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________________ . गा० २२ ] वढविती का जह० उक० एगसमओ । अवट्टा० जह० एगसमओ, उक्क० सगसगुक्कसहिदी । पंचिदिय० पंचि ० पज्ज०-तस०- तसपज्ज • संखेज्जभागवड्ढीहाणीसंखेज्जगुणहाणी • ओघमंगो । अट्ठा० के० ? जह० एगसमओ, उक्क० सगट्टिदी। पंचमण ० पंचवचि०संखेज्जभागवद्दीहाणी- संखेज्जगुणहाणि • ओघभंगो । अवट्ठा० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । ४६३. कायजोगि० संखेज्जभागवड्ढीहाणी- संखेज्जगुणहाणी० ओघभंगो । अवट्ठा० जह० एयसमओ, उक्क० अणंतकालमसंखेज्जपोग्गल परियहं । एवमोरालि० । वरि० अवट्ठा० जह० एगसमओ, उक्क० वावीसवास सहस्त्राणि देखणाणि । वेउब्विय० रगभंगो | णवर अवडा० उक्क० अंतोमु० । आहार० अवट्ठा० के० ? जह० एग समओ, उक्क० अंतोमुहुतं । एवमकसाय ० - सुहुम ०-जहाक्खाद० वतव्वं । आहारमि० पर्याप्त अपर्याप्त, सूक्ष्म पांचों स्थावर काय तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त भेदों में संख्या - भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । तथा अवस्थानका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । ४४५ पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस और त्रसपर्याप्त जीवोंमें संख्यात भागवृद्धि, संख्यातभागहानी और संख्यातगुणहानीका काल ओघके समान है। इन जीवोंमें अवस्थानका काल कितना है ? जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी जीवोंके संख्यातभागवृद्धि, संख्यात भागहानी और संख्यातगुणहानिका काल ओघके समान है । तथा अवस्थानका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । $ ४६३. काययोगी जीवोंके संख्यातभागवृद्धि, संख्यावभागहानि और संख्यातगुणानिक काल ओघके समान है । तथा अवस्थानका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अनन्त काल है जिसका प्रमाण असंख्यात पुद्गल परिवर्तन है । काययोगियोंके समान औदारिककाय योगी जीवोंके संख्यात भागवृद्धि आदिका काल कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि औदारिक काययोगी जीवोंके अवस्थानका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम बाईस हजार वर्ष है । वैक्रियिककाययोगीजीवोंके संख्यातभागवृद्धि आदिका काल जिसप्रकार नारकियोंके कहा है उसप्रकार जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके अवस्थानका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । आहारक काययोगी जीवोंके अवस्थानका काल कितना है ? इनके अवस्थानका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसीप्रकार अकषायी, सूक्ष्मसत्परायिकसंयत और यथाख्यातसंयत जीवोंके अवस्थानका काल कहना चाहिये । आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंके अवस्थानका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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