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________________ ४४६ trader हिदे कसा पाहुडे [ पयडिविहत्ती २ अवट्ठा • जहण्णुक्क० अंतोमु० । एवमुवसम० सम्मामि । कम्मइय० संखेज्जभागहाणि० जह०णुक० एगसमओ । अवट्ठा० जह० एगसमओ, उक्क० तिष्णि समया । ९ ४६४• इस्थि० संखेज्जभागवढी हाणि० जहण्णुक्क० एगसमओ । अवद्वा० जह० एगसमओ, उक्क० सगुक्कस्सद्विदी । एवं वंस वत्तव्वं । पुरिस० संखेज्जभागवढी हाणि संखेज्जगुणहाणि • जहण्णुक० एगसमओ । अवट्ठा० जह० एगसमओ, उक्क० सकसहिदी | अवगद० संखेज्जभागहाणी - संखेजगुणहाणी • जहण्णुक्क० एगसमओ । अवट्ठा० जह० एगसमओ उक्क० अंतोनुडुतं । चत्तारिकसाय० मणजोगिभंगो | ६४६५. मदि- सुदअण्णाण ० संखे० भागहाणि ० जहण्णुक्क० एगसमओ । अवहा ओघभंगो । एवं मिच्छादिही ० । विहंग ० संखेज्जभागहाणी० जहण्णुक्क० एयसमओ । जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसीप्रकार उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टिजीवोंके कहना चाहिये । कार्मणकाय योगी जीवोंके संख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । तथा अवस्थानका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय है । विशेषार्थ - एक जीव एकेन्द्रिय पर्यायमें अनन्तकाल तक रह सकता है और वहां एक काययोग ही होता है अतः काययोगमें अवस्थानका उत्कृष्ट काल अनन्त कहा है । तथा औदारिककाययोगका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त कम बाईस हजार वर्ष है । अतः औदारिककाययोगमें अवस्थानका उत्कृष्टकाल कुछ कम बाईस हजार वर्ष कहा है । S ४६४. स्त्रीवेदी जीवोंके संख्यातभागवृद्धि और संख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है । तथा अवस्थानका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । इसीप्रकार नपुंसकवेदी जीवोंके कहना चाहिये । पुरुषवेदी जीवोंके संख्यातभागवृद्धि, संख्यात भागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । तथा अवस्थानका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । अपगतवेदियों में संख्यात भागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । तथा अवस्थानका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । चारों कषायवाले जीवोंके संख्यात भागवृद्धि आदिका काल जिसप्रकार मनोयोगियोंके कहा है उसप्रकार जानना चाहिये । $ ४९५ मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंके संख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । तथा अवस्थानका काल ओघके समान है। इसीप्रकार मिध्यादृष्टि जीवोंके कहना चाहिये । विभङ्गज्ञानी जीवोंके संख्यात भागद्दानिका जघन्य और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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