SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 472
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० २२] बढिविहत्तीए कालो अवटा० जह० एगसमओ, उक्क० तेत्तीस-सागरोवमाणि देसूणाणि । आभिणि-सुद०ओहि० संखेज्जभागहाणि-संखे गुणहाणि ओघमंगो। अवट्ठा० जह० अंतोमुहुतं, उक्क० छावष्टि सागरोवमाणि सादिरेयाणि । एवमोहिदंस०-सम्मादिष्टी० । मणपज्ज. संखे० भागहाणि-संखे० गुणहाणि. जहण्णुक० एगसमओ। अवहा० जह• अंतो. मुहुतं, उक्क० पुवकोडी देखणा।। ४६६. संजद० संवे० भागहाणि-संखे० गुणहाणी० ओघमंगो। अवठा मणपञ्जव० भंगो । एवं सामाइयच्छेदो० । णवरि अवट्ठा० जह० एगसमओ। परिहार० संखे भागहाणि० जहण्णुक्क० एयसमओ। अवहा० जह• अंतोमुहुत्तं, उक्क० पुव्वकोडी देसूणा । एवं संजदासंजद० । असंजद० मदि० मंगो। णवरि संखेजभागवड्ढी० जहण्णुक० एगसमओ। चक्खु० तसपजत्तभंगो। ६४६७. पंचले० संखे० भागवड्ढी-हाणी० जहण्णुक० एगसमओ । अवहा० उत्कृष्टकाल एक समय है। तथा अवस्थानका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है। ____ मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंके संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका काल ओघके समान है। तथा अवस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ सागर है। इसीप्रकार अवधिदर्शनी और सम्यग्दृष्टि जीवोंके कहना चाहिये। मनःपर्ययज्ञानी जीवोंके संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। तथा अवस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है। ६४१६. संयत जीवोंके संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका काल ओघके समान है। तथा अवस्थानका काल मनःपर्ययज्ञानियोंके अवस्थानके कालके समान है। इसीप्रकार सामायिकसंयत और छेदोपस्थानसंयत जीवोंके कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके अवस्थानका जघन्यकाल एक समय है। परिहारविशुद्धि संयत जीवोंके संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। तथा अवस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है। इसीप्रकार संयतासंयत जीवोंके कहना चाहिये। असंयत जीवोंके संख्यातभागवृद्धि आदिका काल जिसप्रकार मत्यज्ञानी जीवोंके कहा है उसप्रकार जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके संख्यातभागवृद्धि भी होती है, जिसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। चक्षुदर्शनी जीवोंके संख्यातभागवृद्धि आदिका काल जिसप्रकार सपर्याप्त जीवोंके कहा है उसप्रकार जानना चाहिये। १४६७. कृष्ण आदि पांचों लेश्यावाले जीवोंके संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभाग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy