SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 312
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० २२ पपडिष्ठाणविहीए अंतरं २८७ किण्ण बुञ्चदे ? ण, तम्मि चुण्णिसुत्समाणे भण्णमाणे पुणरुत्तदोसप्पसंगादो। ३१६. आदेसेण णिस्यमईए परईएस अठावीस-सत्तावीस-छब्बीस-चउवीसवि० जह० एगसमओ, पलिदो० असंखे०भागो, अंतोमुहुतं । उक० सम्बेसि तेत्तीससागरो० देखणाणि । वावीस-एकवीसवि० णत्थि अंदरं । पढमाए पुढवीए अट्ठावीस-सत्तावीसछवीस-चउवीसविह० जह० एगसमओ, पलिदो० असंखे० भागो, अंतोमुहुत्तं । उक्क. सगहिदी देसूणा। बावीस०-एकवीसविह० णत्थि अंतरं । विदियादि जाव सत्तमित्ति अदावीस-सत्तावीस-छव्वीस-चउवीसविह० जह० एगस०, पलिदो० असंखे० भागो, अंतोमु । उक्क० सगसमद्विदी देखणा । - समाधान-नहीं, क्योंकि चूर्णिसूत्रके समान होनेसे उसका पुनः कथन करने पर पुनरुक्क दोषका प्रसंग प्राप्त होता है, अतः उच्चारणाका आश्रय लेकर ओघ अन्तरकालको नहीं कहा। ___६३१९.आदेशकी अपेक्षा नरकगतिमें नारकियों में अट्ठाईस प्रकृतिकस्थानका जघन्य अन्तर एक समय, सत्ताईस और छम्बीस प्रतिकस्थानका जघन्य अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण तथा चौबीस प्रकृतिकस्थानका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। उक्त तीनों प्रकृतिस्थानोंका उत्कृष्ट अन्तर देशोन तेतीस सागर है। बाईस और इक्कीस प्रकृतिकस्थानोंका अन्तर नहीं होता है। पहली पृथिवीमें अट्ठाईस प्रकृतिकस्थानका जघन्य अन्तर एक समय सत्ताईस और छब्बीस प्रकृतिकस्थानका जघन्य अन्तर पल्यके असख्यातवें भाग तथा चौबीस प्रकृतिकस्थानका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । उक्त तीनों स्थानोंका उत्कृष्ट अन्तर देशोन अपनी स्थितिप्रमाण है । बाईस और इक्कीस प्रकृतिस्थानका अन्तर नहीं है। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं तक प्रत्येक नरकमें अट्ठाईस प्रकृतिकस्थानका जघन्य अन्तर एक समय, सत्ताईस और छब्बीस प्रकृतिकस्थानका जघन्य अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भाग तथा चौबीस प्रकृतिकस्थानका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । तथा उक्त तीनों स्थानोंका उत्कृष्ट अन्तर देशोन अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। विशेषार्थ-जो नारकी सम्यकृत्वप्रकृतिकी उद्वेलना करनेके परचात् एक समय वाद उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त होता है उसके २८ विभक्तिस्थानका जघन्य अन्तर एक समय पाया जाता है। जो २७ विभक्तिस्थानवाला नारकी उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करके अति लघु अन्तर्मुहूर्त कालमें मिथ्यात्वमें जाता है और वहां पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा सम्यक्त्वप्रकृतिकी उद्वेलना करता है उसके २७ विभक्तिस्थानका जघन्य अन्तर पल्यको असंख्यातवें भाग. प्रमाण प्राप्त होता है। जो २६ विभक्तिस्थानवाजा नारकी उपशमसम्यक्त्वको प्राप्तकरके अति लघु अन्तर्मुहूर्त कालमें मिथ्यात्वमें जाता है और वहां पल्यके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy