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________________ गा० २२ पदणिक्खेवे अप्पाबहुश्र असण्णीणं वत्तव्यं । ६४८१. अणुद्दिसादि जाव सव्वदृत्ति जहाण्णया हाणी कस्स ? जो वावीससंतकाम्मओ तेण सम्मत्ते खविंदे तस्स जह० हाणी। तस्सेव से काले जहण्णमवट्ठाणं । एवमवगद-आमिणि-सुद०-ओहि० -मणपज० -संजद० -सामाइय-छेदो०-परिहार०. संजदासंजदल-ओहिदंस०-सम्मादि०-खइयवेदय० दिट्ठीणं वत्तव्यं । ओरालियमिस्स० जहणिया हाणी कस्स ? जो अहावीससंतकम्मिओ अण्णदरो तेण सम्मत्ते उध्वेलिदे जहणिया हाणी। तस्सेव से काले जहण्णमवहाणं । एवं वेउब्वियामिस्स-कम्मइय०अणाहारीणं वत्तव्यं । आहार-आहारमिस्स०-अकसा०-सुहुम०-जहाक्खाद०-अभवि०. उवसम -सासण-सम्मामि० जहण्णवड्ढी-हाणि-अवट्ठाणाणि णत्थि । एवं सामित्तं समत्तं । ६४८२. अप्पाबहुअं दुविहं जहण्णमुक्कस्सं च । उक्कस्सए पयदं । दुविहो णिदेसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सव्वत्थोवा उक्कस्सिया वड्ढी ४। उक्कस्सिया हाणी ज्ञानी, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान कहना चाहिये। $४०१. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थ सिद्धि तकके देवोंमें जघन्य हानि किसके होती है? बाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जीव जब सम्यक्प्रकृतिका क्षय करता है तब उसके जघन्य हानि होती है। तथा उसी देवके तदनन्तर समयमें जघन्य अवस्थान होता है। इसी प्रकार अपगतवेदी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान कहना चाहिये। औदारिक मिश्रकाययोगियोंमें जघन्य हानि किसके होती है ? अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जो कोई एक औदारिकमिश्रकाययोगी जीव जब सम्यक्प्रकृतिकी उद्वेलना करता है तब उसके जघन्य हानि होती है और तदनन्तर समयमें उसीके जघन्य अवस्थान होता है। इसीप्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिये। आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, अभव्य, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान ये तीनों ही नहीं पाये जाते हैं। इसप्रकार स्वामित्वानुयोगद्वार समाप्त हुआ । $ ४८२. अल्पबहुत्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उनमेंसे पहले उत्कृष्ट अल्पबहुत्वका प्रकरण प्राप्त है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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