SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 424
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० २२] भुजगारविहत्तीए अंतरं एवं मणुसअपज०। अणुद्दिसादि जाव सव्वट्ठसिद्धी एइंदिय-बादरएइंदिय-तेसिं पज. अपज-सुहुम०-तेसिं पज० अपज्ज०-सव्वविगलिंदिय-पचिं० अपज्ज-पंचकाय०-सेप्ति बादर०-तेसिं पज० अपज०-सव्वसुहुम-तसअपज-ओरालिवमिस्स-वेउब्धियमिस्स-कम्मइय-मदि-सुद-अण्णाण-विहंग-मिच्छादि० असण्णि-अणाहारित्ति वत्तव्वं । णवरि एइंदिय-बादर-सुहुम०-पंचकाय० बादर-सुहुम-मदि-सुद -अण्णाण-विहंग०मिच्छादि० असण्णीसु अप्पदर० जहण्णुक्क० पलिदो० असंखे० भागो । ६४४०. देवेसु भुज० अप्प० जह० अंतोमुहत्तं, उक्क० एक्कसीससागरोवमाणि देसूणाणि । अवट्टि ओघमंगो। भवणादि जाव उवरिम-गेवज त्ति भुज० अप्प० जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० सगसगुक्कस्सद्विदीओ देसूणाओ। अवट्टि० जहण्णुक० ओघमंगो। पंचिंदिय-पंचिं० पज०-तस-तसपज्ज. भुज. जह• अंतोमुहुत्तं, अप्पदर० जह० दोआवलियाओ दु-समऊणाओ। उक्क० दोण्हं पि सगुक्कस्साहिदी देसूणा । अवढि० ओघभंगो। पंचमण-पंचवचि० भुज० णत्थि अंतरं । अप्पद • जहण्णुक. तथा अवस्थितका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है। इसीप्रकार लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य, अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव, एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सभी प्रकारके विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, पांचों प्रकारके स्थावरकाय, पांचों प्रकारके बादर स्थावरकाय और उनके पर्याप्त अपर्याप्त, सभी प्रकारके सूक्ष्म, त्रस लब्ध्यपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिये। इतनी विशेषता है कि बादर और सूक्ष्म एकेन्द्रिय, बादर और सूक्ष्म पांचों स्थावरकाय, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंमें अल्पतरका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। ६४४०. देवोंमें भुजगार और अल्पतरका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम इकतीस सागर है । तथा अवस्थितका अन्तरकाल ओघके समान है। भवनवासियोंसे लेकर उपरिम अवेयक तक प्रत्येक स्थानमें भुजगार और अल्पतरका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। तथा अवस्थितका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल ओघके समान है। पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस और त्रसपर्याप्त जीवोंमें भुजगारका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । अल्पतरका जघन्य अन्तरकाल दो समय कम दो आवली है । तथा भुजगार और अल्पतर इन दोनोंका ही उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। तथा अवस्थितका अन्तरकाल ओघके समान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy