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________________ गा० २२] पयडिहाणविहत्तीए अंतरं १३२०.तिरिक्समदीए तिरिक्खेसु अष्ठावीस-सत्तावीस-चउवीसविह० ओषभंगो । बीसबिह० जह० पलिदो० असंखे० भामो, उक्क० तिष्णि पलिदो० सादिरेयाणि । बावीस-एकवीसविह० णत्थि अंतरं । पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्वपचर-पंचिं० विरि जोगिणीसु अहावीस-सत्तावीस-छव्वीस-चउवीसविह जह• एमसमओ, पलिदो० असंखे० भागो, अंतोमुहुत्तं । उक्क० तिणि पलिदोवमाणि पुन्चकोडिपुषत्तेणब्भहियाणि । वावीस-एकवीसविह० माथि अंतरं । पवरि, जोणिमी० वावीस-इगिवीस पत्थि । पंचिंदियतिरिक्खअपञ्जत. सव्वपदाणं पत्थि अंतरं । एवं मणुसअपज०. अणुद्दिसादि जाव सबढ़०-सव्यएइंदिय-सबक्गिलिंदिय-पंचिंदियअपजत्त-सक पंचकाय-तसअपज०-ओरालियमिस्स०-वेउब्वियमिस्स०-आहार-आहारमिस्स -कम्म इय-अवगदवेद-अकसायि०-सव्वणाणि केवलक्ज-सव्वसंजम असंजदवज-ओहिदंसकअभवसिद्धि०-सव्वसम्मादिहि-असण्णि-अमाहारि त्ति वत्तव्यं । विभक्तिस्थानोंका अन्तर सम्भव है वहां इसी प्रकार विचार कर उसका कथन करना चाहिये । किन्तु उत्कृष्ट अन्तरका कथन करते समय उस उस मार्गणाकी उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा ही उसका कथन करना जाहिये। ६३२०.तिर्यचगतिमें तिर्यंचोंमें अट्ठाईस, सत्ताईस और चौबीस प्रकृतिकस्थानका अन्तर ओघके समान है । तथा छब्बीस प्रकृतिकस्थानका जघन्य अन्तर पल्यकें असंख्याये भागप्रमाण और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्प है। बाईस और इक्कीस प्रकृतिक स्थानका अन्तर नहीं है। पंचेन्द्रियतिथंच, पंचेन्द्रियतिथंच पर्याप्त और पंचेन्द्रियतियच योनिमती जीवोंमें अट्ठाईस प्रकृतिक स्थानका जघन्य अन्तर एक समय, सत्ताईस और छब्बीस प्रकृतिक स्थानका जघन्य अन्तर पल्यका असंख्यातवां भाग और चौबीस प्रकृतिक स्थानका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । तथा उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य है। बाइस और इक्कीस प्रकृतिकस्थानका अन्तर नहीं है। इतनी विशेषता है कि पंचेन्द्रियतियच योनिमती जीवोंमें बाईस और इक्कीस प्रकृतिक स्थान नहीं पाया जाता है। पंचे. न्द्रियतियच लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंमें संभव सभी पदोंका अन्तरकाल नहीं होता है । इसीप्रकार लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य, अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि सकके देव, सभी प्रकारके एकेन्द्रिय, सभी प्रकारके विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, सभी प्रकारके पांच स्थावरकायिक जीष, त्रस अपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, केवलज्ञानको छोड़ कर शेष समस्त ज्ञानवाले, असंयतोंको छोड़कर सभी संयमवाले, अवधिदर्शनी, अभव्य, सभी प्रकारके सम्यग्दृष्टि, असंही और अनाहारक जीवोंके कथन करना चाहिये । अर्थात् इन जीवोंके किसी भी स्थानका अन्तरकाल नहीं पाया जाता है। - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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