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________________ गा० २२ उत्तरपयडिविहत्तीए सणिणयासो पुरिसवेदएसु मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-वारसकसाय०-णवणोकसाय० ओघभंगो। चदुसंजलण० ओघं । णवरि, पुरिसवेद०-चदुसंजलण० णियमा अस्थि । ६१४८. अगदवेदएसु मिच्छत्तस्स जो विहत्तिओ सो तेवीसण्हं पयडीणं णियमा विहतिओ। एवं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं । अपञ्चकोध० जो विहत्तिओ सो मिच्छत्तसम्मत्त-सम्मामि० सिया विह० सिया अविह०; एकारसकसाय-णवणोकसायाणं णियमा विहः । एवं सत्त-कसायाणं । कोधसंजलणस्स जो विहत्तिओ सो तिण्हं संजलणाणं णियमा विहत्तिओ: सेसाणं पयडीणं सिया विह० सिया अविह० । माणसंजलण. जो विहत्तिओ सो दोण्हं संजलणाणं णियमा विहत्तिओ सेसाणं पय० सिया विह० सिया अविह० । मायासंजल० जो विहत्ति० सो लोभसंजलण णियमा विह०; सेसाणं पयडीणं सिया विह० सिया अविह० । लोभसंजल० जो विहत्तिओ सो तेवीसण्हं पय० सिया विह० सिया अविह० । णत्थि ( इत्थि) वेदस्स जो विहत्तिओ विशेषता है कि स्त्रीवेदी जीवके नपुंसकवेदकी अपेक्षा सन्निकर्षका जैसा कथन किया है उसी प्रकार नपुंसकवेदी जीवके स्त्रीवेदकी अपेक्षा सन्निकर्षका कथन करना चाहिये । पुरुषवेदी जीवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी क्रोध आदि बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा कथन ओघके समान है। चार संज्वलन कषायोंका भी कथन ओषके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि उनमें पुरुषवेद और चार संज्वलन कषायोंकी विभक्ति नियमसे है। ६१४८.अपगतवेदी जीवोंमें जो मिथ्यात्वकी विभक्तिवाला है वह अनन्तानुबन्धी चतुष्कको छोड़कर शेष तेईस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला नियमसे है । इसीप्रकार सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिध्यात्वकी अपेक्षा कथन करना चाहिये । जो अप्रत्याख्यानाचरण क्रोधकी विभक्तिवाला है वह मिथ्यात्व सम्यक्प्रकृति और सम्यक्मिध्यात्वकी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है। किन्तु अप्रत्याख्यानावरण मान आदि ग्यारह कपाय और नौ नोकषायोंकी विभक्तिवाला नियमसे है । अप्रत्याख्यानावरण क्रोधके समान अप्रत्याख्यानावरण मान आदि सात कषायोंकी अपेक्षा भी कथन करना चाहिये । जो क्रोध संज्वलनकी विभक्तिवाला है वह मान आदि तीन संज्वलनोंकी विभक्तिवाला नियमसे है। किन्तु वह शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है । जो मान संज्वलनकी विभक्तिवाला है वह माया आदि दो संज्वलनोंकी विभक्तिवाला नियमसे है। किन्तु शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है। जो माया संज्वलनकी विभक्तिवाला है वह लोभ संज्वलनकी विभक्तिवाला नियमसे है। किन्तु शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है। जो लोभ संज्वलनकी विभक्तिवाला है वह तेईस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है। जो स्त्रीवेदकी विभक्तिवाला हैं वह मिथ्यात्व सम्यक्प्रकृति . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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