SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 313
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८८ अयपवलासहिदे कसायपाहुडे. [पयडिविहत्ती २ असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना कर देता है उसके २६ विभक्तिस्थानका जघन्य अन्तर काल पल्यके असंख्यात भाग प्रमाण प्राप्त होता है । तथा जो २४ विभक्तिस्थानवाला नारकी मिथ्यात्वमें जाकर और अति लघु कालके द्वारा पुनः सम्यग्दृष्टि होकर अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना कर देता है उसके २४ विभक्तिस्थानका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है। तथा इन सब विभक्तिस्थानों का उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । जो निम्न प्रकार है-कोई एक जीव अट्ठाईस विभक्तिस्थानके साथ तेतीस सागरकी अ युवाला नारकी हुआ । अनन्तर पर्याप्त होनेके पश्चात् वेदकसम्यग्दृष्टि होकर उसने अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना कर दी और जीवन भर २४ विभक्ति स्थानके साथ रहा । अन्तमें अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहने पर वह मिथ्यादृष्टि होगया और इस प्रकार २- विभक्तिस्थानको प्राप्त कर लिया तो उसके २८ विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट अन्तर काल प्रारम्भके और अन्तके दो अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कालको छोड़कर तेतीस सागर प्रमाण पाया जाता है। कोई एक २७ विभक्तिस्थान वाला जीव नरकमें उत्पन्न हुआ और अन्तर्मुहूर्त कालके पश्चात् उसने उपशम सम्यक्त्व पूर्वक वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त कर लिया और जब आयुमें पल्यका असंख्यातवां भागप्रमाण काल शेष रहा तब मिथ्यात्वमें जाकर उसने सम्यक्त्वप्रकृति की उद्वेलनाका प्रारम्भ किया । तथा आयुमें एक समय शेष रहनेपर वह २७ विभक्तिस्थानवाला होगया तो उसके अन्तर्मुहूर्त कालको छोड़कर शेष ३३ सागर काल २७ विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट अन्तरकाल होता है। इसी प्रकार २६ विभक्तिस्थानका अन्तर काल कहना चाहिये । विशेषता इतनी है कि प्रारम्भमें २६ विभक्तिस्थानसे उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करावे तथा पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके शेष रहनेपर सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करावे । कोई एक जीव ३३ सागरकी आयुके साथ नरकमें उत्पन्न हुआ और अन्त. मुहूर्त कालमें वेदक सम्यदृष्टि होकर उसने अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करदी। पश्चात् अन्तर्मुहूर्त कालके बाद वह मिथ्यात्वमें गया और जीवन भर मिथ्यादृष्टि बना रहा। किन्तु अन्तमें अन्तर्मुहूर्त कालके शेष रहनेपर पुन: वह उपशम सम्यक्त्व पूर्वक वेदक सम्यग्दृष्टि होगया और अनन्तानुबन्धी चतुककी विसंयोजना करदी, तब जाकर उसके प्रारम्भके और अन्त के कुछ अन्तर्मुहूर्त कालोंको छोड़कर शेष तेतीस सागर काल २४ विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट अन्तर काल होता है। किन्तु ऐसे जीवको मरते समय अन्तर्मुहूर्त पहले पुनः मिथ्यात्वमें ले जाना चाहिये । तथा नरकमें २२ और २१ विभक्ति. स्थान होते हैं पर उनका अन्तर काल नहीं पाया जाता । प्रथमादि नरकमें भी इसी प्रकार अन्तरका कथन करना चाहिये किन्तु उत्कृष्ट अन्तरका कथन करते समय कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण कहना चाहिये । तथा आगेकी मार्गणाओंमें भी जहां जिन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy