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________________ गो० २२ भुजगारविहत्तीए अंतरं अणाहारि० कम्मइयभंगो। एवमेगजीवेण कालो समत्तो। * एवं सव्वाणि अणिओगद्दाराणि णेदव्वाणि । ६४३७. सुगमत्तादो। एवं जइवसहाइरिएण सूइदाणं सेसाणिओगद्दाराणं मंदबुद्धिजणाणुग्गहढं उच्चारणाइरिएण लिहिदुच्चारणमेत्थ वत्तइस्सामो। ६४३८. अंतराणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण भुज० विह० अंतरं के० १ जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० अद्धपोग्गलपरियह देसूणं । अप्पदर० जह• दो आवलियाओ दुसमयूणाओ, उक्क० अद्धपोग्गलपरियट्ट देसूणं । अवडि० जह० एयसमओ, उक० बेसमया । एवमचक्खु० भवसिद्धि० वत्तव्वं । एवं तिरिक्खा० णस० असंजद० । णवरि अप्पदरस्स जहण्णंतरं दुसमयूण-दोआवलियमेतं णत्थि किंतु अंतोमुहुत्तमेत्तं । कथमवहिदस्स उकस्संतरं दुसमयमेत्तं? उच्चदे-पढमसम्मत्ताहिमुहेण दंसणमोहस्स कयंतरेण अवट्ठिदपदावहिदेण मिच्छत्तपढमहिदिचरिमसमए है। अनाहारक जीवों में कार्मणकाययोगियोंके समान जानना चाहिये। इसप्रकार एक जीवकी अपेक्षा काल समाप्त हुआ। * इसीप्रकार शेष अनुयोगद्वारोंका कथन कर लेना चाहिये । ३ ४३७. चूँकि शेष अनुयोगद्वारोंका कथन सरल है, अतएव यतिवृषभ आचार्यने यहां उनका कथन नहीं किया। इसप्रकार यतिवृषभ आचार्यने उपर्युक्तसूत्रके द्वारा जिन शेष अनुयोगद्वारोंकी यहां सूचना की है, उच्चारणाचार्यके द्वारा लिखी गई उन अनुयोगद्वारोंकी उच्चारणाको मन्दबुद्धि जनोंके अनुग्रहके लिये यहां बतलाते हैं ४३८. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है, ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघनिर्देशकी अपेक्षा भुजगारविभक्तिका अन्तर कितना है ? जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है। अबस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। इसीप्रकार अचक्षुदर्शनी और भव्य जीवोंके भुजगार आदि विभक्तियोंका अन्तर कहना चाहिये । इसीप्रकार सामान्य तिथंच, नपुंसकवेदी और असंयत जीवोंके कहना चाहिये। यहां इतनी विशेषता है कि इन जीवोंके अल्पतरका जघन्य अन्तर काल दो समय कम दो बावली नहीं है किन्तु अन्तर्मुहूर्त है। शंका-अवस्थितका उत्कृष्ट अन्तरकाल दो समय कैसे है ? समाधान-जिसने दर्शनमोहनीयका अन्तरकरण किया है और जो मोहनीयकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सचारूपसे अवस्थितपदमें स्थित है ऐसा कोई एक प्रथमोपशम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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