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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [ पयडिविहत्ती २ विहत्तियकालो संखेजगुणो। लोमतदियवादरकिट्टीवेदयकालो एकिस्से विहात्तिए कालभंतरे किण्ण गहिदो ? ण, तिस्से सगसरूवेण उदयाभावेण वेदयकालाभावादो। अट्ठसमयाहियछम्मामभंतरे जेण अह चेव सिद्धसमया होति तेण समयूण-दोआवलियमेत्तकालभंतरे संखेज्जावलियासु च अहसमयसंचओ सव्वो लब्भइ त्ति जीव-अप्पाबहुअसाहण्ठं परूविदकाल-अप्पाबहुअंणिरत्थयमिदि ? होदि णिरत्थयं जदि अहसमयाहियछम्मासम्भंतरे चेव अहसिद्धसमया होति ति णियमो, किंतु अंतोमुहुत्त-दियसपक्ख-मासभंतरे वि अट्ठसिद्धसमया वि होंति, सत्त-छ-पंच-चत्तारि-ति-दु-एक्कसिद्धसमया वि होति अणियमेग तेण कालपडिभागेणेव संचओ त्ति काल-अप्पाबहुअंण काल पांच विभक्तिस्थानके कालसे संख्यातगुणा है। शंका-लोभकी तीसरी बादरकृष्टिका वेदककाल एक विभक्तिस्थानके कालमें सम्मिलित क्यों नहीं किया गया है ? समाधान-नहीं, क्योंकि लोभकी तीसरी बादरकृष्टिका स्वस्वरूपसे उदय नहीं होता है, अतः उसका वेदककाल नहीं पाया जाता । तात्पर्य यह है कि लोभकी तीसरी बादर कृष्टि सूक्ष्म कृष्टिरूपसे परिणत हो जाती है जिसका उदय सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानमें होता है। अतः लोभकी तीसरी बादरकृष्टिका अलगसे वेदककाल नहीं बतलाया है । . शंका-चंकि आठ समय और छह महीना कालमें केवल आठ ही सिद्ध समय होते हैं अतः आठ सिद्ध समयों में होनेवाला जीवोंका समस्त संचय एक समय कम दो आवलि कालके भीतर तथा संख्यात आवली कालके भीतर प्राप्त हो जाता है, इसलिये जीवविषयक अल्पबहुत्वकी सिद्धिके लिये जो कालविषयक अल्पबद्दुत्व कहा है वह निरर्थक है । इस शंका का यह तात्पर्य है कि छह माह और आठ समयोंमें जो आठ सिद्ध समय होते हैं वे लगातार होनेके कारण पांच विभक्तिस्थानके एक समय कम दो आवलिप्रमाण काल में तथा अन्य एक आदि विभक्तिस्थानोंके संख्यात आवलिप्रमाण कालमें भी एक साथ प्राप्त हो जाते हैं। अतः विभक्तिस्थानके कालविषयक अल्पबहुत्वकी अपेक्षा जो जीवोंका अल्पबहुत्व कहा है वह नहीं बनता है। समाधान-यदि आठ समय अधिक छह महीना कालके भीतर ही लगातार आठ सिद्धसमय होते हैं ऐसा नियम होता तो जीवविषयक अल्पबहुत्वकी सिद्धि के लिये कहा गया काल विषयक अल्पबहुत्व निरर्थक होता, किन्तु एक अन्तर्मुहूर्त, एक दिन, एक पक्ष, और एक महीनाके भीतर भी अनियमसे आठ सिद्ध समय भी प्राप्त होते हैं और सात छह, पांच, चार, तीन, दो और एक सिद्ध समय भी प्राप्त होते हैं । अतः कालके प्रतिभागसे ही जीवोंका संचय होता है ऐसा मानना चाहिये और इसलिये कालविषयक अल्पबहुत्व निरर्थक नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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