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________________ जयघवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ अवहाणं च दोवि सरिसाणि संखेजगुणाणि ८। एवं मणुसतिय-पंचिंदिय-पंचिं० पञ्ज०तस-तसपज०-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालि०-तिण्णिवेद-चत्तारि क.चक्खु०-अचक्खु०-सुक्क०-भवसि०-सण्णि-आहारीणं वत्तव्यं । ४८३. आदेसेण णिरयगईए णेरईएसु उक्क० बड्ढी-हाणी-अवष्टाणाणि तिण्णि वि तुलाणि ४। एवं सव्वणिरय-तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्ख-पांचं०तिरि० पज-पंचिं०-- तिरि जोणिणी-देव-भवणादि जाव उवरिमगेवज०-वेउब्धिय-असंजद-पंचले०वत्तव्वं । पंचिंतिरिक्खअपज० उक्कस्सिया हाणी अवहाणं च दोवि सरिसाणि | १ | १ । एवं मणुसअपज०-अणुद्दिसादि जाव सव्वह०-सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचिदियअपज०-पंचकाय० -तसअपज्ज ०-ओरालियमिस्स-वेउब्बियमिस्स ०-कम्मइय०- अवउनमें से ओधकी अपेक्षा उत्कृष्ट वृद्धि सबसे थोड़ी है, जिसका प्रमाण चार है। उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान ये दोनों समान होते हुए भी उत्कृष्ट वृद्धिकी अपेक्षा संख्यातगुणे • हैं। जिनमें प्रत्येकका प्रमाण आठ है। इसीप्रकार सामान्य, पर्याप्त और स्त्रीवेदी इन तीन प्रकारके मनुष्योंके तथा पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, स, जसपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, तीनों वेदवाले, चारों कषायवाले, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवों के कहना चाहिये। विशेषार्थ-यह ऊपर ही बता आये हैं कि उत्कृष्ट वृद्धि चार प्रकृतियोंकी और उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट हानि संबन्धी अवस्थान आठ प्रकृतियोंका होता है, इसीलिये यहां पर प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट वृद्धि सबसे थोड़ी और उत्कृष्ट हानि तथा उत्कृष्ट अवस्थान उत्कृष्ट वृद्धिसे संख्यातगुणा बताया है। यहां संख्यातका प्रमाण दो है, क्योंकि चारको दोसे गुणा करनेपर आठ होते हैं। ६४८३. आदेशकी अपेक्षा नरकगतिमें नारकियोंमें उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान ये तीनों ही समान हैं, जिनका प्रमाण चार है । इसीप्रकार सभी नारकी, सामान्य तियंच, पंचेन्द्रिय तिथंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तियंच योनिमती, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर उपरिम अवेयक तकके देव, वैफियिककाययोगी, असंयत और कृष्णादि पांचों लेश्यावाले जीवोंके कहना चाहिये ।। विशेषार्थ-ऊपर जितनी मार्गणाएं गिनाईं हैं उनमें अधिकसे अधिक चार प्रकृतियों की वृद्धि, चार प्रकृतियोंकी हानि और अवस्थान होता है, इसलिये यहां तीनोंको समान वताते हुए उनका प्रमाण चार कहा है। ___ पंचेन्द्रिय तियंच लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंमें उत्कृष्ट हानि और अवस्थान ये दोनों समान हैं, जिनमें प्रत्येकका प्रमाण एक है । इसीप्रकार लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य, अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देव, सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, लब्ध्यपर्याप्तक पंचेन्द्रिय, पांचों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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