SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 423
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमेकदरमुव्वेलिय अप्पदरेणंतरिय विदियसमए सम्मत्तं घेत्तम उव्वेखिदपयडिसंतमुप्पाइय भुजगारेणंतरिय तदियसमए अवट्ठाणे पदिदस्स उकस्सेण बेसमया अवडिदस्स अंतरं। ४३६. आदेसेण णेरइय० भुज० अप्पद० जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० तेत्तीससागरोवमाणि देसूणाणि । अवहि. जह• एगसमओ, उक्क० बे-समया । कारणमेस्थ वि उवरिं पि पुग्विल्लमेव वत्तव्वं । पढमादि जाव सत्तमि ति भुज० अप्प० जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० सग-सगुक्कस्साहिदीओ देसूणाओ। अवटि० जह० एगसमओ, उक्क० बेसमया। पंचिंदियतिरिक्खतिगे भुज० अप्प० जह० अंतोमु०, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि पुन्वकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि । अवहि० ओघभंगो । एवं मणुसतियस्स वत्तव्वं । णवरि मणुस-मणुसपज्जत्तएसु अप्प. जह० दोआवलियाओ दु-समयणाओ। पंचिंदियतिरिक्खअपज० अप्पदरस्स णत्थि अंतरं । अवहि० जह० उक्क० एगसमओ। सम्यक्त्वके सम्मुख हुआ जीव जब सम्यक्प्रकृति और सम्यगमिथ्यात्वप्रकृति इन दोमेंसे किसी एक प्रकृतिकी उद्वेलना करके मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिके अन्तिम समयमें अल्पतर पदके द्वारा अवस्थित पदको अन्तरित करता है । तथा दूसरे समयमें प्रथमोपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करके उद्वेलित प्रकृतिकी सत्ताको पुनः उत्पन्न करके भुजगार पदके द्वारा अवस्थित पदको अन्तरित करता है और तीसरे समयमें पुनः अवस्थानपदको प्राप्त करता है तब उसके अवस्थितपदका उत्कृष्टरूपसे दो समय प्रमाण अन्तरकाल देखा जाता है। ४३१. आदेशनिर्देशकी अपेक्षा नारकियोंमें भुजगार और अल्पतरका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरप्रमाण है। तथा अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। यहां पर भी अवस्थितके उत्कृष्ट अन्तरकाल दो समय होनेका कारण पहलेके समान कहना चाहिये । पहले नरकसे लेकर सातवें नरक तक प्रत्येक नरकमें भुजगार और अल्पतरका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछकम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। तथा अवस्थितका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल दो समय है। पंचेन्द्रिय तिथंच, पंचेन्द्रिय पर्याप्ततियंच और पंचेन्द्रिय योनिमती तिर्यचोमें भुजगार और अल्पतरका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक तीन पल्यप्रमाण है। तथा अवस्थितका अन्तरकाल ओघके समान है। इसीप्रकार सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और स्त्रीवेदी मनुष्योंके भुजगार आदिका अन्तरकाल कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि सामान्य मनुष्य और पर्याप्त मनुष्यों में अल्पतरका जघन्य अन्तरकाल दो समय कम दो आवली प्रमाण है। पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक तियंचोंमें अल्पतरका अन्तरकाल नहीं पाया जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy