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________________ १८ जयघवलासहित कषायप्रामृत जघन्यविभक्ति अजमन्य विभक्तिका कथन ८९ | प्रकृतिस्थान विभक्तिके अनुयोग द्वार २०० सादि अनादि ध्रुव और अध्रुवानुगमका मोहनीयके १५ सत्व स्थानोंका कथन कथन ८९-९० इन सत्व स्थानोंकी प्रकृतियोंका कथन स्वामित्वानुगमका कथन २०२-२०४ ओघसे ९१-९२ चौदह मार्गणाओंमें स्थान समुत्कीर्तन २०५आदेशसे , ९२-९८ २०८ कालानुगमका कथन ९९-१२३ उच्चारणाचार्यके द्वारा कहे अनुयोगद्वारों ओघसे . . " ९९-१०० का कथन २०९ आदेशसे १०१-१२३ सादि अनादि ध्रुव और अध्रुवानुगमका अन्तरानुगमका कथन १२३-१३० कथन २०९-२१० ओघसे १२३-१२४ यतिवृषभके द्वारा स्वामित्वानुगमका आदेशसे ,. १२४-१३० कथन २१०-२२१ सन्निकर्षका कथन १३०-१४४ एक प्रकृतिक स्थानका स्वामी कौन है? २१० ओघसे , १३०-१३२ यह प्रश्न गौतम स्वामीने महावीर भगवानसे आदेशसे १३३-१४४ किया था २११ नानाजीवोंकी अपेक्षा भंगविचया चूर्णिसूत्रमें आये 'मनुष्य' शब्दसे पुरुषबेदी और नुगम १४४-१५० नपुंसकवेदी मनुष्योंका ग्रहण करनेका कथन २१२ भागाभागानुगमका कथन १५१-१५७ पांच प्रकृतिक स्थान मनुष्योंके हो होता ओघसे है मनुष्यिणीके नहीं, इसका कथन आदेशसे १५२-१५७ इक्कीस प्रकृतिक स्थानका स्वामी परिमाणानुगमका कथन १५७-१६३ बाईस प्रकृतिक , क्षेत्रानुगमका कथन १६३-१६४ बाईस प्रकृतिक स्थानके स्वामीके विषयमें स्पर्शनानुगमका कथन १६५-१७१ शंका समाधान २१४ ओघसे १६५-१६६ कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टिके विषयमें आचार्य । आदेशसे १६६-१७१ यतिवृषभके दो उपदेशोंका कथन २१५ नानाजीवोंकी अपेक्षा कालानुगम १७१-१७२ उच्चारणा चार्यके उपदेशानुसार कृतकृत्य , अन्तरानुगम १७३-१७४ वेदकके मरण न करनेका कथन भावानुगमका कथन १७५-१७६ तेईस प्रकृतिक स्थानका स्वामी २१७ अस्पबहुत्वानुगमका कथन १७६-१९८ चौवीस प्रकृतिक स्थानका स्वामी २१८ स्वस्थान अल्पबहुत्व ओघसे १७६ विसंयोजना कौन करता है ? १७७-१७९ विसयोजनाका लक्षण २१९ परस्थान अल्पबहुत्व ओघसे - १७९-१८२ विसंयोजना और क्षपणामें अन्तर आदेशसे १८२-१९८ छव्वीस प्रकृतिक स्थानका स्वामी २२१ प्रकृतिस्थान उत्तरप्रकृतिविभक्ति । सत्ताईस १९९-३८३ अट्ठाईस प्रकृतिस्थान शब्दका अर्थ उच्चारणाचार्यके उपदेशानुसार आदेशमें प्रकृतिस्थानके तीन भेद स्वामित्वका कथन २२२-२३२ उनमें से यहां सत्त्व प्रकृति स्थानोंके ही कालानुगमका कथन २३३-२८० ग्रहण करनेका कथन , एक विभक्तिस्थानका जघन्यकाल २३३ " , आदेशसे " " मा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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