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________________ 11704 गा० २२ ] मूलपयडिविहत्तीए परिमाणो अपज्जत्त-सुहुम०पज्जत अपज्जत्त-णqसयवेद-चत्तारि कसाय-मदि-सुद अण्णाणि-असंजद-तिण्णिलेस्सा-अभवसिद्धिय-मिच्छाइष्ठि-असण्णित्ति वत्तव्वं । ६७३. मणुसगईए मणुस्सेसु विहत्ति० केवडि० ? असंखेज्जा। अविहत्ति०संखेज्जा। एवं पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्त-तस-तसपज्जत्त-पंचमण०-पंचवचि०-आभिणि-सुद ओहि०-चक्खुदंसण-ओहिदसण-सुक्कले० सणि त्ति वत्तव्वं । मणुसपज्ज-मणुसिणीसु विहत्ति० अविहत्ति० केवडि० ? संखेज्जा । एवं मणपज्जव०-संजदा० वत्तव्यं । ६७४ सव्वदेवेसु विहत्ति० केवडि० ? संखेज्जा (एवमाहार०-आहारमिस्स०सामाइय-छेदोवडावण-परिहारविसुद्धि-सुहुमसांपराइयसंजदाणं वत्तव्यं । बादरनिगोद तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म निगोद तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त, नपुंसकवेदी, क्रोध, मान, माया और लोभ कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके कहना चाहिये। विशेषार्थ-तिर्यंचोंका प्रमाण अनन्त होते हुए भी वे सबके सब मोहनीय कर्मसे युक्त होते हैं । इसीप्रकार ऊपर और जितने मार्गणास्थान गिनाये हैं वे सब अनन्तराशि प्रमाण हैं और मोहनीय कर्मसे युक्त हैं। अतः उनका कथन तिर्यंचोंके समान कहा है। ६७३. मनुष्यगतिमें मनुष्योंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। तथा मोहनीय अविभक्तिवाले जीव संख्यात हैं। इसीप्रकार पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त,त्रस, त्रसपर्याप्त,पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले और संज्ञी जीवोंको कथन करना चाहिये। विशेषार्थ-सामान्य मनुष्योंका प्रमाण असंख्यात है उनमें असंख्यातें जीव मोहनीय कर्मसे युक्त हैं और संख्यात क्षीणमोहनीय जीव मोहनीय कर्मसे रहित हैं। ऊपर जो और मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमेंसे प्रत्येकमें भी इसीप्रकार जानना चाहिये । पर्याप्त मनुष्य और मनुध्यिणियोंमें मोहनीय विभक्तिवाले और मोहनीय अविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। इसीप्रकार मनःपर्ययज्ञानी और संयतोंके कथन करना चाहिये। विशेषार्थ-पर्याप्त मनुष्य, मनुष्यणी, मनःपर्यय ज्ञानी और संयत जीवोंका प्रमाण संख्यात है। इसमें संख्यात बहुभाग प्रमाण जीव मोहनीय कर्मसे युक्त हैं और संख्यात एक भागप्रमाण जीव मोहनीय कर्मसे रहित हैं। ७४. सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। इसीप्रकार आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, और सूक्ष्मसांपराय संयतोंके कथन करना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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