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________________ गी० २३] उत्तरपयडिविहत्तीए समुक्त्तिणाणुगमो ६ १०१. समुकित्तणा दुविहा ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सम्मत्त-मिच्छत्तसम्मामिच्छत्त-अणंताणुबंधिकोहमाणमायालोह-अपञ्चवखाणावरणकोहमाणमायालोहपञ्चक्खाणावरणकोहमाणमायालोह-संजलणकोहमाणमायालोह-इस्थि-पुरिस-णqसयवेदहस्स-रह-अरइ-सोग-भय-दुगुंछा चेदि एदासिमहावीसण्हं मोहपयडीणमत्थि विहत्तिया च अविहत्तिया च । एवं मणुसतिय-पंचिंदिय-पंचिंदियपजत्त-तस-तसपज्जत -पंचमणपंचवचि०-कायजोगि-ओरालिय०-ओरालियमिस्स-कम्मइय-आभिणिवोहिय०-सुद० ओहिल-मणपजव०-संजद०-चक्खु०-अचक्खु०-ओहिदसण-सुक्कलेस्सिय-भवसिद्धियसम्मादिहि-सण्णि]-आहारि०-अणाहारि त्ति वत्तव्वं । ६१०२. आदेसेण णिरयगदीए णेरइएसु मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-अणंताणुबंधिचउक्क० अस्थि विहत्ति० अविहत्ति०, सेसाणं पयडीणं अस्थि विहत्तिः । एवं नुगम और अल्पबहुत्वानुगम । $१०१.ओघसमुत्कीर्तना और आदेशसमुत्कीर्तना इस प्रकार समुत्कीर्तना अनुयोगद्वार दो प्रकारका है। इनमेंसे ओघकी अपेक्षा सम्यक्त्व, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानाघरण क्रोध, मान, माया, लोभ, संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ; स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा मोहकी इन अट्ठाईस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले जीव हैं। इसी प्रकार मनुष्यत्रिक अर्थात् सामान्य पर्याप्त और मनुष्यिणी ये तीन प्रकारके मनुष्य तथा पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रसकायिक, त्रसकायिक पर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, सामान्य काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, चक्षुदर्शनी, अंचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, संज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिये। विशेषार्थ-मार्गणास्थानोंकी विवक्षा न करके सामान्यसे जीवोंके मोहनीयकी सभी प्रकृतियोंका पाया जाना और नहीं पाया जाना संभव है अतः इस प्ररूपणाको ओघप्ररूपणा कहा है । तथा ओघप्ररूपणाके अनन्तर मनुष्यत्रिकसे लेकर अनाहारक जीवों तक जो मार्गणास्थान बतलाये हैं उनके भी मोहकी समस्त प्रकृतियोंका सद्भाव और अभाव संभव है। अतः उनकी प्ररूपणाको ओघके समान कहा है। ६१०२. आदेशकी अपेक्षा नरकगतिमें नारकियोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिध्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले जीव हैं। तथा इन सात प्रकृतियोंके अतिरिक्त शेष इक्कीस प्रकृतियोंके विभक्तिवाले ही जीव हैं। इसी प्रकार (१) ण. . . . . (७०) आहा-स० । ण आहा-प्र०, मा० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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