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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे । पयडिविहत्ती ३ असंजद० भुज० अप्प० जहण्णुक्क० एगसमओ। अवहिद० मदि-अण्णाणीभंगो । ६४३६. चक्खु० तसपज्जत्तभंगो। पंचलेस्सा० भुज० अप्प० णारयभंगो। अवहि० जह० एयसमओ, उक्क० तेत्तीस सत्तारस सत्त बे अट्ठारस सागरोवमाणि सादिरेयाणि । सुक्कले० भुज० अप्प० ओघभंगो। अवहि० जह• एयसमओ, उक्क० तेत्तीससागरो० सादिरेयाणि । एवं खइय० । णवरि० भुज० णत्थि । अव४ि० जह० दुसमयूण दोआवलि० । वेदग० आभिणिभंगो। णवरि अप्प० जहण्णुक्क० एगसमओ । अवहि० जह० अंतोमु०, उक्क० छावहिसागरोवमाणि देसूणाणि । अभव० अवडि० अणादिअपञ्जवसिदं । सासण. अवहि० जह० एगसमओ, उक्क० छआवलियाओ। सण्णि. भुज० अप्पदर० ओघभंगो। अवष्टि० पुरिसभंगो। असण्णि० एइंदियभंगो। आहारि० भुज० अप्प० ओघभंगो । अवहि. जह एगसमओ, उक्क० अंगुलस्स असंखे० भागो। अवस्थितका जघन्यकाल दो समय कम दो आवलीप्रमाण है। असंयतोंमें भुजगार और अल्पतरका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है। तथा अवस्थितका काल मत्यज्ञानी जीवोंके समान है। ६४३६. चक्षुदर्शनी जीवोंमें भुजगार आदिका काल त्रस पर्याप्त जीवोंके समान है। कृष्ण आदि पांच लेश्याओंमें भुजगार और अल्पतरका काल नारकियोंके समान है । तथा अवस्थितका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल क्रमसे साधिक तेतीस सागर, साधिक सत्रह सागर, साधिक सात सागर, साधिक दो सागर और साधिक अठारह सागरप्रमाण है। शुक्ललेश्यामें भुजगार और अल्पतरका काल ओघके समान है। तथा अवस्थितका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागरप्रमाण है। इसीप्रकार क्षायिकसम्यग्दृष्टियों में कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि क्षायिकसम्यगदृष्टियों में भुजगार विभक्तिस्थान नहीं पाया जाता है । तथा अवस्थितका जघन्य काल दो समय कम दो आवलीप्रमाण है। वेदकसम्यग्दृष्टियों में अल्पतर आदिका काल मतिज्ञानियोंके समान है । इतनी विशेषता है कि वेदकसम्यग्दृष्टियोके अल्पतरका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। तथा अवस्थितका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम छयासठ सागर प्रमाण है। अभव्योंमें अवस्थितका काल अनादि-अनन्त है। सासादनसम्यग्दृष्टियोंमें अवस्थितका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल छह आवलीमात्र है। संज्ञी जीवोंमें भुजगार और अल्पतरका काल ओघके समान है। तथा अवस्थितका काल पुरुषवेदियोंके समान है। असंज्ञी जीवोंमें एकेन्द्रियोंके समान जानना चाहिये। आहारक जीवोंमें भुजगार और अल्पतरका काल ओघके समान है। तथा अवस्थितका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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