी अपेक्षा न करके एक समान रूपसे तदवस्थ रहने वाली प्रकृतियोंकी अपेक्षा उसप्रकारका कथन किया है। ... . अपगतवेदियोंमें उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? ग्यारह विभक्तिस्थानकी सत्तावाला जो अपगतवेदी जीव सात नोकषायोंका क्षय करता है उसके उत्कृष्ट हानि होती है। तथा उसी जीवके तदनन्तर कालमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है।
मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? कषायोंका क्षय करनेवाले किसी अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवी जीवके उत्कृष्ट हानि होती है । तथा उसीके तदनन्तर कालमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है।
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४३२
सेकाले उक्कस्समवाणं ।
terror सहिदे कसायपाहुडे
एवमुकस्यं सामित्तं समत्तं ।
६४८०. जहणए पदं । दुविहो णिसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण जहणिया वड्ढी कस्स ? अण्णदरो जो सत्तावीस संतकम्मिओ तेण सम्मत्ते महिदे तस्स जहणिया वड्ढी । जहणिया हाणी कस्स ? अण्णदरो जो अट्ठावीसंतकाम्मओ तेण सम्मत्ते उब्वेल्लिदे तस्स जह० हाणी । एगदरत्थ अवद्वाणं । एवं सत्त पुढवि-तिरिक्खपंचिदियतिरिक्ख पंचि ० तिरि० पज०- - पंचिं ० तिरि० जोणिणी- मणुस तिय-देव-भवणादि जाव उवरिमगेवज्ज० - पंचिंदिय पंचि ० पञ्ज० तस-तसपञ्ज० - पंचमण ० पंचवचि०- कायजोगि० -ओरालि० - वेउब्विय० - तिण्णिवेद० चत्तारिक० असंजद ० - चक्खु ० - अचक्खु ० छलेस्सा०-भवसिद्धि०-सण्णि आहारीणं वत्तव्वं । पंचिं० तिरि० अपात्तए जहणिया हाणी कस ? अण्णदरो जो अट्ठावीस संतकम्मिओ तेण सम्मत्ते उन्बलिदे तस्स जह० हाणी । तस्सेव से काले जहण्णमवद्वाणं । एवं मणुस-अपज० सव्व एइंदिय- सव्वविगलिंदिय- पांचदिय अपज ० -पंचकाय ० तसअप ०-मदि-सुद- अण्णाण विहंग० -मिच्छादि०
[ पयडीविहत्ती २
इसप्रकार उत्कृष्ट स्वामित्वानुयोगद्वार समाप्त हुआ ।
९४८ ०. अब जघन्य स्वामित्वका प्रकरण है । उसका निर्देश दो प्रकारका है - ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश | उनमेंसे ओघकी अपेक्षा प्रकृतियोंकी जघन्य वृद्धि किसके होती है ? सत्ताईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई एक मिध्यादृष्टि जीव जब सम्यक्त्वको प्राप्त होता है तब उसके जघन्य वृद्धि होती है । जघन्य हानि किसके होती है ? अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जीव जब सम्यक्प्रकृतिकी उद्वेलना कर देता है तब उसके जघन्य हानि होती है । तथा इनमें से किसी एकके जघन्य अवस्थान होता । इसी प्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, तिथंच, पंचेन्द्रियतिर्यंच, पंचेन्द्रियतिर्यंच पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तिर्थचयोनिमती, सामान्य, पर्याप्त और स्त्रीवेदी ये तीन प्रकारके मनुष्य, सामान्यदेव, भवनवासियोंसे लेकर उपरिम ग्रैवेयक तकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रस पर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, छहों लेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके जघन्य हानि, जघन्य वृद्धि और जघन्य अवस्थान कहना चाहिये ।
पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तक जीवों में जघन्य हानि किसके होती है ? जो अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला पंचेन्द्रिय तिर्यच लब्ध्यपर्याप्त जींव जब सम्यक्प्रकृतिको उद्वेलना करता है, तब उसके जघन्य हानि होती है। तथा उसी जीवके तदनन्तर कालमें जघन्य अवस्थान होता है । इसी प्रकार मनुष्य लब्ध्यपर्याप्त, सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, पांचों स्थावरकाय, त्रस लब्ध्यपर्याप्त, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंग
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गा० २२
पदणिक्खेवे अप्पाबहुश्र असण्णीणं वत्तव्यं ।
६४८१. अणुद्दिसादि जाव सव्वदृत्ति जहाण्णया हाणी कस्स ? जो वावीससंतकाम्मओ तेण सम्मत्ते खविंदे तस्स जह० हाणी। तस्सेव से काले जहण्णमवट्ठाणं । एवमवगद-आमिणि-सुद०-ओहि० -मणपज० -संजद० -सामाइय-छेदो०-परिहार०. संजदासंजदल-ओहिदंस०-सम्मादि०-खइयवेदय० दिट्ठीणं वत्तव्यं । ओरालियमिस्स० जहणिया हाणी कस्स ? जो अहावीससंतकम्मिओ अण्णदरो तेण सम्मत्ते उध्वेलिदे जहणिया हाणी। तस्सेव से काले जहण्णमवहाणं । एवं वेउब्वियामिस्स-कम्मइय०अणाहारीणं वत्तव्यं । आहार-आहारमिस्स०-अकसा०-सुहुम०-जहाक्खाद०-अभवि०. उवसम -सासण-सम्मामि० जहण्णवड्ढी-हाणि-अवट्ठाणाणि णत्थि ।
एवं सामित्तं समत्तं । ६४८२. अप्पाबहुअं दुविहं जहण्णमुक्कस्सं च । उक्कस्सए पयदं । दुविहो णिदेसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सव्वत्थोवा उक्कस्सिया वड्ढी ४। उक्कस्सिया हाणी ज्ञानी, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान कहना चाहिये।
$४०१. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थ सिद्धि तकके देवोंमें जघन्य हानि किसके होती है? बाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जीव जब सम्यक्प्रकृतिका क्षय करता है तब उसके जघन्य हानि होती है। तथा उसी देवके तदनन्तर समयमें जघन्य अवस्थान होता है। इसी प्रकार अपगतवेदी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान कहना चाहिये।
औदारिक मिश्रकाययोगियोंमें जघन्य हानि किसके होती है ? अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जो कोई एक औदारिकमिश्रकाययोगी जीव जब सम्यक्प्रकृतिकी उद्वेलना करता है तब उसके जघन्य हानि होती है और तदनन्तर समयमें उसीके जघन्य अवस्थान होता है। इसीप्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिये।
आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, अभव्य, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान ये तीनों ही नहीं पाये जाते हैं।
इसप्रकार स्वामित्वानुयोगद्वार समाप्त हुआ ।
$ ४८२. अल्पबहुत्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उनमेंसे पहले उत्कृष्ट अल्पबहुत्वका प्रकरण प्राप्त है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश ।
५५
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जयघवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ अवहाणं च दोवि सरिसाणि संखेजगुणाणि ८। एवं मणुसतिय-पंचिंदिय-पंचिं० पञ्ज०तस-तसपज०-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालि०-तिण्णिवेद-चत्तारि क.चक्खु०-अचक्खु०-सुक्क०-भवसि०-सण्णि-आहारीणं वत्तव्यं ।
४८३. आदेसेण णिरयगईए णेरईएसु उक्क० बड्ढी-हाणी-अवष्टाणाणि तिण्णि वि तुलाणि ४। एवं सव्वणिरय-तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्ख-पांचं०तिरि० पज-पंचिं०-- तिरि जोणिणी-देव-भवणादि जाव उवरिमगेवज०-वेउब्धिय-असंजद-पंचले०वत्तव्वं । पंचिंतिरिक्खअपज० उक्कस्सिया हाणी अवहाणं च दोवि सरिसाणि | १ | १ । एवं मणुसअपज०-अणुद्दिसादि जाव सव्वह०-सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचिदियअपज०-पंचकाय० -तसअपज्ज ०-ओरालियमिस्स-वेउब्बियमिस्स ०-कम्मइय०- अवउनमें से ओधकी अपेक्षा उत्कृष्ट वृद्धि सबसे थोड़ी है, जिसका प्रमाण चार है। उत्कृष्ट हानि
और उत्कृष्ट अवस्थान ये दोनों समान होते हुए भी उत्कृष्ट वृद्धिकी अपेक्षा संख्यातगुणे • हैं। जिनमें प्रत्येकका प्रमाण आठ है। इसीप्रकार सामान्य, पर्याप्त और स्त्रीवेदी इन तीन प्रकारके मनुष्योंके तथा पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, स, जसपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, तीनों वेदवाले, चारों कषायवाले, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवों के कहना चाहिये।
विशेषार्थ-यह ऊपर ही बता आये हैं कि उत्कृष्ट वृद्धि चार प्रकृतियोंकी और उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट हानि संबन्धी अवस्थान आठ प्रकृतियोंका होता है, इसीलिये यहां पर प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट वृद्धि सबसे थोड़ी और उत्कृष्ट हानि तथा उत्कृष्ट अवस्थान उत्कृष्ट वृद्धिसे संख्यातगुणा बताया है। यहां संख्यातका प्रमाण दो है, क्योंकि चारको दोसे गुणा करनेपर आठ होते हैं।
६४८३. आदेशकी अपेक्षा नरकगतिमें नारकियोंमें उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान ये तीनों ही समान हैं, जिनका प्रमाण चार है । इसीप्रकार सभी नारकी, सामान्य तियंच, पंचेन्द्रिय तिथंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तियंच योनिमती, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर उपरिम अवेयक तकके देव, वैफियिककाययोगी, असंयत और कृष्णादि पांचों लेश्यावाले जीवोंके कहना चाहिये ।।
विशेषार्थ-ऊपर जितनी मार्गणाएं गिनाईं हैं उनमें अधिकसे अधिक चार प्रकृतियों की वृद्धि, चार प्रकृतियोंकी हानि और अवस्थान होता है, इसलिये यहां तीनोंको समान वताते हुए उनका प्रमाण चार कहा है। ___ पंचेन्द्रिय तियंच लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंमें उत्कृष्ट हानि और अवस्थान ये दोनों समान हैं, जिनमें प्रत्येकका प्रमाण एक है । इसीप्रकार लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य, अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देव, सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, लब्ध्यपर्याप्तक पंचेन्द्रिय, पांचों
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गा० २२)
पदणिक्खेवे अप्पाबहुधे गद०-मदि-सुद-अण्णाणि-विहंग०-आमिणि-सुद०-ओहि-मणपज०-संजद०-सामाइयछेदो०- परिहार०- संजदासंजद०- ओहिदंस०-सम्मादि०-खइय० -वेदय० -मिच्छादि. असण्णि० अणाहारि त्ति वत्तव्वं । आहार०-आहारमिस्स० णत्थि अप्पाबहुअं एगपदत्तादो । एवमकसा-सुहुम०-जहाक्खाद०-अभव०-उवसम०-सासण-सम्मामि।
एवमुक्कस्सप्पाबहुअं समत्तं । ३४८४. जहण्णए पयदं । दुविहो णिदेसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण स्थावरकाय, त्रसलब्ध्यपर्याप्तक, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, अपगतवेदी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदशनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिये ।
बिशेषार्थ-यहाँ पर लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंसे लेकर अनाहारकजीवों तक ऊपर गिनाये गये मार्गणास्थानों में उत्कृष्ट हानि और अवस्थानको जो पंचेन्द्रियतिथंच लब्ध्यपर्याप्तकोंके उत्कृष्ट हानि और अवस्थानके समान बताया है, इसका यह अर्थ नहीं कि जिसप्रकार लब्ध्यपर्याप्तक पंचेन्द्रियतियंचोंमें उत्कृष्ट हानि और अवस्थानका प्रमाण एक है उसीप्रकार इन सब उपर्युक्त मार्गणास्थानोंमें भी उत्कृष्ट हानि और अवस्थानका प्रमाण एक एक है। यहां पंचेन्द्रियतिथंच लब्ध्यपर्याप्तकोंके समान कहने का प्रयोजन केवल इतना ही है कि जिस प्रकार पंचेन्द्रियतिथंच लब्ध्यपर्याप्तकोंके उत्कृष्ट हानि और अवस्थान ये दोनों समान हैं उसी प्रकार ऊपर कही गई मार्गणाओंमें भी उत्कृष्ट हानि और अवस्थानकी समानता जान लेना चाहिये। किस मार्गणामें उत्कृष्ट हानि और अवस्थान कितना है यह ऊपर स्वामित्वानुयोगद्वारमें बतला ही आये हैं।
आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवों में प्रकृतियोंकी वृद्धि और हानिसम्बन्धी अल्पबहुत्व नहीं पाया जाता है, क्योंकि इनके जो स्थान होता है आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोगके काल तक वही एक बना रहता है उसमें अन्य प्रकृतियोंकी वृद्धि और हानि नहीं होती। इसीप्रकार अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, अभव्य, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यगमिथ्यादृष्टि जीवोंके कहना चाहिये । अर्थात् आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंके समान इनके भी प्रकृतियोंकी वृद्धि और हानि सम्बन्धी अल्पबहुत्व नहीं पाया जाता है।
इसप्रकार उत्कृष्ट अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। ४८४, अब जघन्य अल्पबहुत्वका प्रकरण है । उसका निर्देश दो प्रकारका होता
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे । पयडिविहत्ती २ जहण्णवड्ढीहाणीअवहाणाणि तिणि वि तुल्लाणि । एवं सव्वणिरय-तिरिक्खपंचिंदियतिरिक्खतिय-मणुसतिय-देव-भवणादि जाव उवरिमगेवज०-पंचिंदिय-पंचिं०पञ्ज-तस-तसपज-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालिय०-वेउव्विय-तिण्णि वेद-चत्तारिकसाय-असंजद० चक्खु०-अचक्खु-छलेस्सा०-भवसिद्धि-सण्णि-आहारीणं वत्तव्वं । पंचिंतिरि०अपज. जहण्णहाणिअवहाणाणि दो वि तुल्लाणि । एवं मणुसअपञ्ज० -अणुद्दिसादि जाव सव्वह० -सव्वएइंदिय -सव्वविगलिंदिय- पंचिंदियअपज०-पंचकाय-तसअपज०-ओरालियमिस्स०-वेउब्वियमिस्स०-कम्मइय० -अवगद०. मदि-सुद-अण्णाण-विहंग-आभिणि-सुद०-ओहि०-मणपज०-संजद०-सामाइय-छेदो०परिहार०-संजदासंजद-ओहिदसण-सम्मादि०- खइय०-वेदय०- मिच्छादि०- असण्णिहै-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । इनमेंसे ओघकी अपेक्षा जघन्यवृद्धि, जघन्यहानि
और अवस्थान ये तीनों समान हैं। इसीप्रकार सभी नारकी, सामान्य तियंच, पंचेन्द्रिय तिथंच, पंचेन्द्रिय पर्याप्त तियंच, पंचेन्द्रिययोनिमती तिथंच, सामान्य, पर्याप्त और स्त्रीवेदी ये तीन प्रकारके मनुष्य, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर उपरिम प्रैवेयक तकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी,
औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, छहों लेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके कहना चाहिये।
विशेषार्थ-जघन्य वृद्धि और जघन्य हानि एक प्रकृतिकी होती है अतः यहां ओघकी अपेक्षा जघन्य वृद्धि जघन्य हानि और जघन्य अवस्थानको समान कहा है। ऊपर और जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें भी इसीप्रकार जानना चाहिये ।
पंथेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तकोंमें जघन्य हानि और अवस्थान ये दोनों समान हैं। इसीप्रकार मनुष्य लब्ध्यपर्याप्त, अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव, सभी एकन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, पांचों स्थावर काय, प्रसलब्ध्यपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, अपगतवेदी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिये।
विशेषार्थ-इन मार्गणास्थानों में वृद्धि तो होती ही नहीं, हां हानि और अवस्थान होता है। सो सर्वत्र जघन्य हानिका प्रमाण एक है अत: यहां सबकी जघन्य हानि और अवस्थानको समान कहा है।
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गा० २२ ]
विहन्ती समुचितायुगमो
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अणाहारीणं वत्तव्वं । आहार० - आहारमिस्स ० णत्थि अप्पाबहुअं । एवमकसाय०सुहुमसां पराय ० - जहाक्खाद० - अभवसि ० - उबसम० - सासण० सम्मामि० वत्तव्वं । एवं जहण्णप्पा बहुअं समत्तं । एवं पदणिक्खेवो समत्तो ।
१४८५. वड्ढीविहत्तीए तत्थ इमाणि तेरस अणियोगद्दाराणि समुक्कित्तणा जाव अप्पा बहुए ति । समुक्कित्तणाणुगमेण दुविहो णिदेसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओषेण अत्थि संखेजभागवड्ढीहाणी ओ संखेजगुणहाणी अवद्वाणं च । एवं मणुस - तिय पंचिदिय पंचिं ० पञ्ज० -तस तसपञ्ज०- पंचमण०- पंचवचि० - कायजोगि० ओरालिय० - पुरिस० - चत्तारिक ० चक्खु०-अचक्खु०- सुक्क० भवसि ०-सण्णि आहारीणं वत्तव्वं ।
ป
आहारक काययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंके प्रकृतियोंकी वृद्धि और हानिसंबन्धी अल्पबहुत्व नहीं पाया जाता है । इसीप्रकार अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यात संयत, अभव्य, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके कहना चाहिये । तात्पर्य यह है कि इन मार्गणाओंमें हानि और वृद्धि तो है ही नहीं, केवल अवस्थान है अतः अल्पबहुत्व नहीं पाया जाता ।
इसप्रकार जघन्य अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । इसप्रकार पदनिक्षेप अनुयोगद्वार समाप्त हुआ ।
४८५. वृद्धिविभक्तिका कथन करते हैं। उसके विषय में समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व तक ये तेरह अनुयोगद्वार होते हैं । उनमें से समुत्कीर्तनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश | उनमेंसे ओधनिर्देशकी अपेक्षा संख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागहानि, संख्यातगुणहानि और अवस्थान होते हैं । इसीप्रकार सामान्य, पर्याप्त और स्त्रीवेदी इन तीन प्रकारके मनुष्य, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिक काय योगी, पुरुषवेदी, क्रोधादि चारों कषायवाले, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके कहना चाहिये ।
विशेषार्थ - एक स्थान से दूसरे स्थानके प्राप्त होते समय जो हानि और वृद्धि और अवस्थान होता है वह उसके संख्यातवें भाग है या संख्यात गुणा, इसका विचार वृद्धि विभक्ति में किया गया है । यद्यपि हानिकी अपेक्षा संख्यात भाग हानि, संख्यातगुण हानि और इनके अवस्थान संभव हैं, क्योंकि क्षपक जीवोंके दो प्रकृतिक विभक्तिस्थानसे एक प्रकृतिक विभक्तिस्थानके प्राप्त होते समय या ग्यारह विभक्तिस्थानसे पांच या चार विभक्तिस्थानके प्राप्त होते समय संख्यात गुणहानि और उसका अवस्थान होता है तथा शेष हानियां और उनके अवस्थान संख्यात भाग हानि रूप ही होते हैं। पर वृद्धिकी अपेक्षा
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अयधवलासहिदे कसायपाहुडै [ पयडिविहत्ती २ ६४८६. आदेसेण परईएसु अस्थि संखेजभागवड्ढी-हाणी-अवट्ठाणाणि । एवं सम्वणिरय-तिरिक्ख-पंचिं०तिरिक्वतिय-देव-भवणादि जाव उपरिमगेवज०-वेउव्विय०इत्थि०-णस०-असंजद०-पंचलेस्सा० वत्तव्यं । पंचिंदियतिरिक्खअपज० अस्थि संखेजमागहाणी-अवहाणाणि । एवं मणुस्सअपञ्ज०-अणुद्दिसादि जाव सबह-सव्वएइंदियसबविगलिंदिय-पंचिदिय-अपज०-पंचकाय०-तसअपज०- ओरालियमिस्स०-वेउब्धियमिस्स-कम्मइय० - मदि-सुद अण्णाण-विहंग० - परिहार०- संजदासंजद-वेदय - मिच्छादि०-असण्णि-अणाहारीणं वत्तव्यं । आहार० आहारमिस्स० णत्थि समुकित्तणा, वड्ढी-हाणीहि विणा अवहाणाभावादो । अथवा अत्थि वड्ढी-हाणीणिरवेक्ख
संख्यातभागवृद्धि और उसका अवस्थान ही सम्भव है, क्योंकि २४, २६ और २७ प्रकृतिक विभक्तिस्थानसे २८ प्रकृतिक विभक्तिस्थानके प्राप्त होनेपर संख्यातवें भाग प्रमाण क्रमश: ४, २ और १ प्रकृतिकी ही वृद्धि होती है। ऊपर जितनी भी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें यह व्यवस्था बन जाती है अतः उनके कथनको ओघके समान कहा है । आगे आदेशकी अपेक्षा भी जहां जो वृद्धि हानि और अवस्थान कहा हो उसे इसीप्रकार घटित कर लेना चाहिये।
४८६. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें संख्यात भागवृद्धि, संख्यातभागहानि और इनके अवस्थान होते हैं । इसीप्रकार सभी नारकी, सामान्य तिथंच, पंचेन्द्रिय तिच, पर्याप्त तिथंच और योनिमती तिथंच, सामान्यदेव, भवनवासियोंसे लेकर उपरिम अबेयक तकके देव, वैक्रियिक काययोगी, स्त्रीवेदी, नपुंसकवेदी, असंयत और प्रारंभके पांच लेश्यावाले जीवोंके कहना चाहिये। तात्पर्य यह है कि इन मार्गणाओंमें संख्यात गुणहानिको छोड़ कर शेष सब पद होते हैं।
पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तकोंमें संख्यातभागहानि और अवस्थान ये दो स्थान होते हैं। इसीप्र र मनुष्यलब्ध्यपर्याप्त, अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव, सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, पांचों स्थावर काय, त्रस लब्ध्यपर्याप्त,
औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, वेदकसम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिये । तात्पर्य यह है कि इन मार्गणाओंमें संख्यातभागहानि और अवस्थान ही होते हैं, क्योंकि इनमें भुजगार विभक्ति नहीं पाई जाती।
आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंके समुत्कीर्तना नहीं है, क्योंकि वहां स्थानोंकी वृद्धि और हानि नहीं पाई जाती है और इनके न पाये जानेसे वहां इनका अवस्थान नहीं हो सकता है। अथवा उक्त दोनों योगवाले जीवोंमें वृद्धि और हानिकी
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गा० २२]
वढिविहत्तीए सामित्ताणुगमो
तत्तियमेत्तावठाणस्स विवक्खियत्तादो। एवमकमा०-सुहुमसांप०-जहाक्खाद० अभव०उवसम-सासण-सम्मामि० वत्तव्वं । अवगद० अस्थि संखेजभागहाणि-संखेजगुणहाणी-अवहाणाणि । एवमाभिणि-सुद०-ओहि०-मणपज-संजद०-सामाइयछेदो०ओहिदसण-सम्मादि०-खइयसम्मादिहि त्ति वत्तव्यं ।
एवं समुक्त्तिणा समत्ता । ६४८७. सामित्ताणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण संखेज्जभागवड्ढी-हाणि-अवहाणाणि कस्स ? अण्णदरस्स सम्मादिहिस्स मिच्छादिहिस्स वा । संखेज्जगुणहाणी कस्स ? अण्णदरस्स अणियष्टिक्ववयस्स । एवं मणुमतियपंचिंदिय-पंचिं०पज्ज०-तस-तसपज्ज०-पंचमण-पंचवाचि०- कायजोगि०-ओरालिय०पुरिस०-चत्तारिक०-चक्खु०-अचखु०-सुक्क०-भवसिद्धिय०-सण्णि-आहारीणं वत्तव्यं । अपेक्षाके बिना तावन्मात्र स्थानोंकी विवक्षासे समुत्कीर्तना है। इसीप्रकार अकषायी, सूक्ष्मसापरायिक संयत, यथाख्यात संयत, अभव्य, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके कहना चाहिये । तात्पर्य यह है कि उक्त मार्गणाओं में जहां जो स्थान है वही रहता है वृद्धि और हानि नहीं होती, अतः यहां वृद्धि, हानि और अवस्थानका निषेध किया है। अब यदि इन मार्गणाओंमें वृद्धि और हानिके बिना अवस्थान स्वीकार किया जाय तो जहां जो स्थान होता है उसकी अपेक्षा अवस्थान स्वीकार किया जा सकता है। तथा उपशमसम्यग्दृष्टि अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना नहीं करता इस अपेक्षासे यही उपशमसम्यग्दृष्टिके हानिका निषेध किया है। ___ अपगतवेदी जीवोंमें संख्यातभागहानि, संख्यातगुमहानि और अवस्थान ये स्थान हैं। इसी प्रकार मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंके कहना चाहिये।
इस प्रकार समुत्कीर्तना समाप्त हुई । ४८७. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । ' उनमेंसे ओघकी अपेक्षा संख्यातभागवृद्धि संख्यातभाग हानि और अवस्थान किसके होते हैं ? किसी भी सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि जीवके होते हैं। संख्यातगुणहानि किसके होती है ? किसी भी अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवर्ती क्षपक जीवके होती है । इसी प्रकार सामान्य, पर्याप्त और स्त्रीवेदी इन तीन प्रकारके मनुष्योंके और पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस त्रसपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिक काययोगी, पुरुषवेदी, क्रोधादि चारों कषायवाले, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, शुक्ललेइयावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके कहना चाहिये ।
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४४०
जयघवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पयडिविहत्ती २
६४८८. आदेसेण णेरईएसुसंखेज्जभागवड्ढी-हाणी-अवठाणाणि कस्स ? अण्णद० सम्मादिष्ठिस्स मिच्छादिहिस्स वा । एवं सव्वणिरय-तिरिक्ख०-पंचिंतिरिक्खतिय-देवभवणादि जाव उवरिमगेवज्ज०-वेउव्विय०-इत्थि०-णqस०-असंजद०-पंचले० वत्तव्वं । पंचि तिरि • अपज्ज० संखेजभागहाणि-अवठाणाणि कस्स ? अण्णद० । एवं मणुसअपज०-अणुद्दिसादि जाव सबढ०-सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पांचंदिय अपज०पंचकाय-तस अपज०-मदि-सुदअण्णाण विहंग०-परिहार०-संजदासंजद-वेदय०-मिच्छा०
विशेषार्थ-संख्यातगुणहानि ग्यारह विभक्तिस्थानसे पांच या चार विभक्तिस्थानके प्राप्त होते समय और दो विभक्तिस्थानसे एक विभक्तिस्थानके प्राप्त होते समय ही होती है। और ये विभक्तिस्थान क्षपक अनिवृत्तिकरणमें ही होते हैं। अतः संख्यातगुणहानि क्षपक अनिवृत्तिगुणस्थानवाले जीवके होती है यह कहा है । तथा संख्यातभागहानि और संख्यात भागवृद्धि मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि दोनों प्रकारके जीवोंके सम्भव है, क्योंकि छब्बीस या सत्ताईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जो मिथ्यादृष्टि जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करता है उसके सम्यक्त्वको प्राप्त करनेके पहले समयमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता देखी जाती है। अतः सम्यग्दृष्टिके संख्यात भागवृद्धि बन जाती है। इसीप्रकार चौवीस विभक्तिस्थानवाला जो सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्वको प्राप्त होता है उसके मिथ्यात्वको प्राप्त होनेके पहले समयमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता देखी जाती है, अतः मिथ्यादृष्टिके भी संख्यात. भागवृद्धि बन जाती है। तथा मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टिके संख्यातभागहानिका कथन सरल है। अतः उसका विचार कर खुलासा लेना चाहिये। इसीप्रकार जिस वृद्धि या हानि सम्बन्धी अवस्थान हो उसका भी कथन कर लेना चाहिये। ऊपर जितनी भी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें यह व्यवस्था बन जाती है अतः उनके कथनको ओघके समान कहा है। ___६४८८. आदेशकी अपेक्षा नारकियों में संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि और अवस्थान किसके होते है ? किसी भी सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि नारकीके होते हैं । इसीप्रकार सभी नारकी, सामान्य तिथंच, पंचेन्द्रिय तिथंच, पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिथंच, पंचेन्द्रिय योनीमती तिथंच, सामान्यदेव, भवनवासीसे लेकर उपरिम अवेयक तकके देव, वैक्रियिक काययोगी, स्त्रीवेदी, नपुंसकवेदी, असंयत और कृष्ण आदि पांच लेश्यावाले जीवोंके कहना चाहिये । तात्पर्य यह है कि इन मार्गणाओंमें संख्यातगुणहानि नहीं पाई जाती है। तथा संख्यातभागवृद्धि संख्यातभागहानि और अवस्थानका खुलासा जिस प्रकार ऊपर किया है उस प्रकार कर लेना चाहिये ।
__ पंचेन्द्रिय तियंच लब्ध्यपर्याप्तकों में संख्यातभागहानि और अवस्थान किसके होते हैं ? किसी भी जीवके होते हैं। इसीप्रकार लब्ध्य पर्याप्तक मनुष्य, अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव, सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, पांचों स्थावर
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गो० २२ ]
वढविहतीए सामित्तं
४४१
I
असण्णीणं वत्तव्वं । ओरालि मिस्स० संखेजभागहाणी - अवद्वाणाणि कस्स १ अण्ण० सम्मादि० मिच्छादिहिस्स वा । एवं वेउब्वियमिस्स० कम्मइय० अणाहारीणं । आहारआहार मिस्स अवद्वाणं कस्स ? अण्णद० । एवमकसाय०- सुहुम० जहाक्खाद०अभव० - उवसम० - सासण० सम्मामि० वत्तव्वं । अवगद० संखेजभागहाणीसंखे० गुणहाणीओ अवहाणं च कस्स ? अण्णद० खवयस्स | आभिणि० - सुद०-३ • ओहि० मणपञ्ज० संखेजभा० हाणी - संखे० गुणहाणीअवहाणाणं ओघभंगो । एवं संजद०सामाइय - छेदो० - ओहिदंस० सम्मादि० - खइय० वत्तव्वं ।
एवं सामित्तं समत्तं ।
काय, त्रसलब्ध्यपर्याप्त, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, त्रिभंगज्ञानी, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, वेदकसम्यग्दृष्टि, मिध्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके कहना चाहिये । तात्पर्य यह है कि इन मार्गणाओं में अट्ठाईस विभक्तिस्थानसे सत्ताईस और सत्ताईससे छब्बीस विभक्तिस्थानोंका प्राप्त होना ही सम्भव है । अतः इनमें संख्यात भागहानि और उसका अवस्थान ये पद ही सम्भव हैं ।
औदारिक मिश्रकाययोगी जीवों में संख्यातभागहानि और अवस्थान किसके होते हैं ? किसी भी सम्यग्दृष्टि या मिध्यादृष्टि जीवके होते हैं । इसीप्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणका योगी और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिये । तात्पर्य यह है कि इन मार्गणाओं में २८ से २७, २७ से २६ और २२ से २१ विभक्तिस्थानोंका प्राप्त होना सम्भव है । अत: इनमें भी संख्यात भागहानि और उसका अवस्थान ये पद ही सम्भव हैं ।
आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें अवस्थान किसके होता है ? किसी भी जीवके होता है । इसीप्रकार अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, अभव्य, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों के कहना चाहिये । तात्पर्य यह है कि इन मार्गणाओंमें प्रकृतियों की हानि और वृद्धि नहीं होती अतः एक अवस्थान पद ही कहा है । यद्यपि उपशमसम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानुबन्धी 'चतुष्ककी विसंयोजना करता है, ऐसा भी उपदेश पाया जाता है । अतः इसके संख्यातभागहानि सम्भव है पर उसकी यहां विवक्षा नहीं की है । अपगतवेदी जीवोंमें संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और अवस्थान किसके होते हैं ? किसी भी क्षपकके होते हैं ।
1
मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनः पर्ययज्ञानी जीवोंमें संख्यात भागहानि, संख्यातगुणहानि और अवस्थान ओघके समान जानना चाहिये । इसीप्रकार संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, अवधिदर्शनी सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवों के कहना चाहिये ।
इसप्रकार स्वामित्वानुयोगद्वार समाप्त हुआ ।
५६
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४४२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिषिहत्ती २ ६ ४८६. कालाणुगमेण दुविहो णिदेसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण संखेजमागवड्ढी संखेजगुणहाणीओ केवचिरं कालादो होति ? जहण्णुकस्सेण एगसमओ। संखेजभागहाणी. जह० एगसमओ उक्क० वेसमया! अवहाणं तिविहो अणादि-अपञ्जवसिदो अणादिसपञ्जवसिदो सादिसपजवसिदो चेदि । सत्थ जो सो सादिसपञ्जवसिदो तस्स जह० एगसमओ, उक अद्धपोग्गलपरियहं देरणं । एवमचक्खु० भवसि० । णवरि भवसि० अणादि-अपजवसिदं णत्थि ।
६४८१. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणहानिका कितना काल है। इन दोनोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। संख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय है । अवस्थान तीन प्रकारका हैअनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त । उनमेंसे जो सादि-सान्त अवस्थान है उसका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। इसीप्रकार अचक्षुदर्शनी और भव्य जीवोंके कहना चाहिये। इतनी विशेषता है कि भव्यजीवोंके अनादि-अनन्त अवस्थान नहीं होता है।
विशेषार्थ-यहां एक जीवकी अपेक्षा संख्यात भाग वृद्धि आदिका काल बतलाया है। संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणहानिके होनेके पश्चात् दूसरे समयमें पुनः संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणहानि नहीं होती। अतः इन दोनोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। जो जीव नपुंसक वेदके उदयके साथ क्षपक श्रेणीपर चढ़ा है वह पहले समयमें स्त्रीवेदका और दूसरे समयमें नपुंसकवेदका क्षय करके क्रमशः १२ और ११ प्रकृतिक स्थानवाला होता है । अत: संख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल दो समय बन जाता है। इसका जघन्य काल एक समय पूर्ववत् जानना। तथा जो जीव सम्यक्त्व या सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करके एक समय तक मिथ्यात्वमें रहा और दूसरे समयमें प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टि हो गया उसके अवस्थानका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है। तथा जिस जीवने अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण कालके पहले समयमें सम्यक्त्वको प्राप्त किया और अतिलघु अन्तर्मुहूर्त काल तक सम्यक्त्वके साथ रह कर जो जीव मिथ्यात्वमें चला गया । पुनः वहां पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करके छब्बीस प्रकृतियोंकी सत्ता वाला हो गया। और जब अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण कालमें अन्तर्मुहूर्त शेष रह गया, तब पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त करके अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता वाला हो गया उसके आदि और अन्तके दो अन्तर्मुहूर्त और पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण कालसे कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन प्रमाण काल तक छब्बीस विभक्तिस्थानका अवस्थान देखा जाता है। अतः अवस्थानका उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुगल
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गा. २२)
वड्ढिविहत्तीए कालो ६ ४६०. आदेसेण णेरइएसु संखेजमागवडूढीहाणीणं कालो जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ। अवहा० केवचिरं० १ जह० एगसमओ-उक्क० तेतीससागरोवमाणि । पढमादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेव । णवरि अवहाणस्स जहण्णेण एगसमओ, उक्क. सग-सगुक्कस्सद्विदीओ। तिरिक्ख-पंचिंदियतिरि०तिगस्त संखेजभागवड्ढीहाणीणं णारयभंगो । अवहाण. जह. एगसमओ, उक्क. सगसगुकस्सहिदीओ। पंचिं. तिरि० अपज० संखेजभागहाणी. जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ। अवहि० जह. एगसमओ, उक्क० अंतोमु०। एवं मणुस्सअपञ्ज-पंचिंदियअपज०- तसअपज० ओरालियमिस्स०-वेउब्धियमिस्स. वत्तव्वं ।
5 ४६१. मणुस-मणुसपज० संखेजभागहाणी-संखेजभागवड्ढी-संखेजगुणहाणीणपरिवर्तनप्रमाण कहा है।
६४१०. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। तथा अवस्थानका काल कितना है ? अवस्थानका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है।
विशेषार्थ-नरक में अवस्थानका उत्कृष्ट काल तेंतीस सागर उसीके प्राप्त होगा जो अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जीव नरकमें जाकर या तो वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करके अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला होकर ही रहे या जो छब्बीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जीव नरकमें जाकर निरन्तर छब्बीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला होकर ही रहे। शेष कथन सुगम है।
- पहली पृथ्वीसे लेकर सातवीं पृथ्वी तक इसीप्रकार कथन करना चाहिये। इतनी विशेषता है कि प्रथमादि पृथिवियों में अवस्थानका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। सामान्य तिथंच और पंचेन्द्रिय आदि तीन प्रकारके तिर्यचोंके संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्टकाल नारकियोंके समान है। तथा अवस्थानका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अपनी अपनो उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । तात्पर्य यह है कि जिस मार्गणामें निरन्तर रहनेका जितना उत्कृष्ट काल कहा है तत्प्रमाण वहां अवस्थानका उत्कृष्टकाल है शेष कथन सुगम है।
पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकों में संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। तथा अवस्थितका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। इसीप्रकार लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, सलब्ध्यपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी और वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके कहना चाहिये। तात्पर्य यह है कि इन मार्गणाओं में जीवके रहनेका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । अतः इनमें अवस्थानका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है।
२४९१. सामान्य मनुष्य और पर्याप्त मनुष्योंमें संख्यातभागहानि, संख्यातभाग
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे । पयडिविहत्ती २ मोषभंगो। अवट्ठि० जह० एगसमओ, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि पुवकोडिपुत्तेणभहियाणि । एवं मणुस्सिणी० । णवरि० संखेज्जभागहाणी० जहण्णुक्क० एगसमओ । देवा०णारगभंगो । भवणादि जाव उररिमगेवज्ज० संखेज्जभागवढिहाणी. णारगमंगो। अवटाणं के० १ जह० एगसमओ, उक्क० सगसगुक्कस्सहिदी । अणुद्दिसादि जाव सम्वह० संखेज्जभागहाणि० जहण्णुक्क० एगसमओ, अवटा० जह० एगसमओ, उक्क० सगहिदी।
६४६२.एइंदिय-वादर०-सुहुम०तेसिं पजत्त-अपज्जत्त-विगलिंदियपज्जत्तापज्जत्तपंचकाय-बादर-बादरपज्जत्तापज्जत्त - सुहुम - सुहुमपज्जत्तापज्जत्त० संखेज्जभागहाणीए वृद्धि और संख्यातगुणहानि इन तीनोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल ओघके समान है। तथा अवस्थितका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटि पृथक्त्वसे अधिक तीन पक्ष्य है। इसीप्रकार स्त्रीवेदी मनुष्योंके कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि लीवेदी मनुष्योंके संख्यातभाग हानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है।
विशेषार्थ-सामान्य और पर्याप्त मनुष्योंमें संख्यात भाग हानिका उत्कृष्ट काल दो समय नपुंसकवेदके उदयके साथ क्षपकश्रेणीपर चढ़े हुए जीवके ही घटित करना चाहिये । किन्तु स्त्रीवेदके उदयवाले मनुष्योंको ही स्त्रीवेदी मनुष्य कहते हैं । अतः इनके संख्यात भागहानिका उत्कृष्ट काल दो समय नहीं प्राप्त होता क्योंकि ये जीव नपुंसकवेदका क्षय हो जाने के पश्चात अमुहूर्त कालके द्वारा ही स्त्रीवेदका क्षय करते हैं। अतः इनके संख्यात भागहानिका उत्कृष्ट काल एक समय ही प्राप्त होता है । तथा उक्त तीन प्रकारके मनुष्यों के अवस्थानका उत्कृष्ट काल जो पूर्वकोटि पृथक्त्वसे अधिक तीन पन्य कहा है वह उनके उस पयोंयके साथ निरन्तर रहने के उत्कृष्ट कालकी अपेक्षासे कहा है। शेष कथन सुगम है।
सामान्य देवोंमें संख्यातभागवृद्धि आदिका काल नारकियोंके समान कहना चाहिये। भवनवासियों से लेकर उपरिम अवेयक तकके देवोंमें संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभाग. हानिका काल नारकियोंके समान है। उक्त देवोंमें अवस्थानका काल कितना है ? अवस्थानका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण होता है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। तथा अवस्थानका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है।
६ १९२. सामान्य एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त, विकउत्रय तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त, पांचों स्थावर काय, तथा इनके बादर और बादरोंके
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. गा० २२ ]
वढविती का
जह० उक० एगसमओ । अवट्टा० जह० एगसमओ, उक्क० सगसगुक्कसहिदी । पंचिदिय० पंचि ० पज्ज०-तस०- तसपज्ज • संखेज्जभागवड्ढीहाणीसंखेज्जगुणहाणी • ओघमंगो । अट्ठा० के० ? जह० एगसमओ, उक्क० सगट्टिदी। पंचमण ० पंचवचि०संखेज्जभागवद्दीहाणी- संखेज्जगुणहाणि • ओघभंगो । अवट्ठा० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० ।
४६३. कायजोगि० संखेज्जभागवड्ढीहाणी- संखेज्जगुणहाणी० ओघभंगो । अवट्ठा० जह० एयसमओ, उक्क० अणंतकालमसंखेज्जपोग्गल परियहं । एवमोरालि० । वरि० अवट्ठा० जह० एगसमओ, उक्क० वावीसवास सहस्त्राणि देखणाणि । वेउब्विय० रगभंगो | णवर अवडा० उक्क० अंतोमु० । आहार० अवट्ठा० के० ? जह० एग समओ, उक्क० अंतोमुहुतं । एवमकसाय ० - सुहुम ०-जहाक्खाद० वतव्वं । आहारमि० पर्याप्त अपर्याप्त, सूक्ष्म पांचों स्थावर काय तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त भेदों में संख्या - भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । तथा अवस्थानका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है ।
४४५
पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस और त्रसपर्याप्त जीवोंमें संख्यात भागवृद्धि, संख्यातभागहानी और संख्यातगुणहानीका काल ओघके समान है। इन जीवोंमें अवस्थानका काल कितना है ? जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है ।
पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी जीवोंके संख्यातभागवृद्धि, संख्यात भागहानी और संख्यातगुणहानिका काल ओघके समान है । तथा अवस्थानका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ।
$ ४६३. काययोगी जीवोंके संख्यातभागवृद्धि, संख्यावभागहानि और संख्यातगुणानिक काल ओघके समान है । तथा अवस्थानका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अनन्त काल है जिसका प्रमाण असंख्यात पुद्गल परिवर्तन है । काययोगियोंके समान औदारिककाय योगी जीवोंके संख्यात भागवृद्धि आदिका काल कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि औदारिक काययोगी जीवोंके अवस्थानका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम बाईस हजार वर्ष है । वैक्रियिककाययोगीजीवोंके संख्यातभागवृद्धि आदिका काल जिसप्रकार नारकियोंके कहा है उसप्रकार जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके अवस्थानका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । आहारक काययोगी जीवोंके अवस्थानका काल कितना है ? इनके अवस्थानका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसीप्रकार अकषायी, सूक्ष्मसत्परायिकसंयत और यथाख्यातसंयत जीवोंके अवस्थानका काल कहना चाहिये । आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंके अवस्थानका
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४४६
trader हिदे कसा पाहुडे
[ पयडिविहत्ती २
अवट्ठा • जहण्णुक्क० अंतोमु० । एवमुवसम० सम्मामि । कम्मइय० संखेज्जभागहाणि० जह०णुक० एगसमओ । अवट्ठा० जह० एगसमओ, उक्क० तिष्णि समया ।
९ ४६४• इस्थि० संखेज्जभागवढी हाणि० जहण्णुक्क० एगसमओ । अवद्वा० जह० एगसमओ, उक्क० सगुक्कस्सद्विदी । एवं वंस वत्तव्वं । पुरिस० संखेज्जभागवढी हाणि संखेज्जगुणहाणि • जहण्णुक० एगसमओ । अवट्ठा० जह० एगसमओ, उक्क० सकसहिदी | अवगद० संखेज्जभागहाणी - संखेजगुणहाणी • जहण्णुक्क० एगसमओ । अवट्ठा० जह० एगसमओ उक्क० अंतोनुडुतं । चत्तारिकसाय० मणजोगिभंगो |
६४६५. मदि- सुदअण्णाण ० संखे० भागहाणि ० जहण्णुक्क० एगसमओ । अवहा ओघभंगो । एवं मिच्छादिही ० । विहंग ० संखेज्जभागहाणी० जहण्णुक्क० एयसमओ । जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसीप्रकार उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टिजीवोंके कहना चाहिये । कार्मणकाय योगी जीवोंके संख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । तथा अवस्थानका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय है ।
विशेषार्थ - एक जीव एकेन्द्रिय पर्यायमें अनन्तकाल तक रह सकता है और वहां एक काययोग ही होता है अतः काययोगमें अवस्थानका उत्कृष्ट काल अनन्त कहा है । तथा औदारिककाययोगका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त कम बाईस हजार वर्ष है । अतः औदारिककाययोगमें अवस्थानका उत्कृष्टकाल कुछ कम बाईस हजार वर्ष कहा है ।
S ४६४. स्त्रीवेदी जीवोंके संख्यातभागवृद्धि और संख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है । तथा अवस्थानका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । इसीप्रकार नपुंसकवेदी जीवोंके कहना चाहिये । पुरुषवेदी जीवोंके संख्यातभागवृद्धि, संख्यात भागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । तथा अवस्थानका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । अपगतवेदियों में संख्यात भागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । तथा अवस्थानका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ।
चारों कषायवाले जीवोंके संख्यात भागवृद्धि आदिका काल जिसप्रकार मनोयोगियोंके कहा है उसप्रकार जानना चाहिये ।
$ ४९५ मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंके संख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । तथा अवस्थानका काल ओघके समान है। इसीप्रकार मिध्यादृष्टि जीवोंके कहना चाहिये । विभङ्गज्ञानी जीवोंके संख्यात भागद्दानिका जघन्य और
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गा० २२]
बढिविहत्तीए कालो
अवटा० जह० एगसमओ, उक्क० तेत्तीस-सागरोवमाणि देसूणाणि । आभिणि-सुद०ओहि० संखेज्जभागहाणि-संखे गुणहाणि ओघमंगो। अवट्ठा० जह० अंतोमुहुतं, उक्क० छावष्टि सागरोवमाणि सादिरेयाणि । एवमोहिदंस०-सम्मादिष्टी० । मणपज्ज. संखे० भागहाणि-संखे० गुणहाणि. जहण्णुक० एगसमओ। अवहा० जह• अंतो. मुहुतं, उक्क० पुवकोडी देखणा।।
४६६. संजद० संवे० भागहाणि-संखे० गुणहाणी० ओघमंगो। अवठा मणपञ्जव० भंगो । एवं सामाइयच्छेदो० । णवरि अवट्ठा० जह० एगसमओ। परिहार० संखे भागहाणि० जहण्णुक्क० एयसमओ। अवहा० जह• अंतोमुहुत्तं, उक्क० पुव्वकोडी देसूणा । एवं संजदासंजद० । असंजद० मदि० मंगो। णवरि संखेजभागवड्ढी० जहण्णुक० एगसमओ। चक्खु० तसपजत्तभंगो।
६४६७. पंचले० संखे० भागवड्ढी-हाणी० जहण्णुक० एगसमओ । अवहा० उत्कृष्टकाल एक समय है। तथा अवस्थानका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है। ____ मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंके संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका काल ओघके समान है। तथा अवस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ सागर है। इसीप्रकार अवधिदर्शनी और सम्यग्दृष्टि जीवोंके कहना चाहिये। मनःपर्ययज्ञानी जीवोंके संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। तथा अवस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है।
६४१६. संयत जीवोंके संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका काल ओघके समान है। तथा अवस्थानका काल मनःपर्ययज्ञानियोंके अवस्थानके कालके समान है। इसीप्रकार सामायिकसंयत और छेदोपस्थानसंयत जीवोंके कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके अवस्थानका जघन्यकाल एक समय है। परिहारविशुद्धि संयत जीवोंके संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। तथा अवस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है। इसीप्रकार संयतासंयत जीवोंके कहना चाहिये। असंयत जीवोंके संख्यातभागवृद्धि आदिका काल जिसप्रकार मत्यज्ञानी जीवोंके कहा है उसप्रकार जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके संख्यातभागवृद्धि भी होती है, जिसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। चक्षुदर्शनी जीवोंके संख्यातभागवृद्धि आदिका काल जिसप्रकार सपर्याप्त जीवोंके कहा है उसप्रकार जानना चाहिये।
१४६७. कृष्ण आदि पांचों लेश्यावाले जीवोंके संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभाग
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४४८ .
जयघबलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडीविहची २ जह० एयसमओ उक्क० सगसगुकस्सहिदी। सुक० संखे० भागवड्ढीहाणी-संखे० गुणहाणि ओघभंगो। अवटा० जह• एगसमओ उक्क० तेत्तीस सागरो० सादिरेयाणि । अभव० अवहा० के० १ अणादिअपञ्जः । खइय संखे० भागहाणि-संखे० गुणहाणि ओघभंगो । अवटा जह० अंतोमु० उक्क० तेत्तीस-साग० सादिरेयाणि । वेदग० संखे० भागहाणि० जहण्णुक्क० एगसमओ। अव४ि० जह० अंतोमु०, उक्क० छावहि सागरो० देसूणाणि । सासण अवष्ठा० जह० एगसमओ, उक्क छावलिया० । सण्णि पुरिसभंगो । णवरि संखेजभागहाणि उक्क० बेसमया । असण्णि• एइंदियमंगो। आहारि० संखेजभागवड्ढोहाणी-संखेजगुणहाणि० ओघभंगो। अवष्टि जह० एगसमओ, उक्क० अंगुलस्स असंखे भागो। अणाहारि० कम्मइयभंगो ।
एवं कालाणुगमो समत्तो। हानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। तथा अवस्थानका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है। शुक्ललेश्यावाले जीवोंके संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका काल ओघके समान है। तथा . इनके अवस्थानका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। अभव्य जीवोंके अवस्थानका काल कितना है ? अनादि-अनन्त है।
क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंके संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका काल ओघके समान है। तथा अवस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक तेंतीस सागर है। वेदकसम्यग्दृष्टियोंके संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। तथा अवस्थितका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम छयासठ सागर है। सासादनसम्यग्दृष्टियोंके अवस्थानका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल छह आवली है। ____ संज्ञी जीवोंके संख्यातभागवृद्धि आदिका काल जिस प्रकार पुरुषवेदी जीवोंके कहा है उसप्रकार कहना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनके संख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल दो समय है। असंज्ञो जीवों के जिसप्रकार एकेन्द्रियों के संख्यातभागहानि आदिका काल कहा है उसप्रकार जानना चाहिये। ___ आहारकजीवोंके संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका काल ओघके समान है। तथा अवस्थितका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अंगुलके असंख्यात भागप्रमाण है। अनाहारक जीवोंके कार्मणकाययोगियोंके समान काल कहना चाहिये।
इसप्रकार कालानुयोगद्वार समाप्त हुआ।
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गा०२२ । वड्ढिविहत्तीए अंतराणुगमो
४४६ ६४६८. अंतराणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण संखेजभागवड्ढीहाणीणमंतरं केव० ? जह० अंतोमु०, उक्क० अद्धपोग्गलपरियष्टं देसूणं । अवट्टि० जह० एगसमओ, उक्क० वेसमया । संखेज्जगुणहाणि० अंतरं केव० १ जहण्णुक० अंतोमु० । एवभचक्खु० भवसिद्धिः ।
६४९८.अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है। अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। संख्णतगुणहानिका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। इसीप्रकार अचक्षुदर्शनी और भव्य जीवोंके कहना चाहिये।
विशेषार्थ-२६ या २७ प्रकृतियोंकी सत्तावाले किसी एक जीवने उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त किया और अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला हो गया। पुन: उपशमसम्यक्त्वका काल पूरा हो जानेपर जो मिथ्यात्वमें चला गया उसके संख्यातभागवृद्धिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त होता है। तथा २४ प्रकृतियोंकी सत्तावाला जो जीव मिथ्यात्वमें जाकर २८ प्रकृतियोंकी सत्तावाला हो गया पुनः अति लघु अन्तर्मुहुर्त कालके द्वारा वेदक सम्यग्दृष्टि होकर और अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके पुनः मिथ्यात्वमें जाकर २८ प्रकृतियोंकी सत्तावाला हो जाता है उसके भी संख्यात भागवृद्धिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त पाया जाता है । जो २० प्रकृतियोंकी सत्तावाला सम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके २४ प्रकृतियोंकी सत्तावाला हो गया। पुन: मिथ्यात्वमें जाकर और सम्यग्दृष्टि होकर जिसने अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना की उसके संख्यात गुणहानिका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त पाया जाता है। जिस जीवने संसारमें रहनेका काल अर्धपुद्गलपरिवर्तन प्रमाण शेष रहनेपर उसके पहले समयमें प्रथमोपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करके अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता प्राप्त की। तत्पश्चात् पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा जो सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्वकी विसंयोजना करके छब्बीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला हो गया। पुनः अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण कालमें अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर जिसने पुनः प्रथमोपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करके २८ प्रकृतियोंकी सत्ता प्राप्त कर ली, उस जीवके संख्यात भागवृद्धिका उत्कृष्ट अन्तरकाल एक अन्तर्मुहूर्त कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन कालप्रमाण होता है। तथा संख्यातभागहानिका उत्कृष्ट अन्तर काल कहते समय अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण कालके प्रारम्भमें पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा सम्यक्त्व और सम्यगमिथ्यात्वकी उद्वेलना करावे, अनन्तर संसारमें रहनेका काल अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करावे । इसप्रकार
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जयधपलासहिदे कसायपाहुडे
[ पयडिविहत्ती २
६४६६. आदेसेण गेरईएसु संखेज्ज० भागवड्ढी-हाणी० अंतरं जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० तेत्तीस सागरोवमाणि देसूणाणि । अवडि• ओघं । पढमादि जाव सत्तमि त्ति संखेज्जभागवड्ढी-हाणी० अंतरं जह० अंतोमु०, उक्क० सगसगुक्कस्साहदी देसूणा। अवहा ओघभंगो। तिरिक्ख० संखे० भागवड्ढीहाणी जह० अंतोमु० । उक्क० अद्धपोग्ग- . संख्यातभागहानिका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और पल्यका असंख्यातवाँ भागकम अधपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण प्राप्त होता है। जो संख्यातभागवृद्धि आदिका एक समय जघन्य काल है वही अवस्थितका जघन्य अन्तर जानना चाहिये। तथा संख्यात भागहानिका जो दो समय उत्कृष्टकाल है वही अवस्थितका उत्कृष्ट अन्तर जानना चाहिये । या सम्यक्त्व अथवा सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करनेवाला जो जीव पहले समयमें २७ या २६ विभक्तिस्थानवाला हुआ और दूसरे समयमें प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करके २८ विभक्तिस्थानवाला हो गया उसके भी अवस्थितका उत्कृष्ट अन्तर दो समय पाया जाता है। तथा चार, तीन और दो विभक्तिस्थानोंका जितना काल है वह संख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल जानना चाहिये । जिसका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त होता है।
६४९६, आदेशकी अपेक्षा नाकियोंमें संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। तथा इनके अवस्थितका अन्तर ओघके समान है। पहली पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। तथा अवस्थानका अन्तर ओघके समान है।
विशेषार्थ-जिस नारकी जीवने भवके आदि में पर्याप्त होनेके पश्चात् वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करके संख्यातभागहानि की है। तथा भवके अन्तमें पुनः जिसने अनन्तानुबन्धी विसंयोजना करके संख्यातभागहानि की है। तथा मध्यके कालमें जो २४ और २८ विभक्तिस्थानवाला बना रहा है, उसके प्रारम्भ और अन्तके कालको छोड़कर शेष तेतीस सागर काल संख्यातभागहानिका उत्कृष्ट अन्तरकाल होता है। तथा २७ या २६ प्रकृतियोंकी सत्तावाले जिस नारकी जीवने पर्याप्त होनेके पश्चात् प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करके संख्यातभागवृद्धि की । अनन्तर २४ विभक्तिस्थानको प्राप्त करके भवके अन्तमें अन्तर्मुहूर्त कालके शेष रहनेपर जिसने पुन: मिथ्यात्वमें जाकर २८ विभक्तिस्थानको प्राप्त किया उसके प्रारम्भ और अन्तके कालको छोड़कर शेष तेतीस सागर काल संख्यातभागवृद्धिका उत्कृष्ट अन्तरकाल होता है। शेष अन्तर कालोंका कथन जिसप्रकार ओघमें कर आये हैं उसी प्रकार यथासम्भव यहां टित कर लेना चाहिये।
तियंचोंमें संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। तथा अवस्थानका अन्तर
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५१
गा० २२
वड्ढिविहत्तीए अंतराणुगमो लपरियष्टं देखणं । अवट्ठा० ओघभगो । पंचिंतिरिक्खतियस्स संखेज्जभागवड्ढी-हाणी० जह० अंतोमु०, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि पुष्वकोडि-पुधत्तेणव्वहियाणि । अवहा०
ओघमंगो। एवं मणुसतियस्स । णवरि संखेज्जगुणहाणीए ओघमंगो। पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज० संखे० भागहाणी० णत्थि अंतरं । अवहा० जहण्णुक्क० एगसमओ। एवं मणुसअपज्ज०-अणुद्दिसादि जाव सबढ० बादरेइंदियपज्जत्तापज्जत्त-मुहुमेइंदियपज्जत्तापज्जत्त - सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज्ज०-पंचकायाणं बादर-सुहुम-पज्जत्तापज्जत्त-ओरालियमिस्स-वेउब्धियमिस्स-कम्मइय० वत्तव्वं ।। ओघके समान है। पंचेन्द्रिय तिथंच, पंचेन्द्रिय तिथंच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिर्यच योनि मती इन तीन प्रकार के तिथंचोंके संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल र्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है। तथा अवस्थानका अन्तरकाल ओघके समान है। इसीप्रकार सामान्य, पर्याप्त और स्त्रीवेदी मनुष्यों के अन्तरकाल कहना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनके संख्यातगुणहानि भी होती है जिसका अन्तरकाल ओघके समान है। .
विशेषार्थ-तिथंच और मनुष्योंमें तथा उनके अवान्तर मेदोंमें संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिका अन्तरकाल नारकियोंके समान घटित कर लेना चाहिये पर इनमें जिसका जितना उत्कृष्ट काल कहा है उसको ध्यानमें रखकर घटित करना चाहिये। शेष कथन सुगम है।
पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तकके संख्यातभागहानिका अन्तरकाल नहीं पाया जाता है। तथा अवस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय होता है। इसीप्रकार लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य, अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, पांचों स्थावरकायके बादर पर्याप्त और बादर अपर्याप्त तथा सूक्ष्म पर्याप्त और सूक्ष्म अपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी और कार्मणकाययोगी जीवोंके कहना चाहिये ।
विशेषार्थ-पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तक आदि उपर्युक्त मार्गणाओंमें संख्यातभागहानिका अन्तर नहीं प्राप्त होता, क्योंकि एक जीवकी अपेक्षा उक्त मार्गणाओंका काल थोड़ा है जिससे वहां दो बार संख्यात भागहानि नहीं बनती । यद्यपि नौ अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंका काल बहुत अधिक है पर वहां भी दो बार संख्यात भागहानि नहीं प्राप्त होती अतः इन मार्गणाओंमें संख्यात भागहानिका अन्तरकाल नहीं कहा । तथा इन सभी मार्गणाओंमें संख्यातभागहानिका जो एक समय काल है वही यहां अवस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल जानना चाहिये ।
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४५२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ ६५००. देव० संखेज्जभागवड्ढी-हाणी० जह० अंतोमु०, उक्क० एकतीससागरोवमाणि देसूणाणि । अवठ्ठा० ओघभंगो। भवणादि जाव उवरिमगेवज्जे त्ति संखेज्जभागवड्ढीहाणी० जह० अंतोमु०, उक्क. सगसगुक्कस्सहिदी देसूणा । अवहा० ओघभंगो । एइंदिय० बादर० सुहुम०-पंचकाय० बादर०सुहुम० संखेज्जभागहाणि० जहएणुक्क० पलिदो० असंखेज्जदिभागो। कुदो ? सम्मत्तुव्वेल्लमाए संखेजभागहाणं करिय पुणो पलिदो० असंखे० भागकालेण सम्मामि० उव्वेलिदण संखेजभागहाणि कुणंतस्स तदुवलंभादो। अवहा० जहण्णुक्क० एगसमओ। पंचिंदिय-पचिं० पज्ज०
६५००.देवोंमें संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम इकतीस सागर है। तथा अवस्थानका अन्तरकाल ओषके समान है। भवनवासियोंसे लेकर उपरिम प्रैवेयक तकके देवोंके संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। तथा अवस्थानका अन्तरकाल ओघके समान है।
विशेषार्थ-सामान्य देवोमें और नौग्रेवेयक तकके उनके अवान्तर भेदोंमें अपने अपने कालकी मुख्यतासे संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिका उत्कृष्ट अन्तर काल पूर्व प्रक्रियानुसार घटित कर लेना चाहिये । यहां सामान्य देवोंमें जो इकतीस सागरकी अपेक्षा अन्तर काल कहा है उसका कारण यह है कि यहीं तकके देवोंके गुणस्थानोंमें अदल बदल होती है जिसकी अन्तरकालोंको घटित करते समय आवश्यकता पड़ती है। तथा शेष अन्तरकालोंका कथन सुगम है।
एकेन्द्रिय और उनके बादर और सूक्ष्म तथा पांचों स्थावरकाय और उनके बादर और सूक्ष्म जीवोंके संख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है।
शंका-उक्त जीवोंके संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल पक्ष्योपमके असंख्यातवें भाग क्यों है ?
समाधान-क्योंकि सम्यक्प्रकृतिकी उद्वेलनाके द्वारा संख्यातभागहानिको करनेके अनन्तर पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण कालके पश्चात् सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलनाके द्वारा संख्यातभागहानिको करनेवाले उक्त जीवोंके संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण पाया जाता है।
तथा उक्त एकेन्द्रिय आदि जीवोंके अवस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय होता है।
विशेषार्थ-एकेन्द्रियादिके उक्त मार्गणाओंमें संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है इसका खुलासा ऊपर किया ही है।
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गा० २२]
वढिविहत्तीए अंतराणुगमो तस-तसपज्ज० संखेज्जभागवड्ढिहाणि० जह• अंतोमुहुत्तं, उक्क. सगुक्कस्सहिदी देसूणा। अवट्ठा० संखेज्जगुणहाणीणमोघभंगो। पंचमण-पंचवचि०-ओरालि०वेउध्विय० अवट्ठा० ओघभंगो। सेसाणं णस्थि अंतरं ।।
५०१. कायजोगि० संखे०भागवड्ढी० संखे० गुणहाणी० णत्थि अंतरं । संखे० मागहाणि० जहण्णुक० पालिदो० असंखे० भागो। अवहा० ओघभंगो। आहारआहार-मिस्स० अव० णत्थि अंतरं । एवमकसाय०-सुहुम०-जहाक्खाद०-अब्भव०. उवसम-सम्मामि०-सासण।
६५०२. वेदाणुवादेण इत्थि० संखेजभागवड्ढीहाणि० जह० अंतोमु० उक्क० उसका तात्पर्य यह है कि इनमें २८ से २७ और २७ से २६ विभक्तिस्थानकी प्राप्ति होना सम्भव है जिनके प्राप्त होनेमें पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल लगता है। अब यदि किसी एक जीवने २८ से २७ विभक्तिस्थानको प्राप्त किया तो यह पहली संख्यात भागहानि हुई। पुनः उसी जीवने पल्यके असंख्यातवें भाग कालके जानेपर २७ से २६ विभक्तिस्थानको प्राप्त किया तो यह दूसरी संख्यात भागहानि हुई। इस प्रकार पहली संख्यात भागहानिसे दूसरी संख्यातभागहानिके होनेमें पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण अन्तरकाल प्राप्त हुआ। तथा संख्यातभागहानिका जो एक समय काल है वही यहां अवस्थितका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल जानना चाहिये ।
पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, बस और सपर्याप्त जीवोंके संख्यातभागवृद्धि और संख्यात भागहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। तथा अवस्थान और संख्यात गुणहानिका अन्तरकाल बोषके समान है। पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, औदारिककाययोगी और वैक्रियिनकाययोगी जीवोंके अवस्थानका अन्तरकाल ओधके समान है। शेष स्थानोंका अन्तर काल नहीं पाया जाता है।
५०१. काययोगी जीवोंके संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणहानिका अन्तर. काल नहीं पाया जाता है । संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा अवस्थानका अन्तरकाल ओघके समान है। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंके अवस्थानका अन्तरकाल नहीं है। इसीप्रकार अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, अभव्य, उपशमसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिध्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके कहना चाहिये।
५०२. वेदमार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदी जीवोंके संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। तथा अवस्थितका अन्तरकाल ओघके समान है। पुरुषवेदवाले जीवोंके
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traderie कसायपाहुडे
[ पयडिविहत्ती २
1
सगुक्कसहिदी देखणा । अवहि० ओघभंगो । पुरिस० एवं चैव । णवरि संखेजगुणहाणी • णत्थि अंतरं । णवुंस० संखे० भागवड्ढीहाणि ० - अवट्ठा० ओघभंगो । अवगद • संखेजभागहाणी जहण्णुक्क० अंतोमु० । अवट्ठा जहण्णुक्क० एगसमओ । चत्तारिकसाय० संखेजभागहाणि० जहण्णुक्क० अंतोमु० । अवट्ठा० ओघभंगो । सेसप० णत्थि अंतरं । णवरि लोभक० संखेञ्जगुणहाणि० ओघभंगो ।
१५०३. मदि० - सुद० - विहंग०-संखे० भागहाणि अवद्वा० एइंदियभंगो । एवं मिच्छा० असण्णीणं । आभिणि० सुद० ओहि ० संखेजभागहाणी० जह० अंतोमु०, उक्क० छावट्टि सागरोवमाणि देसूणाणि । अवधि ० संखेजगुणहाणीणं ओघभंगो । एवमोहिदंस० सम्मादि० - वेदय० । वरि वेदए संखे० गुणहाणी णत्थि । अवट्टि० जहण्णुक्क एगसमओ | मर्णपञ० संखञ्जभागहाणि० जह० अंतोमुडुत्तं, उक० पुव्वकोडी देणा । अवठ्ठा जहण्णुक्क० एयसनओ । संखेजगुणहाणी० ओघभंगो | एवं स्त्रीवेदी जीवोंके समान अन्तरकाल कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके संख्यातगुणहानि भी पाई जाती है पर उसका अन्तरकाल नहीं होता है । नपुंसकवेदी जीवोंके संख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागहानि और अवस्थितका अन्तरकाल ओघ के समान है । अपगतवेदी जीवोंके संख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । तथा अवस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है ।
४५४
O
क्रोधादि चारों कषायवाले जीवोंके संख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थानका अन्तरकाल ओघ के समान है । तथा शेष दो पदोंका अन्तरकाल नहीं है । इतनी विशेषता है कि लोभकषायी जीवोंके संख्यातगुणहानिका अन्तरकाल ओघके समान है ।
$ ५०३. मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी और विभंगज्ञानी जीवोंके संख्यातभागहानि और अवस्थानका अन्तरकाल एकेन्द्रियोंके समान है । इसीप्रकार मिध्यादृष्टि और असंझीजीवोंके कहना चाहिये । भतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंके संख्यातभागहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम छयासठ सा है । तथा अवस्थित और संख्यातगुणहानिका अन्तरकाल ओघके समान है । इसीप्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके अन्तरकाल कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके संख्यातगुणहानि नहीं होती है । तथा वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके अवस्थितका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है । मन:पर्ययज्ञानी जीवोंके संख्यातभागहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटि है । अवस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है । तथा संख्यातगुणहानिका अन्तरकाल ओघके समान है । मन:पर्ययज्ञानी जीवोंके समान संयत
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गा० २२ ]
हित्ती अंतराणुगमो
४५५
संजद ० - सामाइयछेदो० । णवरि० अवद्वा० ओघभंगो । परिहार० संखेज भागहाणी० जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० पुन्नकोडी देखणा । अवट्ठा जहण्णुक्क० एगसमओ । एवं संजदासंजद० । चक्खु ० तसपजतभंगो ।
६५०४. पंचलेस्सा० संखेज भागवड्ढीहाणी० जह० अंतोमु०, उक्क० सगसगुक्कसहिदी देणा । अवद्वा० ओघभंगो । सुक्कलेस्सा० संखे० भागवदढीहाणी० जह० अंतोमु० उक्क० एक्कत्तीस सागरोवमाणि देखणाणि सादिरेयाणि । सेसमोघभंगो । खइय संखेजभागहाणि अंतरं जहण्णुक्क अंतोमुहुत्तं, संखेज्जगुणहाणि अवहाणं ओघभंगो । सणी ० पुरिसभंगो | णवरि संखेजगुणहाणी ओवं । आहारि० ओघभंगो | णवरि सगहिदी देखणा । अणाहारि० कम्मइयभंगो ।
एवमंतराणुगमो समत्तो ।
०७
कि
सामायिक संयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंके कहना चाहिये | इतनी विशेषता इनके अवस्थानका अन्तरकाल ओघके समान है । परिहारविशुद्धि संयत जीवोंके संख्यातभागहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटि है । तथा अवस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है । इसीप्रकार संयतासंयत जीवोंके कहना चाहिये । चक्षुदर्शनी जीवोंके संख्यातभागवृद्धि आदिका अन्तरकाल पर्याप्त जीवोंके समान है ।
$ ५०४. कृष्ण आदि पाँच लेश्यावाले जीवोंके संख्यात भागवृद्धि और संख्यात भागहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । तथा अवस्थानका अन्तरकाल ओघके समान है । शुकुलेश्यावाले जीवोंके संख्यातभागवृद्धि और संख्यात भागहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और संख्यात भागवृद्धिका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम इकतीस सागर तथा संख्यात भागहानिका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक इकतीस सागर है । तथा शेष स्थानोंका अन्तरकाल ओघके समान है ।
क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके संख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। तथा संख्यातगुणहानि और अवस्थानका अन्तरकाल ओघके समान है । संज्ञी जीवोंके संख्यात भागवृद्धि आदि पदोंका अन्तरकाल पुरुषवेदके समान है । इतनी विशेषता है कि इनके संख्यातगुणहानिका अन्तरकाल ओघके समान है । आहारकजीवोंके संख्यात भागवृद्धि आदि पदोंका अन्तरकाल ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि इनके अवस्थानका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण होता है । अनाहारक जीवोंके अन्तरकाल कार्मणकाययोगी जीवोंके समान होता है ।
इसप्रकार अन्तरानुगम समाप्त हुआ ।
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terrorसहिदे कसायपाहुडे
[ पयडिविहती २
६५०५ णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण अवडा • णियमा अत्थि सेसपदा० भयणिजा । भंगा सत्तावीस २७ । एवं सव्वणेरइय- तिरिक्ख पंचिदियतिरिक्खतिय- मणुसतिय देव भवणादि जाव उवरिमगेवज ० - पंचिं० पंचिदियपञ्ज०- तस तसपज्ज०- पंचमण० पंचवचि०- कायजोगि० -ओरालिय० वेउब्विय०- तिण्णिवेद० - चत्तारिक ० - असंजद० चक्खु अचक्खु०- छलेस्सा०भवसिद्धि ० -सणि० - आहारि० वत्तव्वं । णवरि जत्थ संखेजगुणहाणी णत्थि तत्थ णव
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$ ५०५. नानाजीवोंकी अपेक्षा भंगविचयानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-ओनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से ओघकी अपेक्षा अवस्थानपदवाले जीव नियमसे हैं तथा शेष पदवाले जीव भजनीय हैं । अतः इनके सत्ताईस भंग होते हैं ।
विशेषार्थ - संख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागद्दानि और संख्यातगुणहानि इनके एक जीव और नानाजीवों की अपेक्षा एक संयोगी द्विसंयोगी और तीन संयोगी कुल भंग छब्बीस होते हैं और इनमें अवस्थान पदकी अपेक्षा एक ध्रुव भंगके मिला देने पर कुल भंगों का जोड़ सत्ताईस होता है। जितने भजनीय पद हों उतनी बार तीनको रखकर परस्पर गुणा करनेसे ये कुल भंग आ जाते हैं । यहाँ भजनीय पद तीन हैं अतः तीन बार तीनको रखकर परस्पर गुणा करनेसे सत्ताईस उत्पन्न होते हैं यही कुल भंगों का प्रमाण है । पहले जो अठ्ठाईस आदि विभक्तिस्थानोंकी अपेक्षा भंग और उनके उच्चारण करने की विधि लिख आये हैं उसीप्रकार यहाँ भी समझ लेना चाहिये ।
इसीप्रकार सभी नारकी, सामान्य तिथंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय पर्याप्त तियंच, पंचेन्द्रिय योनिमती तिथंच, सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य, स्त्रीवेदी मनुष्य, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर उपरिम ग्रैवेयक तकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस,
स पर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाथयोगी, वैक्रियिककाययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, छहों लेइयावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इन उपर्युक्त मार्गणास्थानोंमेंसे जहां पर संख्यातगुणहानि नहीं पाई जाती है वहां पर कुल नौ ही भंग होते हैं ।
विशेषार्थ - किस मार्गणास्थान में संख्यात भागवृद्धि आदि मेंसे कितने पद पाये जाते हैं। यह स्वामित्वानुयोगद्वार में बता आये हैं। ऊपर जो मार्गणास्थान गिनाये हैं उनमें कुछ ऐसे स्थान हैं जिनमें संख्यातगुणहानिके बिना शेष तीन और कुछ में चारों पद पाये जाते हैं। जहां चारों पद पाये जाते हैं वहां २७ भंग होंगे, इसका खुलासा ऊपर ही कर आये हैं । पर जहां संख्यात गुणहानिके बिना शेष तीन पद पाये जाते हैं वहां दो भजनीय पदके एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा प्रत्येक और द्विसंयोगी आठ भंग होंगे और
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गा० २२]
वड्ढविहत्तीए भंगविचयाणुगमो
४५७
चेव भंगा ६ । पंचिंदियतिरिक्खअपज० अवटा० णियमा अत्थि । संखेजभागहाणी भयणिज्जा । भंगा तिण्णि ३ । एवमणुद्दिसादि जाव सव्वष्ट-सव्वएइंदियसव्वविगलिंदिय-पंचिं०अपज-सभेद पंचकाय-तस अपज-ओरालियमिस्स ०-कम्मइय मदि-सुद-अण्णा०-विहंग०- परिहार०-संजदासजद०- वेदय०-मिच्छादि०-असण्णिअणाहारि त्ति वत्तव्यं ।
६५०६. मणुसअपज० अवष्ट्रि० संखेजभागहाणीबिहत्तीए अभंगा वत्तव्वा । तं जहा, सिया अवाहिदविहत्तीओ। सिया अवहिदविहत्तिया । सिया संखेजभागहाणिविहत्तिओ। सिया संखेजभागहाणिविहत्तिया। सिया अवष्टिदविहत्तिओ च संखे'जभागहाणिविहत्तिओ च । सिया अवष्ठिदविहत्तिओ च संखेजभागहाणिविहत्तिया च । सिया अवहिदविहत्तिया च संखे० भागहाणिविहत्तिओ च । सिया अवविदविहत्तिया च संखे० भागहाणि विहत्तिया च । एवमह भंगा ८ । एवं वेउब्धियमिस्स० । आहार० इनमें अवस्थान पदके एक ध्रुव भंगके मिला देनेपर कुल भंग नौ होंगे।
पंचेन्द्रिय तियंच लब्ध्यपर्याप्तकोंमें अवस्थान पदवाले जीव नियमसे हैं। तथा संख्यातभाग हानि भजनीय है। अतः यहां कुल भंग तीन होते हैं । इसीप्रकार अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव, सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, सभी पांचों स्थावरकाय, त्रसलब्ध्यपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, वेदकसम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिये ।
विशेषार्थ-इन उपर्युक्त मार्गणाओंमें संख्यातभागहानि और अवस्थान ये दो ही पद 'पाये जाते हैं। उनमें से अवस्थान पद ध्रुव है और संख्यातभागहानि अध्रुव पद है। अत: संख्यातभागहानिके एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा दो भंग और ध्रुवपदकी अपेक्षा एक भंग ये तीन भंग उक्त मार्गणास्थानों में पाये जाते हैं।
६५०६. लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यों में अवस्थित और संख्यातभागहानि विभक्तिकी अपेक्षा आठ भंग कहना चाहिये । वे इसप्रकार हैं-कदाचित् अवस्थितविभक्तिस्थानवाला एक जीव है। कदाचित् अवस्थित विभक्तिस्थानवाले अनेक जीव हैं। कदाचित् संख्यात भागहानि विभक्तिस्थानवाला एक जीव है। कदाचित् संख्यातभागहानि विभक्तिस्थानवाले अनेक जीव हैं। कदाचित् अवस्थितविभक्तिस्थानवाला एक जीव और संख्यातभागहानिविभक्तिस्थानवाला एक जीव है। कदाचित् अवस्थितविभक्तिस्थानवाला एक जीव और संख्यातभागहानिविभक्तिस्थानवाले अनेक जीव हैं। कदाचित् अवस्थितविभक्तिस्थानवाले अनेक जीव और संख्यातभागहानि विभक्तिस्थानवाला एक जीव है। कदाचित् अवस्थित विभक्तिस्थानवाले अनेक जीव और संख्यातभागहानिविभक्तिस्थानवाले अनेक जीव हैं।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [पयडिविहत्ती २ आहारमिस्स-अवष्टिदस्स वे भंगा २। एवमकसाई०-सुहुम०-जहारवाद०-उबसम०सासण-सम्मामिच्छादिहीणमवष्टिदस्स एक-बहुजीवे अवलंविय वेभंगा वत्तव्वा ।
५०७. अवगद० सव्वपदा भयाणजा । भंगा छव्वीस २६ । आभिणि-सुद०ओहि०-मणपज० अवहा०णियमा अस्थि । सेसपदा भयणिजा । भंगा णव है। एवं संजद०-सामाइय-छेदो०-ओहिदंस०-सम्मादि०-खइयदिठीणं वत्तव्वं । अभव० अवहिद० णियमा अत्थि। इसप्रकार आठ भंग होते हैं। इसीप्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके उक्त दो पदोंकी अपेक्षा आठ भंग कहना चाहिये । आहारक काययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंके अवस्थितपदके दो भंग होते हैं। इसीप्रकार अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथारूयातसंयत, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यमिथ्यादृष्टि जीवोंमें अवस्थितपदके एक जीव और बहुत जीवोंका आश्रय लेकर दो भंग कहना चाहिये ।
विशेषार्थ-उपर्युक्त लब्ध्यपर्याप्तक आदि सान्तर मार्गणाएँ हैं। इनमें कभी जीव नहीं भी पाये जाते हैं । कभी एक और कभी अनेक जीव पाये जाते हैं। अतः लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य और वैक्रियिकमिश्रकाययोगी इन दो मार्गणाओंमें अवस्थित और संख्यात भागहानि ये दो पद पाये जानेके कारण एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा प्रत्येक और द्विसंयोगी कुल आठ भंग हो जाते हैं। तथा शेष सान्तर मार्गणाओंमें एक अवस्थान पद ही पाया जाता है इसलिए वहां एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा प्रत्येक भंग दो ही होते हैं।
५०७. अपगतवेदियोंमें सभी पद भजनीय हैं। यहां कुल भंग छब्बीस होते हैं। विशेषार्थ-अपगतवेदियोंके संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और अवस्थित ये तीन पद पाये जाते हैं जो कि भजनीय हैं। तीन पदोंके एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा प्रत्येक, द्विसंयोगी और त्रिसंयोगी कुल भंग छब्बीस होते हैं। अतः अपगतवेदियोंके छब्बीस भंग कहे । तीन पदोंके छब्बीस भंग कैसे होते हैं इसकी प्रक्रिया ऊपर लिख आये हैं। ___मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी और मन:पर्ययज्ञानी जीवोंमें अवस्थित पद वाले जीव नियमसे हैं। शेष संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानि इन दो पदवाले जीव भजनीय हैं। यहां भंग नौ होते हैं। इसीप्रकार संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापना संयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके कहना चाहिये ।
विशेषार्थ-उपर्युक्त मार्गणाओंमें तीन पद बतलाये हैं उनमें से अवस्थित पद ध्रुव और शेष दो भजनीय हैं। दो भजनीय पदोंके एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा . एक संयोगी और द्विसंयोगी कुल आठ भंग होते हैं। तथा उनमें एक ध्रुव भंगके मिला देने पर कुल भंग नौ होते हैं। उपर्युक्त मार्गणास्थानों में यही नौ भंग कहे हैं।
अभव्योंमें अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव नियमसे हैं।
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गा० २२ ]
वड्ढविहत्ती भागाभागाणुगमो
एवं णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमो समत्तो ।
३५०८. भागाभागाणुगमेण दुविहो पिसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण अवदिविहत्तिया सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? अनंतभागा । सेसपदा अनंतिमभागो । एवं तिरिक्ख- कायजोगि - ओरालि०- णवुंस० - चत्तारिक ० - असंजद ० - अचक्खु० तिण्णिलेस्सा-भवसिद्धि० - आहारि० ।
४५६
S ५०६ आदेसेण णेरइएस अवट्ठि० सव्वजीवा० के० ? असंखेखा भागा । सेसप० असंखे० भागो । एवं सव्वपुढवी - पंचि०तिरिक्वतिय - मणुस - देव-भवणादि जाव णवगेवज्ज० - पंचिं- (पंचिं ० ) पञ्ज० -तस-तसपञ्ज०- पंचमण० - पंचवचि० - वेउव्विय० - इस्थिपुरिस ० चक्खु ० तेउ०- पम्म० सुक्क० सण्णि त्ति वत्तव्वं । पंचिं० तिरि० अपज० अवद्वि० सव्वजी० के० ? असंखेज्जा भागा। संखेज्जभागहाणि० असंखे० भागो । एवं मणुस अपज्जत्ताणं | अणुद्दिसादि जाव अवराइद ति पंचिदियतिरिक्खअपज्जतभंगा । एवं सव्वविगलिंदिय-पंचि ० पज्ज० (अपज्ज) - चत्तारि काय - तसअपज्ज०- - वेउब्वियमिस्स ०
इसप्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयानुगम समाप्त हुआ ।
५०८. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओधनिर्देश और आदेशनिर्देश | उनमें से ओघकी अपेक्षा अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव सर्व जीवोंके कितने वें भाग हैं ? अनन्त बहुभाग हैं । तथा शेष संख्यातभागवृद्धि आदि स्थानवाले जीव अनन्तत्रें भाग हैं । इसीप्रकार तिर्यंच, काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चारों कषायवाले, असंयत, अचक्षुदर्शनी, कृष्णादि तीन लेश्यावाले, भव्य और आहारक जीवोंका भागाभाग कहना चाहिये ।
५०६. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें अवस्थितविभक्तिस्थानवाले जीव सर्व नारकी जीवोंके कितने भाग हैं ? असंख्यात बहुभाग हैं । शेष पदवाले असंख्यात एक भाग हैं । इसीप्रकार सभी पृथिवियोंके नारकी, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त और योनिमती ये तीन प्रकारके तिथंच, सामान्य मनुष्य, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर नौ ग्रैवेयक तक के देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रस पर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी वैक्रियिककाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, चक्षुदर्शनी, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, शुकुलेश्यावाले और संज्ञी जीवोंका भागाभाग कहना चाहिये ।
पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकों में अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव सभी पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकोंके कितने भाग हैं ? असंख्यात बहुभाग हैं । तथा 'संख्यातभाग हानिवाले जीव असंख्यात एक भाग हैं । इसीप्रकार लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यों का भागाभाग कहुना चाहिये । अनुदिशसे लेकर अपराजित तकके देवोंका भागाभाग पंचेन्द्रिय तिर्थच लब्ध्यपर्याप्तकों के समान है । इसीप्रकार सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक, पृथिवी
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पयडिविहत्ती २
विहंग-संजदासंजद-वेदय० दिठीणं वत्तव्यं ।
५१०. मणुसपज्ज०-मणुसिणीसु अवष्टिद० सव्वजी० के० संखेज्जा भागा। सेसप० संखे० भागो । एवं मणपज०-संजद०-सामाइयछेदो० वत्तव्वं । सव्वढे अवट्टि सव्वजी० के० ? संखेजा भागा। संखेजभागहाणि° संखे० भागो। एवं परिहार० ।
६५११. एइंदिएसु अवहिद० सचजी० के० १ अणंता भागा। संखेजभागहाणीए अणंतिमभागो। एवं बादरेइंदिय-बादरेइंदियपजत्तापज्जत्त-सुहुमेइंदिय-सुहुमेइंदियपजत्तापजत्त-सव्ववणप्फदि०-ओरालियमिस्स० - कम्मइय० - मदि-सुद-अण्णाणमिच्छादि०-असण्णि-अणाहारीणं । आहार० आहारमिस्स० भागाभागं णस्थि । एवमकसाय-सुहुम०-जहाक्खाद०-अभव० - उवसम०- सासण-सम्मामिच्छाइहि त्ति वत्तव्यं । आभिणि-सुद०-ओहि० अवढि० सव्वजीवा० के० १ असंखेजा भागा। कायिक आदि चार स्थावरकाय, त्रस लब्ध्यपर्याप्तक, वैक्रियिक मिश्रकाययोगी, विभंगज्ञानी, संयतासंयत और वेदकसम्यगृदृष्टि जीवोंके भागाभाग कहना चाहिये।
६ ५१०. मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियों में अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव अपनी अपनी सर्व जीवराशिके कितने भाग हैं। संख्यात बहुभाग हैं । तथा शेष पदवाले संख्यात एक भाग हैं। इसीप्रकार मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंके भागाभाग कहना चाहिये।
सर्वार्थसिद्धिमें अवस्थितविभक्तिस्थानवाले जीव सभी सर्वार्थसिद्धिके देवोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं। तथा संख्यातभागहानि वाले जीव संख्यात एक भाग हैं। इसीप्रकार परिहारविशुद्धिसंयतोंका भागाभाग कहना चाहिये ।
५११. एकेन्द्रियोंमें अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव सभी एकेन्द्रिय जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहुभाग हैं । तथा संख्यातभागहानिवाले जीव अनन्त एक भाग हैं। इसीप्रकार बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म
कटिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सभी वनस्पतिकायिक, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके भागाभाग कहना चाहिये।
आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंके भागाभाग नहीं है, क्योंकि इनके एक अवस्थितपद ही पाया जाता है। इसीप्रकार अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यात संयत,अभव्य, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके भागाभाग कहना चाहिये ।
मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें अवस्थितविभक्तिस्थानवाले जीव अपनी अपनी सर्व जीव राशिके कितने भाग हैं ? असंख्यात बहुभाग हैं। तथा शेष
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गा० २२]
वढिविहत्तीए परिमाणाणुगमो सेसप० असंखे०भागो। एवमोहिदंस-सम्मादि०-खइयसम्माइ० ।
एवं भागाभागाणुगमो समत्तो। $ ५१२. परिमाणाणुगमेण दुविहो णिदेसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण संखेजभागवढी-हाणिविहत्तिया केत्तिया ? असंखेजा । संखे० गुणहाणि संखेजा। अवष्टिया केतिया ? अणंता । एवं कायजोगि०-ओरालि०-चत्तारिक०-अचक्खु०-भवसिद्धि०-आहारीणं वत्तव्वं ।।
६५१३. आदेसेण णेरइएमु संखेजभागवड्ढीहाणी-अवठाणाणि केत्तिया ? असंखेजा । एवं सव्वणिरय०-पंचिंदियतिरिक्खतिय-देव-भवणादि जाव उवरिमगेवजवेउव्विय०-इत्थि-तेउ०-पम्म० वत्तव्वं । तिरिक्व० ओघभंगो। णवरि संखेजगुणहाणी णत्थि । एवं णस-असंजद-तिण्णिलेस्साणं । पंचिं० तिरि० अपज्ज० संखेजभागहाणि-अवढि० केत्ति ? असंखेजा। एवं मणुसअपज०-अणुद्दिसादि जाव अवराइद-सव्वविंगलिंदिय-पंचिं०अपज्ज०-चत्तारिकाय०- तसअपज०-वेउव्वियमिस्सस्थानवाले जीव असंख्यात एक भाग हैं। इसीप्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि जोवोंके भागाभाग कहना चाहिये । इसप्रकार भागाभागानुगम समाप्त हुआ।
५१२: परिमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका होता है-ओघनिर्देश और । आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओधकी अपेक्षा संख्यातभागवृद्धिविभक्तिस्थानवाले जीव और संख्यात भागहानि विभक्तिस्थानवाले जीव प्रत्येक कितने हैं ? असंख्यात हैं । तथा संख्यातगुणहानिविभक्तिस्थानवाले जीव संख्यात हैं। अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। इसीप्रकार काययोगी, औदारिककाययोगी, क्रोधादि चारों कपायवाले, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंका द्रव्य प्रमाण कहना चाहिये।
$ ५१३. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव प्रत्येक कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसीप्रकार सभी नारकी, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त और योनिमती ये तीन प्रकारके तिर्यंच, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर उपरिम अवेयक तकके देव, वैक्रियिककाययोगी, स्त्रीवेदी, पीतलेश्यावाले और पद्मलेश्यावाले जीवोंका द्रव्यप्रमाण कहना चाहिये । तिर्यचोंका द्रव्यप्रमाण ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि इनके संख्यातगुणहानि नहीं होती है । इसीप्रकार नपुंसकवेदी, असंयत और कृष्ण आदि तीन लेश्यावाले जीवोंका द्रव्य प्रमाण कहना चाहिये,
पंचेन्द्रियतिथंच लब्ध्यपर्याप्तकोंमें संख्यातभागहानि और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव प्रत्येक कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसीप्रकार लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य, अनुदिशसे लेकर अपराजित तकके देव, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, पृथिवीकायिक
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[पयडिविहत्ती २
विहंग-संजदासंजद०-वेदय० वत्तव्वं ।
३५१४. मणुस्सेसु संखेजभागवड्ढी-संखे०गुणहाणी० केत्ति ? संखेजा । सेसपदा० असंखे । मणुसपजत्त-मणुसिणीसु सव्वपदा संखेजा। सव्वहे दो पदा केत्ति ? संखेजा । एवं परिहार० । एइंदिय० अवटि० केत्ति० ? अणंता । संखेजभागहाणि के. ? असंखेजा। एवं वणप्फदि०-णिगोद०-ओरालियमिस्स० -कम्मइय०- मदिसुदअण्णाण ०-मिच्छादि०-असण्णि-अणाहारि त्ति । पंचिं०-पंचिं०पज-तस-तसपञ्ज. ओधभंगो। णवरि अवटि. असंखेजा । एवं पंचमण-पंचवचि०-पुरिस०-चक्खु०-. सण्णि त्ति । आहार-आहारामिस्स० अवा४ि० के० ? संखेज्जा । एवभकसा०-सुहुमजहाक्खादे त्ति । अवगद० सव्वपदा० केत्ति० ? संखेज्जा । एवं मणपज्ज०-संजद०. आदि चार स्थावरकाय, त्रसलब्ध्यपर्याप्त, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, विभंगज्ञानी, संयतासंयत और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंका द्रव्यप्रमाण कहना चाहिये ।
५१४. मनुष्योंमें संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणहानिवाले जीव प्रत्येक कितने हैं ? संख्यात हैं। तथा शेष स्थानवाले जीव असंख्यात हैं। मनुष्य पर्याप्त और मनुष्य नियों में सभी स्थानवाले जीव संख्यात हैं। सर्वार्थसिद्धिमें अवस्थित और संख्यातभाग हानिवाले जीव प्रत्येक कितने हैं ? संख्यात हैं । इसीप्रकार परिहार विशुद्धिसंयत जीवोंका द्रव्यप्रमाण कहना चाहिये। ___ एकेन्द्रियोंमें अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं । तथा संख्यातभागहानिवाले कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसीप्रकार वनस्पतिकायिक, निगोद, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंका द्रव्यप्रमाण कहना चाहिये ।
पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस और सपर्याप्त जीवोंका अवस्थित आदि विभक्तिस्थानोंकी अपेक्षा द्रव्यप्रमाण ओघके समान है। इतनी विशेषता है इन मार्गणास्थानोमें अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यात हैं। इसीप्रकार पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, पुरुषवेदी, चक्षुदर्शनी और संज्ञी जीवोंका उक्त स्थानोंकी अपेक्षा द्रव्यप्रमाण कहना चाहिये। __ आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें अवस्थितविभक्तिस्थानवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। इसीप्रकार अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत और यथाख्यातसंयत जीवोंका अवस्थित विभक्तिस्थानकी अपेक्षा द्रव्यप्रमाण कहना चाहिये।
अपगतवेदियोमें संभव सभी पद वाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। इसीप्रकार मनः पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत और छेदोपस्थापना संयत जीवोंका संभव सभी पदोंकी अपेक्षा द्रव्यप्रमाण कहना चाहिये।
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गाο २२ ]
हत्ती खेत्तागुगमो
४६३
सामाइयछेदो ० इदि । आभिणि०सुद० - ओहि० पांचदियभंगो | णवरि वड्ढी णत्थि । एवमोहिदंस० सम्मादिद्वित्ति | अभव० अवट्टि ० के० ? अनंता । खइय० संखेज्ज - भागहाणि संखेज्जगुणहाणि० केत्ति ? संखेज्जा । अवद्वि० केत्ति ० १ असंखेज्जा | उवसम० सासण० - सम्मामि० अवधि ० के० ? असंखेज्जा |
एवं परिमाणाणुगमो समत्तो ।
$ ५१५. खेत्ताणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण अवद्विदविहत्तिया केवडि० खेत्ते ? सव्वलोगे । सेसपदा० के० खेतं फोसिदं ? लोगस्स असंखे ० भागो । एवं तिरिक्ख - कायजोगि ओरालि०-णवुंस० - चत्तारि - ( कसाय) - असंजद ० अचक्खु०- भवसि० - तिण्णिले० आहारि ति वत्तव्यं । णवरि पदगयविसेसो णायव्वो ।
$ ५१६. आदेसेण पोरइएस सन्वपदा० के० खेत्तं फोसिदं ? लोग० असंखे ० ज्जदिभागो । एवं सव्वणिरय - पंचिंदिप तिरिक्खतिय पंचि ० तिरि ० अपज्ज० -सव्व
मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंका संभव सभी पदोंकी अपेक्षा द्रव्यप्रमाण पंचेन्द्रियोंके समान है । यहां पंचेन्द्रियोंसे इतनी विशेषता है कि इनमें संख्यातभागवृद्धि नहीं पाई जाती है । इसीप्रकार अवधिदर्शनी और सम्यग्दृष्टि जीवोंका संभवपदोंकी अपेक्षा द्रव्यप्रमाण कहना चाहिये ।
अभव्यों में अवस्थित पदवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं । क्षायिक सम्यग्दृष्टियों में संख्या भागहानि और संख्यातगुणहानि पदवाले जीव प्रत्येक कितने हैं ? संख्यात हैं । तथा अवस्थित पदवाले जीव कितने हैं असंख्यात हैं । उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्रमिध्यादृष्टि जीवों में अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव प्रत्येक कितने हैं ? असंख्यात हैं ।
इस प्रकार परिमाणानुगम समाप्त हुआ ।
$ ५१५. क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? सर्वलोक में रहते हैं । शेष संख्यातभागवृद्धि आदि पदवाले जीवोंने वर्तमानमें कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है । इसीप्रकार सामान्यतिथंच, काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चारों कषायवाले, असंयत, अचक्षुदर्शनी, भव्यः कृष्णादि तीन लेश्यावाले और आहारक जीवोंके कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इन मार्गणास्थानों में सर्वत्र संख्यातभागवृद्धि आदि सभी पद संभव नहीं हैं इसलिये जहां जो पद हो वह जान लेना चाहिये ।
$ ५१६. आदेश से नारकियोंमें संख्यात भागवृद्धि आदि संभव सभी पदोंको प्राप्त हुए जीवोंने वर्तमान में कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है । लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पयडिविहत्ती २
मणुस-देव०-भवणादि जाव सव्वदृ०-सव्वविगलिंदिय-सव्वपंचिंदिय-सब्बतस-पंचमण-पंचवचि०-वेउब्बिय-वेउबियमिस्स-इत्थिल-पुरिस०-अवगद-विहंग-आभिणि:सुद०-ओहि०-मणपज्जव०- संजद०- सामाइयछेदो०- परिहार०-संजदासंजद०-चक्खु० ओहिदसण०--तेउ०-पम्म०-सुक्क ०-सम्मादि०-खइय०-वेदय ० -सणि ति।
६५१७. इंदियाणुवादेण एइंदिय-बादर०-बादरपज्जत्तापज्जत्त-सुहुम०-सुहुमेइंदियपज्जत्तापज्जत्त० अवहि० के० खेत्ते? सव्वलोगे। संखेज्जभागहाणि० के० खेत्ते ? लोग० असंखे० भागे । एवं चत्तारिकाय-बादरअपज्ज-सुहुम० पज्जत्तापज्जत्त-ओरालियमिस्स० - कम्मइय० - मदि - सुद - अण्णाण - मिच्छादि० - सण्णि० - अणाहारि ति वत्तव्यं । बादरपुढवि० पज०-बादर-आउ. पज०-बादरतेउ०पज०-बादरवाउपज. पंचिंदिय-अपज्जत्तभंगो। णवरि बादरबाउ० पज० अवट्टि लोगस्स संखे०भागे । सव्ववणप्फदिकाइयाणमेइंदियभंगो। आहार-आहारमिस्स० अवहि. के. है। इसीप्रकार सभी नारकी, पंचेन्द्रियतिर्यश्चत्रिक, पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्त, सर्व मनुष्य, सामान्य देव, भवन वासियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव, सभी विकलेन्द्रिय, सभी पंचेन्द्रिय, सर्व त्रस, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, अपगतवेदी, विभंज्ञानी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहार विशुद्धिसंयत, संयतासंयत, चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और संज्ञी जीवोंका क्षेत्र संभव पदोंकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवां भाग है।
६५१७. इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, वादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त अवस्थितविभक्तिस्थानवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सर्व लोकमें रहते हैं। संख्यात भागहानिवाले उक्त जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागक्षेत्रमें रहते हैं। इसीप्रकार पृथिवीकायिक आदि चार स्थावर कायिक, तथा इन चारोंके बादरलब्ध्यपर्याप्त और सूक्ष्म पर्याप्त अपर्याप्त, औदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, मिथ्यादृष्टि, संज्ञी और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिये।
बादरपृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादरवायुकायिक पर्याप्त जीवोंका अपनेमें सम्भव पदोंकी अपेक्षा क्षेत्र पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकोंके क्षेत्रके समान होता है। इतनी विशेषता है कि बादर वायुकायिक पर्याप्त अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं। समस्त वनम्पतिकायिक जीवोंका संभव पदोंकी अपेक्षा क्षेत्र एकेन्द्रियोंके क्षेत्रके समान है।
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गा० २२]
षड्ढिविहत्तीए फोसणाणुगमो
खेत्ते० १ लोग० असंखे० भागे। एवमकसाय-सुहुम०-जहाक्खाद-उवसम-सासणसम्मामिच्छादिहि त्ति । अभव० अवहि० के० खेते ? सव्वलोए ।
एवं खेत्ताणुगमो समत्तो। ६५१८. पोसणाणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण संखेजमागवड्ढीविहत्तिएहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखे० भागो अट्ठ चोदसभागा वा देसूणा। संखेञ्जमागहाणि० के० खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखे० भागो, अह चोदस० देसूणा, सव्वलोगो वा। अवहि० के० खेत्तं फोसिदं ? सव्वलोगो । संखेजगुणहाणि० खेत्तभंगो । एवं कायजोगि०-चत्तारिक०-अचक्खु० भवसि० आहारि ति।
६५१६. आदेसेण णेरइएसु संखेजभागवड्ढी० खेत्तभंगो। संखेजभागहाणि अवट्ठिद० के० खेत्तं फोसिदं ? लोग० असंखे० भागो छ चोद्दसभागा वा देसूणा ।
आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं । लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं। इसीप्रकार अकषायी, सूक्ष्मसापरायिक संयत, ययाख्यातसंयत, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवोंके कहना चाहिये। अभव्य अवस्थितविभक्तिस्थानवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सर्व लोकमें रहते हैं।
इसप्रकार क्षेत्रानुगम समाप्त हुआ।
६५१८. स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा संख्यातभागवृद्धि विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। और अतीत कालकी अपेक्षा असनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। संख्यातभागहानि विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। और अतीत कालकी अपेक्षा त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है या सर्वलोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। अवस्थितविभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? सर्वलोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। संख्यातगुणहानि विभक्तिस्थानवाले जीवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है। इसी प्रकार काययोगी, क्रोधादि चारों कषायवाले, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंके कहना चाहिये।
६५१६. आदेशकी अपेक्षा नाराकयोंमें संख्यातभाग वृद्धि विभक्तिस्थानवाले जीवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है । संख्यातभागहानि और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भागक्षेत्रका स्पर्श किया है और अतीत ..
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ पढमाए खेत्तभंगो। विदियादि जाव सत्तमि ति संखेजभागवड्ढी० खेत्तभंगो । संखे. मागहाणि-अवट्टि० के० खेत्तं फोसिदं ? लोग० असंखे० भागो एक्क-बे-तिण्णिचत्वारि-पंच-छ चोदसभागा देसूणा।
५२०. तिरिक्खेसु संखेजभागहाणि० के० खे० फो० ? लोग० असंखे० भागो सव्वलोगो वा । सेसप० खत्तभंगो। ओरालि०-णस-तिण्णिले० तिरिक्खमंगो। पंचिंदियतिरिक्खतियम्मि संखेजभागवड्ढी० खेत्तभंगो। संखेजभागहाणि-अवष्टि के० खे० फो० ? लोग० असंखेजदिभागो सव्वलोगो वा। पंचिं० तिरि० अपज. संखञ्जमागहाणि अवहि० के० खे० फो० ? लोग० असंखे० भागो, सव्वलोगो वा । एवं मणुसअपज०-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदिय अपज० -बादरपुढवि०पज्ज०- बादरआउ० पञ्ज०-बादरतेउ०पज्जा -बादरवाउपज्जा-तसअपज्ज० वत्तव्वं । णवरि बादरवाउपज्ज. कालकी अपेक्षा त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। पहली पृथिवीमें स्पर्श क्षेत्रके समान है। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक प्रत्येक पृथिवीमें संख्यातभागवृद्धि विभक्तिस्थानवाले जीवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है। तथा उक्तं द्वितीयादि पृथिवियों में संख्यातभागहानि और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे क्रमसे कुछ कम एक, कुछ कम दो, कुछ कम तीन, कुछ कम चार, कुछ कम पांच और कुछ कम छह भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है।
६५२०.तियंचोंमें संख्यातमागहानि विभक्तिस्थानवाले जीवोने कितने क्षेत्रको स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और सर्वलोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। शेष पदोंकी अपेक्षा स्पर्श क्षेत्रके समान है। औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदी और कृष्णादि तीन लेश्यावाले जीवोंका स्पर्श तिर्यचोंके स्पर्शके समान है। पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त और योनिमती इन सीन प्रकारके तिर्यंचोंमें संख्यातभागवृद्धिवाले जीवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है। संख्यातभागहानि और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले उक्त तीन प्रकारके तिथंचोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और सर्वलोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तकोंमें संख्यातभागहानि और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और सर्वलोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसीप्रकार लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लव्ध्यपर्याप्त, बादर पृथिवीकायिकपर्याप्त, बादर जलकायिकपर्याप्त, बादर अग्निकायिकपर्याप्त, बादर वायु कायिकपर्याप्त और त्रसलब्ध्यपर्याप्त जीवोंके संख्यातभागहानि और अवस्थित पदकी अपेक्षा स्पर्श कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंमें अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंने लोकके संख्यातवें भाग और सर्वलोक क्षेत्रका स्पर्श किया है।
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वड्ढिविहत्तीए फोसणाणुगमो
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अवढि० लोग० संखे० भागो सव्वलोगो वा । मणुसतिय ० संखेज्जभागहाणि-अवहि. के० खे० फो० ? लोग० असंखे० भागो सव्वलोगो वा । सेसप० के० खेचं फो०१ लोग० असंखे० भागो।
६५२१. देवेसु संखेज्जभागवड्ढी० के० खे० फो० १ लोग असंखे० भागो अट्ट चोदस० देसूणा । संखेज्जभागहाणी-अवष्टि० के० खे० फो० १ लोग० असंखे. भागो, अट्ठ णव चोद्दस० देसूणा । एवं सोहम्मीसाणेसु । भवण-वाण-जोइसि. संखेज्जभागवड्ढी० देवोघं । णवरि अद्भुह-अ चोद्दस० । संखेज्जभागहाणि-अवहि. अद्भुट्ट-अ णव चोदसभागा वा देसूणा । सणक्कुमारादि जाव सहस्सारे त्ति सव्वपदा० अह चोदस० देसूणा । आणदपाणदआरणच्चुद० सव्वपदा० छ चोदसभागा वा देसूणा । उवरि खेत्तभंगो। ___सामान्य, पर्याप्त और स्त्रीवेदी इन तीन प्रकारके मनुष्योंमें संख्यातभागहानि और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा शेष विभक्तिस्थानवाले उक तीन प्रकारके मनुष्योंने कितने क्षेत्रका स्पर्थ किया है ? लोकके असंख्यातवेंभाग क्षेत्रका स्पर्श किया है।
$५२१. देवोंमें संख्यातभागवृद्धिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्याभूभाग और असनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। संख्यातभागहानि और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले देवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और प्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ माग भौर नौ भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसीप्रकार सौधर्म और ऐशान स्वर्गके देवोंमें उत्त पदोंकी अपेक्षा स्पर्श कहना चाहिये । भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें संख्यातभागवृद्धि पदकी अपेक्षा स्पर्श सामान्य देवोंके संख्यातभागवृद्धिपदकी अपेक्षा कहे गये स्पर्शके समान है । इतनी विशेषता है कि यहां पर असनालीके चौदह भागों में से कुछ कम साढ़े तीन भाग और आठ भाग स्पर्श कहना चाहिये । संख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिस्थानवाले उक्त भवनवासी आदि देवोंने त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम साढ़े तीन, आठ और नौ भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार तकके देवोंमें वहां संभव सभी पदवाले जीवोंने असनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। आनत, प्राणत, आरण और अच्युत स्वर्गके देवोंमें यहां संभव सभी पदवाले जीवोंने त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसके ऊपर नौवेयक आदिमें स्पर्श क्षेत्रके समान है।
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४६८
जयघवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ . ५२२. इंदियाणुवादेण एइंदिय० संखेज्जभागहाणि-अवष्टि० तिरिक्खोघं । एवं बादर-सुहुम - पज्जत्तापज्जत्त- चत्तारिकाय - बादरअपज्ज०-सुहुमपज्जत्तापज्जत्त- सव्ववणप्फदि०-ओरालियमिस्स-कम्मइय-असण्णि०-अणाहारि त्ति वत्तव्वं । [पंचिं०] पंचिंदियपज्ज-तस-तसपज्ज० संखेज्जभागहाणि-अवढि० के० खे० फो० ? लोगों असंखे० भागो, अह चोदस० देसूणा, सबलोगो वा। सेसप० ओघभंगो। एवं पंचमण-पंचबचि०-पुरिस०-चक्खु०-सण्णि त्ति । वेउब्बिय० संखेज्जभागवड्ढी० के०
खे० फो० १ लोग० असंखे०भागो अह चो० देसूणा । संखेज्जभागहाणि-अवडि० के० खेत्तं फोसिदं ? लोग असंखे० भागो, अट्ठ-तेरह-चोदसभागा देसूणा । वेउन्वियमिस्स०-आहारमिस्स० - अकसा०-मणपज्ज-संजद०-सामाइयछेदो०-परिहार० सुहुमसांपराय०-जहाक्खाद०-अभव० खेत्तभंगो । इत्थि० पंचिंदियभंगो। णवरि संखेज्ज
$ ५२२. इन्द्रिय मार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियों में संख्यातभागहानि और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंका स्पर्श सामान्य तिर्यचोंमें उक्त पदोंके आश्रयसे कहे गये स्पर्शके समान है। इसीप्रकार बादर एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त, पृथिवी कायिक आदि चार स्थावरकाय, बादर पृथिवीकायिक आदि चारोंके अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक आदि चारोंके पर्याप्त और अपर्याप्त, सभी वनस्पतिकायिक, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मेणकाययोगी, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके स्पर्श कहना चाहिये । पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, प्रस, सपर्याप्त जीवोंमें संख्यातभागहानि और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है। लोकके असंख्यातवे भाग, त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग और सर्व लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा शेष पदोंकी अपेक्षा स्पर्श ओषके समान है। इसीप्रकार पांचों मनोयोगी, पांचों बचनयोगी, पुरुषवेदी, चक्षुदर्शनी और संझी जीवोंके स्पर्श कहना चाहिये।
_वैक्रियिककाययोगियोंमें संख्यातभागवृद्धिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवेंभाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग क्षेत्रका सर्श किया है। संख्यातभागहानि और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले वैक्रियिककाययोगी जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और सनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और तेरह भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है।
वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अकषायी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहार विशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत और अभव्य जीवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है।
स्त्रीवेदमें स्पर्श पंचेन्द्रियोंके स्पर्शके समान है। इतनी विशेषता है कि बीवेदी
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गा० २२]
पढिविहसाए फोसणाणुगमो
गुणहाणी णत्थि।
६ ५२३. मदि-सुदअण्णाण संखेज्जभागहाणि-अवष्टि० ओघं । विहंग० संखेज्जभागहाणि-अवहि० के० खेत्तं फो० १ लोग० असंखे० भागो, अ चोदस० देसूणा, सव्वलोगो वा । आभिणि-सुद०-ओहि० संरक्ज्जदिभागहाणिअवहि० के० खे०फो० ? लोग० असंखे० भागो, अह चोदस० देसूणा । संखेज्जगुणहाणी ओघ । एवमोहिदंसण-सम्मादिष्टित्ति । एवं वेदय० । णवरि संखेज्जगुणहाणी णत्थि ।
$५२४. संजदासंजद० संखेजभागहाणी० खेत्तभंगो। अवहि० छ चोदस० देसूणा । असंजद० संखेजभागवड्ढी-हाणि-अवढि० ओघं । तेउ० सोहम्मभंगो। पम्म० सहस्सारभगो। सुक्क० आणदभंगो। णवरि संखेजगुणहाणि ओघ । खइय० अंबहि. जीवोंके संख्यातं गुणहानि नहीं पाई जाती है।
३५२३. मत्यज्ञानी और श्रुतज्ञानी जीवोंमें संख्यातभागहानि और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंका स्पर्श ओघके समान है। विभंगज्ञानी जीवोंमें संख्यातभागहानि और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग, त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग और सर्व लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें संख्यातभागहानि और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और असनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है । संख्यातगुणहानिवाले उक्त मतिनानी आदि जीवोंका स्पर्श ओषके समान है। इसीप्रकार अवधिदर्शनी और सम्यग्दृष्टि जीवोंका स्पर्श होता है । इसीप्रकार वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंका स्पर्श होता है। इतनी विशेषता है वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके संख्यातगुणहानि नही है। .
५२४. संयतासंयत जीवों में संख्यातभागहानिकी अपेक्षा स्पर्श क्षेत्रके समान है। तथा अवस्थित विभक्तिस्थानवाले संयतासंयत जीवोंने सनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है । असंयतोंमें संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिस्थानवाले जीवोंका स्पर्श ओघके समान है।
पीतलेश्यावालोंमें वहां संभव पदोंकी अपेक्षा स्पर्श सौधर्म स्वर्गमें कहे गये स्पर्शके समान है। पद्मलेश्यावालोंमें वहां संभव पदोंकी अपेक्षा स्पर्श सहस्रार स्वर्गमें कहे गये स्पर्शके समान है। शुक्ललेश्यावालोंमें वहां संभव पदोंकी अपेक्षा स्पर्श आनत स्वर्गमें कहे गये स्पर्शके समान है। इतनी विशेषता है कि शुक्ललेश्यावालोंमें संख्यातगुणहानिपदवाले जीवोंका स्पर्श ओधके समान है।
क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श
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४७०
जयधवलासहिदे कसायपाहुरे [ पयडिविहत्ती २ के० खे० फो० १ लोग० असंखे० भागो, अह चोदस० देसूणा । सेस० खेत्तभंगो। उवसम० सम्मामि० अवष्ट्रि० के० खे० फो० ? लोग० असंखे० भागो अष्ट-चोदस० देसूणा । सासण० अवष्टि० के० खे० फो० १ लोग. असंखे० भागो अह-बारह चोद्दस० देसूणा । मिच्छादिही० मादअण्णाणिभंगो।
एवं पोसणाणुगमो समतो। ६५२५. कालाणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण संखेजभागवड्ढी-हाणी केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एगसमओ, उक्क० आवलियाए असंखे० भागो । संखेजगुणहाणी के० कालादो ? जह० एगसमओ, उक्क० संखेजा समया। अवहि० के० ? सम्बद्धा । एवं पंचिंदिय०-पचिं०पज-तस-तसपज०पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालि०-पुरिस०- चत्तारिक०- चक्खु० -अचक्खु० सुक्क भवसि०-सण्णि आहारि ति । किया है ? लोकके असंख्यातवेंभाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। यहां शेष पदोंकी अपेक्षा स्पर्श क्षेत्रके समान है। उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवोंमें अवस्थितविभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है । सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंमें अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और बारह भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। मिथ्यादृष्टियोंमें स्पर्श मत्यज्ञानियों में कहे गये स्पर्शके समान जानना चाहिये । इसप्रकार स्पर्शनानुगम समाप्त हुआ।
५२५. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघसे नाना जीवोंकी अपेक्षा सहयातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिका काल कितना है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल आवलीके असंख्यातवें भाग है। संख्यातगुणहानिका कितना काल है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल संख्यात समय है । अवस्थित विमक्तिस्थानका काल कितना है ? सर्वकाल है। इसीप्रकार पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, बस, सपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, पुरुषवेदी, क्रोधादि चारों कषायवाले, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके संख्यातभागवृद्धि आदिका जघन्य और उत्कृष्टकाल कहना चाहिये ।
विशेषार्थ-जब नाना जीव एक समय तक संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिको करके दूसरे समयमें अबस्थान भावको प्राप्त हो जाते हैं किन्तु दूसरे समय में अन्य कोई
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गा० २२] वड्ढिविहत्तीए कालाणुगमो
४७१ ६५२६. आदेसेण णेरईएम संखेजभागवड्ढी-हाणि-अवठाणाणमोघमंगो। एवं सत्तपुढवि-तिरिक्व०-पंचितिरिक्खतिय-देव-भवणादि जाव उवरिमगेवज-वेउव्विय:इथि०-णस०-असंजद०-पंचलेस्सिया त्ति वत्तव्वं । पंचिंदियतिरिक्व अपज० संखे०भागहाणि० के० ? जह० एगसमओ, उक्क० आवलि० असंखे० भागो। अवहि. सव्वद्धा । एवमणुदिसादि जाव अवराइद त्ति , सव्वएइंदिय-सव्व विगलिंदिय-पंचिं०अपज०-पंचकाय-तस अपज०-ओरालियमिस्स०- कम्मइय-मदि-सुद अण्णाण-विहंगजीव संख्यातभागहानि या संख्यातभागवृद्धिको नहीं करते हैं, तब संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिका जघन्यकाल एक समय पाया जाता है। तथा यदि एकके बाद दूसरे और दूसरेके बाद तीसरे आदि नाना जीव संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानि निरन्तर करते हैं तो आवलिके असंख्यातवें भाग काल तक ही संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानि होती हैं इसके पश्चात् अन्तर पड़ जाता है । अत: संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है । संख्यातभाग वृद्धिके समान संख्यातगुणहानिका जघन्यकाल एक समय जानना चाहिये। किन्तु जब क्षपकश्रेणीमें नाना जीव प्रति समय ग्यारह विभक्तिस्थानसे पांच विभक्तिस्थानको या दो विभक्तिस्थानसे एक विभक्तिस्थानको प्राप्त होते रहते हैं तब संख्यातगुणहानिका उत्कृष्टकाल संख्यातसमय प्राप्त होता है, क्योंकि इसप्रकार संख्यातगुणहानि निरन्तर संख्यात समय तक ही हो सकती है। तथा अवस्थित विभक्तिस्थानका सर्वकाल कहनेका कारण यह है कि ऐसे अनन्त जीव हैं जिनके सर्वदा अवस्थित बिभक्तिस्थान बना रहता है। ऊपर और जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें भी ओघके समान व्यवस्था बन जाती है।
६५२६. आदेशसे नारकियोंमें संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि और अवस्थानका काल ओघके समान है। इसीप्रकार सातों पृथिवियोंमें और सामान्य तियंच, पंचेन्द्रियतियच, पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यच, योनीमती तियंच, सामान्यदेव, भवनवासियोंसे लेकर उपरिम अवेयक तकके देव, वैक्रियिककाययोगी, स्त्रीवेदी, नपुंसकवेदी, असंयत तथा कृष्णादि पांच लेश्यावाले जीवोंके काल कहना चाहिये । तात्पर्य यह है कि संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिका काल जो ओघसे कहा है वह इन मार्गणाओंमें भी बन जाता है। किन्तु इन मार्गणाओंमें संख्यातगुणहानि नहीं होती है।
पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तकोंमें संख्यातभागहानिका काल कितना है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भाग है। तथा अवस्थित विभक्तिस्थानका काल सर्वदा है। इसीप्रकार अनुदिशसे लेकर अपराजित तकके देवोंके तथा सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, पांचो स्थावर काय, त्रसलब्ध्यपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंग
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ संजदासंजद-वेदय-मिच्छाइ०-असण्णि-अणाहारि ति ।।
६५२७. मणुस० संखेजभागवड्ढी-संखेजगुणहाणी० के० १ जह• एगसमओ, उक्क० संखेजा समया। सेस० ओघं । मणुसपजत्त-मणुसिणीसु संखेजभागवड्ढीहाणि० संखेगुणहाणि० के० १ जह० एगसमओ, उक० संखेजा समया। अवहि. सव्वद्धा । मणुसअपज० संखेअभागहाणी० के० ? जह० एगसमओ उक्क० आवलि. असंखे० भागो। अवहि० जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो एवं ज्ञानी, संयतासंयत, वेदकसम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके उक्त दोनों स्थानोंका काल कहना चाहिये। तात्पर्य यह है कि इन मार्गणाओंमें संख्यातभागहानि और अवस्थान ही होते हैं, अतः इनमें संख्यातभागहानि और अवस्थानका उक्त काल बन जाता है।
६५२७. मनुष्योंमें संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणहानिका काल कितना है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। मनुष्यों में शेष स्थानोंका • काल ओघके समान है। मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनी जीवोंमें संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका काल कितना है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । तथा अवस्थितका सर्व काल है । लब्ध्यपर्याप्त मनुष्योंमें संख्यातभागहानिका काल कितना है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भाग है। तथा अवस्थितका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भाग है । इसीप्रकार वैक्रियिक मिश्रकाययोगियोंके उक्त दोनों पदोंका काल जानना चाहिये।
विशेषार्थ-मनुष्यों में संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणहानि पर्याप्त और स्त्रीवेदी मनुष्योंके ही होती हैं और इनका प्रमाण संख्यात ही हैं, अतः मनुष्योंमें संख्यातभागवृद्धि
और संख्यातगुणहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है। सामान्य मनुष्योंमें लब्ध्यपर्याप्तक भी सम्मिलित हैं अतः मनुष्योंमें संख्यात भाग हानिका काल ओघके समान बन जाता है। तथा अवस्थितका काल ओघके समान स्पष्ट ही है। मनुष्य पर्याप्त और स्त्रीवेदी मनुष्योंके संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणहानिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय क्यों है इसका कारण ऊपर हमने बतलाया ही है। इनके संख्यातभाग हानिके जघन्य और उत्कृष्ट कालका भी यही कारण जानना चाहिये । तथा इनमें भी अवस्थितका काल ओघके समान बन जाता है। लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य और वैक्रियिकमिश्र ये मार्गणा सान्तर हैं । यदि इन मार्गणाओंमें नाना जीव निरन्तर होते रहें तो तो पन्यके असंख्यातवेंभाग प्रमाण काल तक ही होते हैं । अतः इनमें अवस्थितका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग
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गा० २२
वड्ढिविहत्तीए कालाणुगमो
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वेउब्वियमिस्स० । सबढे संखे०भागहाणी के० १ जह० एगसमओ, उक० संखेजा समया । अवहि० ओघं । एवं परिहार० वत्तव्यं । आहार० अवष्ठि० जह० एगसमओ, उक० अंतोमु०। एवमकसाय०-सुहुम०-जहाक्खाद० वत्तव्यं । अवगद० संखेज भागहाणी-संखे गुणहाणी के० १ जह• एगसमओ, उक्क० संखजा समया। अवधि जह० एयसमओ, उक्क० अंतोमु० । आहारमिस्स. अवहि० जहण्णुक० अंतोमुहुत्तं । प्रमाण बन जाता है। किन्तु संख्यात भागहानि निरन्तर आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक ही होती है, अतः इनमें भी संख्यात भागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है । इन मार्गणाओंमें शेष हानि और वृद्धि नहीं होती। __ सर्वार्थसिद्धिमें संख्यातभागहानिका काल कितना है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। तथा अवस्थितका काल ओघके समान है। इसीप्रकार परिहारविशुद्धि संयत जीवोंके उक्त दोनों पदोंका काल कहना चाहिये । तात्पर्य यह है कि इन मार्गणाओंका प्रमाण संख्यात है अतः इनमें संख्यातभाग हानिका उक्त प्रमाण काल ही घटित होता है। तथा अवस्थितका काल ओघके समान बननेमें कोई आपत्ति नहीं, क्योंकि इन मार्गणाओंमें जीव निरन्तर पाये जाते हैं।
आहारक काययोगी जीवोंके अवस्थित पदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसीप्रकार अकषायी, सूक्ष्मसापरायिकसंयत और यथाख्यातसंयत जीवोंके अवस्थित पदका काल कहना चाहिये। सारांश यह है कि इन मार्गणाओंका नाना जीवोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त ही होता है और इनमें एक अवस्थित पद ही पाया जाता है अतः इनमें मरणकी अपेक्षा अवस्थितका जघन्य काल एक समय और अपने अपने कालकी अपेक्षा उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। ___ अपगतवेदी जीवोंमें संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका काल कितना है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। तथा अवस्थित पदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंके अवस्थित पदका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है।
विशेषार्थ-यदि अपगतवेदी जीव निरन्तर संख्यातभागहानि और संख्यात गुणहानि करें तो संख्यात समय तक ही करते हैं, अतः इनमें संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है। तथा मोहनीय कर्मके साथ अपगतवेदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त पाया जाता है, अतः अपगतवेदमें अवस्थितका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। आहारकमिश्रकाययोगका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है और इसमें
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RAMA
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जयघवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिषिहत्ती २ ६५२८. आभिणि० -सुद० - ओहि. संखेजभागहाणी-संखेजगुणहाणी-अवहि. ओघं । एवमोहिंदंस-सम्मादिहि ति वत्तव्वं । मणपज संखेजभागहाणी-संखेजगुणहाणी-अवहि० मणुसपञ्जत्तभंगो। एवं संजद-सामाइयछेदो० । खइए० संखेजभागहाणी-संखेज गुणहाणी. जह० एगसमओ, उक्कसंखेजा समया । अवहि० के० ? सव्वद्धा । उवसम-सम्मामि० अवष्टि० के० ? जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो। सासण० अवष्टि० जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो। एक अवस्थित पद ही होता है, अतः इसमें अवस्थित पदका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है।
६५२८. मतिज्ञानी श्रुतज्ञानी अवधिज्ञानी जीवोंके संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और अवस्थित पदका काल ओघके समान है। इसीप्रकार अवधिदर्शनी और सम्यग्दृष्टि जीवोंके उक्त तीन पदोंका काल कहना चाहिये। मनःपर्ययज्ञानी जीवोंके संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और अवस्थित पदका काल पर्याप्त मनुष्योंके कहे गये उक्त तीन पदोंके कालके समान है। इसीप्रकार संयत, सामायिकसंयत, और छेदोंपस्थापनासंयत जीवोंके उक्त तीन पदोंका काल कहना चाहिये ।
विशेषार्थ-मतिज्ञानीसे लेकर सम्यग्दृष्टि तक ऊपर जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें संख्यातभागवृद्धिको छोड़कर शेष पदोंका काल ओघके समान इसलिये बन जाता है कि इनका प्रमाण असंख्यात है और इनमें जीव सर्वदा पाये जाते हैं। किन्तु मन:पर्ययज्ञान पर्याप्त मनुष्योंके ही होता है, अतः इसमें सम्भव सब पदोंका काल पर्याप्त मनुष्योंके समान कहा। तथा संयत, सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत ये मार्गणाएँ पर्याप्त और स्त्रीवेदी मनुष्योंके ही होती हैं, अतः इनमें सम्भव सब पदोंका काल भी पर्याप्त मनुष्यों के समान बन जाता है।
क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। तथा अवस्थित पदका काल कितना है ? सर्वदा है। उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यमिथ्यादृष्टि जीवोंके अवस्थित पदका काल कितना है ? जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग है। सासादनसम्यग्दृष्टियोंके अवस्थितपदका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग है। अभव्य जीवोंके अवस्थित पदका काल सर्वदा है।
विशेषार्थ-जब बहुतसे जीव एक साथ क्षपकश्रेणीपर चढ़ते हैं और दूसरे समयमें कोई भी जीव क्षपकश्रेणीपर नहीं चढ़ते तब क्षायिकसम्यक्त्वमें संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्यकाल एक समय प्राप्त होता है। तथा जब अनेक समय तक निरन्तर नाना जीव क्षपकश्रेणीपर चढ़ते रहते हैं तब संख्यातभागहानि और संख्यात
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गा० २२ ]
अभव्व० अवद्वि० सव्वद्धा ।
वढविहत्तीए अंतरानुगमो
एवं कालानुगमो समत्तो ।
५२६. अंतराणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण संखेजभागवी -हाणी० अंतरं के० १ जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । संखे जगुणहाणि ० अंतरं के० ? जह० एगसमओ, उक्क० छमासा । अवट्ठि० णत्थि अंतरं । एवं पंचिदिय-पंचि ० पा०- तस-तसपज ०- पंचमण०- पंचवचि०- कायजोगि ओरालि० - पुरिस०चत्तारिक० - चक्खु ० -अचक्खु०- सुक्क० भवसिद्धि० -सण्णि - आहारि त्ति वत्तव्वं । णवरि पुरस● संखेअगुणहाणि० वासं सादिरेयं ।
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गुणहानिका उत्कृष्ट काल संख्यात समय प्राप्त होता है । क्षायिक सम्यक्त्वमें अवस्थित पदका सर्वदा काल स्पष्ट ही है । तथा उपशमसम्यक्त्व आदिमें अवस्थित पदका जघन्य और उत्कृष्ट काल अपने अपने जघन्य और उत्कृष्ट कालकी अपेक्षा जानना चाहिये ।
इसप्रकार कालानुगम समाप्त हुआ ।
५२. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से ओघसे नाना जीवोंकी अपेक्षा संख्यात भागवृद्धि और संख्यात भागहानिका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । संख्यातगुणानिका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है । तथा सामान्यसे नाना जीवोंकी अपेक्षा अवस्थित पदका अन्तरकाल नहीं है । इसीप्रकार पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिक काययोगी, पुरुषवेदी, क्रोधादि चारों कषायवाले, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि पुरुषवेदी जीवके संख्यातगुणहानिका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक एक वर्ष है ।
विशेषार्थ - सब जीव कमसे कम एक समय तक और अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक मोहनीय कर्मकी संख्यातभागवृद्धि और संख्यात भागहानिको नहीं करते हैं, अतः ओघसे इनका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कहा है । क्षपकश्रेणीका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है, अतः संख्यात गुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना कहा है, क्योंकि संख्यातगुणहानि क्षपकश्रेणीमें ही होती 1 तथा अवस्थितपद सर्वदा पाया जाता है अतः अवस्थित पदका अन्तरकाल नहीं कहा है । ऊपर और जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें यह व्यवस्था बन जाती है। अतः उनमें सब पदका अन्तरकाल ओघके समान कहा है । किन्तु पुरुषवेदी जीव अधिकसे अधिक सांधिक एक वर्ष तक क्षपकश्रेणी
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे । पयडिविहत्ती २ ___५३०. आदेसेण णेरईएसु संग्वेजभागवड्ढी-संखे०भागहाणी० अंतरं के० ? जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । भुजगारम्मि चउवीस अहोरत्तमेत्तरं भुजगारअप्पदराणं परूविदं । एत्थ पुण अंतोमुहुत्तमेत्त, कधमेदं घडदे ? ण एस दोसो, अंतरस्स दुवे उवएसा-चउवीस अहोरत्तमेत्तमिदि एगो उवएसो, अवरो अंतोमुहुत्तमिदि । तत्थ चउवीसअहोरत्तंतर-उवएसेण भुजगारपरूवणं काऊण संपहि अंतोमुहुर्ततर-उवएसजाणावणटं वड्ढीए अंतोमुहुत्तंतरमिदि भणिदं । तेण एदं घडदे। एवं सव्वाणरय-तिरिक्खपंचिं-तिरितिय-देव-भवणादि-जाव उवरिमगेवज०-वेउविय-इत्थि०-णqस०-असंजद. पर नहीं चढ़ते हैं अतः पुरुषवेदमें संख्यातगुणहानिका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक एक वर्ष प्रमाण कहा है।
५३०. आदेशसे नारकियोंमें संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है।
शंका-भुजगार अनुयोगद्वारमें भुजगार और अल्पतरका अन्तरकाल चौबीस दिनरात कहा है पर यहां इन दोनोंका अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्तमात्र कहा है, इसलिये यह कैसे बन सकता है ? ___ समाधान-यह दोष ठीक नहीं है, क्योंकि अन्तरकालके विषयमें दो उपदेश पाये जाते हैं । भुजगार और अल्पतरका उत्कृष्ट अन्तरकाल चौबीस दिनरात है यह एक उपदेश है और अन्तर्मुहूर्त है यह दूसरा उपदेश है। उनमेंसे चौबीस दिनरात प्रमाण अन्तरकालके उपदेश द्वारा भुजगार अनुयोगद्वारका कथन करके अन्तर्मुहूर्त प्रमाण अन्तरकाल रूप उपदेशका ज्ञान करानेके लिये इस वृद्धि नामक अनुयोगद्वार में संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिका अन्सरकाल अन्तर्मुहूर्त है, यह कहा है। इसलिये यह घटित हो जाता है ।
जिसप्रकार सामान्य नारकियोंके संख्यातभागवृद्धि आदि पदोंका अन्तरकाल कहा इसीप्रकार सभी नारकी, तिर्यच सामान्य, पंचेन्द्रिय तियंच, पंचेन्द्रिय पर्याप्त नियंच, योनिमती तियंच, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर उपरिम प्रैवेयक तकके देव, वैक्रियिककाययोगी, स्त्रीवेदी, नपुंसकवेदी, असंयत और कृष्णादि पांच लेश्यावाले जीवोंके संख्यातभागवृद्धि प्रादि पदोंका अन्तरकाल कहना चाहिये।
विशेषार्थ-सामान्य मनुष्योंके संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरके कहनेके पश्चात् भुजगारविभक्ति अनुयोगद्वार में कहे गये भुजगार और अल्पतरविभक्तिके उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनके साथ यहां संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिके बतलाये गये उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्तका विरोध बतला कर उसका समाधान किया गया है सो यह कथन ओघमें भी घटित कर लेना चाहिये। शेष कथन सुगम है, क्योंकि सामान्य नारकियोंसे लेकर पांच लेश्यावाले जीवों तक उक्त मार्गणाओंमें
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गा० २२ ]
वड्ढिविहत्तीए अंतरागुगमो
पंचलेस्सा • वत्तव्वं । पंचितिरि०अपज्ज० संखेज० भागहाणी - अवट्टि० ओघं । एवमणुद्दिसादि जाव अवराइद० सव्वेइंदिय सव्वविगलिंदिय-पंचि० अपज० - पंचकाय०तस अपज० - ओरालिय मिस्स ० - कम्मइय० - मदि-सुद-अण्णाण - विहंग०- परिहार०-संजदासंजद० वेदग०-मिच्छादि ० - असण्णि० - अणाहारि ति । एत्थ अणुद्दिसादि अवराइदंताणं वासु धत्तंतरमिदि केसिं वि पाढो तं जाणिय वत्सव्वं ।
$ ५३१. मणुस - मणुसपजत्तयाण मोघभंगो। एवं मणुसिणीसु । णवरि संखेअगुणहाfe वासपुत्तरं । मणुस अपजत्ताणं दोन्हं पदाणमंतरं जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो ० असंखे० भागो । सव्वट्ठे संखेजभागहाणी० जह० एगसमओ, उक्क पलिदो ० ( (31-) संखे० भागो । अवट्टि णत्थि अंतरं । वेडव्वियमिस्स० संखेजभागहाणि अवद्विद० जह० एगसंख्यात भागवृद्धि और संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट जो अन्तरकाल बतलाया है वह ओघके समान ही है, अतः ओघमें जिसप्रकार घटित कर आये हैं उसीप्रकार यहां भी घटित कर लेना चाहिये । विशेष बात यह है कि इन मार्गणाओंमें अवस्थित पदके विषय में कुछ भी नहीं कहा है । सो इसका यही अभिप्राय है कि यहां भी ओघ के समान अवस्थित पदका अन्तरकाल नहीं पाया जाता है ।
पंचेन्द्रियतियंच लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके संख्यात भागहानि और अवस्थित पदका अन्तकाल ओघके समान है । इसीप्रकार अनुदिशसे लेकर अपराजित तकके देव, सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, पांचों स्थावर काय, त्रसलब्ध्यपर्याप्त, औदारिक मिश्रकाय योगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, वेदगसम्यग्दृष्टि, मिध्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके संख्यात भागहानि और अवस्थित पदोंका अन्तरकाल होता है । यहां पर अनुदिशसे लेकर अपराजित तक के देवोंके संख्यात भागहानिका उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है ऐसा पाठ पाया जाता है सो जानकर कथन करना चाहिये ।
$ ५३१. . मनुष्य और मनुष्यपर्याप्तकोंके संख्यातभागवृद्धि आदिका अन्तरकाल ओघके समान है। इसीप्रकार मनुष्यनियों के संख्यात भागवृद्धि आदिका अन्तरकाल कहना चाहिये। इतनीविशेषता है कि मनुष्य नियोंके संख्यातगुणहानिका अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है । लब्ध्यपर्याप्त मनुष्योंके संख्यातभागहानि और अवस्थित इन दोनोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भाग है ।
सर्वार्थसिद्धिमें संख्यातभागहानिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्के असंख्यातवें भाग है । तथा अवस्थित पदका अन्तरकाल नहीं है ।
वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके संख्यातभागहानि और अवस्थित पदका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल बारह मुहूर्त है । आहारककाययोगी और
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिवित्तौ २ समओ, उक्क० बारसमुहुत्ता। आहार-आहारमिस्स० अवहि. जह० एगसमओ, उक्क. वासपुधत्तं । एवमकसा० जहाक्खाद० वत्तव्वं । अवगद० सव्वपदा० जह० एगसमओ, उक्क० छम्मासा । आभिणि-सुद०-ओहि ओघं। णवरि संखेजभागवड्ढी णस्थि । एवं संजद० सामाइयछेदो०-सम्मादि०-ओहिदंसण । णवरि ओहिणाणी-ओहिदंसणीसु संखेजगुणहाणीए वासपुधत्तं । एवं मणपज्जव० । सुहुमसापराय० अवष्टि० जह एगसमओ, उक्क०छम्मासा । अभव० अवढि० णत्थि अंतरं । खइय० संखेजभागहाणी संखेन्गुणहाणी-अंतरं जह० एगसमओ, उक्क० छमासा । अवहि णत्थि अंतरं । , उवसम० अव४ि० जह० एगसमओ, उक्क० चउवीस अहोरत्ताणि सादिरेयाणि । सासण-सम्मामि० अवहि० जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे भागो।
एवमंतराणुगमो समत्तो । आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंके अवस्थित पदका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है। आहारककाययोगियोंके अवस्थित पदके अन्तरकालके समान अकषायी और यथाख्यात संयत जीवोंके अवस्थित पदका अन्तरकाल कहना चाहिये । अपगतवेदी जीवोंके सम्भव सभी पदोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है ।
मतिज्ञानी श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंके पदोंका अन्तरकाल ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि इन मार्गणावाले जीवोंके संख्यातभागवृद्धि नहीं होती है। इसीप्रकार संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, सम्यग्दृष्टि और अवधिदर्शनी जीवोंके संभव पदोंका अन्तरकाल होता है। इतनी विशेषता है कि अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी जीवोंके संख्यातगुणहानिका अन्तरकाल वर्षपृथक्त्त्व है। जिसप्रकार अवधिज्ञानियोंके पदोंका अन्तरकाल कहा उसी प्रकार मनःपर्ययज्ञानी जीवोंके संभव पदोंका अन्तरकाल होता है।
सूक्ष्मसांपरायिक संयतोंके अवस्थितपदका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है। अभव्य जीवोंके अवस्थित पदका अन्तरकाल नहीं है।
क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है। क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके अवस्थितपदका अन्तरकाल नहीं है । उपशम सम्यग्दृष्टि जीवोंके अवस्थितपदका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक चौबीस दिनरात है। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके अवस्थितपदका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भाग है।
इसप्रकार अन्तरानुगम समाप्त हुआ।
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गा० २२] वड्ढिविहत्तीए अप्पावहुगाणुगमो
४७६ ६५३२. भावाणुगमेण दुविहो णिदेसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सबपदाणं सव्वत्थ ओदइओ भावो।
___ एवं भावाणुगमो समत्तो। ६५३३. अप्पाबहुगाणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सव्वत्थोवा संखेज्जगुणहाणिविहत्तिया । संखेज्जभागहाणि असंग्वेज्जगुणा । संखेज्जभागवड्ढी. विसेसाहिया । अवडिद० अणंतगुणा । एवं कायजोगि०-ओरालि०चत्तारिक०-अचक्खु०-भवसिद्धि० आहारि ति ।
५३४. आदेसेण णेरइएसु सव्वत्थोवा संखेज्जभागहाणी । संखेज्जभागवड्ढी० विसेसाहिया। अवहि० असंखेज्जगुणा । एवं सव्वणिरय-पंचिंदिय तिरिक्खतिय-देवा भवणादि जाव णव गेवज्ज०-वेउब्विय-इत्थि०-तेउ०-पम्म० वत्तव्यं ।
६५३५.तिरिक्खेसु सव्वत्थोवा संखेज्जभागहाणि०, वड्ढी० विसेसा०, अवहि० अणंतगुणा । एवं णवूस०-असंजद-तिण्णि लेस्सा त्ति । पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज०
६ ५३२. भावानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा सभी पदोंमें सर्वत्र औदयिक भाव है।
इसप्रकार भावानुगम समाप्त हुआ। ६५३३. अल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा संख्यातगुणहानिविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। संख्यातभागहानिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातभागवृद्धिविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे अवस्थित विभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे हैं । इसीप्रकार काययोगी, औदारिककाययोगी, क्रोधादि चारों कषायवाले, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंके संख्यातभागवृद्धि आदि पदोंकी अपेक्षा अल्पबहुत्व कहना चाहिये।
६५३४. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें संख्यातभागहानिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातभागवृद्धिविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इसीप्रकार सभी नारकी, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त और योनिमती तियंच, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके देव, वैक्रियिककाययोगी, स्त्रीवेदी, पीतलेश्यावाले और पद्मलेश्यावाले जीवोंके संख्यातभागहानि आदि उपर्युक्तं तीन पदोंकी अपेक्षा अल्पबहुत्व कहना चाहिये ।।
५३५.तियंचोंमें सबसे थोड़े संख्यातभागहानिविभक्तिवाले जीव हैं। इनसे संख्या तभागवृद्धिविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे अवस्थितविभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे हैं। इसीप्रकार नपुंसकवेदी, असंयत और कृष्ण आदि तीन लेश्यावाले जीवोंके उपयुक्त तीन पदोंकी अपेक्षा अल्पबहुत्व कहना चाहिये।
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४८०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडीविहत्ती २ सव्वत्थोवा संखेज्जभागहाणि । अवढि० असंखेज्जगुणा । एवं मणुस्सअपज्ज०अणुदिसादि जाव अवराइद०-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदिय-अपज्ज०-चत्तारिकाय-तसअपज्ज०-वेउव्वियमिस्स-विहंग०-संजदासजदाणं वत्तव्वं ।
५३६. मणुस्सेसु सव्वत्थोवा संखेज्जगुणहाणि । संखेजमागवड्ढी० संखेजगुणा । संखेजभागहाणि• असंखेजगुणा। अवष्टि० असंखेजगुणा। मणुमपज० मणुसिणीसु सव्वत्थोवा संखेजगुणहाणी० । संखेजभागवड्ढी० संखेजगुणा । संखेजभागहाणि० संखे० गुणा । अवष्टि० संखे० गुणा। सबढे सव्वत्थोवा संखेजभागहाणी० । अवष्टि० संखे० गुणा।।
५३७. एइंदिय-बादरेइंदिय - बादरेइंदियपजत्तापजत्त - सुहुमेइंदिय - सुहुमेइंदियपत्तापजत्तएसु सव्वत्थोवा संखेजभागहाणी० । अवट्टि० अणंतगुणा । एवं सव्ववणप्फदि०-सव्वाणिगोद०-ओरालियमिस्स-कम्मइय०-मदि-सुद-अण्णाण -मिच्छादि०असण्णि-अणाहारि त्ति । णवरि बादरवणप्फदिपत्तेयसरीरेसु असंखेजगुणं कायव्यं ।
पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तकों में संख्यातभागहानिविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य, अनुदिशसे लेकर अपराजित तकके देव, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, पृथिवीकायिक आदि चार स्थावरकाय, त्रस लब्ध्यपर्याप्त, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, विभंगज्ञानी और संयतासंयत जीवोंके उक्त दोनों पदोंकी अपेक्षा अल्पबहुत्व कहना चाहिये।
६५३६. मनुष्योंमें संख्यातगुणहानिविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातभागवृद्धिविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातभागहानिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थित विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियों में संख्यातगुणहानिविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातभागवृद्धिविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यातभागहानिविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे अवस्थितविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं । सर्वार्थसिद्धि में संख्यातभागहानिविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अवस्थितविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं।
६ ५३७. एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रियपर्याप्त, बादर एकेन्द्रियअपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रियपर्याप्त और सूक्ष्म एकेन्द्रियअपर्याप्त जीवोंमें संख्यातभागहानिविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अवस्थितविभक्तिवाले जीव अनन्तगुने हैं। इसीप्रकार सभी वनस्पति, सभी निगोद, औदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके उक्त दो पदोंकी अपेक्षा अल्पबहुत्व कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि वादरवनस्पति प्रत्येकशरीर जीवोंमें संख्यातगुणहानिवाले जीवोंसे अवस्थितपदवाले जीवोंको असंख्यातगुणा कहना चाहिये।
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गा० २२] पड्ढिविहत्तीए अप्पाबहुगाणुगमो
४८१ ६५३८. पंचिंदिय-पचिपज-तस-तसपज-ओघभंगो । णवरि अवष्टि० असंखे० गुणा । एवं पंचमण०-पंचवचि०-पुरिस०-चक्खु०-सुक्क० सण्णि. वत्तव्वं आहार०आहारमिस्स० अवहि० णत्थि अप्पाबहुअं। एवमकसा०-सुहुम-सांपराय०-जहाक्खादअभवसिद्धि०-उवसम०-सासण-सम्मामि० दिहीणं वत्तव्यं । ___५३६. अवगद० सव्वत्थोवा संखेजगुणहाणी० । संखेजभागहाणी संखेजगुणा। अवहि. संखेजगुणा। एवं मणपज्जव०-संजद०-सामाइयछेदो० वत्तव्वं । आभिणि०सुद०-ओहि सव्वत्थोवा संखेजगुणहाणी। संखेजभागहाणी असंखेजगुणा । अवट्टि असंखेगुणा । एवमोहिदंसण० सम्मादि०त्ति वत्तव्वं । परिहार० सव्वट्ठभंगो। खइय० सव्वत्थोवा संखेजगुणहाणी । संखेजभागहाणी संखेजगुणा । अवहि० असंखेजगुणा।
५३८. पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस और त्रसपर्याप्त जीवों में संख्यातभागवृद्धि आदि पदोंकी अपेक्षा अल्पबहुत्व ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि यहां पर संख्यातभागवृद्धिवाले जीवोंसे अवस्थित पदवाले जीव अनन्त गुणे न होकर असंख्यातगुणे होते हैं। इसीप्रकार पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, पुरुषवेदी, चक्षुदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले और संज्ञी जीवोंके उक्त पदोंकी अपेक्षा अल्पबहुत्व कहना चाहिये।
आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें एक अवस्थित पद ही है, इसलिए अल्पबहुत्व नहीं है। इसीप्रकार अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, अभव्य, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके एक अवस्थित पद होनेके कारण अल्पबहुत्व नहीं है यह कहना चाहिये।
६५३६. अपगतवेदियोंमें संख्यातगुणहानिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातभागहानिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थितपदवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंके सक्त पदोंकी अपेक्षा अल्पबहुत्व कहना चाहिये ।
मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें संख्यातगुणहानिवाले जीब सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातभागहानिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थितपदवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार अवधिदर्शनी और सम्यग्दृष्टि जीवोंके उक्त सीन पदोंकी अपेक्षा अल्पबहुत्व कहना चाहिये। __परिहारविशुद्धिसंयतोंके सम्भव पदोंकी अपेक्षा अल्पबहुत्व सर्वार्थसिद्धिके देवोंके कहे गये अल्पबहुत्वके समान होता है। क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें संख्यातगुणहानिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातभागहानिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थित पदवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके संभवपदोंकी अपेक्षा अल्पबहुत्व
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जयघपलासहिदे कसायपाहुडे
[ पयडिविहत्ती २
वेदय पंचिंदियतिरिक्ख अपजत्तभंगो।
एवमप्पाबहुअं समत्तं । एवं पयडिविहत्ती समत्ता।
पंचेन्द्रियतिथंच लब्ध्यपर्याप्तकोंके कहे गये अल्पबहुत्वके समान है।
इसप्रकार अल्पबहुत्व समाप्त हुआ।
इसप्रकार प्रकृतिविभक्ति समाप्त हुई ।
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१ पयडिविहत्तिगयगाहा-चुरिणसुत्ताणि पंगदीए मोहणिज्जा विहत्ति तह हिदीए अणुभागे ।
उक्कस्समणुकस्सं झीणमझीणं च हिदियं वा ॥२२॥ चु० सु०-संपहि, एदिस्से गाहाए अत्थो वुच्चदे। तं जहा, मोहणिजपयडीए विहत्तिपरूवणा, मोहणिजहिदीए विहत्तिपरूवणा, मोहणिजअणुभागे विहत्तिपरूवणा च कायव्वा त्ति एसो गाहाए पढमद्धस्स अत्थो। एदेहि तिहि वि अत्थेहि एक्को चेव अत्थाहियारो । 'उक्कस्समणुकस्सं' चेदि उत्ते पदेसविसय-उकस्साणुक्कस्साणं गहणं कायव्वं; अण्णेसिमसंभवादो। पयडि-द्विदि-अणुभाग-पदेसाणमुक्कस्साणुक्कस्साणं गहणं किण्ण कीरदे ? ण, तेसिं गाहाए पढमत्थे (-द्धे ) परूविदत्तादो। एदेण पदेसविहत्ती सूइदा । 'झीणमझीणं' त्ति उत्ते पदेसविसयं चेव झीणाझीणं घेत्तव्वं; अण्णस्स असंभवादो। एदेण झीणाझीणं सूचिदं। 'हिदियं' त्ति वुत्ते जहण्णुक्कस्सष्टिदिगयपदेसाणं गहणं । एदेण हिदियंतिओ सूइदो। एदे तिण्णि वि अत्थे घेत्तूण एक्को चेव अत्थाहियारो; पदेसपरूवणाद्वारेण एयत्तुवलंभादो । एसो गुणहरभडारएण णिदित्थो ।। ___ 'विहत्तिहिदि अणुभागे च त्ति' अणियोगद्दारे विहत्ती णिक्विवियब्वा । णाम विहत्ती ढवणविहत्ती दव्वविहत्ती खेत्तविहत्ती कालविहत्ती गणणविहत्ती संठाणविहत्ती भावविहत्ती चेदि । ____णोआगमदो दव्वविहत्ती दुविहा, कम्मविहत्ती चेव णोकम्मविहत्ती चेव । कम्म विहत्ती थप्पा। तुल्लपदेसियं दव्वं तुल्लपदेसियस्स अविहत्ती। वेमादपदेसियस्स विहत्ती । तदुभयेण अवत्तव्वं । खेत्तविहत्ती तुल्लपदेसोगाढं तुल्लपदेसोगाढस्स अविहत्ती। कॉलविहत्ती तुल्लसमयं तुलसमयस्स अविहत्ती । गणणविहत्तीए एक्को एकस्स अविहत्ती।
संठाणविहत्ती दुविहा संठाणदो च, संठाणवियप्पदो च । संठाणदो वह वहस्स अविहत्ती । व तंसस्स वा चउरंसस्स वा आयदपरिमंडलस्स वा विहत्ती। वियप्पेण वसंठाणाणि असंखेजी लोगा। एवं तंस-चउरंस-आयदपरिमंडलाणं। सरिसव सरिसवहस्स अविहत्ती। एवं सव्वत्थ ।
जा सा भावविहत्ती सा दुविहा, आगमदो य णोऑगमदो य । आगमदो उवजुत्तो पाहुडजाणओ। णोआगमदो भावविहत्ती ओदइओ ओदइयस्स अविहत्ती । ओदईओ उपसमिएण भावेण विहत्ती । तदुभएण अवत्तव्वं । एवं सेसेसु वि । एवं सव्वत्थ ।२।
जा सा दव्वविहत्तीए कम्मविहत्ती तीए पयदं । तत्थ सुत्तगाहा
(१) पृ० १ । (२) पृ० २ । (३) पृ० ४। (४) पृ० ५। (५) पृ० ६ । (६) प०७ । (७) पृ० ८। (८) पृ० ९। (९) पृ० १० । (१०) पृ० ११ । (११) पृ० १२ । (१२) पृ० १३ । (१३) पृ० १६ ।
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५८६
अयधवलासहिदे कसायपाहुडे
पयडीए मोहणिज्जा विहत्ती तह हिदीए अणुभागे ।
उक्कस्समणुकस्सं झीणमझीणं च हिदियं वा ॥२२॥ पदच्छेदो । तं जहा-'पयडीए मोहणिज्जा विहत्ति' त्ति एसा पयडिविहत्ती १ । 'तह हिदि' चेदि एसा द्विदिविहत्ती २। 'अणुभागे' त्ति अणुभागविहत्ती ३ । 'उकस्समणुक्कस्सं' त्ति पदेसविहत्ती ४ । 'झीणमझीणं त्ति ५। हिदियं वा ति ६। तत्थ पयडिविहत्तिं पण्णइस्सामो।
पैयडिविहत्ती दुविहा, मूलपयडिविहत्ती च उत्तरपयडिविहत्ती च । मुलपयडिविहत्तीए इमाणि अठ्ठ अणियोगद्दाराणि । तं जहा-सामित्तं कालो अंतरं, णाणाजीबेहि भंगविचओ कालो अंतरं भागाभागो अप्पाबहुगेत्ति । एदेखें अणिओगद्दारेसु परूविदेसु मूलपयडिविहत्ती समत्ता होदि ।
तदो उत्तरपयडिविहत्ती दुविहा, एगेग उत्तरपयडिविहत्ती चेव षयडिट्ठाण उत्तरपयडिविहत्ती चेव । तत्थ एगेग उत्तरपयडिविहत्तीए इमाणि अणियोगद्दाराणि । तं जहा, एगजीवेण सामि कालो अंतरं, णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमो परिमाणाणुगमो खेत्ताणुगमो पोसणाणुगमो कालाणुगमो अंतराणुगमो सण्णियासो अप्पाबहुए त्ति । एदेसु अणियोगद्दारेसु परूविदेसु तदो एगेगउत्तरपयडिविहत्ती समत्ता।
पयडिहाणविहत्तीए इमाणि अणियोगद्दाराणि । तं जहाँ, एगजीवेण सामित्तं कालो अंतरं, णाणाजीवेहि भंगविचओ परिमाणं खेत्तं फोसणं कालो अंतरं अप्पाबहुअं मुजगारो पदणिक्खेओ वढि त्ति ।
पेयडिट्ठाणविहत्तीए पुव्वं गमणिजा ठाणसमुकित्तणा। अत्थि अट्ठावीसाए सत्तावीसाए छव्वीसाए चउवीसाए तेवीसाए बावीसाए एकवीसाए तेरसण्हं वारसण्हं पंचण्हं चदुण्हं तिण्हं दोण्हं एकिस्से च १५ । एदे ओघेण।
एकिस्से विहत्तिओ को होदि ? लोहसंजलणो। दोण्हं विहत्तिओ को होदि ? लोहो माया च । तिण्हं विहत्ती लोहसंजलण-माणसंजलण - मायासंजलणाओ। चउण्हं विहत्ती चत्तारि संजलणाओ। पंचण्हं विहत्ती चत्तारि संजलणाओ पुरिसवेदो च । एक्कारसण्हं विद्वत्ती एदाणि चेव पंच छण्णोकसाया च । बारसण्हं विहत्ती एदाणि चेव इत्थिवेदो च। तेरसण्हं विहत्ती एदाणि चेव णqसयवेदो च। एकवीसाए विहत्ती एदे चेव अटकसाया च । सम्मत्तेण वावीसाए विहत्ती। सम्मामिच्छत्तेण तेवीसाए विहत्ती। मिच्छत्तेण चदुवीसाए विहत्ती। अठ्ठावीसादो सम्मत्तसम्मामिच्छत्तेसु अवणिदेसु छव्वीसाए विहत्ती। तत्थ सम्मामिच्छत्ते पक्खित्ते सत्तावीसाए
(१) पृ० १७ । (२) पृ० १८ । (३) पृ० २० । (४) पृ० २२ । (५) पृ० २३ । (६) पृ० ८० (७) १० ८२। (८) पृ० १९९। (९) पृ० २०१। (१०) पृ० २०२। (११) पृ० २०३। (१२) १० र
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४८७
परिसिहाणि विहत्ती। सव्वाओ पयडीओ अहावीसाए विहत्ती। संपहि एसा २८ २७ २६ २४ २३ २२ २१ १३ १२ ११ ५ ४ ३ २१। एवं गदियादिसु णेदव्वा ।
सौमित्तं तिजं पदं तस्स विहामा पढमाहियारो।" तं जहा-एक्किस्से विहत्तिओ को होदि ? णियमा मणुस्सो वा मणुस्सिणी वा खवओ एक्किस्से विहत्तिए सामिओ। ऎवं दोण्हं तिण्हं चउण्हं पंचण्हं एक्कारसण्हं बारसण्हं तेरसण्हं विहत्तिओ) एक्कावीसाए विहत्तिओ को होदि ? खीणदंसणमोहणिज्जो। बावीसाए विहत्तिओ को होदि ? मणुस्सो वा मणुस्सिणी वा मिच्छत्ते सम्मामिच्छत्ते च खविदे समत्ते सेसे । तेवीसाए विहत्तिओ को होदि ? मणुस्सो वा मणुस्सिणी वा मिच्छत्ते खविदे सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ते सेसे । चउवीसाए विहत्तिओ. को होदि ? अणंताणुबंधिविसंजोइदे सम्मादिट्टी वा सम्मामिच्छादिट्टी वा अण्णयरो। छव्वीसाए विहत्तिओ को होदि ? मिच्छाइट्टी णियमा । सत्तावीसाए विहत्तिओ को होदि ? मिच्छाइट्टी । अष्टावीसाए विहत्तिओ को . होदि ? सम्माइही सम्मामिच्छाइट्ठी मिच्छाइटी वा ।
कोलो। एवं दोण्हं तिण्हं चदुण्हं विहत्तियाणं । पंचण्हं विहत्तिओ केवचिरं कालादो? जहण्णुक्कस्सेण दो आवलियाओ समयूणाओ।ऐक्कारसण्हं बारसण्हं तेरसण्हं विहत्ती केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । णवरि बारसण्हं विहत्ती केवचिरं कालादो ? जहण्णेण एगसमओ । एक्कावीसाए विहत्ती केवचिरं कालादो ? जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण तेतीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । बावीसाए तेवीसाए विहत्तिओ केवचिरं कालादो ? जहण्णुक्कसेणंतोमुहुत्तं । चेउवीसविहत्ती केचिरं कालादो ? जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण वेछावष्टि सागरोवमाणि सादिरेयाणि । छैचीसविहत्ती केवचिरं कालादो ? अणादि-अपज्जवसिदो । अणादिसपज्जवसिदो। सादिसपज्जवसिदो। तत्थ जो सादिओ सपज्जवसिदो जहण्णेण एगसमओ। उक्करसेण उवह पोग्गलपरियह । सत्तावीसविहत्ती केवचिरं कालादो ? जहण्णेण एगसमओ । उँकम्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । अहावीसविहत्ती केवचिरं कालादो होदि १ जहण्णेण अतामुहत्तं । उक्कस्सेण वे छावहि सागरोवमाणि सादिरेयाणि । __अंतराणुगमेण एक्किस्से विहत्तीए णत्थि अंतरं। ऐवं दोण्हं तिण्हं चउण्हं पंचण्हं एक्कारसण्हं वारसण्हं तेरसण्हं एकवीसाए बावीसाए तेवीसाए विहत्तियाणं । चउवीसाए विहत्तियस्स केवडियमंतरं ? जह० अंतोमुहुत्तं । उक्कम्सेण उवटपोग्गलपरि
(१) पृ० २०५ । (२) पृ० २१० । (३) पृ० २११ । (४) पृ० २१२ । (५) पृ० २१३ । (६) पृ० २१७ । (७) पृ० २१८ । (८) पृ० २२१ । (९) पृ० २३३ । (१०) पृ० २३७ । (११) पृ० २४३ । (१२) पृ० २४४ । (१३) पृ० २४६ । (१४) पृ० २४७ । (१५) पृ० २४८ । (१६) पृ० २४९ । (१७) प० २५२ । (१८) पृ० २५३ । (१९) पृ० २५४ । (२०) प० २५५ । (२१) पृ० २८१ । (२२) पृ० २८२ ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
य देसूणमद्धपागल परियहं । छब्वीसविहत्तीए केवडियमंतरं ? जहण्णेण पलिदो ० असंखे ० भागो । उक्करसेण वेद्यावद्धि सागरोवमाणि सादिरेयाणि । सत्तावीसविहत्तीए केवडयमंतरं ? जहणेण पलिदो ० असंखे० भागो । उक्कस्सेण उवड्ढ पोग्गल परियहं । अट्ठावीसविहत्तियस्स जहणणेण एगसमओ । उक्कस्सेण उवड्ढपोग्गलपरियहं ।
४८८.
णाणाजीवेहि भंगविचओ । जेसिं मोहणीयपयडीओ अत्थि तेसु पयदं । संव्वे जीवा अट्ठावीस - सत्तावीस छव्वीस - चउवीस-एक्कवीस संत कम्मविहत्तिया णियमा अस्थि । सेहित्तिया भजियव्वा ।
साणिओगद्दाराणि दव्वाणि ।
अप्पा बहुअं ।
संव्वत्थोवा पंचसंतकम्मविहत्तिया । एक्कसंतकम्मविहत्तिया संखेज्जगुणा । "दोहं संतकम्मविहत्तिया विसेसा० । तिण्हं संतकम्मविहत्तिया विसेसाहिया । ऐकारसहं संतकम्मविहत्तिया विसेसाहिया । बोरसहं संतकम्मविहत्तिया विसेसाहिया | चंदुहं संतकम्मविहत्तिया संखेञ्जगुणा । तेरसहं संतकम्मविहतिया संखेजगुणा । बौवीससंतकम्मविहत्तिया संखेजगुणा । तेवीसीए संतकम्मविहत्तिया विसेसाहिया । सत्तावीसाए संतकम्मविहत्तिया असंखेजगुणा । एकवीसाए संतकम्मविहत्तिया असंखेजगुणा । चउबीसाए संतकम्मिया असंखे० गुणा । अट्ठावीस संतकम्मिया असंखेज्जगुणा । छेवीसविहत्तिया अनंतगुणा ।
गारो अप्पद अवहिदो कायन्वो !
स्थ एगजीवेण कालो। भुजगार संतकम्मविहत्तिओ केवचिरं कालादो होदि ? जहoyकस्सेण एगसमओ । अप्पदरसंतकम्मविहत्तिओ केवचिरं कालादो होदि ? जहणेण एसओ । उक्कस्सेण वे समया । अवद्विद संतकम्मविहत्तियाणं तिष्णि भंगा। तत्थ जो सो सादिओ सपञ्जवसिदो तस्स जह० एगसमओ । उक्कस्सेण उवड्ढपोग्गलपरियडुं । एवं सव्वाणि अणिओगद्दाराणि दव्वाणि । दणिक्खेवे वढी च अणुमग्गिदाए समत्ता पयडिविहत्ती |
><
(१) पृ० २८३ । (२) पृ० २८४ । (३) पृ० २८५ । (४) पृ० २८६ । (५) पृ० २९२ । (६) पृ० २९३ ॥ (७) पृ० ३१६ । (८) ० ३५२ । ( ९ ) पृ० ३५९ । (१०) पृ० ३६२ ॥ (११) पृ० ३६३ । (१२) पृ० ३६४ । (१३) पृ० ३६५ । (१४) पृ० ३६६ । (१५) पृ० ३६८ । (१६) पृ० ३६९ । (१७) पृ० ३७० । (१८). पू० ३७२ | (१९) पृ० ३७४ | (२०) पू० ३७५ । (२१) पू० ३८४ । (२२) पृ० ३८७ । (२३) पृ० ३८८ । (२४) पृ० ३८९ । (२५) पृ० ३९० । (२६) पृ० ३९७ । (२७) पृ० ४२५ ।
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परिसिहाणि
४८६
२ अवतरण सूची
पृष्ठ
क्रमसंख्या अवतरण पृष्ठ । क्रमसंख्या अवतरण पुष्ठ। क्रमसंख्या अवतरण ए १ एकोत्तर पदवद्धो-३०९ । म ४ भयणिज्जपदा
स ६ सूत्रानीतविकख २ खेतं खलु आगासं- ७
तिगुणा
२९३
ल्पेष्वेकन ३ निरस्यंती परस्यार्थ-२१७ ५ मंगायामपमाणो- ३०८ ।
३१०
३ ऐतिहासिक नाम सूची
उ
ग
च
उच्चारणाचार्य २२,
८१२०५, २३,२१०, २१५, २२२, २५६, २८६, ३९७,४१७,
४२५,
गणधर३, १८, १९ । यतिवषभ गौतमस्वामी २११, चणिसूत्राचार्य २०५,
२०९, बप्पदेव
४२०, यतिवृषभ ४, ५, १४,
१६, १८,
१९, २२, २३, ८१, २०२, २१५,
२२२, २५६, ३५२, ३५८, ३८४, ३९१, ३९७, ४२५,
४ ग्रन्थनामोल्लेख
उ
उच्चारणा
२०९,२८६, ३१६, ३७५, ३९१,३९७, ४२०, ४२५,
ख च
खुट्टाबंध चुण्णिसुत्त
३२, ४,१६, १९, २०९, २१५, २१९, २५६,
२८७, ३१६,
३७५, ३६१, १९९,
ज म
जीवद्वाण महाबंध
५ गाथा-चूर्णिसूत्रगत शब्दसूची
१२,
अ अट्ठ
२२, २०३ अणुक्कस्स १, १७, अवट्टिदसंतकम्मविहतिय अट्ठावीस २०१, २०४, अणुभाग १, ४, १७, १८,
३८९, २२१, २९३, अणभाविहत्ती १८, अवत्तव्व ७, १३, अट्ठावीसविहत्ती (हत्तिय) अणंताणबंधिविसंजोइद ।
अविहत्ती ६, ७, ८, ११, २५५, २८५,
२१८अठ्ठावीससंतकम्मिय ३७४, अणंतगण ३७५, असंखेज्ज
१० अण्णयर
२१८, अद्धपोग्गल परियट्ट २८२, असखेज्जदि भागो २५ , अणादि अपज्जवसिदो। अप्पदर
२८३, २८४, २५२, जप्पदरसंतकामविहतिय
असंखेज्जगुण ३६९, ३७० अणादि सपज्जवसिदो
३८८,
३७२, ३७४, २५२, अप्पाबहुग २२, ८०,
आ आगम
१२, अणियोगद्दार ४, २२, २३
१९९ ३५२, आयदपरिमण्डल १०,११, ८०,८२, ३१६, ३९७ अवट्टिद
३८४, इ इत्थिवेद
२०३, (१) सर्वत्र स्थूल संख्यांक गाथागत शब्दोंके और सूक्ष्म संख्याङ्क चणिसूत्र गत शब्दोंके पृष्ठके सूचक है। जिस शब्द को काले टाइपमें दिया है उसकी व्युत्पत्ति या परिभाषा चर्णि सूत्र में आई है।
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४६०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
पद
उ उक्कस्स १, १७, २४७,
२४९, २५३, २५४, २५५, २८२, २८४,
२८६, ३९०, उत्तरपयडिविहत्ती २०
८०, उवजुत्त
१२, उवट्ट
२५३, उवट्टपोग्गलपरियट्ट २८२,
२८४, २८६, ३९, उवसमिअ . १३, ए एक्क ८, २०१, २०२, एक्कवींस-एक्कावीस
२०१, २०३, २४७,
२८२, २९३, ३७०, एक्कसंतकम्मविहत्तिय
३५९, एक्कारस २०१, २०३,
२१२, २४४, २८२,
गदियादि च चउरंस १०, ११
चउवीसविहत्ती २४९, चदु (चउ) २०१, २१२,
२३७, २८२, ३६५, चवीस २०१, २०४,
२८२, २९३, ३७२, छ छण्णोकसाय २०३,
छब्बीस २०१, २०४,२९३, छव्वीसविहत्ती २५२,
२८३, ३७५, ज जहण्ण २४६, २४७,
२४९, २५३, २५४, २५५, २८३, २८४,
२८५, ३८८, ३९०, जहण्णुक्कस २४३, २४४,
२४८, ३८८, जीव
२९३, म झीणमझीण १,१७, १८, ट ट्ठवणविहत्ती ४,
ट्ठाणसमुक्कित्तणा २०१, दिदि १,४,१७, ट्रिदिय १,१७, १८, द्विदिविहत्ती १७, __णवंसयवेद २०३,
णामविहत्ती णियम २११,२२१,२९३, णो आगम ५, १२,
णोकम्मविहत्ती ५, त तदुभय ७, १३,
३६३,
पगदि पढमाहियार २१०,
२१०, पदच्छेद पदणिक्खेव १९९, ४२५, पयडि १७, २०४, पयव १३, २९३, पयडिविहत्ती १७, १८,
२०, ४२५, पयडिट्राण उत्तरपयडि विहत्ती
८०, पयडिट्ठाणविहत्ती १९९,
२०१, परिमाणाणगम ८०, परिमाण पलिदोवम २५५, २८३,
२८४, 'चसंतकम्मविहत्तिय ३५९, पंच २०१, २०३, २१२,
२४३, पाहुड जाण
१२, पुरिसवेद
२०३, पुव्व पोग्गलपरियट्ट पोसणाणुगम
८०, फ फोसण
बारस २०१,२०३, २१२, २४४, २४६, २८२, ३६४, वावीससंत कम्मविहत्तिय
३६८, भ भग
३८९, भंगविचअ २२, १९९,
२९२, भागाभाग भाव
१३, भावविहतो
१२, भुजगार १२९, ३८४, भुजगारसंतकम्मविहत्ति
३८८, म मणुस्स २११, २१३,
२१७, मणुरिसणी २११, २१३,
२१७, माणसंजलण
२०२, माया
२०२, मायासंजलण मिच्छत्त २०४,
२५३,
तह
एग जीव ३८७, एगसमअ २४६, २५३, २५४, २८५, ३८८,
३९०, एगेग उत्तरपडिविहत्ती
८०, ८२, ओ ओघ
२०१, ओदइअ १२, १३, अं अंतर २२, ८०, १९९,
२८१, २८२, २८३, अंतराणुगम ८०, २८१, अंतोमुहुत्त २४४, २४७, २४८, २४९, २५५,
२८२, क कम्मविहत्ती ५, ६, १६, कसाय
२०३, काल २२, ८०, १९९,
२४३, २४४, २४६, २४७, २४८, २४९, २५३, २५४, २५५,
३८७, ३८८ कालविहत्ती ४, ८, कालाणुगम
८०, ख खवअ
२११, खीणदंसणमोहणिज्ज २१२, खेत्त खेत्तविहन्ती ४, ७, खेत्ताणुगम
८०, ग गणणविहत्ती ४,८,
२२,
ति २०१, २०२, २३७,
____२८२, ३६२, तुल्लपदेसिय तुल्लपदेसोगाढ तुल्लसमय
८, तेतीस तेवीस २०१, २०४, २१७,
२४८, २८२, ३६९, तेरस २०१, २०३, २१२,
२४४, २८२, ३६६, तंस
१०,११,
२४७,
~u
दव्व
०
दव्वविहत्ती ४, ५, १६, दुविहा ५, ९, १२, २०, दो २०१, २०५, २१२,
२३७, २८२, ३६२, दोआवलिय २४३, देसूण
२०२, २१३, २१७, २२१,
२८२,
मिच्छाइट्ठी
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परिसिठ्ठाणि
४६१
मुलपयडिविहत्ती २०,२२, ।
२३, मोहणिज्ज १,१७,
मोहणीयपय डि ल लोग लोह
२०२, लोहसंजलण
१०, वट्टमंठाण
१९९, ४२५, वावीस २०१, २०४, २१२,
२४८, २८२, वियप्प विसेसाहिय ३६२, ३६३,
२०२,
वडि
विहासा २१०, वेमादपदेसिय ६, वेछावट्ठि २४९, २५५,
२८४, सण्णियास ८०, सत्तावीस २०१, २०४, २२१, २९३, ३६९, सत्तावीसविहत्ती २५४,
२८४, सपज्जवसिदो २५३, ३९. समयूण
२४३, सम्मत्त २०४, २१३,
२१७, सम्मामिच्छत्त २०४,२१३,
२१७, सम्मादिट्ठी २१८, २२१, सम्मामिच्छादिट्ठी २१८,
संखेज्जगुण ३६५, ३६६,
३६८, संजलण २०२, २०३, संठाण संठाणवियप्प संठाणविहत्ती संतकम्मिय ३७२, संतकम्मविहत्तिय २९३, ३६२, ३६३, ३६४, ३६५,
३६६, ३६९, ३७०, सागरोवम २४७, २४९,
२५५, २८४, सादि. २५३, ३९०, सादिरेय २४७, २४९
२५५, २८४, सादिसपज्जवसिदो २५२, सामिअ
२११, सामित्त २२, ८०, १९९,
२१०, सुत्तगाहा
विहत्ति (विहत्ती) १,४, ६, १०, १३, १७, २०२ २०३, २०४, २११, २४४, २४६, २४ २८१, वित्तिय २०२, २१०, २१२, २१७, २१८, २२१, २३७,२४३, २४८, २८२,
२९३,
२२१
सरिसवट्ट ११, सव्व २०४, २९३, ३९७, सव्वत्थ ११, १३,
७ जयधवलागत-विशेषशब्दसूची
३९०,
४७९,
अक्खपरावत्त अस्थाहियार २, १७, १९, असंकम
२३४, अजहण्णविहत्ति ८९,
२२, अस्सकण्णकरण २३५,२३८, अण्णदर २१९, अद्धपोग्गलपरियट्ट ३९७, श्रा आउअ
२१, अणादिअ २४,८९, अद्धव २४, ८९, आउत्तकरण २३४, अणिओगद्दार ८०, ८१, अदिरेगपमाण २५०,
आगम
१२, २००, ४२५, ४३७, अप्पदर
३८९, आगमविहत्ती ५, १२, अणिर्याटकाल ३६८, अप्पाबहुअ
४३३, आणुपुस्विसंकम २३४, अणुक्कस्सविहत्ति ८८, अप्पाबहुगाणुगम ७८, आवाधाकंडय ३७१, अणभागविहत्ती १८,
१७६, ३५३, ४२२,
आलाव अणंताणुबंधि १०८,२१८,
आलावपरूवणा २३३, २१९,३७४,४१७,४३०, अवट्ठाण ४४२, इगिवीस संतकम्मिअ २३४, अणंताणुबधिविसंजोयणा
अवविद ३९०, ३९७, उक्कस्सविहत्ती ८८, ४१७, ४२१, अवट्टिदपद ४१७, उच्चारणसलागा३०३,३१० अणंताणबंधिचउक्कअवत्तव्व . ७. १५,
उत्तरपयडिविहत्ति ८०. विसंजोयणाकाल ४१८, , अवहारकाल ३७१,
उदअ
२३४, अत्थपद अविभक्ति
उदयट्ठाण १९९, १ यहां ऐसे शब्दोंका ही संग्रह किया है जिनके विषयमें ग्रंथमें कुछ कहा है या जो संग्रहकी दष्टिसे आवश्यक समझे गये। चौदह मार्गणाओं या उनके अवान्तर भेदोंके नाम अनुयोग द्वारोंमें पुन: पुन: आये हैं अत: उनका यहां संग्रह नहीं किया है। जिस पृष्ठपर जिस शब्दका लक्षण, परिभाषा या व्युत्पत्ति पाई जाती है उस पृष्ठके अंकको बड़े टाईपमें दिया है।
इ
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________________
जयघवलासहिदे कषायपाहुडे
बंध बंधग
३०७,
८८,
उदयावलि उदीरणा
२३४, उवक्कमण ३७१, ३७३, उवक्कमणकाल ३७०,
३७३, ३७५ उबड्डपोग्गलपरियट्ट २.८,
३६१, उववाद पद उवसमसम्मादिट्टि ४१७, उवसमसम्मत्तकाल ४१८, उन्वेल्लणकाल २५४,३७०,
उब्वेल्लणा ४२१, ए एगेग उत्तरपयडिविहत्ती८०
ओ ओदइअ अं अंतर (करण) २३४,
२५३, ३९०, अंतराइअ २१, अंतराणुगम ४४,७४,
१२३, १७३, ३४४, ३९७,४१९, ४४९,
४७५, क कदकरणिज्ज २१४,२१५,
४३०, कम्मविहत्ती ५, १६, करण २५३, ३९१, कालाणिओगद्दार ३८७, कालाणगम २७,७१,९९,
१७१, २३३, ३३५,
___ ४१४,४४२, कालविहत्ती किट्टीकरणद्धा ३५४,३६३, किट्टीवेदयकाल ३५३,
३५९, ३६२, ख खेत
खेत्तविहत्ती खेत्ताणुगम ५३, १६३,
३२४, ४०८, ४६३, ग गाहासुत्रा गोद
२१, गोवच्छ
२५३, च चउवीसविहत्तिय २१८,
८१,
ट्ठाणसमुक्कीत्तणा २०१, । परिमाणाणुगम ४९, १५७, ट्रिदियंतिम
३१९, ४०४,४६१, दिदिविहत्ती
पवाइज्जमाण ४१८, टीका
पंजिया
१४ णवकबंध २३५, २३७, पाहुडगंथ १७४, २४३, पुच्छासुत्त
२१० णाणाजीवेहि भंगविचया- फ फद्दय २३६, २३८, णुगम ४४,१४४,२९३, फोसणाणुगम ६०, १६५, ४०२,४५६,
३२६, ४०९, णाणावरणिज्ज नामकम्म २२,
१९९, णामविहत्ती
बंधट्ठाण
१९९, जिवखेव
बंधावलिय २४३, णिस्संतकम्मिय
बादरकिट्रि २३५, णो आगम
बीजपद णो आगमभाव
१२
भयणिज्जपद २९३ णो आगमविहत्ती
भवियविहत्ती णोकम्मविहत्ती
भागाभागाणुगम ४७, जोसम्वविहत्ति
१५१, ३१६, ४०६, त तालपलंबसुत्त
४०९, तिस्थयर
२११,
भावविहत्ती १०, दवट्ठियणय
भावाणुगम ७७, १७५, दव्वविहत्ती ५, १६,
४२२,४७९, दंसणमोहणीयवखवण २१३, भुजगार ३८४,३८८, दसणावरणिज्ज
म मज्झिमपद देसघादि
२३३,
मणस्स २१२, २१, देसामासिय ८,२१४,
महाबंध ध धुव २४, ८९,
मंदबुद्धिजण धुवपद
२९५, मारणंतिय
२९४, मिच्छाइट्टी २१८, पज्जवट्ठियणय ८१, मुलपयडिविहत्ती २२, पद
मोहणिज्ज
२१, पणिक्खेव ४२५, मोहणीय
२०, पदेसविहत्ती १८,
ल लिहिदुच्चारण ३९७
१४, पट्ठवणकाल
व वक्खाण पढमसम्मत्ताहिमुह ३९७,
वड्रिविहत्ती
४३७, पत्थारसलागा ३००,३०३,
ववत्थापद पत्थारालाव
वित्तिसुत्त पमाणपद
विमात्रप्रदेश पयडिविहत्ती १७, २०,
विसंजोअअ २१८, पयडिट्ठाण उत्तरपयडि
विसंजोयणा
२१६, विहती
८०,
विसंजोयणापक्ख ४१८, पयडिट्राण १९४,
विहत्ति
४, २१, पयडिट्राणविहत्ति २००,
विहासा २०१,
वेदग परत्याणप्पाबहुगाणुगम ।
वेयणीय
स सण्णियास १३०, परमगुरुवएस १०८, । सम्मत्तुम्वेल्लण ४५२,
धुवभंग
le
HD
३६८,
४१७,
१४
२१०,
चरिमफालि २३५.२५३, चारित्तमोहणीयक्खवण
२१३, २३३, चारित्तमोहणीय २१९, ज जाणुअसरीरविहत्ती ५, भ झीणाझीण २,१८, ट टुवण विहत्ती
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परिसिहाणि
सम्मामिच्छाइट्टि २१८, ।
२१९, समुक्कीत्तणा २३, ८३,
३८४,४२५,
४३१,४३७, सव्वघादिबंध २३३, सव्वविहत्ति ८८, सम्घसंकम २३५, २५३,
संकमणावलिय संगहणय संगहकिट्टि संजुत्त संठाण संठाणवियप्प संठाणविहत्ती संतट्ठाण
२४३, ]
८१, ३५९, १०१,
सादिस २४,८९, सामित्तं ४२६, ४२९, सामित्ताणुगम २७, ९१,
३८६, ४३९, सिद्धसमय ३६०, ३६२, सुत्ताणुसारि ४१७, ४१८, सुहुमकिट्टि
२३५,
APRIL
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________________ भारतवर्षीय दिगम्बर जैन संघ के प्रकाशन १-कसायपाहुड (श्री जयधवलजी)-हिन्दी अनुवाद सहित भाग 1, पुस्तकाकार 10) शास्त्राकार 12) २-मोक्षमार्गप्रकाश-पं० टोडरमल विरचित मोक्षमार्गप्रकाशका आधुनिक हिन्दी में रूपान्तर, विस्तृत प्रस्तावना और अनेक परिशिष्टों से भूषित संस्करण ३-जैनधर्म-जैनधर्म के आचार, विचार, इतिहास, साहित्य आदि का परिचय प्राप्त करने के लिये सर्वोत्तम ग्रन्थ, प्रेसमें ४-वराङ्गचरित्र-सुन्दर पौराणिक उपाख्यान ५-भाषापूजा सहित संस्कृतपूजा संग्रह ( सार्थ ) ६-हरिषेण कथाकोश-प्राचीन जैन कथाओं का सुन्दर संग्रह ७-रामचरित-श्रीरामचन्द्रजी का रोचक चरित प्राप्ति स्थानमैनेजर भा० दि० जैन संघ चौरासी, मथुरा Fo a l Use Only