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________________ वड्ढिविहत्तीए फोसणाणुगमो १६७ अवढि० लोग० संखे० भागो सव्वलोगो वा । मणुसतिय ० संखेज्जभागहाणि-अवहि. के० खे० फो० ? लोग० असंखे० भागो सव्वलोगो वा । सेसप० के० खेचं फो०१ लोग० असंखे० भागो। ६५२१. देवेसु संखेज्जभागवड्ढी० के० खे० फो० १ लोग असंखे० भागो अट्ट चोदस० देसूणा । संखेज्जभागहाणी-अवष्टि० के० खे० फो० १ लोग० असंखे. भागो, अट्ठ णव चोद्दस० देसूणा । एवं सोहम्मीसाणेसु । भवण-वाण-जोइसि. संखेज्जभागवड्ढी० देवोघं । णवरि अद्भुह-अ चोद्दस० । संखेज्जभागहाणि-अवहि. अद्भुट्ट-अ णव चोदसभागा वा देसूणा । सणक्कुमारादि जाव सहस्सारे त्ति सव्वपदा० अह चोदस० देसूणा । आणदपाणदआरणच्चुद० सव्वपदा० छ चोदसभागा वा देसूणा । उवरि खेत्तभंगो। ___सामान्य, पर्याप्त और स्त्रीवेदी इन तीन प्रकारके मनुष्योंमें संख्यातभागहानि और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा शेष विभक्तिस्थानवाले उक तीन प्रकारके मनुष्योंने कितने क्षेत्रका स्पर्थ किया है ? लोकके असंख्यातवेंभाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। $५२१. देवोंमें संख्यातभागवृद्धिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्याभूभाग और असनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। संख्यातभागहानि और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले देवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और प्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ माग भौर नौ भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसीप्रकार सौधर्म और ऐशान स्वर्गके देवोंमें उत्त पदोंकी अपेक्षा स्पर्श कहना चाहिये । भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें संख्यातभागवृद्धि पदकी अपेक्षा स्पर्श सामान्य देवोंके संख्यातभागवृद्धिपदकी अपेक्षा कहे गये स्पर्शके समान है । इतनी विशेषता है कि यहां पर असनालीके चौदह भागों में से कुछ कम साढ़े तीन भाग और आठ भाग स्पर्श कहना चाहिये । संख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिस्थानवाले उक्त भवनवासी आदि देवोंने त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम साढ़े तीन, आठ और नौ भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार तकके देवोंमें वहां संभव सभी पदवाले जीवोंने असनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। आनत, प्राणत, आरण और अच्युत स्वर्गके देवोंमें यहां संभव सभी पदवाले जीवोंने त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसके ऊपर नौवेयक आदिमें स्पर्श क्षेत्रके समान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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