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________________ १३८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [पपडिविहत्ती २ सेसाणं णियमा विह० । एवं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं । अणंताणु कोध० जो विहत्तिओ सो सव्वपय० णियमा विह० । एवं तिण्हं कसायाण । अपञ्चकोध० जो विह० सो मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणु०चउकाणं सिया विह सिया अविह; सेसाणं पय० णियमा विह० । एवमेक्कारसकसाय-णवणोकसायाणं। ६१४७.वेदाणुवादेण इस्थिवेदएसुमिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-बारसकसायाणमोघभंगो। कोधसंजलणस्स जो विहत्तिओ सो मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-बारसकसाय-णवंस० सिया विहत्ति० सिया अविहत्ति०; तिण्णि संजलण-अकृणोकसाय० णियमा विह० । एवं तिण्हं संजलण-अकृणोकसायाणं । णqसयवेदस्स जो विहत्तिओ सो मिच्छत्तसम्मत्त-सम्मामि०-बारसकसाय० सिया विह० सिया अविह०, चत्तारिसंजलणअहणोकसाय० णियमा विहत्तिओ। एवं णवूस०, णवरि इत्थिवेद० णqसभंगो । प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला नियमसे है। इसीप्रकार सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा कथन करना चाहिये । जो अनन्तानुबन्धी क्रोधकी विभक्तिवाला है वह नियमसे सभी प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला है। अनन्तानुबन्धी क्रोधके समान अनन्तानुबन्धी मान आदि तीन कषायोंकी अपेक्षा भी कथन करना चाहिये । जो अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकी विभक्तिवाला है वह मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्ति वाला है भी और नहीं भी है। किन्तु वह शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला नियमसे है । अप्रत्याख्यानावरण क्रोधके समान शेष ग्यारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा कथन करना चाहिये। विशेषार्थ-आहारक काययोग और आहारकमिश्रकाययोग ये दोनों योग प्रमत्तसंयतके होते हैं। पर ऐसा जीव क्षायिकसम्यग्दर्शनका प्रस्थापक नहीं होता, अतः इसके २८,२४ और २१ ये तीन विभक्तिस्थान होते हैं। इसी अपेक्षासे ऊपरके सभी विकल्प घटित कर लेना चाहिये। ६१४७. वेदमार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदियों में मिथ्यात्व, सम्यकप्रकृति, सभ्यग्मिध्यात्व और बारह कषायोंकी अपेक्षा कथन ओघके समान है । जो क्रोध संज्वलनकी विभक्तिवाला है वह मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी क्रोध आदि बारहकषाय और नपुंसकवेदकी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है। किन्तु वह शेष तीन संज्वलन कषाय और आठ नोकषायोंकी विभक्तिवाला नियमसे है। इसीप्रकार तीन संज्वलन और आठ नोकषायोंकी अपेक्षा कथन करना चाहिये। जो नपुंसकवेदकी विभक्तिवाला है वह मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व और बारह कषायोंकी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है। किन्तु वह चारों संज्वलन और आठ नोकषायोंकी विभक्तिवाला नियमसे है। नपुंसकवेदी जीवोंके स्त्रीवेदी जीवोंके समान कथन करना चाहिये । इतनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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