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________________ जवलासहिदे कसा पाहुडे. [ पयडिविहत्ती २ बे-आवलियाओ दुसमऊणाओ । अवट्टि० ओघभंगो । एवमोरालिय० कायजो० । ज० णत्थि अंतरं । अप्प० जह० दो आवलियाओ दु-समऊणाओ, उक० पार्लदोवमस्स असंखे० भागो । अवट्ठि० ओघभगो । आहार - आहारमिस्स० अवट्ठि० णत्थि अतरं । एवमकसा० - सुहुम० - जहाक्रवाद ० - सासण० सम्मामि ० - अभव्वसि० वत्तव्वं । वेउव्विय० भुज० अप्प० जहण्णुक्क० णत्थि अंतरं । अवद्वि० जह० एयसमओ, उक्क० बेसमया । ४४१. वेदाणुवादेण इत्थि पुरिस० भुज० अप्प० जह० अंतोमुहुतं, उक्क० सहिदी देखणा । अवद्वि ओघभगो । अवगद ० अप्प० जहण्णुक्क० अंतोमु०, अवद्वि० जहण्णुक्क० एगसमओ । चत्तारि कसाय भुज० णत्थि अंतरं । अप्प० जह० दुसमऊणदोआवलिय०, उक्क० अंतोमु० । अवद्विद० ओघभंगो । आमिणि० - सुद० - ओहि ० पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी जीवों में भुजगारका अन्तर नहीं पाया जाता है । अल्पतरका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल दो समय कम दो आवली प्रमाण है । तथा अवस्थितका अन्तरकाल ओघके समान है । इसीप्रकार औदारिककाययोगमें जानना चाहिये । यहां भी भुजगारका अन्तरकाल नहीं पाया जाता है । अल्पतरका जघन्य अन्तरकाल दो समय कम दो आवली और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । तथा अवस्थितका अन्तरकाल ओघके समान है । आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोगमें अवस्थितका अन्तरकाल नहीं पाया जाता है । इसीप्रकार अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिक संयत, यथाख्यात संयत, सासादन सम्यग्दृष्टि सम्यग्मिथ्यादृष्टि, और अभव्य जीवों में कहना चाहिये । वैक्रियिक काययोगमें भुजगार और अल्पतरका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल नहीं पाया जाता है । तथा अवस्थितका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल दो समय है । $ ४४१. वेदमार्गणा अनुवादसे स्त्रीवेद और पुरुषवेद में भुजगार और अल्पतरका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है । तथा अवस्थितका अन्तरकाल ओघके समान है । अपगदवेद में अल्पतरका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है तथा अवस्थितका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है । ४०० 3 चारों कषायोंमें भुजगारका अन्तरकाल नहीं पाया जाता है । अल्पतरका जघन्य अन्तरकाल दो समय कम दो आवली और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । तथा अवस्थितका अन्तरकाल ओघके समान है । मतिज्ञान श्रुतज्ञान और अवधिज्ञानमें अल्पतरका अन्तरकाल दो समय कम दो आवली और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक छयासठ सागर है । तथा अवस्थितका अन्तर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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