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________________ गा० २२ ] पयडिविहत्ती ४०. गाहासुत्तम्मि समुछिसु अहियारेसु पयडिविहत्तिं भणिस्सामो। एदेण गुणहराइरियमणिदपण्णारसअत्थाहियारे मोत्तूण सगसंकप्पियअत्थाहियाराणां चुण्णिसुत्तं भणामि त्ति उत्तं होदि । ण च एवं भणंतो जइवसहो गुणहराइरियपडिकूलो अत्थाहियाराणमणियमदरिसणवारेण गुणहराइरियमुहविणिग्गयअत्थाहियाराण चेव परूवयत्तादो। ४०. गाथासूत्रमें कहे गये छह अर्थाधिकारोंमेंसे पहले प्रकृतिविभक्ति नामक अर्थाधिकारका कथन करते हैं । इससे यतिवृषभ आचार्यने यह सूचित किया है कि मैं गुणधर आचार्यके द्वारा कहे गये पन्द्रह अर्थाधिकारोंको छोड़कर स्वयं अपने द्वारा माने गये अर्थाधिकारोंके अनुसार चूर्णिसूत्र कहता हूँ। यदि कहा जाय कि अपने द्वारा माने गये अर्थाधिकारोंके अनुसार चूर्णिसूत्रोंका कथन करनेसे यतिवृषभ आचार्य गुणधर आचार्य के प्रतिकूल हैं सो ऐसा नहीं समझना चाहिये, क्योंकि यतिवृषभ आचार्यने अर्थाधिकारोंका अनियम दिखलाते हुए गुणधर आचार्यके मुखसे निकले हुए अर्थाधिकारोंका ही प्रतिपादन किया है। विशेषार्थ-पगदीए मोहणिज्जा' इत्यादि गाथामें स्वयं गुणधर आचार्यने प्रकृतिविभक्ति, स्थितिविभक्ति, अनुभागविभक्ति, प्रदेशविभक्ति, झीणाझीण और स्थित्यन्तिक इन छह अधिकारोंका निर्देश किया है। इससे इतना तो मालूम पड़ ही जाता है कि इन्हें इन छहोंका कथन इष्ट है पर उनके अभिप्रायानुसार उनका समावेश दो या तीन अधिकारोंमें हो जाता है। यद्यपि यतिवृषभ आचार्यने उक्त छहों अधिकारोंका स्वतन्त्ररूपसे कथन किया है, जिससे अधिकारोंकी संख्याका ही भंग हो जाता है फिर भी उनका ऐसा करना गुणधर आचार्यके कथनके प्रतिकूल नहीं है क्योंकि स्वयं गुणधर आचार्यने जिन विषयोंका संकेत किया है उन्हींका यतिवृषभ आचार्यने स्वतन्त्र अधिकारों द्वारा विस्तारसे कथन किया है। तात्पर्य यह है कि गुणधर आचार्यने 'पगदीए मोहणिज्जा' इत्यादि गाथामें प्रकृतिविभक्ति, स्थितिविभक्ति और अनुभागविभक्ति इन तीनोंको मिलाकर एक अधिकार सूचित किया है। तथा प्रदेशविभक्ति, झीणाझीण और स्थित्यन्तिक इन तीनोंको मिलाकर दूसरा अधिकार सूचित किया है, पर यतिवृषभ आचार्यने इन प्रकृतिविभक्ति आदिका कथन पृथक् पृथक् किया है जो उनके 'तत्थ पयडिविहत्तिं वण्णइस्सामो' इत्यादि चूर्णिसूत्रोंसे जाना जाता है। इस प्रकार यद्यपि यतिवृषभ आचार्यने दो अधिकारोंको छह अधिकारों में बांट दिया है फिर भी उन्होंने उन्हीं विषयोंका कथन किया है जिनका समावेश उक्त दो अधिकारोंमें किया गया है। इस प्रकार यद्यपि अधिकारोंकी संख्याका भंग हो जाता है फिर भी उनका यह कथन गुणधर आचार्य द्वारा कहे गये विषयके प्रतिकूल नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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